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“ब्रिन्...” न जाने कहाँ स्थित,
मैडम अंजू के इत्रों की खुशबू से महकती दुकान के चोर दरवाज़े से भागते हुए तुर्बीन
ने अंतिम बार सुना. घंटी बजी. कोई अभी दुकान में आया था. हो सकता है, वैसा ही, जैसा तुर्बीन
स्वयँ था, भटका हुआ, पिछड़ गया, अपना, और हो सकता है – अनजान लोग भी हों – पीछा करने वाले. किसी भी हाल में, दुकान में
वापस लौटना संभव नहीं था. एकदम फ़िज़ूल की हीरोगिरी.
फिसलन भरी सीढ़ियाँ तुर्बीन को बाहर आँगन में ले आईं. यहाँ उसने पूरी
स्पष्टता से सुना कि गोलीबारी की गड़गड़ाहट बिल्कुल पास ही से आ रही है, कहीं रास्ते
पर, जो चौड़ी ढलान से नीचे क्रिश्चातिक को जाता है, और मुश्किल से ही म्यूजियम के
पास. वह फ़ौरन समझ गया कि धुंधली दुकान में उदासी भरे विचारों पर उसने काफ़ी ज़्यादा
समय गँवा दिया था और ये कि मालिशेव बिल्कुल सही कह रहा था, कि उसे
शीघ्रता करनी चाहिए. दिल बेचैनी से धड़कने लगा.
अच्छी तरह निरीक्षण करने के बाद, तुर्बीन ने सुनिश्चित कर लिया कि घर का यह लंबा और अंतहीन ऊंचा पीला
डिब्बा, जिसने मैडम अंजू को आश्रय दिया है, एक विशाल आँगन तक गया है, और यह आँगन निचली दीवार तक फैला है, जो पड़ोस वाली रेलवे प्रशासन की संपत्ति को अलग करता है . तुर्बीन ने आंखें
सिकोड़ कर चारों तरफ देखा और खाली जगह को पार करते हुए सीधे इस दीवार की ओर चल पडा.
उसमें एक फ़ाटक था, तुर्बीन को आश्चर्य हुआ कि वह बंद नहीं था. इससे होकर वह सामने वाले
प्रशासन के गंदे आँगन में आ गया. प्रशासन के बेवकूफ छेद अप्रियता से देख रहे थे, और साफ़ महसूस
हो रहा था कि पूरा प्रशासन मृतप्राय हो चुका है. एक गूंजते हुए आर्क के नीचे से
होकर बिल्डिंग पार करके डॉक्टर सीमेंट के रास्ते पर आया. बिल्डिंग के सामने वाले
टॉवर की प्राचीन घड़ी में ठीक चार बजे थे. अन्धेरा होने लगा था. सड़क पूरी तरह खाली
थी. किसी आशंका से ग्रस्त होकर तुर्बीन ने उदासी से चारों ओर देखा, और ऊपर की
तरफ़ नहीं, बल्कि नीचे की ओर चला, जहाँ पानी से भरे स्क्वेअर में खडा था बर्फ से ढंका सुनहरा गेट. सिर्फ एक
पैदल चल रहा आदमी काला ओवरकोट पहने, चेहरे पर डर का भाव लिए तुर्बीन की तरफ़ भागता
हुआ आया और गायब हो गया. वैसे भी खाली सड़क भयानक प्रतीत होती है, और ऊपर से पेट
के गड्ढे में एक पीडादायक पूर्वाभास उसे परेशान किये जा रहा था. गुस्से से
त्यौरियां चढ़ाये, ताकि अनिर्णय की स्थिति को दूर कर सके – हर हाल में चलना तो होगा ही, हवा में उड़कर
तो घर नहीं पहुँच सकते, - तुर्बीन ने ओवरकोट का कॉलर ऊपर उठाया और आगे बढ़ा.
अब वह समझ गया कि उसे अंशतः कौन सी चीज़ परेशान कर रही थी – बंदूकों की अचानक
खामोशी. पिछले दो हफ़्तों से वे चारों तरफ़ गूँज रही थीं, मगर अब, आसमान में खामोशी छा गई थी. मगर शहर में, ठीक वहाँ, नीचे, क्रेश्चातिक पर, रुक रुक कर गोलीबारी हो रही थी. तुर्बीन को अब सुनहरे गेट से बाईं ओर गली
में मुड़ना था, और वहाँ, सेंट सोफिया कैथेड्रल के पिछवाड़े से चिपके-चिपके, गलियों से
होते हुए, चुपचाप अलेक्सेयेव्स्की ढलान पर अपने घर पहुँच जाता. अगर तुर्बीन ऐसा
करता, तो उसकी ज़िंदगी कुछ और ही होती, मगर तुर्बीन ने ऐसा नहीं किया. एक ऐसी शक्ति है, जो कभी-कभी पहाड़ों पर चट्टान से नीचे देखने पर मजबूर करती है...ठण्ड की ओर
खींचती है...चट्टान की ओर खींचती है. और वह म्यूज़ियम की तरफ़ खिंचा जा रहा था. हर
हाल में ये देखना ज़रूरी था, दूर से ही सही, कि उसके आसपास क्या हो रहा है. और, गली में मुड़ने के बदले, तुर्बीन दस कदम और चल गया और व्लादीमिर्स्काया स्ट्रीट पर निकला. यहाँ फ़ौरन
उसके भीतर खतरे की घंटी बजने लगी और मिश्लायेव्स्की की आवाज़ बड़ी स्पष्टता से
फुसफुसाई: “भाग!” तुर्बीन ने दाईं ओर सिर घुमाया और दूर, म्यूज़ियम तक नज़र दौडाई.
सफ़ेद किनारे का एक हिस्सा देख पाया, गुस्सैल गुम्बद, दूर से झलकती कुछ काली
आकृतियाँ...इसके अलावा कुछ और नहीं देख पाया.
उसके ठीक सामने, प्ररेज़्नाया ढलवां सड़क पर, बर्फीली धुंध से ढंके क्रेश्चातिक की तरफ़ से, सैनिकों के ओवरकोट पहने भूरे आदमी चढ़ रहे थे, सड़क की पूरी चौडाई में बिखर रहे थे. वे – मुश्किल से तीस कदम दूर थे. फ़ौरन
समझ में आ गया कि वे बड़ी देर से भाग रहे हैं, और दौड़ ने उन्हें थका दिया है. आंखों से नहीं, बल्कि दिल की किसी अस्पष्ट हरकत से तुर्बीन समझ गया कि ये पित्ल्यूरा के
लोग हैं.
“ग-या- काम से”, पेट के गड्ढे से मालिशेव की आवाज़ स्पष्ट रूप से बोली.
इसके बाद तुर्बीन की ज़िंदगी से कुछ पल फिसल गए, और उन पलों के दौरान क्या
हुआ, वह नहीं जानता था. उसने स्वयँ को कोने में खड़ा महसूस किया,
व्लादीमिर्स्काया स्ट्रीट पर, कन्धों में सिर छुपाए, अपने पैरों पर, जो उसे जल्दी-जल्दी प्ररेज़्नाया के नुक्कड़ पर ले जा रहे थे, जहाँ कन्फेक्शनरी
की दुकान “मार्केज़” है.
“च-लो, च-लो, च-लो, और...और...” कनपटियों में खून हथौड़े मार रहा था.
‘पीछे कुछ देर और सन्नाटा होता. काश, चाकू के फलक में बदल जाता या दीवार में घुस जाता. च-लो... मगर खामोशी भंग
हो गई – उसे तोड़ा पूरी तरह अपरिहार्य घटना ने.
“रुको!” तुर्बीन की ठंडी पीठ पर एक भर्राई आवाज़ चीखी.
“हो गया,” पेट के गड्ढे में कुछ टूटा.
“रुक जाओ!” आवाज़ ने गंभीरता से दुहराया.
तुर्बीन ने इधर-उधर देखा और फ़ौरन रुक भी गया, क्योंकि एक छोटा सा शरारत भरा ख़याल आया कि खुद को शांतिप्रिय नागरिक के रूप
में प्रस्तुत करे. जैसे, जा रहा हूँ, अपने काम से...मुझे अकेला छोड़ दीजिये...पीछा करने वाला कोई पंद्रह
कदम दूर था और उसने फ़ौरन अपनी बन्दूक उठाई. जैसे ही डॉक्टर मुड़ा, पीछा करने
वाले की आंखों में आश्चर्य फ़ैल गया, और डॉक्टर को ऐसा लगा कि ये तिरछी, मंगोल आँखें हैं. दूसरा कोने के पीछे से निकला और उसने शटर खींच लिया. पहले
वाले के चेहरे पर स्तब्धता का स्थान एक अबूझ, अशुभ आनंद ने ले लिया.
“फ्यू!” – वह चिल्लाया, “देख, पेट्रो: ऑफिसर.” उसके चेहरे का भाव ऐसा था, जैसे शिकारी ने अचानक रास्ते में खरगोश देख लिया हो.
‘क्या बा-त है? कैसे पता चला?’ तुर्बीन के दिमाग में जैसे हथौड़े बजने लगे.
दूसरे वाले की बन्दूक एक छोटे से काले छेद में बदल गई, जो छोटे
सिक्के से बड़ा नहीं था. तब तुर्बीन को महसूस हुआ कि वह स्वयँ व्लादीमिर्स्काया
स्ट्रीट पर किसी तीर में बदल गया है और उसके फेल्ट बूट उसे परेशान कर रहे हैं. ऊपर
से और पीछे, सनसनाते हुए, हवा में गोलियां चल रही थीं – च-चाख...
“ठहरो! ठ...पकड़ो!” खटखटाहट हुई. “पकड़ो ऑफिसर को!!” पूरी व्लादीमिर्स्काया
स्ट्रीट गरज उठी और हू-हू करने लगी. दो बार और हवा को चीरते हुए गरज हुई.
गोलियों की बौछार के बीच किसी आदमी का पीछा करना काफी होता है उसे होशियार भेड़िये
में परिवर्तित करने के लिए; बेहद कमजोर और सचमुच कठिन परिस्थितियों में अनावश्यक बुद्धि के स्थान पर होशियार
जानवर की प्रवृत्ति विकसित होती है. पीछा किये जाने के दौरान माला-प्रवाल्नाया के
नुक्कड़ पर अचानक भेड़िये की तरह मुड़कर तुर्बीन ने देखा कि पीछे वाला काला छेद आग का
गोला बन गया है, और, इन पाँच मिनटों में दूसरी
बार अपनी ज़िंदगी को तेज़ी से मोड़ते हुए, अपनी रफ़्तार बढ़ाकर वह माला-प्रवाल्नाया में
घुस गया.
सहज
प्रवृत्ति: लगातार और ज़िद से पीछा कर रहे हैं, पीछे नहीं रहेंगे,
पकड़ लेंगे, और
पकड़ने के बाद, निश्चित है - मार डालेंगे. मार डालेंगे, क्योंकि मैं भाग रहा था, जेब में एक भी डॉक्यूमेंट
नहीं,
रिवॉल्वर है, भूरा ओवरकोट है;
मार डालेंगे,
क्योंकि इस भागम-भाग में एक बार बच जाऊंगा, दूसरी बार बच जाऊंगा,
मगर तीसरी बार – टूट पड़ेंगे. ठीक तीसरी बार. यह तो प्राचीन काल से ज्ञात है...मतलब, ख़त्म; आधा मिनट और – और
फेल्ट के जूते मार डालेंगे. सब कुछ तय है, और अगर ऐसा है – भय सीधे पूरे शरीर से
और पैरों से उछलकर धरती में समा गया. मगर पैरों से होते हुए, बर्फीले पानी के रूप में
क्रोध वापस लौटा और भागते हुए उबलते पानी के रूप में मुँह से बाहर निकला. तुर्बीन
ने भागते हुए, बिल्कुल भेडिये की तरह तिरछी आंखों से देखा. दो भूरे, उनके पीछे तीसरा, व्लादीमिर्स्काया
के नुक्कड़ से उछलकर बाहर आये, और
तीनों के रिवॉल्वर एक साथ चमक उठे. तुर्बीन ने अपनी गति धीमी करके,दांत भींचते हुए, बिना निशाना साधे, तीन बार उन पर गोलियां
चला दीं. फिर से अपनी गति बढ़ा दी, अपने सामने ड्रेनपाईप के पास वाली दीवारों के
नीचे एक दुबली-पतली काली परछाई की धुंधली-सी झलक देखी, उसे अनुभव हुआ कि किसी ने
बाईं बगल के नीचे लकड़ी के चिमटे से उसे नोंच लिया हो, जिससे उसका शरीर अजीब तरह से
भागने लगा,
तिरछे, एक
किनारे से,
असमान. एक और बार मुड़ने के बाद,उसने, बिना जल्दबाजी किये, तीन गोलियां चलाईं और छठी
गोली पर खुद को रोक लिया:
“सातवीं
– अपने लिए. लाल बालों वाली एलेन्का,और निकोल्का. बेशक. यातनाएँ देंगे. शोल्डर स्ट्रैप्स काट कर निकाल देंगे.
सातवीं अपने लिए.”
तिरछे-तिरछे
चलते हुए,
उसने एक अजीब बात महसूस की: रिवॉल्वर दायें हाथ को खींच रही थी, मगर बायाँ हाथ मानो भारी
हो गया था. वैसे अब रुक जाना चाहिए. वैसे भी हवा नहीं है, आगे कुछ और नहीं हो सकता.
दुनिया की सबसे शानदार सड़क के मोड़ पर तुर्बीन किसी तरह लपका, मोड़ पर गायब हो गया, और उसने कुछ देर के लिए
राहत महसूस की. आगे कोई उम्मीद नहीं है : जाली पक्की बंद कर दी गई है, ये, सोसाइटी का भारी भरकम गेट
बंद है, ये, बंद है...उसे एक बेवकूफ
मज़ाकिया कहावत याद आ गई: “न हारो,
भाई,
हौसला, जब
तक न उतरो तल तक.”
और
तभी,
चमत्कार के एक पल में उसने देखा,
काली काई से ढंकी दीवार में, जो
बाग़ में वृक्षों की कतार को कस कर घेरे हुए थी. वह इस दीवार में आधी गिरी हुई थी
और,
जैसे किसी नाटक में होता है,
दोनों हाथ फैलाए,
बड़ी-बड़ी, दमकती, भयभीत आंखों से चिल्लाई:
ऑफिसर!
इधर! इधर....
तुर्बीन
कुछ फिसलते हुए फेल्ट बूटों में,
फटी-फटी और मुँह में भर गई गर्म हवा से सांस लेते हुए,धीरे धीरे बचाने वाले
हाथों की ओर भागा और उनके साथ लकड़ी की काली दीवार में बने गेट की पतली दरार में
गिर गया. और फ़ौरन सब कुछ बदल गया. काली पोषाक वाली महिला के हाथों के नीचे वाला
गेट दीवार से चिपक गया, और
ताला खट्ट से बंद हो गया.
महिला की आंखें तुर्बीन की आंखों के बिलकुल पास थीं. उसने इन आंखों में दृढ़ संकल्प
की,
ऊर्जा और कालेपन की धुंधली सी झलक देखी.
“इधर
भागिए. मेरे पीछे भागिए,”
महिला फुसफुसाई,
मुडी और ईंटों की संकरी पगडंडी पर भागने लगी. तुर्बीन बहुत धीरे-धीरे उसके पीछे
भागा. बाईं ओर सराय की दीवारें दिख जातीं, और महिला मुड़ गई. दाईं ओर एक सफ़ेद, परीकथाओं जैसा बहु-स्तरीय उद्यान था. निचली बागड़ ठीक नाक के सामने थी,
महिला दूसरे गेट में घुस गई. तुर्बीन, हांफते हुए, उसके पीछे भागा. उसने धडाम से गेट बंद किया, उसके पैर की झलक दिखाई दी, बहुत सुडौल, काली स्टॉकिंग में, स्कर्ट का घेर सरसरा रहा
था, और
महिला के पैर आसानी से उसे ईंटों की सीढ़ी पर ले चले. अपने तीक्ष्ण कानों से
तुर्बीन ने सुना कि वहाँ,
उनकी दौड़ के पीछे,
सड़क और पीछा करने वाले रह गये थे. ये...वो...अभी अभी मोड़ से कूदे हैं और उसे ढूंढ
रहे हैं. “काश,
बचा लेती...बचा लेती...” तुर्बीन ने सोचा, “मगर,
लगता है,
भाग नहीं पाऊंगा...मेरा दिल.” वह सीढ़ी के बिल्कुल अंत में अचानक बाएं घुटने और
बाएं हाथ पर गिर पडा. चारों ओर सब कुछ गोल-गोल घूम रहा था. महिला झुकी और उसने
दाईं बांह के नीचे तुर्बीन को पकड़ लिया...
“और...और
थोड़ा सा!” वह चिल्लाई; बाएं थरथराते हाथ से उसने तीसरा निचला गेट खोला, लड़खड़ाते तुर्बीन को हाथ
से खींचा और तरुमंडित रास्ते पर भागी. “ कैसी भूलभुलैया है...जैसे जानबूझ कर बनाई
गई हो,”
अस्पष्टता से तुर्बीन ने सोचा और उसने स्वयँ को सफ़ेद बाग़ में, मगर खतरनाक
प्रवाल्नाया स्ट्रीट से काफी दूर और ऊंचाई पर पाया. उसने महसूस किया कि महिला उसे
खींच रही है, कि
उसकी बाईं बाजू और हाथ बहुत गरम हैं, मगर पूरा शरीर ठंडा है, और
बर्फ जैसा ठंडा दिल मुश्किल से धड़क रहा है. “काश, बचा लेती,
मगर, ये
अंत आ गया है – थोड़ा सा और...टांगें कमज़ोर पड़ रही हैं...” बर्फ के नीचे कुँआरी और
अछूती बकाईन के धुंधले झुरमुट दिखाई दिए, दरवाज़ा, प्राचीन प्रवेश हॉल की कांच की लालटेन, बर्फ से ढंकी हुई. चाभी की आवाज़ भी सुनाई दी. महिला पूरे समय वहीं थी, दायें बाज़ू के पास, और अपनी बची-खुची शक्ति
से उसके पीछे घिसटता हुआ तुर्बीन लालटेन की रोशनी में आया. फिर अँधेरे में चाभी की
दूसरी आवाज़ के बाद अँधेरे में पहुँचा, जिसमें घर की,
पुरानी खुशबू थी. अँधेरे में,सिर
के ऊपर,
बहुत मद्धिम रोशनी थी,
पैरों के नीचे फर्श बाईं ओर जा रहा था...
और
आंखों के सामने अप्रत्याशित,
ज़हरीले-हरे, रोशनी से घिरे रेशे दाईं ओर उड़ गए, और पूरे अँधेरे में फ़ौरन दिल को राहत मिली...
****
मद्धिम और बेचैन रोशनी में रंग उडी सुनहरी टोपियों की कतार थी. एक ठंडक सीने
पर बह रही है, जिसके कारण ज़्यादा हवा है, और बाएं बाज़ू में विनाशकारी, नम और बेजान गर्मी थी. “यही तो ख़ास बात है. मैं ज़ख़्मी हो गया हूँ.” तुर्बीन
समझ गया कि वह फर्श पर लेटा है, पीड़ा से अपना सिर किसी कठोर और असुविधाजनक चीज़ पर टिकाए. आंखों के सामने
वाली सुनहरी टोपियाँ संदूक को प्रदर्शित कर रही हैं. ठण्ड इतनी, कि सांस लेना
मुश्किल है – ये वह उसके ऊपर पानी छिड़क रही है.
“खुदा के लिए,” सिर के ऊपर एक भारी और क्षीण आवाज़ ने कहा, “पी लीजिये, पी लीजिये. आप सांस ले रहे हैं? अब क्या करना चाहिए?”
गिलास दांतों से टकराया, और तुर्बीन ने गड़गड़ाहट के साथ बेहद ठंडे पानी का एक
घूंट पी लिया. अब उसने अपने करीब भूरे, घुंघराले बाल और बहुत काली आंखें देखीं.
उकडूं बैठी महिला ने ग्लास को फर्श पर रखा और, हौले से सिर को पीछे से
पकड़कर तुर्बीन को उठाने लगी.
“दिल तो धड़क रहा है?” उसने सोचा. “लगता है, जीवित हो रहा हूँ...हो सकता है, और इतना ज़्यादा खून भी नहीं....संघर्ष
करना पडेगा.” दिल धड़क रहा था, मगर थरथराते हुए, तेज़ी से, अंतहीन गांठों के धागे में बंध गया था, और तुर्बीन ने कमज़ोरी से कहा:
“नहीं. सब कुछ निकाल दीजिये, जो आप चाहें, मगर फ़ौरन टूर्निकेट
बांधिए...”
समझने की कोशिश करते हुए, उसने आंखें चौड़ी कीं, समझ गई, उछली और अलमारी की ओर लपकी, वहाँ से बहुत सारे कपड़े बाहर निकाले.
तुर्बीन ने होंठ काटते हुए सोचा: “ओह, फर्श पर एक भी धब्बा नहीं है, शुक्र है कि कम खून बहा है”, दर्द से छटपटाते हुए, उसकी सहायता से अपने ओवरकोट से बाहर आया, सिर के चकराने पर ध्यान न देते हुए
बैठा. वह जैकेट उतारने लगी.
“कैंची,” तुर्बीन ने कहा.
बोलने में तकलीफ़ हो रही थी, सांस लेने में मुश्किल हो रही थी. रेशमी काले स्कर्ट को सरसराते हुए वह
गायब हो गई, और दरवाज़े में अपनी
टोपी और फ़र कोट उतार फेंका. वापस आकर, वह उकडूं बैठ गई और बेवकूफी से और दर्द से
कैंची आस्तीन में घुसाने लगी, जो खून से नरम और चिकनी हो गई थी, उसे फाड़ दिया और तुर्बीन को मुक्त कर
दिया. कमीज़ का काम जल्दी हो गया. पूरी बाईं आस्तीन बुरी तरह खून में लथपथ थी, और बाजू भी खून से गहरा लाल हो गया था.
खून फर्श पर टपकने लगा.
“हिम्मत से काटिए...”
कमीज़ टुकड़े-टुकड़े होकर गिर गई, और, सफ़ेद फ़क चेहरा लिए, कमर तक नंगे और पीले बदन, खून से लथपथ, जीने की इच्छा करते हुए, तुर्बीन ने अपने आप को दूसरी बार गिरने
नहीं दिया, दांत भींच कर दायें
हाथ से बाएं कंधे को हिलाया, भिंचे हुए दांतों से
कहा:
“शुक्र है खु...हड्डी सलामत है...कोई पट्टी फाड़िये या बैंडेज लाइये.
“बैंडेज है...” वह खुशी से और हौले से चिल्लाई. ग़ायब हो गई, वापस लौटी, पैकेट फाडते हुए कहने लगी. – “और कोई
नहीं, कोई नहीं ...मैं
अकेली...”
वह फिर से बैठ गई. तुर्बीन ने ज़ख्म देखा. यह एक छोटा सा छेद था, हाथ के ऊपरी हिस्से में, भीतरी सतह पर, जहाँ हाथ शरीर से जुड़ता है. उसमें से
खून की पतली धार बह रही थी.
“पीछे है?” उसने अचानक, संक्षेप में, सहज भाव से साँसों की डोर को सुरक्षित
रखते हुए पूछा.
“है,” उसने घबराहट से जवाब
दिया.
“कुछ और ऊपर बांधिए..यहाँ...आप बचा लेंगी.”
ऐसा दर्द उठा, जैसा पहले कभी अनुभव
नहीं किया था, आंखों के सामने
गोल-गोल हरे घेरे एक दूसरे में मिलते हुए या एक दूसरे को काटते हुए नाचने लगे.
तुर्बीन ने निचला होंठ काटा.
वह बैंडेज खींच रही थी, वह दांतों से और दायें
हाथ से मदद कर रहा था, और इस तरह, ज़ख्म के ऊपर, हाथ पर जलन पैदा करती हुई
गाँठ बाँध दी गई. फ़ौरन खून बहना बंद हो गया...
****
महिला उसे इस तरह दूसरे कमरे में लाई: वह घुटनों पर खडा हो गया और दायाँ
हाथ उसके कंधे पर रख दिया, तब उसने उसे कमजोर, थरथराते हुए पैरों पर खडा होने में मदद
की और पूरे शरीर से सहारा देते हुए ले चली. शाम के अँधेरे में बेहद नीचे, प्राचीन कमरे में उसे चारों ओर काली
छायाएं दिखाई दीं. जब उसने उसे किसी नरम और धूल भरी चीज़ पर बिठाया, उसके हाथ के पास चेरी की डिजाइन वाले
रूमाल के नीचे एक लैम्प जल उठा. उसने दीवार पर फ्रेम में मखमल के पैटर्न, दुहरे पल्ले वाले फ्रॉक-कोट का किनारा
देखा और पीले-सुनहरे एपोलेट्स देखे. तुर्बीन की ओर हाथ फैलाए और परेशानी तथा श्रम
के कारण भारी-भारी सांस लेते हुए उसने कहा:
“मेरे पास कन्याक है...शायद, ज़रुरत हो?...कन्याक...?”
उसने जवाब दिया:
“फ़ौरन...”
और वह दाईं कुहनी पर गिर गया.
कन्याक से जैसे कुछ लाभ हुआ, कम से कम, तुर्बीन को ऐसा लगा
कि वह मरेगा नहीं, और कंधे को कुतर रहे
और काट रहे दर्द को बर्दाश्त कर लेगा. महिला ने घुटनों के बल खड़े होकर ज़ख़्मी हाथ
पर बैंडेज बांधा, नीचे, उसके पैरों की
तरफ आई और उसके फेल्ट-बूट्स उतार दिए. फिर तकिया और एक लंबा, पुरानी, मीठी खुशबू से महकता, अजीब से
फूलों वाला जापानी गाऊन ले आई.
“लेट जाइए,” उसने कहा.
वह चुपचाप लेट गया, उसने उसके बदन पर
गाऊन डाला, ऊपर से कम्बल डाला और
एक छोटी-सी चौकी के पास उसके मुख की ओर देखते हुए खड़ी हो गई.
उसने कहा:
“आप...गज़ब की महिला हैं.” कुछ देर चुप रहकर आगे बोला:
“मैं कुछ देर लेटूंगा, जब तक कुछ ताकत आ
जायेगी, फिर उठकर घर चला
जाऊंगा...कुछ देर और परेशानी बर्दाश्त कर लीजिये.”
उसके दिल में भय और व्याकुलता छा गई: “एलेना का क्या हुआ? आह, खुदा...निकोल्का. निकोल्का क्यों मर गया? शायद, मर गया...”
उसने चुपचाप एक नीची खिड़की की ओर इशारा किया, जिस पर फुन्दों वाला परदा लटका था. तब उसने दूर पर गोली-बारी की स्पष्ट
आवाज़ सुनी.
“आपको फ़ौरन मार डालेंगे, यकीन कीजिये,” उसने कहा.
“तब...डरता हूँ, आपको...मुसीबत
में...अचानक आ जायेंगे...रिवॉल्वर...खून...वहाँ ओवरकोट में,” उसने सूखे होठों पर जीभ फेरी. खून बह
जाने और कन्याक के कारण उसका सिर हल्का-हल्का चकरा रहा था. महिला के चेहरे पर डर
का भाव छा गया. उसने कुछ देर सोचा.
“नहीं,” उसने निर्धारपूर्वक
कहा, “नहीं अगर ढूँढते, तो अब तक यहाँ होते.
ये ऐसी भूलभुलैया है, कि किसी को निशान तक
नहीं मिलेगा. हम तीन बगीचे पार करके आये हैं. मगर, अब सब कुछ फ़ौरन साफ़ करना होगा...”
उसने पानी बहने की आवाज़ सुनी, कपड़ों की सरसराहट, अलमारियों में खट-खट...
वह वापस आई. हाथों में, दो उँगलियों के बीच ब्राऊनिंग का हैंडल इस तरह पकडे, मानो वह गर्म था, और पूछा;
“क्या इसमें गोलियां हैं?”
अपना तन्दुरुस्त हाथ कम्बल के नीचे से बाहर निकाल कर, तुर्बीन ने सेफ्टी-कैच की जाँच की
और जवाब दिया:
“सावधानी से ले जाइए, सिर्फ हैंडल पकडिये.”
वह फिर से वापस आई और कुछ संकोच से बोली:
“मान लीजिये, अगर वे आ भी जाते
हैं...आपको अपनी लेगिंग्स भी उतारनी होंगी...आप लेटे रहेंगे, और मैं कहूंगी, कि आप मेरे बीमार पति हैं...”
उसने हिचकिचाकर मुँह बनाया और बटन खोलने लगा. वह दृढ़ता से निकट आई, घुटनों
के बल खड़े होकर कम्बल के नीचे से स्ट्रैप्स पकड़कर लेगिंग्स को बाहर खींचा और ले
गई. वह काफी समय तक नहीं आई. इस दौरान उसने आर्क को देखा. असल में, ये दो कमरे थे. छतें इतनी नीची कि अगर
कोई ऊंचा आदमी पंजों पर खड़ा हो जाए तो हाथ से उन्हें छू सकता था. वहाँ, आर्क के पीछे, गहराई में, अन्धेरा था, मगर पुराने पियानो का वार्निश किया हुआ
किनारा चमक रहा था, कुछ और भी चमक रहा था, और , शायद ये गूलर के फूल थे. और यहाँ भी फ्रेम में ये एपोलेट्स का
किनारा.
माय गॉड, कितनी पुरानी
चीज़ें!...एपोलेट्स उसे आकर्षित कर रहे थे. मोमबत्तीदान में चर्बी की मोमबत्ती का
शांत प्रकाश था. शान्ति थी, और अब शान्ति ख़त्म हो
गई है. साल वापस नहीं आयेंगे. और पीछे थीं नीची, छोटी खिड़कियाँ, और किनारे पर एक
खिड़की. कैसा अजीब घर है? वह अकेली है. कौन है
वह? जान बचाई...शान्ति
नहीं है...वहाँ गोलियां चल रही हैं...
****
वह भीतर आई, जलाऊ लकड़ियों से
लदी-फंदी, और उन्हें दन् से
भट्टी वाले कोने में पटक दिया.
“ये आप क्या कर रही हैं? किसलिए?” उसने चिडचिडाहट से पूछा.
“वैसे भी मुझे भट्टी गरमाना ही थी,” उसने जवाब दिया और उसकी आंखों में
मुस्कराहट की झलक दिखाई दी. “मैं खुद ही भट्टी गरमाती हूँ...”
“यहाँ आईये,” तुर्बीन ने हौले से
विनती की. “देखिये, आपने... इतना सब कुछ...किया, उसका मैंने शुक्रिया भी अदा नहीं
किया... और कैसे...” उसने हाथ बढ़ाया, उसकी उँगलियों को हाथ में लिया, वह चुपचाप उसके करीब आई, तब उसने उसकी पतली
कलाई दो बार चूमी. उसका चेहरा सौम्य हो गया, मानो उस पर से चिंता की छाया भाग गई हो, और इस पल उसकी आंखें असाधारण रूप से सुन्दर दिखाई दे रही थीं.
“अगर आप न होतीं,” तुर्बीन ने आगे कहा, “तो, शायद, मुझे मार ही डालते.”
“बेशक,” उसने जवाब दिया, “बेशक...और वैसे भी आपने एक को मार डाला
...”
तुर्बीन ने सिर थोड़ा सा ऊपर उठाया.
“मैंने मार डाला?” फिर से कमजोरी महसूस
करते हुए उसने पूछा, उसका सिर चकरा रहा
था.
“हूँ...” उसने सहानुभूति से सिर हिलाया और तुर्बीन की ओर भय और उत्सुकता से
देखा. “ओह, ये सब कितना भयानक
है...उन्होंने मुझे भी लगभग गोली मार ही दी थी.” – वह कांप गई...
“कैसे मारा?”
“ओह, हाँ...वे उछल कर बाहर
आये, और आप गोलियां चलाने
लगे, और पहला ढेर हो
गया...
चलो, हो सकता है, आपने उसे ज़ख़्मी किया हो...खैर, आप बहादुर हैं...मैं सोच रही थी, कि मैं बेहोश हो जाऊंगी...आप उनसे दूर भाग
रहे हैं, उन पर गोलियां चला
रहे हैं...और फिर से भागते हैं...आप, शायद कैप्टेन हैं?’
“आपने ऐसा क्यों सोचा कि मैं ऑफिसर हूँ? मुझसे क्यों चिल्लाकर कहा – ‘ऑफिसर’ ?
उसकी आंखें चमकने लगीं.
“मैंने सोचा, कि अगर आपकी कैप पर
बैज है, तो आप निश्चित ही
ऑफिसर होंगे. इतनी बहादुरी दिखाने की ज़रुरत क्या थी?”
“बैज? आह, गॉड ...ये मैंने ...मैं...” उसे घंटी की
याद आई...धूल भरा आईना...” सब कुछ उतार दिया...मगर बैज उतारना भूल गया!...मैं
ऑफिसर नहीं हूँ,” उसने कहा, “मैं मिलिट्री डॉक्टर हूँ. मेरा नाम है
अलेक्सेइ वसिल्येविच तुर्बीन...माफ़ कीजिये, आप कौन हैं?”
“मैं – यूलिया अलेक्सान्द्रव्ना रोईस.”
“आप अकेली क्यों हैं?”
उसने कुछ तनाव से, आँखों को एक किनारे
फेरते हुए कहा:
“मेरे पति अभी नहीं हैं. वो चले गए. और उनकी माँ भी. मैं अकेली...” कुछ देर
चुप रहकर उसने आगे कहा: “यहाँ ठंडा है...ऊऊ ...मैं अभी भट्टी गरमाती हूँ.”
****
भट्टी में लकडियाँ दहक रही थीं, और साथ ही उनके साथ भीषण दर्द से सिर भी
दहक रहा था. ज़ख्म खामोश था, सब कुछ सिर में
केन्द्रित हो गया था. शुरुआत हुई बाईं कनपटी से, फिर शीर्ष तक और सिर के पीछे तक चला गया. बाईं भौंह के ऊपर कोई नस दब गई
थी और वह सभी दिशाओं में तीव्र, गहन पीड़ा के छल्ले
भेज रही थी. रोईस भट्टी के पास घुटनों के बल खड़ी थी और सीकचे से आग कुरेद रही थी. तड़पते हुए, कभी आंखें बंद करते हुए, कभी खोलते हुए, तुर्बीन ने पीछे की ओर किये हुए, आग से बचने के लिए सफ़ेद ब्रश से ढांके
हुए सिर को, और पूरी तरह अजीब से बालों को देखा, शायद राख के रंग जैसे, आग से घिरे हुए, या सुनहरे, और भंवें कोयले जैसी और काली आंखें. समझ
में नहीं आता – क्या इस बेढंगी आकृति और मुडी हुई नाक को सुन्दर कह सकते हैं? समझ नहीं सकते कि आंखों में क्या भाव
है. शायद, भय, चिंता, या हो सकता है, पाप भी हो...हाँ, पाप.
जब वह इस तरह बैठी है और गर्मी की लहर उसके ऊपर से गुज़रती है, तो वह अद्भुत, आकर्षक प्रतीत होती है. रक्षक.
****
देर रात में, जब भट्टी में आग कब
की बुझ चुकी थी और हाथ और सिर में जलन शुरू हुई, जैसे कोई सिर में गरम कील चुभा रहा हो और मस्तिष्क को नष्ट कर रहा हो.
“मुझे बुखार है,” तुर्बीन सूखेपन से
और चुपचाप दुहरा रहा था और अपने आप को आगाह कर रहा था: “सुबह उठकर घर जाना है...” कील
दिमाग को नष्ट कर रही थी और, अंत में एलेना के
बारे में, और निकोल्का के बारे
में, घर के बारे में और
पेत्ल्यूरा के बारे में विचारों को भी नष्ट कर रही थी. हर चीज़ – सब ठीक है बन गई.
पेतुर्रा...पेतुर्रा...बची सिर्फ एक बात, कि दर्द ख़त्म हो जाए.
देर रात को रोईस नरम, फ़र की किनार वाले
जूते पहने यहाँ आई और उसके पास बैठ गई, और फिर से उसकी गर्दन में हाथ डालकर और कमज़ोरी महसूस करते हुए, वह छोटे कमरों से गुज़रा. इससे पहले, उसने हिम्मत करके उससे कहा:
“आप उठिए, अगर उठ सकते हैं तो.
मेरी तरफ बिलकुल ध्यान न दीजिये. मैं आपकी सहायता करूंगी. इसके बाद पूरी तरह सो
जाइए...मगर, यदि नहीं उठ सकते...”
उसने जवाब दिया:
“नहीं, मैं चलूँगा...आप
सिर्फ मेरी सहायता कीजिये...”
वह उसे इस रहस्यमय छोटे से घर के छोटे से दरवाज़े तक लाई और उसी तरह वापस
लेकर आई. लेटते हुए, बुखार से दांत
किटकिटाते हुए और ये महसूस करते हुए कि सिर शांत हो रहा है, उसने कहा:
“कसम से, मैं आपकी ये बात नहीं
भूलूंगा...आप जाकर सो जाईये.”
“चुप रहिये, मैं आपक सिर सहलाऊंगी,” उसने जवाब दिया.
इसके बाद सारा भोंथरा और दुष्ट दर्द सिर से बाहर बहने लगा, कनपटियों से बहकर उसके नरम हाथों में,
और वहाँ से उसके शरीर से - धूल भरे, मोटे
कालीन से ढंके फर्श में, और वहां मर गया. दर्द के स्थान पर पूरे शरीर में एक मीठी, एक समान गर्माहट फ़ैल गई. हाथ सुन्न हो
गया और भारी हो गया, मानो फ़ौलाद का हो, इसलिए वह उसे हिला नहीं रहा था, बल्कि उसने सिर्फ आंखें बंद कर लीं और
खुद को बुखार के हाथो सौंप दिया. वह कितनी देर इस तरह लेटा रहा, कहना मुश्किल था : हो सकता है, पाँच मिनट, और हो सकता है, कि कई घंटे. मगर हर हाल में, उसे ऐसा लगा कि ज़िंदगी भर इस तरह सोया
जा सकता था, बुखार में तपते हुए.
जब उसने हौले से आंखें खोलीं, ताकि समीप बैठी हुई
महिला को डरा न दे, तो उसने पहले वाली ही
तस्वीर देखी: लाल शेड के नीचे शान्ति से, हौले हौले, शांत प्रकाश बिखेरते
हुए लैम्प जल रहा था, और उसके नज़दीक थी
निद्राहीन महिला की आकृति. बच्चो की तरह, दयनीयता से होंठ बाहर निकालकर वह खिड़की
से बाहर देख रही थी. बुखार में तैरते हुए, तुर्बीन हिला, उसकी तरफ झुका...
“मेरी तरफ़ झुको,” उसने कहा. उसका स्वर
सूखा, कमजोर, ऊंचा था. वह उसकी ओर मुडी, उसकी आंखें भय से चौंकन्नी हो गईं और
परछाईयों में धंस गईं. तुर्बीन ने दायाँ हाथ गर्दन में डालकर उसे अपनी तरफ खींचा
और होठों को चूम लिया. उसे ऐसा लगा, जैसे उसने किसी मीठी और ठंडी चीज़ को स्पर्श कर लिया हो. महिला को तुर्बीन
के आचरण पर आश्चर्य नहीं हुआ. उसने सिर्फ गौर से चेहरे को देखा. फिर कहा:
“ओह, कितना बुखार है आपको.
हम अब करेंगे क्या? डॉक्टर को बुलाना
चाहिए, मगर ये कैसे किया जाए?...”
“ज़रुरत नहीं है,” तुर्बीन ने हौले से जवाब
दिया, “डॉक्टर की ज़रुरत
नहीं है. कल मैं उठूंगा और घर चला जाऊंगा.”
“मुझे इतना डर लग रहा है,” वह फुसफुसाई , “कि
आपकी तबियत और बिगड़ जायेगी. तब मैं आपकी मदद कैसे करूंगी. अब खून तो नहीं बह रहा
है? उसने चुपचाप बैंडेज
वाले हाथ को छुआ.
“नहीं, आप घबराईये नहीं, मुझे कुछ नहीं होगा. जाकर सो जाईये.”
“नहीं जाऊंगी,” उसने जवाब दिया और
उसका हाथ थपथपाया. “बुखार,” उसने दुहराया.
उससे रहा नहीं गया और फिर से उसे बांह में लेकर अपने निकट खींच लिया. वह
उसे तब तक खींचता रहा, जब तक वह पूरी तरह
झुककर उसके पास नहीं लेट गई. अब उसने अपनी बीमार अगन के बीच उसके शरीर की सजीव और
स्पष्ट गर्माहट को महसूस किया.
“लेट जाईये और बिलकुल न हिलिए,” वह फुसफुसाई, “और मैं आपका सिर सहलाऊंगी.”
वह उसकी बगल में लेट गई, और वह उसके घुटनों का स्पर्श महसूस करने लगा. वह
कनपटी से बालों तक हाथ फ़ेरती रही. उसे इतना अच्छा लग रहा था, कि वह एक ही चीज़ के बारे में सोच रहा था, कि कहीं सो न जाए.
और वह सो गया. देर तक सोता रहा, सहज और मीठी नींद. जब जागा, तो देखा, कि गरम नदी में नाव पर तैर रहा है, कि सारा दर्द गायब हो गया है, और खिड़की के बाहर रात धीरे-धीरे फ़ीकी
फ़ीकी पड़ती जा रही है. न सिर्फ छोटे से घर में, बल्कि पूरी दुनिया में और शहर में गहरा सन्नाटा था. परदों की
दरारों से कांच जैसा विरल-नीला प्रकाश बह रहा था. महिला, गर्माहट भरी और दयनीय, तुर्बीन की बगल में सोई थी. और वह भी सो
गया.
****
सुबह, करीब नौ बजे, किसी गाडीवान ने मृतप्राय
माला-प्रवाल्नाया पर दो सवारियों को बिठाया – काले सिविल ड्रेस में एक मर्द, जो एकदम पीला था, और महिला को. महिला, सावधानी से आदमी को सहारा देते हुए, जो उसकी बांह से चिपका हुआ था, उसे अलेक्सेयेव्स्की ढलान पर लाई. ढलान
पर यातायात नहीं था.
सिर्फ 13 नंबर के प्रवेश द्वार पर एक गाड़ीवान खड़ा था, जिसने अभी-अभी सूटकेस, थैली और पिंजरा लिए
एक विचित्र मेहमान को उतारा था.
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