अध्याय – ३
टक,टक... धम्
धम्...अहा...कौन? कौन है? क्या है?...आह, खटखटा रहे हैं, आह, शैतान, खटखटा रहे हैं...मैं कहाँ हूँ? मैं क्या हूँ?...बात
क्या है? हाँ, मैं अपने कमरे में बिस्तर में हूँ...मुझे क्यों उठा रहे हैं? उनका
अधिकार है, क्योंकि मैं ‘ऑन-ड्यूटी’ हूँ. उठिए, डॉक्टर बोमगर्द. ये मारिया दरवाज़े पर टकटक कर रही है.
कितना बजा है? साढे बारह...रात है...मतलब, मैं सिर्फ एक घंटा सोया हूँ. क्या माइग्रेन है? दिख रहा
है. वही है!
दरवाज़े
पर हल्की दस्तक हो रही थी.
“क्या
बात है?”
मैंने
डाइनिंग रूम का दरवाज़ा थोड़ा-सा खोला. अँधेरे से नर्स का चेहरा मेरी और ताक रहा था,
और मैंने फ़ौरन भांप लिया कि वह विवर्ण है, कि आंखें विस्फारित हैं, व्याकुल
हैं.
“किसे
लाये हैं?”
“गरेलव्स्की
गाँव के डॉक्टर को,” – भर्राई हुई आवाज़ में नर्स ने जवाब दिया, “डॉक्टर
ने अपने आप को गोली मार ली.”
“प-लि-को-व
को? ये नहीं हो सकता! पलिकोव को?!”
“उनका
कुलनाम तो मैं नहीं जानती.”
“तो
ये बात है...अभी, अभी आता हूँ. और आप प्रमुख डॉक्टर के पास भागिए, फ़ौरन उन्हें जगाइए. कहिये
कि मैं फ़ौरन इमरजेंसी रूम में उन्हें बुला रहा हूँ.”
नर्स
भागी – सफ़ेद दाग आंखों से ओझल हो गया.
दो
मिनट बाद पोर्च में ज़ालिम बर्फीला तूफ़ान, सूखा और चुभता हुआ, मेरे गालों पर प्रहार कर रहा
था,
ओवरकोट के पल्लों को फुला रहा था, भयभीत जिस्म को जमा रहा था.
इमरजेंसी
रूम की खिड़कियों से सफ़ेद और बेचैन रोशनी झाँक रही थी. पोर्च में, बर्फ के
बादल में, मैं सीनियर डॉक्टर से टकराया, जो वहीं जा रहा था, जहाँ मैं भी भाग रहा था.
“आपका? पलिकोव?” सर्जन ने
खांसते हुए पूछा.
“कुछ
भी समझ में नहीं आ रहा है. ज़ाहिर है, वही है,” मैंने जवाब दिया, और हम जल्दी से इमरजेंसी
रूम में घुसे.
बेंच
से ओवर कोट में लिपटी एक महिला हमसे मिलने के लिए उठी. परिचित आंखें, रोते हुए,
भूरे रूमाल के कोने से मेरी तरफ देख रही थीं. मैंने गरेलव की दाई मारिया
व्लासेव्ना को पहचान लिया, जो गरेलवस्की-अस्पताल में प्रसूति के केसेस के दौरान
मेरी विश्वसनीय सहायिका हुआ करती थी.
“पलिकोव?” मैंने
पूछा.
“हाँ,” मारिया
व्लासेव्ना ने जवाब दिया, “कैसी भयानक बात है, डॉक्टर, रास्ते भर
मैं कांप रही थी, कि बस, किसी तरह पहुँच जाऊँ...”
“कब?”
“आज
सुबह, जब दिन निकल ही रहा था,” मारिया व्लासेव्ना बुदबुदा रही थी, “चौकीदार
भागते हुए आया, बोला, “डॉक्टर के क्वार्टर में गोली चली है”.
खतरनाक, व्याकुल
रोशनी बिखेरते हुए लैम्प के नीचे डॉक्टर पलिकोव पडा था और उसके निर्जीव, पत्थर
जैसे, फेल्ट बूट जैसे तलवों को देखते ही पल भर के लिए मेरे दिल की धड़कन रुक गई.
उसकी
टोपी उतारी – और गीले चिपचिपे बाल दिखाई दिए. मेरे हाथ, नर्स के हाथ, मारिया
व्लासेव्ना के हाथ पलिकोव के ऊपर चमके और ओवरकोट के नीचे से लाल-पीले, गीले धब्बों
वाली बैंडेज की पट्टी बाहर निकली. उसका सीना बेहद धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा था. मैंने
नब्ज़ देखी और कांप गया, मेरी उँगलियों के नीचे ही नब्ज़ गायब होती जा रही थी, खिंच रही
थी और निरंतर तथा नाज़ुक गांठों वाले धागे की तरह टूट रही थी. सर्जन का हाथ कंधे की
ओर बढ़ा, उसने विवर्ण शरीर के कंधे को चुटकी में लिया ताकि कैम्फर का इंजेक्शन
लगाए. ज़ख़्मी ने अपने होंठ विलग किये, जिन पर गुलाबी खून की लकीर दिखाई दी, नीले होंठों को
ज़रा सा हिलाया और सूखेपन से, कमजोरी से बोला:
“कैम्फर
फेंकिये. भाड में जाए.”
“चुप
रहिये,” सर्जन ने उसे जवाब दिया और पीला तेल त्वचा के भीतर धकेल दिया.
“पेरिकार्डियम
(हृदयावरण-अनु.)को, शायद, चोट लगी है,” मारिया व्लासेव्ना फुसफुसाई, उसने मज़बूती से मेज़ के
किनारे को पकड़ लिया और ज़ख़्मी की अंतहीन पलकों को देखने लगी (उसकी आंखें बंद थीं).
भूरी-बैंगनी छायाएं, सूर्यास्त की छायाओं जैसी, नासिका पक्ष के पास रिक्त स्थानों पर चमकने लगीं, और
महीन, पारे जैसा पसीना दूब के कणों के समान छायाओं पर उभर आया.
“रिवॉल्वर?” गाल पर
चुटकी लेते हुए सर्जन ने पूछा.
“ब्राउनिंग,” मारिया
व्लासेव्ना बुदबुदाई.
“ऐ-एख,”
अचानक, जैसे कडवाहट और गुस्से से सर्जन ने कहा और अचानक, हाथ झटककर दूर हट गया.
कुछ
भी समझ न पाने के कारण मैं भयभीत होकर उसकी और मुड़ा. कंधे के पीछे किसी की आँखें
टिमटिमाईं. एक और डॉक्टर आया.
पलिकोव
ने अचानक अपना मुँह हिलाया, तिरछे, जैसे कोई ऊंघता हुआ आदमी चिपचिपी मक्खी को हटाते हुए
करता है, और इसके बाद उसका निचला जबड़ा हिलने लगा, जैसे गले में कोई चीज़ अटकी
हो,
जिसे वह निगलना चाहता था. आह, जिसने रिवॉल्वर या बंदूक के घिनौने जख्म देखे हैं, वह
इस हलचल को अच्छी तरह जानता है! मारिया व्लासेव्ना के चेहरे पर पीड़ा का भाव था, उसने आह
भरी.
“डॉक्टर
बोमगर्द को...” मुश्किल से सुनाई देने वाली आवाज़ में पलिकोव ने कहा.
“मैं
यहाँ हूँ,” मैं फुसफुसाया और मेरी आवाज़ हौले से ठीक उसके होठों के पास गूँजी.
“नोटबुक
आपको ...” भर्राई हुई आवाज़ में और भी ज़्यादा कमजोरी से पलिकोव ने जवाब दिया.
अब
उसने आंखें खोलीं, उन्हें उदास, अँधेरे में जाती हुई कमरे की छत की और ले गया. काली पुतलियाँ जैसे आतंरिक
प्रकाश से लबालब भरने लगीं, आंखों का सफ़ेद हिस्सा जैसे पारदर्शी, नीलाभ हो
गया. आंखें ऊपर ठहर गईं, फिर धुंधली पड़ गईं और इस क्षणिक रंग को खोने लगीं.
डॉक्टर
पलिकोव मर गया.
x x x
रात.
पौ फटने वाली है. बिजली का लैम्प बड़ी प्रखरता से जल रहा है, क्योंकि
ये छोटा-सा शहर सो रहा है और इलेक्ट्रिक करंट बहुत है. सब कुछ खामोश है, और पलिकोव
का जिस्म चैपल (छोटा गिरजा – अनु.) में है. रात.
मेज़
पर पढ़ने के कारण सूजी हुई आंखों के सामने खुला हुआ लिफाफा और एक पन्ना पडा है. उस
पर लिखा है:
“प्रिय
कोम्रेड!
मैं
आपका इंतज़ार न कर सकूंगा. मैंने ठीक होने का इरादा बदल दिया है. कोई उम्मीद नहीं है. और अब मैं ज़्यादा तड़पना भी नहीं
चाहता. मैंने काफी कोशिश कर ली. औरों को आगाह कर रहा हूँ. पानी के पच्चीस भागों
में घुले हुए सफ़ेद क्रिस्टल्स से सावधान रहें. मैंने उन पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा कर
लिया और उन्होंने मुझे मार डाला. मेरी डायरी आपको भेंट कर रहा हूँ. आप मुझे हमेशा
से जिज्ञासु और मानवीय दस्तावेजों के प्रशंसक प्रतीत हुए हैं. अगर आपको दिलचस्पी
हो, तो
मेरी बीमारी का इतिहास पढ़ लीजिये.
अलबिदा.
आपका,
सिर्गेई
पलिकोव”.
पुनश्च
बड़े-बड़े अक्षरों में:
“कृपया
मेरी मृत्यु के लिए किसी को दोष न दें.
चिकित्सक
सिर्गेइ पलिकोव.
१३
फरवरी १९१८”.
खुदकुशी
करने वाले के ख़त की बगल में एक आम नोटबुक्स की तरह की नोट बुक थी – काले रंग के
मोमजामे में. उसमें से पहले आधे पन्ने फाड़ दिए गए थे. बचे हुए आधे पन्नों में
संक्षिप्त टिप्पणियाँ थीं, शुरू में पेन्सिल से या स्याही से, साफ
छोटे-छोटे अक्षरों में, नोटबुक के अंत में रासायनिक पेन्सिल से और मोटी लाल
पेन्सिल से, बेतरतीब लिखाई में, उछलती हुई लिखाई में और कई संक्षिप्त शब्दों में.
x x x
“...७
वां साल? , २० जनवरी.
...और
बेहद खुश हूँ. और खुदा का शुक्र है : जितना ज़्यादा बेवकूफ, उतना ज़्यादा बेहतर.
लोगों को देख नहीं सकता, और यहाँ मैं किन्हीं भी लोगों को नहीं देखूंगा, सिवाय
मरीजों के और किसानों के. मगर वे तो किसी भी तरह मेरे ज़ख्म को नहीं छुएंगे? वैसे, दूसरों को, ज़ेम्स्त्वा
के गाँवों में मुझसे ज़्यादा बुरी पोस्टिंग नहीं दी गई. मेरे पूरे बैच की, जो युद्ध
के आह्वान में शामिल नहीं था (१९१६ के बैच के दूसरी श्रेणी के योद्धा), ज़ेम्स्त्वा
के गाँवों में पोस्टिंग की गई. खैर, इसमें किसी को दिलचस्पी नहीं है. दोस्तों में से सिर्फ
इवानोव और बोमगर्द के बारे में पता चला. इवानोव ने अर्खान्गेल्स्क प्रांत को चुना
(अपनी-अपनी पसंद है), और बोमगर्द, जैसा कि नर्स ने बताया, मेरे ही जैसे दूरदराज़ के
कोने में, मुझसे तीन गाँव दूर, गरेलव में बैठा है. मैं उसे लिखना चाहता था, मगर फिर
इरादा बदल दिया. लोगों से मिलना और उन्हें सुनना नहीं चाहता.
२१
जनवरी.
बर्फीला
तूफ़ान. कोई बात नहीं.
२५
जनवरी.
कितना
स्वच्छ सूर्यास्त है. माइग्रेन – एन्टीपायरिन coffeina ac citric. 1.0 के पावडर
में... क्या 1.0 संभव है?..संभव है...
३.
फरवरी.
आज
पिछले सप्ताह के अखबार मिले. पढ़ा तो नहीं, मगर फिर भी थियेटर-विभाग
में झांकने की उत्सुकता हुई. “आइदा” का प्रोग्राम पिछले हफ्ते चल रहा था. मतलब, वह स्टेज
पर आई और गाने लगी, “मेरे प्यारे दोस्त, मेरे पास आओ...”
उसकी
आवाज़ असाधारण है, और कितनी अजीब बात है, कि स्पष्ट आवाज़, अंधकारपूर्ण आत्मा के लिए नायाब तोहफ़ा
है...
(यहाँ
अंतराल, दो या तीन पन्ने फाड़े गए थे.)
...बेशक, ये गलत है, डॉक्टर
पलिकोव. हाँ और शराफत के लिहाज़ से भी – बेवकूफी है भद्दी गालियाँ देते हुए किसी
औरत पर टूट पड़ना, इसलिए कि वह चली गई! नहीं रहना चाहती – चली गई. किस्सा ख़तम.
वास्तविकता
में सब कुछ कितना आसान है. ऑपेरा की गायिका नौजवान डॉक्टर के साथ रहने लगी, साल भर
रही और चली गई.
क्या
उसे मार डालूँ? मार डालूँ? आह, सब कुछ कितना बेवकूफी भरा, खोखला है. कोई उम्मीद नहीं! सोचना भी नहीं चाहता. नहीं
चाहता...
११
फरवरी.
सिर्फ
बर्फीले तूफ़ान , बस तूफ़ान...तंग आ गया हूँ! पूरी पूरी शाम मैं अकेला होता हूँ, अकेला.
लैम्प जलाता हूँ और बैठा रहता हूँ. दिन में तो लोग दिखाई भी दे जाते हैं. मगर काम
मैं यंत्रवत करता हूँ. काम की मुझे आदत हो गई है. वह इतना भयानक नहीं है, जैसा मैं
पहले सोचता था. खैर, युद्ध के दौरान हॉस्पिटल ने मेरी काफी मदद की. फिर भी, जब मैं यहाँ आया था
तो बिलकुल अनपढ़ तो नहीं था. आज मैंने ‘रोटेशन-ऑपरेशन’ किया.
तो, तीन आदमी
यहाँ दफन हैं बर्फ के नीचे: मैं, आन्ना किरीलव्ना – कंपाउंडर-दाई और कंपाउंडर. कंपाउंडर
शादी-शुदा है. वे (कंपाउंडर लोग) बाहरी बिल्डिंग में रहते हैं. और मैं अकेला.
१५
फरवरी
कल
रात को एक मजेदार बात हुई. मैं सोने जा ही रहा था, कि अचानक मेरे पेट वाले हिस्से
में दर्द उठा. और कैसा दर्द! मेरे माथे पर ठंडा पसीना निकल आया.
फिर
भी, चिकित्सा शास्त्र – संदिग्ध विज्ञान है, ये कहना पडेगा.
आखिर,
एक आदमी को जिसे कोई पेट की या आंत की (मिसाल के तौर पर, अपेंडिक्स) बीमारी नहीं
है,
जिसकी किडनी और लीवर बढ़िया है, जिसकी आंतें पूरी तरह सामान्य हैं रात को ऐसा दर्द कैसे उठ सकता है जिससे वह
बिस्तर पर लोट-पोट करने लगे? कराहते हुए किचन तक पहुँचा जहाँ रसोइन अपने पति व्लास
के साथ रात को रहती है. व्लास को आन्ना किरीलव्ना के पास भेजा. वह रात को मेरे पास
आई और उसे मुझे मोर्फीन का इंजेक्शन देना पडा. कहती है कि मैं पूरी तरह हरा हो गया
था. किस वजह से? हमारा सहायक मुझे अच्छा नहीं लगता. बिलकुल मिलनसार नहीं है, मगर आन्ना
किरीलव्ना बड़ी अच्छी और सुसंस्कृत है. ताज्जुब होता है कि एक औरत, जो बूढ़ी
नहीं है, कैसे इस बर्फ की कब्र में पूरी तरह तनहाई में रह सकती है. उसका पति जर्मनी
की कैद में है.
उस
व्यक्ति की तारीफ़ किये बिना नहीं रह सकता, जिसने पहली बार पॉपी हेड्स
(पोस्ते के फूल) से मोर्फीन निकाली थी. मानवता का सच्चा हितैषी. इंजेक्शन के सात
मिनट बाद दर्द बंद हो गया. ताज्जुब की बात है : दर्द पूरी ताकत से हिलोरें ले रहा
था,
बिना रुकावट के, जिससे मेरा दम घुट रहा था, जैसे पेट में कोई लोहे की तप्त छड घुसाकर घुमाई जा रही
हो. इंजेक्शन के चार मिनट बाद मैं दर्द की हिलोरों को समझ पा रहा था.
कितना
अच्छा होता अगर डॉक्टर के लिए खुद अपने ऊपर कई दवाओं की जाँच करना संभव होता. तब
उनके असर के बारे में उसकी बिलकुल दूसरी ही राय होती. इंजेक्शन के बाद पिछले कई
महीनों में पहली बार मुझे अच्छी और गहरी नींद आई – बिना उसके बारे में सोचे, जिसने
मुझे धोखा दिया था.
१६
फरवरी.
आज
‘रिसेप्शन’ पर आन्ना किरीलाव्ना ने पूछा कि मेरी तबियत कैसी है, और कहा कि
पहली बार वह मुझे उदास नहीं देख रही है.
“क्या
मैं उदास रहता हूं?”
“बेहद,” उसने
दृढता से कहा और आगे बोली, कि वह इस बात से हैरान है कि मैं हमेशा खामोश रहता हूँ.
“मैं
वैसा ही हूँ.”
मगर
यह झूठ है. मेरे ‘पारिवारिक नाटक’ से पहले मैं बेहद खुशमिजाज़ व्यक्ति था.
अन्धेरा
जल्दी होने लगता है. मैं क्वार्टर में अकेला हूँ. शाम को दर्द उठा था, मगर तेज़
नहीं था, जैसे कल के दर्द की परछाई हो, कहीं सीने की हड्डी के पास. कल के दौरे के खतरे से बचने
के लिए मैंने अपने आप नितम्ब में एक सेन्टीग्राम का इंजेक्शन लगा लिया.
दर्द
लगभग फ़ौरन ही गायब हो गया. ये तो अच्छा हुआ कि आन्ना किरीलव्ना ने शीशी छोडी थी.
१८.
चार
इंजेक्शन भयानक नहीं हैं.
२५
फरवरी
गज़ब
की औरत है आन्ना किरीलव्ना! जैसे कि मैं डॉक्टर ही नहीं हूँ. १/२ सिरींज = ०.०१५
मोर्फीन? हाँ.
१
मार्च.
डॉक्टर
पलिकोव, सावधान रहे!
बकवास.
x x x
शाम
का धुंधलका.
आधा
महीना बीता गया, और मैं अपने विचारों में एक भी बार उस औरत की ओर नहीं लौटा, जिसने
मुझे धोखा दिया था. उसके ‘अम्नेरिस’ वाले खेल का उद्देश्य मेरे दिमाग से उतर गया.
मुझे इसका बड़ा गर्व है.
मैं
– मर्द हूँ.
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आन्ना के. गुप्त रूप
से मेरी पत्नी बन गई. वर्ना कुछ और तो हो ही नहीं सकता था. हम एक निर्जन टापू पर
कैद हैं.
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बर्फ बदल गई है,
मानो भूरी हो गई है. भयानक ठण्ड तो अब नहीं है, मगर बर्फीले तूफ़ान
कभी कभी लौट आते है...
x x x
पहला मिनट: गर्दन को
स्पर्श करने का एहसास. यह स्पर्श गर्माहटभरा होकर फ़ैलने लगता है. दूसरे मिनट में
अचानक पेट के गढे में ठण्डी लहर दौड़ जाती है, और उसके बाद
विचारों की असाधारण स्पष्टता और कार्य क्षमता का विस्फोट. सभी अप्रिय एहसास ख़त्म
हो जाते हैं. ये मनुष्य की आध्यात्मिक शक्ति का चरम बिंदु है. और यदि मेडिकल की
शिक्षा ने मुझे बिगाड़ न दिया होता, तो मैं कहता, कि आम तौर से आदमी सिर्फ मोर्फीन के इंजेक्शन के बाद ही काम कर सकता
है. वाकई में: आदमी क्या ख़ाक ‘फिट’ हो सकता है, यदि एक छोटी सी नस का दर्द उसे बदहवास कर सकता है.
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आन्ना के. डरती है.
उसे मैंने यह कहकर शांत किया कि मैं बचपन से ही ज़बरदस्त इच्छा शक्तिवाला हूँ.
२ मार्च.
किसी भव्य बात के
बारे में अफवाहें. जैसे निकलाय का तख्ता-पलट कर दिया गया है!!.
मैं काफी जल्दी सो
जाता हूँ. करीब नौ बजे. और मीठी नींद सोता हूँ.
१० मार्च.
क्रान्ति हो रही है.
दिन ज़्यादा बड़ा हो गया है, और शाम कुछ और नीली.
सुबह-सुबह ऐसे सपने
मैंने आज तक कभी नहीं देखे थे. ये दुहरे सपने हैं. और उनमें से मुख्य सपना, मैं कहता, कांच का है. वह पारदर्शी है.
तो, - मैं देखता हूँ एक भयानक रूप से जलता हुआ लैम्प, उसमें से रंगबिरंगी रोशनियों का एक रिबन फूटता है. अम्नेरिस, एक हरे पंख को हिलाते हुए गाती है. ओर्केस्ट्रा, जो बिल्कुल इस
दुनिया का नहीं है, असाधारण रूप से ऊँची आवाज़ में गा रहा है.
मगर, मैं शब्दों में इसे बयान नहीं कर सकता. एक लब्ज़ में कहूं तो, किसी सामान्य सपने में संगीत बेआवाज़ होता है....( सामान्य सपने में? एक और सवाल, कौन सा सपना ज़्यादा सामान्य होता है! खैर, मज़ाक कर रहा हूँ...) बेआवाज़, मगर मेरे सपने में
वह सुनाई दे रहा है स्वर्गीय संगीत की तरह. और, ख़ास बात ये है, कि मैं अपनी इच्छा से म्यूजिक की आवाज़ को कम या ज़्यादा कर सकता हूँ.
याद आता है, “युद्ध और शान्ति” में वर्णन किया गया है कि कैसे पेत्या रस्तोव आधी
नींद में ऐसी ही स्थिति का अनुभव करता है. ल्येव टॉल्स्टॉय – अद्भुत् लेखक है!
अब पारदर्शिता के
बारे में. तो, आइदा के बिखरते हुए रंगों, से एकदम वास्तविक
रूप में सीधे मेरी लिखने की मेज़ का कोना प्रकट होता है, जो अध्ययन कक्ष के दरवाज़े से दिखाई देता है, लैम्प, चमकता हुआ फर्श, और सुनाई देती है, बल्शोय थियेटर के
ओर्केस्ट्रा की लहरों को चीरती हुई, पैरों की स्पष्ट आवाज़, जो इतने हौले-हौले चल रहे थे, जैसे बेआवाज़ खड़ताल
हों.
मतलब, - आठ बज गया है, - ये आन्ना के.
है जो मुझे जगाने और यह बताने आ रही है कि इमरजेंसी रूम में क्या हो रहा
है.
उसे इस बात का एहसास
नहीं है कि मुझे जगाने की ज़रुरत नहीं है, कि मैं सब सुन रहा
हूँ और उससे बात कर सकता हूं.
और इस तरह का प्रयोग
मैंने कल किया:
आन्ना – सिर्गेइ
वासिल्येविच...
मैं – मैं सुन रहा
हूँ...(हौले से म्यूजिक से “ज़्यादा तेज़”).
म्यूजिक – ऊँची तान
है.
रे-दिओज़.
आन्ना – बीस लोगों
का रजिस्ट्रेशन है.
अम्नेरिस (गाती है).
खैर, इसे कागज़ पर लिखना असंभव है.
क्या ये सपने
हानिकारक हैं? ओ, नहीं. इनके बाद मैं शक्ति और उत्साह महसूस करता हूँ. और अच्छी तरह
काम करता हूँ. मुझमें दिलचस्पी भी पैदा हो गई, जो पहले नहीं थी.
और, ताज्जुब की बात नहीं है, मेरे सारे विचार मेरी भूतपूर्व पत्नी पर
केन्द्रित हो गए.
और अब मैं शांत हूँ.
मैं शांत हूँ.
१९ मार्च.
रात को मेरा आन्ना
के. साथ झगड़ा हो गया.
“मैं अब और ज़्यादा
मिश्रण तैयार नहीं करूंगी.”
मैं उसे मनाने लगा.
“बेवकूफी है, आन्नूस्या, मैं क्या छोटा हूँ?”
“नहीं करूंगी. आप मर
जायेंगे.”
“ओह, जैसा चाहो. ये समझ लो, कि मेरे सीने में
दर्द है!”
“इलाज करवा लो.”
“कहाँ?”
“छुट्टी ले लो.
मोर्फीन से इलाज नहीं करते हैं.” (फिर उसने सोचा और आगे कहा). “मैं अपने आप को इस
बात के लिए माफ़ नहीं कर सकती, कि उस समय आपके लिए दूसरी बोतल तैयार कर
दी थी.”
“मुझे क्या मोर्फिन
की लत लग गई है?”
‘हाँ, आपको मोर्फिन की लत लग जायेगी.”
“तो, आप नहीं जायेंगी?”
“नहीं.”
तब मुझे पहली बार
पता चला कि मुझमें गुस्सा करने की अप्रिय योग्यता है और, ख़ास बात, लोगों पर चिल्लाने की, जब मैं गलत होता हूँ.
खैर, ये एकदम नहीं हुआ. मैं शयन कक्ष में गया. देखा. बोतल के तल पर
थोड़ा-सा द्रव था. मैंने सिरिंज ली, - एक चौथाई सिरिंज
निकला, हाथ से सिरिंज उछल गई. करीब-करीब उसे तोड ही दिया और खुद थरथराने
लगा. सावधानी से उसे उठाया, गौर से देखा, एक भी दरार नहीं थी. शयन कक्ष में बीस मिनट बैठा रहा. बाहर आया – वह
नहीं थी.
चली गई थी.
x x x
ज़रा सोचिये, बर्दाश्त नहीं कर पाया, उसके पास गया. उसकी विंग में प्रकाशित खिड़की पर खटखटाया. शॉल लपेटे, वह बाहर पोर्च में आई. रात खामोश, खामोश. बर्फ ढीली पड गई थी. आसमान
में कहीं दूर बसंत ऋतू खिंची आ रही है.
“आन्ना किरीलाव्ना, मेहेरबानी करके मुझे डिस्पेन्सरी की चाभी दीजिये.”
वह फुसफुसाई:
“नहीं दूंगी.”
“कॉमरेड, मेहरबानी
से मुझे डिस्पेन्सरी की चाभियाँ दीजिये. मैं डॉक्टर की हैसियत से आपसे कह रहा
हूँ.”
देखता हूँ कि
झुटपुटे में उसका चेहरा बदल गया, बेहद सफ़ेद हो गया, और आंखें भीतर को धंस गईं, डूबने लगीं, काली हो गईं. और उसने ऐसी आवाज़ में जवाब दिया जिससे मेरे मन में दया
की भावना उमड़ने लगी.
मगर तभी गुस्सा मुझ
पर हावी हो गया.
वह:
“क्यों, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? आह, सिर्गेइ वसील्येविच, मुझे आपके लिए अफसोस होता है.”
और फ़ौरन उसने शॉल के
नीचे से हाथ बाहर निकाले, और मैं क्या देखता हूँ कि चाभियाँ तो उसके
हाथों में हैं. मतलब, वह मेरी तरफ आ रही थी और साथ में चाभियाँ भी
रख ली थीं.
मैं (बदतमीजी से):
“चाभियाँ दीजिये!”
और मैंने उसके हाथों
से चाभियाँ छीन लीं.
सडे हुए, उछलते पुलों से होते हुए मैं अस्पताल की जर्जर बिल्डिंग की ओर चल
पडा.
मेरे भीतर तैश
फुफकार रहा था, और सबसे पहले इस बात से कि मैं यह बात बिल्कुल नहीं जानता था कि
चमड़ी के नीचे देने वाले इंजेक्शन के लिए मोर्फीन का घोल कैसे तैयार किया जाता है.
मैं डॉक्टर हूँ, न कि कम्पाउन्डर!
चल रहा था और हिल
रहा था.
और सुन रहा हूँ:
मेरे पीछे-पीछे, वफादार कुत्ते की तरह, वह चल रही थी. और
मेरे मन में कोमल भावनाएँ जाग उठीं, मगर मैंने उन्हें
दबा दिया. मुड़ा और, दांत पीसते हुए, बोला:
“बनाओगी या नहीं?” और उसने भी हाथ झटक दिया, जैसे सज़ाए मौत सुनाई
गई हो, जैसे, ‘ठीक है, क्या फर्क पड़ता है’, और हौले से जवाब दिया:
“चलिए, बनाती हूँ...”
...घंटे भर बाद मैं
सामान्य स्थिति में था. बेशक, मैंने बेवजह की कठोरता के लिए उससे माफी
मांग ली. खुद भी नहीं जानता कि ऐसा कैसे हुआ.
पहले तो मैं मिलनसार
इंसान था.
उसने मेरे माफीनामे
पर बड़े अजीब तरीके से व्यवहार किया. घुटनों पर बैठ गई, मेरे हाथों से लिपट गई और बोली:
“मैं आप पर गुस्सा
नहीं हूँ. नहीं. अब मैं जान गई हूँ कि आप बर्बाद हो गए हैं. जानती हूँ. और मैं
अपने आप को कोसती हूँ, कि मैंने आपको इंजेक्शन क्यों लगाया था.”
मैंने जैसे संभव था, उसे शांत किया, ये यकीन दिलाते हुए, कि उसका इस बात में कोई दोष नहीं है, अपने कामों के लिए
मैं खुद ही जवाबदेह हूँ. उससे वादा किया कि कल से धीरे-धीरे डोज़ कम करते हुए, पूरी संजीदगी से यह आदत छोड़ने की कोशिश करूंगा.
“अभी आपने कितने का
इंजेक्शन दिया है?”
“बकवास. एक प्रतिशत घोल की तीन सिरींज.
उसने अपना सिर पकड़ लिया और खामोश हो गई.
“अरे, आप परेशान न होईये!...असल में मैं उसकी परेशानी समझ सकता था. वाकई
में morphinum hydrochloricum भयानक चीज़ है, आदत बेहद जल्दी पड
जाती है. मगर एक छोटी सी आदत मोर्फिनिज्म तो नहीं है ना?...
सच कहूं तो, ये औरत अकेली ऐसी इंसान है, जो मेरी असली, मेरी अपनी है. और, वाकई में, इसे ही मेरी पत्नी होना चाहिए था. उसे मैं भूल गया हूँ. भूल गया हूँ. और
फिर भी, इसके लिए मोर्फीन का शुक्रिया...
८ अप्रैल १९१७.
यह पीड़ादायक है.
९ अप्रैल.
बसंत भयानक है.
बोतल में शैतान है.
कोकीन – बोतल में शैतान.
उसकी प्रतिक्रया इस
तरह होती है:
दो प्रतिशत वाले घोल
के एक ही इंजेक्शन से लगभग पल भर में ही शान्ति की स्थिति आ जाती है, जो फ़ौरन ही
उत्साह में परिवर्तित हो जाती है. ये सिर्फ एक, दो मिनट तक ही रहता
है. और फिर सब कुछ बिना कोई निशान छोड़े गायब हो जाता है, जैसे कभी था ही नहीं. फिर आता है दर्द, खौफ़, अन्धेरा. बसंत गरज रहा है, काले पंछी एक से
दूसरी नंगी डालों पर उड रहे हैं, और दूर जंगल टूटे और काले ब्रश की तरह
आसमान की ओर खिंचा जा रहा है, और उसके पीछे जल रहा है, एक चौथाई आकाश को अपनी गिरफ़्त में लेकर बसंत का सूर्यास्त.
मैं अपने डॉक्टर
वाले क्वार्टर के इकलौते खाली बड़े कमरे में चहलकदमी कर रहा हूँ, तिरछे, दरवाज़े से खिड़की तक, खिड़की से दरवाज़े तक.
ऐसे कितने चक्कर लगा सकता हूँ मैं? पंद्रह या सोलह –
उससे ज़्यादा नहीं. और उसके बाद मुझे मुड़कर शयनकक्ष में जाना पड़ता है. बैंडेज वाले कपडे पर बोतल की बगल में सिरिंज
पडी थी. मैं उसे उठाता हूँ, और असावधानी से सुईयां चुभोये गए नितम्ब पर आयोडीन मलता हूँ, सुई त्वचा
में घुसाता हूँ.
ज़रा भी दर्द नहीं है. ओ, इसके विपरीत: मुझे उल्लासोन्माद का पूर्वाभास होता है, जो अभी प्रकट
होगा. और, वो आ रहा है. मैं इस बारे में जान जाता हूँ, क्योंकि
हार्मोनियम की आवाजें, जो बसंत के आगमन से खुश होकर पोर्च में चौकीदार व्लास बजा
रहा है, सुनाई दे रही हैं. हार्मोनियम की भर्राई हुई, फटी-फटी आवाज़, कांच से चुपचाप
उड़कर मेरे पास आती हुई, फरिश्तों की आवाजों में बदल जाती हैं, और फूली हुई
धौंकनी में कर्कश आवाजें स्वर्गीय कोरस जैसी गूंजती हैं. मगर सिर्फ एक पल, और खून में कोकीन किसी रहस्यमय नियम के
अनुसार, जो किसी औषधि विज्ञान में नहीं लिखा है, किसी नई चीज़ में
बदल जाती है. मुझे मालूम है : यह शैतान का और मेरे खून का मिश्रण है. और पोर्च में
व्लास चीख रहा है, और मैं उससे नफ़रत करता हूँ, और सूर्यास्त, बेचैनी से गरजते हुए, मेरे भीतरी अंगों को जला रहा है. और ऐसा लगातार कई बार होता है, शाम के दौरान, जब तक मैं ये
नहीं समझता कि मुझे विषबाधा हो गई है.
दिल इस तरह खटखट करने लगता है, कि मैं उसे अपने हाथों में, कनपटियों में
महसूस करता हूँ....और फिर वह एक खाई में गिर जाता है, और कुछ ऐसे पल
आते हैं, जब मैं इस बात पर विचार करता हूँ, कि अब डॉक्टर पलिकोव
ज़िंदगी में वापस नहीं लौटेगा...
१३ अप्रैल.
मैं – अभागा डॉक्टर पलिकोव, जो इस साल फरवरी से मोर्फिनिज्म से बीमार है, और, सबको आगाह करता
हूँ, जिसके हिस्से में ऐसी किस्मत आये, जैसी मुझे मिली
है, कभी भी मोर्फीन के बदले कोकीन न लेना. कोकीन – सबसे खतरनाक और सबसे ज़्यादा
घातक ज़हर है. कल आन्ना ने मुश्किल से कपूर से मुझे ठीक किया था, और आज मै – आधा
मुर्दा हूँ...
६ मई १९१७.
काफी दिनों से मैंने अपनी डायरी को हाथ नहीं लगाया है. और अफसोस हो रहा है.
असल में, ये डायरी नहीं है, बल्कि बीमारी का
इतिहास है, और मेरे पास, ज़ाहिर है, दुनिया में अपने इकलौते दोस्त के प्रति व्यावसायिक आकर्षण है ( अगर मेरे दुखी और अक्सर रोते रहने वाले
दोस्त आन्ना को न गिना जाए तो).
तो, अगर बीमारी के इतिहास पर नज़र डाली जाए, तो ऐसा है. मैं
चौबीस घंटे में दो बार मोर्फीन का इंजेक्शन लगाता हूँ. दिन में पाँच बजे (लंच के
बाद) और रात के बारह बजे, सोने से पहले.
घोल तीन प्रतिशत वाला है: दो इंजेक्शन्स. मतलब, एक बार में – ०.०६
लेता हूँ.
बढ़िया है!
मेरे आरंभिक नोट्स कुछ उन्मादपूर्ण थे. कोई ख़ास भयानक बात
नहीं है.
मेरी कार्यक्षमता पर इसका ज़रा सा भी असर नहीं होता है.
बल्कि, पूरा दिन मैं पिछली रात को लिए गए इंजेक्शन की बदौलत
गुजारता हूँ. मैं शानदार तरीके से ऑपरेशन्स करता हूँ, अपने नुस्खों के प्रति बेहद चौकस रहता हूँ
और अपने डॉक्टरी लब्ज़ की कसम खाकर कहता हूँ, कि मेरे मोर्फिनिज्म से मेरे मरीजों को कोई
नुक्सान नहीं पहुँचा है. उम्मीद करता हूँ कि आगे भी नहीं पहुँचेगा. मगर एक दूसरी ही बात मुझे परेशान करती है. मुझे हर पल
ऐसा लगता है कि कोई न कोई मेरे गुनाह के बारे में जान जाएगा, और रिसेप्शन पर मेरी
पीठ पर जमी अपने सहायक-कम्पाउण्डर की बेहद उत्सुक नज़र महसूस करना मुश्किल हो जाता
है.
बकवास! वह अंदाज़ नहीं लगा सकता. कोई भी चीज़ मेरा भेद नहीं
खोल सकती. आंखों की पुतलियाँ सिर्फ शाम को भेद खोल सकती हैं, और शाम को तो मैं
उससे कभी भी नहीं टकराता.
हमारी डिस्पेंसरी में मोर्फीन की भयानक कमी को मैंने कसबे
में जाकर पूरा कर दिया.
मगर वहां भी मुझे कुछ अप्रिय क्षणों का सामना करना पडा.
गोदाम के मैनेजर ने मेरा ‘मांग-पत्र' लिया, जिसमें मैंने जानबूझ कर हर तरह की बकवास लिख दी थी, जैसे कैफीन, जो हमारे यहाँ
जितनी चाहो मिल जायेगी, और बोला:
“४० ग्राम मोर्फीन?”
और मुझे महसूस हो रहा था कि मैं आंखें चुरा रहा हूँ, स्कूली बच्चे की
तरह. महसूस कर रहा था कि मेरा चेहरा लाल हो रहा है...
“हमारे पास इतनी मात्रा में नहीं है. दस ग्राम दूँगा.”
और सचमुच, उसके पास नहीं है, मगर मुझे ऐसा लगता है कि वह मेरे भेद को
जान गया है, कि वह आँखों से मुझे टटोल रहा है, भेद रहा है, और मैं परेशान हो
रहा हूँ, तड़प रहा हूँ.
नहीं, पुतलियाँ, सिर्फ पुतलियाँ खतरनाक हैं, और इसलिए मैंने अपने आप के लिए एक नियम
बना लिया:
शाम को लोगों से नहीं मिलना है. मोर्फीन के लिहाज़ से, मेरे इस ‘कोने’ से ज़्यादा
सुविधाजनक और कोई जगह नहीं मिल सकती, तो छः महीने से ऊपर हो गये, जब मैं किसी से भी नहीं मिलता, सिवाय अपने
मरीजों के. और उन्हें मुझसे कोई लेना-देना नहीं है.
१८ मई.
ऊमस भरी रात है. तूफ़ान आयेगा. दूर, जंगल के उस पार, काला ‘पेट’ बढ रहा है और फूल रहा है.
पीली-सी, व्याकुल चमक आई. तूफ़ान आ रहा है.
मेरी आंखों के सामने किताब है, और उसमें मोर्फीन से दूर रहने के उपाय
के बारे में लिखा है:
“...बहुत घबराहट, बेचैनी भरी पीड़ा की स्थिति. चिडचिडाहट, याददाश्त कमजोर
होना, कभी कभी मतिभ्रम और कुछ मात्रा में चेतना का धुंधला
जाना...”
मतिभ्रम की स्थिति को तो मैंने महसूस नहीं किया, मगर बाकी के
लक्षणों के बारे में मैं कह सकता हूँ:
ओह, कैसे नीरस, सरकारी, कुछ न कहने वाले शब्द हैं!
“पीड़ा की स्थिति”! ...
नहीं, मैं, जो इस भयानक बीमारी से ग्रस्त हूँ, डॉक्टर्स को आगाह
करता हूँ, कि वे अपने मरीजों के प्रति ज़्यादा दया दिखाएं. यदि आप
सिर्फ एक या दो घंटों के लिए उसे मोर्फीन से वंचित रखते हैं, तो “पीडाजनक
स्थिति” नहीं, बल्कि मौत धीमी गति से मोर्फिनिस्ट को दबोच लेती है.
हवा संतोषजनक नहीं है, उसे निगल नहीं सकते...शरीर में ऐसी कोई कोशिका नहीं है
जो प्यासी न हो... किस चीज़ की? इसे परिभाषित करना, समझाना मुमकिन नहीं है. एक शब्द में, इंसान नहीं है.
वह निकल गया है. घूमता है, चाहता है, पीड़ा सहन करता है मुर्दा. वह कुछ नहीं चाहता, किसी बारे में
नहीं सोचता, सिवाय मोर्फीन के. मोर्फीन!
मोर्फीन की प्यास की तुलना में पानी की प्यास से मौत –
स्वर्गीय है, आनंदमय है. इस तरह जीते जी दफ़न किया गया इंसान, शायद, ताबूत में हवा के
अंतिम, नगण्य बुलबुलों को पकड़ता है और सीने की त्वचा को नाखूनों से फाड़ता है. इस तरह विधर्मी
चिता पर कराहता है और कसमसाता है, जब आग की पहली लपटें उसके पैरों को चूमती हैं...
मौत – सूखी, धीमी गति से आने वाली मौत...
यही छुपा है प्रोफेसरों के “पीडाजनक स्थिति” इन शब्दों
के पीछे.
x x x
और
बर्दाश्त नहीं कर सकता. और मैंने फ़ौरन अपने आप को इंजेक्शन लगा लिया. गहरी सांस
ली. और एक सांस ली.
आराम है.
और ये...ये...पेट के गढे में पेपरमिंट जैसी ठंडक...
३% वाले
घोल के तीन इंजेक्शंस. ये आधी रात तक के लिए पर्याप्त हैं...
बकवास. ये
नोट – बकवास है. इतना खतरनाक नहीं है. देर-सवेर मैं छोड़ ही दूँगा!...
और अब सोना
है, सोना है.
मोर्फीन के
साथ इस बेवकूफी भरी जंग से मैं सिर्फ खुद को पीड़ा पहुंचाता हूं और कमजोर बनाता
हूँ.
(आगे
नोटबुक में करीब दो दर्जन पन्ने काट दिए गए थे.)
...ता
...ई उल्टी
४ बजकर ३० मिनट पर.
जब मुझे
कुछ आराम हो जाएगा, तब अपने
भयानक अनुभवों को लिखूंगा.
१४ नवम्बर
१९१७
तो, मॉस्को के डॉक्टर... के अस्पताल से भागने के बाद
(नाम सावधानी से मिटाया गया था) मैं फिर से घर आ गया हूँ. बारिश की भयानक झड़ी लगी
है और परदे की तरह मुझसे दुनिया को छुपा रही है. छुपाने दो उसे मुझसे. मुझे उसकी
ज़रुरत नहीं है, वैसे ही
जैसे मेरी भी दुनिया में किसी को ज़रुरत नहीं है.
गोलीबारी
और तख्तापलट से मैं अस्पताल ही में बच गया. मगर इस इलाज को छोड़ देने का ख़याल
मॉस्को की सड़कों पर युद्ध होने से पहले ही चुपके से मेरे मन में दृढ़ होता गया.
शुक्रिया मोर्फीन का कि उसने मुझे बहादुर बनाया. किसी भी तरह की गोलीबारी मेरे लिए
खौफनाक नहीं है. और, वैसे भी
उस आदमी को कौन सी चीज़ डरा सकती है,
जो सिर्फ एक ही चीज़ के बारे में सोचता है – अद्भुत, दिव्य क्रिस्टल्स के बारे में.
जब नर्स, तोप के गोलों के धमाकों से पूरी तरह डर गई थी...
(यहाँ
पृष्ठ फाड़ दिया गया था.)
...दिया इस
पन्ने को, ताकि कोई भी वह शर्मनाक विवरण न पढ़ सके, कि कैसे डिग्री प्राप्त आदमी चोरों की तरह और डरपोक
की तरह भाग गया और उसने अपना ही सूट चुराया.
सूट की
क्या बात है!
कमीज़ तो
मैंने अस्पताल की उठा ली. इतना समय नहीं था. दूसरे दिन, इंजेक्शन लेने के बाद, मैं जैसे जी उठा और
डॉक्टर एन. के पास वापस आ गया. वह मुझसे दयनीयता से मिला, मगर इस दयनीयता में तिरस्कार भी शामिल था. ये भी
बेकार ही में था. आखिर वह मनोवैज्ञानिक है और उसे समझना चाहिए, कि मुझे हमेशा अपने आप पर काबू नहीं रहता. मैं
बीमार हूँ. मेरा तिरस्कार किसलिए?
मैंने अस्पताल की कमीज़ लौटाई.
उसने कहा:
“धन्यवाद,” और आगे कहा,
“अब आपका क्या करने का इरादा है?”
मैंने जोश से
कहा (मैं इस समय उत्साह की स्थिति में था):
“मैंने
निश्चय कर लिया है कि अपने कोने में चला जाऊंगा, ऊपर से,
मेरी छुट्टी ख़त्म हो गई है. आपका बहुत शुक्रगुज़ार हूँ, सहायता के लिए, मैं अब काफी बेहतर महसूस कर रहा हूँ. अपने
अस्पताल में ही इलाज करता रहूँगा.”
उसने जवाब
दिया:
“आप
बिल्कुल भी अच्छा महसूस नहीं कर रहे हैं,
मुझे, वाकई में,
हँसी आ रही है कि आप मुझसे ऐसा कह रहे हैं. आपकी आंखों की पुतलियों पर एक नज़र
डालना ही काफी है. आप, ये कह
किससे रहे हैं?...”
“प्रोफ़ेसर, फ़ौरन तो मेरी आदत छूटेगी नहीं...ख़ास तौर से अब,
जब ये सब घटनाएं हो रही हैं....गोलीबारी ने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया...”
“वह ख़त्म
हो गई है. अब नई सरकार है. फिर से लेट जाइए.”
अब मुझे सब
कुछ याद आ गया...ठंडे कोरीडोर,..खाली, दूधिया रंग से पुती दीवारें...और मैं रेंग रहा
हूँ, जैसे पैर टूटा हुआ कुत्ता रेंगता है...किसी चीज़
का इंतज़ार कर रहा हूँ...किसका? गरम पानी वाले स्नानगृह का?...०,००५
मोर्फीन का. डोज़, जिनसे, सही में,
मरते नहीं हैं...मगर सिर्फ...और सारी उदासी रह जाती है, एक बोझ की तरह, जैसे थी...तनहा रातें, वह कमीज़ जिसे मैंने अपने बदन पर फाड़ डाला था, विनती करते हुए, कि मुझे छोड़ दें?...
नहीं.
नहीं. मोर्फीन का आविष्कार किया,
उसे स्वर्गीय पौधे के सूखे, खडखड़ाते
फूलों से खींचकर, तो, बिना पीड़ा
के इलाज करने का तरीका भी ढूंढिए! मैंने जिद्दीपन से सिर हिलाया. अब वह उठा. और
मैं अचानक भयभीत होकर दरवाज़े की और भागा. मुझे ऐसा लगा कि वह मेरे पीछे दरवाज़ा बंद
करके ज़बरदस्ती मुझे अस्पताल में रोके रखना चाहता है...
प्रोफ़ेसर
लाल हो गया.
“मैं कोइ
जेल का चौकीदार नहीं हूँ,” अपनी
चिडचिडाहट वह रोक नहीं पाया,
“और मेरे पास कोई बुतीर्का (बस्ती) भी नहीं है. चुपचाप बैठ जाइए. आप शेखी मार रहे
हैं, कि पूरी तरह नॉर्मल हैं, दो हफ्ते पहले. और
वैसे...” उसने मेरी डरने की मुद्रा को दुहराया,
मैं आपको रोकूंगा नहीं.”
“प्रोफ़ेसर, मेरा ‘नोट’
लौटा दीजिये. आपसे विनती करता हूँ,”
और मेरी आवाज़ भी दयनीयता से थरथरा गई.
उसने मेज़
की दराज़ में चाभी घुमाई और मेरा लिखा हुआ ‘नोट’
मुझे दे दिया (इस बारे में, कि मैं दो
महीने के इलाज का कोर्स पूरा करने का वादा करता हूँ, और मुझे अस्पताल में रोक कर रख सकते हैं वगैरह.
मतलब, जैसा आम तौर से
होता है.)
थरथराते
हाथ से मैंने ‘नोट’ लिया और
उसे छुपा लिया, हकलाते
हुए कहा:
:
“धन्यवाद.”
फिर उठा,
जाने के लिए. और चलने लगा.
“डॉक्टर
पलिकोव!” पीछे से आवाज़ आई. दरवाज़े का हैंडल पकडे हुए मैं मुडा.
“बात यह है,” वह कहने लगा, “अच्छी तरह सोच लीजिये. याद रखिये
कि आप वैसे भी मानसिक रुग्णालय में जाने ही वाले हैं, खैर,
कुछ समय के बाद...और तब आपकी बेहद बुरी हालत हो जायेगी. मैंने तो आपसे एक डॉक्टर
की तरह बर्ताव किया. मगर तब तो आप पूरी तरह मानसिक पतन की हालत में होंगे. प्यारे, असल में तो आपको प्रैक्टिस करना मना है और, गौर फरमाइए,
कि आपके अस्पताल को इस बारे में सूचित न करना अपराध होगा.”
मैं कांप
गया और मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि मेरे चहरे का रंग उड गया है (हालांकि, वैसे भी मेरा चेहरा काफी विवर्ण है).
“मैं,” मैंने दबी-दबी आवाज़ में कहा, “आपसे विनती करता हूँ, प्रोफ़ेसर,
किसी से भी कुछ भी न कहिये...तब,
मुझे नौकरी से निकाल देंगे...मुझ पर ;
‘बीमार’ का तमगा लग जाएगा...आप मेरे साथ ऐसा क्यों करना
चाहते हैं?”
“जाइए,” वह झुंझलाहट से चीखा, “जाइए. कुछ भी नहीं कहूंगा. फिर भी आपको वापस ले
आयेंगे ...”
मैं निकल
गया और, कसम खाता हूँ, पूरे रास्ते दर्द और शर्म से
कंपकंपा रहा था...क्यों?...
x x x
बहुत आसान है. आह, मेरे दोस्त,
मेरी विश्वसनीय डायरी. कहीं तुम तो मेरा भेद न खोल दोगी?
बात ‘सूट’ की नहीं है, बल्कि ये है कि मैंने अस्पताल से मोर्फीन
चुरा ली थी.
क्रिस्टल्स
के तीन क्यूब्स और १० ग्राम एक प्रतिशत का घोल.
मुझे
सिर्फ इसीमें दिलचस्पी नहीं है, बल्कि कुछ और बात भी है. अलमारी में चाभी
लगी हुई थी. खैर, अगर वह नहीं होती तो?
क्या मैं अलमारी तोड देता या नहीं? आँ?
ईमानदारी से?
तोड
देता.
तो,
डॉक्टर पलिकोव – चोर है. ये पन्ना मैं फाड़ दूँगा.
मगर,
प्रैक्टिस के बारे में उसने कुछ ज़्यादा ही नमक-मिर्च लगा दी. हाँ,
मैं पतित हूँ.
बिलकुल
सही है. मेरी नैतिकता का पतन शुरू हो चुका है. मगर काम तो मैं कर सकता हूँ, अपने
किसी भी मरीज़ का बुरा नहीं कर सकता, उसे
नुक्सान नहीं पहुँचा सकता.
x x x
हाँ,
मगर चुराया क्यों? सीधी बात है. मैंने फैसला कर लिया कि
युद्ध के दौरान, और तख्तापलट से जुडी सारी गडबडी के दौरान,
मुझे कहीं भी मोर्फीन नहीं मिलेगी.
मगर
जब सब कुछ शांत हो गया, तो मुझे शहर के बाहर एक और फार्मेसी में
भी मिल गई – १५ ग्राम, एक प्रतिशत वाले घोल का, जो
मेरे लिए बेकार और उबाऊ है ( नौ सिरींज लगानी पड़ेंगी!). और अपमानित भी होना पडा. फार्मेसी
वाले ने ‘सील’ की मांग की,
मेरी ओर त्यौरियां चढ़ाकर और संदेह से देखा. मगर फिर दूसरे दिन,
जब मैं कुछ सामान्य हो गया, तो मुझे बिना किसी रुकावट के एक अन्य
फार्मेसी में क्रिस्टल्स के रूप में २० ग्राम मिल गई – अस्पताल के लिए नुस्खा लिख
दिया (साथ ही, बेशक,
कैफीन और एस्पिरिन भी लिख दी). हाँ,
आखिर, मैं क्यों छुपता रहूँ,
डरता रहूँ? वाकई में,
क्या मेरे माथे पर लिखा है, कि मैं – मोर्फिनिस्ट हूँ? आखिर,
किसी को क्या लेना देना है?
x x x
हाँ,
और क्या काफी पतन हो गया है? प्रमाण के तौर पर ये नोट्स पेश करता हूँ.
वे टुकड़ों में हैं, मगर मैं कोई लेखक तो नहीं हूँ! क्या उनमें
कोई निरर्थक विचार हैं? मेरे ख़याल से,
मैं एकदम तर्कपूर्ण विचार करता हूँ.
x x x
मोर्फिनिस्ट
के पास बस एक ही खुशी होती है, जिसे उससे कोई भी छीन नहीं सकता,
- ज़िंदगी को संपूर्ण एकांत में गुजारने की योग्यता. और एकांत है – महत्त्वपूर्ण, शानदार
विचार, ये है चिन्तन, शान्ति,
बुद्धिमत्ता...
रात
बीत रही है, काली और खामोश रात. कहीं दूर नग्न हो चुका
जंगल है, उसके पीछे नदी,
ठण्ड, शिशिर. दूर, कहीं दूर है बिखरा हुआ,
बेतरतीब मॉस्को. मुझे कोई लेना-देना नहीं है उससे,
मुझे कुछ नहीं चाहिए, और मुझे किसी जगह का आकर्षण नहीं है.
जलो,
मेरे लैम्प की रोशनी, जलो हौले-हौले, मॉस्को के कारनामों के बाद
मैं आराम करना चाहता हूँ, मैं उन्हें भूलना चाहता हूँ.
और
भूल गया.
भूल
गया.
१८
नवम्बर.
पाला.
खुश्की. मैं पगडंडी से नदी की और जाने के लिए निकला,
क्योंकि मैं लगभग कभी भी ताज़ी हवा में सांस नहीं लेता हूँ.
व्यक्तित्व
का पतन – तो पतन है, मगर फिर भी मैं उससे बचने की कोशिश कर रहा
हूँ. मिसाल के तौर पर, आज सुबह मैंने इंजेक्शन नहीं लगाया. (आजकल
मैं दिन में तीन बार चार प्रतिशत घोल के इंजेक्शन लगाता हूँ). असुविधाजनक है. मुझे
आन्ना पर दया आती है. हर अतिरिक्त प्रतिशत उसे मारे डालता है. मुझे दया आती है. आह,
क्या इंसान है!
हाँ...तो...ये...जब
हालत बिगड़ने लगी, तो मैंने दर्द बर्दाश्त करने का (प्रोफ़ेसर N को मेरी तारीफ करने दो),
और इंजेक्शन की कालावधि बढाने का फैसला कर लिया
और नदी की और चल
पडा.
कैसी वीरानी है. कोई आवाज़ नहीं, कोई सरसराहट नहीं. अन्धेरा अभी हुआ नहीं
है, मगर वे कहीं छिप गए हैं और दलादल से, टीलों से, ठूंठों से होकर रेंग
रहे हैं...चल रहे हैं, चल रहे हैं लेव्कोव्स्काया अस्पताल की तरफ...और मैं भी
रेंग रहा हूँ, छडी का सहारा लेते हुए (सच कहूं तो पिछले कुछ समय से
मैं कुछ कमजोर हो गया हूँ).
और देखता हूँ, कि नदी से ढलान पर होते हुए पीले बालों वाली एक बुढिया मेरी
ओर तेज़ी से उड़ते हुए आ रही है, और घुँघरू जड़े, शोख रंग के अपने स्कर्ट के नीचे पैरों को
भी नहीं हिला रही है...पहले तो मैं उसे समझ नहीं पाया और ज़रा भी नहीं घबराया.
अजीब बात है – क्यों इस ठंड में यह बुढ़िया खुले सिर और
एक ही ब्लाऊज में है?...
और बाद में, कहाँ से आई ये बुढ़िया, कौन है ये? हमारे लेव्कोवा अस्पताल में तो मरीजों
का समय समाप्त हो जाएगा, किसानों की आख़िरी स्लेज गाड़ियां चली जायेंगी, और आसपास दस मील
के घेरे में – कोई नहीं है. कोहरा, दलदल, जंगल! और फिर अचानक मेरी पीठ पर ठंडा पसीना बहने लगा –
समझ गया!
बुढ़िया भाग नहीं रही है, बल्कि उड़ रही है, ज़मीन को न छूते
हुए. ठीक है? मगर इस एहसास से मेरी चीख नहीं निकली, बल्कि मैं इसलिए
चीखा कि बुढ़िया के हाथों में एक नोकदार डंडा है. मैं इतना क्यों घबरा गया? क्यों? मैं एक घुटने पर
गिर पडा, हाथ फैलाए हुए, आंखें बंद करते हुए ताकि उसे न देखूँ, फिर मुड़ा और
लंगडाते हुए घर की और भागा, जैसे वह संरक्षण स्थल हो, कुछ न चाहते हुए, सिवा इसके कि
मेरा दिल न फट जाए, कि मैं जल्दी से जल्दी गरमाहट भरे कमरों में भागूं, जीती-जागती आन्ना
को देखूँ...और मोर्फीन को...
और मैं भाग कर घर आया.
x x x
बकवास.
खोखला भ्रम. आकस्मिक मतिभ्रम
१९ नवम्बर
उल्टी. ये बुरी बात है.
२१ तारीख को आन्ना से मेरी रात की बातचीत.
आन्ना – कम्पाउंडर जानता है.
मैं – वाकई में? कोई बात नहीं. छोटी-सी
बात है.
आन्ना – अगर तुम यहाँ से शहर नहीं जाओगे, तो मैं अपना गला दबा लूँगी. तुम सुन रहे हो?
अपने हाथों की ओर देखो, ज़रा देखो.
मैं – थोड़ा थरथराते हैं. मगर इससे मुझे काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती.
आन्ना – तुम देखो – वे पारदर्शी हैं. सिर्फ हड्डी और चमड़ी...अपने चहरे की
और देखो...सुनो, सिर्योझा, चले जाओ, तुम्हें कसम है, चले जाओ...
मैं – और तुम?
आन्ना – चले जाओ. चले जाओ. तुम मर रहे हो.
मैं – खैर, ये बड़ी कठोर बात कह दी.
मगर मैं वाकई में खुद ही नहीं समझ पा रहा हूँ, कि मैं इतनी जल्दी कैसे कमजोर हो गया? अभी तो पूरा साल भी नहीं बीता, जबसे
मैं बीमार हूँ. ज़ाहिर है, मेरी शरीर-रचना ऐसी ही
है.
आन्ना (अफसोस से) – वो
कौन-सी चीज़ है जो तुम्हें ज़िंदगी की तरफ वापस ला सकती है? हो सकता है, तुम्हारी अम्नेरिस –
बीबी?
मैं – ओह, नहीं. शांत हो जाओ.
मोर्फीन का शुक्रिया कि मुझे उससे छुटकारा दे दिया.
उसकी जगह पर – मोर्फीन.
आन्ना – आह, तुम, खुदा...मैं क्या करूँ?
x x x
मैं सोचता था कि सिर्फ उपन्यासों में ही ऐसी होती हैं, जैसी ये आन्ना है. और अगर मैं कभी अच्छा हो जाऊँ, तो मैं हमेशा के लिए अपना भाग्य उससे जोड़ लूँगा. उसे जर्मनी से वापस न आने
दो.
२७ दिसंबर.
बहुत दिनों से मैंने नोट बुक को हाथ नहीं लगाया. मैं गरम कपड़ों में लिपटा
हुआ हूँ, घोड़े इंतज़ार कर राजे
है. बोमगर्द गरेलव डिस्ट्रिक्ट से चला गया है, और मुझे उसकी जगह पर भेजा गया है. मेरी जगह पर – लेडी डॉक्टर आयेगी.
आन्ना-यहीं रहेगी...मेरे पास आती-जाती रहेगी...
हालांकि तीस मील है.
x x x
ये पक्का निर्णय लिया गया कि १ जनवरी से मैं एक महीने की बीमारी की छुट्टी
लूँगा – और मॉस्को जाऊंगा, प्रोफ़ेसर के पास. मैं
फिर से ‘इकरारनामा’ लिख कर दूंगा, और महीना भर उसके
अस्पताल में अमानवीय यातनाएँ सहता रहूँगा.
अलबिदा, लेव्कोवा. आन्ना, फिर मिलेंगे.
वर्ष १९१८
जनवरी.
मैं नहीं गया. अपने घुलनशील दैवी कणों से जुदा नहीं हो सकता.
इलाज के दौरान मैं मर जाऊंगा.
और बार-बार मेरे दिल में ख़याल आता है कि मुझे इलाज की ज़रुरत नहीं है.
१५ जनवरी.
सुबह उल्टी हो गई.
तीन इन्जेक्शन्स चार प्रतिशत वाले घोल के शाम को.
तीन इंजेक्शन्स चार प्रतिशत वाले घोल के रात को.
१६ जनवरी.
ओपरेशन का दिन है, इसलिए काफी देर
बर्दाश्त करना पडा – रात से शाम के छः बजे तक.
शाम का धुंधलका – सबसे भयानक समय होता है – क्वार्टर में भी मैं स्पष्ट रूप
से एकसार और धमकाती हुई आवाज़ सुन रहा था, जो दुहरा रही थी:
“सिर्गेइ वसील्येविच. सिर्गेइ वसील्येविच.”
इंजेक्शन के बाद सब कुछ फ़ौरन शांत हो गया.
१७ जनवरी.
बर्फीला तूफ़ान – मरीज़ नहीं देखने हैं. इस ज़बरदस्ती की कैद के दौरान
मनोचिकित्सा की पाठ्य पुस्तक पढी, और उसने मुझ पर बेहद
भयानक प्रभाव डाला. मैं ख़त्म हो गया, कोई
उम्मीद नहीं है.
फुसफुसाहट से डरता हूँ, इस ज़बरदस्ती की कैद के
दौरान मुझे लोगों से चिढ़ होती है. मैं उनसे डरता हूँ.
उत्साह के दौरान मैं उन सबसे प्यार करता हूँ, मगर अकेलापन मुझे ज़्यादा पसंद है.
x x x
यहाँ सावधान रहने की ज़रुरत है – यहाँ कंपाउंडर और दो नर्सेस हैं. बहुत
ध्यान रखना होगा, ताकि भेद न खुल जाए.
मैं अनुभवी हो गया हूँ, और अपना भेद नहीं खुलने
दूँगा. जब तक मेरे पास मोर्फीन का स्टॉक है, किसी को भी पता नहीं चलेगा. घोल मैं खुद ही बनाता हूँ, या आन्ना को काफी पहले नुस्ख़ा भेज देता हूँ. एक बार उसने कोशिश की थी
(असफल) पाँच प्रतिशत को दो प्रतिशत में बदलने की. खुद ही ठण्ड और तूफ़ान में लेव्कवा
से लाई थी.
और इस वजह से हमारे बीच रात को भयानक झगड़ा हो गया. उसे मनाया कि ऐसा न करे.
यहाँ के कर्मचारियों को मैंने बताया कि मैं बीमार हूँ. बड़ी देर तक सिर खपाता रहा, कि कौनसी बीमारी का नाम सोचूँ. ये कहा कि मुझे पैरों का गठिया और गंभीर
न्यूरेस्थेनिया है.
उन्हें बता दिया गया है कि मैं फरवरी में छुट्टी लेकर इलाज के लिए मॉस्को
जाने वाला हूँ. सब कुछ ठीक ही चल रहा है. काम पर कोई परेशानी नहीं होती. उन दिनों
में ऑपरेशन्स करने से बचता हूँ, जब मुझे हिचकियों के
साथ अनियंत्रित उल्टियां शुरू हो जाती हैं. इसलिए एक और बीमारी –
गेस्ट्रोएन्टेराइटिस – का नाम भी लिखना पडा. आह, एक आदमी के लिए बहुत सारी बीमारियाँ हो गईं!
यहाँ का स्टाफ बहुत दयालु है और वह खुद ही मुझे छुट्टी पर भगा देता है.
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बाह्य रूप: दुबला, विवर्ण, मोम जैसा पीलापन.
स्नान किया और साथ ही अस्पताल की मशीन पर अपना वज़न लिया. पिछले साल मेरा
वज़न ४ पूद था ( एक पुद = १६.३८ किलो- अनु.), और अब है ३.१५ पूद. मशीन की सुई को
देखकर डर गया, फिर डर निकल गया.
बाजुओं पर लगातार छाले हो रहे हैं, वैसा ही नितम्बों पर भी हो रहा है. निर्जन्तुक करके घोल बनाना मुझे नहीं
आता, इसके अलावा, तीन बार मैंने बिना
उबाली गई सिरींज से इंजेक्शन लगा लिया, सफ़र से
पहले बेहद जल्दी में था.
इसकी इजाज़त नहीं है.
१८ जनवरी.
ऐसा मतिभ्रम हो गया : काले चश्मे में किन्हीं बदरंग लोगों का इंतज़ार कर रहा
हूँ. ये बर्दाश्त नहीं होता. सिर्फ एक परदा. अस्पताल से बैंडेज का कपड़ा लिया और
टांग दिया.
कोई बहाना नहीं ढूंढ पाया.
आह, शैतान ले जाए! अरे
क्यों, आखिर क्यों, अपने हर काम के लिए
मुझे कोई बहाना ढूँढना पड़ता है? वाकई में ये पीड़ा है, न कि ज़िंदगी!
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क्या मैं
अपने विचार सहजता से प्रकट कर रहा हूँ?
मेरे ख़याल में, सहजता से.
ज़िंदगी? मज़ाक है!
१९ जनवरी.
आज रिसेप्शन पर अंतराल के समय, जब हम फार्मेसी
में आराम कर रहे थे और सिगरेट पी रहे थे, तो
कंपाउंडर ने पावडर की पुडिया बनाते हुए, बताया (
न जाने क्यों हँसते हुए), कि कैसे महिला कंपाउंडर ने, जो
मोर्फिनिज्म से बीमार थी, और जिसके लिए मोर्फीन
हासिल करना संभव नहीं था, आधा गिलास अफीम-टिंचर
ले लेती थी. मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस दर्दभरी कहानी के दौरान अपनी आंखें कहाँ
छुपाऊँ, इसमें मज़ाक की क्या बात थी? वह मुझे घिनौना लगता
है. इसमें हंसने जैसी क्या बात थी? क्या?
मैं दबे पाँव फार्मेसी से निकल गया.
“आपको इस बीमारी में हंसने जैसी क्या बात लगती है?”
मगर मैंने खुद को रोक लिया, रोक...
मेरी परिस्थिति में लोगों के साथ ख़ास तौर से हेकड़ी दिखाना ठीक नहीं है.
आह, कंपाउंडर. वह उतना ही
क्रूर है, जितने ये मनोचिकित्सक,
जो मरीज़ की किसी भी तरह, किसी भी तरह, किसी भी
तरह मदद नहीं कर सकते.
किसी भी तरह से नहीं.
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पिछली पंक्तियाँ संयम के दौरान लिखी गई थीं, और उनमें बहुत कुछ अनुचित है.
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अभी चाँद की रात है. मैं उल्टियों के दौरे के बाद लेटा हूँ, कमजोर महसूस कर रहा हूँ. हाथ ऊपर नहीं उठा सकता और पेन्सिल से अपने विचार
घसीट रहा हूँ. वे शुद्ध और गर्वीले हैं.
कुछ घंटों के लिए मैं खुशनसीब हूँ. मेरे सामने है एक सपना. मेरे ऊपर है
चाँद और उस पर है मुकुट. इंजेक्शनों के बाद कुछ भी डरावना नहीं लगता.
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१
फरवरी.
आन्ना आ गई है. वह पीली पड़ गई है, बीमार
है.
बर्बाद कर दिया मैंने उसे. बर्बाद कर दिया, हाँ, मेरी अंतरात्मा पर पाप
का बहुत बड़ा बोझ है.
कसम खाकर उससे कहा, कि फरवरी के मध्य में
चला जाऊंगा.
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क्या मैं
कसम पूरी कर पाऊंगा?
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हाँ. पूरी करूंगा.
अ(गर). सि(र्फ). ज़िंदा रहा तो.
३ फरवरी.
तो, टीला. बर्फ से ढंका और
अंतहीन, उस टीले जैसा, जिससे बचपन में
परीकथाओं के काय को स्लेज ले गई थी. मेरी आख़िरी उड़ान इसी टीले से होकर जायेगी, और मैं जानता हूँ, कि नीचे मेरे सामने
क्या होगा, आह, आन्ना, महान शोक होने वाला है, जल्दी ही, अगर तुमने मुझसे प्यार
किया है तो...
११ फरवरी.
मैंने ये फैसला किया है. मैं बोमगर्द से संपर्क करूंगा. उसीसे क्यों?
इसलिए कि वह मनोचिकित्सक नहीं है, क्योंकि जवान है और मेरा यूनिवर्सिटी का
दोस्त है. वह तंदुरुस्त है. ताकतवर है, मगर
नर्म स्वभाव का है, अगर मैं सही हूँ तो.
मुझे उसकी याद है. हो सकता है, वह भरोसे...मुझे उससे
सहानुभूति मिलेगी. वह कुछ न कुछ सोचेगा. चाहे तो मुझे मॉस्को ले जाए.
मैं उसके पास नहीं जा सकता. छुट्टी मुझे मिल गई है. पड़ा हूँ. अस्पताल नहीं
जा रहा हूँ.
कंपाउंडर की मैंने शिकायत कर दी. खैर, मैं हँस दिया...कोई बात नहीं. वह मुझे देखने आया था. मेरी बात सुनने की
पेशकश की.
मैंने इजाज़त नहीं दी. फिर से इनकार के लिए बहाने? मैं कोई बहाने नहीं बनाना चाहता.
बोमगर्द को चिट्ठी भेज दी है.
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लोगों! क्या कोई मेरी मदद करेगा?
मैं दयनीयता से चिल्लाने लगा. और अगर किसी ने इसे पढ़ लिया , तो सोचेगा –
झूठ है. मगर कोई नहीं पढेगा.
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बोमगर्द को लिखने से पहले सब कुछ याद किया. ख़ास तौर से नवम्बर का मॉस्को का
रेल्वे स्टेशन यादों में तैर गया, जब मैं मॉस्को से भागा
था. कैसी भयानक रात थी.
चुराई हुई मोर्फीन का इंजेक्शन मैं टॉयलेट में लगाता था...ये बड़ा दुखदाई
था. दरवाज़ा खटखटाया जा रहा था, आवाजें गरज रही थीं, फौलाद
जैसी, डांट रहे थे कि मैं बड़ी
देर तक अन्दर बैठा हूँ, और हाथ उछल रहे हैं, दरवाज़े
का हुक उछल रहा है, और देखो, लगता है, दरवाज़ा अभी खुल जाएगा...
तभी से मुझे फोड़े भी हो गए.
ये सब याद करके रात में रोता रहा.
१२ तारीख की रात.
मैं फिर से रो पडा. रात में यह कमजोरी और नफ़रत क्यों?
१९१८ की १३ फरवरी को गरेलव्का में.
मैं खुद को मुबारकबाद दे सकता हूँ: मैं चौदह घंटे से बिना इंजेक्शन के हूँ!
इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती. धुंधली और हल्की सफ़ेद भोर हो रही है.
क्या मैं अब बिलकुल ठीक हो जाऊंगा?
संजीदगी से सोचा जाए तो मुझे बोमगर्द की ज़रुरत नहीं है, और किसी की भी ज़रुरत नहीं है.
अपनी ज़िंदगी को एक मिनट के लिए भी बढ़ाना शर्मनाक है. ऐसी – नहीं, इसकी इजाज़त नहीं है.
दवा मेरे पास ही है.
यह ख़याल मुझे पहले क्यों नहीं आया?
तो, खैर, आगे बढ़ते है. मुझे
किसी को कुछ नहीं देना है. मैंने सिर्फ अपने आप को ही मार डाला है. और आन्ना को.
मैं कर ही क्या सकता हूँ?
वक्त घाव भर देगा, जैसा अम्नेर गाया करती
थी. उसके साथ , बेशक, सब कुछ सहज और आसान था.
नोटबुक बोमगर्द को. हो गया....
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