20
ईसा मसीह के जन्म के बाद
का वर्ष 1918 महान था और भयानक भी था, मगर 1919 तो उससे भी भयानक था.
दो और तीन फ़रवरी की रात को
द्नेप्र पर बने ‘चेन ब्रिज’ के प्रवेश पर दो लड़के फटे हुए काले ओवरकोट में नीले-लाल, लहूलुहान चेहरे
वाले, एक आदमी को बर्फ पर घसीट रहे थे, और उनकी बगल में दौड़ता हुआ कज़ाक सार्जेंट
उसके सिर पर छड से प्रहार किये जा रहा था. हर प्रहार के साथ सिर उछलता, मगर घायल
आदमी अब चिल्ला नहीं रहा था, बल्कि सिर्फ कराह रहा था. छड़ पूरे जोर से और तैश से तार-तार हुए ओवरकोट पर
मार कर रही थी, और हर वार का जवाब भर्राए हुए “ऊख...आ...” से मिलता.
“आ, यहूदी
थोबड़े!: कज़ाक सार्जेंट तैश में चीखे जा रहा था, “इसे गोली मार देनी चाहिए! मैं तुझे दिखाऊंगा, अँधेरे कोनों में कैसे छुपते हैं. मैं तु-तुझे दिखाऊंगा! तू लकड़ियों के
पीछे क्या कर रहा था? जासूस!”
मगर लहुलुहान आदमी ने
क्रोधित कज़ाक सार्जेंट को जवाब नहीं दिया. तब कज़ाक सार्जेंट सामने की ओर से भागा, और लडके उछले, ताकि चमचमाती
छड से बच सकें. कज़ाक सार्जेंट ने प्रहार की तीव्रता का अंदाज़ नहीं लगाया और बिजली
की तरह छड को सिर पर दे मारा. उसमें कुछ टूटा, काले आदमी ने ‘उह’...भी नहीं कहा. हाथ मोड़कर और सिर लटकाकर, घुटनों से एक तरफ़ गिर गया और, दूसरा हाथ पूरा फैलाकर, उसे छोड़ दिया, जैसे अपने लिए रौंदी हुई और खाद वाली मिट्टी उठा सके. उंगलियाँ टेढ़ी मेढी होकर
मुडीं और गंदी बर्फ उठा ली. फिर काले डबरे में पड़ा हुआ आदमी कई बार थरथराया और
शांत हो गया.
निश्चल व्यक्ति के ऊपर,
पुल के प्रवेश मार्ग के पास, इलेक्ट्रिक लैम्प सनसना रहा था, उसके चारों ओर
फुन्दों वाली टोपियाँ पहने उत्तेजित कजाकों की परछाईयाँ मंडरा रही थीं, और ऊपर था
काला आसमान अठखेलियाँ करते सितारों के साथ.
और इस पल, जब गिरे हुए
आदमी ने प्राण छोड़े, शहर के बाहर पास वाली बस्ती के ऊपर मंगल तारे में जमी हुई ऊंचाई पर विस्फोट हुआ, उसमें से आग की लपटें निकलने लगीं और वह कानों को बहरा करने वाली आवाज़ के
साथ फट पडा.
तारे के पीछे-पीछे द्नेप्र
पार के काले विस्तार में, जो मॉस्को जाता था, भयानक और दीर्घ गडगड़ाहट हुई. और तभी एक अन्य तारा फट पडा, मगर कुछ नीचे, ठीक छतों के
ऊपर, जो बर्फ के नीचे दबी थीं.
और फ़ौरन नीली, सशस्त्र कज़ाक
डिविजन पुल से नीचे उतरी और शहर की तरफ, शहर से होते हुए भागी, हमेशा के लिए भाग गयी.
नीली डिविजन के पीछे
भेड़ियों के झुण्ड की तरह, बर्फ से अकड़ गए घोड़ों पर कोज़िर-लिश्को की डिविजन गुज़री, साथ में रसोई
का सामान था...सब कुछ ओझल हो गया, जैसे कभी उसका अस्तित्व ही नहीं था. सिर्फ पुल के प्रवेश के पास काले कोट
में यहूदी का अकड़ा हुआ मृत शरीर, कुचली हुई घास, और घोड़े की लीद थी.
और सिर्फ मृत शरीर ही इस
बात का प्रमाण था, कि पेतुर्रा कोई दन्त-कथा नहीं है, कि वह वास्तव में था...जिन्...त्र्त्रेन्...गिटार, तुर्क... ब्रोन्नाया पर
लगा लैम्प...लड़कियों की चोटियाँ, बर्फ झाड़ती हुईं, गोलियों के ज़ख्म, रात में जानवरों का विलाप, बर्फ...मतलब, यह सब हुआ था.
ये है ग्रीशा, काम से पहले...
ग्रीशा के जूते हैं फटे हुए...
मगर, यह सब हुआ
क्यों था? कोई नहीं बताएगा. क्या कोई खून की कीमत चुकाएगा?
नहीं. कोई नहीं.
सिर्फ बर्फ पिघल जायेगी,
हरी-हरी उक्रेनियन घास उगेगी, धरती को लपेट लेगी...हरी-हरी, शानदार कोंपलें फूटेंगी...धरती पर गर्मी
थरथरायेगी, और खून का नामोनिशान तक न बचेगा. इन लाल खेतों में खून सस्ता है, और कोई
उसे वापस नहीं खरीदेगा.
कोई नहीं.
****
शाम से सार्दाम भट्टी की
टाईल्स खूब गरम की गईं, और अभी तक, देर रात गए, भट्टी में गर्माहट थी. उनके ऊपर की लिखावट मिट गयी थी, सिर्फ एक बची
थी:
“....ल्येन्...मैंने टिकट
ले ली है ‘आय...”
अलेक्सेयेव्स्की ढलान पर
स्थित घर, श्वेत जनरल की हैट जैसी बर्फ से ढंका हुआ, कब का सो चुका था और गर्माहट में सो रहा था. उनींदापन परदों के पीछे घूम
रहा था, परछाईयों में डोल रहा था.
खिड़कियों के पीछे बर्फीली
रात अधिकाधिक खिल रही थी और खामोशी से धरती के ऊपर तैर रही थी. सितारे खिल रहे थे, सिकुड़ते हुए
और फैलते हुए, और आकाश में विशेष ऊंचाई पर था लाल और पांच कोनों वाला तारा – मंगल.
गर्माहट भरे कमरों में
सपने आकर बस गए थे.
तुर्बीन अपने छोटे से
शयनकक्ष में सो रहा था, और सपना उसके ऊपर तैर रहा था, किसी धुंधली तस्वीर की तरह. लॉबी तैर रही थी, हिचकोले खाते हुए, और सम्राट
अलेक्सान्द्र भट्टी में डिविजन की सूचियाँ जला रहा था...यूलिया गुज़री और उसने
इशारा किया और मुस्कुराई, परछाईयाँ उछल रही थीं, चिल्ला रही थीं:
“मारो! मारो!”
वे बेआवाज़ गोलियां चला रहे
थे, और तुर्बीन उनसे दूर भागने की कोशिश कर रहा था, मगर उसके पैर माला-प्रवाल्नाया
पर फुटपाथ से चिपक गए, और सपने में तुर्बीन मर गया. वह कराहते हुए जागा, ड्राईंग रूम से
मिश्लायेव्स्की के खर्राटे सुने, किताबों वाले कमरे से करास और लारिओसिक की हल्की सीटी की आवाज़ सुनी. माथे
से पसीना पोंछा, होश में आ गया, हौले से मुस्कुराया, घड़ी की तरफ़ हाथ बढाया.
घड़ी तीन बजे का समय दिखा
रही थी.
‘शायद, चले
गए...पेतुर्रा...अब ऐसा फिर कभी नहीं होगा.’
और फिर से सो गया.
****
रात अपने पूरे शबाब पर थी.
सुबह होने को थी, और घनी, झबरी बर्फ में दबा हुआ घर सो रहा था. परेशान वसिलीसा ठंडी चादरों में सो
रहा था, अपने दुबले-पतले शरीर से उन्हें गरमाते हुए. वसिलीसा ने बेतुका और गोल-गोल
सपना देखा. जैसे कोई क्रान्ति-वान्ति कभी हुई ही नहीं थी, सब बेवकूफी और बकवास थी.
सपने में. वसिलीसा के ऊपर संदेहास्पद, चिपचिपी खुशी तैर गयी. जैसे गर्मियों का
मौसम हो, और वसिलीसा ने एक बगीचा खरीद लिया हो. देखते-देखते उसमें सब्जियां अंकुरित
हो गईं. क्यारियाँ खुशनुमा बेलों से आच्छादित हो गईं, और उनमें हरे-हरे शंकुओं के समान ककड़ियां झांकने लगीं. कैनवास की पतलून पहने वसिलीसा पेट खुजाते हुए
खडा था और प्यारे, डूबते हुए सूरज को देख रहा था...
अब वसिलीसा को गोल, ग्लोब जैसी
घड़ी की याद आई, जिसे उससे छीन लिया गया था. वसिलीसा का मन हुआ की उसे घड़ी का अफ़सोस हो, मगर सूरज
इतना प्यारा चमक रहा था, कि अफ़सोस प्रकट ही नहीं हुआ.
और इस हसीन पल में, कुछ गुलाबी, गोलमटोल सुअर
के पिल्ले उड़ते हुए बगीचे में आये और अपने थूथन से क्यारियों को खोद डाला. फव्वारे
के समान मिट्टी उड़ने लगी. वसिलीसा ने ज़मीन से छड़ी उठाई और सुअर के पिल्लों को भगाने
ही वाला था कि उसे पता चला कि सुअर के
पिल्ले बहुत डरावने हैं – उनके नुकीले दांत हैं. वे वसिलीसा के ऊपर झपटने लगे, ज़मीन से
एक-एक गज ऊपर कूदने लगे, क्योंकि उनके भीतर स्प्रिंग थे. वसिलीसा नींद में ही ज़ोर से चिल्लाया, तभी बगल वाले
दरवाज़े की चौखट ने सुअर के पिल्लों को ढांक दिया, वे धरती के भीतर समा गए, और वसिलीसा के सामने उसका काला, नम शयनकक्ष तैरने लगा...
****
रात अपने पूरे शबाब पर थी.
नींद का खुमार शहर के ऊपर से धुंधले, सफ़ेद पंछी के समान गुज़रा, व्लादिमीर-क्रॉस को एक किनारे से पार करते हुए, ठीक घनी रात में द्नेप्र के पार गिरा और रेलवे लाईन के साथ-साथ तैरने लगा.
दार्नित्सा स्टेशन तक तैर गया और उसके ऊपर रुक गया. तीसरे ट्रैक पर थी एक बख्तरबंद
ट्रेन, पहियों तक, भूरे हथियारों से प्लेटफॉर्म तक ढंकी हुई थी. इंजिन धातु के किसी बहुआयामी
ब्लॉक की तरह काला था, उसके पेट से आग्नि शलाकाएं निकल-निकल कर पटरियों पर गिर रही
थीं, और एक किनारे से देखने पर ऐसा लगता था, जैसे इंजिन का पेट दहकते कोयलों से ठसाठस भरा है. वह हौले से और कड़वाहट से
फुसफुसा रहा था, बगल वाली दीवारों से कुछ रिस रहा था, उसकी कुंद थूथन खामोश थी और द्नेप्र से पूर्व के जंगलों को घूर रही थी. अंतिम
डिब्बे के बाहरी हिस्से से, ढंके हुए थूथन से, एक चौड़ी नली ऊपर, काली-नीली
ऊंचाई की ओर, करीब आठ मील की दूरी पर और सीधे मध्य रात्रि के सलीब की तरफ़ केन्द्रित थी.
स्टेशन खौफ़ से जम गया था.
माथे पर अन्धेरा ओढ़ लिया था, और शाम की भगदड़ से थकी पीली रोशनी की आंखों से देख रहा था. सुबह से पूर्व
ही उसके प्लेटफॉर्म्स पर भगदड़ निरंतर जारी थी. टेलीग्राफ ऑफिस की पीली, निचली बैरक
में तीन खिड़कियों में तीव्र प्रकाश था, और शीशों से तीन उपकरणों की निरंतर खटखट
सुनाई दे रही थी. कड़ाके की ठण्ड के बावजूद प्लेटफार्म पर – घुटनों तक लम्बे ओवरकोट
में, ग्रेटकोट में और चौड़ी कॉलर वाले काले कोट में लोगों की आकृतियाँ आगे पीछे
भाग रही थीं. बख्तरबंद ट्रेन की बगल वाले ट्रैक पर और उससे पीछे तक, फौजियों की
ट्रेन के गरम डिब्बे थे जो सो नहीं रहे थे, शोर मचा रहे थे और दरवाजों की आवाज़ किये जा रहे थे.
और बख्तरबंद ट्रेन के पास, इंजिन और
पहले बख्तरबंद डिब्बे की फौलाद की फ्रेम की बगल में, लम्बे ओवरकोट में, फटे हुए जूते
पहने, नुकीली टोपी पहने, एक आदमी घड़ी के पेंडुलम की तरह आगे-पीछे घूम रहा था. उसने राइफल को इतने
प्यार से पकड़ा था, जैसे थकी हुई माँ अपने बच्चे को थामे रहती है, और उसकी बगल में पटरियों के
बीच, स्टेशन के लैम्प की अपर्याप्त रोशनी में, बर्फ पर, काली नुकीली परछाईं और राइफल की बेआवाज़ परछाई चल रही थी. आदमी बेहद थक गया
था और जानवर की तरह, न कि आदमी की तरह जम गया था. उसके हाथ ठन्डे और नीले पड़ गए थे, लकड़ी जैसी उंगलियाँ
फटी हुई आस्तीनों में घुसी हुई हैं, आश्रय ढूंढ रही हैं. सफ़ेद बर्फ से ढंकी और झालरदार टोपी के असमान हिस्से से
उसका झबरा, बर्फ से जमा मुंह और बर्फ से ढंकी पलकें झांक रही थीं. ये आंखें नीली, पीड़ित और
उनींदी थीं.
आदमी अपनी संगीन नीचे की
ओर लटकाए व्यवस्थित ढंग से चल रहा था, और सिर्फ एक ही बात के बारे में सोच रहा था, की कब यातना की बर्फीली घड़ी समाप्त होगी और वह क्रूर धरती को छोड़कर भीतर
जाएगा, जहां फौजों को गरमाने वाले पाईप स्वर्गीय गर्माहट से फुसफुसा रहे हैं, जहां भीड़भाड़ के बीच वह तंग पलंग पर लुढ़क जाएगा, उससे चिपक जाएगा और अपने आप को सीधा करेगा. आदमी और परछाई बख्तरबंद पेट की
आग की लपटों से दूर पहले फ़ौजी कम्पार्टमेंट की काली दीवार की ओर जा रहे थे, जिस पर काले
अक्षरों में लिखा था:
“बख्तरबंद
ट्रेन ‘प्रोलेटेरिएट’.
कभी बढ़ते हुए, कभी भद्दे
ढंग से झुकते हुए, मगर निरंतर नुकीले सिर वाली परछाई अपनी काली संगीन से बर्फ खोद रही थी.
लालटेन की नीली किरणें आदमी के पीछे लटक रही थीं. दो नीले-से चाँद, बिना गर्माहट
दिए और चिढ़ाते हुए, प्लेटफ़ॉर्म पर जल रहे थे. आदमी कोई अलाव ढूँढने की कोशिश कर
रहा था, मगर वह उसे कहीं दिखाई नहीं दिया; दांत भींचकर, पैरों की उँगलियों को गरमाने की उम्मीद छोड़कर, उन्हें हिलाते हुए, उसने अपनी नज़र सितारों पर गड़ा दी. मंगल-तारे की ओर देखना ज़्यादा सुविधाजनक
था, जो सामने आसमान में बाहरी बस्तियों के पास चमक रहा था. और वह उसे देख रहा
था. उसकी आंखों से लाखों मील तक नज़र जा रही थी और वह एक मिनट के लिए भी लाल, सजीव, तारे से नज़र
नहीं हटा रहा था. वह सिकुड़ रहा था और फ़ैल रहा था, स्पष्ट रूप से जीवित था और पंचकोणीय था. कभी-कभी, थक कर, आदमी राइफल
के हत्थे को बर्फ में घुसा देता, रुककर, पलभर को और पारदर्शीपन से झपकी ले लेता, और बख्तरबंद ट्रेन की काली दीवार इस नींद के कारण ओझल न होती, स्टेशन से आ
रही कुछ आवाजें भी खामोश न होतीं. मगर कुछ नई आवाजें उनमें जुड़ जातीं. सपने में
अभूतपूर्व आकाश विस्तृत होने लगा. पूरा लाल, चमचमाता और मंगल की सजीव चमक से पूरी तरह आच्छादित. आदमी की रूह पल भर में
सुख से लबालब हो गयी. एक अनजान, अगम्य घुड़सवार जंजीरों वाले कवच में और भाईचारे से आदमी की तरफ लपका. लगता
है, कि काली बख्तरबंद ट्रेन गिरने ही वाली थी, और उसके स्थान पर प्रकट हुआ बर्फ में दबा हुआ गाँव – मालिये चुग्री. वह, आदमी, चुग्रोव की
सीमा पर रहता था, और उससे मिलने आ रहा है उसका पड़ोसी, उसके गाँव का.
“झीलिन?” आदमी का
दिमाग बेआवाज़, बिना होठों के बोला, और तभी चौकीदार की डरावनी आवाज़ ने सीने में तीन बार टकटक किया:
“पोस्ट...संतरी...तुम जम
जाओगे...”
आदमी ने पूरी तरह अमानवीय
प्रयत्न से राइफल हटाई, उसे हाथ पर डाल दिया, लड़खड़ाकर, पैर खींचे और फिर से चल पडा.
आगे-पीछे. आगे–पीछे.
उनींदा आसमान लुप्त हो गया, फिर से समूची बर्फीली दुनिया को नीले रेशमी आसमान ने ढांक लिया, जो हथियार की
काली और विनाशकारी सूंड से क्षत-विक्षत हो गया था. आसमान में लाल सितारा आंख
मिचौली खेल रहा था, और उसके जवाब में लालटेन के नीले चाँद से कभी-कभी आदमी के सीने
पर प्रत्युत्तर रूपी तारा चमक जाता. वह छोटा था और वह भी पांच कोनों वाला था.
****
बेचैन उनींदापन उछलता रहा.
द्नेपर के किनारे-किनारे उड़ता रहा. मृतप्राय घाटों को पार करके पदोल के ऊपर गिर
पडा. उसमें बहुत पहले रोशनियाँ बुझ चुकी थीं. सब सो रहे थे. सिर्फ वलीन्स्काया के
कोने में तीन मंजिला पत्थर की इमारत में, लाइब्रेरियन के क्वार्टर में, किसी सस्ते होटल के सस्ते कमरे जैसे, संकरे कमरे में, नीली आँखों वाला रुसाकोव फूले-फूले कांच के शेड वाले लैम्प के पास बैठा था.
रुसाकोव के सामने चमड़े की पीली जिल्द में एक मोटी किताब पडी थी. आख्नें धीरे-धीरे
और उत्तेजनापूर्वक एक-एक पंक्ति से गुज़र रही थीं.
“और मैंने मृतकों को और महान
लोगों को ईश्वर के सामने खड़े हुए देखा और किताबें खुली थीं, और एक और
किताब खुली थी, जो ‘जीवन की किताब है; और मृतकों का इन्साफ किया जा रहा था, किताबों में लिखे नियमों के आधार पर उनके कर्मों के अनुसार.
तब समुन्दर ने मृतकों को
दे दिया, जो उसके भीतर थे, और म्रत्यु और नरक ने भी मृतकों को दे दिया, जो उनके भीतर थे, और हरेक का उसके कर्मों के अनुरूप इन्साफ किया गया.
और जिसका नाम ‘जीवन की
किताब’ में दर्ज नहीं था, उसे आग के तालाब में फेंक दिया गया.
और मैंने देखा नया आसमान
और नई धरती, क्योंकि पहले वाला आसमान और पहले वाली धरती तो गुज़र चुके थे और समुन्दर तो
था ही नहीं.”
जैसे जैसे वह झकझोर देने
वाली किताब पढ़ रहा था, उसका दिमाग अँधेरे को चीरती हुई चमकती तलवार जैसा हो गया.
उसे बीमारियाँ और पीडाएं
महत्वहीन और अस्तिर्वहीन प्रतीत हुईं. बीमारी जंगल में किसी भूले हुए पेड़ की सूखी
टहनी की पपड़ी की तरह गिर गयी. उसने सदियों का अंतहीन, नीला अन्धेरा देखा, सहस्त्राब्दियों
का गलियारा. और उसे भय का अनुभव नहीं हुआ, बल्कि बुद्धिमान विनम्रता और श्रद्धा महसूस हुई, आत्मा में शान्ति छा गई, और इस शान्ति में वह इन शब्दों तक पहुँच गया:
“आंखों से आंसू नहीं
बहेंगे, और मृत्यु भी नहीं होगी, न तो रुदन, न चीख-पुकार और न ही कोई बीमारी रहेगी, क्योंकि विगत गुज़र चुका है.”
*****
अस्पष्ट अँधेरा दूर हट गयी
और उसने लेफ्टिनेंट शिर्वीन्स्की को एलेना के पास आने दिया. उसकी बाहर को निकली
आंखें धृष्ठता से मुस्कुरा रही थीं.
“मैं राक्षस हूँ,” एडियाँ
खटखटाकर उसने कहा, “ और वह वापस नहीं आयेगा, ताल्बेर्ग, - और मैं आपके लिए गाऊंगा...”
उसने जेब से एक बहुत बड़ा
चमचमाता हुआ सितारा निकाला और उसे अपने सीने पर बाईं तरफ लगा लिया. उसके चारों और
नींद का कोहरा मंडरा रहा था, कोहरे के बादलों से उसका चेहरा किसी चमकदार गुड़िया की तरह बाहर निकल रहा
था. वह कर्कश स्वर में गा रहा था, वैसे नहीं जैसे जागृत अवस्था में गाता है:
“जियेंगे, ज़िंदा
रहेंगे!!”
“और मौत आयेगी, तो मर
जायेंगे...” निकोल्का गाते हुए भीतर आया.
उसके हाथों में गिटार थी, मगर पूरी
गर्दन खून से लथपथ थी, और माथे पर सलीबों वाला पीला सेहरा
था. एलेना ने तुरंत सोचा की वह मर जाएगा, और वह ज़ोर से रो पडी और रात में चीख मारते हुए उठ गयी:
“निकोल्का. ओह, निकोल्का?”
और बड़ी देर तक, सिसकियाँ
लेते हुए, रात की भिनभिनाहट को सुनती रही.
और रात तैरती ही रही.
*****
और अंत में पेत्का ने आउट
हाउस में सपना देखा.
पेत्का छोटा था, इसलिए उसे न
तो बोल्शेविकों में दिलचस्पी थी, न ही पित्ल्यूरा में, न राक्षस में. इसलिए उसे सपना भी सीधा-सादा और खुशनुमा आया: जैसे सूरज का
गोला.
जैसे पेत्का एक बड़े, हरे घास के
मैदान में चल रहा था, और इस मैदान में एक चमचमाता हुआ हीरे का गोला पड़ा था, पेत्का से
बड़ा. सपने में बड़े लोग, जब उन्हें भागना होता है, ज़मीन से चिपकते हैं, कराहते हैं और दलदल से अपने पैर निकालते हुए भागते हैं. बच्चों के पैर तो
चंचल और आज़ाद होते हैं. पेत्का भागते हुए हीरे के गोले तक गया और प्रसन्नता से
हंसते हुए उसे हाथों में पकड़ लिया. बस, इतना ही था पेत्का का सपना. खुशी के मारे वह रात को खिलखिला रहा था. और
भट्टी के पीछे एक झींगुर खुशी से चहचहा रहा था. पेत्का दूसरे, हल्के-फुल्के, खुशी से भरे
सपने देखने लगा, और झींगुर भी अपना गाना गाता ही जा रहा था, कहीं दरार में, बाल्टी के
पीछे वाले सफ़ेद कोने में, परिवार में उनींदी, बुदबुदाती रात को सजीव कर रहा था.
अंतिम रात शबाब पर थी. आधी
रात के बाद, पूरा बोझिल नीलापन, संसार को ढांकने वाला ईश्वर का परदा, सितारों से ढँक गया. जैसे, असीमित ऊंचाई पर इस नीली छतरी के पीछे शाही दरवाजों के पीछे ‘मिडनाईट-मास’ गाया जा रहा
हो. बेदी पर रोशनियाँ जलाई गईं, और वे इस परदे पर पूरे सलीबों के रूप में, झाड़ियों और वर्गों के रूप में दिखाई दे रही थीं. द्नेप्र के ऊपर पापी और
खून से लथपथ और बर्फीली धरती से काली, उदास ऊंचाई पर व्लादीमिर का मध्यरात्री का क्रॉस प्रकट हुआ. दूर से ऐसा लग
रहा था, मानो उसका क्रॉसबार गायब हो गया – ऊर्ध्वाधर बार में विलीन हो गया, और इससे
क्रॉस एक खतरनाक तेज़ धार वाली तलवार में परिवर्तित हो गया हो.
मगर वह डरावना नहीं है. सब
कुछ गुज़र जाएगा. पीडाएं, दुःख, खून, भूख और महामारी. तलवार लुप्त हो जायेगी, मगर सितारे रह जायेंगे, तब भी जब हमारे जिस्मों और कामों की परछाईयां धरती पर नहीं रहंगी. एक भी
ऐसा आदमी नहीं है, जो यह न जानता हो. तो फिर हम अपनी नज़र उनकी और क्यों न केन्द्रित करें?
क्यों?
मॉस्को
No comments:
Post a Comment