भाग – 2
8.
हाँ, दिखाई दे रहा
था कोहरा. नुकीली बर्फ,बर्फ के झबरे पंजे,बिना चाँद की, अंधेरी,और फिर भोर से पूर्व की बर्फ, शहर के
पार सुनहरे पत्तों जैसे सितारों से आच्छादित,चर्च के नीले
गुम्बदों के बीच दूर, द्नेपर के मॉस्को वाले किनारे से आती हुई भोर तक न बुझने वाला, शहर के ऊपर
अथाह ऊंचाई पर स्थित व्लादीमिर क्रॉस.
सुबह तक वह बुझ
गया. और धरती के ऊपर की रोशनियाँ बुझ गईं. मगर दिन कोई ख़ास गर्म न हुआ, वह युक्रेन
के ऊपर, कम ऊंचाई पर धूसर अभेद्य पर्दे जैसा रहने का वादा कर रहा था.
कर्नल कोज़िर-लिश्को
शहर से पंद्रह मील दूर ठीक भोर में उठा, जब खट्टी भाप
का प्रकाश पपेल्युखा गाँव में झोंपड़ी की धुंधली छोटी-सी खिड़की में
घुसा.
शब्द ‘स्थिति’ के साथ ही
कोज़िर जागा.
पहले तो उसे ऐसा
लगा, जैसे उसने उसे बहुत गर्म सपने में देखा था और एक ठन्डे शब्द की तरह उसे
हाथ से दूर हटाने की कोशिश भी की. मगर शब्द फूल गया, झोंपड़ी में घुस
गया अर्दली के चेहरे की घिनौनी लाल फुंसियों और सिलवटें पड़े लिफ़ाफ़े के साथ. अभ्रक
और जाली वाले बैग से कोज़िर ने खिड़की पास नक्शा निकाला, उसमें बर्खुनी
गाँव ढूंढा, बर्खुनी के पीछे ढूंढा ‘बेली गाय’, उंगली के नाखून से रास्तों के जाल को तलाशते
हुए, जिसके किनारों पर झाड़ियों के मक्खियों जैसे बिन्दु बिखरे हुए थे, और उसके बाद एक
बड़ा काला धब्बा – शहर. लाल मुहांसों के मालिक से तंबाकू की गंध आ रही थी, जो ये समझता था
कि कोज़िर के सामने भी धूम्रपान किया जा सकता है और इससे युद्ध को कोई नुक्सान नहीं
होगा, और दूसरी श्रेणी की तीखी तम्बाकू की गंध भी आ रही थी, जो खुद कोज़िर
भी पी रहा था.
कोज़िर को इसी
समय युद्ध करना था. उसने प्रसन्नता से प्रतिक्रया दी, लम्बी जम्हाई
ली और कंधे पर पट्टियों को फेंकते हुए घोड़े के जटिल साज को खडखडाया. इस रात वह
ओवरकोट पहने ही सो गया था,एड़ें भी नहीं उतारीं. महिला दूध का जार लिए घूम रही थी.
कोज़िर ने कभी भी
दूध नहीं पिया था और अभी भी नहीं पीने वाला था. कहीं से रेंगते हुए कुछ छोकरे आ गए. और उनमें से एक, सबसे छोटा,पूरी तरह नंगा,कोज़िर की पिस्तौल की तरफ रेंगते हुए बेंच पर चढ़ गया. मगर नहीं
पहुँच पाया, क्योंकि कोज़िर ने पिस्तौल को बेल्ट पर बाँध लिया था.
सन् 1914 तक पूरी ज़िंदगी कोज़िर ग्रामीण अध्यापक था. उन्नीस सौ चौदह में वह घुड़सवार रेजिमेंट
में युद्ध में शामिल हुआ और सन् उन्नीस सौ सत्रह के आते-आते ऑफिसर के रूप में
पदोन्नत किया गया. और चौदह दिसंबर उन्नीस सौ अठारह की सुबह ने कोज़िर को छोटी सी
खिड़की के नीचे पित्ल्यूरा की फ़ौज के कर्नल के रूप में पाया, और दुनिया में कोई भी
(और खुद कोज़िर भी) नहीं बता सका कि ये कैसे हो गया. मगर हुआ ये इसलिए कि उसके,
कोज़िर के लिए, यह एक आह्वान था, और शिक्षक का पेशा सिर्फ लम्बी और बड़ी भारी गलती थी.
खैर, ऐसा अक्सर हमारे जीवन में होता है. पूरे बीस साल तक
आदमी कोई एक काम करता रहता है, जैसे, रोमन क़ानून पढ़ता है, और इक्कीसवें साल में – अचानक पता चलता है, कि रोमन क़ानून की कोई ज़रुरत नहीं है, वह तो इसे समझता ही नहीं है और पसंद भी नहीं करता, और असल में वह संवेदनशील माली है और उसे फूलों से गहरा प्यार है. ऐसा, शायद, हमारी
सामाजिक संरचना की अपूर्णता से होता है, जिसमें लोग अपनी ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव में ही अपने उद्दिष्ट को प्राप्त
करते हैं. कोज़िर ने इसे प्राप्त किया पैंतालीस का होते-होते. और तब तक वह एक बुरा
अध्यापक रहा, क्रूर और उकताऊ.
“ठीक है,छोकरों से कहो,कि झोंपड़ियों से बाहर आकर घोड़ों पर सवार हो जाएँ,” कोज़िर ने कहा और चरमराते बेल्ट को पेट पर कसने लगा.
पपेल्यूखा गाँव की सफ़ेद झोंपड़ियों से धुआँ उठ रहा था, और चार सौ तलवारों वाली कर्नल कोज़िर की टुकड़ी बाहर निकल रही थी. टुकड़ी के
ऊपर तम्बाकू की गंध तैर रही थी, और कोज़िर का पाँच विर्शोक लंबा (1विर्शोक = 4.5 से.मी. – अनु.) भूरा घोड़ा निराशा से चल रहा था.
रेजिमेंट के पीछे आधे मील तक फ़ैली, काफ़िले की गाड़ियां चरमरा रही थीं. रेजिमेंट
घोड़ों की काठियों में हिल रही थी और फ़ौरन पपेल्यूखा से बाहर घुड़सवार दस्ते के आरम्भ
में दो रंग की पताका दिखाई दी – डंडे पर नीले और पीले पट्टे वाली.
कोज़िर चाय बर्दाश्त नहीं कर पाता था और दुनिया में उसे सबसे अच्छा लगता था
सुबह-सुबह वोद्का का एक घूँट. ‘इम्पीरियल वोद्का’ उसे पसंद थी. चार साल से वह मिल
नहीं रही थी, मगर गेटमन के शासन काल में पूरे युक्रेन में पुनः
प्रकट हो गई. वोद्का भूरे फ्लास्क से खुशनुमा लपट की तरह कोज़िर की नसों में मचलती.
वोद्का रेजिमेंट की कतारों में भी बहती ‘बेलाया चर्च’ के गोदाम से लिए गए भूरे
डिब्बों से होकर, और जैसे ही बहने लगती, कतारों के शीर्ष में तीन परतों वाला एकॉर्डियन बजने लगता और एक ऊंचा स्वर
गाने लगा:
‘गाय’ के बाद, ‘गाय’ के बाद,
हरियाले ‘गाय’ के बाद...
और पांचवीं कतार
में गहरी आवाजें गा उठीं:
चीख रही थी युवती
काले चेहरे से...
चीख रही थी...चीख रही थी,
मना न पाई बैल को.
ताय ने रखा कजाक को
वॉयलिन पर बजाने शोर को .
“फ्यू... आख!
आख, ताख,ताख!...” पताका वाला घुड़सवार सीटी बजाते हुए खुशनुमा कोयल की तरह झूमने
लगा. डंडे हिलने लगे, और ताबूत के रंग जैसी, चोटियों वाली काली टोपियाँ थरथराने लगीं. हज़ारों
नाल जड़े जूतों के नीचे बर्फ चरमराने लगी. खुशनुमा तोर्बान (तोर्बान – यूक्रेनी
तंतुवाद्य – अनु.) ने झंकार ली.
“शाबाश! शरमाओ
नहीं, छोकरों,” कोज़िर ने प्रशंसापूर्वक कहा. और स्प्रिंग जैसा खुलते हुए कोयल की
भांति गीत युक्रेन के बर्फीले मैदानों पर उड़ चला.
‘बेली गाय’पार किया, कोहरे का परदा
फट गया, और सभी रास्ते काले होने लगे,थरथराने लगे, करकराने लगे.
‘गाय’ के पास चौराहे पर अपने सामने डेढ़ हज़ार लोगों की पैदल टुकड़ी को जाने दिया. आगे की
पंक्तियों के लोगों ने बढ़िया जर्मन कपडे के एक जैसे नीले ‘झुपान’ (झुपान-
लम्बी ड्रेस – अनु.) पहने थे, वे पतले चेहरों वाले, ज़्यादा फुर्तीले, कुशलता से राईफलें संभाले – गैलिशियन्स थे. और पिछली कतारों वाले पंजों तक लम्बे अस्पताल के
गाऊन पहने थे, जिन पर पीले कच्चे चमड़े के बेल्ट थे. सभी के सिरों पर फ़र की टोपियों के
ऊपर दचके हुए जर्मन हैलमेट थे. उनके नाल जड़े जूते बर्फ को रौंद रहे थे.
दबाव के कारण शहर
की ओर जाने वाले सफ़ेद रास्ते काले होने लगे.
“हुर्रे!”
गुज़रती हुई पैदल टुकड़ी ने पीले-नीले झंडे वाले एनसाइन से चिल्लाकर कहा.
“हुर्रे!” ‘गाय’ ने प्रतिध्वनित
होते हुए जवाब दिया.
‘हुर्रे’ का
जवाब पीछे से और बाईं तरफ से तोपों ने दिया. घेरा डाली हुई सेना के कमांडर, कर्नल तरोपेत्स
ने, रात में ही दो बैटरियां शहर के पार्क की ओर भेज दी थीं. बर्फ के
समुन्दर में तोपें आधा गोल बनाते हुए खड़ी थीं और सुबह से ही गोली बारी शुरू हो गई.
छः इंची गरज की लहरों ने जहाज़ों जैसे बर्फ से ढंके चीड़ के पेड़ों को जगा दिया. विस्तृत
गाँव पूश्शे-वदीत्से पर दो बार धमाके हुए, जिनकी तीव्रता
से चार प्लॉट्स में बर्फ में बैठे घरों के सारे कांच एक ही बार में उड़ गए. अनेक
चीड़ के पेड़ छिपटियों में बदल गए और कई हाथ ऊंचे बर्फ के फव्वारे उछाल दिए. मगर
इसके बाद पूश्शे में आवाजें शांत हो गईं. जंगल मानो आधी नींद में ऊंघने लगा और
सिर्फ उत्तेजित हो उठी गिलहरियाँ अपने पंजे सरसराते हुए सौ साल पुराने तनों पर
भागती रहीं. इसके बाद तोपखाने की दो बैटरियां पूश्शे के पास से हटा ली गईं और उन्हें दाईं ओर भेज
दिया गया. असीम कृषि योग्य भूमि, जंगल से घिरा उरोचिश्शे गाँव पार किया, संकरे रास्ते
पर मुडीं, दोराहे तक पहुँचीं और वहाँ मुड़ गईं, शहर के दृष्टिक्षेप में. सुबह
से ही पद्गरोद्नाया पर, साव्स्काया पर, शहर के उपनगरों पर , कुरेनेव्का पर बमों के गोले फूटने लगे.
निचले बर्फीले
आसमान में खड़खड़ाहट की आवाज़ें आने लगीं, जैसे कोई खेल
रहा हो. वहाँ, घरों के निवासी सुबह से ही
तहखानों में बैठ गए थे, और सुबह के झुरमुटे में नज़र आ रहा था कि कैसे ठण्ड से अकड़े हुए कैडेट्स की
कतारें कहीं शहर के केंद्र के पास जा रही हैं. वैसे, गोलाबारी शीघ्र
ही शांत हो गई और कहीं सरहद पर, उत्तर में, खुशनुमा खड़खड़ाती गोलीबारी में बदल गई.फिर वह भी शांत
हो गई.
***
घेरा डाले हुए
फ़ौजी दस्ते के कमांडर तरोपेत्स की रेलगाड़ी घने जंगल में बर्फ से ढंके और
गोलाबारी की गड़गड़ाहट से बहरे हो गए मृतप्राय गाँव स्वितोशिनो से करीब पाँच
मील दूर जंक्शन पर खड़ी थी. पूरी रात छः कप्मार्टमेंट्स में बिजली नहीं बुझी, पूरी रात जंक्शन
पर टेलीफोन की घंटियाँ बजती रहीं और कर्नल तरोपेत्स के गंदे सलून में
फील्ड-टेलीफोन्स बीप-बीप करते रहे. जब बर्फीले दिन ने उस क्षेत्र को पूरी तरह प्रकाशित कर दिया, तो स्वितोशिनो
से पोस्ट-वलीन्स्की वाले रेल-मार्ग पर आगे-आगे गोले गरजते रहे, और पीले बक्सों में पंछी गा उठे, और दुबले,बेचैन तरोपेत्स ने अपने एड्जुटेंट खुदिकोव्स्की
से कहा:
“स्वितोशिनो ले
लिया है. कृपया पता करें, एड्जुटेंट
महाशय, क्या ट्रेन को स्वितोशिनो ले जा सकते
हैं.”
तरोपेत्स की
ट्रेन धीरे-धीरे सर्दियों के जंगल की दीवारों के बीच से चल पडी और रेल्वे लाईन को
काटते हुए विशाल राजमार्ग के समीप पंहुची, जो तीर की तरह शहर
को छेद रहा था. और यहाँ सलून में, कर्नल तरोपेत्स
ने अपने प्लान पर काम करना आरंभ कर दिया, जिसे उसने इस
खटमलों से भरे सलून नं. 4173 में दो रात
जागकर पूरा किया था.
चारों ओर से
घिरा हुआ शहर कोहरे में आंखें खोल रहा था. उत्तर में शहर वाले जंगल और
खेतों से,पश्चिम में अधिकार किये गए स्वितोशिनो
से, दक्षिण-पश्चिम में अभागे
पोस्ट-वलीन्स्की से,दक्षिण में उपवनों के, कब्रिस्तानों के, खुले मैदानों के और चांदमारी वाले मैदान
के पीछे, जो रेलवे लाईन से घिरे हुए थे, चारों ओर
पगडंडियों और रास्तों पर और बेधड़क केवल बर्फ के मैदानों पर काली पड़ती हुई घुड़सवार
फौज रेंग रही थी और खनखना रही थी, भारी-भारी तोपें चरमरा रही थीं और एक महीने के
घेरे से क्लांत पित्ल्यूरा की पैदल फ़ौज बर्फ में धंसती जा रही थी.
गंदी, कपडे के फर्श वाली सैलून-कार में हर
मिनट शांत-नाज़ुक पंछी गाते और टेलीफोन ऑपरेटर्स फ्रैंको और गेरास, जो पूरी रात
सोये नहीं थे,पागल होने लगे.
“ति-ऊ...पि-ऊ...सुन
रहा हूँ! पि-ऊ... ति-ऊ...”
तरोपेत्स का
प्लान चालाकी भरा था, काली भंवों वाला,सफ़ाचट दाढी वाला,भयभीत कर्नल तरोपेत्स चालाक था. यूँ ही
उसने दो बैटरियां शहर के जंगल के पीछे नहीं भेज दी थीं, यूँ ही नहीं बर्फीली हवा में गड़गड़ाते
हुए झबरे पूश्चे-वोलिनो की ट्राम लाईन तोड़ दी थी. फिर यूँ ही नहीं खेतों की तरफ से
मशीनगनें आगे बढ़ाई थीं,उन्हें बाएँ
पार्श्व पर लाया था. तरोपेत्स शहर के रक्षकों को भुलावा देना चाहता था कि
वह, तरोपेत्स, शहर को उसके, तरोपेत्स के बाएं पार्श्व से (उत्तर
दिशा से) लेगा,कुरेन्योव्का की बाहरी सीमा से, इस उद्देश्य से कि शहर की फ़ौज
को वहाँ खींच सके, और खुद शहर के ठीक माथे पर वार कर सके, सीधे स्वितोशिनो की तरफ से, ब्रेस्ट-लितोव्स्की मार्ग से, और, इसके अलावा,बिलकुल आख़िरी दायें पार्श्व से, दक्षिण से, दिमियोव्का गाँव की तरफ़ से.
तो, तरोपेत्स के प्लान को पूरा करने के
लिए पित्ल्यूरा की फौजें बाएं पार्श्व से दायें पार्श्व की तरफ चल पडीं, और सीटी
तथा एकोर्डियन के शोर में कोज़िर-लेश्को की काली टोपियों वाला दस्ता अपने कमांडिंग
सार्जेंट्स के पीछे जा रहा था.
“हुर्रे!” ‘गाय’ के चारों ओर का
जंगल गूँज उठा. “हुर्रे!”
नज़दीक आये, ‘गाय’ को एक तरफ़ छोड़
दिया और, लकड़ी के पुल से रेल्वे ट्रैक को पार
करके, उन्हें शहर दिखाई दिया. वह अभी नींद की गर्माहट में था, और उसके ऊपर या तो कोहरा या धुँआ तैर
रहा था. अपनी रकाबों में थोड़ा उठकर अपने जीस फील्ड ग्लासेस से कोज़िर ने उस तरफ़
देखा जहाँ बहुमंजिला इमारतों की छतें और प्राचीन चर्च सेंट सोफिया के गुम्बद दिखाई
दे रहे थे.
कोज़िर के दाईं ओर
युद्ध चल रहा था. करीब एक मील की दूरी पर तोपें गरज रही थीं और मशीनगनें खड़खड़ा रही
थीं. वहाँ पित्ल्यूरा की पैदल सेना जंजीर बनाते हुए पोस्ट-वलीन्स्की की ओर भाग रही
थी, और जंजीरों से ही, काफी हद तक भयानक
गोलीबारी से स्तब्ध, विरल और असंगठित श्वेत गार्ड्स की
पैदल सेना पोस्ट से बाहर भाग रही थी...
***
शहर. नीचा, बादलों से ढंका
आकाश. नुक्कड़. किनारे पर छोटे-छोटे घर, इक्का-दुक्का
ओवरकोट.
“अभी-अभी
रिपोर्ट आई है, कि जैसे पित्ल्यूरा के साथ समझौता हुआ
है – सभी रूसी-यूनिट्स को हथियारों के साथ दोन में देनीकिन को सौंप दिया जाए...”
“तो?”
गोलाबारी...गोलीबारी...बूख...बू-बू-बू...
और मशीनगन
चिंघाड़ी.
कैडेट की आवाज़
में बदहवासी और अविश्वास:
“तो, गौर करो, तब तो प्रतिरोध रोक देना चाहिए?...”
कैडेट की आवाज़
में पीड़ा:
“शैतान ही
जाने!”
***
कर्नल श्योत्किन
सुबह से ही स्टाफ-हेडक्वार्टर में नहीं था, और स्पष्टत: इस
कारण से नहीं था, क्योंकि इस स्टाफ-हेडक्वार्टर का अब
अस्तित्व ही नहीं था. चौदह तारीख की रात को ही श्योत्किन का स्टाफ पीछे हट गया था,
शहर के 1 रेल्वे स्टेशन पर, और यह रात उसने होटल “रोज़ा इस्ताम्बूल”
होटल में बिताई, टेलीग्राफ कार्यालय की बगल में. वहाँ
रात को श्योत्किन का टेलीफोन-पंछी कभी-कभार गा लेता, मगर सुबह होते-होते वह खामोश
हो गया. और सुबह कर्नल श्योत्किन के दो एड्जुटेंट बिना कोई सुराग छोड़े ग़ायब हो गए.
इसके एक घंटे बाद खुद श्योत्किन भी, न जाने क्यों कागज़ात के बक्से खंगालकर और
उनमें से कुछ को चिंधियों में फाड़कर, गंदे “रोज़ा” से
निकला, मगर शोल्डर-स्ट्रैप्स वाले भूरे
ओवरकोट में नहीं, बल्कि सिविलियन फ़र-कोट और केक जैसी
हैट में. वे कहाँ से आये – किसी को मालूम नहीं.
“रोज़ा” से एक
ब्लॉक दूर गाडीवान को लेकर सिविलियन श्योत्किन लीप्की में गया, एक तंग, अच्छी तरह
रखे गए, फर्नीचर से सुसज्जित क्वार्टर में आया, घंटी बजाई, एक भरी-पूरी, सुनहरे बालों वाली औरत का चुम्बन लिया
और उसके साथ गुप्त शयन कक्ष में गया. और सीधे सुनहरे बालों औरत की भय से गोल हो गई
आंखों में देखते हुए बोला:
“सब ख़त्म हो
गया! ओह, मैं कितना थक गया हूँ...” कर्नल
घिरौची में चला गया और वहाँ सुनहरे बालों वाली औरत के हाथों की बनी ब्लैक कॉफी
पीकर सो गया.
***
इस बारे में
पहली स्क्वैड के कैडेट्स को कुछ भी मालूम नहीं था. अफसोस! अगर वे जानते, तो, हो सकता है, उनमें कुछ प्रेरणा जागृत होती, और,
पोस्ट-वलीन्स्की के पास छर्रों से भरे आसमान के नीचे गोल-गोल घूमने के बदले, वे लीप्का के आरामदेह क्वार्टर में
जाते, वहाँ से सोए हुए कर्नल श्योत्किन को निकाल
कर, घसीटते हुए लैम्प पोस्ट से लटका देते, जो सुनहरे बालों वाली औरत के क्वार्टर
के सामने ही था.
***
ऐसा करना अच्छा
होता,मगर उन्होंने नहीं किया,क्योंकि उन्हें कुछ मालूम ही नहीं था,और वे कुछ भी नहीं समझते थे.
हाँ, और शहर में कोई भी कुछ भी नहीं
समझ रहा था, और भविष्य में भी, शायद, जल्दी नहीं
समझेंगे. असल में : शहर में फ़ौलादी, हालांकि, सचमुच
में, कुछ बिगड़े हुए जर्मन्स थे, छोटी-छोटी
मूंछों वाला दुबला-पतला लोमड़ी जैसा गेटमन था (रहस्यमय मेजर श्रात्त की गर्दन के
घाव के बारे में सुबह बहुत कम लोग जानते थे), शहर में है हिज़ एक्सेलेंसी
राजकुमार बिलारूकव, शहर में है जनरल कर्तुज़ोव, जो ‘रूसी शहरों की माँ’ की सुरक्षा के
लिए फ़ौजी दस्ते तैयार कर रहे थे, शहर में
किसी न किसी बहाने से स्टाफ़ हेडक्वार्टर्स में टेलिफ़ोनों की घंटियाँ बज रही थीं, गा रही थीं (अभी तक किसी को मालूम
नहीं था कि वे सुबह से ही भागने लगे हैं), शहर में भीड़-भाड़ थी. शहर
में पित्ल्यूरा के नाम से तैश आ जाता है, और ‘वेस्ती’ अखबार के आज ही के अंक में पीटर्सबुर्ग
के स्वच्छंद पत्रकार उस पर हँस रहे हैं, शहर में घूम रहे हैं कैडेट्स, और
वहाँ, करवायेव्स्की उपनगर में रंगबिरंगा ख़ूबसूरत
घुड़सवार दस्ता कोयल की तरह सीटियाँ बजाता है, और तेज़ तर्रार
कज़ाक सवार हल्की चाल से बाएँ पार्श्व से दाएं पार्श्व को जा रहे हैं. अगर वे दो ही
मील दूर से सीटियाँ बजा रहे हैं, तो पूछना होगा, कि गेटमन क्या उम्मीद लगाए है? आखिर उसीकी रूह के लिए तो सीटियाँ बजा
रहे हैं! ओह, सीटियाँ बजा रहे हैं...हो सकता है, जर्मन्स उसकी सहायता के लिए आयें? मगर फिर भावहीन जर्मन फास्तोव स्टेशन
पर क्यों उदासीनता से अपनी कटी हुई मूंछों में मुस्कुरा रहे हैं,जब उनके पास से पित्ल्यूरा की फौजों की
टुकड़ियों के बाद टुकड़ियाँ शहर की ओर जा रही हैं? हो सकता है, पित्ल्यूरा के साथ समझौता हुआ हो कि
उसे शान्ति से शहर में प्रवेश करने दिया जाएगा? मगर, तब क्यों
श्वेत ऑफिसर्स के गोले पित्ल्यूरा पर बरस रहे हैं?
नहीं, कोई समझ नहीं पायेगा कि चौदह दिसंबर
को दिन में शहर में क्या हुआ था.
स्टाफ
हेडक्वार्टर के टेलीफ़ोन बजे जा रहे थे, मगर, ये सही है, कि रुक-रूककर बज रहे थे, और कभी कभार, और कभी कभार ...
कभी कभार!
कभी कभार!
ट्रिंग!...
“टिऊ...”
“तुम्हारे यहाँ
क्या हो रहा है?”
“टिऊ...”
“कर्नल को
गोला-बारूद भेजो...
“स्तिपानव
को...”
“इवानोव को...”
“अन्तोनव को!
“स्त्रतोनव को!...”
“दोन पर... दोन
पर भाईयों..न जाने क्यों, हमारे यहाँ कुछ
भी नहीं हो रहा है.”
“टि-ऊ...”
“स्टाफ़-हेडक्वार्टर
के बदमाशों को जहन्नुम में...”
“दोन पर!...”
और अधिक बिरले, और दोपहर तक बिल्कुल ही नहीं के
बराबर.
शहर के चारों ओर, कभी यहाँ, कभी वहाँ,गोलियों की खड़खड़ाहट बढ़ जाती, फिर थम
जाती...मगर शहर दोपहर तक अपनी ज़िंदगी जी रहा था, खड़खड़ाहट के
बावजूद, अपनी हमेशा की ज़िंदगी. दुकानें खुली
थीं और व्यापार कर रही थीं. फुटपाथों पर आने जाने वालों की भीड़ भाग रही थी, दरवाज़े बज रहे थे, और ट्रामगाड़ियां घंटियाँ बजाते हुए चल
रही थीं.
और दोपहर को
पिचेर्स्क से खुशनुमा तोप ने अपना राग छेड़ा. पिचेर्स्क की पहाड़ियों ने आंशिक
गर्जना को प्रतिध्वनित किया, और वह शहर के केंद्र को उड़ चली. गौर फ़रमाइए, ये तो बिल्कुल पास है!...क्या बात है? आने जाने वाले रुक जाते और हवा को
सूंघने लगते. और कहीं कहीं फ़ुटपाथ फ़ौरन खाली हो गए.
“क्या? कौन?”
“अर्र र र र्र
र्र र र्र-पा-पा-पा-पा-पा! पा! पा! पा! र्र र र र्र र्र र र्र!!”
“कौन?”
“क्या कौन? भले आदमी, आप क्या नहीं जानते? ये कर्नल बोल्बतून है.”
*****
हाँ, उसने पित्ल्यूरा के खिलाफ विद्रोह कर
ही दिया!
कर्नल तरोपेत्स
के जनरल-स्टाफ वाले उलझे हुए प्लान को पूरा करते-करते कर्नल बोल्बतून, उकता गया,
उसने घटनाओं में तेज़ी लाने का निर्णय लिया. बोल्बतून के घुड़सवार कब्रिस्तान के
पीछे बिल्कुल दक्षिण में, जहाँ बर्फ से ढंकी हुई बुद्धिमान द्नेपर अत्यंत निकट थी,
जम गए थे. खुद बोल्बतून भी जम गया था. और बोल्बतून ने भाला ऊपर उठाया, और उसका घुड़सवार दस्ता दाईं ओर
तीन-तीन की पंक्तियों में चल पड़ा, रास्ते में फ़ैल गया और उस मैदान की ओर आया, जो शहर के बाहरी हिस्से को घेरता था.
वहाँ कर्नल बोल्बतून का सामना किसी से नहीं हुआ. बोल्बतून की छह तोपें ऐसे चिंघाड़
रही थीं, कि पूरे निझ्न्याया तेलिच्का वाले
मार्ग पर गड़गड़ाहट होने लगी. एक पल में बोल्बतून ने रेलवे लाईन को काट दिया और
पैसेंजर ट्रेन को रोक दिया, जिसने अभी-अभी
रेलवे ब्रिज का सिग्नल पार किया था और नए मॉस्कोवासियों तथा पीटर्सबुर्ग वासियों
को अमीर औरतों और झबरे कुत्तों के साथ शहर लाई थी. ट्रेन पूरी तरह स्तब्ध रह गई, मगर बोल्बतून के पास फ़िलहाल कुत्तों
से खेलने के लिए समय नहीं था. मालगाड़ियों के भयभीत, खाली डिब्बे शहर के दो
नंबर के - मालगाड़ियों वाले स्टेशन से शहर के एक नंबर वाले - यात्री-स्टेशन
पर लाये गए, शंटिंग करते इंजिन सीटियाँ बजाने लगे, और बोल्बतून की गोलियों ने ट्रिनिटी
स्ट्रीट के घरों की छतों पर आकस्मिक बौछार कर दी. और शहर में घुसा और चल
पडा बोल्बतून रास्ते पर और बिना किसी बाधा के सीधे मिलिट्री अकादेमी तक, सभी
गलियों में घुड़सवार दस्ते भेजते हुए. और बोल्बतून का
प्रतिरोध किया गया सिर्फ प्लास्टर उखड़े स्तंभों वाले निकलायेव्स्काया-1 मिलिट्री
अकादेमी में, जहां उसे मशीनगन और कुछ छुटपुट फौजियों की गोलियों का सामना करना
पडा. बोल्बतून की प्रमुख टुकड़ी में पहली स्क्वाड्रन में कज़ाक बुत्सेन्का मारा गया, पाँच ज़ख़्मी हुए और दो घोड़ों की टांगें
टूट गईं. बोल्बतून कुछ देर रुका. न जाने क्यों उसे ऐसा लगा कि उसका मुकाबला कोई
अज्ञात फौजें कर रही हैं. मगर असल में नीली कैप वाले बोल्बतून को तीस कैडेट्स और
चार ऑफिसर्स एक तोपखाने के साथ सलामी दे रहे थे.
बोल्बतून के
आदेश पर उसके घुड़सवार नीचे उतरे, लेट गए, अपने आप को ढांक लिया और कैडेट्स के
साथ गोलीबारी करने लगे. पिचेर्स्क पूरी तरह गड़गड़ाहट से भर गया, गूंज दीवारों से
टकराने लगी, और मिलिओन्नाया स्ट्रीट पर रास्ते इस तरह उफनने लगे, जैसे केतली में उबल रहे हों.
और बोल्बतून के
कार्यकलापों का असर शहर में दिखाई देने लगा: एलिज़ाबेतिन्स्काया, विनोग्राद्नाया और लेवाशोव्स्काया
स्ट्रीट्स पर लोहे के शटर्स खड़खड़ाने लगे. जिंदादिल दुकानें बुझ गईं. फुटपाथ फ़ौरन
खाली हो गए और अप्रिय आवाजें गूंजने लगीं. चौकीदारों ने फुर्ती से द्वार बंद कर दिए.
शहर के केंद्र
में भी प्रभाव दिखाई दिया: स्टाफ हेडक्वार्टर्स के टेलीफोनों में चहचहाहट शांत हो
गई.
स्टाफ-डिविजन
में गन-बैटरी द्वारा फोन किया जाता है. क्या
मुसीबत है, जवाब नहीं दे
रहे हैं! स्क्वैड द्वारा कमांडिंग स्टाफ को फोन किया जाता है, कुछ सफलता मिलती
है. मगर जवाब में आवाज़ कुछ अर्थहीन सा बुदबुदाती है:
“क्या आपके ऑफिसर्स शोल्डर-स्ट्रैप्स पहने हैं?”
“तो, बात क्या है?”
“टि-ऊ...”
“टि-ऊ...”
“फ़ौरन पिचेर्स्क
पर दस्ता भेजो!”
“हुआ क्या है?”
“टि-ऊ...”
रास्तों पर बुदबुदाहट
होने लगी: बोल्बतून, बोल्बतून, बोल्बतून, बोल्बतून, बोल्बतून....
कहाँ से पता चला
कि यह बोल्बतून ही है, कोई और नहीं? पता नहीं, मगर जान गए. हो सकता है कि दोपहर से
आने-जाने वालों और शहर के निठल्ले लोगों के बीच कुछ मेमने की कॉलर वाले ओवरकोट
पहने कुछ अजनबी प्रकट हुए. वे चल रहे थे, ताक-झाँक कर रहे
थे. कैडेट्स को, फ़ौजी अफसरों को, सुनहरे शोल्डर स्ट्रैप्स वाले ऑफिसर्स
को बड़ी देर तक, एकटक देखते रहते. फुसफुसाते:
“बोल्बतून आ गया
है.”
और बिना किसी
अफ़सोस के फुसफुसाते. बल्कि, उनकी आंखों में
स्पष्ट रूप से नज़र आ रहा था – “हुर्रे!”
““हु-र्रे-र्रे-उर्रे–
र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे-र्रे...” पिचेर्स्क के टीले गडगड़ा
रहे थे.
बकवास तो जैसे
हवा पे सवार थी:
“बोल्बतून –
महान राजकुमार मिखाइल अलेक्सान्द्रविच है.”
“बल्कि, इसके विपरीत: बोल्बतून – महान
राजकुमार निकलाय निकलायेविच है.”
“बोल्बतून –
सिर्फ बोल्बतून है.”
“यहूदियों का कत्लेआम
होगा.”
“इसके विपरीत –
वे लाल रिबन्स वाले हैं.”
“बेहतर है, घर भागो.”
“बोल्बतून
पित्ल्यूरा के खिलाफ़ है.”
“इसके विपरीत :
वह बोल्शेविकों के साथ है.”
“एकदम विपरीत :
वह त्सार के पक्ष में है, सिर्फ बिना
ऑफिसर्स के.”
“ गेटमन भाग गया?”
“ क्या सचमुच? सचमुच? सचमुच? सचमुच? सचमुच? सचमुच?”
टि ऊ. टि-ऊ.
टि-ऊ.
***
बोल्बतून के
जासूस सेंचुरियन गलान्बा के नेतृत्व में मिलिओन्नाया स्ट्रीट पर गए, और मिलिओन्नाया स्ट्रीट पर एक भी आदमी
नहीं था. और तभी, सोचिये, एक प्रवेश
द्वार खुला और पाँच कज़ाक घुड़सवारों के सामने कोई और नहीं, बल्कि मशहूर फ़ौजी कॉन्ट्रेक्टर याकव
ग्रिगोरेविच फेल्दमन भागते हुए बाहर आया. क्या आप पागल हो गए हैं, याकव ग्रिगोरेविच, जो आपको ऐसे समय में भागने की ज़रुरत पड़ गई , जब यहाँ ऐसी घटनाएं हो
रही हैं? हाँ, याकव
ग्रिगोरेविच का हुलिया ऐसा था, जैसे वह पागल
हो गया हो. सील की खाल वाली हैट सिर के पीछे खिसक गई थी और ओवरकोट के बटन खुले हुए
थे. और आँखें बदहवास थीं.
याकव
ग्रिगोरेविच की बदहवासी के पीछे बड़ा कारण था. जैसे ही मिलिटरी एकेडमी में गोलीबारी
शुरू हुई, याकव ग्रिगोरेविच की बीबी के उजले शयनकक्ष से एक कराह उठी. वह दुहराई गई
और शांत हो गई.
“ओय,” कराह के जवाब में याकव ग्रिगोरेविच
ने कहा, उसने खिड़की से देखा और समझ गया कि
बाहर हालत बेहद बुरी है. चारों और गड़गड़ाहट और वीरानी है.
मगर कराहने की
आवाज़ बढ़ती गई और चाकू की तरह याकव ग्रिगोरेविच के दिल को चीरती चली गई. झुकी हुई
बुढ़िया, याकव ग्रिगोरेविच की माँ, शयनकक्ष से सिर निकालकर चीखी:
“याशा! जानते हो? शुरू हो गया!”
और याकव
ग्रिगोरेविच के ख़याल एक लक्ष्य की ओर भागे – मिलिओन्नाया स्ट्रीट पर खाली जगह के
पास नुक्कड़ पर, जहाँ कोने वाले छोटे से मकान पर
सुनहरे अक्षरों वाला जंग लगा बोर्ड लटक रहा था:
मिडवाईफ़
ए. ते. शादुर्स्काया.
मिलिओन्नाया पर वैसे काफ़ी ख़तरा है, हाँलाकि वह तिरछी सड़क है, मगर पिचेर्स्काया चौक से कीव्स्की ढलान पर गोलीबारी
कर रहे हैं.
अगर वह सिर्फ उछल कर जा सकता.
सिर्फ...कैप पीछे की ओर खिसकी हुई, आंखों में भय, और दीवारों के नीचे-नीचे चिपक कर याकव ग्रिगोरेविच फेल्दमन जा रहा है.
“रुको! तुम कहाँ जा रहे हो?”
गलान्बा ने काठी से झुककर देखा. फेल्दमन का चेहरा काला पड़
गया, उसकी आंखें उछलने लगीं. आंखों में
पित्ल्यूरा के कज़ाकों के हरे रिबन उछलने लगे.
“मैं,महाशय, शान्ति प्रिय नागरिक हूँ. बीबी बच्चा पैदा कर रही
है. मुझे मिडवाईफ के पास जाना है.”
“मिडवाईफ के पास? तो तुम दीवार के नीचे क्या कर रहे हो? आ? या-यहूदी?...”
“मैं, महाशय...”
कोड़ा सांप के समान सील की कॉलर और
गर्दन पर लपका. नरक यातना. फेल्दमन चिन्घाड़ा. अब वह काला नहीं, बल्कि सफ़ेद हो गया, और उन हरी पूँछों के बीच उसे
बीबी का चेहरा दिखाई दिया.
“प्रमाण पत्र!”
फेल्दमन ने कागजात वाली फाईल निकाली, उसे खोला, पहला ही कागज़ निकाला और अचानक थरथराने लगा, उसे अचानक याद आया...आह, खुदा, मेरे खुदा! उसने क्या कर दिया था? याकव ग्रिगोरेविच, ये आपने कौन सा कागज़ निकाला? क्या घर से भागते समय, जब बीबी के
शयनकक्ष से पहली कराह सुनाई दी थी, ऐसी छोटी-छोटी
बातें याद रखना मुमकिन है? ओह, फेल्दमन पर मुसीबत टूट पडी! गलान्बा
ने फ़ौरन कागज़ लपक लिया. एक पतली सी चिट पर सील लगी हुई थी – और इस चिट में थी
फेल्दमन की मौत.
“इसके
प्रस्तुतकर्ता फेल्दमन याकव ग्रिगोरेविच को, शहर की गैरिसन को अस्त्र-शस्त्रों
की आपूर्ति के संबंध में, स्वतंत्रता से शहर
में प्रवेश करने की और उससे बाहर जाने की अनुमति है , और शहर में रात के
बारह बजे के बाद भी घूमने की अनुमति है.
आपूर्ति प्रमुख
मेजर-जनरल इलरियोनव.
एड्जुटेंट –
लेफ्टिनेंट लिशिन्स्की.”
फेल्दमन ने मानो
जनरल कर्तूज़व के सामने चर्बी और वेसलीन – हथियारों के लिए सेमी-लुब्रिकेंट रख दिया
था.
खुदा, चमत्कार कर!
“सेंचुरियन
महाशय, ये सही डॉक्यूमेंट नहीं है!...इजाज़त
दीजिये...”
“नहीं, वही है,” शैतानियत से
हँसते हुए गलान्बा ने कहा, “परेशान न हो, हम पढ़े लिखे हैं, पढ़ लेंगे.”
खुदा! चमत्कार
कर. ग्यारह हज़ार सिक्के है.... सब ले लो. मगर सिर्फ ज़िंदगी बख्श दो! दे दो! खुदा!”
नहीं दी.
ये भी अच्छा रहा
कि फेल्दमन आसान मौत मर गया. सेंचुरियन गलान्बा के पास समय नहीं था. इसलिए उसने बस
फेल्दमन के सिर पर तलवार चला दी.
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