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अनेक पर्तों वाले मधुमक्खी के छत्ते की भाँति शहर धुआँ छोड़ रहा था, भिनभिना रहा था और अपनी ज़िंदगी जी रहा था. द्नेप्र के ऊपर पहाड़ों पर बर्फ
और कोहरे में सुन्दर प्रतीत होता था. अनगिनत चिमनियों से पूरे-पूरे दिन धुएँ के
वलय आसमान की ओर जाते रहते. रास्ते धुआँ छोड़ते रहते, और बर्फ के भारी भरकम ढेर
पैरों के नीचे चरमराते रहते. पाँच, छः और सात मंजिलों वाली
बिल्डिंग्स में अपार्टमेंट्स की भीड़ थी. दिन के समय उनकी खिड़कियाँ काली नज़र आतीं, और रात को गहरी-नीली ऊंचाई पर चमकतीं. जहाँ तक नज़र पहुंचे, ऊंचे-ऊंचे भूरे स्तंभों पर हुकों से लटकाए गए बिजली के बल्ब मूल्यवान
पत्थरों की भांति चमकते. दिन में प्यारी-सी घरघराहट के साथ, विदेशी मॉडेल पर बनाई
गईं पीली भूसा भरी गुदगुदी सीटों वाली ट्रामगाड़ियां दौड़तीं. पहाड़ियों पर गाड़ीवान
चिल्लाते हुए जाते, और गहरे रंग की कॉलरें – चांदी जैसे और
काले मखमल से बनीं – औरतों के चेहरों को रहस्यमय और खूबसूरत बनातीं.
बगीचे खामोश और शांत थे, सफ़ेद, अनछुई बर्फ के बोझ से दबे हुए. और शहर में
इतने ज़्यादा बगीचे थे, जितने दुनिया के किसी भी शहर में
नहीं हैं. वे बड़े-बड़े धब्बों जैसे चारों और बिखरे हुए थे,
तरुमंडित गलियारों, शाहबलूत के साथ, गड्ढों के साथ, मैपल और लिंडन वृक्षों के साथ.
द्नेप्र के ऊपर उभरती ख़ूबसूरत पहाड़ियों पर बाग़ शोभायमान हो
रहे थे, और, सबसे
शानदार था सदाबहार इम्पीरियल गार्डन, जो क्रमशः ऊपर उठता, और
फैलता हुआ, कभी लाखों सूरज के धब्बों से चकाचौंध करता, कभी शाम के नाज़ुक धुंधलके में चमकता. मुंडेर की पुरानी सड़ी हुई, काली बल्लियाँ उस भयानक ऊंचाई पर सीधे चट्टानों के रास्ते को अवरुद्ध
नहीं करती थीं.
बर्फीले तूफानों की चपेट में आकर खड़ी दीवारें
दूर की नीची छतों पर गिरतीं, और वे, आगे, और चौडाई में बिखर जातीं, किनारों के कुंजों में जातीं, मुख्य मार्ग पर जातीं, जो महान नदी के किनारे से बल
खाता हुआ गुज़रता था, और काला, जंजीर जैसा पट्टा, दूर धुंध में समा जाता, जहाँ शहर की ऊंचाइयों से मनुष्य की नज़र तक नहीं पहुँच सकती, जहाँ भूरे उतारों पर है जापरोझ्ये
‘सिच’, और खेर्सोनेस, और दूर का
समुद्र.
सर्दियों में ऊपरी शहर के
रास्तों पर और गलियों, पहाड़ों पर, और जमी हुई द्नेप्र के घुमाव पर फैले हुए निचले शहर में ऐसी खामोशी
छा जाती, जैसी दुनिया के किसी और शहर में नहीं होती, और मशीनों का सारा शोर-गुल पत्थर की इमारतों के भीतर चला जाता, धीमा पड़ जाता और काफी नीची आवाज़
में भुनभुनाता. शहर की सारी ऊर्जा, जो धूप और तूफानी गर्मी में
एकत्रित हुई थी, रोशनी के रूप में बहने लगती. दोपहर के चार बजे से घरों की खिड़कियों में, बिजली के गोल बल्बों में, गैस-बत्तियों में, घरों की लालटेनों में, जगमगाते मकान-नंबरों में और
इलेक्ट्रिक स्टेशनों की विशाल खिड़कियों में, जो मानवता के भयानक, अस्पष्ट, इलेक्ट्रिक भविष्य का विचार मन
में जगाती थीं, उनकी ठोस खिड़कियों में, निरंतर अपने बदहवास पहिये घुमाती, धरती की नींव को झकझोरती हुई मशीनें
दिखाई दे रही थीं. पूरी रात शहर रोशनी से खेलता, झिलमिलाता, चमकता और नृत्य करता और सुबह बुझ जाता, धुआं और कोहरा ओढ़ लेता.
मगर सबसे बढ़िया चमकता था व्लादिमीर
पहाडी पर विशालकाय व्लादिमीर के हाथों का सफ़ेद सलीब, वह दूर तक दिखाई देता और
अक्सर गर्मियों में, काले धुंधलके में, बूढ़ी नदी के उलझन भरे अप्रवाही जल और मोड़ों से, विलो वृक्षों के झुरमुट से, नौकाएं उसे देखती और उसकी रोशनी में पानी में शहर को जाने वाला, उसके घाटों का रास्ता ढूँढतीं.
सर्दियों में सलीब घने काले बादलों में चमकता और ठंडेपन और खामोशी से मॉस्को वाले
अँधेरे, ढलवां किनारे पर राज करता, जहाँ से दो विशाल पुल जाते थे, एक भारी भरकम, जंजीरों वाला, निकलायेव्स्की पुल जो उस पार की बस्ती की ओर जाता था, दूसरा – ऊंचा, तीर जैसा, जिस पर वहाँ से आने वाली
रेलगाड़ियाँ दौड़ती थीं, जहाँ बहुत-बहुत दूर, अपनी रंगबिरंगी, शोख टोपी फैलाए बैठा था रहस्यमय मॉस्को.
***
तो, सन् 1918 की सर्दियों में शहर, एक अजीब सी, कृत्रिम ज़िंदगी जी रहा था, जो, बहुत संभव है, बीसवीं
शताब्दी में दुहराई नहीं जायेगी. पत्थरों की दीवारों के पीछे सभी अपार्टमेंट्स
खचाखच भरे थे. उनके पुराने, मूल निवासी सिकुड़ गए और सिकुड़ते
रहे, चाहे-अनचाहे नए आगंतुकों को, जो शहर में आये थे, रहने की इजाज़त देते रहे. और वे इसी तीर जैसे पुल से, वहाँ से आये थे, जहाँ रहस्यमय नीली धुंध थी.
सफ़ेद बालों वाले बैंकर्स अपनी पत्नियों के साथ भागे, होशियार व्यवसायी भागे, अपने विश्वासपात्र सहयोगियों को मॉस्को में छोड़कर, जिन्हें यह निर्देश
दिया गया था की उस नई दुनिया से संबंध न तोड़ें, जो मॉस्को के साम्राज्य में जन्म
ले रही थी, मकानों के मालिक, जिन्होंने अपने विश्वासपात्र
हरकारों के भरोसे घर छोड़े थे, उद्योजक,
व्यापारी, एडवोकेट्स, सामाजिक
कार्यकर्ता भी भागे. पत्रकार भागे – मॉस्को के और पीटर्सबुर्ग के, भ्रष्ट, लालची, कायर.
वेश्याएं. कुलीन परिवारों की ईमानदार महिलाएं. उनकी नाज़ुक बेटियाँ, लाल रंग के होठों वाली पीटर्सबर्ग की विवर्ण, बदचलन
औरतें भागीं. डिपार्टमेंट्स के डाइरेक्टरों के सेक्रेटरी भागे, जवान, निष्क्रिय लौंडेबाज़ भागे. राजकुमार भागे,
कंजूस भागे, कवि और सूदखोर, पुलिस वाले
और शाही थियेटरों की अभिनेत्रियाँ भागीं. ये सारे लोग दरार से निकालकर शहर की ओर जा रहे थे.
गेटमन के चुनाव से लेकर बसंत का पूरा मौसम वह निरन्तर
शरणार्थियों से भरता रहा. क्वार्टरों में लोग दीवानों और कुर्सियों पर सोते थे. अमीर क्वार्टरों में मेजों पर बैठकर
बड़े-बड़े समूहों में खाते थे. अनगिनत फ़ूड-स्टाल्स खुल गए, जो
देर रात तक व्यापार करते थे, जहाँ कई सारे कैफ़े खुल गए, जहाँ कॉफी दी जाती और जहाँ औरत भी खरीदी जा सकती थी, नए-नए मिनी-थियेटर्स, जिनके स्टेजों पर अनेक मशहूर
एक्टर्स, जो दोनों राजधानियों से उड़कर आये थे, मुँह बनाते और
लोगों को हंसाते, प्रसिद्ध थियेटर “दि पर्पल नीग्रो” खुल गया और विशाल, क्लब “प्राख” – (कवि – डाइरेक्टर्स – आर्टिस्ट्स – कलाकार) भी
निकलायेव्स्काया स्ट्रीट पर खुल गया, जो श्वेत सुबह तक तश्तरियां खनखनाता. नए
अखबार भी शुरू हो गए, और रूस के बेहतरीन कलमकार उनमें विविध
प्रकार के लेख लिखते, और इन लेखों में बोल्शेविकों को बदनाम
करते. गाडीवान पूरे-पूरे दिन एक रेस्तरां से दूसरे रेस्तरां में सवारियां ले जाते,
और रातों को कैबरे में तंतुवाद्य बजाये जाते और तम्बाकू के धुएँ में सफ़ेद, थकी हुई, कोकीन पिलाई गईं वेश्याओं के चेहरे अद्भुत
सुन्दरता से दमकते.
शहर फूल
रहा था, फ़ैल रहा था, खमीर की तरह उफन रहा था. जुए के क्लबों में सुबह तक सरसराहट होती रहती, और उसमें खेलतीं पीटर्सबर्ग की हस्तियाँ और शहर की हस्तियाँ, महत्वपूर्ण और गर्वीले जर्मन लेफ़्टिनेंट्स
और मेजर्स. जिनसे रूसी डरते थे और जिनकी वे इज्ज़त करते थे. मॉस्को के क्लबों के
बदमाश पत्तेबाज़ खेलते थे, और उक्रेनी-रूसी ज़मींदार भी, जिनकी ज़िन्दगी बाल से लटक
रही थी. कैफे ‘मक्सिम’ में एक ख़ूबसूरत,
भरा-भरा रोमानियन वॉयलिन पर सीटी बजा रहा था, और उसकी आंखें
गज़ब की थीं, दुखी, बोझिल, श्वेतपटल नीलापन लिए था, और बाल – मखमली. लैम्प,
जिन पर जिप्सी शालें डाली गईं थीं, दो रंग के प्रकाश फेंक
रहे थे – नीचे सफ़ेद बिजली का, और ऊपर – नारंगी. भूरे नीले
रेशम से बना सितारा छत पर अपनी आभा बिखेर रहा था, धुंधले
कोनों में नीले दीवानों पर बड़े-बड़े हीरे दमक रहे थे और भूरे लाल साइबेरियन फ़र चमक
रहे थे. भुनी हुई कॉफ़ी की, पसीने की, स्प्रिट की और फ्रेंच
पर्फ्यूम की गंध फ़ैली थी. सन् अठारह की पूरी गर्मियां निकलायेव्स्काया पर रूई के
अस्तर वाले कफ्तानों में फूले-फूले, लापरवाह ड्राइवर्स घूमते रहते, और पौ फटने तक शंकु के आकार में कारों की बत्तियाँ जलती रहतीं. दुकानों
की खिड़कियों से जैसे फूलों के जंगल झाँक
रहे थे, सुनहरी चर्बी के स्लैब्स की तरह नमकीन स्टर्जन
मछलियाँ लटक रही थीं, दो मुँह वाले
उकाब और सीलों से सजीं शानदार शैम्पेन “अब्राऊ” की बोतलें सुस्ती से चमक रही थीं.
और पूरी गर्मियां, और पूरी गर्मियां नये-नये लोग आते रहे. मुलायम-गोरे, चेहरों पर भूरी, कटी हुई मूंछों, और चमचमाते जूतों और धृष्ठ आँखों वाले ऑपेरा के एकल-गायक, राजकीय ड्यूमा के सदस्य नाक पकड़ चश्मे पहने, ब... खनखनाते कुलनामों वाली, बिलियार्ड के खिलाड़ी...लड़कियों को दुकानों में
ले जाते लिपस्टिक और खतरनाक काट वाली महिलाओं की कैम्ब्रिक पतलून खरीदने. लड़कियों
के लिए नेल-पॉलिश खरीदते.
वे एक ही मुक्ति-द्वार को पत्र भेजते, अस्पष्ट, अशांत पोलैंड के रास्ते ( वैसे, किसी भी शैतान को
मालूम नहीं था, कि वहाँ क्या हो
रहा है, और ये पोलैंड – कौन सा नया देश
है), जर्मनी को, ईमानदार टयूटनों के
महान देश को, वीज़ा के लिए
प्रार्थना करते हुए, धनराशि भेजते हुए, ये महसूस करते हुए कि, हो सकता है, और भी आगे जाना पड़ जाए, वहाँ, जहाँ किसी भी हालत में बोल्शेविकों के लड़ाकू रेजिमेंट्स की गरज और खौफनाक
लड़ाई उन तक नहीं पहुँच पायेगी. सपने देखते फ्रांस के, पैरिस के, इस ख़याल से दुखी
होते कि वहाँ पहुँचना, बेहद मुश्किल, लगभग असंभव है. कभी-कभी अत्यंत भयावह और एकदम
अस्पष्ट विचारों से इतना ज़्यादा दुखी होते, कि अचानक पराये दीवानों पर जागते हुए
रातें काटते.
‘और अचानक? और यदि अचानक? अचानक ? ये फौलादी घेरा टूट जाए तो...और भूरे झुण्ड आ जाएँ,
ओह, भयानक...’
ऐसे विचार उन हालात में आते, जब दूर, कहीं दूर से गोलों की हल्की मार सुनाई
देती – शहर के पास, न जाने क्यों, पूरी शानदार और तपती गर्मियों
में गोलियां चलाते रहे, जब फौलादी जर्मन
चारों ओर शान्ति बनाए हुए थे, और खुद शहर में, सीमाओं पर निरंतर गोलियां चलाने की दबी-दबी
आवाजें सुनाई देतीं : पा-पा-पाख.
कौन किस पर गोलियां चला रहा था – किसी को पता
नहीं था. ये रातों को होता. और दिन में शांत हो जाते, देखते कि कैसे कभी-कभी प्रमुख पथ, क्रेश्चातिक पर, या व्लादीमिर्स्काया पर जर्मन हुसारों की रेजिमेंट गुज़रती
थी. आह, और कैसी थी रेजिमेंट! गर्वीले
चेहरों पर रोएँदार टोपियाँ, पत्थर जैसी ठोढ़ियों
को बांधते परतदार बेल्ट, लाल नुकीली मूंछें
तीर की तरह ऊपर को उठी हुईं. स्क्वैड्रन के घोड़े चार-चार की पंक्तियों में
अनुशासनबद्ध तरीके से चल रहे थे. सत्रह बालिश्त ऊंचे लाल घोड़े, और छः सौ सवारों पर
थे भूरे नीले जैकेट्स, जैसे बर्लिन के शक्तिशाली जर्मन लीडरों के स्मारकों
के फौलादी कोट.
उन्हें देखकर खुश होते, और राहत महसूस करते और विदेशी नुकीले तारों की बॉर्डर
के पीछे से दूर के बोल्शेविकों को दाँत दिखारे हुए चिढ़ाते:
“तो, हिम्मत है, तो आ के दिखाओ!”
बोल्शेविकों से नफ़रत करते, मगर यह नफ़रत खुल्लम खुल्ला नहीं थी, जब नफ़रत करने वाला झगड़ा करना और मारना चाहता है, बल्कि ये डरपोक किस्म की नफ़रत थी, जो नुक्कड़ से, अँधेरे से फुफ़कारती थी. नफ़रत
करते थे रात में, अस्पष्ट चिंता से
सो जाते, दिन में रेस्टारेंट्स में,
अखबार पढ़ते हुए, जिनमें लिखा होता
था कि कैसे बोल्शेविक ऑफिसर्स की, बैंकर्स की गर्दन में पीछे से पिस्तौल से गोलियां
मारते हैं और कैसे मॉस्को में दुकानदार घोड़े का सडा हुआ मांस बेचते हैं. सभी नफ़रत
करते थे – व्यापारी, बैंकर्स, उद्योजक, एडवोकेट्स, एक्टर्स, मकान मालिक, अभिसारिकाएं, स्टेट काउन्सिल के
सदास्य, इंजीनियर्स, डॉक्टर्स और लेखक....
***
ऑफिसर्स थे. वे भी भाग कर आये थे – भूतपूर्व फ्रंट-लाइन - उत्तर से और
पश्चिम से, और वे सभी शहर जा रहे थे, उनकी संख्या बहुत ज़्यादा थी और बढ़ती
ही जा रही थी. उनकी जान जोखिम में थी, क्योंकि उनके लिए, जिनमें अधिकांश निर्धन थे और उन
पर अपने पेशे की अमिट छाप थी, झूठे डॉक्यूमेंट्स प्राप्त
करके सीमा पार करना सबसे कठिन था. फिर भी किसी तरह पहुँच गए और शहर में प्रकट हो गए, दयनीय
अवतार में, बदहाल, बिना दाढी बनाए, बिना शोल्डर-स्ट्रैप्स के, और उसके अनुरूप बनने की
कोशिश करने लगे, जिससे खाने और रहने की व्यवस्था हो सके. उनके
बीच इस शहर के मूल निवासी भी थे, जैसे अलेक्सेइ
तूर्बिन, जो युद्ध से अपने घोंसले में वापस लौट रहे थे, इस ख़याल से कि – आराम
करेंगे, और आराम करेंगे और फिर से जीवन शुरू करेंगे, फ़ौजी का नहीं, बल्कि साधारण मनुष्य का जीवन, और
सैंकड़ों अनजान लोग थे, जिनके लिए न तो पीटर्सबुर्ग में, न ही मॉस्को में रहना संभव था. उनमें कुछ क्युरेस्सिएर (चर्म कवचधारी
अश्वारोही – अनु. ), कैवेलरी गार्ड्स, हॉर्स गार्ड्स और
हुस्सार्स थे, जो अशांत शहर के मटमैले फ़ेन में आसानी से तैर रहे थे. गेटमन
का रक्षक दल शानदार शोल्डर स्ट्रैप्स लगाए घूमता था, और
गेटमन की खाने की मेजों पर करीब दो सौ, बालों में तेल चुपड़े
लोगों के बैठने की व्यवस्था थी, जो अपने सड़े हुए, पीले, सोना
जडे दांत चमकाते. जिन्हें इस रक्षक दल में जगह नहीं मिलती,
उन्हें ऊदबिलाव की कॉलर के महंगे ओवरकोट वाली महिलायें आधे अँधेरे, ओक वृक्ष की नक्काशी वाले बढ़िया अपार्टमेन्ट्स में – जो शहर के बेहतरीन भाग – लीप्की में थे, रख लेतीं, या फिर वे रेस्टोरेंट्स अथवा होटल के
कमरों में चले जाते…
दूसरे,
ख़त्म हो गईं या भंग कर दी गईं फौजों के स्टाफ-कैप्टेन्स, लड़ाकू सेना के हुस्सार, जैसे कर्नल नाय-तूर्स, सैंकड़ों ध्वजवाहक और सेकण्ड लेफ्टिनेंट्स,
भूतपूर्व स्टूडेन्ट्स, जैसे स्तिपानव – करास, जो युद्ध और
क्रान्ति के कारण जीवन की धुरी से छिटक गए थे, और लेफ्टिनेंट्स,
वे भी भूतपूर्व स्टूडेंट्स थे, मगर विश्वविद्यालय के लिए
हमेशा के लिए ख़त्म हो चुके थे, जैसे विक्तर विक्तरविच
मिश्लायेव्स्की. वे भूरे, घिसे-पिटे ओवरकोट में, अभी तक ठीक
न हुए ज़ख्मों के साथ, कन्धों पर उधेड़े हुए शोल्डरस्ट्रेप्स
की परछाईं के साथ शहर आये थे, और या तो अपने परिवारों
के साथ या अपरिचित परिवारों के साथ कुर्सियों पर सोते,
ओवरकोटों से खुद को ढांक लेते, वोद्का पीते, भाग-दौड़ करते, कोशिश करते और कड़वाहट से खदबदाते. ये
अंतिम लोग ही बोल्शेविकों से बेहद और खुल्लम खुल्ला नफ़रत करते थे, ऐसी नफ़रत, जो मारपीट तक पहुँच जाती थी.
कैडेट-ऑफिसर्स भी थे. क्रान्ति के आरम्भ में शहर में चार कैडेट-स्कूल्स
बचे थे – इंजीनियरिंग, आर्टिलरी, और दो इन्फैंट्री ऑफिसर्स के लिए.
सैनिकों की गोलाबारी की गरज में वे ढह गए और ख़त्म हो गए, और
हाल ही में स्कूल से निकले, अभी-अभी दाखिला पाए स्टूडेंट्स
अपंग, ज़ख़्मी हालत में बाहर फेंक दिए गए, न तो वे बच्चे थे, न वयस्क, न फ़ौजी थे, न ही
नागरिक, बल्कि वैसे, जैसे सत्रह साल का
निकोल्का तुर्बीन....
***
“ये सब,
बेशक, बहुत प्यारा है, और सबके ऊपर
शासन कर रहा है गेटमन. मगर, खुदा की कसम, मैं अब तक नहीं जानता, और शायद ज़िंदगी भर नहीं जान
पाऊंगा, कि ये अभूतपूर्व शासक है कौन,
जिसका नाम सत्रहवीं शताब्दी का है, बनिस्बत बीसवीं शताब्दी
के.”
“हाँ, वह
है कौन, अलेक्सेइ वसील्येविच?”
“घुड़सवार रक्षक, जनरल, खुद बहुत अमीर ज़मींदार है, और उसका नाम है
पावेल पित्रोविच...
किस्मत का और इतिहास का अजीब मज़ाक देखिये कि उसका चुनाव, जो उल्लेखनीय वर्ष के अप्रैल
में हुआ था, सर्कस में सम्पन्न हुआ. भावी इतिहासकारों को,
शायद, यह काफी व्यंग्यात्मक सामग्री देगा. मगर नागरिकों के
लिए, जो ख़ास तौर से, शहर में बसे हुए हैं, और गृहयुद्ध के आरंभिक विस्फोटों को झेल चुके हैं,
व्यंग्य से कोई मतलब नहीं था, और आम तौर से इसमें विचार करने
का कोई कारण भी नज़र नहीं आता था. चुनाव चौंकाने वाली शीघ्रता से हुआ – और खुदा की महरबानी.
गेटमन ने राज किया – और अच्छी तरह राज किया. काश, डबल रोटी होती, और सडकों पर गोलीबारी न होती, खुदा के लिए,
बोल्शेविक न होते, और सामान्य जनता लूटपाट न करती. गेटमन के
शासन में कमोबेश यह संभव हो गया था. कम से कम, भाग कर आए हुए
मॉस्कोवासी और पीटर्सबुर्ग वाले और अधिकाँश नागरिक, हाँलाकि
गेटमन के विचित्र देश पर हंसते थे, जिसे वे, कैप्टेन तालबेर्ग की तरह ‘कॉमिक ओपेरा’, अवास्तविक राज्य कहते थे, गेटमन की दिल से तारीफ़ करते... और... “खुदा करे, ये
हमेशा चलता रहे.”
मगर क्या ये हमेशा चल सकता था, कोई भी नहीं कह सकता था, और खुद गेटमन भी नहीं.
हाँ.
बात ये थी कि शहर - शहर था. उसमें पुलिस - सुरक्षा यंत्रणा थी, और मिनिस्ट्री थी, और फ़ौज भी थी, और अलग अलग नामों से अखबार निकलते थे, मगर चारों और क्या हो रहा है, उस असली उक्रेन में, जो क्षेत्रफल में फ्रांस से भी बड़ा है, जिसमें लाखों
लोग रहते हैं, इस बारे में कोई कुछ नहीं जानता था. नहीं
जानता था, कुछ भी नहीं जानता था, न
केवल दूर दराज़ की जगहों के बारे में, बल्कि – कहने में हंसी
आती है – गाँवों के बारे में भी, जो शहर से सिर्फ तीस
मील की दूरी पर थे. नहीं जानते थे, मगर तहे दिल से नफ़रत करते
थे. और जब रहस्यमय प्रदेशों से, जिन्हें - गाँव कहा जाता है,
अस्पष्ट समाचार प्राप्त होते, इस बारे में कि जर्मन किसानों
को लूट रहे हैं, और बेरहमी से उन्हें सज़ा दे रहे हैं, गोलियों से भून रहे हैं, तो न केवल उक्रेनी किसानों
के पक्ष में आक्रोश का एक भी शब्द न निकलता, बल्कि कई बार, ड्राइंग रूम्स में, रेशमी लैम्प-शेड की रोशनी में, भेड़िये के समान दांत भींचते और बुदबुदाहट सुनाई देती:
“उनके साथ ऐसा ही होना चाहिए! ऐसा ही होना चाहिए; यह तो कम है! मैं तो उनके साथ और
भी कड़ाई से पेश आता. याद रखेंगे क्रान्ति को. जर्मन उन्हें सबक सिखायेंगे – अपनों
को नहीं चाहते थे, गैरों को अपनाने चले हैं!”
“ओह,
कैसी बेतुकी हैं आपकी बातें, ओह, कितनी बचकानी.”
“क्या कह रहे हैं, अलेक्सेइ वसील्येविच!...ये लोग इतने कमीने हैं. ये एकदम जंगली जानवर हैं.
ठीक है. जर्मन्स उन्हें दिखाएँगे.
जर्मन्स !!
जर्मन्स !!
और हर तरफ :
जर्मन्स !!
जर्मन्स !!
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