Sunday, 23 April 2023

श्वेत गार्ड्स - 01

 

मिखाइल बुल्गाकव

श्वेत गार्ड्स


अनुवाद 

आ.  चारुमति रामदास 


ल्युबोव एव्गेन्येव्ना बिलाज़्योर्स्काया को समर्पित

हल्की बर्फ गिरने लगी,

और अचानक बड़े-बड़े

फाहे गिरने लगे.

हवा चिंघाड़ने लगी; 

बर्फीला तूफ़ान आ गया.

पल भर में काला आकाश बर्फ के समुन्दर में बदल गया.

सब कुछ लुप्त हो गया.

“ओह, मालिक,” गाडीवान चिल्लाया,
“मुसीबत: बर्फीला तूफ़ान!”

“कप्तान की बेटी”

और ग्रंथों में जो लिखा है,

उसके मुताबिक़

अपने कर्मों के अनुसार

मृतकों का भी न्याय किया गया.

 

भाग – एक


महान था यह साल, और .क्रिसमस के बाद, तथा द्वितीय क्रान्ति के आरंभ से ही भयानक था सन् 1918 का साल. गर्मियों में प्रचुर धूप, और सर्दियों में बेहद बर्फबारी, और विशेष रूप से ऊंचे आसमान में दो तारे चमक रहे थे: चरवाहे का तारा – शाम का शुक्रतारा, और लाल, थरथराता मंगल.  

मगर दिन तो शान्ति और युद्ध के दिनों में तीर की तरह लपक कर गुज़र जाते हैं, और नौजवान तुर्बीनों को पता ही नहीं चला कि कैसे कडाके की बर्फीली ठण्ड में सफ़ेद झबरा दिसंबर आ पहुँचा. ओ, बर्फ और सुख से दमकते, क्रिसमस ट्री वाले हमारे दद्दू! मम्मा, ओजस्वी महारानी, कहाँ हो तुम?

बेटी एलेना की कैप्टन सिर्गेइ इवानविच ताल्बेर्ग से शादी के एक साल बाद, और उस  सप्ताह, जब बड़ा बेटा अलेक्सेइ वसील्येविच तुर्बीन कठिन अभियानों, सेवा और मुसीबतों के बाद युक्रेन लौटा था, अपने शहर, अपने प्यारे घोसले में, सफ़ेद ताबूत में माँ के जिस्म को पदोल स्थित अलेक्सेव्स्की की  सीधी ढलान से नीचे, छोटे से निकलाय दोब्री चर्च ले जाया गया, जो व्ज्वोज़ में है.

जब माँ को दफनाया जा रहा था. तो मई का महीना था, चेरी और अकासिया के वृक्षों ने लेंसेट खिड़कियों को पूरी तरह कस कर ढांक दिया था. फ़ादर अलेक्सान्द्र दुःख और परेशानी से लड़खड़ाते हुए, सुनहरी रोशनी में चमक रहे थे और जगमगा रहे थे, और डीकन, जिसका चेहरा और गर्दन बकाइन जैसे नज़र आ रहे थे, जूतों की नोक तक सोने में मढा हुआ, जिनके तलवे चरमरा रहे थे, उदासी से चर्च के बिदाई-सन्देश को माँ के पास खडा बुदबुदा रहा था, जो अपने बच्चों को छोड़कर जा रही थी.                

अलेक्सेइ, एलेना, ताल्बेर्ग और अन्यूता, जो तुर्बीनो के घर में पली-बढ़ी थी, और माँ की मृत्यु से सुन्न हो गया निकोल्का, जिसकी दाईं भौंह पर एक लट झुक आई थी, बूढ़े, भूरे सेंट निकोला के पैरों के पास खड़े थे. निकोल्का की नीली आंखें, जो उसकी लम्बी, पंछी जैसी नाक के दोनों ओर स्थित थीं, बदहवासी से, आहत भाव से देख रही थीं. बीच बीच में वह वेदी की ओर, आधे अँधेरे में डूबते हुए अल्टार के आर्क को, देख लेता जहाँ दयनीय, रहस्यमय, बूढा खुदा, चढ़ा हुआ था, आंखें झपकाता. 

किसलिए ऐसा अपमान? अन्याय? माँ को छीन लेने की क्या ज़रुरत थी, जब सब इकट्ठा हुए थे, जब कुछ राहत के दिन लौटे थे?

काले, छितरे आसमान में उड़ते हुए खुदा ने जवाब नहीं दिया, और खुद निकोल्का भी अभी नहीं जानता था, कि जो कुछ भी हो रहा है, हमेशा ऐसे ही होता है, जैसे होना चाहिए, और सिर्फ अच्छे के लिए ही होता है.

फ्यूनरल सर्विस समाप्त हुई, पोर्च के गूंजते हुए स्लैब्स पर बाहर निकले और मम्मा को पूरे विशाल शहर से कब्रिस्तान ले गए, जहाँ काले संगमरमर के सलीब के नीचे काफी पहले पापा दफनाये गए थे. मम्मा को भी दफनाया. एह...एह...

 

**

 

उसकी मृत्यु से पहले, बहुत सालों तक सेंट अलेक्सेइ पहाडी पर स्थित मकान नं. 13 में टाईल्स वाली भट्टी दहकती रहती और छोटी एलेन्का को, बड़े अलेक्सेइ को और बिलकुल नन्हें निकोल्का को गरमाती. दहकती भट्टी के पास कितनी ही बार ‘सर्दाम का बढ़ई’ उपन्यास पढ़ते, घड़ी अपना संगीत बजाती, और हमेशा दिसंबर के अंत में चीड के नुकीले काँटों की खुशबू आती, और हरी-हरी टहनियों पर रंगबिरंगी मोमबत्तियाँ जलती रहतीँ.

ताँबे की, संगीत वाली, घड़ी के जवाब में, जो मम्मा के, और अब एलेन्का के शयन कक्ष में हैं, डाइनिंग रूम में काली दीवार घड़ी घंटाघर जैसे घंटे बजाती. उन्हें पापा ने काफी पहले खरीदा था, जब औरतें कन्धों पर फूली-फूली बाहों वाली ड्रेस पहनती थीं. वैसी बाहें गायब हो गईं, देखते-देखते समय बीत गया था. पापा – प्रोफ़ेसर, गुज़र गए, सब बड़े हो गए, मगर घड़ी वैसी ही रही और वैसे ही घंटे बजाती रहीं. उनकी इतनी आदत हो गई थी, कि मान लो, अगर वे कभी दीवार से गायब हो गईं, तो इतना दुःख होता, जैसे कोई अपनी आवाज़ मर गई हो और उस खाली जगह को किसी भी तरह से भरना नामुमकिन होता. मगर, खुशकिस्मती से घड़ी पूरी तरह से अमर है, ‘सर्दाम का बढ़ई’ भी अमर है, और टाईल्स वाली डच-भट्टी भी, किसी बुद्धिमान चट्टान की तरह, कठिन से कठिन समय में भी जीवन और गर्माहट देने के लिए. 

ये टाईल्स वाली भट्टी, और पुराने लाल मखमल वाला फर्नीचर, और चमकती मूठों वाले पलंग, तस्वीरों वाले कार्पेट, शोख और लाल, हाथ में बाज़ लिए अलेक्सेइ मिखाइलविच, लुदविक XIV, जन्नत के बाग़ में रेशम जैसे तालाब के किनारे झुका हुआ, पूर्वी शैली में बने हुए अद्भुत डिजाइनों वाले तुर्की कार्पेट, जिनके सपने लाल ज्वर के प्रलाप में नन्हें निकोल्का को आते थे, शेड वाला ताँबे का लैम्प. किताबों से भरी दुनिया की सबसे अच्छी अलमारियाँ, जिनसे रहस्यमय चॉकलेट की खुशबू आती, नताशा रस्तोवा के साथ, कप्तान की बेटी के साथ, सुनहरे प्याले, चांदी का सामान, पोर्ट्रेट्स, - सभी धूल भरे और सामान से खचाखच भरे सातों कमरे, जिनमें जवान तुर्बींन बड़े हुए थे, यह सब अत्यंत कठिन समय में मम्मा बच्चों के लिए छोड़ गई और, रुकती हुई साँस से, निढाल होते हुए, रोती हुई एलेना का हाथ पकड़कर बोली:

“प्यार से...रहना.”

 

**

 

मगर कैसे जिएँ? जिएँ तो कैसे जिएँ?

बड़ा, अलेक्सेइ वसील्येविच तुर्बींन – नौजवान डॉक्टर अट्ठाईस साल का था. एलेना – चौबीस की. उसका पति, कैप्टन ताल्बेर्ग – इकतीस का, और निकोल्का – साढ़े सत्रह का.  

उनके जीवन में तो दिन निकलते ही अन्धेरा हो गया था. काफी पहले से उत्तर से क्रान्ति की हवा चल रही थी, और दिनों दिन अधिकाधिक तीव्र होती जा रही है, समय के साथ हालात बदतर होते जा रहे हैं. बड़ा तूर्बिंन पहले ही विस्फोट के बाद, जिसने द्नेप्र के ऊपर वाले पहाड़ों को हिला दिया था, अपने पैतृक शहर में लौट आया. सोच रहे थे, कि जल्दी ही यह सब रुक जाएगा, वह ज़िंदगी शुरू हो जायेगी जिसके बारे में चॉकलेट की खुशबू वाली किताबों में लिखा जाता है, मगर सिर्फ वह शुरू नहीं हो रही थी, बल्कि चारों और हालात और भी भयानक होते जा रहे हैं. उत्तर में बर्फीला बवंडर चिंघाड़े जा रहा है और यहाँ, पैरों तले भयानक गडगडाहट होती है, धरती की उत्तेजित कोख कराह रही है. सन् अठारह अंत की ओर भाग रहा है, और दिन पर दिन अधिकाधिक भयानक और खतरनाक प्रतीत हो रहा है.

दीवारें गिर जायेंगी, सफ़ेद आस्तीन से उत्तेजित बाज़ उड़ जाएगा, ताँबे के लैम्प में लौ बुझ जायेगी, और ‘कप्तान की बेटी’ को भट्टी में जला देंगे. मम्मा ने बच्चों से कहा था:

“जीते रहो.”

मगर उन्हें तो तड़पना और मरना पडेगा.

माँ को दफनाने के कुछ समय बाद, एक बार, सांझ के झुटपुटे में अलेक्सेइ तुर्बीन फादर अलेक्सांद्र के पास आया और बोला, .

“बहुत दुखी हैं हम, फादर अलेक्सांद्र. मम्मा को भूलना बहुत कठिन है, और ऊपर से समय इतना कठिन है...ख़ास बात ये है, कि मैं अभी-अभी लौटा हूँ, सोचता था कि ज़िंदगी को ठीक-ठाक कर लूँगा, और ये...”

वह खामोश हो गया और, मेज़ के पास बैठे हुए शाम के धुन्धलके में दूर कहीं देखते हुए सोचता रहा.

चर्च के कम्पाउंड में टहनियों ने प्रीस्ट के छोटे से घर को भी ढांक दिया था. ऐसा लग रहा था, कि उस तंग कमरे की दीवार के पीछे, जो किताबों से ठसाठस भरा था, अभी बसंत का, रहस्यमय, बेतरतीब जंगल शुरू हो जाएगा. शहर शाम की तरह दबी-दबी आवाज़ में शोर मचा रहा था, बकाइन की खुशबू आ रही थी.        

“क्या करोगे, क्या करोगे,” पादरी परेशानी से बुदबुदाया. (जब लोगों से बात करने का मौक़ा आता तो वह हमेशा परेशान हो जाता था.) “खुदा की मर्जी.”

“ हो सकता है, यह सब कभी ख़तम हो जाएगा? आगे – बेहतर ही होगा?” न जाने किससे तुर्बींन ने पूछा.

पादरी कुर्सी में कसमसाया.

मुश्किल, बेहद मुश्किल समय है, क्या कहें,” वह बुदबुदाया, “मगर हिम्मत न हारो...”  

फिर अचानक अपने सफ़ेद हाथ को चोगे की काली आस्तीन से निकाल कर, किताबों की गड्डी पर रख दिया और सबसे ऊपर वाली किताब को उस जगह पर खोला, जहाँ कढ़े हुए रिबन का बुक-मार्क था.

“ निराशा को पास फटकने नहीं देना है,” उसने परेशानी से, मगर, जैसे काफी विश्वास से कहा. “महान पाप है निराशा...हाँलाकि, मुझे लगता है कि अभी और भी इम्तेहान होंगे. हाँ, बिलकुल, बड़े इम्तिहान,” वह अधिकाधिक विश्वास से कह रहा था.

“पिछले कुछ समय से मैं, पता है. किताबों के, विशेष किताबों के साथ समय बिताता हूँ, बेशक, थियोलॉजी की किताबों के साथ...”

उसने किताब कि इस तरह से कुछ ऊपर उठाया, कि खिड़की से आती हुई अंतिम किरण पृष्ठ पर पड़े, और पढ़ा:

“तीसरे फ़रिश्ते ने अपना गिलास नदी में और पानी के झरनों में उंडेल दिया; और वह खून बन गया.”

 

No comments:

Post a Comment

खान का अग्निकांड

  खान का अग्निकांड लेखक: मिखाइल बुल्गाकव  अनुवाद: आ. चारुमति रामदास    जब सूरज चीड़ के पेड़ों के पीछे ढलने लगा और महल के सामने दयनीय, प्रक...