मॉर्फीन
लेखक
मिखाइल बुल्गाकव
हिन्दी अनुवाद
आ. चारुमति रामदास
1.
विद्वानों द्वारा
काफी पहले ही यह निष्कर्ष निकाला गया है, कि सुख को, स्वास्थ्य ही की तरह, महसूस नहीं करते, जब तक उसका अस्तित्व
होता है. मगर जब साल बीत जाते हैं, - तो सुख को कितना याद करते हो, ओह, कैसे याद करते हो!
जहाँ तक
मेरा सवाल है, तो मैं, जैसा कि अभी स्पष्ट हुआ है, सन् १९१७ की
सर्दियों में सुखी था. अविस्मरणीय, बर्फीला-तूफानी, साहसी साल.
बर्फीले
तूफ़ान ने, जो शुरू हो
चुका था, मुझे फटे
हुए अखबार के तुकडे की तरह लपक लिया और दूर-दराज़ के सुनसान कोने से काउंटी-टाउन में
ला पटका. आप सोच रहे होंगे, कि काउंटी-टाउन कौनसी
बड़ी बात है? मगर यदि कोई मेरे जैसा सर्दियों में बर्फ में, सख्त और बदहाल जंगल में
गर्मियों में, डेढ़ साल बैठा रहा हो, एक भी दिन दूर हुए बिना, अगर किसी ने पिछले हफ्ते के अखबार पर पार्सल खोला हो
ऐसे धड़कते दिल से, जैसे कोई भाग्यशाली प्रेमी नीला लिफाफा खोलता है, अगर कोई प्रसव कराने के
लिए हंसों द्वारा खींची जा रही स्लेज गाडी पर १८ मील गया हो, तो वह, मेरा ख़याल
है. मुझे समझ सकेगा.
सबसे ज़्यादा
आरामदेह चीज़ है कैरोसीन
का लैम्प, मगर मुझे
बिजली का बल्ब पसंद है! और मैंने उन्हें फिर से देखा, आखिरकार, ललचाते हुए
बिजली के बल्ब और छोटे से शहर की प्रमुख सड़क, अच्छी तरह किसानों की स्लेज गाड़ियों से ढँकी हुई, सड़क, जिस पर नज़रों को लुभाते
हुए लटक रहे थे – जूतों वाले बैनर, सुनहरी क्रैन्देल, सूअर जैसी बेशर्म आंखों और बिलकुल कृत्रिम हेयर स्टाईल
वाले नौजवान की तस्वीर, जो यह प्रदर्शित करती थी कि कांच के दरवाजों के पीछे स्थानीय
बज़ील बैठता है, जो ३० कोपेक में किसी भी समय आपकी हजामत बना देगा, सिवाय त्यौहार के दिनों
को छोड़कर, जो मेरी
पितृभूमि में बहुतायत से हैं.
आज तक बज़ील
के नैपकिन्स को थरथराते हुए याद करता हूँ, नैपकिन्स, जो त्वचा की बीमारियों
वाली जर्मन पाठ्य पुस्तक के उस पृष्ठ की याद दिलाते हैं, जिसमें बड़ी स्पष्टता से किसी नागरिक की ठोढ़ी पर एक कडा
नासूर दर्शाया गया था.
मगर ये
नैपकिन्स मेरी यादों को ज़रा भी धुंधला नहीं करेंगे! चौराहे पर जीता-जगता पुलिसवाला
खडा रहता, धूल से अटी शो-केस में धुंधली सी लोहे की चादरें दिखाई
देतीं, लाल क्रीम
की आईसिंग वाली केक्स की तंग कतारें, चौक पर बिखरा हुआ पुआल, और पैदल तथा वाहनों पर चलते हुए, बातें करते हुए लोग, बूथ पर मॉस्को के कल
वाले अखबार बेचे जाते, जिनमें आश्चर्यजनक खबरें होतीं, पास ही मॉस्को की ट्रेनें ललचाते हुए सीटियाँ बजातीं.
मतलब, ये थी
सभ्यता, बेबिलोन, नेव्स्की प्रोस्पेक्ट.
अस्पताल के बारे में तो कहना ही क्या. उसमें सर्जरी-विभाग, चिकित्सा-विभाग, संक्रामक रोगों का विभाग, प्रसूति-विभाग थे. अस्पताल
में ऑपरेशन थियेटर था, जिसमें ऑटोक्लेव मशीन चमचमा रही थी, चांदी जैसे नल चमक रहे थे, मेजों पर चालाक पंजे, दांत , स्क्रू खुले हुए थे. अस्पताल में एक सीनियर डॉक्टर थे, तीन रेजिडेंट डॉक्टर्स (मेरे
अलावा) थे. कम्पाउन्डर्स, नर्सेस, दाईयाँ, फार्मेसी, और लैबोरेटरी थी. लैबोरेटरी, ज़रा सोचिये! जिसमें, जैस-माइक्रोस्कोप, रंगों का
बढ़िया स्टॉक था.
मेरा बदन थरथरा जाता और ठंडा हो जाता, अनुभवों के बोझ तले दब जाता. काफी दिन
लग गए इस बात की आदत होने में कि अस्पताल के एक मंजिला वार्ड्स दिसंबर की शाम के
धुंधलके में, मानो किसी आदेश के तहत, बिजली की रोशनी से जलने लगते थे. इस रोशनी से मेरी आंखें चुंधिया जातीं.
स्नानगृहों में टबों में पानी गरजते हुए पूरी ताकत से बहता, और लकड़ी के गंदे थर्मामीटर्स
उसमें डूबते और तैरते. शिशु-विभाग में कराहें तैरतीं रहती, पतली आवाज़ में दयनीय रुदन
सुनाई देता, भर्राई हुई गलगलाहट....
नर्सें भाग-दौड़ करती रहतीं...
मेरी आत्मा से भारी बोझ उतर गया था. अब मेरे ऊपर दुनिया में घटित हो रही हर
चीज़ की खतरनाक ज़िम्मेदारी नहीं थी. अब मैं विपाशित हर्निया के लिए ज़िम्मेदार नहीं
था, और जब किसी महिला को, जिसका बच्चा ट्रान्सवर्स स्थिति में हो, लेकर स्लेज गाडी आ धमकती तो
मैं कांप नहीं जाता, अब मुझे खतरनाक दुर्गन्धयुक्त प्लूरसी से कोई मतलब नहीं था, जो त्वरित ऑपरेशन की मांग
करती थी. मैं पहली बार अपने आप को एक ऐसा आदमी महसूस कर रहा था, जिसकी ज़िम्मेदारी का दायरा सीमित
हो. प्रसव? कृपया, वहाँ – छोटी वाली बिल्डिंग
में, वो- आख़िरी खिड़की, सफ़ेद जाली से ढंकी हुई. वहाँ
प्रसूति-विशेषज्ञ है, खूबसूरत और मोटा, छोटी-छोटी लाल मूंछें और गंजा. ये उसका काम है. उस जाली वाली खिड़की के पास
स्लेज मोड़ लीजिये! जटिल फ्रैक्चर – मुख्य सर्जन के पास. निमोनिया? – चिकित्सा विभाग में पावेल
व्लदिमीरविच के पास.
ओह, बड़े अस्पताल की शानदार मशीन, चिकने, व्यवस्थित फर्श पर चलती
हुई! और, मानो पहले से नाप लिये हुए
किसी नए स्क्रू की तरह मैं भी इस प्रणाली में प्रविष्ट हो गया और बच्चों का विभाग
संभालने लगा. और दिफ्तेरिया, और लाल बुखार ने जैसे मुझे निगल लिया, मेरे दिन छीन लिए. मगर सिर्फ दिन.
मैं रातों को सोने लगा, क्योंकि मेरी खिड़कियों के नीचे रात वाली मनहूस खटखटाहट नहीं सुनाई देती थी, जो मुझे नींद से उठाकर
अँधेरे में खतरे और अपरिहार्यता की ओर खींच ले जाती थी. अब मैं शाम को पढ़ने लगा
(बेशक, सबसे पहले दिफ्तेरिया और लाल
बुखार के बारे में और उसके बाद न जाने क्यों एक अजीब दिलचस्पी से फिनिमोर कूपर को)
और मेज़ पर रखा लैम्प भी मुझे अच्छा लगने लगा, और समोवार की ट्रे पर जमे भूरे कोयले भी, और ठंडी हो गई चाय भी, और अनिद्रा के डेढ साल बाद नसीब हुई नींद भी....
तो, सन् ’१७ की सर्दियों में दूरदराज़
के सुनसान तूफानी कोने से काउंटी टाउन में तबादला पाकर मैं खुश था.
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