मैंने मार डाला
लेखक: मिखाइल बुल्गाकव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
डॉक्टर
याश्विन ने तिरछा मुंह करके अजीब-सी मुस्कुराहट बिखेरी और पूछा:
“क्या
कैलेण्डर का पन्ना फाड़ सकता हूँ?
अभी ठीक बारह बजे हैं, मतलब,2 तारीख आ गयी.”
“प्लीज़, प्लीज़,” मैंने जवाब दिया.
याश्विन
ने पतली, और सफ़ेद उंगलियों से कोने को पकड़ा और सावधानी से
ऊपरी पन्ना निकाल दिया. उसके नीचे “2” अंक, और ‘मंगलवार’ लिखा हुआ सस्ता पन्ना
दिखाई दिया. मगर इस भूरे कागज में कोई चीज थी, जिसने याश्विन को बेहद आकर्षित
किया. उसने आंखें सिकोड़ी, गौर से देखा, फिर आंखें उठाईं और कहीं दूर देखने लगा, जिससे समझ में आ रहा था, कि, मेरे कमरे की दीवार के कहीं
पीछे, बल्कि हो सकता है,
दूर, रात के मॉस्को के पार, फरवरी की बर्फ की भयानक धुंध में वह कोई ऐसी रहस्यमय
तस्वीर देख रहा है, जिससे सिर्फ वही परिचित था.
‘वह
वहाँ क्या ढूंढ रहा था?’ डॉक्टर की ओर कनखियों से
देखते हुए मैं सोच रहा था. मुझे उसमें हमेशा दिलचस्पी रहती थी. उसका रूप-रंग उसके
व्यवसाय से मेल नहीं खाता था. अपरिचित लोग उसे हमेशा ‘एक्टर’ समझते. काले बालों
वाला, त्वचा बेहद गोरी, और यह उसे बेहद ख़ूबसूरत बनाता
था,और कई लोगों से अलग-थलग दिखाता था. दाढी खूब
सफाचट होती थी, कपड़े बेहद सलीके से पहनता,
थियेटर जाने का उसे बेहद शौक था और जब थियेटर के बारे में बताता, तो बेहद दिलचस्पी और जानकारी के साथ वर्णन करता. हम सभी निवासियों से वह
अलग था, सबसे पहले अपने जूतों के कारण, और इस समय मेरे
यहाँ आया हुआ था. कमरे में हम पांच लोग थे,
और हममें से चार सस्ते क्रोम के जूतों में थे,
जिनका सामने का सिरा बड़ी मासूमियत से गोल था, मगर डॉक्टर याश्विन पेटेंट चमड़े के
नुकीले जूतों में और पीले गैटर्स में था. वैसे,
मुझे यह बताना होगा की याश्विन का छैलापन कभी भी अप्रिय प्रभाव नहीं उत्पन्न करता
था, और ईमानदारी से कहूं तो वह बहुत अच्छा डॉक्टर
था. बहादुर, सफल, और, सबसे ख़ास बात, निरंतर “वल्कीरी’ और ‘सेविले का नाई’ देखते रहने
के बावजूद वह पढ़ने-लिखने के लिए समय निकाल लेता था.
बात,बेशक, जूतों की नहीं है, बल्कि कुछ और है: मुझे उसमें एक विशिष्ठ गुण के कारण
दिलचस्पी थी – वह खामोश तबियत का और निःसंदेह रहस्यात्मक व्यक्ति था, किन्हीं परिस्थितियों में वह बढ़िया कहानीकार बन जाता.
बोलता बड़ी शान्ति से था, बिना दिखावे के, बिना खींचे, बगैर किसी मिमियाहट के, “अं-म्-म्” और हमेशा
किसी दिलचस्प विषय पर ही बोलता. संयमित, छैला डॉक्टर जैसे जोश
में आ रहा था, दायें हाथ से वह कभी कभी संक्षिप्त और हल्के से
हावभाव प्रकट करता, जैसे हवा में ही कहानी में कुछ छोटे-छोटे पड़ाव
रख रहा हो, कोई मजाहिया बात कहते समय कभी मुस्कुराता नहीं था, और उसकी तुलनाएं कभी कभी इतनी सटीक और रंगीन होतीं, कि उसे सुनते हुए मुझे बस एक ही ख़याल परेशान करता:
“डॉक्टर तो तू ठीक-ठाक ही है, मगर फिर भी अपने रास्ते पर नहीं गया है, और तुझे तो सिर्फ लेखक होना चाहिए था...”.
और इस समय भी यह विचार मेरे मन में कौंध गया, हालांकि याश्विन कुछ भी
नहीं कह रहा था, और आंखें सिकोड़े अज्ञात दूरी पर ‘2’
के
अंक को देखे जा रहा था.
‘वह वहां क्या ढूंढ रहा था? क्या कोई तस्वीर”.
मैंने कंधे के ऊपर से देखा, कि तस्वीर बेहद उबाऊ है. खिलाड़ियों जैसे सीने
वाले एक घोड़े को दिखाया गया था, और बगल में मोटर और यह इबारत: “ घोड़े का
तुलनात्मक आकार (1 अश्वशक्ति) और मोटर का आकार (500 अश्वशक्ति)”.
“ये सब बकवास है. कॉम्रेड्स,” मैंने बातचीत को आगे
बढ़ाते हुए कहा, “रोज़मर्रा की नीचता. वे, शैतान, डॉक्टरों पर ऐसे टूट पड़ते हैं, जैसे वे मुर्दा हों, और ख़ास तौर से, हम सर्जनों पर. खुद ही सोचिये: एक आदमी सौ बार
एपेंडिक्स का ऑपरेशन करता है, एक सौ पहली बार उसका मरीज़ ऑपरेशन टेबल पर मर
जाता है. तो क्या, हमने उसे चीर दिया है?”
“बेशक कहेंगे, कि हमने चीर दिया,” डॉक्टर ने प्रतिसाद दिया, “और अगर ये बीबी हुई तो
पति आयेगा क्लिनिक में तुम पर कुर्सी फेंकने के लिए,” डॉक्टर प्लोन्स्की
ने आत्मविश्वास से पुष्टि की और वह मुस्कुराया, हम भी मुस्कुरा दिए, हालांकि
क्लिनिक में कुर्सियां फेंकने में कोई ख़ास मज़ाहिया बात नहीं थी.
“बर्दाश्त नहीं कर सकता,” मैं कहता रहा, “झूठे और पश्चात्ताप के शब्द : ‘मैंने मार डाला, आह, मैंने चीर दिया’. कोई किसी को नहीं
काटता, और अगर मारता भी है, हमारे हाथों में, मरीज़ को, तो वह है आकस्मिक दुर्घटना. वाकई में, हास्यास्पद है! हमारे व्यवसाय में ह्त्या है ही नहीं.
क्या बकवास है! ... पूर्व-निर्धारित इरादे से, या, कम से कम, उसे मारने के इरादे से किसी व्यक्ति को नष्ट करने को
मैं ह्त्या मानता हूँ. हाथ में पिस्तौल लिए सर्जन – ये मैं समझता हूँ. मगर ऐसे
किसी सर्जन से अपनी ज़िंदगी में मैं आज तक नहीं मिला हूँ, और शायद ही कभी मिलूंगा.
डॉक्टर याश्विन ने फ़ौरन मेरी ओर अपना सिर घुमाया, मैंने गौर किया कि उसकी नज़र बोझिल हो गयी है, और कहा:
“मैं आपकी खिदमत में हाज़िर हूँ.”
ऐसा करते हुए उसने आपनी टाई में उंगली गड़ाई और फिर से
व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराया, मगर आंखों से नहीं, बल्कि सिर्फ मुंह के
कोने से.
हमने अचरज से उसकी ओर देखा.
“मतलब?” मैंने पूछा.
“मैंने मार डाला,” याश्विन ने स्पष्ट
किया.
“कब?” मैंने बेवकूफ़ी से पूछा.
याश्विन ने ‘2’ के अंक की ओर इशारा
किया और जवाब दिया:
“कल्पना कीजिये, कैसा संयोग है. जैसे
ही आपने मौत के बारे में बोलना आरंभ किया, मैंने कैलेण्डर की
तरफ़ ध्यान दिया, और ‘2’ तारीख देखी. वैसे भी, मैं वैसे भी हर साल उस रात को याद करता हूँ. देखिये, पूरे सात साल, वही रात, हाँ, गौर फरमाइए, और...” याश्विन ने
काली घड़ी निकाली, देखा,” ...”हाँ, लगभग इसी समय, 1 से 2 फरवरी की रात
को मैंने उसे मार डाला.”
“पेशंट को?” गीन्स ने पूछा.
“हाँ, पेशंट को.’
“मगर सोच-समझ कर नहीं ?” मैंने पूछा.
“नहीं, सोच-समझ कर,” याश्विन ने जवाब
दिया.
“ओह, मेरा ख़याल है,’ शक्की प्लोन्स्की ने
दांतों को भींचते हुए कहा, “उसे कैंसर था, शायद, यातनाभरी मौत, और आपने उसे मॉर्फीन
की दस गुना खुराक दे दी...”
“नहीं, मॉर्फीन का यहाँ कोई काम नहीं था,” याश्विन ने जवाब दिया, “और उसे कोई
कैंसर-वैंसर भी नहीं था. बर्फ गिर रही थी, अच्छी तरह याद है, तापमान शून्य से पंद्रह डिग्री कम था, तारे...आह, कैसे तारे हैं
युक्रेन में. करीब सात साल से मॉस्को में रह रहा हूँ, मगर फिर भी दिल मातृभूमि की
ओर खिंचा जाता है. दिल में टीस उठती है, कभी-कभी अथाह पीड़ा से
ट्रेन में बैठ कर...वहाँ जाने को मन करता है...फिर से बर्फ से ढंकी हुई चट्टानें
देखने को जी चाहता है. द्नेप्र... दुनिया में कीएव से ज़्यादा ख़ूबसूरत शहर कोई और
नहीं है.
याश्विन ने कैलेण्डर के पन्ने को अपने बटुए में छिपा
लिया, कुर्सी में सिकुड़कर बैठ गया और कहता रहा:
“भयानक शहर, भयानक समय...और मैंने
ऐसी खौफनाक चीज़ें देखी हैं, जो आपने, मॉस्कोवासियों ने,
नहीं देखीं. ये हुआ था सन् ’19 में, ठीक एक फरवरी को. शाम हो चुकी थी, शाम के छः बजे थे. इस शाम ने मुझे एक अजीब काम में
मगन पाया. मेरे अध्ययन कक्ष में मेज़ पर लैम्प जल रहा है, कमरे में गर्माहट है, आरामदेह है, और मैं एक छोटी-सी सूटकेस पर बैठा हूँ, उसमें हर तरह की बेमतलब की चीज़ें भर रहा हूँ और एक ही
शब्द फुसफुसा रहा हूँ:
“भाग, भाग...”
कमीज़ कभी सूटकेस में घुसाता हूँ, कभी बाहर निकालता हूँ...वह, नासपीटी, उसमें घुस ही नहीं रही है. सूटकेस हाथ में
पकड़ने वाली, छोटी-सी थी, अंतर्वस्त्रों ने काफ़ी जगह घेर ली थी, फिर सैकड़ों सिगरेट्स, स्टेथोस्कोप. ये सब सूटकेस बाहर
निकल रहा है. कमीज़ फेंक देता हूँ, गौर से सुनता हूँ. सर्दियों में खिड़की की
फ्रेम्स धुंधली हैं, घुटी-घुटी आवाज़ सुनाई देती है, मगर सुनाई दे रही है...दूर, दूर, इतनी शिद्दत से खिंच रही है – बू-ऊ...गूं-ऊ...भारी-भरकम
हथियार. गड़गड़ाहट होती है, फिर शांत हो जाती है. खिड़की से बाहर देखता हूं, मैं एक
मोड़ पर रहता था, अलेक्सान्द्र ढलान के ऊपर, मुझे पूरा पदोल दिखाई देता था. द्नेप्र
की तरफ से रात आ रही है, घरों को ढांक रही है, और धीरे-धीरे बत्तियां जलने लगी हैं शृंखलाओं में, कतारों में... इसके बाद, फिर से गोलियों की
गड़गड़ाहट. हर बार, जब द्नेप्र के पार गोलियां चलाती हैं, मैं फुसफुसाता हूँ:
“चलाओ, चलाओ, और चलाओ.”
बात ये थी: इस समय तक पूरा शहर जान चुका था, कि पित्ल्यूरा उसे बस छोड़कर जाने ही वाला है. इस रात
नहीं, तो अगली रात. द्नेप्र के पार से, और अफवाहों के
मुताबिक़, बड़ी भारी संख्या में बोल्शेविक बढ़े चले आ रहे थे, और, स्वीकार करना पडेगा कि पूरा शहर न सिर्फ
बेसब्री से, बल्कि, मैं तो कहता – उत्तेजना से, उनका इंतज़ार कर रहा था. क्योंकि, पिछले महीने में, अपने वास्तव्य के
दौरान पित्ल्यूरा की फौजों ने कीएव में जो गुल खिलाये थे, वह समझ से परे था. नियमित रूप से हत्याकाण्ड हो रहे
थे, हर रोज़ किसी न किसी की ह्त्या होती थी, खासकर यहूदियों की, ज़ाहिर है. कुछ न कुछ
ज़ब्त कर लिया जाता, शहर में कारें दौड़ती, और उनमें लाल लेस वाली हैट्स पहने लोग होते, पिछले कुछ दिनों से तो बंदूकें एक घंटे के लिए भी
नहीं रुकी थीं. दिन में भी और रात में भी. सब लोग अजीब तरह से थके हुए थे, सबकी आंखें तीक्ष्ण, उत्तेजित थीं.
मेरी खिड़की के नीचे भी परसों रात में दो शव बर्फ पर पड़े थे. एक भूरे ओवरकोट में, दूसरा काली कमीज़ में, और दोनों बिना जूतों के. और लोग कभी किनारे से निकल
जाते, कभी झुण्ड बनाते, देखते, कुछ खुले बालों
वाली औरतें, प्रवेश द्वारों से उछलकर बाहर आतीं, आसमान की ओर देखते हुए
मुट्ठियों से धमकातीं और चिल्लातीं:
“ठीक है, थोड़ा इंतज़ार करो. आयेंगे, बोल्शेविक आयेंगे.”
न जाने क्यों मारे गए इन दोनों का दृश्य बड़ा घृणित और
दयनीय था. तो, आखिरकार मैं भी बोल्शेविकों का इंतज़ार करने
लगा. और वे अधिकाधिक निकट आ रहे थे. दूरी ख़त्म हो जायेगी, और दूर पर बंदूकें गरज रही हैं, जैसे ज़मीन के गर्भ में गरज रही हों.
तो...
तो: लैम्प आराम से जल रहा है, और साथ ही व्याकुलता से भी, क्वार्टर में मैं बिल्कुल
अकेला हूँ, किताबें बिखरी हुई हैं (बात यह है की इस सारी भगदड़ के
बीच मैं अकादेमिक डिग्री की तैयारी करने का बेवकूफी भरा सपना संजोये था), और मैं
छोटे से सूटकेस के ऊपर था.
फिर ऐसा हुआ, आपको बताना होगा, कि घटनाएं मेरे क्वार्टर में पहुँच गईं और उन्होंने
बाल पकड़ कर मुझे खींचा और घसीट लिया, और सब कुछ किसी घिनौने, नासपीटे सपने की तरह उड़ गया. मैं तभी, शाम के समय, सीमा पर स्थित
श्रमिक-अस्पताल से लौटा था, जहां मैं महिला शल्य चिकित्सा विभाग में
रेजिडेंट डॉक्टर था, और मैंने दरवाज़े की दरार में सरकारी किस्म का
एक अप्रिय पैकेट देखा. मैंने उसे वहीं, सीढ़ी पर खोल दिया, कागज़ के टुकड़े पर जो
लिखा था उसे पढ़ा, और धम् से वहीं सीढ़ी पर बैठ गया.
कागज़ पर टाईप राइटर से नीले अक्षरों में छपा था:
“इसे प्राप्त करने के बाद...”
संक्षेप में, रूसी में अनुवाद है:
“इसे प्राप्त करते ही, आपको सुझाव दिया जाता है की दो
घंटे के भीतर स्वच्छता विभाग के दफ़्तर में आकर कार्य के बारे में सूचना प्राप्त
करें...”
मतलब, इस तरह: ये सारी शानदार फ़ौज, जो सड़क पर लाशें छोड़कर जा रही है, महाशय पित्ल्यूरा, कत्ले आम और इस समूह
में आस्तीन पर लाल क्रॉस लगाए मैं...
मैंने कल्पना करने में एक मिनट से ज़्यादा समय नहीं
किया, वह भी सीढ़ियों पर. स्प्रिंग की तरह उछला, क्वार्टर के अन्दर गया, और इस दृश्य में छोटी
सूटकेस प्रकट हो गयी. मैंने फ़ौरन प्लान बना लिया. क्वार्टर से निकल जाऊं, थोड़े से कपड़े लेकर, और सीमा पर उदास
दिखने वाले, बोल्शेविकों की तरफ़ स्पष्ट झुकाव वाले सहायक चिकित्सक
के पास चला जाऊं. उसके पास तब तक बैठा रहूँगा जब तक कि पित्ल्यूरा को भगा नहीं
देते. और उसे पूरी तरह ख़त्म कैसे करेंगे? हो सकता है, ये बहुप्रतीक्षित बोल्शेविक – क्या ये मिथक है? बंदूकों, तुम कहाँ हो? सब शांत हो गया है.
नहीं, फिर से गरज रही हैं...
मैंने गुस्से से कमीज़ बाहर फेंक दी, सूटकेस का ताला खट् से खोला, ब्राउनिंग और अतिरिक्त
क्लिप जेब में रखी, रेड क्रॉस के आर्मबैण्ड वाला ओवरकोट पहना,उदासी से चारों ओर देखा, लैम्प बुझा दिया और
टटोलते हुए, संध्या छायाओं के बीच प्रवेश कक्ष में आया, वहां रोशनी
की, टोप लिया और सीढ़ियों का दरवाज़ा खोला.
और तभी, खांसते हुए, कन्धों पर घुड़सवारों
वाली छोटी कार्बाइन्स से लैस दो आकृतियों ने प्रवेश कक्ष में कदम रखा.
एक एडों में था, दूसरा बिना एडों के, दोनों ने नुकीली हैट पहनी थी, नीली लटकनों वाली, जो गालों पर झूल रही
थीं.
मेरा दिल ज़ोर से धड़कने लगा.
“क्या आप डॉक्टर याश्विन हैं?”
“हाँ,” मैंने दबी आवाज़ में जवाब दिया.
“आपको हमारे साथ जाना है,” पहले ने कहा.
“इसका क्या मतलब है?” मैंने थोड़ा संभलते
हुए पूछा.
“इसका मतलब है – षडयंत्र,” खनखनाती एडों वाले
ने जवाब दिया और मुस्कुराते हुए, कनखियों से मेरी तरफ़ देखा, “डॉक्टर संघटित होना
नहीं चाहते, जिसके लिए क़ानून के मुताबिक़ वे जवाबदेह होंगे.”
प्रवेश कक्ष में अन्धेरा हो गया, दरवाज़ा खट् से बंद हुआ, सीढ़ियां, सड़क...
“आप आखिर मुझे ले कहाँ जा रहे हैं?” मैंने पूछा और पतलून की जेब में पड़े ठन्डे नली जैसे
हैंडल को हौले से छुआ.
“पहली घुड़सवार रेजिमेंट में,” एडों वाले से जवाब दिया.
“किसलिए?”
“क्या किसलिए?” दूसरे वाले को अचरज
हुआ, “हमारे यहाँ डॉक्टर के रूप में आपकी नियुक्ति हुई
है.”
“रेजिमेंट का कमांडर कौन है?”
“कर्नल लेशेन्का,” कुछ गर्व से पहले वाले ने जवाब दिया, और उसकी एड़ें मेरी बाईं ओर एक लय में खनखना रही थी.
‘मैं बेवकूफ हूँ,’ मैंने सोचा, ‘सूटकेस के ऊपर बैठकर सोचता रहा. किन्हीं
अंतर्वस्त्रों के कारण...अगर पांच मिनट जल्दी निकल जाता तो क्या हो जाता’.
शहर के ऊपर काला बर्फीला आसमान छाया था, और जब हम
हवेली पहुंचे, तो तारे दिखाई दे रहे थे. बर्फ की डिजाइन वाली
कांच से बिजली चमक रही थी. एड़ों की गड़गड़ाहट के बीच मुझे एक धूल भरे खाली कमरे में
लाया गया, जिसमें टूटे हुए ओपल-ट्यूलिप के नीचे लगे तेज़
इलेक्ट्रिक बल्ब से चकाचौंध रोशनी हो रही थी. कोने में मशीन गन की नाक झाँक रही थी
और मेरा ध्यान मशीनगन की बगल में लाल-भूरी धारियों की ओर आकृष्ट हुआ, वहां जहां तार-तार हुई एक महंगी टेपेस्ट्री लटक रही थी.
‘मगर यह तो खून है,’ मैंने सोचा, और दिल में अप्रियता का
एहसास हुआ.
“कर्नल महाशय,” एडों वाले ने हौले से कहा, “डॉक्टर को ले आये हैं.”
“यहूदी?” अचानक सूखी और कुछ भर्राई आवाज़ चीखी.
चरवाहों की टेपेस्ट्री से
सजा हुआ दरवाज़ा हौले से खुला, और एक आदमी भागकर भीतर
आया.
वह शानदार ओवरकोट और एडों
वाले जूतों में था. कस कर बंधी हुई चांदी की पट्टियों वाली कॉकेशियन बेल्ट, और
तलवार भी कॉकेशियन ही थी, जो उसकी जांघ पर बिजली की रोशनी से चमक रही थी. वह लाल
रंग के टॉप वाली मेमने की टोपी पहने हुए था, जिस पर सुनहरी लेस थी. चहरे पर
निर्दयता से देखती हुई तिरछी, अजीब सी, बीमार सी आंखें, मानो उनमें काली गेंदे उछल
रही हों. चेहरे पर झाईयां थीं, और काली कटी हुई मूंछें घबराहट से हिल रही थीं.
“नहीं, यहूदी नहीं है,” घुड़सवार फ़ौजी ने जवाब
दिया.
तब वह आदमी उछल कर मेरे
पास आया और उसने मेरी आंखों में झांका.
“आप यहूदी नहीं हैं,” उसने ठेठ युक्रेनी लहजे में,गलत भाषा में, जो रूसी और
यूक्रेनी शब्दों का मिश्रण थी कहा, “ मगर आप यहूदी से बेहतर
नहीं हैं. और, जैसे ही युद्ध ख़त्म होगा, मैं आपको सैनिक अदालत के
हवाले कर दूंगा. आपको तोड़फोड़ करने के अपराध में
गोली मार दी जायेगी. उससे तो बच नहीं सकते!” उसने घुड़सवार फ़ौजी को हुक्म दिया, “डॉक्टर को घोड़ा दिया जाए.”
मैं खडा था, खामोश, और ज़ाहिर है, पीला पड़ गया था. उसके बाद
सब कुछ धुंधले सपने की तरह चलता रहा. किसी ने कोने में दयनीय आवाज़ में कहा:
“दया करो, कर्नल महाशय...”
मैंने अस्पष्टता से
थरथराती हुई दाढी, सैनिक का फटा हुआ ओवरकोट देखा. उसके चारों और घुड़सवार फौजियों के चेहरे चमक
जाते.
“भगोड़ा?” मेरी परिचित भर्राई आवाज़ गा रही थी, “आह तू, संक्रमण, छूत की बीमारी.”
मैंने देखा की कैसे कर्नल
ने खोल से ख़ूबसूरत और उदास पिस्तौल बाहर निकाली और उसके हत्थे से इस फटेहाल आदमी
के चहरे पर वार किया. वह एक ओर को लड़खड़ाया, अपने ही खून से उसका दम
घुटने घुटने लगा, वह घुटनों पर गिर पडा. उसकी आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगीं.
और फिर बर्फ से आच्छादित
सफ़ेद शहर गायब हो गया, रहस्यमयी द्नेपर के
पथरीले, काले किनारे से तरुमंडित रास्ता जा रहा था और रास्ते पर सांप की भाँति
घुड़सवार दस्ते की पहली रेजिमेंट जा रही थी.
उसके अंत में हथियारों की
गाड़ियां कभी-कभी गड़गड़ा रही थीं. काली बरछियाँ हिल रही थीं, बर्फ जमी नुकीली
टोपियाँ दिखाई दे रही थीं. मैं ठंडी काठी में जा रहा था, कभी-कभी बेहद दर्द कर रही उँगलियों को जूतों के भीतर हिलाता, टोपी के छेद
से सांस लेता, जो किनारे पर निरंतर बढ़ती हुई बर्फ़ से ढँका था, महसूस कर रहा था
कि कैसी मेरी सूटकेस, जो काठी की
कमान से बंधी हुई थी, मेरे बाईं जांघ को दबा रही थी. मेरा सतत
अनुरक्षक चुपचाप मेरी बगल में घोड़े पर सवार था. मेरे भीतर सब कुछ जैसे जम गया था, उसी तरह, जैसे पैर जम गए थे.बीच-बीच में मैं सिर उठाकर
आसमान की ओर देख लेता, बड़े-बड़े तारों को देखता, और
मेरे कानों में, जैसे सूखी हो गयी, कुछ
समय-समय पर गायब होती, उस भगोड़े की चीख गूंजती. कर्नल लेशेन्का ने उसे डंडों से
पीटने का आदेश दिया था, और उसे हवेली में पीटा गया था.
दूर अँधेरे से अब कोई आवाज़
नहीं आ रही थी, और मैं बड़े दुःख से सोच रहा था कि बोल्शेविकों को, शायद, पीछे खदेड़ दिया गया है. मेरा भविष्य आशारहित था. हम आगे बाहरी बस्ती की ओर
जा रहे थे, वहां खड़े रहकर द्नेप्र से गुजरने वाले पुल की चौकीदारी करनी थी. अगर
लड़ाई थम जाती है, और सीधे तौर पर मेरी ज़रुरत नहीं पड़ती, तो कर्नल लेशेन्का मुझ पर
मुकदमा करेगा. इस विचार से मैं कुछ भयभीत हो गया और कोमलता से, दुःख से तारों को देखने लगा. ऐसे खतरनाक समय में दो घंटे के भीतर उपस्थित
होने की इच्छा न होने के कारण मुकदमे के फैसले का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था. एक
ग्रेजुएट डॉक्टर का खतरनाक
भाग्य...
करीब दो घंटे बाद, किसी कैलिडोस्कोप की तरह, फिर से सब
कुछ बदल गया. अब काला रास्ता गायब हो गया. मैंने अपने आप को सफ़ेद प्लास्टर वाले
कमरे में पाया. लकड़ी की मेज़ पर एक लालटेन थी, ब्रेड का टुकड़ा था और
फ़टी हुई मेडिकल बैग थी. मेरे पैर सुन्न हो गए थे, मैं गरमा रहा था, क्योंकि लोहे की काली अंगीठी में लाल लपटें नाच रही
थीं. समय-समय पर मेरे पास घुड़सवार फ़ौजी आते, और मैं उनका इलाज
करता. उनमें से ज़्यादातर पाले के कारण सुन्न हो गए
थे. वे अपने जूते उतारते, पैरों के वस्त्र खोलते, आग के पास छटपटाते.
कमरे में पसीने की, तम्बाकू की, आयोडीन की खट्टी गंध थी.कई बार मैं अकेला रह जाता. मेरे अनुरक्षक ने मुझे छोड़
दिया था. “भाग जाऊं”, मैं कभी-कभार दरवाज़ा थोड़ा सा खोलता, बाहर झांकता,और फूली हुई स्टीयरिन की मोमबत्ती से प्रकाशित सीढ़ियाँ, चेहरे, संगीनें देखता. पूरा घर लोगों से खचाखच भरा था, भागना मुश्किल था. मैं स्टाफ़ हेडक्वार्टर के बीचोंबीच
था. मैं दरवाज़े से मेज़ की तरफ़ लौटा, थक कर बैठ गया, हाथों पर सिर टिका
दिया और गौर से सुनता. घड़ी के हिसाब से मैंने गौर किया कि हर पांच मिनट में फर्श
के नीचे, निचली मंजिल पर एक चीख उठती. मुझे अच्छी तरह मालूम था की माजरा क्या है.
वहां किसी को छड़ों से मार रहे थे. चीख कभी-कभी सिंह की गूंजती हुई गुरगुराहट में
बदल जाती, कभी कोमल आवाज़ में जैसा कि फर्श के पार से प्रतीत
होता था, प्रार्थनाएं और शिकायतें, जैसे कोई आत्मीयता से मित्र से बात कर रहा हो, कभी अचानक टूट जाती, जैसे चाकू से काट
दिया हो.
“आप उन्हें क्यों?” मैंने एक पित्ल्यूरिस्ट
से पूछा, जो, थरथराते हुए हाथों को आग की तरफ फैला रहा था.
उसका नंगा पैर स्टूल पर था, और मैं नीले पड़ गए अंगूठे के पास सड़े हुए अल्सर
पर सफ़ेद मलहम लगा रहा था. उसने जवाब दिया:
“बाहरी
क्षेत्र में संगठन पकड़ा गया. कम्युनिस्ट और यहूदी. कर्नल पूछताछ कर रहा है.
मैंने कुछ नहीं कहा. जब वह
चला गया, तो मैंने सिर पर हुड लपेट लिया, और अब आवाजें घुटी-घुटी
सुनाई दे रही थीं. कोई पंद्रह मिनट मैंने इस तरह बिताए, और मुझे इस विस्मृति से, जिसमें निरंतर मेरी बंद आंखों के सम्मुख चेचकरू
चेहरा तैर रहा था, सुनहरी चोटियों के नीचे, बाहर लाई मेरे अनुरक्षक की आवाज:
“कर्नल महाशय आपको पेश
करने की मांग कर रहे हैं.”
मैं उठा, अनुरक्षक की सधी हुई नज़र के नीचे अपनी टोपी खोली और घुड़सवार फ़ौजी के पीछे
चल पडा. हम सीढ़ियों से निचली मंजिल पर आये, और मैं सफ़ेद कमरे में आया.
वहां मैंने लालटेन की रोशनी में कर्नल लेशेन्का को देखा.
वह कमर तक नंगा था और खून
से लथपथ बैण्डेज को सीने पर दबाये, एक स्टूल पर गुडी-मुडी
होकर बैठा था. उसके निकट एक परेशान छोकरा खड़ा था, और एड़ें खनखनाते हुए टहल रहा था.
“कमीना,” कर्नल बुदबुदाया,
फिर मुझसे मुखातिब हुआ: “तो, डॉक्टर महाशय, मेरी पट्टी बांधिए. छोकरे, बाहर जा,” उसने छोकरे को हुक्म दिया, और वह, खड़खड़ाते हुए, दरवाजे के अंदर घुस गया। घर में खामोशी थी। और इसी समय खिड़की
की चौखट थरथराई. कर्नल ने काली खिड़की पर नजर डाली, मैंने भी उस तरफ़ देखा.
“हथियार”, मैंने सोचा, थरथराते हुए गहरी सांस ली, पूछा:
“ये कैसा जख्म है?”
“पेंसिल वाले चाकू से,”
कर्नल ने नाक-भौंह चढ़ाकर जवाब दिया.
“किसने किया?”
“इससे आपको कोई मतलब नहीं
है,” उसने ठण्डे, कड़वाहट भरे तिरस्कार से
जवाब दिया और आगे कहा, “ ओय, डॉक्टर महाशय, आपके लिए अच्छा नहीं
होगा.”
मेरे दिमाग में अचानक ख़याल
कौंध गया : ‘कोई इसकी यातनाओं को बर्दाश्त नहीं कर सका, इस पर झपट पडा और घायल कर
दिया. सिर्फ ऐसा ही हो सकता है...’
“बैण्डेज हटाइये,” मैंने उसकी काले बालों से ढंकी छाती की तरफ झुकते हुए कहा. मगर वह खून से
लथपथ गाँठ को हटा भी नहीं पाया था की दरवाज़े के पीछे पैर पटकने की आवाज़, भगदड़ सुनाई दी, एक कर्कश आवाज़ चिल्लाई:
“रुको, रुको, शैतान ले जाए, कहाँ...”
दरवाज़ा धड़ाम् से खुल गया,
और तूफ़ान की तरह एक बदहवास औरत भीतर घुसी. उसका चेहरा सूखा और, जैसा मुझे लगा, प्रसन्न भी था. सिर्फ बाद
में, काफ़ी समय बाद, मैंने अंदाज़ लगाया कि
अत्यधिक उन्माद बेहद अजीब प्रकार से व्यक्त होता है. एक भूरा हाथ औरत को उसके सिर
के रूमाल से पकड़ने की कोशिश कर रहा था, मगर छूट गया.
“जा, छोकरे, भाग,” कर्नल ने हुक्म दिया, और हाथ गायब हो गया.
औरत ने नंगे बदन कर्नल पर
नज़र गड़ा दी और सूखी, अश्रुहीन आवाज़ में कहा:
“मेरे पति को गोली क्यों
मारी गयी?”
“ज़रुरत थी, इसलिए गोली मार दी,” कर्नल ने जवाब दिया और
पीड़ा से चेहरा सिकोड़ लिया. उसकी उँगलियों के नीचे गाँठ और ज़्यादा लाल हो गयी.
वह इस तरह मुस्कुराई, कि मैं एकटक उसकी आंखों में देखता रहा. मैंने आज तक ऐसी आंखें नहीं देखी
थीं. और वह मेरी तरफ़ मुड़ कर बोली:
“और आप, डॉक्टर!...”
उसने आस्तीन पर, लाल क्रॉस पर उंगली गड़ाई और सिर हिलाया.
“आय, आय,” वह कहती रही, और उसकी आंखों से
चिंगारियां फूट रही थीं, “आय, आय, कैसे कमीने हैं आप...आप यूनिवर्सिटी में पढ़े हैं और ऐसे कचरे के साथ...उनके
पक्ष में हैं और पट्टियां बाँध रहे हैं?! ये इन्सान के चेहरे पर मुक्के मारता है, मारता रहता है. जब तक कि वह पागल न हो जाए... और आप उसे पट्टी बाँध रहे हैं?...”
मेरी आँखों के सामने धुंध
छा गयी, उबकाई की हद तक, और मैंने महसूस किया की
अब मेरे बदकिस्मत डॉक्टरी जीवन की सबसे खतरनाक और अचरजभरी घटनाएं शुरू हो गई हैं.
“क्या आप मुझसे कह रही हैं?” मैंने पूछा और मुझे महसूस हुआ की मैं थरथरा रहा हूँ. “मुझसे?...आप तो जानती हैं...”
मगर वह सुनने के लिए तैयार
ही नहीं थी, वह कर्नल की ओर मुड़ी और उसके चेहरे पर थूक दिया. वह उछला, चीखा: “छोकरों!”
जब वे भीतर घुसे, तो उसने गुस्से से तिलमिलाते हुए कहा, :
“उसे पच्चीस डंडे मारो.”
उसने कुछ नहीं कहा, और उसे हाथ से खींचते हुए ले गए, और कर्नल ने दरवाज़ा बंद
कर दिया और कुंडी लगा दी, फिर स्टूल पर बैठ गया और बैंडेज का टुकड़ा फेंक दिया.
छोटी-सी ज़ख्म से खून बहने लगा, कर्नल ने थूक साफ़ किया, जो उसकी दाईं मूंछ पर लटक रहा था.
“औरत को?” मैंने एकदम पराई आवाज़ में पूछा.
उसकी आंखों से चिंगारियां फूटने लगीं.
“एहे-हे...” उसने कहा
और मुझ पर भयानक नज़र डाली. “अब मैं देख रहा हूँ, कि डॉक्टर के बदले किस पंछी को
मेरे पास भेजा गया है...”
गोलियों में से एक मैंने, ज़ाहिर है, उसके मुंह में मारी थी, क्योंकि, मुझे याद है, कि वह स्टूल पर झूल रहा था और उसके मुँह
से खून बह रहा था, फिर फ़ौरन सीने पर और पेट पर खून की धाराएँ
बहाने लगीं, फिर उसकी आंखें बुझ गईं, काली से दूधिया हो
गईं, फिर वह फर्श पर गिर पडा. जब मैं गोलियाँ चला रहा था, तो डर रहा था, की गोलियों की गिनती
न भूल जाऊं, और सातवीं, आख़िरी गोली भी न चला
बैठूं.
‘अब है मेरी मौत,’ मैं सोच रहा था, और ब्राउनिंग की धुएँ जैसी गैस से बहुत प्यारी खुशबू
आ रही थी. जैसे ही दरवाज़ा चरमराया, मैं खिड़की की तरफ़ लपका, पैरों से खिड़की के कांच तोड़ दिए. और बाहर कूद गया, किस्मत
से, एक सुनसान आँगन में, और लकड़ियों के ढेरों की बगल से
भागते हुए एक अंधी गली में पहुंचा. मुझे पकड़ ही लेते, मगर, संयोगवश, भागते हुए, मैं दो पास-पास खड़ी
दीवारों के बीच की जगह पर पहुँच गया और वहां एक गढ़े में, मानो किसी गुफा में, एक टूटी हुई ईंट पर
कई घंटे बैठा रहा. मैं सुन रहा था,कि घुड़सवार मेरी बगल से गुज़र रहे थे. गली
द्नेप्र को जाती थी, और वे बड़ी देर तक नदी को खंगालते रहे, मुझे ढूँढते रहे. दरार से मैंने एक तारा देखा, न जाने क्यों, सोचता हूँ की वह मंगल था. मुझे ऐसा लगा
की वह फट गया है. ये पहली गोली चली, जिसने तारे को ढांक लिया. और फिर पूरी रात
स्लाबद्का में खड़खड़ाहट और हलचल होती रही, और मैं ईंटों वाले बिल में बैठा रहा और
खामोश रहा, और अपनी डिग्री के बारे में सोचता रहा, और इस बारे में भी कि क्या छड़ों के प्रहार से वह औरत
मर गयी होगी. और जब सब कुछ शांत हो गया, कुछ उजाला हुआ, तो मैं और ज़्यादा यातना बर्दाश्त न करने के कारण मैं
गढ़े से बाहर आ गया, - मेरे पैर जैम गए थे. स्लाबद्का मानो मर गया
था, सब कुछ शांत था, तारे पीले पड़ गए. और
जब मैं पुल की तरफ आया, तो ऐसा लगा कि ना तो कभी कर्नल लेशेन्का था, ना ही
घुड़सवार रेजिमेंट... रौंदे गए रास्ते पर सिर्फ गोबर पडा था...
और मैंने अकेले ही पैदल कीएव तक का रास्ता पार किया,
और जब उसमें प्रवेश किया तो पूरी तरह उजाला हो गया था. मुझे एक अजीब गश्ती दल
मिला. हेडफोन्स लगी हुई टोपियाँ पहने.
मुझे रोका गया, कागज़ात पूछे.
मैने कहा:
“मैं डॉक्टर याश्विन हूँ. पित्ल्यूरा के आदमियों से भाग
रहा हूँ. वे कहाँ हैं?”
मुझे बताया गया:
“रात को चले गए. अब कीएव में क्रांतिकारी कमिटी है.”
मैंने देखा की गश्ती दल में एक मेरी आंखों में गौर से
देख रहा है, फिर कुछ दया से उसने हाथ हिलाया और कहा:
“जाइए, डॉक्टर, घर जाइए.”
और मैं चल पडा.
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खामोशी के बाद मैंने याश्विन से पूछा:
“वह मर गया? क्या उसे मार डाला या
सिर्फ घायल किया था?”
याश्विन ने विचित्र ढंग से मुस्कुराते हुए जवाब दिया:
“ओह, इत्मीनान रखिये. मैंने मार डाला. मेरी ‘सर्जिकल’ योग्यता पर भरोसा करें.”
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