मिखाइल बुल्गाकव
मास्टर और मार्गारीटा
हिन्दी अनुवाद:
आ. चारुमति रामदास
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4268 – B/3,
अन्सारी रोड़, दरियागंज
नई दिल्ली – 110 002
Master Aur Margarita: Hindi Translation by Akella Charumati Ramdas of
Mikhail Bulgakov’s Master I Margarita
@ Estate of Mikhail Bulgakov
Hindi Translation@ A. Charumati Ramdas
Published with the support of Institute for Literary Translation
प्रथम संस्करण : सन् 2016
आवरण : जगमोहन सिंह रावत
शब्द संयोजन: कंप्यूटेक सिस्टम. दिल्ली 110032
मुद्रक: बी. के. ऑफसेट, दिल्ली 110032
प्रस्तावना
“नैनं दहति पावकः...” यही तो कहा था प्रस्तुत उपन्यास के एक पात्र वोलान्द
ने पांडुलिपियों के बारे में कि उन्हें आग नहीं जला सकती. यही सच है न केवल हमारे
नायक ‘मास्टर’ की पांडुलिपि के सन्दर्भ में, अपितु इस पूरे उपन्यास के
बारे में भी, जिसे उसके लेखक हताश, निराश, पराजित, आहत मिखाइल बुल्गाकव ने सचमुच अंगीठी में झोंक दिया था, और जिसकी पुनर्रचना
सिर्फ उनकी स्मरण शक्ति की बदौलत ही हो पाई.
मिखाइल बुल्गाकव ने पूरे बारह वर्षों (1928 – 1940) में यह उपन्यास लिखा और इससे दुगुना समय सोवियत
संघ में इसके प्रकाशन में लगा. सन् 1967 में जब उपन्यास प्रकाशित हुआ, तो यह न केवल रूसी बल्कि विश्व साहित्य को भी
एक नया मोड़ देने वाली घटना सिद्ध हुई. शायद तभी से यह आभास होने लगा था कि सोवियत
संघ के साहित्यिक, सामाजिक तथा
राजनीतिक जीवन में परिवर्तन आने वाला है,
जो सचमुच में आया सन् 1986-87 से. यह उपन्यास न केवल बुल्गाकव के जीवन की,
अपितु तत्कालीन सामाजिक जीवन की झांकी प्रस्तुत करता है. भले ही यह रचना नितांत
सत्य पर आधारित है, मगर उसे अजूबों की,
रहस्यों की इतनी पर्तो में लपेट कर
प्रस्तुत किया गया है, कि वह यथार्थ कम, काल्पनिक ज़्यादा प्रतीत होती है. बुल्गाकाव ने
रिश्वतखोरों, झूठों, लालचियों के प्रति कोई दयाभाव न दिखाते हुए
उन्हें बड़ी निर्दयता से दण्डित किया है. मगर यह सब पढ़ते हुए पाठक न तो संजीदा होता
है, न ही क्रोधित. शकर
में लिपटी कड़वे स्वाद वाली दवा की अनुभूति होती है. मास्टर एवँ मार्गारीटा के जीवन
का सुखद अंत एक मीठी-सी भावना ज़रूर जगा जाता है.
सन 1891 में युक्रेन की राजधानी कीएव में जन्मे
मिखाइल बुल्गाकव पेशे से डॉक्टर थे. . रूसी क्रांति के उपरांत वे दूर-दराज़ के गाँवों
में प्रेक्टिस करने लगे. इन अनुभवों के आधार पर उन्होंने कुछ कहानियां भी लिखी
हैं. जल्दी ही उन्हें इस बात का एहसास हो गया कि डॉक्टरी में उन्हें ख़ास दिलचस्पी
नहीं है, अत: सन 1921 में वे खाली हाथ मॉस्को
आ गए, पत्नी के साथ, और डॉक्टरी को
पूरी तरह तिलांजलि देकर लेखन कार्य में जुट गए.
अनेक नाटकों तथा उपन्यासों के इस लेखक ने अखबारों में मजाकिया खाके
लिखकर अपनी साहित्य यात्रा आरंभ की. साथ ही अनेक कहानियां भी लिखीं जिनमें कुछ
डॉक्टरी जीवन के संस्मरण तथा कुछ व्यंग्यात्मक रचनाएं थीं. सन 1924-1926 के बीच
उन्होंने तीन लघु उपन्यास लि– द्यावलियादा (शैतानियत) , रकावीए याइत्सा
(दुर्भाग्यशाली अंडे ) और सबाच्ये सेर्द्त्से (कुत्ता दिल).
तत्कालीन सोवियत जीवन पर
निर्ममता से प्रहार करने वाली इन रचनाओं के कारण उन पर शासन द्वारा
ज्यादतियां की जाने लगी. उनके लिखे नाटकों का मंचन रोक दिया गया जिनमें
प्रमुख हैं : बेग (पलायन), ज़ोय्किना क्वर्तीरा (जोया का फ्लैट), द्नी
तूर्बिनीख (तूर्बिंन परिवार के अंतिम दिन ) तथा
बग्रोवी अस्त्रोव(लाल द्वीप). स्टालिन की प्रशंसा में एक
नाटक लिखने का ‘शुभचिन्तकों’ का सुझाव इस स्वाभिमानी लेखक ने
नहीं माना और अपनी आंखों की ज्योति खोकर भी दुर्धर्ष बीमारी से जूझते हए अपने
महानतम उपन्यास को पूर्ण करके वह सन् 1940 में संसार से हमेशा के लिए बिदा हो गए. बुल्गाकव
की
कुछ अन्य रचनाएँ हैं: उपन्यास बेलाया ग्वार्दिया (श्वेत गार्ड), जो
स्वयँ बुल्गाकव को बेहद पसन्द था; झीज़्न गस्पदीना मोल्येरा (मोल्येर
महाशय का जीवन) और तिआत्राल्नी रमान (
किस्सा थियेटर का)..
बुल्गाकव के इस
उपन्यास को भारतीय पाठकों तक पहुंचाना मैंने अपना कर्तव्य समझा. सीधे रूसी से
हिन्दी में अनुवादित करके मैंने इस महान लेखक को श्रद्धांजली देने का प्रयत्न किया
है.
अनुवादिका का यह
प्रयास रहा है कि वह पाठकों को मिखाइल बुल्गाकव की न केवल रचना से, अपितु शैलीगत एवँ साहित्यिक विशेषताओं से पूरी तरह
अवगत कराए. अतः भावानुवाद के बदले यह प्रयत्न किया गया कि पूरी की पूरी रचना मूल
रचना की आत्मा के साथ एकमेक करते हुए अनूदित की जाए. इस कोशिश में एक भी शब्द
छूटने न पाए इसका ध्यान रखा गया है. जहाँ तक संभव हो सका, वाक्यों की रचना भी यथावत रखी गई है.
तत्कालीन मॉस्को के
जीवन से संबंधित अध्यायों की शैली पोंती पिलात वाले अध्यायों की शैली से भिन्न है,
इसी कारण इन अध्यायों में शैली की विभिन्नता को बनाए रखने का प्रयास किया गया है .
यत्र तत्र अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग भी हुआ है जो हमारी भाषा के अभिन्न अंग बन
चुके हैं. कथावस्तु में इतना दम है कि मुझे विश्वास है,
आप इसे पूरा पढ़े बगैर नहीं छोड़ेंगे.
आ. चारुमति रामदास
...आख़िर, तुम हो कौन?
-मैं – उस शक्ति का अंश हूँ,
जो हमेशा बुरा चाहती है
और सदा भलाई करती है...
-ग्योथ, फ़ाउस्ट
एक
कभी भी अनजान व्यक्तियों से बात मत करो
बसंत ऋतु की एक गर्म शाम को मॉस्को के पत्रियार्शी तालाब के किनारे बने
पार्क में दो व्यक्ति दिखाई दिए. पहला, जो छोटे क़द का था, धूसर रंग का गर्मियों का सूट पहने था. गठीला बदन, गंजा
सिर, अपनी ख़ूबसूरत, सलीकेदार हैट को
केक-पेस्ट्री के समान हाथ में लिए, चमकदार चिकने चेहरे पर
सींगों वाली काली फ्रेम का बहुत बड़ा चश्मा पहने अपने दूसरे साथी के साथ प्रकट हुआ.
दूसरा, चौड़े कंधों और लाल बालों वाला, जिनकी
उद्दाम लटें उसकी पीछे सरकी हुई चौख़ाने की टोपी में से निकली पड़ रही थीं, चौख़ाने की ही कमीज़ और मुड़ी-तुड़ी सफ़ेद पैंट पहने था. पैरों में काली
चप्पलें थीं.
पहला कोई और नहीं, बल्कि मिखाइल अलेक्सान्द्रविच बेर्लिओज़ था, मॉस्को के एक प्रख्यात साहित्यिक संगठन का अध्यक्ष. इस साहित्यिक संगठन को ‘मासोलित’ कह सकते हैं. बेर्लिओज़ एक मोटी मासिक
पत्रिका का सम्पादक भी था. उसका नौजवान साथी था कवि इवान निकलायेविच पोनिरेव जो बिज्दोम्नी (बेघर) उपनाम से कविताएँ लिखता था.
जैसे ही लेखकद्वय मुश्किल से हरे हो रहे लिंडन वृक्षों की छाया में पहुँचे, सबसे
पहले भड़कीले रंगों से पुते हुए एक स्टॉल में घुसे, जिस पर
लिखा हुआ था ‘बिअर और पानी’. मगर
पहले एक विचित्र बात मई की इस शाम के बारे में तो बता दूँ. न केवल इस स्टॉल के पास,
बल्कि वृक्षों से घिरे पूरे गलियारे में और साथ ही समांतर गुज़रते ‘मालाया ब्रोन्नाया’ रास्ते पर भी एक भी व्यक्ति
दिखाई नहीं पड़ रहा था. उस समय, जब प्रकृति थक चुकी थी,
जब साँस लेने की भी शक्ति न रह गई थी, जब
मॉस्को को जलाकर सूरज सूखे से कोहरे में ‘सदोवया’ रिंग रास्ते पर छिप जाने को बेताब था, कोई भी बेंच
पर नहीं बैठा था. ख़ाली था गलियारा.
”नरज़ान” (एक प्रकार का शीतल पेय) देना,” बेर्लिओज़ ने
कहा.
“नरज़ान नहीं है,” स्टॉल में खड़ी सेल्सगर्ल ने न
जाने क्यों उखड़े हुए स्वर में कहा.
“बिअर है?” भर्राई आवाज़ में बिज्दोम्नी ने पूछा.
”बिअर
शाम तक आएगी,” उसने उत्तर दिया.
“फिर क्या है?” बेर्लिओज़ ने फिर पूछा.
“खुमियों का शर्बत, सिर्फ गरम...” सेल्सगर्ल बोली.
“ओह, दो, वही दो, जल्दी दो!”
खुमियों का शर्बत, बहुत सारे पीले-पीले फेन वाला, नाई
की दुकान से आती गन्ध वाला. गटागट पीकर साहित्यकार हिचकियाँ लेने लगे, और पैसे चुकाकर पास ही पड़ी बेंच पर बैठ गए. मुँह तालाब की ओर और पीठ
ब्रोन्नाया रास्ते की तरफ थी.
तभी दूसरी विचित्र बात हुई, जिसका संबन्ध बेर्लिओज़ से था. उसकी
हिचकियाँ एकदम बन्द हो गईं. दिल ज़ोर से धड़ककर मानो कहीं गुम हो गया और जब वापस आया
तो जैसे उसमें एक सुई चुभी थी. इसके अलावा, बेर्लिओज़ को एक
अनजान मगर गहरे डर ने घेर लिया. उसका मन बिना इधर-उधर देखे वहाँ से भाग जाने को
बेचैन हो उठा. उसने बहुत व्याकुल होकर इधर-उधर देखा. समझ नहीं पाया कि वह अचानक
इतना क्यों डर गया था. वह पीला पड़ गया. माथे पर आए पसीने को रुमाल से पोंछते हुए
सोचने लगा, “यह मुझे क्या हो गया? इससे पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था...दिल डूब रहा है...मैं थकान से चूर हो
गया हूँ, सब कुछ छोड़-छाड़कर किस्लावोद्स्क भाग जाना चाहिए.”
तभी उसके चारों ओर की उमस भरी हवा जैसे उसके सामने घनी होती गई और उसमें से
एक चमत्कारिक-सा दिखने वाला पारदर्शी व्यक्ति टपक पड़ा. छोटे से सिर पर जॉकियों
जैसी टोपी, चौख़ानेदार तंग हवाई जैकेट...क़द सात फुट, कन्धे छोटे, अविश्वसनीय रूप से दुबला-पतला. कृपया
ध्यान दें, कुल मिलाकर वह एक चिढ़ाता-सा व्यक्तित्व था.
बेर्लिओज़ की जीवन शैली कुछ इस प्रकार की थी कि वह अजूबों को देखने का आदी
नहीं था. वह डर के मारे और भी पीला पड़ गया और आँखों को घुमाकर, असमंजस
में सोचने लगा, “यह असंभव है!...”
पर यह सच था और वह ऊँचा व्यक्ति, जिसके आर-पार देखा जा सकता था,
ज़मीन को बिना छुए बेर्लिओज़ के दाएँ-बाएँ डोलने लगा.
डर बेर्लिओज़ पर इस कदर हावी हुआ कि उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं. और जब
आँखें खोलीं तो सब कुछ खतम हो चुका था...भ्रम छँट चुका था, चौख़ाने
वाला लम्बू ग़ायब हो चुका था और दिल में चुभी सुई भी निकल गई थी.
”छि:
छि:, भाड़ में जाए!” सम्पादक चहका, “इवान, जानते हो, अभी-अभी इस
कम्बख़्त गर्मी के मारे मुझे लगभग दिल का दौरा पड़ने वाला था! कुछ-कुछ वशीकरण
जैसा...” उसने हँसने की कोशिश की, मगर आँखों में अभी भी भय की छाया थी, हाथ काँप रहे
थे.
मगर धीरे-धीरे वह संभल गया, रुमाल झटककर थोड़ा साहस बटोरते हुए
बोला, “हाँ, तो फिर...” और उसने खुमियों के शरबत के कारण बीच में टूटी हुई बातचीत के सूत्र को
सँभाल लिया.
जैसा कि बाद में पता चला बातचीत ईसा मसीह के बारे में हो रही थी. सम्पादक
ने कवि को अपनी पत्रिका के आगामी अंक के लिए एक लम्बी, धर्मविरोधी
कविता लिखने के लिए अनुबंधित किया था. इवान निकलायेविच ने कुछ ही समय में एक ऐसी
कविता लिख भी डाली मगर सम्पादक को वह ज़रा भी पसन्द नहीं आई. बात यह थी कि बिज्दोम्नी ने अपनी कविता के मुख्य पात्र ईसा
को काले रंगों में यानी कि गंदे, गिरे हुए स्वरूप में
प्रस्तुत किया था और सम्पादक महाशय चाहते थे कि कविता को दुबारा लिखा जाए. अब इस
पार्क में सम्पादक कवि को ईसा के बारे में भाषण दे रहा था, इस
उद्देश्य से कि वह कवि को उसकी गलती दिखा सके. कहना कठिन है कि इवान निकलायेविच को
किस शक्ति ने ऐसी कविता लिखने के लिए प्रेरित किया, या तो यह
उसके आविष्कारिक मस्तिष्क की देन थी, या फिर ईसा के बारे में
अज्ञान, मगर उसकी कविता में ईसा एक जीवित व्यक्तित्व की तरह
अवतरित हुए, हालाँकि यह व्यक्तित्व किसी को भी अपनी ओर
आकर्षित नहीं करता था. बेर्लिओज़ यह सिद्ध करना चाहता था कि असली प्रश्न ईसा के
व्यक्तित्व का नहीं और न ही उसके अच्छे या बुरे चित्रण का है, अपितु यह कि व्यक्ति रूप में ईसा वास्तव में पृथ्वी पर कभी अवतरित हुए ही
नहीं. उनके बारे में प्रचलित सभी कहानियाँ कपोल-कल्पित हैं, मिथ्या
हैं.
पाठक ध्यान दें कि सम्पादक काफी पढ़ा-लिखा आदमी था और अपने इस ‘भाषण’ में बड़ी ख़ूबसूरती से वह प्राचीन
इतिहासकारों को उद्धृत कर रहा था. उसने प्रसिद्ध इतिहासकार फिलौन
अलेक्सान्द्रिंस्की और जोसेफ़ फ्लावी के नाम लेकर कहा कि उन्होंने ईसा के बारे में
एक भी शब्द नहीं कहा है. एक प्रसिद्ध सन्दर्भ का उल्लेख करते हुए मिखाइल अलेक्सान्द्रविच
ने कवि को यह भी बताया कि टेसिटस के प्रसिद्ध ‘एन्नल्स’ के पन्द्रहवें खंड के चौवालीसवें अध्याय में, जहाँ
ईसा को सूली पर चढ़ाए जाने का वर्णन है, वह भी वास्तविकता
नहीं है. मूल बाइबिल में इसके बारे में कुछ भी नहीं लिखा है...यह सब बाद की
आवृत्तियों में ठूँसा गया है.
कवि, जिसके लिए सम्पादक द्वारा बताई जा रही बातें बिल्कुल नई
थीं, अपनी बड़ी-बड़ी हरी आँखों को बेर्लिओज़ पर टिकाए ध्यान से
सुन रहा था. वह बीच बीच में हिचकियाँ ले रहा था. हर हिचकी के साथ खुमियों के शरबत
को फुसफुसाकर गालियाँ देने का क्रम भी जारी था.
”कोई
भी ऐसा पूरबी धर्म नहीं है,” बेर्लिओज़ ने आगे कहा, “जिसमें किसी भी पवित्र युवती ने ईश्वर को जन्म न दिया हो. ईसाइयों ने भी
बिना कुछ सोचे-समझे ईसा का निर्माण इसी प्रकार कर डाला, जबकि
ईसा कभी थे ही नहीं. इस बात पर तुम्हें ख़ास ज़ोर देना है...”
बेर्लिओज़ का ऊँचा स्वर गलियारे में गूँज रहा था. जैसे-जैसे मिखाइल अलेक्सान्द्रविच
पौराणिकता के जंजाल में फ़ँसता जा रहा था, जिसमें केवल एक उच्च शिक्षित आदमी ही
अपनी गर्दन को मरोड़े जाने का ख़तरा उठाए बग़ैर जा सकता है, कवि
को और भी अधिक नई-नई और रोचक बातों का ज्ञान होता जा रहा था. उसे भले देवता एवम्
धरती और आकाश के पुत्र माने जाने वाले इजिप्त के ओजिरिस के बारे में पता चला.
फिनिकों के देवता फ़ामूस और मार्दूक के बारे में बेर्लिओज़ ने कवि को बताकर भयानक
देवता वित्स्लिपुत्स्ली का ज़िक्र शुरू किया, जिसे कभी
मैक्सिको में अज़टेक बहुत मानते थे.
और जब मिखाइल अलेक्सान्द्रविच ने कहा कि वित्स्लिपुत्स्ली की मूर्ति का
निर्माण आटे की लोई से किया जाता था, तभी गलियारे में एक व्यक्ति दिखाई
दिया.
बाद में, जब यदि स्पष्ट कहा जाए तो, जब बहुत
देर चुकी थी, अनेक संस्थाओं ने इस व्यक्ति का वर्णन जारी
किया. यदि इन सभी जारी किए गए वर्णनों को मिलाकर देखा जाए तो आश्चर्य होगा,
क्योंकि पहले वर्णन के अनुसार यह व्यक्ति छोटे कद का था, उसके दाँत सुनहरे थे और वह दाएँ पैर से लंगड़ाता था; जबकि
दूसरे वर्णन में यही व्यक्ति असाधारण ऊँचा, प्लेटिनम के
दाँतों वाला और बाएँ पैर से लँगड़ाने वाला बताया जाता था. तीसरे वर्णन में इस
व्यक्ति की किसी ख़ास बात का ज़िक्र नहीं किया गया था.
मतलब ये हुआ कि इनमें से एक भी वर्णन उस व्यक्ति तक पहुँचाने में सफ़ल नहीं
हुआ.
सबसे पहले, वह व्यक्ति किसी भी पैर से लँगड़ाता नहीं था. न उसका कद
छोटा था, न असाधारण रूप से ऊँचा; बल्कि
सिर्फ ऊँचा था. जहाँ तक दाँतों का सवाल है, उसके दाँत दाईं
ओर से प्लेटिनम के और बाईं ओर से सोने के थे. उसने हल्के धूसर रंग का भारी सूट पहन
रखा था. सूट के ही रंग के विदेशी जूते थे. उसी रंग की टोपी कान पर झुकी हुई,
और बगल में एक छड़ी दबाए था, जिसकी मूठ कुत्ते
के सिर की शक्ल की थी. देखने में क़रीब चालीस वर्ष का, मुँह
कुछ टेढ़ा-सा, दाढ़ी-मूँछ सफाचट, बाल
काले, दाईं आँख काली, बाईं न जाने
क्यों हरी, भँवें काली, मगर एक दूसरी
से कुछ ऊपर. संक्षेप में – विदेशी.
उस बेंच के पास से गुज़रते हुए जिस पर संपादक और कवि बैठे थे, विदेशी
ने उन्हें कनखियों से देखा, वह रुका और एकदम दो कदम दूर पड़ी
दूसरी बेंच पर बैठ गया.
‘जर्मन...’ बेर्लिओज़ ने सोचा.
‘अंग्रेज़’ बिज्दोम्नी ने अनुमान लगाया, ‘ओफ़,
इसे दस्तानों में गर्मी भी महसूस नहीं होती!’
विदेशी इस बीच तालाब के चारों ओर बने ऊँचे-ऊँचे मकानों को देखता रहा. ऐसा
प्रतीत होता था मानो वह यह सब पहली बार देख रहा था और उसे सब कुछ दिलचस्प भी लग
रहा था.
उसने ऊँचे मकानों की ऊपरी मंज़िलों पर नज़रें जमाकर देखा. इन खिड़कियों के
शीशों से टूटे हुए और मिखाइल अलेक्सान्द्रविच पर से हमेशा के लिए हट चुके सूरज की
रोशनी परावर्तित हो रही थी, फिर उसने अपनी दृष्टि नीचे की ओर घुमाई, जहाँ शाम के धुँधलके में शीशे काले पड़ते जा रहे थे. अजनबी न जाने क्यों
हौले से हँसा. अपनी आँखों को सिकोड़ते हुए उसने छड़ी की मूठ पर हाथ रखे और हाथों पर
ठोढ़ी टिका ली.
“तुमने इवान...” बेर्लिओज़ कह रहा था, “बड़े सुन्दर और व्यंग्यात्मक तरीके से ईश्वर-पुत्र माने जाने वाले ईसा के
जन्म का यर्णन किया है, मगर असली बात तो यह है कि ईसा के
पहले भी ईश्वर के अनेक पुत्रों का जन्म हो चुका था जैसे कि अडोनिस, एटिस, मित्राज़. वास्तव में उनमें से एक भी पैदा नहीं
हुआ, कोई भी नहीं, ईसा भी नहीं. ज़रूरी
है कि तुम, उसके जन्म का वर्णन करने के बजाय, इन आधारहीन किंवदंतियों के बारे में लिखो...अन्यथा तुम्हारी कहानी से लगता
है कि मानो ईसा का वास्तव में जन्म हुआ था.”
हिचकियों से परेशान बिज्दोम्नी ने
अपनी साँस रोककर हिचकी रोकने की कोशिश की, मगर परिणाम उल्टा हुआ, वह और ज़ोर से और कष्टदायक हिचकियाँ लेने लगा. ठीक इसी समय बेर्लिओज़ की भी
बोलती बन्द हो गई, क्योंकि वह विदेशी अचानक उठकर लेखकों के
पास आने लगा.
दोनों आँखें फाड़े उसे देखने लगे.
“माफ़ कीजिए...,” पास आते हुए वह विदेशी लहजे में
बोला, “मैं अनजान होते हुए भी हिम्मत कर रहा हूँ...मगर
आपकी इस विद्वत्तापूर्ण बातचीत का विषय इतना रोचक है कि...”
उसने सौजन्य से अपनी टोपी उतारी और दोनों मित्रों के पास इसके सिवा कोई
चारा न रहा कि वे उठकर उसका अभिवादन करें.
‘नहीं, शायद फ्रांसीसी है...’ बेर्लिओज़ ने सोचा.
‘पोलिश...?’ बिज्दोम्नी ने सोचा.
मैं यह कहूँगा कि कवि को पहली ही नज़र में विदेशी तिरस्कार के योग्य प्रतीत
हुआ, मगर
बेर्लिओज़ को वह पसन्द आ गया; शायद एकदम पसन्द नहीं आया,
मगर...कैसे कहूँ...दिलचस्प लगा, शायद.
“क्या मुझे बैठने की इजाज़त देंगे...” बड़ी मिठास
के साथ विदेशी ने पूछा. मित्रगण बेमन से थोड़ा-सा इधर-उधर सरके. विदेशी बड़ी सहजता
से उनके बीच बैठ गया और तत्काल उनकी बातचीत में शामिल हो गया.
“अगर मैंने ग़लत नहीं सुना, तो आपने यह अर्ज़ किया था
कि ईसा दुनिया में आए ही नहीं थे?” अजनबी ने बेर्लिओज़
की तरफ़ अपनी बाईं हरी आँख से देखते हुए पूछा.
“नहीं, आपने ग़लत नहीं सुना,” बेर्लिओज़ ने बड़ी शालीनता से उत्तर दिया, “मैंने
बिल्कुल यही कहा था.”
“ओह, कितनी दिलचस्प बात है!” अजनबी चहका.
‘इसे किस शैतान की ज़रूरत है?’ बिज्दोम्नी ने सोचा और अपने नाक-भौं सिकोड़ लिये.
“और क्या आप अपने साथी की राय से सहमत हैं?” अब
अजनबी ने दाईं ओर बैठे बिज्दोम्नी की ओर
मुड़कर पूछा.
“सौ प्रतिशत!...” बिज्दोम्नी ने कहा, जिसे थोड़े नाटकीय
और आलंकारिक ढंग से बोलने का चाव था.
“आश्चर्य है!” बिन बुलाया मेहमान फिर चहका और न
जाने क्यों चोरों की तरह इधर-उधर देखकर अपनी मोटी आवाज़ को और भी भारी बनाकर बोला, “मेरी उत्सुकता को क्षमा करें, मगर मैं यह समझा हूँ
कि आप ईश्वर में भी विश्वास नहीं करते हैं?” वह अपनी
आँखों में भय का भाव लाकर आगे बोला, “मैं क़सम खाता हूँ,
मैं किसी से कुछ न कहूँगा.”
“हाँ, हम भगवान में विश्वास नहीं करते,” बेर्लिओज़ ने विदेशी के डरने का मखौल उड़ाते हुए कहा, “मगर यह बात हम आज़ादी से कह सकते हैं, बिना डरे.”
अजनबी ने बेंच से पीठ टिकाकर और भी उत्सुकता से पूछा, “क्या आप नास्तिक हैं?”
“हाँ, हम नास्तिक हैं.” बेर्लिओज़
ने मुस्कुराकर कहा. बिज्दोम्नी ने दाँत
पीसते हुए सोचा, ‘पीछे पड़ गया विदेशी चूहा.’
“ओह, क्या शान है!” विदेशी
आश्चर्य से चीखा, और अपने सिर को दाएँ-बाएँ घुमाकर कभी इसकी,
तो कभी उसकी ओर देखने लगा.
“हमारे देश में नास्तिकता से कोई आश्चर्यचकित नहीं होता,” बेर्लिओज़ ने राजनयिकों के अन्दाज़ में कहा, “हमारी
जनसंख्या का अधिकांश बहुत दिनों से भगवान की किन्हीं भी किंवदंतियों पर विश्वास
नहीं करता.”
अजनबी ने एक अजीब सी हरकत की, वह उठ खड़ा हुआ और आश्चर्यचकित संपादक
से हाथ मिलाकर बोला, “मैं तहेदिल से आप को धन्यवाद देता
हूँ!”
“आप उन्हें क्यों धन्यवाद दे रहे हैं?” पलकें
झपकाते हुए बिज्दोम्नी ने पूछा.
“एक ऐसी महत्त्वपूर्ण सूचना के लिए जो मुझ जैसे पर्यटक के लिए अत्यंत रोचक
है.” बड़े गहरे अन्दाज़ में उँगली ऊपर उठाकर विदेशी ने
समझाया.
इस महत्त्वपूर्ण सूचना ने पर्यटक पर निश्चय ही बड़ा गहरा प्रभाव डाला था, क्योंकि
वह लगातार भयभीत आँखें घुमा-घुमाकर सभी घरों को देखता जा रहा था, मानो हर खिड़की में उसे एक एक नास्तिक के दर्शन हो रहे हों.
'नहीं, यह अंग्रेज़ नहीं है...’ बेर्लिओज़ ने फिर सोचा, जबकि बिज्दोम्नी को आश्चर्य हो रहा था कि – ‘यह रूसी कैसे बोल रहा है, अद्भुत!’ उसने अपने नाक-भौं फिर सिकोड़ लिये.
“मगर, मुझे पूछने की इजाज़त दीजिए...” तनावपूर्ण उत्सुकता से विदेशी ने पूछा, “ईश्वर
के अस्तित्व के बारे में विद्यमान पाँच प्रमाणों के बारे में आपका क्या विचार है?”
“ओफ!” सहानुभूति के स्वर में बेर्लिओज़ ने कहा, “इनमें से एक भी किसी लायक नहीं है. मानवता ने बहुत पहले इन्हें नकार कर
पुरातत्व संग्रहालय में फेंक दिया है. यक़ीन मानिए तार्किक बुद्धि ईश्वर के
अस्तित्व के बारे में किसी भी प्रमाण को नहीं मानती.”
“शाबाश!” विदेशी चिल्लाया, “शाबाश! आपने बिल्कुल इमानुएल के विचार ही दोहराए हैं. मगर आश्चर्य की बात
यह है कि उसने पाँचों प्रमाणों को झुठलाकर स्वयँ अपना ही उपहास करते हुए छठे
प्रमाण की रचना कर डाली!”
“काण्ट का प्रमाण,” हल्की-सी हँसी के साथ
पढ़े-लिखे सम्पादक ने कहा, “वह भी सही नहीं है. शिलेर ने
ठीक ही कहा था कि काण्ट के इस संदर्भ में विचार सिर्फ गुलामों को ही अच्छे लग सकते
हैं. श्त्राउस ने तो इस प्रमाण का साफ-साफ़ मख़ौल उड़ाया है.”
बेर्लिओज़ बोल रहा था, मगर साथ ही साथ सोच रहा था, ‘मगर,
यह है कौन? और यह इतनी अच्छी रूसी कैसे बोल
रहा है?’
“इस काण्ट को तो ऐसे प्रमाणों के लिए तीन साल के लिए सालीव्की में सज़ा
मिलनी चाहिए!” इवान निकलायेविच बीच में ही टपक पड़ा.
“इवान!...” परेशान होकर बेर्लिओज़ फुसफुसाया. मगर
काण्ट को तीन साल के लिए सालीव्की भेजने के विचार ने अजनबी पर मानो जादू कर दिया.
“बिल्कुल, बिल्कुल...” वह
चिल्लाया और उसकी हरी आँख, जो बेर्लिओज़ को देख रही थी,
चमकने लगी, “उसे वहीं भेजना चाहिए! मैंने
उससे नाश्ता करते हुए कहा था, -“आपने, प्रोफेसर,
ख़ैर यह आपका विचार है, मगर बहुत ही भौंडी-सी
बात सोची है! शायद आपका विचार बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण हो, मगर
वह समझ से परे है. आप पर लोग हँसेंगे.”
बेर्लिओज़ की आँखें फटी रह गईं, ‘नाश्ता करते हुए...काण्ट से?...यह क्या बकवास कर रहा है?’ उसने सोचा.
मगर विदेशी बोलता रहा. बेर्लिओज़ की परेशानी का उस पर कुछ भी असर नहीं पड़ा
था. वह कवि की ओर मुड़ चुका था, “उसे सालीव्की भेजना इसलिए असम्भव है कि वह लगभग सौ
सालों से दूरदराज की जगहों में रह रहा है, सालीव्की तो उसके
मुकाबले बहुत नज़दीक है, और उसे उन जगहों से यहाँ घसीट लाना
असम्भव है, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ.”
“ओह, कितने दु:ख की बात है!” कवि उसे छेड़ते हुए बोला.
“मुझे भी अफसोस है!” अजनबी अपनी आँख चमकाते हुए
आगे बोला, “मगर मुझे एक और ही बात परेशान कर रही है:
अगर ईश्वर नहीं है, तब बताइए कि मानव जीवन का संचालन कौन
करता है और पृथ्वी पर चल रही सभी क्रियाओं का सूत्र कौन सँभाले हुए है?”
“मानव, और कौन?” बिज्दोम्नी
ने चिढ़कर कहा. मगर स्पष्ट था कि उसे यह
प्रश्न समझ में नहीं आया था.
“माफ़ी चाहता हूँ,” धीमे से अजनबी ने पूछा, “मगर, संचालन करने के लिए कोई समयबद्ध योजना तो बनानी
पड़ती ही होगी, चाहे वह कितने ही थोड़े समय के लिए क्यों न हो?
क्या मैं पूछ सकता हूँ कि मानव सूत्रधार कैसे हो सकता है, जबकि वह थोड़े समय के लिए भी, उदाहरण के लिए एक हज़ार
साल के लिए भी, कोई भी योजना बनाने में न केवल असफ़ल है,
बल्कि उसका अपने कल पर भी कोई नियंत्रण नहीं है, और, सचमुच,” अजनबी
बेर्लिओज़ की तरफ़ मुड़कर बोला, “मान लीजिए, आप ये संचालन करना आरंभ करते हैं, अपना भी और दूसरों
का भी और अचानक आपको...खे...खे...खे पसलियों में ट्यूमर हो जाता है...” अजनबी मीठी हँसी हँसते हुए बोला, मानो इस ट्यूमर की
कल्पना से उसे बहुत खुशी हुई हो, - “हाँ, ट्यूमर...” बिल्ली की तरह सिकुड़कर उसने दोहराया, “बस, आपका काम ख़तम! तब आप किसी और के नहीं सिर्फ़ अपने
भाग्य की चिंता करेंगे. रिश्तेदार आपको दिलासा देंगे और आप, दुर्भाग्य
की कल्पना से भयभीत होकर डॉक्टरों के पास, वैद्यों के पास और
नीमहकीमों के पास भी जाएँगे. पहले, दूसरे और तीसरे भी कोई
मदद नहीं कर पाएँगे – यह आप जानते होंगे. और इस
सबका दुर्भाग्यपूर्ण अंत होगा. वह, जो कुछ ही समय पहले राज
कर रहा था, एकदम बेजान पड़ा होगा. लकड़ी की पेटी में, और उसे देखने वाले, यह समझकर कि अब इस निर्जीव शरीर
से कोई लाभ नहीं होने वाला, उसे भट्टी में जला देंगे. इससे
भी बुरा हो सकता है : मनुष्य किस्लावोद्स्क जाने की तैयारी कर रहा हो...” अजनबी ने आँखें सिकोड़कर बेर्लिओज़ की ओर देखा, “मामूली–सी ही बात है, मगर वह भी पूरी नहीं कर सकता, क्योंकि हो सकता है, अचानक उसका पैर फिसल जाए और वह
ट्राम के नीचे आ जाए! क्या आप तब भी कहेंगे कि आपने स्वयँ ही ऐसे घटनाक्रम की रचना
की थी? क्या यह सोचना, ज़्यादा तर्कसंगत
नहीं है कि कोई और ही संचालन कर रहा है?” और अजनबी
विचित्र हँसी हँसा.
बेर्लिओज़ बड़े ध्यान से ट्यूमर और ट्राम के बारे में अप्रिय कहानी सुन रहा
था. वह किन्हीं अज्ञात विचारों से भयभीत हो उठा. ‘यह विदेशी नहीं है! यह विदेशी
नहीं हो सकता!’...उसने सोचा – ‘यह महज आश्चर्यजनक वस्तु है...मगर यह है कौन?’
“शायद आप सिगरेट पीना चाहते हैं?” अकस्मात अजनबी
ने बिज्दोम्नी से पूछा, “कौन-सा ब्राण्ड चाहिए?”
“आपके पास, जैसे बहुत सारे ब्राण्ड हैं?” डूबे हुए स्वर में कवि ने पूछा, जिसकी सिगरेटें
सचमुच ख़त्म हो चुकी थीं.
“कौन-सा ब्राण्ड?” अजनबी ने दोहराया.
“अच्छा, नाशा मार्का!” कड़वाहट
से बिज्दोम्नी ने उत्तर दिया.
अजनबी ने तुरंत जेब से सिगरेट केस निकाला और बिज्दोम्नी की ओर बढ़ाया, “लीजिए, नाशा
मार्का!”
सम्पादक और कवि को इस बात का अधिक आश्चर्य नहीं हुआ कि सिगरेट केस में ‘नाशा मार्का’ ब्राण्ड की सिगरेट थीं, उन्हें चौंकाया सिगरेट केस ने. वह एक विशाल सिगरेट केस था, खरे सोने का बना हुआ, उसके ढक्कन को खोलते समय सफ़ेद
और नीले प्रकाश का तिकोना हीरा चमक रहा था.
दोनों साहित्यकारों ने अलग-अलग बात सोची. बेर्लिओज़ : ‘नहीं, विदेशी ही है!’ और बिज्दोम्नी
: ‘भाड़ में जाए. आँ?’
कवि और सिगरेट केस का मालिक कश लेते रहे, और बेर्लिओज़ ने सिगरेट पीने से इनकार
कर दिया.
उसकी बात का विरोध करना चाहिए कि...बेर्लिओज़ ने सोचा और बोला, “मनुष्य को एक दिन मरना ही है, इस तथ्य के ख़िलाफ़ कोई
भी नहीं है. मगर असल बात यह है कि...”
मगर वह अपनी बात कह नहीं पाया, अजनबी बीच में ही बोल पड़ा, “हाँ, मनुष्य नश्वर है, मगर यह
तो सिर्फ दुर्भाग्य का आधा ही भाग है. बुरा तो यह है कि वह कभी-कभी अचानक मर जाता
है, इसी बात पर मैं ज़ोर देना चाहता हूँ! और वह यह भी नहीं
जानता और विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि वह आज शाम को क्या कर रहा है.”
’कुछ
बेतुका-सा है यह प्रश्न’...बेर्लिओज़ ने सोचा और वह बोला, “आप तो बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कह रहे हैं. जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मुझे आज की अपनी शाम के बारे में सब कुछ मालूम है. हाँ, अगर ब्रोन्नाया सड़क पर मेरे सिर पर कोई ईंट आकर गिर जाए तो...”
“ईंट का कोई काम नहीं है,” अजनबी ने सोद्देश्य
कहा, “वह किसी पर भी कभी भी यूँ ही नहीं गिर जाती. आप
पर तो वह गिरेगी नहीं. आप तो किसी और ही तरीके से मरने वाले हैं.”
”शायद
आप जानते हैं कि किस तरह से?” तीखे व्यंग्य से बेर्लिओज़
ने पूछा, और अनजाने ही इस बेतुकी बातचीत में शामिल हो गया – “और मुझे बताएँगे?”
“शौक
से!” अजनबी बोला. वह बेर्लिओज़ को नज़रों से तौलता रहा,
मानो उसके लिए सूट सीने जा रहा हो, और होठों
ही होठों में बुदबुदाता रहा: ‘एक, दो...बुध दूसरे घर में...चन्द्रमा अस्त हो गया...छह – दुर्भाग्य...शाम – सात’ – और फिर खुशी में आकर ज़ोर से बोला, “आपका सिर
काटा जाएगा!”
बिज्दोम्नी खूँखार नज़रों से इस
हाथ-पैर फैलाने वाले अजनबी को देखता रहा और बेर्लिओज़ ने मख़ौल उड़ाने के अंदाज़ में
पूछा, “कौन काटेगा? दुश्मन? आततायी?”
“नहीं,” विदेशी बोला, “रूसी महिला, कम्सामोल्का.”
“ह!” अजनबी के मज़ाक से थोड़ा परेशान होते हुए
बेर्लिओज़ बोला, “माफ़ कीजिए, इस पर
विश्वास नहीं होता!”
“मुझे भी, क्षमा करें!” विदेशी
ने जवाब दिया, “मगर बात यही है, हाँ,
मैं आपसे पूछना चाहता था कि आज शाम को आप क्या करने वाले हैं,
अगर कोई राज़ की बात न हो तो बताइए.”
“कोई राज़ नहीं है. अभी मैं सदोवया पर अपने घर जाऊँगा और फिर रात को दस बजे – मासोलित. वहाँ एक मीटिंग है जिसकी मैं अध्यक्षता करूँगा.”
:नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता...” ज़ोर देकर विदेशी ने प्रतिवाद किया.
“क्यों?”
विदेशी ने अपनी आँखें सिकोड़ लीं और आकाश की ओर देखते हुए बोला, जहाँ
शाम की ठंडक को महसूस कर पक्षियों के झुंड उड़ते जा रहे थे, “क्योंकि अन्नूश्का ने सूरजमुखी का तेल ख़रीद लिया है, और न केवल ख़रीदा, बल्कि कुछ गिरा भी दिया है. इसका
मतलब यह हुआ कि मीटिंग नहीं होगी.”
इसके साथ लिंडन वृक्षों के नीचे चुप्पी छा गई.
“माफ़ कीजिए,” बेर्लिओज़ ने इस आश्चर्य के पिटारे
जैसे विदेशी को देखकर फिर शुरुआत की, “यहाँ सूरजमुखी के
तेल का क्या काम है...और यह अन्नूश्का कौन है?”
“सूरजमुखी का तेल इसलिए कि,” बिज्दोम्नी ज़ाहिरी तौर पर अजनबी के साथ युद्ध का ऐलान करते
हुए बीच में बोल पड़ा, “महाशय, आप
कभी पागलखाने गए हैं?”
“इवान!” मिखाइल अलेक्सान्द्रविच ने हौले से उसे
डाँटा.
मगर विदेशी ने इस बात का ज़रा भी बुरा नहीं माना और ठहाका मारकर हँस पड़ा.
“गया था, गया था और एक बार नहीं!” – वह हँसते-हँसते चिल्लाया, मगर उसकी आँखें कवि पर जमी
रहीं, “मैं कहाँ-कहाँ नहीं गया! अफ़सोस सिर्फ इस बात का
है कि मैं प्रोफेसर से पूछ नहीं पाया कि ‘शिज़ोफ्रेनिया’ क्या होता है? आप ख़ुद ही प्रोफेसर से इस बारे में
पूछेंगे, इवान निकलायेविच!”
“आपको मेरा नाम कैसे मालूम हुआ?”
“सुनो! इवान निकलायेविच, आपको कौन नहीं जानता?” अजनबी ने अपनी जेब से एक दिन पहले का ‘लितेरातूर्नाया
गज़ेता’ का अंक निकाला जिसमें इवान निकलायेविच को पहले
ही पृष्ठ पर अपनी फोटो दिखाई दी, जिसके नीचे उसकी अपनी कविता
भी छपी थी. मगर इस लोकप्रियता और प्रसिद्धि का आनन्द जितना उसे कल हुआ था, आज उतना ही वह निर्विकार रहा.
“और मैं माफ़ी चाहता हूँ,” उसने कहा और उसका
चेहरा स्याह पड़ गया, “क्या आप एक मिनट इंतज़ार करेंगे?
मैं अपने साथी से कुछ बात करना चाहता हूँ.”
“ओह, शौक से!” विदेशी चहका, “यहाँ, लिंडन के नीचे इतना अच्छा लग रहा है, और फिर, मुझे कहीं जाने की जल्दी भी नहीं है.”
“देखो, मीशा,” कवि
बेर्लिओज़ को एक ओर घसीटते हुए धीरे से बोला, “यह कोई
प्रवासी नहीं है, बल्कि जासूस है. यह भगोड़ा रूसी है, जो वापस यहाँ आ गया है. उसके काग़ज़ात के बारे में पूछो, नहीं तो वह भाग जाएगा...”
“क्या तुम ऐसा सोचते हो?” उत्तेजित होकर
बेर्लिओज़ भी फुसफुसाया, मगर मन में सोचता रहा, ‘यह ठीक कह रहा है!’
“तुम मुझ पर विश्वास करो,” कवि उसके कान में
बोला, “वह बेवकूफ़ होने का ढोंग कर रहा है, ताकि हमसे कुछ उगलवा सके. तुम सुन रहे हो न, कैसी
अच्छी रूसी बोलता है वह?” कवि ने आगे कहा और सावधानी से
पीछे देख लिया कि कहीं विदेशी सुन तो नहीं रहा, “चलें,
उसे पकड़ें, नहीं तो भाग जाएगा.”
और कवि हाथ पकड़कर बेर्लिओज़ को बेंच तक घसीट लाया.
अजनबी बेंच पर बैठा नहीं था, पास ही खड़ा था, हाथों में एक काली-सी पुस्तिका, बढ़िया कागज़ का
लिफ़ाफ़ा और विज़िटिंग कार्ड लिए.
“माफ़ कीजिए, बातों की धुन में मैं अपना परिचय देना ही
भूल गया. यह है मेरा कार्ड, पासपोर्ट और मॉस्को आने का
निमंत्रण...सलाह-मशविरे के लिए.” स्पष्ट आवाज़ में अजनबी
बोला और दोनों साहित्यकारों को पैनी नज़र से देखता रहा.
वे गड़बड़ा गए, “शैतान ने सब सुन लिया...” बेर्लिओज़ ने सोचा मगर बड़े ही सौजन्यपूर्ण हावभाव से प्रदर्शित किया कि
कागज़ात दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं. जब तक विदेशी ने अपने काग़ज़ात सम्पादक के हाथों
में थमाए, कवि ने चुपके से देख लिया कि कार्ड पर विदेशी
अक्षरों में छपा था ‘प्रोफेसर’ और उसके नाम का पहला अक्षर था दोहरा ‘व’.... “बड़ी ख़ुशी हुई...” अपनी बौखलाहट छिपाते हुए सम्पादक बड़बड़ाया और विदेशी ने सभी काग़ज़ात अपनी
जेब में छिपा लिए.
अब फिर से सूत्र जुड़ गए थे. तीनों फिर से बेंच पर बैठ गए.
“तो आप एक सलाहकार के रूप में यहाँ बुलाए गए हैं, प्रोफेसर?” बेर्लिओज़ ने पूछा.
“हाँ, सलाहकार.”
“क्या आप जर्मन हैं?” बिज्दोम्नी ने जानना चाहा.
“मैं...?” उल्टे प्रोफ़ेसर ने ही मानो उससे सवाल
किया और एकदम सोच में पड़ गया, “हाँ, जर्मन ही सही...” उसने उत्तर दिया.
“मगर आप बहुत अच्छी रूसी बोलते हैं...”बिज्दोम्नी ने फिकरा कसा.
“ओह, वैसे मैं बहुभाषी हूँ और बहुत सारी भाषाएँ जानता
हूँ,” प्रोफेसर ने जवाब दिया.
“आपका पेशा वैसे क्या है?” अब बेर्लिओज़ ने पूछा.
“मैं काले जादू का विशेषज्ञ हूँ.”
‘तेरी तो!...’ मिखाइल अलेक्सान्द्रविच के सिर
में जैसे हथौड़े बजने लगे. “और...और आपको इस विषय में
सलाह देने के लिए हमारे यहाँ बुलाया है?” बड़ी मुश्किल
से उसके मुँह से निकला.
“हाँ, इसी बारे में बुलाया है,” प्रोफेसर ने ज़ोर देकर कहा और समझाया, “यहाँ
सरकारी लायब्रेरी में काले जादू पर लिखी गई नौंवी शताब्दी के विद्वान हर्बर्ट अवरीलाक्ती
की पांडुलिपियाँ मिली हैं. मुझे उन्हीं को समझाने के लिए बुलाया गया है. पूरे
विश्व में मैं ही एक विशेषज्ञ हूँ.”
“आ...तो आप इतिहासकार हैं?” राहत की साँस लेकर
कुछ आदर के साथ बेर्लिओज़ ने पूछा.
“मैं इतिहासकार ही हूँ.” विशेषज्ञ ने कहा और फिर
जैसे अनजान बनते हुए कहा, “आज शाम को पत्रियार्शी पार्क
के पास एक रोचक घटना घटने वाली है!”
कवि और सम्पादक फिर दिग्मूढ हो गए. प्रोफेसर ने दोनों को अपने बिल्कुल पास
बुलाया और जब वे दोनों उसकी ओर झुके तो वह बुदबुदाया, “ध्यान रहे, ईसा अवतरित हुए थे.”
“देखिए प्रोफेसर,” ज़बर्दस्ती मुस्कुराते हुए
बेर्लिओज़ ने कहा, “हम आपकी विद्वत्ता की कदर करते हैं,
मगर इस प्रश्न के बारे में हमारी अपनी अलग राय है.”
“आपकी अलग राय की कोई ज़रूरत नहीं है!” विचित्र
प्रोफेसर बोला, “वह थे माने थे, और
बस आगे कुछ नहीं.”
“मगर किसी प्रमाण की तो आवश्यकता होगी ही...” बेर्लिओज़
ने फिर शुरू किया.
“और कोई प्रमाण भी ज़रूरी नहीं है...” प्रोफेसर
हौले से बोला, और उसका विदेशी लहजा भी एकदम बदल गया – “सब कुछ साफ है : सफेद अंगरखे में...”
दो
पोंती पिलात
सफ़ेद अंगरखे में, जिसकी किनारी रक्तवर्णीय थी, महान
हिरोद के महल के दोनों अंगों के बीच अनेक स्तंभों वाले विशाल दालान में, अश्वारोहियों जैसे कदमों की आवाज़ करते हुए, बसंत ऋतु
के निसान माह की चौदहवीं तिथि को जूड़िया के न्यायाधीश पोंती पिलात ने प्रवेश किया.
न्यायाधीश को अगर दुनिया में किसी वस्तु से घृणा थी तो वह थी गुलाब के इत्र
की सुगन्ध और अब उन्हें यह अनुमान हो चला था कि आज का दिन बुरा गुज़रने वाला है, क्योंकि
प्रात:काल से ही यह सुगन्ध न्यायाधीश का पीछा कर रही थी. न्यायाधीश को ऐसा आभास हो
रहा था, मानो उद्यान में खड़े अशोक और लिंडन के वृक्ष गुलाब
की गन्ध फेंक रहे हैं, मानो अंगरक्षकों की त्वचा की गन्ध में
भी यह दुष्ट गुलाब की गन्ध घुल-मिल गई हो. महल के पार्श्व भाग में स्थित, न्यायाधीश के साथ येरुशलम से आई हुई बिजली की गति से आक्रमण करने वाली
बारहवीं सैन्य टुकड़ी की चंदौवल से धुआँ उठ रहा था, जो इस बात
का संकेत दे रहा था कि रसोइए भोजन बनाना प्रारंभ कर चुके हैं. यह धुआँ उद्यान से
होता हुआ स्तम्भों वाले दालान तक पहुँच रहा था. इस कड़वे धुएँ में भी वह नम गुलाब
के इत्र की गन्ध सन गई प्रतीत होती थी. हे भगवान, भगवान हमें
किस बात का दण्ड दे रहे हो?
‘हाँ, सन्देह की सम्भावना ही नहीं है! यह वही है,
फिर वही, अविजित भयंकर व्याधि अर्धशीश,
जिसमें केवल आधे मस्तिष्क में ही शूल उठता है. इस व्याधि की कोई दवा
नहीं, इससे कोई छुटकारा नहीं. हम मस्तक को इधर-उधर नहीं
घुमाएँगे.’
संगमरमरी फर्श पर फव्वारे के पास आसन की व्यवस्था कर दी गई थी. न्यायाधीश
ने बिना किसी पर दृष्टिक्षेप किए एक ओर हाथ बढ़ा दिया.
पीड़ा के कारण मुख को टेढ़ा होने से न रोक पाए न्यायाधीश और उन्होंने कनखियों
से ही चर्मपत्र पर लिखे लेख को पढ़कर उसे सचिव को लौटा दिया और बड़ी कठिनाईपूर्वक
कहा, “गेलिलियो से आया अभियुक्त? निचले न्यायखण्ड को
मुकदमा भेजा गया?”
“जी हाँ, महाबली!” न्यायाधीश
के सचिव ने उत्तर दिया.
“फिर?”
“वहाँ उन्होंने अभियोग पर निर्णय सुनाने से इनकार कर दिया और अभियुक्त को
मृत्युदण्ड की सिफ़ारिश करते हुए आपके पास भेज दिया,” सचिव
ने खुलासा करते हुए कहा.
न्यायाधीश ने गाल खुजाते हुए धीरे से कहा, “अभियुक्त को प्रस्तुत किया
जाए.”
और तभी दो शस्त्रधारी स्तम्भों वाले हाल के नीचे स्थित उद्यान से लगभग सत्ताईस
वर्षीय युवक को न्यायाधीश के सामने पकड़ कर लाये.इस युवक ने फटा-पुराना नीले रंग का
चोगा पहन रखा था. सिर पर एक सफ़ेद रुमाल था जिसे माथे पर चमड़े के पट्टे से बाँधकर
रखा गया था. हाथ पीछे की ओर बँधे हुए, मुँह के किनारे पर घाव का निशान,
जिसमें से बहता हुआ खून सूख चुका था.
अभियुक्त ने गहरी उत्सुकता से न्यायाधीश की ओर देखा.
वह कुछ देर चुप रहा, फिर धीरे से अरबी में पूछा, “तो
तुमने लोगों को येरुशलम का मन्दिर नष्ट करने के लिए उकसाया था?”
यह कहते हुए न्यायाधीश पाषाण-मूर्ति की भाँति बैठा रहा, सिर्फ
उसके होठ कुछ-कुछ हिल रहे थे. न्यायाधीश के पाषाणवत् बैठे रहने का कारण यह था कि
वह नारकीय पीड़ा से सुलगते हुए अपने मस्तक को हिलाना नहीं चाहते थे.
बंधे हुए हाथों वाला युवक कुछ आगे बढ़कर बोला, “भले आदमी! मेरा विश्वास
करें...”
मगर न्यायाधीश पूर्ववत् बिना हिले-डुले और बिना आवाज़ ऊँची किए तुरंत उसे
रोकते हुए बोला, “यह तुमने मुझे भले आदमी कहकर पुकारा? तुम ग़लती कर रहे हो. येरुशलम में सब दबी ज़बान में मेरे बारे में कहते हैं
कि मैं क्रूर दानव हूँ, और यह बिलकुल सच है,” और उसी तरह एक सुर में आगे बोला, “सेनाध्यक्ष क्रिसाबोय
को पेश करो.”
सेनाध्यक्ष मार्क क्रिसाबोय, जो बिजली की गति से आक्रमण करने वाली
सेना की एक अति विशेष टुकड़ी का नेतृत्व करते थे, जैसे ही दालान
में आए, ऐसा लगा, मानो अँधेरा छा गया
हो.
अपनी सैन्य टुकड़ी के सबसे ऊँचे सैनिक से भी क्रिसाबोय लगभग एक सिर के बराबर ऊँचे थे. उनके कन्धे इतने
अधिक चौड़े थे कि अभी-अभी उदित हुए सूर्य को उन्होंने सम्पूर्ण ढँक लिया था.
न्यायाधीश ने लैटिन में सेनाध्यक्ष से कहा, “अभियुक्त मुझे ‘भला आदमी’ कह रहा है. उसे एक मिनट के लिए यहाँ
से ले जाइए और समझाइए कि मुझ से किस प्रकार बात करना चाहिए. मगर उसका अंग-भंग मत
करना.”
और पाषाणमूर्ति के समान बैठे न्यायाधीश को छोड़ सब मार्क क्रिसाबोय को देखने लगे, जो कैदी को हाथ के इशारे से अपने
पीछे आने के लिए कह रहा था.
सब लोग हमेशा क्रिसाबोय को उसके
ऊँचे कद के कारण देखते ही रहते थे, चाहे वह कहीं भी हो. जो लोग उसे पहली
बार देखते थे, वे एक और कारण से देखते रहते. उसका चेहरा बहुत
कुरूप था, उसकी नाक एक युद्ध में किसी जर्मन की तलवार से कट चुकी
थी.
संगमरमर पर मार्क के भारी कदमों की आहट सुनाई दे रही थी. कैदी उसके
पीछे-पीछे चुपचाप चला जा रहा था. स्तम्भों वाले दालान में सम्पूर्ण शांति छा गई.
सिर्फ उद्यान में कबूतरों की गुटरगूँ सुनाई पड़ रही थी और फ़व्वारे का पानी मानो एक
मीठा-सा सार्थक गीत गा रहा था.
न्यायाधीश का मन हुआ कि उठे, जलधारा के नीचे माथा रखे और वैसे ही
शांत हो जाए, मगर वे ये भी जानते थे कि इससे कुछ नहीं होने
वाला.
कैदी को स्तम्भों के नीचे से उद्यान में लाकर क्रिसाबोय ने कांस्य प्रतिमा
के पास खड़े शस्त्रधारी के हाथ से चाबुक लिया और धीरे से उसे हिलाते हुए कैदी के
कन्धों पर मारा. सेनाध्यक्ष की हलचल सहज और लापरवाह थी, मगर
कैदी एकदम आगे की ओर झुककर धरती पर ऐसे गिर पड़ा मानो उसके पैर काट दिये गए हों,
मुँह खोलकर गहरी साँस लेते हुए उसके चेहरी का रंग उड़ गया, आँखों के आगे अँधेरा छा गया. मार्क ने बाएँ हाथ से उसे खाली बोरे की तरह
पकड़कर उठाया, उसे पैरों पर खड़ा किया और अनुनासिक स्वर में टूटी-फूटी अरबी में बोला, “रोम के न्यायाधीश को सम्बोधित करते हुए कहो – महाबली! अन्य किसी शब्द का प्रयोग मत करो. शांति से खड़े रहो. तुम समझ गए
या मारूँ?”
कैदी लड़खड़ाया मगर उसने अपने आप को संभाल लिया. उसके चेहरे पर रंग फिर से लौट आया.
उसने साँस लेकर भर्राई हुई आवाज़ में कहा, “मैं समझ गया.
मुझे मत मारो.”
एक मिनट के पश्चात् वह फिर न्यायाधीश के सामने खड़ा था.
एक बुझी-सी बीमार आवाज़ गूँजी, “नाम?”
“मेरा?” जल्दी से कैदी ने पूछा. वह अपने
सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ संक्षिप्त उत्तर देने का प्रयत्न कर रहा था, ताकि न्यायाधीश को गुस्सा न दिलाए.
न्यायाधीश ने धीरे से कहा, “मेरा – मुझे मालूम
है. जितने हो उससे ज़्यादा मूर्ख बनने की कोशिश मत करो. तुम्हारा नाम बोलो.”
“येशू,” कैदी ने तत्परता से उत्तर दिया.
“उपनाम है?”
“हा-नोस्त्री.”
“कहाँ के रहने वाले हो?”
“हमाला शहर का,” कैदी ने सिर को घुमाकर मानो
बताना चाहा कि दूर, उसकी दाईं ओर उत्तर दिशा में हमाला शहर
है.
“किस वंश के हो?”
“मुझे ठीक से नहीं मालूम,” कैदी ने उत्साह से
कहा, “मुझे अपने माता-पिता की याद नहीं है. मुझे बताया
गया है कि मेरे पिता सीरियाई थे.”
“तुम रहते कहाँ हो?”
“मेरा कोई पक्का ठिकाना नहीं है,” कैदी ने लजाकर
कहा,” मैं एक शहर से दूसरे शहर घूमता हूँ.”
“इसे एक शब्द में कहा जा सकता है – आवारा,” न्यायाधीश ने कहा और आगे पूछा, “रिश्तेदार हैं?”
“कोई नहीं. इस दुनिया में मैं अकेला हूँ.”
“पढ़े-लिखे हो?”
“हाँ.”
“अरबी के अतिरिक्त कोई और भाषा जानते हो?”
“जानता हूँ, ग्रीक.”
सूजी हुई पलक उठी, धुएँ से मिचमिचाती आँख कैदी पर ठहर गई, दूसरी आँख बन्द रही.”
पिलात ने अब ग्रीक में पूछना प्रारंभ किया, “हाँ, तो
मन्दिर की इमारत को नष्ट करना चाहते थे और तुमने इस काम के लिए जनता को उकसाया भी
था?”
कैदी मानो फिर सजीव हो उठा. उसकी आँखों से भय का भाव लुप्त हो गया. वह ग्रीक
में बोला, “मैं, भ...” फिर आँखों में डर छा गया. वह गलती से ‘भले आदमी’ कह रहा था. अपनी भूल सुधारते हुए बोला, “मैं,
महाबली, जीवन में कभी भी मन्दिर नष्ट करना
नहीं चाहता था और न ही मैंने किसी को भी इस उन्माद के लिए उकसाया है.”
एक नीची मेज़ पर झुककर कागज़-पत्र देखते और कैदी का बयान लिखते सचिव के चेहरे
पर आश्चर्य का भाव प्रकट हुआ. उसने अपना सिर उठाया, लेकिन तुरंत चर्मपत्र पर फिर से झुका
लिया.
“त्यौहार के सिलसिले में इस शहर में अनेक प्रकार के व्यक्ति आते हैं. इनमें
जादूगर, ज्योतिषी, भविष्यवक्ता और
हत्यारे भी होते हैं...” न्यायाधीश एक सुर में बोलता जा
रहा था, “साथ ही झूठे व्यक्ति भी आते हैं. उदाहरण के
लिए, तुम झूठे हो, तुम्हारे आरोप-पत्र
में स्पष्ट लिखा है : जनता को मन्दिर तोड़ने के लिए उकसाया. लोग गवाह हैं.”
“ये भले आदमी...” कैदी के मुख से निकला और उसने जल्दी
से कहा, “महाबली, कुछ भी नहीं
जानते और जो कुछ मैंने कहा था, उन्होंने सब गड्डमड्ड कर दिया
है. मुझे डर है कि यह उलझन काफ़ी समय तक चलेगी. और यह सब इस कारण हुआ कि वह मेरे
कथनों को गलत-सलत लिखता जाता है.”
सन्नाटा छा गया. अब दर्द से बोझिल दोनों आँखें कैदी पर टिक गईं.
“आख़िरी बार कहता हूँ – नाटक बन्द करो,
डाकू कहीं के...” पिलात ने हौले से मगर
एक सुर में कहा, “तुम पर लगाए गए आरोप अधिक नहीं हैं,
लेकिन जितने भी हैं, तुम्हें मृत्युदण्ड देने
के लिए काफी हैं.”
“नहीं, नहीं, महाबली,” कैदी ने विश्वास दिलाने की चेष्टा करते हुए कहा, “एक व्यक्ति है जो चर्मपत्र लिए मेरे पीछे-पीछे घूमता है और निरंतर लिखता
जाता है. मगर एक बार मैंने इस चर्मपत्र को देखा और मैं भयभीत हो गया. जो कुछ वह
लिख रहा था वैसा कुछ भी मैंने नहीं कहा था. मैंने उसे मनाया : भगवान के लिए तुम
अपने इस चर्मपत्र को जला दो. मगर वह मेरे हाथ से उसे छीनकर भाग गया.”
“वह कौन है?” पिलात ने अरुचि से पूछा और अपनी
कनपटी को हाथ से सहलाया.
“लेवी मैथ्यू!” कैदी ने झट से कहा, “वह कर-संग्राहक था और मैं उससे पहली बार विफलगी के रास्ते पर मिला,
वहाँ जहाँ नुक्कड़ पर अंजीर का बगीचा है...और उससे बातें करता रहा,
पहले तो वह मुझसे बड़ी रुखाई से बातें करता रहा. उसने मेरा अपमान भी
किया यानी कि...अपनी राय में वह मेरा अपमान कर रहा था...उसने मुझे कुत्ता कहा...” यहाँ कैदी हँस पड़ा, “मुझे इस प्राणी में कोई
हास्यास्पद बात नज़र नहीं आती, जिससे कि उसके नाम से पुकारे
जाने पर मैं अपमानित अनुभव करूँ....”
सचिव ने लिखना रोककर कनखियों से विस्मयपूर्वक देखा, लेकिन
कैदी को नहीं, बल्कि न्यायाधीश को.
“..मगर मेरी बातें सुनकर वह कुछ नर्म हुआ,” येशू
ने आगे कहा, “ज़मीन पर पैसे फेंक दिए और बोला कि वह मेरे
साथ यात्रा पर आएगा...”
पिलात अपने पीले दाँत दिखाते हुए हँसा. फिर अपने पूरे शरीर को सचिव की ओर
घुमाकर बोला, “ओफ! क्या शहर है येरुशलम! यहाँ जो भी सुनने को मिले,
थोड़ा है. क्या कभी सुना है कि कर-संग्राहक ने ज़मीन पर पैसे फेंक दिए
हों?”
सचिव समझ नहीं पाया कि पिलात की बात का क्या उत्तर दे. उसने यही ठीक समझा
कि न्यायाधीश जैसी हँसी दुहरा दे.
“और उसने यह कहा कि अब उसे पैसों से घृणा हो चुकी है.” येशू लेवी मैथ्यू की विचित्र हरकतों को समझाते हुए आगे बोला, “और तब से वह मेरा सहयात्री है.”
अभी तक अपने दाँत दिखाते न्यायाधीश ने कैदी की ओर देखा. फिर सूरज की ओर, जो
आततायी की भाँति दूर, दाएँ स्थित घुड़दौड़ के मैदान पर बनी
अश्वाकृतियों के ऊपर आ गया था. अचानक पीड़ादायक उदासी से उसने सोचा कि सबसे सरल
होता इस विचित्र डाकू को दालान से यह कहकर भगा देना कि ‘इसे सूली पर चढ़ा दो’, अंगरक्षकों को भगाकर इस
स्तम्भों वाले दालान से महल के अन्दरूनी कक्ष में जाकर, कमरे
में पूरी तरह अँधेरा कर देना...बिस्तर पर लुढ़ककर शीतल जल मँगाना...शिकायत के स्वर
में अपने कुत्ते बाँगा को बुलाकर उससे अपने अर्धशीश के दर्द का दुखड़ा रोना.
न्यायाधीश के दुखते हुए मस्तिष्क में ज़हर का विचार भी कौंध गया.
उसने अधमुँदी आँखों से कैदी को देखा. थोड़ी चुप्पी और पीड़ा के बीच सोचता रहा
कि येरुशलम की इस सूरज की भट्टी में ज़ख़्मी चेहरा लिए यह कैदी उसके सामने क्यों खड़ा
है और यह कि उसे अभी कितने अनावश्यक प्रश्न इस कैदी से पूछने हैं.
“लेवी मैथ्यू?” भर्राई हुई आवाज़ में बीमार ने
पूछा और आँखें बन्द कर लीं.
“हाँ, लेवी मैथ्यू...” एक
ऊँची, परेशान करती आवाज़ उस तक पहुँची.
“और तुमने बाज़ार में लोगों से मन्दिर के बारे में क्या कहा था?”
उत्तर देने वाले की आवाज़ पिलात की कनपटियों पर मानो हथौड़े की तरह चोट कर
रही थी, इस दुःखदायी आवाज़ ने आगे कहा, “मैंने,
महाबली, यह कहा था कि पुराने विश्वासों का
मन्दिर एक दिन ढह जाएगा और उसके स्थान पर सत्य का नया देवालय बनेगा, इस तरह कहा कि सबको समझ में आ जाए.”
“अरे आवारा, तुमने बाज़ार में जनता को सत्य के बारे
में कहकर बहकाया, उस सत्य के बारे में जिसका तुम्हें स्वयँ
भी ज्ञान नहीं है? सत्य क्या है?”
और तभी न्यायाधीश ने सोचा, ‘हे भगवान, मैं इससे अदालत में
अत्यंत अनावश्यक प्रश्न पूछ रहा हूँ...मेरी बुद्धि अब मेरा साथ नहीं दे रही...’ और उसकी आँखों के सामने काले द्रव का प्याला घूम गया. मुझे ज़हर चाहिए,
ज़हर!
और तभी उसने फिर आवाज़ सुनी.
“सत्य, सबसे पहले, यह है कि
तुम्हारे सिर में दर्द है. इतनी तीव्र पीड़ा है कि तुम मृत्यु के बारे में सोच रहे
हो. तुममें मुझसे बात करने की शक्ति नहीं रह गई है. मेरी ओर देखने में भी तुम्हें
कष्ट हो रहा है. मैं अनचाहे ही तुम्हें जल्लाद प्रतीत हो रहा हूँ, इसका मुझे दुःख है. तुम किसी और बात के बारे में सोच भी नहीं पा रहे हो.
तुम्हारी सिर्फ इतनी इच्छा है कि तुम्हारा कुत्ता दौड़कर तुम्हारे पास आ जाए,
वही एक है जिससे तुम भावनात्मक रूप से जुड़े हो. मगर तुम्हारी पीड़ा
अब समाप्त होने वाली है. सिरदर्द ग़ायब होने वाला है.”
सचिव ने आँखें फाड़-फाड़कर कैदी की ओर देखा. वह लिखना भूल गया था.
पिलात ने पीड़ा भरी आँखें कैदी पर उठाईं और देखा कि सूरज घुड़दौड़ के मैदान में
काफी ऊपर आ गया है. उसकी किरणें येशू के टूटे पादत्राणों पर पड़ रही थीं और वह सूरज
से बचने की चेष्टा कर रहा था.
अब न्यायाधीश आसन से उठा. उसने सिर को दोनों हाथों से दबाया. उसके पीले
चिकने चेहरे पर भय की छाया दिखाई दी. अपनी इच्छाशक्ति से उसने भय पर काबू पा लिया
और फिर आसन पर बैठ गया.
इस बीच कैदी अपनी बात कहता रहा. सचिव ने अब लिखना बन्द कर दिया था. अपनी
गर्दन को हंस की भाँति बाहर निकाले वह बड़े ध्यान से कैदी की बात सुनता रहा. वह एक
भी शब्द खोना नहीं चाहता था.
“देखो, सब समाप्त हो गया...” कैदी ने प्रेमपूर्वक पिलात की ओर देखा और आगे कहा, “मुझे इसकी बहुत खुशी है. मैं तुम्हें सलाह दूँगा महाबली, कि थोड़ी देर महल के बाहर पैदल घूम आओ, चाहे एलिओन
पहाड़ी पर बने उद्यान में ही सही. शाम तक तूफान आने वाला है,” कैदी ने मुड़कर आँखें सिकोड़ लीं और सूरज की ओर देखकर कहा, “तुम्हारे लिए पैदल सैर करना लाभदायक है. मैं भी बड़ी प्रसन्नता से तुम्हारे
साथ चलता. मेरे दिमाग में कुछ नए विचार आए हैं, शायद तुम्हें
वे दिलचस्प प्रतीत हों. मुझे तुम से बातें करने में आनन्द आएगा, क्योंकि तुम एक बुद्धिमान व्यक्ति प्रतीत हो रहे हो.”
सचिव भय से पीला पड़ गया. उसके हाथ से चर्मपत्र ज़मीन पर गिर पड़ा.
“दुःख इस बात का है...” कैदी कहता रहा, उसे कोई रोक नहीं पा रहा था, “कि तुम पूरी तरह
अपने आप में सिमट गए हो. लोगों पर से तुम्हारा विश्वास उठ गया है. तुम भी मानोगे
कि अपना पूरा प्यार सिर्फ कुत्ते पर ही उँडेल देना ठीक नहीं है. तुम्हारा जीवन
अभाव-ग्रस्त है, महाबली...” और
कैदी हँसा.
सचिव सोच रहा था कि अपने कानों पर विश्वास करे या न करे, पर
विश्वास करना ही पड़ा. उसने अनुमान लगाने का प्रयत्न किया कि कैदी की इस अद्भुत
मुँहजोरी पर न्यायाधीश का क्रोध किस रूप में प्रकट होता है. यद्यपि वह न्यायाधीश
से भली प्रकार परिचित था, फिर भी सही अनुमान लगाना सचिव की
कल्पना से परे था.
तब न्यायाधीश की भर्राई हुई, टूटी-फूटी-सी आवाज़ सुनाई दी. वह
लैटिन में कह रहा था, “इसके हाथ खोल दो.”
अंगरक्षकों में से एक ने अपनी बरछी की आवाज़ की, उसे
दूसरे को थमाया, और कैदी के निकट जाकर उसकी रस्सी खोल दी.
सचिव ने अपना चर्मपत्र उठा लिया और निश्चय किया कि वह न किसी बात से आश्चर्यचकित
होगा और न ही कुछ लिखेगा.
हौले से पिलात ने ग्रीक में कहा, “स्वीकार करो कि तुम महान
चिकित्सक हो.”
“नहीं, न्यायाधीश, मैं चिकित्सक
नहीं हूँ...” कैदी ने उत्तर दिया, और अपने हाथों की लाल पड़ चुकी मुड़ी-तुड़ी सूजी त्वचा को प्यार से सहलाता
रहा.
पिलात कनखियों से उसे देखता रहा और अब इन आँखों में पीड़ा का लेशमात्र भी
चिह्न नहीं था. इनमें थीं सर्व परिचित चिनगारियाँ.
“मैंने तुमसे पूछ नहीं, पिलात ने कहा, “शायद तुम लैटिन जानते हो?”
“हाँ, जानता हूँ,” कैदी ने
उत्तर दिया.
पिलात के पीले गालों पर रंग लौट आया. उसने लैटिन में पूछ, “अच्छा, तुमने कैसे जाना कि मैं कुत्ते को बुलाना
चाहता था?”
“बहुत आसान है,” कैदी ने भी लैटिन में ही उत्तर
दिया, “तुम हवा में हाथ चला रहे थे, और होंठ...”
“हाँ,” पिलात बोला.
थोड़ी देर चुप्पी छाई रही फिर पिलात ने ग्रीक में पूछा, “हाँ, तो तुम चिकित्सक हो/”
“नहीं-नहीं...” जोश में कैदी ने उत्तर दिया, “विश्वास करो, मैं चिकित्सक नहीं हूँ.”
“अच्छा ठीक है, अगर छिपाना चाहते हो तो छुपाओ. तुम पर
लगाए गए आरोप से इसका सीधा सम्बन्ध भी नहीं है. तो तुम इस बात पर कायम हो कि तुमने
तोड़-फोड़ करके या जलाकर या किसी और तरीके से मन्दिर को नष्ट करने की कोशिश नहीं की?”
“मैंने, महाबली, किसी को भी ऐसे
किसी काम के लिए नहीं उकसाया, मैं फिर दुहराता हूँ. क्या मैं
दिमागी तौर पर कमज़ोर प्रतीत होता हूँ?”
“ओह, नहीं. तुम दिमागी तौर पर बिल्कुल कमज़ोर नहीं
लगते हो,” पिलात ने हौले से कहा और एक भयावह मुस्कान
उसके चेहरे पर छा गई, “तुम शपथ लो कि ऐसा नहीं हुआ था.”
“मैं किसकी शपथ लूँ? तुम क्या चाहते हो?” कैदी ने पूछा.
“चाहो तो अपने जीवन की,” न्यायाधीश ने कहा, “उसी की शपथ लेने का समय आ गया है, क्योंकि वह एक बाल
से लटक रहा है, यह याद रखना!”
“क्या तुम सोच रहे हो कि तुमने उसे बाल से टाँगा है, महाबली?” कैदी ने पूछा, “अगर ऐसा है तो तुम बहुत बड़ी
गलती कर रहे हो.”
पिलात गुस्से से काँपा और दाँत भींचकर बोला, “मैं यह बाल काट सकता हूँ.”
“ऐसा सोचना भी तुम्हारी गलती है,” एक स्वच्छ
मुस्कान के साथ एक हाथ से स्वयँ को सूर्य से बचाते हुए कैदी ने आपत्ति की, “मान लो कि बाल काटना सिर्फ उसी के नियंत्रण में नहीं है जिसने उसे टाँगा
है.”
“अच्छा, अच्छा,” पिलात
मुस्कुराया, “अब मुझे विश्वास हो गया है कि येरुशलम के
निठल्ले लोग ज़रूर तुम्हारे पीछे-पीछे चलते होंगे. यह तो मैं नहीं जानता कि तुम्हें
ज़बान किसने दी है, मगर बातें अच्छी कर लेते हो. ख़ैर, यह तो बताओ कि क्या तुम येरुशलम में गधे पर सवार होकर सुज़्की दरवाज़े से
दाख़िल हुए थे, और तुम्हारे साथ एक बड़ी भीड़ थी, जो तुम्हारा ऐसे जयजयकार कर रही थी, मानो तुम कोई
पैगम्बर हो?” न्यायाधीश ने चर्मपत्र की ओर इशारा करके
पूछा.
कैदी ने अविश्वासपूर्ण नज़रों से न्यायाधीश को देखकर कहा, “मेरे पास तो कोई गधा ही नहीं है, महाबली. मैं
येरुशलम में सुज़्की दरवाज़े से ही आया, मगर पैदल. मेरे साथ
केवल लेवी मैथ्यू था. मुझे देखकर कोई भी जयजयकार नहीं कर रहा था, क्योंकि उस समय येरुशलम में मुझे कोई जानता ही नहीं था.”
“क्या तुम किसी दिसमाद, गेस्तास और वाररव्वान को
जानते हो?” पिलात ने कैदी पर से नज़र हटाए बिना पूछा.
“इन भले आदमियों को मैं नहीं जानता.” कैदी ने
उत्तर दिया.
:सच?”
“सच!”
“अब तुम मुझे यह बताओ कि तुम यह बार-बार ‘भले
आदमी’ शब्द का प्रयोग क्यों करते हो? क्या तुम सभी को इसी नाम से संबोधित करते हो?”
“हाँ, सब को,” कैदी बोला, “संसार में बुरे व्यक्ति हैं ही नहीं.”
“पहली बार सुन रहा हूँ,” पिलात हँसा, “शायद मुझे जीवन का अनुभव कम है. आगे लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है,” वह सचिव से बोला, हालाँकि उसने कब से लिखना बन्द कर
दिया था, फिर कैदी की ओर मुड़कर पूछा, “क्या तुमने किसी ग्रीक पुस्तक में यह पढ़ा है?”
“नहीं, मैं अपनी बुद्धि से इस निष्कर्ष पर पहुँचा
हूँ.”
‘और तुम इसी बात की शिक्षा भी देते हो?”
“हाँ.”
“और, उदाहरण के लिए, सेनाध्यक्ष
मार्क क्रिसाबोय , - क्या वह भी भला है?”
“हाँ,” कैदी बोला, “असल
में वह अभागा है. जब से भले आदमियों ने उसके चेहरे को कुरूप बना दिया, वह निष्ठुर और क्रूर हो गया है. शायद यह जानना ठीक रहेगा कि किसने उसका
अंगभंग किया.”
“मैं बताऊँगा,” पिलात ने कहा, “क्योंकि वह मैंने अपनी आँखों से देखा है. भले आदमी उस पर टूट पड़े जैसे
कुत्ते भालू पर टूट पड़ते हैं. जर्मन उसके हाथों, पैरों और
गर्दन से लिपट गए. सेनाध्यक्ष मानो बोरे में बन्द हो गया. अगर बाज़ू से घुड़सवार
दस्ता, जिसका संचालन मैं कर रहा था, उस
घेरे पर न टूट पड़ता तो, ऐ दार्शनिक, आज
तुम क्रिसाबोय से बातें न कर पाते. यह सब
देव वादी में इदिस्ताविजो की लड़ाई में हुआ था.”
“अगर उससे बातें की जातीं,” कैदी ने मानो सपनों
में खोकर कहा, “तो मुझे विश्वास है कि उसमें आमूल
परिवर्तन हो गया होता.”
“मेरे विचार में...” पिलात ने कहा, “अगर तुमने उसके किसी सिपाही या अफ़सर से बातें की होतीं तो भी उसे ख़ुशी
नहीं होती. मगर सौभाग्य से यह होने वाला नहीं है और यदि कोई इसका बन्दोबस्त करना
चाहेगा, तो वह मैं हूँ.”
इसी समय स्तम्भों वाले दालान में तीर की तरह उड़ती हुई एक चिड़िया आई. सुनहरी
छत के नीचे उसने एक चक्कर लगाया, और नीचे की ओर निकट ही बनी ताँबे की एक मूर्ति के चेहरे को
अपने पंखों से ढाँपकर फिर ऊपर उड़कर स्तम्भ के ऊपर वाले सिरे के पीछे छिप गई. शायद
वहाँ घोंसला बनाने का विचार उसके दिल में आया हो.
जितनी देर तक चिड़िया दालान में उड़ती रही, न्यायाधीश के अब स्वच्छ और हल्के
मस्तिष्क में एक योजना ने जन्म लिया. कुछ इस प्रकार कि महाबली ने आवारा दार्शनिक
येशू पर लगाए गए आरोपों की जाँच की. हा-नोस्त्री नामक उपनाम के इस व्यक्ति के
विरुद्ध कोई अपराध सिद्ध नहीं हो सका. येशू के कार्यकलापों और येरुशलम में उस समय
घटित हो रही अराजकतापूर्ण घटनाओं के बीच ज़रा-सा भी निकट सम्बन्ध नहीं पाया जा सका.
आवारा दार्शनिक मानसिक रूप से रुग्ण प्रतीत हो रहा था. इन सब तथ्यों को ध्यान में
रखते हुए सिनेद्रिओन के कनिष्ठ न्यायाधीश द्वारा दिए गए मृत्युदण्ड की न्यायाधीश
पिलात पुष्टि नहीं करता. मगर इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि
हा-नोस्त्री के बुद्धिहीन, स्वप्नदर्शी भाषण येरुशलम में
गड़बड़ी फैला सकते हैं, अतः न्यायाधीश येशू को येरुशलम से दूर,
भूमध्यसागर स्थित सीज़ेरिया स्त्रातोनोवा में, जहाँ
कि न्यायाधीश का निवास है, रखने की आज्ञा देते हैं.
बस, इस बात को सचिव को लिखाना शेष था.चिड़िया के पंख महाबली के
सिर के ठीक ऊपर फड़फड़ा रहे थे. वह झरने के निचले प्याले तक आई और बाहर उड़ गई.
न्यायाधीश ने कैदी की ओर देखा और पाया कि उसके निकट गर्म धूल का स्तम्भ ऊपर उठ रहा
था.
“उसके बारे में सब हो गया?” पिलात ने सचिव से
पूछा.
“नहीं, खेद है कि नहीं,” सचिव
ने कहा और चर्मपत्र का दूसरा टुकड़ा पिलात की ओर बढ़ा दिया.
“अब और क्या है?” पिलात ने पूछा और बुरा-सा मुँह
बना लिया.
चर्मपत्र के लेख को पढ़कर उसके चेहरे का रंग और भी बदल गया. या तो उसके मुख
और कंधे की ओर काला रक्त प्रवाहित हो रहा था, या कोई और बात थी, मगर उसके बदन का रंग पीले से भूरा हो गया, आँखें
फटने को हो गईं.
शायद यह रक्त का ही दोष हो, जो उसकी धमनियों में तांडव कर रहा था,
मगर न्यायाधीश की दृष्टि को कुछ हो गया. उसे लगा जैसे कैदी का सिर
कहीं दूर को तैर गया है और उसके स्थान पर दूसरा सिर प्रकट हो गया है. इस गंजे सिर
पर तीक्ष्ण दाँतों वाला सोने का मुकुट था; माथे पर गोल फोड़ा
था, जिसने वहाँ की त्वचा को खा लिया था और उस पर लेप लगा हुआ
था; बिना दाँतों वाला मुँह जिसका निचला टेढ़ा-मेढ़ा होठ लटक
रहा था. पिलात को आभास हुआ मानो दालान के गुलाबी स्तम्भ गायब हो गए हों, उद्यान के पार येरुशलम की छतें गायब हो गई हों और मानो सब कुछ काप्रे के
हरे-हरे घने उद्यानों में खो गया हो. उसकी आवाज़ को भी मानो कुछ हो गया, जैसे कहीं दूर से नगाड़ों और बिगुल की धीमी मगर भयंकर आवाज़ आ रही हो और
बहुत स्पष्ट कोई अनुनासिक आवाज़ सुनाई पड़ रही हो जो शब्दों को खींच-खींचकर कह रही
हो : ‘महामहिम के अपमान सम्बन्धी कानून...’
संक्षिप्त, सन्दर्भहीन, असाधारण विचार मस्तिष्क
में गोता लगाने लगे : ‘मर गया!’ फिर : ‘मर गए!...’ और
उनके बीच एक अटपटा विचार और विचार, ज़िम्मेदारी का अहसास
दिलाता हुआ, किसके प्रति? मृत्युहीनता
के बारे में, और न जाने क्यों मृत्युहीनता का विचार मन को
उदास कर गया.
पिलात ने अपने आप को सीधा किया, आँखों के सामने तैरते हुए दृश्यों को
दूर झटका, दृष्टि दालान की ओर दौड़ाई और उसके सामने कैदी की
आँखें आ गईं.
“सुनो, हा-नोस्त्री,” न्यायाधीश
ने येशू को विचित्र नज़रों से देखते हुए कहा. उसका चेहरा भयंकर हो गया था मगर आँखों
में चिंता की झलक थी, “क्या तुमने महान सम्राट के बारे
में कभी कुछ कहा था? जवाब दो! कहा था? या...नहीं...कहा?” पिलात ने ‘नहीं’ शब्द
पर ज़ोर देते हुए उसे अनावश्यक रूप से लम्बा खींचा, जितना कि
अदालत में नहीं होना चाहिए. और अपनी समझ में आँखों ही आँखों में येशू को कोई
सन्देश दे दिया, मानो यह सुझाना चाहता हो कि उसे इस प्रश्न
का क्या उत्तर देना है.
“सत्य बोलना हमेशा आसान और प्रिय होता है,” कैदी
ने कहा.
“मुझे इससे कोई मतलब नहीं है,” क्रोध में भरकर
पिलात ने कहा, “कि तुम्हें सच बोलना अच्छा लगता है या
नहीं, मगर तुम्हें सच बोलना होगा. यदि अवश्यंभावी और
पीड़ादायक मृत्यु से बचना चाहते हो तो प्रत्येक शब्द को तौल-परखकर बोलना.”
कोई नहीं जानता कि जूडिया के न्यायाधीश को क्या हो गया था. उसने तपते सूरज
से स्वयँ को बचाने के लिए अपना एक हाथ ऊपर उठा लिया और इस हाथ को ढाल की तरह
प्रयोग में लाते हुए, उसकी आड़ से कैदी को आँखों ही आँखों में कुछ इशारा भी किया.
“और...” वह आगे बोला, “यह बताओ कि क्या तुम किरिएफ के जूड़ा नामक व्यक्ति को जानते हो? और यह भी कि अगर सम्राट के बारे में कुछ कहा हो तो तुमने उससे क्या कहा?”
“बात यूँ हुई कि...” कैदी ने उत्साहपूर्वक बताना
शुरू किया, “परसों शाम को मन्दिर के पास मेरी पहचान एक
नवयुवक से हुई. वह अपने आपको जूडा कहता है और किरिएफ का रहने वाला है. उसने मुझे
निचले शहर में स्थित अपने घर पर बुलाया और मेरा स्वागत...”
“भला आदमी?” पिलात ने पूछा और उसकी आँखों में
शैतानी अंगारे चमक उठे.
“बहुत भला और जिज्ञासु आदमी है...” कैदी ने ज़ोर
देकर कहा, “वह मेरे विचारों में बड़ी दिलचस्पी दिखा रहा
था, और मेरा उसने बड़ी प्रसन्नता से स्वागत किया...”
”उसने मोमबत्तियाँ
जलाईं...” कैदी के ही लहजे में न्यायाधीश ने कहा और
उसकी आँखें जगमगा उठीं.
“हाँ,” न्यायाधीश द्वारा दी गई सूचना से
आश्चर्यचकित होते हुए येशू आगे बोला, “उसने मुझे
राज्यशासन के बारे में अपने विचार बताने के लिए कहा. उसे इस प्रश्न में विशेष
दिलचस्पी थी.”
“और तुमने क्या कहा?” पिलात ने पूछा, “या तुम यह कहोगे कि जो कहा था वह भूल गए हो?” मगर
अब पिलात के स्वर में निराशा स्पष्ट झलक रही थी.
“अन्य बातों के अलावा मैंने यह कहा था,” कैदी
बोलता रहा, “कि किसी भी प्रकार का शासन लोगों पर
बलात्कार के समान है और एक समय ऐसा आएगा, जब पृथ्वी पर किसी
का भी शासन नहीं रहेगा, न सम्राट का न किसी और का, और मानव सत्य और न्याय के साम्राज्य में प्रवेश कर जाएगा, जहाँ किसी भी प्रकार का शासन अथवा शासक नहीं होगा.”
“आगे!”
“आगे कुछ नहीं हुआ,” कैदी ने कहा, “तभी लोग दौड़े-दौड़े आए, मुझे बाँधने लगे और जेल में
ले गए.”
सचिव एक भी शब्द खोए बिना शीघ्रता से चर्मपत्र पर लिखता रहा.
“संसार में तिवेरिया के सम्राट के शासन के समान महान और सुन्दर शासन न कभी
हुआ है, और न कभी होगा!” अब पिलात
चिल्ला उठा, “अंगरक्षक को दालान से हटा दो!” फिर सचिव की ओर मुड़कर बोला, “मुझे कैदी के साथ
अकेला छोड़ दिया जाए, शासन संबंधी गुप्त बातें हैं.”
अंगरक्षक भाला उठाकर खट-खट आवाज़ करता हुआ दालान से उद्यान की ओर चला गया.
उसके पीछे-पीछे सचिव भी बाहर निकल गया.
दालान की शांति को कुछ देर तक केवल फव्वारे से उछलते पानी की आवाज़ भंग करती
रही. पिलात देखता रहा कि फव्वारे की नली से पानी की तश्तरी कैसे ऊपर उठती रही और
कैसे उसके किनारे टूट-टूटकर धारा बनकर नीचे गिरती रही.
पहले कैदी बोला, “मैं देख रहा हूँ कि किरिएफ के इस नवयुवक के साथ मेरे
वातालाप के फलस्वरूप मानो आसमान फट पड़ा है. महाबली, मुझे
आभास हो रहा है कि उसका अनिष्ट होने वाला है, मुझे उसके साथ
पूरी सहानुभूति है.”
“मैं सोचता हूँ ..” विचित्र हँसी हँसते हुए
न्यायाधीश बोला, “कि संसार में ऐसा कोई अवश्य है,
जिसके प्रति तुम्हें किरिएफ के जूड़ा से अधिक सहानुभूति होनी चाहिए,
और जिस पर जूड़ा से भी बड़ी विपत्ति आने वाली है! तो मार्क क्रिसाबोय,
जो कि एक मँजा हुआ और ख़ामोश जल्लाद है, वे लोग,” न्यायाधीश ने येशू के ज़ख़्मी चेहरे की ओर इशारा करके कहा, “जिन्होंने तुम्हें मारा है, तुम्हारे उपदेशों के लिए,
डाकू दिस्मास और गेस्तास, जिन्होंने चार
सिपाहियों की हत्या कर दी तथा गन्दा विश्वासघाती जूड़ा – क्या ये सभी भले आदमी है?”
“हाँ.” कैदी ने उत्तर दिया.
“और सत्य का साम्राज्य आने वाला है?”
“आएगा, महाबली,” येशू ने
विश्वासपूर्वक कहा.
“वह कभी भी नहीं आएगा!” अचानक पिलात इतनी भयंकर
आवाज़ में चिल्लाया कि येशू लड़खड़ा गया. ठीक ऐसी ही आवाज़ में कई साल पहले देव घाटी
में अपने घुड़सवारों पर पिलात चिल्लाया था :’उन्हें काटो!
उन्हें काटो! भीमकाय क्रिसाबोय घिर गया है!’ आवाज़ को और अधिक ऊँचा करके, आज्ञा देते-देते फट चुकी
आवाज़ से शब्द इस प्रकार फेंकते हुए कि उन्हें उद्यान में भी सुना जा सके, वह चिल्लाया, “अपराधी! अपराधी! अपराधी!”
और फिर तुरंत आवाज़ नीची करके बोला, “येशू हा-नोस्त्री, क्या तुम किन्हीं ईश्वरों में विश्वास करते हो?”
“ईश्वर एक है,” येशू ने उत्तर दिया, “मैं उसमें विश्वास करता हूँ.”
” तो उसकी प्रार्थना करो! पूरी शक्ति के साथ प्रार्थना करो! फिर भी...” पिलात की आवाज़ डूब गई, “इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है. तुम्हारी पत्नी नहीं है?” विषादपूर्वक पिलात ने पूछा, वह समझ नहीं पा रहा था
कि उसे क्या हो रहा है.
“नहीं, मैं अकेला हूँ.”
“घिनौना शहर...” अचानक न जाने क्यों न्यायाधीश
बुदबुदाया और उसने कन्धे उचकाए मानो वे सुन्न पड़ गए हों, और
हाथ एक दूसरे पर मले, जैसे कि उन्हें धो रहा हो, “अगर तुम्हें किरिएफ के जूड़ा से मिलने से पहले ही काट दिया जाता तो कितना
अच्छा होता.”
“काश, तुम मुझे छोड़ देते, महाबली,” अकस्मात् कैदी ने विनत्ई की और उसकी आवाज़ कँपकँपा गई, “मैं देख रहा हूँ कि लोग मुझे मार डालना चाहते हैं.”
पिलात का चेहरा ऐंठन के मारे विकृत हो गया. उसने येशू की ओर अपनी सूजी हुई
लाल आँख़ें घुमाईं और बोला, “अभागे, तुम सोच रहे हो कि रोम
का न्यायाधीश वह सब कहने वाले व्यक्ति को छोड़ देगा जो तुमने कहा है? हे भगवान! या तुम सोच रहे हो कि मैं तुम्हारे स्थान पर खड़ा होना चाहता हूँ?
मैं तुम्हारे विचार से सहमत नहीं हूँ! और तुम मेरी बात सुनो : अगर
अब तुमने किसी से भी एक भी शब्द कहा तो मुझसे बच नहीं आओगे! मैं फिर कहता हूँ,
अपने आप को बचाओ.”
“महाबली...”
“ख़ामोश!” पिलात चीखा और उसने उन्मादभरी दृष्टि
उस चिड़िया पर डाली, जो फिर से उड़कर दालान में आ गई थी, “मेरे पास आओ!” पिलात चिल्लाया.
और जब सचिव और अंगरक्षक अपने-अपने स्थान को वापस लौटे तो पिलात ने घोषणा की
कि वह सिनेद्रिओन की निचली अदालत द्वारा अपराधी येशू हा-नोस्त्री के लिए सिफारिश
किए गए मृत्युदण्ड की पुष्टि करता है. सचिव ने पिलात की सुनाई गई घोषणा को लिख
लिया.
एक मिनट बाद न्यायाधीश के सम्मुख मार्क क्रिसाबोय खड़ा था. न्यायाधीश ने उसे
कैदी को गुप्तचर सेवा के प्रमुख को सौंपने की आज्ञा दी. साथ ही उसे न्यायाधीश का
यह आदेश सुनाने के लिए कहा गया कि येशू हा-नोस्त्री को अन्य सभी कैदियों से
अलग-थलग रखा जाए और गुप्तचर सेवा से संबंधित कोई भी व्यक्ति येशू से कुछ भी बात न
करे और न ही उसके किसी प्रश्न का उत्तर दे, अन्यथा उन्हें कठोर दण्ड दिया जाएगा.
मार्क के इशारे पर अंगरक्षक येशू पर झपट पड़ा और उसे दालान से बाहर ले गया.
इसके पश्चात् न्यायाधीश के सम्मुख एक सुदृढ़, भूरी दाढ़ी वाला सुदर्शन पुरुष
उपस्थित हुआ, जिसके सीने पर सिंह की मुंडमाला चमक रही थी,
उसके शिरस्त्राण पर गरुड़ के पंख थे, तलवार की
मूठ सोने की थी, घुटनों तक तिहरी एड़ियों वाले जूते थे और
दाएँ कन्धे पर एक लाल रंग का अंगवस्त्र था. यह रोमन सेना की टुकड़ी का प्रमुख था.
न्यायाधीश ने उससे पूछा कि सेबेस्तियन टुकड़ी इस समय कहाँ है. प्रमुख ने उत्तर दिया
कि यह टुकड़ी घुड़दौड़ के मैदान के सामने वाले चौक को घेरे हुए खड़ी है, जहाँ कैदियों को आज सज़ा सुनाई जाने वाली है.
तब न्यायाधीश ने आदेश दिया कि रोम की इस सैन्य टुकड़ी के दो भाग किए जाएँ.
पहला क्रिसाबोय के नेतृत्व में अपराधियों
की रक्षा करता रहे, फाँसी के तख़्तों की और जल्लादों की गंजे पहाड़ पर जाते समय
रक्षा करे और वहाँ पहुँचने पर उनके चारों ओर घेरा बनाकर खड़ा हो जाए. दूसरा भाग अभी,
इसी समय गंजे पहाड़ पर भेजा जाए जो तुरंत उसकी घेराबन्दी प्रारंभ कर
दे. इसी उद्देश्य से यानी कि पहाड़ की रक्षा के लिए, एक
अतिरिक्त घुड़सवार टुकड़ी, सीरियन टुकड़ी, वहाँ भेजी जाए.
जब सेना टुकड़ी का प्रमुख दालान से चला गया तो न्यायाधीश ने सचिव को
सिनेद्रिओन के अध्यक्ष, उसके दो सदस्यों और येरुशलम की मन्दिर की सुरक्षा टुकड़ी के
प्रमुख को महल में बुलाने के लिए कहा. साथ ही यह भी कहा कि इन सभी लोगों से मिलने
से पहले वह अध्यक्ष से अलग और अकेले में बात करना चाहता है.
न्यायाधीश की आज्ञा का तुरंत और सही-सही पालन किया गया. सूर्य, जो
कि मानो दाँत-होठ पीसकर इन दिनों येरुशलम को जला रहा था, अपनी
चरम ऊँचाई तक पहुँचने भी न पाया था कि बाग की ऊपरी छत पर सीढ़ियों की रक्षा कर रहे
संगमरमर के दो सिंहों के पास न्यायाधीश ने सिनेद्रिओन के अध्यक्षपद पर कार्य कर
रहे जूड़िया के धर्मगुरु यूसुफ कैफ़ से मुलाक़ात की.
उद्यान में शांति थी. मगर स्तम्भों के बीच से, सूरज
की रोशनी में नहाए हाथी के अजस्त्र पैरों पर स्थित लिन्डन के वृक्षों के उद्यान की
ऊपरी छत पर आते हुए, जहाँ से न्यायाधीश के सामने उसे
घृणास्पद लगने वाला येरुशलम शहर दिखाई देता था - अपने हवा में लटकते पुलों,
बुर्जों और सबसे अवर्णनीय, संगमरमर से बने,
छत के स्थान पर एक विशालकाय सोने के सर्प के जबड़े से ढँके येरुशलम
के मन्दिर के साथ - न्यायाधीश के पैने तीक्ष्ण कानों ने दूर, नीचे, जहाँ पत्थर की एक दीवार शहर को इस उद्यान से
अलग करती थी, क्षीण आवाज़ें सुनीं, जिन्हें
बीच-बीच में कुछ कराहने की, कुछ चिल्लाने की आवाज़ें दबा देती
थीं.
न्यायाधीश ने अनुमान लगाया कि चौक में अभी से येरुशलम में हाल ही में घटित
आतंकवादी घटनाओं से परेशान लोगों की भीड़ एकत्रित हो गई है. यह भीड़ बड़ी बेचैनी से
अपराधियों को सुनाई जाने वाली सज़ा का इंतज़ार कर रही है. इस भीड़ में पानी बेचने
वाले चिल्ला रहे हैं
न्यायाधीश ने प्रारंभ में धर्म-गुरु को दालान में बुलाया जिससे कि बेरहम
धूप से अपने को बचा सके, मगर कैफ़ ने नम्रतापूर्वक कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता. तब
पिलात ने अपने गंजे हो रहे सिर के ऊपर टोपी पहन ली और बातचीत शुरू की. यह वार्तालाप
ग्रीक भाषा में चलता रहा.
पिलात ने कहा कि उसने येशू हा-नोस्त्री के मामले की जाँच-पड़ताल कर ली है और
मृत्युदण्ड की पुष्टि कर दी है.
इस प्रकार, मृत्युदण्ड, जो आज ही सम्पन्न किया जाएगा, तीन डाकुओं को दिया गया है : दिसमास, गेस्तास,
वाररव्वान – साथ ही इस येशू
हा-नोस्त्री को भी. पहले दो ने सम्राट के विरुद्ध क्रांति करने के लिए लोगों को
तैयार किया था. इन्हें रोम के साम्राज्य ने युद्ध करके बन्दी बनाया था, जिसका श्रेय न्यायाधीश को जाता है और इस कारण उनके बारे में कोई विचार
नहीं किया जाएगा. शेष दो, वाररव्वान और येशू हा-नोस्त्री को
स्थानीय शासन ने बन्दी बनाया है और सिनेद्रिओन ने उन पर अभियोग चलाया है. नियम और
प्रथा के अनुसार, इन दोनों में से एक को शीघ्र ही निकट आते
हुए त्यौहार ईस्टर (यहूदियों के लिए यह ‘पासोवर’ कहलाता है – चारुमति) के सम्मान में मुक्त करना होगा.
और इसलिए न्यायाधीश यह जानना चाहते हैं कि सिनेद्रिओन इन दो अभियुक्तों में
से किसे स्वतंत्र करना चाहते हैं : वाररव्वान को अथवा हा-नोस्त्री को?
कैफ़ ने सिर झुकाया यह दर्शाने के लिए कि वह प्रश्न को समझ गया है और फिर
बोला, “सिनेद्रिओन यह निवेदन करता है कि वाररव्वान को मुक्त कर दिया जाए.”
न्यायाधीश अच्छी तरह जानता था कि धर्म-गुरु उसे यही उत्तर देगा, मगर
उसका काम था धर्म-गुरु के इस उत्तर पर विस्मय प्रकट करना. पिलात ने निपुणता से यही
किया. उसके उद्दण्ड चेहरे की दोनों भौंहें ऊपर उठीं, न्यायाधीश
ने विस्मय से सीधे धर्म-गुरु की आँखों में झाँका.
“स्वीकार करता हूँ कि इस उत्तर ने मुझे विस्मित कर दिया,” हौले से न्यायाधीश ने कहा, “मुझे डर है कि यहाँ
कोई गलतफ़हमी तो नहीं हुई?”
पिलात ने स्पष्ट किया कि रोमन साम्राज्य स्थानीय धार्मिक साम्राज्य के
अधिकारों का हनन करना नहीं चाहता, धर्मपुजारी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं, मगर इस स्थिति में निश्चय ही स्पष्ट रूप से गलती हुई है. इस गलती को
सुधारने में रोमन साम्राज्य की दिलचस्पी है.”
बात यह है कि : जहाँ तक अपराधों की गंभीरता का प्रश्न है, वाररव्वान
और हा-नोस्त्री के अपराधों की कोई तुलना नहीं की जा सकती. प्रकट रूप से सिरफिरे
दूसरे को अगर कुछ ऊलजलूल बातें कहते हुए पाया गया, जिन्होंने
येरुशलम और आसपास के लोगों को बहकाया है तो पहले का अपराध कहीं अधिक गंभीर है.
उसने न केवल लगों को खुल्लमखुल्ला बगावत के लिए भड़काया बल्कि चौकीदार को भी
पकड़ने की कोशिश में मार डाला. हा-नोस्त्री की तुलना में वाररव्वान कहीं अधिक
ख़तरनाक है.
इन सब बातों को देखते हुए न्यायाधीश यह आशा करते हैं कि सिनेद्रिओन द्वारा
सुनाए गए निर्णय पर एक बार फिर विचार किया जाए और इन दोनों अभियुक्तों में से जो
कम ख़तरनाक है, उसे स्वतंत्र कर दिया जाए. और कम ख़तरनाक निश्चित ही
हा-नोस्त्री है. ठीक है?
कैफ़ ने सीधे पिलात की आँखों में देखते हुए धीमी किंतु दृढ़ आवाज़ में कहा कि
सिनेद्रिओन ने ध्यान से इस मामले पर विचार किया है और वह यह दुहराता है कि
सिनेद्रिओन वाररव्वान को क्षमा प्रदान करने के पक्ष में है.
“क्या? मेरे प्रार्थना करने के बावजूद? उसकी प्रार्थना के बावजूद, जिसके रूप में रोमन
साम्राज्य आपसे मुख़ातिब है? धर्म-गुरु, तीसरी बार कहो.”
“तीसरी बार भी हम यही सूचित करते हैं कि हम वाररव्वान को मुक्त करते हैं,” धीमे से कैफ़ ने कहा.
सब ख़त्म हो गया, बोलने के लिए कुछ शेष न रहा. हा-नोस्त्री सदा के लिए चला
जाएगा और न्यायाधीश की भयंकर और दुष्ट पीड़ा का इलाज करने वाला कोई न रहेगा;
इन पीड़ाओं का मृत्यु के अलावा और कोई इलाज नहीं है. मगर पिलात को इस
समय इस विचार ने आश्चर्यचकित नहीं किया था. उसी अनबूझ विषाद ने, जिसने बरामदे में खड़े होते समय उसे घेर लिया था, उसके
सम्पूर्ण अस्तित्व को भोंक दिया. उसने इस उदासी का कारण जानने की कोशिश की और पाया
कि कारण विचित्र था : न्यायाधीश को लगा मानो वह कैदी से कुछ पूछना भूल गया है,
शायद उसकी कोई बात उसने नहीं सुनी है.
पिलात ने प्रयत्नपूर्वक इस विचार को दिमाग से निकाल दिया और वह जिस प्रकार
उसके मस्तिष्क में आया था, उसी प्रकार उड़ गया. मगर उदासी फिर भी दूर नहीं हुई. इस
उदासी को अचानक बिजली की तरह कौंधकर लुप्त हो जाने एक दूसरा छोटा-सा विचार भी नहीं
समझा सका : ‘अमरत्व...मृत्युहीनता आ गई है...’ किसकी मृत्युहीनता आ गई है? न्यायाधीश समझ नहीं पाए,
मगर इस रहस्यमय मृत्युहीनता के विचार ने न्यायाधीश के बदन में प्रखर
धूप के बावजूद कँपकँपी भर दी.
“अच्छा,” पिलात ने कहा, “ऐसा ही होगा.”
उसने अपने चारों ओर की सृष्टि पर नज़र दौड़ाई और इस सृष्टि में हुए परिवर्तन
को देखकर वह बौखला गया. गुलाबों से भरपूर डाली टूट चुकी थी.बरामदे की ऊपरी छत के
किनारे लगे सरू के पेड़ भी टूट चुके थे. अंजीर का पेड़, छाया
में खड़ा सफ़ेद बुत और हरियाली भी गायब थे. इन सबके स्थान पर कोई गुलाबी से झुरमुट आ
गए, जिनमें काई तैर रही थी और न जाने कहाँ बहती जा रही थी,
उनके साथ पिलात भी बहता जा रहा था. अब उसे अपने साथ बहा ले जा रहा
था, दम घोंटता हुआ और जलाता हुआ दुनिया का सबसे भयंकर भय – शक्तिहीनता का भय.
“मेरा दम घुट रहा है,” पिलात कराहा, “दम घुट रहा है!” उसने ठण्डे गीले हाथ से अंगरखे
का बटन तोड़ डाला, जो नीचे रेत पर गिर गया.
“आज उमस है, कहीं से तूफ़ान आ रहा है...” न्यायाधीश के लाल चेहरे से निगाहें हटाए बिना और सभी सम्भाव्य विपदाओं की
कल्पना करते हुए कैफ़ बोला, “ओह, इस
वर्ष निसान का महीना कितना भयंकर है.”
“नहीं,” पिलात बोला, “यह उमस के कारण नहीं है, कैफ़, मेरा
दम तुम्हारे कारण घुट रहा है,” और अपनी आँखों को बारीक
करते हुए पिलात मुस्कुराकर बोला, “अपनी हिफ़ाज़त करना,
धर्म-गुरु.”
धर्म-गुरु की आँखें चमक उठीं. उसने बिल्कुल उसी प्रकार विस्मय का प्रदर्शन
किया जैसा कि कुछ देर पहले न्यायाधीश कर चुका था.
“यह मैं क्या सुन रहा हूँ, न्यायाधीश?” स्वाभिमानपूर्वक और शांति से कैफ़ ने पूछा, “तुम
मुझे उस दण्ड के निर्णय के लिए धमकी दे रहे हो, जिसका
अनुमोदन स्वयँ तुमने भी किया है? क्या यह संभव है? हम तो इस बात के आदी हैं कि रोमन न्यायाधीश बात कहने से पहले शब्दों का
भली प्रकार चयन करते हैं. महाबली, हमारी बातें किसी ने सुनी
तो नहीं/”
पिलात ने बुझी हुई आँखों से धर्म-गुरु की ओर देखा और फिर दाँत पीसते हुए
मुस्कुराया.
“क्या कहते हो, धर्म-गुरु! हमारी बातें भला यहाँ कौन
सुन सकता है? क्या मैं उस नौजवान सिरफिरे आवारा की तरह हूँ
जिसे आज मृत्युदण्ड दिया जाने वाला है? क्या मैं बच्चा हूँ,
कैफ़? मुझे मालूम है कि मैं क्या कह रहा हूँ.
उद्यान के चारों ओर घेराबन्दी है, महल भी चारों ओर से
रक्षकों द्वारा घिरा हुआ है, इस प्रकार कि किसी छोटे से छेद
से एक चूहा भी अन्दर नहीं आ सकता! न केवल चूहा, वह भी अन्दर
नहीं आ सकता, क्या कहते हैं उसे...किरियेफ शहर वाला. ख़ैर,
धर्म-गुरु! क्या तुम उसे जानते हो? हाँ...अगर
वैसा आदमी अन्दर आ जाए तो उसे अफ़सोस ही होगा, मेरी यह बात तो
तुम भी मानोगे? तो तुम जान लो, धर्म-गुरु
कि आज से तुम्हें चैन नहीं मिलेगा! न तुम्हें, न तुम्हारी
जनता को,” और पिलात ने दाहिनी ओर इशारा किया जहाँ दूर,
ऊँचाई पर मन्दिर दहक रहा था, “यह तुम्हें
मैं बता रहा हूँ, मैं, पोंती वाला
पिलात, सुनहरे भाले वाला अश्वारोही!”
“मालूम है, मालूम है!” काली
दाढ़ी वाले कैफ ने निर्भयता से कहा और उसकी आँखें चमक उठीं. उसने आकाश की तरफ हाथ
उठाया और आगे बोला, “जूडिया की जनता जानती है कि तुम
उससे घृणा करते हो और उसे बड़े कष्ट देने वाले हो, मगर फिर भी
तुम उसे ख़त्म नहीं कर पाओगे! ईश्वर उसकी रक्षा करेगा! महामहिम सम्राट हमारी पुकार
भी सुनेंगे, हमें खूनी पिलात से बचाएँगे!”
“ओह, नहीं!...” पिलात
विस्मय से चिल्लाया. हर शब्द के साथ उस पर से बोझ उतरता गया. वह अपने आपको बहुत
हल्का महसूस करने लगा. और ज़्यादा दिखावा करने की, शब्दों को
चुनने-तौलने की ज़रूरत नहीं है, “तुम सम्राट से मेरी
काफी शिकायत कर चुके हो, और अब मेरी बारी है, कैफ़! अब मेरी तरफ़ से ख़बर जाएगी, न अंतिखिया, न रोम, सीधे सम्राट के पास काप्रे, सीधे सम्राट को, कि तुम किस तरह बगावत करने वालों को
मौत के मुँह से बचाकर येरुशलम में छुपाते हो. और तब मैं येरुशलम को सोलौमन तालाब
का पानी नहीं पिलाऊँगा, जैसा कि मैं पहले करना चाहता था.
नहीं, पानी नहीं! याद करो, तुम्हारे
कारण मुझे सम्राट की मुद्रा वाली ढाल दीवार से उतारनी पड़ी, सेनाओं
को मिलाना पड़ा, मुझे स्वयँ, देखते हो,
स्वयँ यहाँ आना पड़ा, यह देखने के लिए कि यहाँ
क्या हो रहा है! मेरे शब्द याद रखना, धर्म-गुरु, येरुशलम में तुम न केवल एक सैनिक टुकड़ी देखोगे. फुलमिनात की पूरी टुकड़ी
दीवार के नीचे आ जाएगी, अरबी घुड़सवार धावा बोल देंगे और तब
तुम सुनोगे करुण रुदन और कराहें...तब तुम मुक्त किए गए वाररव्वान को याद करोगे और
तुम्हें अफसोस होगा कि तुमने दार्शनिक को उसके शांतिपूर्ण उपदेशों सहित मृत्यु के
मुख में क्यों भेज दिया.”
धर्मगुरु के चेहरे पर धब्बे उभर आए, आँखें जलने लगीं. वह भी न्यायाधीश की
तरह ही हँसा, और दाँत भींचते हुए बोला, “न्यायाधीश, क्या जो कुछ तुमने अभी कहा है, क्या तुम स्वयँ भी उस पर विश्वास करते हो? नहीं,
बिल्कुल नहीं! यह फुसलाने वाला जादूगर, येरुशलम
में शांति नहीं लाया है, और तुम, अश्वारोही,
यह अच्छी तरह जानते हो. तुम उसे इसलिए उसे आज़ाद करना चाहते हो,
ताकि वह लोगों को भ्रम में डालकर उनके धार्मिक विश्वास को चोट
पहुँचाए और जनता को रोम की तलवार के नीचे डाल दे! मगर मैं, जूड़िया
का धर्म-गुरु, जब तक जीवित हूँ, धर्म
का मख़ौल नहीं उड़ाने दूँगा और जनता की रक्षा करूँगा! तुम सुनते हो, पिलात?” कैफ़ ने धमकी के अन्दाज़ में अपना हाथ
उठाया, “तुम समझ लो, न्यायाधीश!”
कैफ़ ख़ामोश हो गया. न्यायाधीश के कानों में फिर से समुद्र का शोर गूँजा, जो
हिरोद के महल की दीवारों तक आ गया था. यह शोर न्यायाधीश के पैरों से प्रारम्भ होकर
उसके चेहरे तक आ गया. उसकी पीठ के पीछे, महल के द्वार के
बाहर नगाड़ों और बिगुलों की ध्वनि गूँज उठी, सैकड़ों पैरों की धमधमाहट,
तलवारों की खनखनाहट...न्यायाधीश समझ गया कि रोमन पैदल सैन्य की
टुकड़ी महल से बाहर जा रही है...उसकी आज्ञा के मुताबिक, मृत्युदण्ड-पूर्व
की परेड के लिए जो डाकुओं और क्रांतिकारियों के मन में भय पैदा कर देती है.
“तुम सुनते हो, न्यायाधीश?” हौले से धर्मगुरु ने पूछा, “शायद तुम यह कहोगे,” उसने अपने हाथ आकाश की ओर उठाए, जिससे उसके सिर की
काली टोपी नीचे गिर गई, “कि यह सब उस दयनीय डाकू
वाररव्वान का किया धरा है?”
न्यायाधीश ने हाथ के पीछे के भाग से गीला ठण्डा माथा पोंछा. ज़मीन की ओर
देखा, फिर
आँखें सिकोड़कर आकाश की ओर देखा. सूरज का लाल-लाल गोला लगभग उसके सिर पर था,
कैफ़ की परछाईं सिंह की पूँछ से मानो चिपक गई थी. उसने धीरे से और
उदासीनता से कहा, “दोपहर होने को आई. हम बातों-बातों
में भटक गए, ख़ैर, बातचीत जारी रख सकते
हैं.”
शालीनता से उसने धर्म-गुरु से माफ़ी माँगी, उसे मग्नोलिया की छाँह में बेंच पर
बैठकर अन्य व्यक्तियों की प्रतीक्षा करने के लिए कहा, जिनकी
एक छोटी-सी सभा में वह मृत्युदण्ड से सम्बंधित कुछ निर्देश देने वाला था.
कैफ़ ने विनम्रता से झुक सीने पर हाथ रखकर अभिवादन किया और वह उद्यान में ही
रहा, पिलात
बरामदे में लौट आया. वहाँ उसकी राह देख रहे सचिव से उसने सैन्य टुकड़ी के प्रमुख,
सिनेद्रिओन के दो सदस्यों और मन्दिर सुरक्षा प्रमुख को बुलाने के
लिए कहा. ये लोग निचली छत पर फव्वारे के पास न्यायाधीश के बुलावे का इंतज़ार कर रहे
थे. पिलात ने यह भी कहा कि वह अभी-अभी वापस आएगा और महल के अन्दरूनी भाग में चला
गया.
जब तक सचिव इस छोटी-सी सभा का आयोजन करने में व्यस्त था, न्यायाधीश
महल के अन्दर सूरज की रोशनी से बचाते मोटे-मोटे काले परदों वाले कमरे में एक
व्यक्ति से मिला. हालाँकि इस अँधेरे कमरे में सूर्य की किरणें उसे ज़रा भी तंग नहीं
कर सकती थीं, फिर भी उसका आधा चेहरा टोपी से ढँका था. यह
मुलाक़ात अत्यंत संक्षिप्त थी. न्यायाधीश ने धीमे स्वर में इस व्यक्ति से कुछ शब्द
कहे, जिनको सुनकर वह दूर चला गया और पिलात स्तम्भों वाले
दालान से होकर उद्यान में आ गया.
वहाँ उन सबकी उपस्थिति में, जिन्हें उसने बुला भेजा था, पिलात ने गम्भीरता से और रुखाई से इस बात को दोहराया कि येशू हा-नोस्त्री
को दिए गए मृत्युदण्ड का अनुमोदन करता है, और सरकारी तौर पर
उसने सिनेद्रिओन के सदस्यों से पूछा कि वे किसे जीवनदान देना चाहते हैं. जवाब
मिलने पर कि वाररव्वान को, न्यायाधीश ने कहा, “बहुत अच्छा.” और तत्काल सचिव को इसे लिपिबद्ध
कर लेने को कहा. सचिव द्वारा रेत से उठाकर दिए गए अंगरखे के बटन को पकड़कर उसने
गम्भीरता से कहा, “चलें.”
सभी उपस्थित व्यक्ति संगमरमर की चौड़ी सीढ़ियों से गुलाब की दीवारों के बीच
से गुज़रते हुए नीचे उतरे, जो अपनी पागल कर देने वाली सुगन्ध बिखेरते जा रहे थे,
नीचे, और नीचे उतरते हुए महल की दीवारों तक,
द्वार तक पहुँचे जो एक चिकने चौक तक ले जाते थे., जिसके दूसरे छोर पर येरुशलम की व्यायामशाला के खम्भे और बुत दिखाई दे रहे
थे.
जैसे ही व्यक्तियों का यह छोटा-सा समूह उद्यान से चौक और उस चौक पर पत्थर
से बने ऊँचे चबूतरे तक पहुँचा, पिलात अपनी पलकों को सिकोड़ते हुए स्थिति का जायज़ा लेता
रहा. वह चौक, जो अभी अभी उसने पार किया था, अर्थात् महल की दीवार से चबूतरे तक की जगह, बिल्कुल
खाली थी, मगर पिलात को अपने सामने चौक कहीं नज़र नहीं आ रहा
था – उसे भीड़ खा गई थी. वह उस चबूतरे और ख़ाली जगह
तक भी पहुँचने के लिए उमड़ी पड़ रही थी. पिलात के कई और सेबास्तियन सिपाही और दाईं
ओर इतुरिया की सहायक टुकड़ी तीन-तीन कतारों में उसे रोक रही थी.
पिलात ऊँचे चबूतरे पर बने मंच पर पहुँचा – मुट्ठी में अनावश्यक बटन
को यंत्रवत् भींचते और आँखों को मींचते. आँखों को न्यायाधीश इसलिए नहीं सिकोड़ रहा
था, कि सूर्य उसकी आँखों को जला रहा था, बल्कि इसलिए कि वह फाँसी के फँदे पर लटकाए जाने वालों को नहीं देखना चाहता
था, जिन्हें थोड़ी ही देर में वहाँ लाया जाने वाला था.
जैसे ही रक्तवर्णीय किनारी वाला सफेद अंगरखा मानवी समुद्र से काफ़ी ऊँचाई पर
पत्थर के चबूतरे की नोक पर दिखाई दिया, न देखने वाले पिलात के कानों में
आवाज़ की एक लहर टकराई : “हा...आ...आ...” यह लहर धीमे और निचले सुर में प्रारम्भ हुई, उसका
उद्गम स्थान घुड़दौड़ के मैदान के समीप कहीं था, फिर ऊँचे स्वर
में शोर की भाँति विराट हो उठी, कुछ क्षणों तक वैसे ही
गूँजते रहने के बाद फिर नीचे गिरने लगी. ‘मुझे देख
लिया...’ न्यायाधीश ने सोचा. आवाज़ की लहर न्यूनतम
बिन्दु तक पहुँचने से पूर्व ही अप्रत्याशित रूप से फिर उच्चतम बिन्दु की ओर चल पड़ी
और लहराते हुए, पहली ध्वनि से अधिक विराट हो गई. इस दूसरी
लहर में जैसे कि समुद्र का फ़ेन उठता है, सीटियों की आवाज़ और
तूफानी गड़गड़ाहट के बीचे सबसे भिन्न प्रतीत होती स्त्रियों के कराहने की आवाज़ें
तैरने लगीं, ‘अब उन्हें फाँसी के तख़्तों तक लाया जा रहा
है...’ पिलात ने सोचा, ‘और
ये कराहें इसलिए कि आगे की ओर बढ़्ती भीड़ ने कुछ महिलाओं को धक्का-मुक्की के बीच
कुचल दिया है.’
उसने कुछ देर तक प्रतीक्षा की. जब तक भीड़ अपनी सारी भावनाओं को व्यक्त नहीं
कर लेती, और अपने आप चुप नहीं हो जाती, उसे
किसी भी तरीके से चुप नहीं किया जा सकता.
और जब वह घड़ी आई, न्यायाधीश ने अपना दाहिना हाथ ऊपर की ओर उठाया और भीड़ से
रहा-सहा शोर भी ख़त्म हो गया.
तब जितनी गर्म हवा सम्भव थी, साँस द्वारा पिलात ने खींच ली और वह
चिल्लाया, उसकी फटी-फटी आवाज़ हज़ारों सिरों के ऊपर गूँज उठी.
“शहंशाह कैसर की आज्ञा से!” उसके कानों में लोहे
की खनखनाहट की आवाज़ कई बार टकराई. सेना की टुकड़ियों में अपने भाले और चिह्नों को
ऊपर उठाकर सिपाही गरजते हुए चिल्लाए, “कैसर की जय हो!”
पिलात ने सिर ऊपर उठाया और सीधा सूरज की ओर मोड़ा. उसकी पलकों के नीचे हरी
आग दहक उठी. इस आग से उसका दिमाग जलने लगा, और भीड़ के ऊपर भर्राए हुए अरबी शब्द
तैर गए : “चारों अभियुक्तों को, जिन्हें
येरुशलम में हत्या, बग़ावत और कानून तथा धार्मिक विश्वास का
अपमान करने के जुर्म में पकड़ा गया है, उन्हें फाँसी के तख़्ते
पर लटकाने का मृत्युदण्ड सुनाया गया है! और अब इस गंजे पहाड़ पर यह मृत्युदण्ड
सम्पन्न किया जाएगा! इन अभियुक्तों के नाम हैं – दिसमास,
गेस्तास, वाररव्वान और हा-नोस्त्री. ये सब
आपके सामने हैं!”
बिना किसी अभियुक्त की ओर देखे पिलात ने दाहिनी ओर हाथ बढ़ा दिया, यह
जाने बिना कि वे ठीक उसी स्थान पर हैं या नहीं, जहाँ उन्हें
होना चाहिए.
भीड़ ने लम्बे शोर से प्रत्युत्तर दिया. यह शोर या तो विस्मयजनित था या राहत
के कारण. जब शोर ख़त्म हुआ, पिलात आगे बोला, “मगर फाँसी पर
लटकाया जाएगा केवल तीन को, क्योंकि नियम और प्रथा के अनुसार
ईस्टर के त्यौहार के उपलक्ष्य में किसी एक अभियुक्त का, जिसका
चयन निचले सिनेद्रिओन ने कर लिया है, और जिसका रोमन शासन ने
अनुमोदन कर दिया है, घृणित जीवन महान सम्राट कैसर लौटाते
हैं!”
पिलात चिल्लाकर अपनी बात कहता रहा. साथ ही सुनता रहा कि किस प्रकार शोर के स्थान
पर गम्भीर सन्नाटा छा गया. अब उसके कानों तक किसी भी प्रकार की आहें, कराहें,
सरसराहट नहीं पहुँच रही थी. एक क्षण के लिए पिलात को लगा मानो उसके
चारों ओर हर एक चीज़ लुप्त हो गई हो. जैसे वह शहर मर गया हो, जिससे
वह घृणा करता था और सिर्फ वही अकेला खड़ा है, सूरज की सीधी
किरणों से झुलसता हुआ. आकाश की ओर मुँह उठाए पिलात ने कुछ देर तक सन्नाटे को जारी
रखा और फिर चिल्लाकर कहना शुरू किया – “जिसे आपके
सामने अभी स्वतंत्र किया जाएगा उसका नाम है...”
वह और कुछ क्षणों तक चुप रहा, नाम अपने होठों पर रोके हुए, सोचते हुए कि उसने सब कुछ ठीकठाक कह दिया है, क्योंकि
वह जानता था कि यह मृतप्राय जनता उस सौभाग्यशाली व्यक्ति का नाम सुनकर पुनर्जीवित
हो उठेगी और तब एक भी शब्द किसी को सुनाई नहीं देगा.
“सब हो गया?” पिलात ने अपने आप से फुसफुसाकर
पूछा – “हाँ, सब कुछ. नाम!”
और ‘र’ शब्द को ख़ामोश शहर के
ऊपर खोलते हुए चिल्लाया, “वाररव्वान!”
उसे एकदम ऐसा लगा मानो सूरज झनझनाहट के साथ उस पर गिर पड़ा हो. उसके कानों
में आग बरसा गया हो. इस आग में उबल रहे थे स्पर्धा, सीटियाँ, कराहें,
हँसी और चीत्कार.
पिलात मुड़ा और पत्थर के चबूतरे से होता हुआ सीढ़ियों की ओर बढ़ा. वह किसी ओर
नहीं देख रहा था, सिवा रंग-बिरंगे पत्थरों के, जिससे
कि वह सीढ़ियों पर से फिसल न पड़े. वह जानता था कि अब उसके पीछे फाँसी के तख़्तों
वाले चबूतरे पर काँसे के सिक्के गिरेंगे. लोग इस उमड़ती हुई भीड़ में एक-दूसरे को
दबाते हुए, एक-दूसरे के कन्धों पर चढ़कर देखेंगे अपनी आँखों
से एक आश्चर्य – किस प्रकार एक आदमी मृत्यु के मुख
से सकुशल बाहर निकल आया है. कैसे अंगरक्षक उसकी बेड़ियाँ हटाएँगे, ऐसा करते हुए उसके ज़ख़्मी हाथों को अनचाहे ही पीड़ा पहुँचाएँगे, कैसे वह, कराहते हुए, माथे पर
बल डालते हुए एक अर्थहीन पागल-सी मुस्कान बिखेरेगा.
वह जानता था कि ठीक उसी समय घुड़सवार अन्य तीनों अभियुक्तों को, जिनके
हाथ बँधे हुए हैं, सीढ़ियों की ओर ले जा रहे होंगे, ताकि उन्हें पश्चिम की ओर जाने वाले, शहर से बाहर,
गंजे पहाड़ वाले रास्ते पर ले जा सकें. इस चबूतरे से दूर हटने पर
पिलात ने आँखें खोलीं. वह जानता था कि अब कोई भय नहीं है. अब अभियुक्त उसकी दृष्टि
से ओझल हो गए थे.
भीड़ की मन्द पड़ती कराहों में अब ढिंढोरा पीटने वालों की कर्कश पुकार अलग से
सुनाई पड़ रही थी जो पिलात के फैसले का अरबी और ग्रीक भाषा में अनुवाद लोगों को
सुना रहे थे. इसके अलावा उसके कानों में टूटी-फूटी, चर्र-मर्र करती निकट आती हुई घोड़ों
की टापों की और बिगुल की आवाज़ सुनाई दी, जो कुछ चिल्लाकर
कहना चाह रही थी, संक्षिप्त-सा, खुशगवार-सा.
इन आवाज़ों के प्रत्युत्तर में नौजवानों की तीखी सीटी की आवाज़ सुनाई दी. नौजवान घुड़दौड़
के मैदान से बाज़ार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे बने मकानों की छतों पर थे,
साथ ही सुनाई दी एक चीख : “संभालना!”
ख़ाली हो चुके मैदान में अकेले खड़े सिपाही ने घबराकर कुछ इशारा किया और
न्यायाधीश, सैन्य टुकड़ी का प्रमुख, सचिव और
अंगरक्षक वहीं रुक गए.
घुड़सवारों की टुकड़ी मैदान की ओर लपक पड़ी, ताकि उसे बगल से घेर कर लोगों का
वहाँ आना रोक सके और नुक्कड़ पर, पत्थर की दीवार के नीचे से,
जहाँ अंगूर की बेल पसरी पड़ी थी, छोटे वाले
रास्ते से गंजे पहाड़ की ओर जा सके.
घुड़सवारों की टुकड़ी का सीरियाई प्रमुख, जो एक बच्चे जितना छोटा और काला था,
अपने घोड़े पर मानो उड़ता हुआ आया. पिलात के निकट आकर अपनी बारीक आवाज़
में कुछ चिल्लाया और उसने म्यान से तलवार बाहर निकाल ली. दुष्ट, कौवे के समान काला घोड़ा लड़खड़ाया और अपनी पिछली टाँगों पर खड़ा हो गया.
तलवार म्यान में घुसाकर कमाण्डर ने घोड़े को चाबुक से कन्धे पर मारा, उसे चारों पैरों पर खड़ा किया और नुक्कड़ की ओर चला गया. घोड़ा सरपट चल रहा
था. नायक के पीछे धूल के बवंडर में तीन-तीन की कतार में अश्वारोही दौड़ते गए,
बाँस के पेड़ों के शिखर उछलने लगे, न्यायाधीश
के सामने, सफ़ेद शिरस्त्राणों के कारण कुछ अधिक साँवले नज़र
आते हुए, खुशी से चमकते दाँत निकालते हुए चेहरे गुज़रते रहे.
आकाश तक धूल उड़ाते हुए, अश्वारोहियों की यह टुकड़ी नुक्कड़ वाली गली में घुस गई.
न्यायाधीश के सामने से, सूरज की रोशनी में जगमगाते बिगुल को
पीठ पर बाँधे, आखिरी सिपाही गुज़रा.
हाथों की सहायता से स्वयँ को धूल से बचाते हुए, कुछ
नाराज़गी से चेहरे को सिकोड़ते हुए पिलात आगे बढ़ा. महल के उद्यान के द्वार की तरफ़
उसके पीछे चल पड़े सैन्य टुकड़ी का प्रमुख, सचिव और अंगरक्षक.
सुबह के करीब दस बजे थे.
तीन
सातवाँ प्रमाण
“हाँ, सुबह के करीब दस बजे थे, आदरणीय
इवान निकलायेविच,” प्रोफेसर ने कहा.
कवि ने अपने चेहरे पर हाथ फेरा, मानो अभी-अभी नींद से जागा हो. उसने
देखा पत्रियार्शी पर अँधेरा छा चुका
तालाब का पानी काला नज़र आ रहा था, जिसमें एक छोटी-सी नाव तैर रही थी.
चप्पुओं की आवाज़ के साथ-साथ नाव में बैठी किसी महिला की हँसी भी सुनाई दे रही थी.
वृक्षों के गलियारे में बेंचों पर चौक के तीनों तरफ यहाँ-वहाँ लोग नज़र आ रहे थे,
उस दिशा को छोड़कर जहाँ हमारे मित्र बैठे वार्तालाप कर रहे थे.
मॉस्को के ऊपर का आकाश मानो जगमगा उठा. ऊँचाई पर पूरा चाँद साफ़ दिखाई दे
रहा था. चाँद अब सुनहरा नहीं बल्कि सफ़ेद था. अब साँस लेना आसान हो गया था. लिंडन
वृक्षों के नीचे की आवाज़ें भी साँझ की तरह मद्धिम हो गई थीं.
“मैंने महसूस भी नहीं किया कि उसने एक पूरी कहानी गढ़ ली है?” बिज्दोम्नी ने अचरज से सोचा – “शाम भी हो गई! यह भी हो सकता है कि वह कुछ कह ही न रहा हो और मेरी आँख लग
गई हो, और यह सब मैंने सपने में देखा हो?”
मगर मानना पड़ेगा कि प्रोफेसर ने ही यह सब सुनाया था, नहीं
तो यह मानना पड़ेगा कि बेर्लिओज़ को भी ठीक वैसा ही सपना आया था, क्योंकि वह बड़े ध्यान से विदेशी की ओर देखकर कह रहा था, “आपकी कहानी बहुत रोचक थी प्रोफेसर, हालाँकि वह
बाइबिल की कहानियों से ज़रा भी मेल नहीं खाती.”
“माफ कीजिए,” प्रोफेसर शिष्ठतापूर्वक हँसकर बोला, “आप तो जानते ही होंगे कि बाइबिल में जो कुछ लिखा है, वैसा वास्तव में कभी हुआ नहीं. और यदि हम बाइबिल को ऐतिहासिक प्रमाण
मानें...” वह फिर हँसा. बेर्लिओज़ सिटपिटा गया, क्योंकि ठीक यही बात उसने बिज्दोम्नी से कही थी, जब वह
ब्रोन्नाया सड़क से पत्रियार्शी तालाब की तरफ आ रहे थे.
बेर्लिओज़
ने कहा, “बात यह है कि...मुझे डर है कि कोई भी इस बात
का प्रमाण नहीं दे सकता कि जो कुछ आपने कहा, वह भी वास्तव
में घटित हुआ हो.”
“ओह, नहीं! कोई भी इस बात को सत्य सिद्ध कर सकेगा!” प्रोफेसर ने बड़े अन्दाज़ से दृढ़ स्वर में कहा और अचानक दोनों मित्रों को
रहस्यमय अन्दाज़ में अपने निकट खिसकने को कहा.
वे दोनों उसकी ओर झुके. वह, बिना किसी दिखावे के, जो कि बार-बार उसकी आवाज़ में आ रहा था और जा रहा था, सीधे-सपाट स्वर में बोला, “बात यह है कि...” प्रोफेसर ने किंचित भय से इधर-उधर देखा और कानाफूसी के स्वर में बोला, “कि मैं स्वयँ उस समय वहाँ उपस्थित था. पोंती पिलात के साथ बरामदे में,
उद्यान में भी, जब वह कैफ़ से बात कर रहा था,
पत्थर के चबूतरे पर भी, मगर छिपकर, गुप्त वेष में. इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि इस बात को अपने तक
ही सीमित रखें, एकदम गुप्त, एक भी शब्द
बाहर न फूटे. श्-श्-श्!”
खामोशी छा गई, और बेर्लिओज़ भय के मारे पीला पड़ गया.
“आप...आप कितने समय से मॉस्को में हैं?” काँपती
हुई आवाज़ में उसने पूछा.
“मैं तो अभी-अभी, इसी क्षण मॉस्को पहुँचा हूँ,” प्रोफेसर ने उख़ड़ी-सी आवाज़ में कहा और तभी मित्रों ने उसकी आँखों में देखा
और उन्हें विश्वास हो गया कि उसकी बाईं, हरी आँख एकदम
भावरहित थी, जबकि दाईं खाली, काली और
निर्जीव.
‘सब समझ में आ गया!’ बेर्लिओज़ ने परेशानी से
सोचा – ‘यह एक पागल जर्मन आया है या पत्रियार्शी
आकर पागल हो गया है. यही है इसका इतिहास!’
हाँ, सचमुच सब कुछ समझ में आ गया था : स्वर्गवासी दार्शनिक
काण्ट के साथ किया गया विचित्र नाश्ता, और सूरजमुखी के तेल
और अन्नूश्का से सम्बन्धित बेवकूफी भरी बातें, और भविष्यवाणी
कि उसका सिर काट दिया जाएगा, और इसी तरह की अन्य बकवास.
प्रोफेसर निश्चय ही मूर्ख था.
बेर्लिओज़ ने तभी मन में निर्णय ले लिया कि उसे आगे क्या करना है. बेंच की
पीठ पर टिकते हुए उसने प्रोफेसर के पीछे से बिज्दोम्नी को आँख मारी, कि वह उसका विरोध न करे, मगर घबराया हुआ कवि इन इशारों को समझ नहीं पारा.
“हाँ, हाँ, हाँ...” बेर्लिओज़ ने उत्तेजित होकर कहा, “यह सब सम्भव
है. बिल्कुल सम्भव है, पोंती पिलात, वह
बरामदा, और वह सब...और क्या आप अकेले आए हैं या पत्नी के साथ
हैं?”
“अकेला, अकेला, मैं हमेशा अकेला
रहता हूँ...” कुछ कड़वाहट से प्रोफेसर ने उत्तर दिया.
“और प्रोफेसर, आपका सामान कहाँ है?’ बेर्लिओज़ ने चापलूसी से पूछा, “होटल ‘मेत्रोपोल’ में? आप रुके
कहाँ हैं?”
“मैं? कहीं भी नहीं...” उस
अर्धविक्षिप्त जर्मन ने विषादपूर्वक और अजीब ढंग से अपनी हरी आँख से पत्रियार्शी
तालाब की ओर देखते हुए उत्तर दिया.
“क्या? और...आप रहेंगे कहाँ?”
“तुम्हारे घर में...” अचानक वह पागल बोल पड़ा और
उसने आँख मारी.
“मैं...मुझे बड़ी प्रसन्नता है,” बेर्लिओज़
बुदबुदाया, “मगर बात यह है कि मेरे यहाँ आपको असुविधा
होगी...और ‘मेत्रोपोल’ में
कमरे बड़े शानदार हैं, वह पहले दर्जे का होटल है...”
“और क्या शैतान भी नहीं है?” मानसिक रोगी ने
एकदम चहकते हुए इवान निकलायेविच से पूछा.
“शैतान भी नहीं...”
“उसका विरोध मत करो...” सिर्फ होठों को हिलाते
हुए बेर्लिओज़ ने प्रोफेसर की पीठ के पीछे से मुँह बनाते हुए कानाफूसी की तरह कहा.
“कोई शैतान-वैतान नहीं है!” इस सब नाटक से चिढ़कर
इवान निकलायेविच ने वह कह डाला जो उसे नहीं कहना था, “क्या
मुसीबत है! आप यह सब पागलपन बन्द कीजिए!”
इस पर पागल कुछ इस तरह ठहाका मारकर हँसा कि उनके सिर के ऊपर लिण्डन के वृक्ष
से चिड़िया फड़फड़ाकर उड़ गई.
“अब, यह बड़ी मज़ेदार बात है!” हँसते-हँसते प्रोफेसर के पेट में बल पड़ गए.
“यह क्या बात है, कुछ भी पूछा, जवाब
में ‘ना’ ही कहते हो!” उसने एकदम हँसना बन्द कर दिया, शायद दिल में दर्द हो
रहा था, और हँसी के बाद एकदम दूसरी मनस्थिति में चला गया. वह
कँपकँपाया और बड़ी गम्भीरता से चिल्लाया, “तो आपकी राय
में, ऐसा कुछ है ही नहीं?”
‘शांति, शांति, शांति, प्रोफेसर,” बेर्लिओज़ ने उसे मनाया. उसे दिल के
मरीज़ को उत्तेजित देखकर डर लगने लगा था, “आप यहाँ मेरे
मित्र बिज्दोम्नी के साथ एक मिनट बैठिए,
और मैं नुक्कड़ पर जाकर एक टेलिफोन करके आता हूँ, फिर हम आपको जहाँ चाहें वहाँ छोड़ आएँगे. आप तो इस शहर में नए हैं न...”
देखा जाए तो बेर्लिओज़ का सोचा हुआ प्लान बिल्कुल सही था : निकट के टेलिफोन
बूथ में जाकर विदेशियों से सम्बन्धित दफ़्तर में इस बात की सूचना देना था कि यह, विदेश
से आया हुआ सलाहकार पत्रियार्शी तालाब वाले पार्क में बैठा है और उसकी दिमागी हालत
बिल्कुल ठीक नहीं है. इसलिए कुछ ज़रूरी उपाय किए जाएँ, नहीं
तो यहाँ कोई नाखुशगावार हादसा हो सकता है.
“फोन करना है? कीजिए,” मनोरुग्ण
ने उदासी से कहा और अचानक भावावेश से मिन्नत की, “मगर
जाते-जाते आपसे निवेदन करूँगा कि शैतान के अस्तित्व में विश्वास कीजिए! मैं आपसे
कोई बड़ी चीज़ नहीं माँग रहा हूँ. याद रखिए कि शैतान की उपस्थिति के बारे में सातवाँ
प्रमाण मौजूद है, यह बड़ा आशाजनक प्रमाण है! अभी-अभी आपको भी
इस बारे में पता चल जाएगा.”
“अच्छा, अच्छा...” झूठ-मूठ
प्यार से बेर्लिओज़ ने कहा और चिढ़े हुए कवि की ओर देखकर उसने आँख मारी, जिसे इस पागल जर्मन की चौकीदारी करने का ख़्याल बिल्कुल नहीं आया था. फिर
वह ब्रोन्नाया रास्ते और एरमलायेव गली के चौराहे की तरफ वाले निकास द्वार की ओर
बढ़ा. उसकी जाते ही प्रोफेसर मानो स्वस्थ हो गया और उसके चेहरे पर चमक आ गई.
“मिखाइल अलेक्सान्द्रविच!” उसने जाते हुए
बेर्लिओज़ से चिल्लाकर कहा.
वह कँपकँपाया, फिर उसने पीछे मुड़कर देखा और स्वयँ को ढाढस बँधाया कि उसका
नाम भी प्रोफेसर ने कहीं अख़बारों में पढ़ा होगा. और प्रोफेसर दोनों हाथ बाँधे
चिल्लाता जा रहा था, “क्या मैं आपके चाचा को कीएव में
तार भेज दूँ?”
बेर्लिओज़ का दिल एक बार फिर धक्क से रह गया. यह बेवकूफ कीएव वाले चाचा के
बारे में कैसे जानता है? इस बारे में तो कभी किसी भी अख़बार में नहीं लिखा गया. ए
हे...हे? कहीं बिज्दोम्नी ने ठीक ही तो नहीं कहा था? मगर उसके पास के दस्तावेज़? ओफ़, किस क़दर रहस्यमय आदमी है. फोन करना ही होगा! उसकी अच्छी ख़बर लेंगे!”
और आगे कुछ भी सुने बगैर बेर्लिओज़ आगे की ओर दौड़ा.
ब्रोन्नाया वाले निर्गम द्वार के पास बेंच से उठकर सम्पादक के पास वही
व्यक्ति आया जो तब सूरज की धूप में गरम हवा से बनता नज़र आया था. फर्क इतना था कि
अब वह हवा से बना हुआ प्रतीत नहीं होता था, बल्कि साधारण व्यक्तियों की भाँति
ठोस नज़र आ रहा था. घिरते हुए अँधेरे में बेर्लिओज़ ने साफ-साफ देखा कि उसकी मूँछें
मुर्गी के पंखों जैसी थीं, आँख़ें छोटी-छोटी, व्यंग्य से भरपूर, आधी नशीली, और
चौख़ाने वाली पतलून इतनी ऊँची थी कि अन्दर से गन्दे मोज़े नज़र आ रहे थे.
मिखाइल अलेक्सान्द्रविच वहीं ठिठक गया, मगर उसने यह सोचकर अपने आपको समझाया
कि यह केवल एक विचित्र संयोग है और इस समय उसके बारे में सोचना मूर्खता है.
“घुमौना दरवाज़ा ढूँढ रहे हैं साहब?” कड़कते स्वर
में लम्बू ने पूछा, “इधर आइए! सीधे, और जहाँ चाहे निकल जाइए. बताने के लिए आपसे एक चौथाई लिटर के लिए...हिसाब बराबर...भूतपूर्व
कॉयर मास्टर के नाम!” शरीर को झुकाते हुए इस प्राणी ने
अभिवादन के तौर पर अपनी जॉकियों जैसी टोपी हाथ में ले ली.
बेर्लिओज़ कॉयर मास्टर की इस ढोंगी याचना को सुनने के लिए नहीं रुका, वह
घुमौने दरवाज़े की ओर भागा और हाथ से उसे पकड़ लिया. उसे घुमाकर वह रेल की पटरी पार
करने ही वाला था कि उसके चेहरे पर लाल और सफ़ेद रंग का प्रकाश पड़ा : काँच के
ट्रैफिक-बोर्ड पर अक्षर चमकने लगे, “सावधान, ट्राम आ रही है!” और यह ट्राम उसी क्षण आ
पहुँची, एरमलायेव गली से नई बिछाई गई रेल की पटरी से मुड़कर,
ब्रोन्नाया रास्ते पर मुड़कर मुख्य रास्ते पर आते ही उसका अन्दरूनी
भाग बिजली की रोशनी में नहा गया, ब्रेक के चीत्कार के साथ वह
रुक गई.
हालाँकि बेर्लिओज़ सुरक्षित स्थान पर खड़ा था, फिर भी सावधानी के लिए उसने मुड़कर
वापस जाना चाहा.उसने अपना हाथ घुमौने दरवाज़े पर रखा और एक कदम पीछे हटा. उसी क्षण
उसका हाथ फिसलकर छूट गया, पैर फिसला, जैसे
कड़ी बर्फ पर फिसल रहा हो. पैर फिसलकर उस छोटे से पथरीले रास्ते पर गया जो रेल की
पटरी तक जाता था, दूसरा पैर अपनी जगह से उछल गया और बेर्लिओज़
रेल की पटरी पर गिर गया.
किसी सहारे को पकड़ने की कोशिश करते हुए, बेर्लिओज़ चित गिर पड़ा. उसका सिर धीरे
से पथरीले रास्ते से टकराया और उसकी नज़र आकाश की ओर चली गई, मगर
दाहिने या बाएँ, वह समझ नहीं पाया, उसे
सुनहरा चाँद नज़र आया. वह जल्दी से एक करवट मुड़ा, फट् से
पैरों को पेट के पास मोड़ा और मुड़ते ही अपने ऊपर विलक्षण शक्ति से आते हुए, भय से सफ़ेद पड़ गए, एक स्त्री के चेहरे और उसकी लाल
टोपी को देखा. यह ट्राम चालिका का चेहरा था. बेर्लिओज़ चीख नहीं सका, मगर उसके चारों ओर जमा हो गई महिलाओं की भयभीत चीखों से वह सारी सड़क गूँज
उठी. ट्राम चालिका ने शीघ्रता से बिजली का ब्रेक लगाया, फलस्वरूप
ट्रामगाड़ी नाक के बल ज़मीन में मानो घुस गई. अगले ही क्षण खनखनाहट की आवाज़ के साथ
उसकी खिड़कियों के शीशे बाहर की ओर गिरने लगे. बेर्लिओज़ के दिमाग में एक विकट विचार
कौंध गया – ‘क्या सचमुच?’ टुकड़ों में बँट चुका चाँद और एक बार, आखिरी बार
झाँका और फिर अँधेरा छा गया.
ट्रामगाड़ी ने बेर्लिओज़ को पूरी तरह ढाँक लिया था. और पत्रियार्शी के
गलियारे की जालियों के नीचे से पथरीले रास्ते पर कोई गोल-गोल काली-सी चीज़ लुढ़कती
हुई चली गई, वह ब्रोन्नाया रास्ते के फुटपाथ पर उछलते हुए लुढ़कने लगी.
यह बेर्लिओज़ का कटा हुआ सिर था.
******
चार
पीछा
स्त्रियों की उन्मादयुक्त चीखें धीरे-धीरे शांत हुईं, कानों
में छेद करती हुई पुलिस वालों की सीटियाँ सुनाई दीं. दो एम्बुलेंस गाड़ियाँ ले गईं
: एक बेसिर का धड़ और कटा हुआ सिर शवागार में; दूसरी काँच के
टुकड़ों से घायल सुन्दरी ट्रामचालिका को. सफ़ेद कपड़ों वाले चौकीदारों ने काँच के
बिखरे टुकड़े समेट दिए और खून के धब्बों को रेत से ढाँप दिया और इवान निकलायेविच
घुमौने दरवाज़े की ओर भागते-भागते बेंच पर गिर पड़ा और वैसे ही उस पर पड़ा रहा.
उसने कई बार उठने की कोशिश की, मगर पैर थे कि सुनने का नाम ही नहीं
ले रहे थे – बिज्दोम्नी को पक्षाघात जैसी कोई चीज़ हो गई थी.
पहली ही कर्णकटु चीख सुनकर कवि लपककर घुमौने दरवाज़े की भागा था और उसने सिर
को रास्ते पर लुढ़कते हुए देखा. यह देखकर वह इतना बदहवास हो गया कि बेंच पर गिर पड़ा
और अपने ही हाथ को इतनी बुरी तरह काट लिया कि खून निकल आया. पागल जर्मन के बारे
में वह इस समय बिल्कुल भूल चुका था. सिर्फ एक ही बात समझने की चेष्टा कर रहा था कि
अभी-अभी वह बेर्लिओज़ से बातें कर रहा था, और एक मिनट के बाद – सिर...
उत्तेजित लोग आश्चर्य प्रकट करते हुए कवि के सामने से गलियारे से दौड़े चले
जा रहे थे, मगर इवान निकलायेविच उनके शब्दों को ग्रहण नहीं कर पा रहा
था.
अप्रत्याशित रूप से दो औरतों की उसके सामने भिड़ंत हो गई और उनमें से एक, तीखी
नाक वाली और सीधे बालों वाली, कवि के बिल्कुल कान में दूसरी
औरत पर चिल्लाई, “अन्नूश्का, हमारी
अन्नूश्का! सदोवया सड़क से! यह उसी का काम है! उसने किराने की दुकान से सूरजमुखी का
तेल खरीदा, एक लिटर, मगर शीशी घुमौने
दरवाज़े से टकराकर टूट गई, पूरी स्कर्ट तेल में भीग गई...ओफ़,
कितना चिल्ला रही थी, चिल्लाए जा रही थी. और
वह गरीब, शायद उस तेल पर फिसलकर गिर पड़ा और रेल की पटरियों
पर जा गिरा...”
औरत की इस उत्तेजित चिल्लाहट में से इवान निकलायेविच का अस्त-व्यस्त दिमाग
सिर्फ एक शब्द पकड़ पाया : “अन्नूश्का...”
“अन्नूश्का...अन्नूश्का?” वह अपने आप से बड़बड़ाया,
और उन्मादित होकर इधर-उधर देखने लगा, कुछ याद
आ रहा है, क्या है? क्या है?...
‘अन्नूश्का’ शब्द के साथ ‘सूरजमुखी का तेल’ शब्द भी जुड़ गए, और फिर न जाने क्यों पोंती पिलात. पिलात को उसने दिमाग से झटक दिया और ‘अन्नूश्का’ से प्रारम्भ हुई कड़ी को आगे बढ़ाने
की कोशिश करने लगा. यह कड़ी अतिशीघ्र पूर्ण हो गई और उसका दूसरा सिरा पागल प्रोफेसर
से जा मिला.
ओह, गलती हो गई! उसने ठीक ही कहा था, कि
मीटिंग होगी ही नहीं, क्योंकि अन्नूश्का ने तेल गिरा दिया
है. और देखिए, अब मीटिंग हो ही नहीं सकती! यह तो कुछ भी नहीं
: उसने साफ-साफ कहा था कि एक औरत बेर्लिओज़ का गला काटेगी! हाँ, हाँ! ट्राम औरत ही तो चला रही थी! यह सब क्या है? आँ?
इस बात में कोई सन्देह नहीं रह गया कि वह रहस्यमय परामर्शदाता बेर्लिओज़ की
हृदयविदारक मृत्यु का पूरा विवरण अच्छी तरह जानता था. कवि के दिमाग में दो विचार
कौंध गए. पहला : वह बेवकूफ़ कदापि नहीं! यह सब बकवास है!” और दूसरा : कहीं यह सब उसी का पूर्वनियोजित षड्यंत्र तो नहीं था!”
मगर किस तरह!
“कोई बात नहीं! यह हम जान लेंगे!”
महत्प्रयास के बाद इवान निकलायेविच बेंच से उठा और वापस वृक्षों वाले
गलियारे की ओर चल पड़ा, जहाँ कुछ देर पहले तक वह प्रोफेसर से बात कर रहा था. देखा
कि सौभाग्यवश वह वहाँ से हटा नहीं था.
ब्रोन्नाया रास्ते पर लैम्प जल उठे थे, पत्रियार्शी के जल में सुनहरा चाँद
चमक रहा था और चाँद के सदा छलने वाले प्रकाश में इवान निकलायेविच ने देखा कि वह
खड़ा है मगर अब उसकी बगल में छड़ी नहीं, बल्कि तलवार थी.
कॉयर मास्टर, चौख़ाने वाला लम्बू, प्रोफेसर की बगल
में उस जगह पर बैठा था जहाँ कुछ देर पहले इवान निकलायेविच बैठा था. अब उसकी नाक पर
अनावश्यक चश्मा था जिसकी एक आँख में काँच ही नहीं था और दूसरा तड़का हुआ था. इसके
कारण चौख़ाने वाले महाशय अब और ज़्तादा घिनौने प्रतीत हो रहे थे. उससे भी ज़्यादा,
जब उन्होंने बेर्लिओज़ को रेल की पटरियों का रास्ता दिखाया था.
ठण्डॆ पड़ते हुए दिल से इवान प्रोफेसर के पास पहुँचा और उसके चेहरे को ध्यान
से देखने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस चेहरे पर पागलपन का कोई लक्षण न
पहले था और न अब है.
“बताइए सही-सही, आप कौन हैं” इवान ने डूबती हुई आवाज़ में पूछा.
विदेशी मुड़ा और उसने कवि की ओर ऐसी दृष्टि डाली मानो वह उसे पहली बार देख
रहा हो. फिर बुरा-सा मुँह बनाकर बोला, “समझा नई...रूसी बोलना...”
“ये समझ नहीं रहे हैं.” उसके पास ही बैठे कॉयर
मास्टर ने बीच में टपकते हुए कहा, हालाँकि उससे किसी ने भी
प्रोफेसर के शब्दों को समझाने के लिए नहीं कहा था.
“बनिए मत!” इवान ने गरजते हुए कहा और उसे अपने
तालू में ठण्डक महसूस होने लगी, “अभी-अभी तो आप इतनी
अच्छी तरह से रूसी में बातें कर रहे थे. आप न तो जर्मन हैं और न ही प्रोफेसर! आप
एक कातिल और जासूस हैं! दस्तावेज़!” तैश में आकर इवान
चिल्ला पड़ा.
रहस्यमय प्रोफेसर ने अपने टेढ़े मुँह को और भी टेढ़ा करके कन्धे उचकाए.
“महाशय!” गन्दा लम्बू फिर बीच में टपक पड़ा, “आप क्यों पर्यटक को तंग कर रहे हैं? इसके लिए आपको
कड़ी सज़ा मिलेगी!” और उस सन्देहास्पद प्रोफेसर ने
भोला-सा चेहरा बनाया और मुड़कर इवान से दूर जाने लगा.
इवान को लगा जैसे वह अपना संयम खो रहा है, लम्बी साँस लेकर वह लम्बू से बोला, “ऐ महाशय, इस अपराधी को पकड़ने में मेरी सहायता कीजिए!
आपको यह करना ही होगा.”
लम्बू तेज़ी से उठा और कूदकर दहाड़ा, “कौन अपराधी? कहाँ है? विदेशी अपराधी?” लम्बू की आँखें मानो खुशी से मटकने लगीं, “यह?
अगर यह अपराधी है, तो सबसे पहले हमें ज़ोर से
चिल्लाना होगा : ‘सिपाही!’ वर्ना
वह भाग जाएगा. चलो, एक साथ चिल्लाएँ. एकदम!” और लम्बू ने अपने जबड़े खोले.
परेशान इवान ने उस मसखरे लम्बू का कहना मानकर ज़ोर से आवाज़ लगाई ‘सिपाही!’ मगर लम्बू ने सिर्फ मुँह खोले रखा,
कोई आवाज़ नहीं निकाली.
इवान की अकेली, भर्राई हुई चीख का कोई ख़ास अच्छा परिणाम नहीं निकला. दो
ख़ूबसूरत-सी लड़कियों का ध्यान अलबत्ता उसने आकर्षित किया, और
इवान ने उनके मुख से सुना, “शराबी!”
“तो तुम उसके साथ मिले हुए हो?” इवान तैश में
आकर चिल्लाया, “क्या तुम मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो? छोड़ो मुझे!”
इवान दाहिनी ओर झुका और लम्बू भी दाहिनी ओर, इवान बाएँ तो उस दुष्ट ने भी वैसा ही
किया.
“तुम ज़बर्दस्ती मेरे पैरों में क्यों अड़मड़ा रहे हो?” जानवरों की तरह चिल्लाया इवान, “ठहरो, मैं तुम्हें ही पुलिस के हाथों में दे देता हूँ.”
इवान ने उस दुरात्मा को कालर से पकड़ने की कोशिश की मगर वह झोंक में आगे चला
गया. उसकी पकड़ में कुछ भी नहीं आया. लम्बू मानो पृथ्वी के भीतर गड़प हो गया.
इवान कराह उठा, उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई और कुछ दूरी पर घृणित विदेशी को
पाया. वह पत्रियार्शी नुक्कड़ की ओर निकलते हुए दरवाज़े के पास पहुँच गया था. वह
अकेला नहीं था, रहस्यमय और ख़तरनाक लम्बू भी उसके पास पहुँच
गया था. इतना ही काफ़ी नहीं था : इस मण्डली में एक तीसरा भी था – न जाने कहाँ से टपक पड़ा एक बिल्ला. सूअर की तरह विशाल, कौवे या काजल की तरह काला, अति साहसी घुड़सवार की
मूँछों जैसी मूँछों वाला. ये तीनों कुटिल पत्रियार्शी की तरफ जा रहे थे. बिल्ला
अपने पिछले पैरों पर चल रहा था.
इवान
इन पापियों के पीछे लपका लेकिन वह समझ गया कि उन्हें पकड़ पाना असम्भव है.
तीनों कुटिल एक पल में नुक्कड़ पर पहुँचकर अगले ही पल स्पिरिदोनव में नज़र
आए. चाहे जितनी तेज़ी से इवान अपनी रफ़्तार बढ़ा रहा था, मगर
उनके बीच की दूरी कम नहीं हो रही थी. कवि समझ नहीं पाया कि कब वह स्पिरिदोनव
रास्ते से निकीत्स्की दरवाज़े तक पहुँच गया. यहाँ आकर हालत और भी ख़राब हो गई. यहाँ
बड़ी भीड़ थी. उनके धोखे में इवान किसी और व्यक्ति पर झपट पड़ा जिसके कारण उसे काफ़ी
डाँट पड़ी. दुष्टों ने अब डाकुओं जैसी चाल चली – वे
यहाँ-वहाँ तितर-बितर हो गए.
लम्बू बड़ी सहजता से चलते-चलते अर्बात चौक की ओर जाती बस में चढ़ गया. इस तरह
वह वहाँ से खिसक लिया. उनमें से एक को खो देने पर इवान ने बिल्ले पर अपना ध्यान
केन्द्रित किया. देखा, वह विचित्र बिल्ला ‘ए’ ट्रामगाड़ी के फुटबोर्ड पर चढ़ गया और निर्लज्ज की भाँति धक्का मारकर एक
चिल्लाती हुई औरत को अपने स्थान से हटाकर उसने डण्डॆ को पकड़ लिया, और महिला कण्डक्टर को उमस के कारण खुली खिड़की में से दस कोपेक का सिक्का
देने लगा.
बिल्ले के ऐसे व्यवहार को देखकर इवान इतने सकते में आ गया कि पास ही एक
किराने की दुकान से मानो वह चिपक गया और महिला कण्डक्टर का बर्ताव देख उसकी हालत
पहले से भी ज़्यादा खस्ता हो गई.
उसने बिल्ले की ओर सिर्फ देखा जो ट्राम में चढ़ा चला आ रहा था और क्रोध में
काँपती हुई बोली, “बिल्लियाँ नहीं! बिल्लियों के साथ नहीं! नीचे उतरो,
वर्ना पुलिस को बुलाऊँगी!”
आश्चर्य की बात यह थी कि न महिला कण्डक्तर को, न ही
मुसाफिरों को वास्तविकता समझ में आ रही थी : बिल्ला ट्राम गाड़ी में घुस गया यह तो
आधी ही विपदा वाली बात थी, विचित्र बात तो यह थी कि बिल्ला
टिकिट के पैसे दे रहा था! यह बिल्ला न केवल पैसे वाला बल्कि अनुशासनप्रिय भी
प्रतीत हो रहा था. महिला कण्डक्टर की पहली ही चीख सुनकर उसने आगे बढ़ना बन्द कर
दिया और फुटबोर्ड से उतरकर ट्राम के स्टॉप पर बैठ गया. वह अपनी मूँछों को इस दस
कोपेक वाले सिक्के से साफ करता रहा, लेकिन जैसे ही कण्डक्टर
के घंटी बजाते ही ट्राम चली, बिल्ले ने तत्क्षण वही किया,
जो ट्राम से नीचे उतारा गया आदमी करता है, जिसे
उसी ट्राम में जाना अत्यावश्यक होता है. बिल्ले ने ट्राम के तीनों डिब्बों को गुज़र
जाने दिया. फिर आख़िरी डिब्बे की पिछली कमान पर कूदकर अपने पंजों से बाहर निकली हुई
एक नली को पकड़ लिया और चल पड़ा ट्राम के साथ, इस तरह उसने
पैसे भी बचा लिए.
इस गन्दे बिल्ले के पीछे पड़कर इवान ने मुख्य कुटिल, प्रोफेसर,
को लगभग खो ही दिया था. मगर, सौभाग्यवश,
वह कहीं खिसक नहीं पाया था. इवान ने उसकी धूसर टोपी को निकित्स्काया,
या गेर्त्सेन रास्ते की भीड़ में देख लिया. पलक झपकते ही इवान भी
वहीं था. लेकिन सफलता फिर भी नहीं मिली. कवि ने अपनी चाल तेज़ कर दी. फिर वह
आने-जाने वालों को धक्का मारते हुए दौड़ने भी लगा लेकिन एक सेंटीमीटर भी प्रोफेसर
के निकट नहीं पहुँच सका.
इवान चाहे कितना ही परेशान क्यों न था, लेकिन वह जिस अलौकिक गति से प्रोफेसर
का पीछा कर रहा था, उससे अचम्भित था. बीस सेकेण्ड भी नहीं
बीते होंगे कि इवान निकलायेविच निकित्स्की दरवाज़े से बिजली की रोशनी में जगमगाते
अर्बात चौक पर पहुँच गया था. कुछ और क्षणों के पश्चात् एक अँधेरे टूटे-फूटे
फुटपाथों वाला चौक आया, जहाँ इवान निकलायेविच लड़खड़ाकर अपना
घुटना तोड़ बैठा. फिर एक जगमगाता भव्य रास्ता, क्रपोत्किना पथ,
फिर नुक्कड़, तत्पश्चात् अस्ताझेंका, जिसके बाद फिर एक गली, उनींदी-सी, गन्दी और कम रोशनी वाली, यहाँ आकर इवान निकलायेविच
ने आखिर में उसे खो दिया, जिसकी उसे इतनी अधिक आवश्यकता थी.
प्रोफेसर गुम हो गया.
इवान निकलायेविच घबरा गया, मगर सिर्फ थोड़ी देर के लिए, क्योंकि
उसे अचानक आभास हुआ कि प्रोफेसर 13 नम्बर मकान के 47 नम्बर वाले फ्लैट में ज़रूर
मौजूद है.
प्रवेश-द्वार में तेज़ी से घुसकर इवान निकलायेविच दूसरी मंज़िल को उड़ चला.
उसने जल्दी से वह फ्लैट ढूँढ़कर शीघ्रता से घण्टी बजाई. कुछ देर इंतज़ार के बाद एक
पाँच साल की बच्ची ने दरवाज़ा खोला और बिना कुछ पूछे जाने कहाँ चली गई.
खाली-खाली से बड़े प्रवेश-कक्ष में एक बहुत ही कम रोशनी वाला छोटा-सा बल्ब
गन्दगी से काली पड़ चुकी छत से लटक रहा था, दीवार से एक बिना टायर की साइकिल
टँगी हुई थी, एक बहुत बड़ा सन्दूक था, जिसमें
लोहे की पट्टियाँ जहाँ-तहाँ ठोकी गई थीं. एक रैक में हैंगर पर सर्दियों में पहनने
वाली लम्बे कानों वाली टोपी टँगी थी, जिसके लम्बे-लम्बे कान
नीचे लटक रहे थे. एक दरवाज़े के पीछे से रेडियो पर किसी आदमी की तेज़ आवाज़ सुनाई दे
रही थी, मानो गुस्से में आकर काव्यात्मक भाषा में चिल्ला रहा
हो.
इवान निकलायेविच इस अनजान वातावरण में ज़रा भी नहीं घबराया. वह सीधे कॉरीडोर
की ओर दौड़ा, यह सोचकर कि वह ज़रूर गुसलखाने में छुपा है. कॉरीडोर में
अँधेरा था. दीवारों से टकराते हुए इवान ने एक दरवाज़े के नीचे से आती हुई प्रकाश की
क्षीण किरण देखी. उसने टटोलकर दरवाज़े का हैंडल खोजा और पूरी ताक़त से उसे घुमाया.
दरवाज़ा फट से खुल गया. इवान गुसलखाने में ही था. उसने सोचा कि उसे सफलता मिली है.
लेकिन सफलता उतनी नहीं मिली, जितनी मिलनी चाहिए थी. इवान ने गीली
गरम हवा का अनुभव किया और अँगीठी में जलते हुए कोयलों की रोशनी में उसने दीवार से
टँगी हुई बड़ी-बड़ी नाँदें देखीं. बाथ टब भी दिखाई दिया, जिसमें
मीनाकारी के टूटने से जहाँ-तहाँ भयानक काले धब्बे नज़र आ रहे थे. इस टब में साबुन
के फेन में लिपटी, हाथों में एक बदन धोने का वल्कल का टुकड़ा
लिए, एक नग्न स्त्री खड़ी थी.
उसने अपनी साबुन लगी आँखों को थोड़ा-सा खोलकर हाथों से टटोलकर अन्दर घुस आए
इवान को देखा और उस शैतानी आग में इवान को पहचान न पाई. उसने धीमे मगर प्रसन्न
स्वर में कहा, “किर्यूश्का! बेवकूफ़ी बन्द करो! क्या तुम पागल हो गए
हो?...फ़्योदर इवानिच अभी लौटने ही वाले हैं. जल्दी से यहाँ
से दफ़ा हो जाओ!” और उसने हाथ के वल्कल के टुकड़े से इवान
को मारा.
स्पष्ट था कि ग़लतफ़हमी हुई थी, और सारा दोष निश्चय ही इवान निकलायेविच
का था. फिर भी वह इसे मानने को तैयार नहीं था. वह भर्त्सना के स्वर में चिल्लाया, “आह, दुराचारिणी!...” और न
जाने क्यों वह रसोईघर में पहुँच गया. वहाँ कोई नहीं था. चूल्हा रखने की स्लैब पर
धुँधलके में लगभग दस बुझे हुए स्टोव ख़ामोश खड़े थे. चन्द्रमा की एक किरण धूल-धूसरित,
बरसों से बिना धुली खिड़की के शीशे से किसी प्रकार अन्दर घुसकर उस
कोने को धीमे-धीमे प्रकाशित कर रही थी. यहाँ धूल और मकड़ी के जालों के बीच ईसा की
सूली चढ़ी प्रतिमा लटक रही थी, जिसके बक्से के पीछे से दो
मोमबत्तियों के सिरे झाँक रहे थे. बड़ी प्रतिमा के नीचे एक छोटी कागज़ की प्रतिमा
थी.
कोई नहीं जानता कि इवान के मन में क्या भाव उठ रहे थे, लेकिन
पिछले चोर दरवाज़े की ओर भागने से पहले उसने इन मोमबत्तियों में से एक ले ली. कागज़
की ईसा की प्रतिमा को भी अपने पास रख लिया. इन वस्तुओं के साथ कुछ बड़बड़ाते हुए
उसने अनजान फ्लैट से पलायन किया, उसने गुसलखाने में जो देखा
था, उससे परेशान अनजाने ही यह अटकल लगाने की कोशिश करते हुए
कि यह निर्लज्ज किर्यूश्का कौन हो सकता है और कहीं वह लम्बे कानों वाली घिनौनी
टोपी उसी की तो नहीं थी.
सुनसान, उदास गली में आकर कवि ने भगोड़े को ढूँढ़ने के लिए चारों ओर
देखा. लेकिन उसका कहीं पता नहीं था. तब इवान ने अपने आप से कहा, ‘ख़ैर, वह अवश्य ही मॉस्को नदी पर है! आगे बढ़ो!’
इवान निकलायेविच से पूछना चाहिए थी कि उसके ऐसा सोचने का क्या कारण था कि
प्रोफेसर मॉस्को नदी पर ही होगा, और कहीं नहीं. मगर मुसीबत यह है कि ऐसा पूछने वाला कोई था
ही नहीं, वह गन्दी गली बिल्कुल सुनसान थी.
अत्यंत अल्प समय में ही इवान निकलायेविच को मॉस्को नदी तक जाती हुई पत्थर
की सीढ़ियों के पास देखा जा सकता था. इवान ने अपने कपड़ॆ उतार दिए और उन्हें एक भले
से दाढ़ी वाले को थमा दिया. सफ़ेद ढीले-ढाले फटे कुरते में अपने मुड़े-तुड़े जूते के
पास बैठा वह अपनी ही बनाई सिगरेट पी रहा था. हाथों को हिलाकर, जिससे
कुछ ठण्डक महसूस हो, इवान एक पंछी की तरह पानी में घुस गया.
पानी इतना ठंडा था कि उसकी साँस रुकने लगी. उसके दिमाग में यह ख़याल कौंधा कि शायद
वह पानी की सतह पर कभी वापस लौट ही नहीं सकेगा. मगर वह उछलकर ऊपर आ गया और हाँफ़ते
हुए और भय से गोल हो गई आँखों से इवान निकलायेविच ने नदी किनारे पर लगे फानूसों की
टेढ़ी-मेढ़ी, टूटी-फूटी रोशनी में पेट्रोल की गन्ध वाले पानी
में तैरना आरम्भ किया.
जब
गीले बदन से इवान सीढ़ियों पर चढ़ते हुए उस जगह पहुँचा, जहाँ
उसने दाढ़ी वाले को अपने कपड़े थमाए थे, तो देखा कि उसके कपड़ों
के साथ दाढ़ी वाला भी गायब है. ठीक उस जगह, जहाँ उसके कपड़े
रखे थे, केवल धारियों वाला लम्बा कच्छा, फटा कुरता, मोमबत्ती, ईसा की
प्रतिमा और दियासलाई की डिबिया पड़ी है. क्षीण क्रोध से, दूर
किसी को अपनी मुट्ठियों से धमकाते हुए, इवान ने वह सब उठा
लिया.
अब उसे दो प्रकार के विचारों ने परेशान करना शुरू किया : पहला यह कि उसका ‘मॉसोलित’ का पहचान-पत्र गायब हो गया था,
जिसे वह कभी अपने से अलग नहीं करता था; और
दूसरा यह कि इस अवस्था में वह कैसे बेरोक_टोक मॉस्को की
सड़कों पर घूम सकेगा? ख़ैर, कच्छा तो
है...किसी को इससे भला क्या मतलब हो सकता है, मगर कहीं कोई
बाधा न खड़ी हो जाए.
उसने लम्बे कच्छे की मोरी से बटन तोड़ दिए, यह सोचकर कि ऐसा करने से कच्छा गर्मियों
में पहनने वाली पैंट जैसा दिखने लगेगा, फिर उसने ईसा की
प्रतिमा, मोमबत्ती और दियासलाई की डिबिया उठाई और अपने आप से
यह कहते हुए चल पड़ा, ‘ग्रिबायेदव चलूँ! इसमें कोई
सन्देह नहीं, कि वह वहीं पर होगा.’
शहर पर शाम का शबाब छाया था. धूल उड़ाते एक के पीछे एक कतार में ट्रक चलते
जा रहे थे, जिनकी जंज़ीरें खड़खड़ कर रही थीं और पीछे फर्श पर रखे बोरों
पर पीठ के बल कुछ आदमी लेटे हुए थे. सब खिड़कियाँ खुली थीं. इनमें से हर खिड़की में
नारंगी रंग के शेड के नीचे लैम्प जल रहे थे. सभी खिड़कियों से, सभी दरवाज़ों से, सभी मोड़ों पर से, सभी गोदामों, भूमिगत रास्तों और आँगनों से ‘येव्गेनी अनेगिन’ का एक गीत सुनाई दे रहा था.
इवान निकलायेविच का डर सही साबित हुआ : आने-जाने वाले लोग उसे ध्यान से
देखते और मुँह फेर लेते थे. इसलिए उसने आम रास्ते को छोड़ गलियों से जाने की ठानी.
वहाँ इस बात की सम्भावना बहुत कम थी कि लोग नंगे पैर और गर्मियों वाला कच्छा पहने
आदमी को रोक-टोक कर हैरान कर देंगे.
इवान ने ऐसा ही किया. वह अर्बात की रहस्यमय गलियों के जाल में घुस गया. वह
दीवारों के साथ साथ चल रहा था, डर से इधर-उधर देखता, प्रवेश-द्वारों
से छिपता, ट्रैफिक लाइट से दूर और राजनयिकों के भव्य घरों से
बचता जा रहा था.
इस पूरी कष्टप्रद यात्रा के दौरान न जाने क्यों हर जगह सुनाई देने वाली
ऑर्केस्ट्रा की ध्वनि उसका साथ नहीं छोड़ रही थी, जहाँ एक भारी आवाज़ तात्याना के प्रति
अपने प्रेम के बारे में गा रही थी.
पाँच
सारा मामला ग्रिबायेदव में ही था
बीमार से बगीचे के एक कोने में दोतरफा वृक्षों वाले अँगूठीनुमा रास्ते पर
दूधिया रंग का एक प्राचीन दुमंज़िला भवन खड़ा था. अँगूठीनुमा रास्ते के फुटपाथ को इस
मकान से लोहे की एक जाली अलग करती थी. मकान के सामने छोटा-सा सिमेंट का चौक बना था.
शीत ऋतु में इस चौक पर बर्फ का ढेर जमा हो जाता, जिस पर एक फावड़ा देखा जा सकता था और
ग्रीष्म ऋतु में यही चौक कैनवास के तम्बू के नीचे शानदार रेस्टारेंट में परिवर्तित
हो जाता था.
भवन का नाम था ‘ग्रिबायेदव भवन’. यह माना जाता
था कि कभी यह घर अलेक्सान्द्र ग्रिबायेदव की बुआ का था. लेकिन यह सचमुच उसी का था – हमें ठीक से नहीं मालूम. मुझे यह भी याद आता है, कि
शायद ग्रिबायेदव की ऐसी कोई बुआ नहीं थी, जो किसी घर की
मालकिन रही हो...मगर घर इसी नाम से पुकारा जाता था. मॉस्को के एक शेखीबाज़ ने तो
यहाँ तक कहा कि दूसरी मंज़िल के खम्भों वाले गोल हॉल में विख्यात लेखक ने अपनी
प्रसिद्ध कृति ‘बुद्धि से दुर्भाग्य’ के कुछ अंश इसी बुआ को पढ़कर सुनाए थे. वह सोफ़े पर पसरकर उन्हें सुनती रहती
थी. पढ़े हों, न पढ़े हों, हमारी बला से!
महत्त्वपूर्ण बात यह नहीं है.
महत्त्व की बात यह है कि आजकल इस भवन पर उसी ‘मॉसोलित’ का अधिकार है , जिसका अध्यक्ष पत्रियार्शी तालाब पर
आने तक, अभागा मिखाइल अलेक्सान्द्रविच था.
मॉसोलित के सदस्यों में से कोई भी इसे ‘ग्रिबायेदव भवन’ नहीं कहता था. वे सब इसे सिर्फ़ ‘ग्रिबायेदव’ कहते थे : “मैं कल दो घण्टे ग्रिबायेदव के
आसपास घूमता रहा”, “फिर क्या हुआ?”
“एक महीने के लिए याल्टा जाने को मिल गया”, “शाबाश!” या फिर “बेर्लिओज़ के पास जाओ, आज वह चार से पाँच बजे तक ग्रिबायेदव में लोगों से मिल रहा है...” और ऐसा ही बहुत कुछ.
मॉसोलित ग्रिबायेदव में इस तरह स्थित था कि उससे अच्छा और आरामदेह विकल्प
कोई और हो ही नहीं सकता था.ग्रिबायेदव में आने वाले हर व्यक्ति को, इच्छा
न होते हुए भी, विभिन्न खेल मण्डलियों के विज्ञापनों को और
मॉसोलित के सदस्यों के सामूहिक तथा व्यक्तिगत फोटो को देखना ही पड़ता था, जिनसे इस भवन की दूसरी मंज़िल को जाने वाली सीढ़ियों की दीवारें सुसज्जित
थीं.
दूसरी मंज़िल के पहले ही कमरे के दरवाज़े पर लिखा हुआ था, ‘मछली-अवकाश विभाग’ वहीं जाल में फँसी लाल पंखों
वाली बड़ी-सी मछली का चित्र भी लगा था.
दूसरे नम्बर के कमरे के दरवाज़े पर कुछ-कुछ समझ में न आने वाली बात लिखी थी
: ‘एक दिवसीय सृजनात्मक यात्रा पास. एम.वी. पद्लोझ्नाया से मिलें’
अगले दरवाज़े पर एक छोटी-सी किन्तु बिल्कुल ही समझ में न आने वाली इबारत थी.
फिर ग्रिबायेदव में आए व्यक्ति की नज़रें बुआजी के घर के अखरोट के मज़बूत दरवाज़े पर
लटकी तख़्तियों पर घूमने लगतीं. ‘पकलोव्किना से मिलने के लिए यहाँ नाम लिखाइए’, ‘टिकट-घर’, ‘चित्रकारों का व्यक्तिगत हिसाब’...
नीचे की मंज़िल पर लगी बहुत लम्बी क़तार के ऊपर से, जिसमें
हर मिनट लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी, वह तख़्ती देखी जा
सकती थी, जिस पर लिखा था : ‘क्वार्टर-सम्बन्धी
प्रश्न’.
‘क्वार्टर-सम्बन्धी
प्रश्न’ के पीछे एक शानदार पोस्टर देखा जा सकता था.
उसमें एक बहुत बड़ी चट्टान दिखाई गई थी. चट्टान के किनारे-किनीरे नमदे के जूते पहने,
कन्धों पर बर्छा लिए एक नौजवान चला जा रहा था. नीचे लिण्डन के वृक्ष
और एक बालकनी. बालकनी पर एक नौजवान परों का टोप पहने, कहीं
दूर साहसी आँखों से देखता हुआ, हाथ में फाउंटेन पेन पकड़े
हुए. इस पोस्टर के नीचे लिखा था : ‘सृजनात्मक कार्यों
के लिए पूरी सुविधाओं सहित छुट्टियाँ – दो सप्ताह
से (कथा – दीर्घकथा) एक वर्ष (उपन्यास – तीन खण्डों वाला उपन्यास) तक, याल्टा, सूकसू, बरावोये, त्सिखिजिरी
महिंजौरी, लेनिनग्राद (शीतमहल)’. इस
दरवाज़े के सामने भी लाइन लगी थी, मगर बहुत लम्बी नहीं,
क़रीब डेढ़ सौ व्यक्ति होंगे.
आगे, ग्रिबायेदव भवन के हर मोड़ पर, सीढ़ी
पर, कोने पर कोई न कोई तख़्ती देखी जा सकती थी :
मॉसोलित निदेशक : टिकट घर नं. 2,3,4,5.; सम्पादक मण्डल, मॉसोलित
अध्यक्ष, बिलियर्ड कक्ष, विभिन्न प्रकार के
प्रशासनिक कार्यालय. और अंत में वही स्तम्भों वाला हॉल जहाँ बुआ जी अपने बुद्धिमान
भतीजे की हास्यपूर्ण रचना का आस्वाद लिया करती थीं.
ग्रिबायेदव में आने वाला हर व्यक्ति, यदि वह बिल्कुल ही मूर्ख न हो,
सहजता से अनुमान लगा सकता था कि मॉसोलित के भाग्यशाली सदस्य कितना
शानदार जीवन बिता रहे हैं, और तत्क्षण ईर्ष्या की एक काली
छाया उस पर हावी होने लगती थी. फ़ौरन ही वह आकाश की ओर दुःखभरी नज़र डालकर उस
परमपिता परमात्मा को कोसने लगता था कि उसने उसे कोई भी साहित्यिक योग्यता क्यों
नहीं प्रदान की, जिसके बिना मॉसोलित के भूरे, महँगे चमड़े से मढ़े, सुनहरी किनारी वाले पहचान-पत्र
का स्वामी होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, जिससे
मॉस्को के लगभग सभी लोग परिचित थे.
ईर्ष्या के बारे में कोई क्या कह सकता है? यह एक बुरा गुण है, मगर फिर भी अतिथि की दृष्टि से देखना होगा. जो कुछ भी उसने ऊपर की मंज़िल
पर देखा है, वही और केवल वही सब कुछ नहीं था. बुआ जी के मकान
की पूरी निचली मंज़िल एक रेस्तराँ ने घेर रखी थी, वह भी कैसा
रेस्तराँ! सच कहा जाए तो यह मॉस्को का सबसे बढ़िया रेस्तराँ था. न केवल इसलिए कि वह
लम्बी अयालों वाले घोड़ों के चित्रों से सुसज्जित कमानीदार छत वाले दो हॉलों में
स्थित था, न केवल इसलिए कि उसकी हर टेबल पर सुन्दर ढक्कन
वाला लैम्प था, न केवल इसलिए कि सड़क से गुज़रने वाला हर आदमी
वहाँ प्रवेश नहीं पा सकता था, बल्कि इसलिए कि उसमें प्राप्त
होने वाली हर वस्तु बहुत बढ़िया किस्म की होती थी और इस बढ़िया वस्तु के लिए कीमत भी
एकदम वाजिब थी.
इसलिए उस बात में कोई आश्चर्य नहीं, जो इन सत्य पंक्तियों के लेखक ने एक
बार ग्रिबायेदव के बाहर के जंगले के पास सुनी थी : “अम्रोसी,
तुम आज रात्रि का भोजन कहाँ ले रहे हो?”
“यह भी कोई पूछने वाली बात है, फोका! यहीं पर!
अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच ने मेरे कान में कहा है कि आज एक खास किस्म की मछली है,
एक सर्वोत्तम चीज़ है.”
“तुम जीना जानते हो, अम्रोसी!” एक आह भरकर दुबले-पतले फोका ने, जिसके कन्धे पर एक
फोडा था, गुलाबी होठों वाले, महाकाय,
सुनहरे बालों वाले, भरे-भरे गालों वाले कवि
अम्रोसी से कहा.
“मुझमें ऐसी कोई विशेष योग्यता नहीं है,” अम्रोसी
ने सहमत न होते हुए कहा, “सिर्फ़ आदमियों की तरह जीने की
साधारण इच्छा है. फ़ोका, तुम यह कहना चाहते हो कि यह विशेष
प्रकार की मछली ‘कलीज़े’ रेस्तराँ
में भी मिलती है. मगर ‘कलीज़े’ में उसकी कीमत तेरह रुबल पन्द्रह कोपेक है, और हमारे
यहाँ पाँच पचास. इसके अलावा ‘कलीज़े’ की मछली तीन दिन बासी होती है; इसके अलावा इस बात की
भी कोई गारंटी नहीं है कि ‘कलीज़े’ में थियेटर के पास वाले रास्ते से घुस आने वाले नौजवानों के हाथों से
अंगूर के गुच्छे की मार सिर पर न पड़े. नहीं, मैं ‘कलीज़े’ के एकदम ख़िलाफ़ हूँ. गस्त्रोनोम वाले
पूरे गलियारे में गरजता हुआ अम्रोसी बोला, “फ़ोका,
तुम मुझे पटाने की कोशिश मत करो!”
“मैं तुम्हें पटाने की बिल्कुल कोशिश नहीं कर रहा,” फ़ोका बड़बड़ाया, “घर पर भी तो खाना खा सकते हो.”
“मैं आपका आज्ञाकारी सेवक,” अम्रोसी ने बीन बजाई, “मैं कल्पना कर सकता हूँ तुम्हारी बीबी की, जो अपने
घर के सार्वजनिक रसोईघर में एक कड़ाही में विशेष मछली के कटलेट बना रही होगी. ही...ही...ही!...फ़ोका!” और गुनगुनाते हुए अम्रोसी बरामदे में तने तम्बू की ओर चल दिया.
‘हो-हो-हो...हाँ, बहुत हो गया, बस
करो! मॉस्को के पुराने निवासियों के दिल में प्रख्यात ग्रिबायेदव की याद अभी भी
बाकी है! तुम किस फ़ालतू मछली की बात कर रहे हो! यह तो बड़ी सस्ती चीज़ है, प्रिय अम्रोसी! भरपूर माँस वाली, ऊँचे दर्जे की मछली,
चाँदी की तश्तरियों में उस मछली के टुकड़े, जो
केकड़े के आकार वाली मछली की गर्दन से और मछली के ताज़े अण्डों से सजे हुए रहते थे?
और प्यालों में सफ़ेद कुकुरमुत्ते के गूदे कोयल के अण्डों के साथ?
और चिड़ियों का नरम-नरम माँस आपको पसन्द नहीं आया? खुमियों के साथ? और बटेर? साढ़े
दस रुबल वाली? और संगीतमय वातावरण? और
अत्युत्तम, विनयपूर्ण सेवा! और जुलाई के महीने में, जब पूरा परिवार देहात के घरों में हो, और आपके पास
अत्यावश्यक साहित्यिक कार्यकलाप हों, जिनके कारण आपको शहर
में ही रुकना पड़ा हो – तब बरामदे में अंगूर की बेल
की छाँव में, सुनहरे डिज़ाइन वाली प्लेट में, चकचकाते हुए कालीन पर प्रेंतानेर सूप! याद कीजिए, अम्रोसी?
इसमें पूछने की क्या बात है? आपके होठों को
देखकर ही समझ में आ रहा है कि आपको वह सब याद है! आपकी इस मामूली मछली की उस सबसे
कैसी तुलना! और बड़ा चाहा पक्षी, सारस, बगुले
और मौसमी जंगली चिड़िया, गले में सीटी बजाती शराब? बस हुआ, पाठकगण, आप भटक
जाएँगे! मेरे साथ साथ!...
जब बेर्लिओज़ पत्रियार्शी पर मर गया, उस रात साढ़े ग्यारह बजे, ग्रिबायेदव की ऊपरी मंज़िल पर सिर्फ एक ही कमरे में रोशनी थी. वहाँ क़रीब
बारह साहित्यकार मीटिंग के लिए ठँसे हुए थे और मिखाइल अलेक्सान्द्रविच का इंतज़ार
कर रहे थे.
मेज़ों, कुर्सियों और दोनों खिड़कियों की देहलीज़ पर बैठे इन लोगों
का मॉसोलित के प्रबन्धक के कमरे में गर्मी और उमस के मारे दम घुटा जा रहा था. खुली
खिड़कियों से ताज़ी हवा की एक छोटी-सी लहर भी प्रवेश नहीं कर पा रही थी. मॉस्को दिन
भर की सीमेंट के रास्तों पर जमा हुई ऊष्मा को बाहर निकाल रहा था और यह स्पष्ट था
कि इस गर्मी से रात को कोई राहत नहीं मिलेगी. बुआजी के घर के तहख़ाने में स्थित
रेस्तराँ के रसोई घर से प्याज़ की ख़ुशबू आ रही थी. सभी प्यासे, घबराए और क्रोधित थे.
शांत व्यक्तित्व कथाकार बिस्कूद्निकव ने सलीके से कपड़े पहन रखे थे. उसकी
आँखें हर चीज़ को ध्यानपूर्वक देखती थीं, मगर जिनका भाव किसी पर प्रकट नहीं
होता था. उसने घड़ी निकाली. सुई ग्यारह के अंक पर पहुँचने वाली थी. बिस्कूद्निकव ने
घड़ी के डायल पर ऊँगली से ठक-ठक किया और उसे पास ही मेज़ पर बैठे कवि दुब्रात्स्की
को दिखाया. वह व्याकुलता से अपनी टाँगें हिला रहा था. उसने पीले रबड़ के जूते पहन
रखे थे.
“सचमुच”, दुब्रात्स्की बड़बड़ाया.
“पट्ठा शायद क्ल्याज़्मा में फँस गया है,” भारी
आवाज़ में नस्तास्या लुकीनिश्ना निप्रिमेनवा ने कहा. नस्तास्या मॉस्को के एक
व्यापारी वर्ग की अनाथ बेटी थी, जो लेखिका बन गई थी और ‘नौचालक जॉर्ज’ के उपनाम से समुद्री बटालियन
सम्बन्धी कहानियाँ लिखा करती थी.
“माफ़ करें!” लोकप्रिय स्केच लेखक ज़ग्रीवव ने
बेधड़क कहा, “मैं तो यहाँ उबलने के बजाय बाल्कनी में चाय
पीना पसन्द करता. सभा तो दस बजे होने वाली थी न?”
“इस समय क्ल्याज़्मा में बड़ा अच्छा मौसम है...” नौचालक
जॉर्ज ने सभी उपस्थितों को उकसाते हुए कहा. वह जानती थी कि साहित्यकारों की देहाती
बस्ती पिरेलीगिना क्ल्याज़्मा में है, जो सभी की कमज़ोरी थी.
“शायद अब कोयल ने भी गाना शुरु कर दिया होगा. मुझे तो हमेशा शहर से बाहर ही
काम करना अच्छा लगता है, ख़ासतौर से बसंत में.”
“तीन साल से पैसे भर रहा हूँ, ताकि गलगण्ड से ग्रस्त
अपनी बीमार पत्नी को इस स्वर्ग में भेज सकूँ, मगर अभी
दूर-दूर तक आशा की कोई किरण नहीं नज़र आती,” ज़हरबुझे और
दुःखी स्वर में उपन्यासकार इरोनिम पप्रीखिन ने कहा.
“यह तो जिस-तिसका नसीब है,” आलोचक अबाब्कव खिड़की
की देहलीज़ से भनभनाया.
नौचालक जॉर्ज की आँखों में ख़ुशी तैर गई. वह अपनी भारी आवाज़ को थोड़ा मुलायम
बनाकर बोली, “मित्रों..., हमें ईर्ष्या नहीं
करनी चाहिए. उस देहाती बस्ती में हैं केवल बाईस घर और सिर्फ सात और नए घर बनाए जा
रहे हैं, और हम मॉसोलित के सदस्य हैं तीन हज़ार.”
“तीन हज़ार एक सौ ग्यारह,” कोने से किसी ने
दुरुस्त किया.
“हूँ, देखिए,” नौचालक ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “क्या किया जाए? ज़ाहिर है कि देहाती घर हममें से सबसे
योग्य व्यक्तियों को ही मिले हैं...”
“जनरलों!” सीधे-सीधे झगड़े में कूदता हुआ नाट्य
कथाकार ग्लुखारेव बोला.
बिस्कूद्निकव कृत्रिम ढंग से जँभाई लेता हुआ कमरे से बाहर निकल गया.
“पिरेलीगिना के पाँच कमरों में एक
अकेला!” उसके जाते ही ग्लुखारेव ने कहा.
“लाव्रोविच तो छह कमरों में अकेला है,” देनिस्कीन
चिल्लाया, “और भोजनगृह में पूरा शाहबलूत का फर्नीचर है!”
“ऐ, इस समय बात यह नहीं है,” अबाब्कव भिनभिनाया, “बात यह है कि साढ़े ग्यारह
बज चुके हैं.”
अचानक शोर सुनाई दिया, शायद कुछ आदमियों में लड़ाई हो रही थी. घृणित पिरेलीगिना में लोग फोन करने लगे, फोन
की घण्टी किसी और घर में बजी, जहाँ लाव्रोविच रहता था;
पता चला कि लाव्रोविच नदी पर गया है, और यह
सुनकर सभी को बड़ा गुस्सा आया. फिर यूँ ही ललित कला संघ में एक्सटेंशन नम्बर 930 पर
फोन किया गया, मगर, ज़ाहिर है, वहाँ से किसी ने जवाब नहीं दिया.
“वह कम से कम फोन तो कर ही सकता था,” देनीस्किन,
ग्लुखारेव और क्वांत चिल्लाए.
ओह, वे सब व्यर्थ ही चिल्ला रहे थे : अब मिखाइल अलेक्सान्द्रविच
कहीं भी फोन नहीं कर सकता था. ग्रिबायेदव से दूर, बहुत दूर,
एक बहुत बड़े हॉल में, हज़ारों लैम्पों की रोशनी
में, तीन जस्ते की मेज़ों पर वह पड़ा था, जो कुछ देर पहले तक मिखाइल अलेक्सान्द्रविच था.
पहली मेज़ पर – निर्वस्त्र, खून से लथपथ,
टूटे हुए हाथ और कुचली हुई छाती वाला धड़, दूसरी
पर टूटे हुए दाँतों वाला और धुँधलाई आँखों वाला सिर. इन आँखों को तीक्ष्ण भेदक
प्रकाश भी अब डरा नहीं सकता था. और तीसरी मेज़ पर था – एक चीथड़ों का ढेर.
बिना सिर के शव के पास खड़े थे : कानूनी चिकित्सा का प्रोफेसर, पैथोलोजिस्ट
और चीरफाड़ के विशेषज्ञ, अन्वेषण दल के प्रतिनिधि और मिखाइल अलेक्सान्द्रविच
बेर्लिओज़ की बीमार बीबी द्वारा फोन करके भेजा गया मॉसोलित का उप-प्रबन्धक – साहित्यकार झेल्दीबिन.
झेल्दीबिन को लाने के लिए मोटर गाड़ी भेजी गई थी. सर्वप्रथम अन्वेषण दल के
साथ उसे मृतक के फ्लैट में ले जाया गया (तब क़रीब आधी रात बीत चुकी थी), वहाँ
उसके कागज़ात को मुहरबन्द कर दिया गया. उसके बाद वे सब शवागार पहुँचे.
मृतक के अवशेषों के पास खड़े वे सब विचार-विमर्श कर रहे थे कि क्या करना
बेहतर होगा : क्या कटे हुए सिर को धड़ से सी दिया जाए या शरीर को ग्रिबायेदव हॉल
में यूँ ही रख दिया जाए और उसे ठोड़ी तक पूरी तरह काले कपड़े से ढाँक दिया जाए?
हाँ, मिखाइल अलेक्सान्द्रविच अब कहीं भी फोन नहीं कर सकता था.
देनीस्किन, ग्लुखारेव और क्वांत तथा बिस्कूद्निकव बेकार ही
परेशान थे और चिल्ला रहे थे. ठीक आधी रात को सभी बारह साहित्यकार ऊपर की मंज़िल से
उतरकर रेस्तराँ की ओर चल दिए. वहाँ भी उन्होंने मन ही मन मिखाइल अलेक्सान्द्रविच
को खूब कोसा : बरामदे के सभी टेबुल, ज़ाहिर है, पहले ही भर चुके थे और उन्हें रात का भोजन इन्हीं खूबसूरत, मगर उमसभरे हॉलों में करना पड़ा.
ठीक आधी रात को हॉल में पहले कोई चीज़ गिरी, झनझनाई, बिखरी
और कूदी और तभी पुरुष की पतली-सी आवाज़ मानो गाते हुए चिल्लाई : “अल्लीलुइया!!” ग्रिबायेदव का प्रख्यात जॉज़ शुरु
हो गया था. फिर पसीने से नहाए चेहरों पर चमक कौंध गई, लगा
मानो छत पर चित्रित घोड़े जीवित हो उठे. लैम्पों की रोशनी दोहरी हो गई, अचानक, मानो कारागृह की जंज़ीरों को तोड़कर दोनों हॉल
नाचने लगे और उनके साथ-साथ बरामदा भी झूम उठा.
ग्लुखारेव कवियत्री तमारा पलुमेस्यात्स के साथ नृत्य कर रहा था; क्वान्त
नाच रहा था; उपन्यासकार झकोपव नाच रहा था, पीले फ्रॉक वाली सिने अभिनेत्री के साथ; साथ ही नाच
रहे थे : द्रागूंस्की, चिर्दाक्ची, छोटा-सा
देनिस्किन विशालकाय नौचालक जॉर्ज के साथ; सुन्दर आर्किटेक्ट
सिमेयकिना गॉल सफेद पैंट वाले अजनबी के साथ नाच रही थी, जिसने
उसे कसकर पकड़ रखा था. सभी नाच रहे थे : क्या मेहमान क्या मेज़बान, मॉस्को के लेखक और क्रोन्श्दात से आया हुआ लेखक; वीत्या
कूफ़्तिक, जो रस्तोव से आया था और शायद निर्देशक था, जिसके चेहरे पर कमल के रंग के चकत्ते थे; मॉसोलित के
काव्य विभाग के विख्यात प्रतिनिधि नाच रहे थे, यानी कि
पविआनव, बगाखुल्स्की, स्लाद्की,
श्पीच्किन और अदेल्फिना बुज़्द्याक; कुछ अनजान
पेशे वाले, बॉक्सरों की तरह बालों वाले नौजवान नाच रहे थे;
कोई एक दाढ़ीवाला बुज़ुर्ग नाच रहा था, जिसकी
दाढ़ी में हरी प्याज़ का एक तिनका अटक गया था, उसके साथ बड़ी
उम्र की, एनिमिक लड़की, नारंगी रंग का
मुड़ा-तुड़ा फ्रॉक पहने नाच रही थी.
पसीने से नहाए हुए बेयरे नाचने वालों के सिरों के ऊपर से बियर के फेन भरे
गिलास ले जा रहे थे. वे भर्राई और कड़वाहट भरी आवाज़ में चिल्लाते जा रहे थे, “क्षमा करें, नागरिक!” कहीं
पीछे भोंपू में आवाज़ सुनाई पड़ती थी, “कार्स्की एक!
ज़ुब्रोव्स्का दो!”, “होम स्टाइल ओझरी!” पतली आवाज़ अब गा नहीं रही थी, सिर्फ “अल्लीलुइय्या!” दुहराती जा रही थी. जॉज़ की
सुनहरी तश्तरियों की छनछनाहट कभी-कभी खाने-पीने की प्लेटों की खनखनाहट को दबा देती
थी, जिन्हें प्लेटें धोने वाले धो-धोकर नीचे की ओर जाते हुए
फर्श पर रसोईघर में सरकाते जा रहे थे. संक्षेप में, बिल्कुल
नरक!
और इस नरक में आधी रात को एक भूत दिखाई दिया. काले बालों और छुरी के समान
दाढ़ी वाला एक युवक बरामदे में आया. उसने पल्लेदार कोट पहन रखा था. बरामदे पर आकर
उसने शाही नज़र से अपनी इस सम्पदा को देखा. रहस्यवादी कहते हैं, कि
एक समय था जब यह नौजवान पल्लेदार कोट नहीं पहना करता था, बल्कि
चमड़े का चौड़ा कमरबन्द उसकी कमर पर कसा रहता था, जिसमें से
पिस्तौलों के हत्थे नज़र आया करते थे. उसके कौए के परों जैसे बाल लाल रेशमी रुमाल
से बँधे होते थे और उसकी आज्ञा से कराईब्स्की समुद्र में दो मस्तूलों वाला
व्यापारिक जहाज़ चलता था, जिसके काले झण्डे पर आदम का सिर बना
हुआ था.
मगर नहीं, नहीं! ये रहस्यवादी बिल्कुल बकवास करते हैं, झूठ बोलते हैं, दुनिया में कहीं भी कराईब्स्की नामक
समुद्र है ही नहीं, और उस पर व्यापारिक जहाज़ भी नहीं चलते थे,
न ही उनका पीछा तीन मस्तूलों वाले जहाज़ किया करते थे, न ही गोला-बारूद का धुँआ पानी के ऊपर तैरा करता था. नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं था, बिल्कुल नहीं था. बस यही पुराना,
मरियल-सा सुगन्ध वाला छायादार पेड़ है. उसके पीछे लोहे की जाली और
जाली के पीछे तरुमण्डित रास्ता...और फूलदानी में बर्फ तैर रही है, और पड़ोस की मेज़ पर शराब के नशे से खून जैसी लाल हुई जानवरों जैसी आँखें
दिख रही हैं, और डरावना-डरावना-सा...हे भगवान...मेरे देवता,
इससे बेहतर तो ज़हर ही होगा, मुझे वही दे
दो!...
और अचानक किसी मेज़ के पीछे से ‘बेर्लिओज़’ शब्द उड़ा. अचानक जॉज़ बिखरकर थम गया, जैसे किसीने उसे
घूँसे से मारा हो. “क्या, क्या,
क्या, क्या!!” “बेर्लिओज़!!!” और सब अपने-अपने स्थान से उछलने और चीखने लगे.
हाँ, मिखाइल अलेक्सान्द्रविच के बारे में यह डरावनी ख़बर सुनकर
दु:ख की एक लहर दौड़ गई. कोई यूँ ही भाग-दौड़ करने लगा, चिल्लाने
लगा, कि इस समय सबसे ज़रूरी बात यह है कि अपनी जगह से हिले
बिना, तुरंत, एक सामूहिक टेलिग्राम की
इबारत रची जाए और उसे भेज दिया जाए.
मगर हम पूछते हैं कि कैसा टेलिग्राम और कहाँ भेजा जाए? और
क्यों? मुख्य बात है, कहाँ? और किसी भी प्रकार के टेलिग्राम की अब उसे क्या ज़रूरत है जिसका पिचका हुआ
सिर अब चीरफाड़ विशेषज्ञ के रबरी दस्ताने वाले हाथों में था, जिसकी
गर्दन पर नुकीली सुई से प्रोफेसर छेद करने वाले थे? वह मर
चुका है और उसे अब किसी तरह के टेलिग्राम की कोई ज़रूरत नहीं है. सब कुछ समाप्त हो
गया है. अब टेलिग्राफ ऑफिस पर और बोझ नहीं डालेंगे.
हाँ, मर गया, मर गया...मगर हम तो ज़िन्दा
हैं!
हाँ, तो दु:ख की लहर दौड़ गई, मगर वहीं थम
गई. थम गई और धीरे-धीरे कम होने लगी. कोई-कोई तो अपनी मेज़ पर लौट गया और पहले
चोरी-छिपे और फिर खुलेआम वोद्का का एक पैग पीकर साथ रखी चीज़ें खाने लगा. आख़िर,
मुर्गी के कटलेटों को क्यों फेंका जाए? हम
मिखाइल अलेक्सान्द्रविच की कोई मदद कैसे कर सकते हैं? क्या,
भूखे रहकर? मगर, हम तो
ज़िन्दा हैं!
स्वाभाविक ढंग से, पियानो को ताला लगा दिया गया, जॉज़
बिखर गया; कुछ संवाददाता अपने-अपने ऑफिस मृत व्यक्ति का
चरित्र-सार लिखने चले गए. यह पता चला कि शवागार से झेल्दीबिन लौट आया है. वह मृतक
के ऊपरी मंज़िल वाले कमरे में बैठ गया. तभी यह ख़बर फैल गई कि, वही बेर्लिओज़ के स्थान पर यानी कि प्रमुख के पद पर कार्य करेगा. झेल्दीबिन
ने रेस्तराँ से कार्यकारिणी के सभी बारह सदस्यों को बुला भेजा. बेर्लिओज़ के कमरे
में हुई आपात बैठक में कुछ ऐसे प्रश्नों पर विचार किया जाने लगा, जिन्हें स्थगित नहीं किया जा सकता था. प्रश्न थे : स्तम्भों वाले हॉल की
सफाई करवा कर, शवागार से मृतदेह लाकर इस हॉल में रखना,
वहाँ तक पहुँचने के लिए रास्ता खोल देना और ऐसी ही कई अन्य, इस शोकपूर्ण घटना से जुड़ी हुई बातें.
और रेस्तराँ फिर से अपनी रात की ज़िन्दगी जी उठा और बन्द होने तक, यानी
सुबह के चार बजे तक जीता रहता यदि कोई अप्रत्याशित घटना न घटती, जिसने रेस्तराँ के मेहमानों को बुरी तरह चौंका दिया, उससे भी कहीं ज़्यादा, जितना बेर्लिओज़ की मृत्यु की
खबर ने.
पहले चौंके वे साहसी, जो ग्रिबायेदव भवन के द्वार पर पहरा देते थे. सभी
उपस्थितों ने सुना कि उनमें से एक बॉक्स पर चढ़कर चिल्लाया : छि:! ज़रा देखिए तो!
इसके बाद जिधर भी देखो, लोहे के जंगले के पास एक रोशनी दिखाई देने लगी, जो धीरे-धीरे बरामदे के पास आने लगी. टेबुलों के पीछे बैठे हुए लोग
अपने-अपने स्थानों से उठकर देखने लगे, देखा कि इस रोशनी के
साथ-साथ रेस्तराँ की तरफ एक सफेद भूत आ रहा है. जब वह जाली के मोड़ के निकट पहुँचा,
सभी मेज़ों के पीछे काँटों में मछली उठाए, आँखें
फाड़े मानो जम गए. दरबान ने, जो इसी समय रेस्तराँ के कोट आदि
टाँगने के बाद सिगरेट पीने के लिए कमरे से बाहर निकला था, अपनी
सिगरेट बुझा दी और भूत को रेस्तराँ में प्रवेश करने से रोकने के लिए उसकी ओर बढ़ना
चाहा, मगर न जाने क्यों उसने ऐसा नहीं किया और मूर्खों की
भाँति मुस्कुराता रहा.
और भूत, जाली का मोड़ पार करके, बेधड़क बरामदे
में घुस पड़ा. अब सबने देखा कि वह कोई भूत-वूत नहीं है, बल्कि
इवान निकलायेविच बिज्दोम्नी – प्रख्यात कवि है.
वह नंगे पैर था, फटे हुए सफ़ेद ढीले-ढाले कुरते में, जिस
पर सामने की ओर अंग्रेज़ी सेफ्टीपिन से कागज़ की एक अज्ञात संत की तस्वीर लगाई गई थी,
उसने धारियों वाला सफेद कच्छा पहन रखा था. इवान निकलायेविच ने हाथ
में जलती हुई मोमबत्ती पकड़ रखी थी. इवान निकलायेविच के दाहिने गाल पर ताज़ा खरोंच
का निशान था. बरामदे में छा गई चुप्पी इतनी गहरी थी कि उसको नापना कठिन हो गया था.
एक बेयरे के हाथ के प्याले से बियर फेन के साथ बह-बहकर फर्श पर गिर रही थी.
कवि ने मोमबत्ती को सिर पर ऊँचा उठाया और ज़ोर से बोला, “कैसे हो, दोस्तों?” इसके
बाद निकट की मेज़ पर दृष्टि दौड़ाकर विषादपूर्ण स्वर में बोला, “नहीं, वह यहाँ नहीं है!”
दो आवाज़ें सुनाई दीं, एक भारी आवाज़ बेरहमी से बोली, “काम
तमाम! सफ़ेद बुखार!”
और दूसरी, डरी हुई स्त्री की आवाज़ बोली, “पुलिस
वालों ने इसे इस हालत में रास्ते पर कैसे चलने दिया?”
इवान निकलायेविच ने यह सुन लिया और इसका जवाब भी दिया, “दो बार पकड़ने की कोशिश की, स्कातेर्त्नी में और यहीं
ब्रोन्नाया पर, मगर मैं जाली फाँदकर आ गया, देखो गाल पर खरोंच!”
इवान निकलायेविच ने मोमबत्ती ऊपर उठा ली और चिल्लाया, “साहित्यिक बंधुओं!” (उसकी भर्राई हुई आवाज़ और
मज़बूत तथा जोशीली हो गई), सब मेरी बात सुनो! वह प्रकट हो
चुका है! जल्दी से उसे पकड़ लो, वर्ना वह वर्णनातीत संकटों को
न्यौता दे देगा!”
“क्या? क्या? उसने क्या कहा?
कौन प्रकट हो गया?” सभी दिशाओं से आवाज़ें
आने लगीं.
“सलाहकार!” इवान ने उत्तर दिया, “और इस सलाहकार ने अभी-अभी पत्रियार्शी पर मीशा बेर्लिओज़ को मार डाला.”
यह सुनते ही अन्दर के हॉल से बरामदे में लोग निकलने लगे. इवान की मोमबत्ती
के चारों ओर भीड़ जमा होने लगी.
“माफ़ कीजिए, माफ़ कीजिए, सही-सही
बताइए...” इवान निकलायेविच के कान के समीप एक शांत और
नम्र स्वर सुनाई दिया, “बताइए, कैसे
मार डाला? किसने मार डाला?”
“विदेशी सलाहकार, प्रोफेसर और जासूस ने!” चारों ओर देखते हुए इवान बोला.
“और उसका नाम क्या है?” हौले से कान के निकट
पूछा गया.
“ओह, ओह, नाम!” नैराश्य के भाव से इवान चिल्लाया, “काश मैं,
उसका नाम जानता होता! मैंने उसके विज़िटिंग कार्ड पर लिखा नाम ही तो
नहीं पढ़ा...केवल पहला अक्षर याद है “व”...नाम “व” से शुरू
होता है! “व” से शुरू होने
वाला नाम भला क्या था?”
सोचने के आविर्भाव में माथे के निकट हाथ लाकर, इवान
ने अपने आप से पूछा और फिर एकदम बड़बड़ाया, “वे,वे,वे! वा...वो...वाग्नेर? वाग्नेर?
वायनेर? वेग्नेर? विन्तेर?” तनाव के कारण इवान के सिर के बाल खड़े होने लगे.
“वुल्फ?” करुणा भरे स्वर में कोई महिला चिल्लाई.
इवान को गुस्सा आ गया.
“बेवकूफ़!” चिल्लाने वाली महिला को नज़रों से
तलाशते हुए इवान चिल्लाया, “यहाँ वुल्फ का क्या काम है?
वुल्फ का कोई दोष नहीं है! वो...वो...नहीं! याद नहीं आएगा! ख़ैर,
नागरिकों, इसी समय पुलिस को फोन कीजिए,
कि मोटर साइकिल वाले पाँच बन्दूकधारी भेजे जाएँ, जिससे कि प्रोफेसर पकड़ा जा सके. यह भी ज़रूर बताइए कि उसके साथ दो और भी
हैं : एक लम्बू, चौख़ाने वाला...चश्मा टूटा हुआ...और एक काला
बिल्ला, चमकदार; तब तक मैं ग्रिबायेदव
में उसे ढूँढ़ता हूँ...मुझे लग रहा है कि वह यहीं है!”
इवान फिर परेशानी के आलम में खो गया, आसपास के लोगों को धक्के मारते हुए,
मोमबत्ती इधर-उधर घुमाने लगा; अपने आप पर मोम
छलकाते हुए, मेज़ों के नीचे देखने लगा. तभी एक शब्द सुनाई
दिया : “डॉक्टर को!” और किसी
का भरा-भरा पुचकारता हुआ चेहरा, चिकना, खाया-पिया सा, सींगों वाला चश्मा लगाए इवान को दिखाई
दिया.
“साथी बिज्दोम्नी,” वह चेहरा समारोह-पूर्वक स्वर
में बोला, “शांत हो जाइए! आप हम सबके प्रिय मिखाइल अलेक्सान्द्रविच
की, नहीं – सिर्फ मीशा
बेर्लिओज़ की मृत्यु से बहुत परेशान हैं...हम सब यह बात अच्छी तरह समझते हैं. आपको
विश्राम की आवश्यकता है. अभी साथी आपको बिस्तर में ले जाएँगे, और आप सब कुछ भूल जाएँगे...”
“तुम,...” दाँत भींचते हुए इवान ने बीच में कहा, “समझ रहे हो, कि प्रोफेसर को पकड़ना ज़रूरी है? और तुम अपनी बेवकूफ़ी भरी बातों से मेरा दिमाग चाट रहे हो! मूर्ख!”
“साथी बिज्दोम्नी, क्षमा कीजिए,” चेहरा लाल पड़ते हुए, पछताते हुए बोला कि मैं क्यों
इस उलझन में पड़ गया.
“नहीं, और किसी को कर सकता हूँ, मगर तुम्हें तो मैं माफ नहीं करूँगा!” शांत
घृणा से इवान निकलायेविच बोला.
ऐंठन ने उसके चेहरे को विकृत कर दिया. उसने जल्दी से मोमबत्ती दाहिने हाथ
से बाएँ हाथ में ले ली. झटके से हाथ उठाया और इस सहानुभूतिपूर्ण चेहरे के कान के
पास जड़ दिया.
तभी सबने इवान के ऊपर झपटने की सोची और झपट पड़े. मोमबत्ती बुझ गई, और
चेहरे से नीचे खिसक पड़ा चश्मा, पैरों द्वारा कुचल दिया गया.
इवान ने भयानक चीख निकाली, जो सड़क तक सुनाई पड़ी, और संरक्षणात्मक रुख अपना लिया. मेज़ों से नीचे गिरती हुई तश्तरियाँ
झनझनाने लगीं, औरतें चीखने लगीं.
जब तक कर्मचारियों ने तौलियों से कवि को बाँधा, नीचे
कोट रखने की जगह पर चौकीदार और कमाण्डर के बीच इस तरह की बातचीत हुई :
“तुमने देखा कि वह सिर्फ कच्छे में है?” ठण्डी
आवाज़ में उसने पूछा.
“हाँ, अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच!” संकोच से सिकुड़ते हुए चौकीदार ने उत्तर दिया, “मगर
मैं उन्हें अन्दर जाने से कैसे रोक सकता था, अगर वे मॉसोलित
के सदस्य हैं?”
“तुमने देखा कि वह कच्छे में था?” कमाण्डर ने
फिर दोहराया.
“क्षमा करें अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच,” लाल
पड़ते हुए चौकीदार बोला, “मैं क्या कर सकता था? मैं ख़ुद भी समझता हूँ कि बरामदे में महिलाएँ बैठी हैं...”
“महिलाओं का यहाँ कोई काम नहीं, महिलाओं को इससे कुछ
फरक नहीं पड़ता,” कमाण्डर चौकीदार को आँखों से भस्म करते
हुए बोला, “मगर पुलिस को इससे फरक पड़ता है! कच्छा पहना
आदमी मॉस्को की सड़कों पर तभी घूम सकता है, जब उसे पुलिस
पकड़कर ले जा रही हो, और वह भी जब उसे पुलिस थाने ले जाया जा
रहा हो! और तुम्हें, अगर चौकीदार हो, तो
यह मालूम होना चाहिए कि ऐसे आदमी को देखने के बाद, एक क्षण
की भी देरी किए बिना, सीटी फूँकना शुरू कर देना चाहिर. तुम
सुन रहे हो?”
आधे पागल-से हो गए चौकीदार ने अन्दर बरामदे से ऊई...ऊई...की आवाज़ें, प्लेटों
के फेंके जाने की और औरतों के चीखने की आवाज़ें सुनीं.
“तो, इसके लिए तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए?” कमाण्डर ने पूछा.
चौकीदार के चेहरे का रंग टाइफाइड के मरीज़ के रंग जैसा हो गया. आँखें
मृतप्राय हो गईं. उसे महसूस हुआ कि काले, ढंग से कंघी किए बाल, आग से घिर गए हैं. कोट गायब हो गया. कमर से बंधे बेल्ट से पिस्तौल का
हत्था प्रकट हो गया है. चौकीदार ने अनुभव किया कि वह फाँसी के फन्दे पर लटका है.
अपनी आँखों से उसने अपनी जीभ बाहर को निकली देखी. अपना प्राणहीन सिर कन्धे पर लटका
देखा. उसे लहरों की आवाज़ भी सुनाई दी. चौकीदार के घुटने काँपने लगे. मगर तभी
कमाण्डर ने उस पर दया दिखाई और अपनी जलती आँखों को बुझा लिया.
“देखो, निकालाय! यह आख़िरी बार कह रहा हूँ, हमें तुम जैसे चौकीदारों की ज़रा-सी भी ज़रूरत नहीं है. तुम चर्च के चौकीदार
बन जाओ!” इतना कह कर कमाण्डर ने शीघ्र, स्पष्ट, ठीक-ठीक आज्ञा दी, “जलपान गृह से पन्तेलेय को बुलाया जाए. पुलिस रिपोर्ट. गाड़ी – पागलखाने ले जाया जाए,” और आगे बोला, “सीटी बजाओ!”
लगभग पन्द्रह मिनट बाद अतिआश्चर्यचकित लोगों ने, न
केवल रेस्तराँ से, बल्कि रास्ते से और रेस्तराँ के बगीचे में
खुलती हुई खिड़कियों से देखा कि किस तरह ग्रिबायेदव के दरवाज़े से पन्तेलेय, चौकीदार, पुलिसवाले, रेस्तराँ
का बेयरा और कवि र्यूखिन गुड़िया की तरह लिपटे एक नौजवान को बाहर ले जा रहे थे.
नौजवान आँसू बहाते हुए चिल्लाता जा रहा था, र्यूखिन पर झपट
पड़ने को तैयार था, और वह रोते-रोते बोला, “जंगली!”
बाहर खड़े ट्रक ड्राइवर ने दुष्टता का भाव चेहरे पर लाते हुए इंजिन शुरू
किया. पास ही खड़े निर्भीक गाड़ीवान ने अपने घोड़े को चाबुक मारकर कहा, “चलो! मैं पागलखाने सवारियाँ ले जा चुका हूँ!”
भीड़ शोर मचा रही थी. इस अप्रत्याशित घटना पर बहस हो रही थी. संक्षेप में, बहुत
ही भद्दा, फुसलानेवाला, सूअरपनवाला,
कलंकित दृश्य था, जो तभी समाप्त हुआ जब वह
ट्रक अभागे इवान निकलायेविच को, पुलिस वाले को, पन्तेलेय को और र्यूखिन को भरकर ग्रिबायेदव के द्वार के बाहर ले गया.
छह
उन्माद, यही बताया गया
जब मॉस्को के बाहर, नदी के किनारे स्थित हाल ही में बनाए गए प्रख्यात मानसिक
रुग्णालय के अतिथि-कक्ष में सफ़ेद कोट पहने तीखी दाढ़ी वाला एक व्यक्ति दाख़िल हुआ,
तब रात का डेढ़ बज रहा था. तीन स्वास्थ्य कर्मचारी सोफ़े पर बैठे
हुए इवान निकलायेविच पर से दृष्टि नहीं हटा रहे थे. वहीं, बहुत
परेशान कवि र्यूखिन भी था. जिन तौलियों से इवान निकलायेविच को बाँधा गया था,
वे अब उसी सोफ़े पर एक ढेर में पड़े थे. इवान निकलायेविच के हाथ और
पैर अब मुक्त थे.
अन्दर आने वाले व्यक्ति को देखते ही र्यूखिन का चेहरा पीला पड़ गया. वह
खाँसा और नम्रता से बोला, “नमस्ते डॉक्टर!”
डॉक्टर ने झुककर र्यूखिन के अभिवादन का उत्तर दिया, मगर
झुकते समय वह उसकी ओर न देखकर इवान निकलायेविच की तरफ़ देख रहा था.
वह बिना हिले-डुले बैठा था, बुरा-सा मुँह बनाए, भौंहे ताने. डॉक्टर के आने पर भी ज़रा हिला तक नहीं.
“डॉक्टर, यह...न जाने क्यों...” भयभीत दृष्टि से इवान निकलायेविच की ओर देखकर रहस्यमय ढंग से र्यूखिन
फुसफुसाया, “प्रसिद्ध कवि इवान बेज़्दोम्नी...आप देख
रहे हैं न...हमें डर है कि कहीं सफ़ेद बुखार न हो!”
“क्या बहुत पी ली?” डॉक्टर ने दाँतों को बिना
हिलाए पूछा.
“नहीं, पी है, मगर इतनी नहीं कि
एकदम...”
“कहीं तिलचट्टे, चूहे, शैतान,
भागे हुए कुत्ते तो नहीं पकड़ रहे थे?”
“नहीं,” काँपते हुए र्यूखिन ने जवाब दिया, “मैंने इन्हें कल देखा था और आज सुबह. बिल्कुल स्वस्थ थे...”
“फिर कच्छे में क्यों हैं? क्या सीधे बिस्तर से उठाकर
लाए हैं?”
“डॉक्टर, वह रेस्तराँ में इसी वेष में पहुँचे थे.”
“अहा, अहा!” बड़े संतुष्ट
भाव से डॉक्टर बोला, “यह चोट के निशान क्यों हैं?
क्या किसी से झगड़ पड़े थे?”
“वह जाली फाँदते हुए गिर पड़े, फिर रेस्तराँ में एक
व्यक्ति को मारा भी...और भी किसी को...”
“अच्छा, अच्छा, अच्छा,” डॉक्टर ने कहा और मुड़कर इवान की ओर देखकर आगे बोला, “नमस्ते!”
“स्वस्थ रहो, शत्रु!” क्रोध
से इवान ज़ोर से बोला.
र्यूखिन
घबरा गया. उसने आँखें उठाकर सज्जन डॉक्टर की ओर देखने की हिम्मत नहीं की. मगर
डॉक्टर ने ज़रा भी बुरा नहीं माना, बल्कि आदत के अनुसार सहज
भाव से चष्मा उतारा, उसे अपने कोट के अगले पल्ले को उठाकर
पैंट की पिछली जेब में खोंसा और फिर इवान से पूछा, “आपकी
उम्र क्या है?”
“तुम सब मुझसे दूर हटो, जहन्नुम में जाओ, सचमुच जहन्नुम में जाओ!” इवान रूखेपन से
चिल्लाया और उसने मुँह फेर लिया.
“आप गुस्सा क्यों होते हैं? क्या मैंने आपसे कोई
अप्रिय बात कह दी?”
“मेरी उम्र तेईस वर्ष है,” तैश में आकर इवान
बोला, “और मैं आप सबकी शिकायत करूँगा, और जूँ के अण्डे, तुम्हें तो मैं अच्छी तरह देख
लूँगा!” उसने र्यूखिन से अलग से कहा.
“आप किस बात की शिकायत करेंगे?”
“यही कि आप सब, मुझको, एक
स्वस्थ आदमी को ज़बर्दस्ती पागलखाने ले आए है!” इवान ने
क्रोधित होकर कहा.
अब र्यूखिन ने इवान को ग़ौर से देखा. उसके हाथ-पैर ठण्डे पड़ गए : सचमुच, उसकी
आँखों में पागलपन के कोई लक्षण नहीं थे. अब वे धुँधली के स्थान पर, जैसी कि ग्रिबायेदव में थीं, पूर्ववत स्पष्ट
पारदर्शी दिखाई देने लगी थीं.
‘बाप रे!’ घबराहट से र्यूखिन ने सोचा, ‘हाँ, यह तो बिल्कुल सामान्य है? ओह, क्या गड़बड़ हो गई! हम उसे, सचमुच, यहाँ क्यों घसीट लाए हैं? सामान्य है, एकदम सामान्य, सिर्फ
कुछ खरोंचें हैं...’
“आप इस समय...” चमचमाते हुए स्टूल पर बैठते हुए
डॉक्टर ने शांतिपूर्वक कहा, “पागलखाने में नहीं,
बल्कि चिकित्सालय में हैं, जहाँ आवश्यकता न
होने पर कोई भी आपको ज़बर्दस्ती रोककर नहीं रख सकता.”
इवान निकलायेविच ने अविश्वास से उसे देखा, मगर फिर
भी बड़बड़ाता रहा.
“भगवान उनका भला करें. बेवकूफ़ों की भीड़ में एक सामान्य व्यक्ति तो मिला,
उन बेवकूफ़ों में से पहला है मूढ़ और प्रतिभाशून्य साश्का!”
“यह साश्का प्रतिभाशून कौन है?” डॉक्टर ने जानना
चाहा.
“यही र्यूखिन!” इवान ने अपनी गन्दी उँगली से र्यूखिन
की ओर इशारा करते हुए कहा.
वह अपमान से फट पड़ा.
‘यह इनाम है मेरा, धन्यवाद के स्थान पर!’ उसने कड़वाहट से सोचा, ‘इसलिए कि मैंने इस
सबमें हिस्सा लिया! यह सब वास्तव में उलझन वाली स्थिति है!’
“इसकी मानसिकता एकदम कुलाकों जैसी है,” इवान निकलायेविच
ने आगे कहा, जिसे र्यूखिन का भंडाफोड़ करने की धुन सवार थी, “ऐसा कुलाक, जिसने सर्वहारा वर्ग का नक़ाब पहन रखा
है. इसके मरियल जिस्म को देखिए और उसे इसकी खनखनाती कविता से मिलाइए जो इसने पहली
मई के उपलक्ष्य में लिखी थी : हा...हा...हा... ‘ऊँचे
उठो!’ और ‘बिखर जाओ!’...और आप इसकी अंतरात्मा में झाँककर देखिए, वह क्या
सोच रहा है...और आप चौंक पड़ेंगे!” इवान निकलायेविच
भयंकर हँसी हँसा.
र्यूखिन
गहरी साँसें ले रहा था. उसका चेहरा लाल हो गया था. वह सिर्फ एक ही बात सोच रहा था – उसने आप ही नाग को अपने सीने पर बुला लिया है, कि
उसने उस व्यक्ति के मामले में टाँग अड़ाई है जो उसका कट्टर शत्रु साबित हुआ है.
रोना तो इस बात का था कि अब कुछ किया भी नहीं जा सकता था : पागल के ऊपर कौन गुस्सा
कर सकता है?
“सिर्फ आप ही को यहाँ, हमारे पास, क्यों लाया गया?” डॉक्टर ने बेज़्दोम्नी के
आरोप ध्यान से सुनने के बाद पूछा.
“भाड में जाएँ वे मूर्ख! मुझे दबोच लिया, किन्हीं
चिन्धियों से बाँध दिया और ट्रक में पटक दिया!”
“कृपया यह बताइए कि आप सिर्फ कच्छा पहनकर रेस्तराँ क्यों गए थे?”
“इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है,” इवान ने
उत्तर दिया, “मैं मस्क्वा नदी में तैरने के लिए कूदा,
और किसी ने मेरे कपड़े चुरा लिए, सिर्फ यही
कच्छा छोड़ दिया. अब मैं मॉस्को में निर्वस्त्र तो नहीं ना घूम सकता? जो था, वही पहन लिया, क्योंकि
मुझे ग्रिबायेदव के रेस्तराँ में पहुँचने की जल्दी थी.”
डॉक्टर ने प्रश्नार्थक दृष्टि से र्यूखिन की ओर देखा. उसने नाक-भौंह
चढ़ाकर उत्तर दिया, “रेस्तराँ का नाम यही है.”
“अहा,” डॉक्टर बोला, “और आपको इतनी जल्दी किस बात की थी? कोई ज़रूरी
मीटिंग थी?”
“मैं उस सलाहकार को पकड़ रहा हूँ,” इवान निकलायेविच
ने उत्तर देकर बेचैनी से इधर-उधर देखा.
“किस सलाहकार को?”
“आप बेर्लिओज़ को जानते हैं?” इवान ने अर्थपूर्ण
दृष्टि से पूछा.
“वह...संगीतज्ञ?”
इवान को गुस्सा आ गया.
“कहाँ का संगीतज्ञ? ओह, हाँ,
हाँ, नहीं. संगीतज्ञ मीशा बेर्लिओज़ का हमनाम
है.
र्यूखिन
कुछ भी बोलना नहीं चाह रहा था, मगर उसे डॉक्टर
को समझाना ही पड़ा.
“मॉसोलित
के सचिव बेर्लिओज़ को पत्रियार्शी के पास आज शाम को ट्रामगाड़ी ने कुचल दिया.”
“अगर तुम जानते नहीं हो, तो झूठ मत बोलो,” इवान र्यूखिन पर गरजा, “वहाँ तुम नहीं,
बल्कि मैं था. उसने ज़बर्दस्ती ट्राम के नीचे उसका इंतज़ाम कर दिया.”
“धक्का दिया?”
“धक्का कैसा?” इस बेसिर पैर के प्रश्न से इवान
फिर क्रोधित हो गया, “उस जैसे को तो धक्का देने की भी
ज़रूरत नहीं है! वह ऐसे-ऐसे कारनामे कर सकता है, कि बस देखते
ही रहो! वह पहले ही जानता था कि बेर्लिओज़ ट्राम के नीचे आने वाला है!”
“आपके अलावा इस सलाहकार को किसी और ने भी देखा है?”
“यही तो मुसीबत है, सिर्फ मैंने और बेर्लिओज़ ने ही
उसे देखा था.”
“अच्छा उस खूनी को पकड़ने के लिए आपने क्या उपाय किए?” डॉक्टर ने मुड़कर सफ़ेद एप्रन पहनी नर्स की ओर देखा जो एक कोने में मेज़
के पीछे बैठी थी. नर्स ने फॉर्म निकाला और वह ख़ाली स्थानों पर लिखने लगी.
“मैंने ये उपाय किए: रसोईघर से मोमबत्ती उठाई...”
“यह?” डॉक्टर ने टूटी हुई मोमबत्ती की ओर इशारा
करते हुए पूछा, जो नर्स के सामने मेज़ पर ईसा की तस्वीर की
बगल में पड़ी थी.
“यही, और...”
“और यह तस्वीर किसलिए?”
“अरे हाँ, ईसा की तस्वीर...” इवान का चेहरा लाल हो गया, “इस तस्वीर ने ही तो
सबसे ज़्यादा डरा दिया,” उसने फिर र्यूखिन की ओर इशारा
करते हुए कहा, “बात यह है, कि वह,
सलाहकार, वह, मैं
साफ-साफ कहूँगा...किन्हीं दुष्ट शक्तियों को जानता है...और उसे पकड़ा नहीं जा
सकता.”
स्वास्थ्य परिचारक न जाने क्यों हाथ लटकाए खड़े थे और इवान पर से नज़र नहीं
हटा रहे थे.
“हाँ...” इवान ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “ज़रूर जानता है! यह एक अटूट सत्य है, वह खुद पोंती
पिलात से बातें कर चुका है. हाँ, मेरी ओर इस तरह देखने की
कोई ज़रूरत नहीं है! मैं सत्य ही कह रहा हूँ! सब देख चुका है – बरामदा और चीड़ के पेड़...संक्षेप में यह कि वह पोंती पिलात के पास था,
इस बात को मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ.”
“और, और कहिए...”
“तो, मैंने ईसा की तस्वीर को सीने से लगाया और भागने
लगा...”
इसी समय घड़ी ने दो बार घंटे बजाए.
“एहे-हें!” इवान चहक कर बोला और सोफे पर से उठ
खड़ा हुआ, “दो बज गए और मैं आपके साथ समय नष्ट कर रहा
हूँ. मैं माफी चाहता हूँ, टेलिफोन कहाँ है?”
“टेलिफोन दिखाओ.” डॉक्टर ने परिचारकों को आज्ञा
दी.
इवान ने टेलिफोन का रिसीवर उठाया और महिला परिचारिका ने हौले से र्यूखिन
से पूछा, “क्या यह शादी-शुदा है?”
“कुँवारा!” र्यूखिन ने घबराकर उत्तर दिया.
“प्रोफसयूज़ (व्यावसायिक संघ) का सदस्य?
“हाँ, है.”
“पुलिस?” इवान टेलिफोन पर चिल्ला रहा था, “पुलिस? ड्यूटी वाले साथी, फौरन
पाँच मोटर साइकिल सवारों को मशीनगनों के साथ विदेशी सलाहकार को पकड़ने के लिए
भेजिए...क्या? मेरे साथ आइए, मैं ख़ुद
आपके साथ आऊँगा...मैं कवि बेज़्दोम्नी, पागलखाने से बोल रहा
हूँ...आपका पता क्या है?” रिसीवर पर हाथ रखकर इवान ने
डॉक्टर से फुसफुसाकर पूछा, “हैलो, आप सुन रहे हैं? बकवास!” अचानक
इवान फूट पड़ा और उसने रिसीवर दीवार पर दे मारा. फिर वह डॉक्टर की ओर मुड़ा,
उसकी तरफ हाथ बढ़ाकर रुखाई से “फिर
मिलेंगे” कहा, और चलने को तैयार
हुआ.
“क्षमा करें, आप जाएँगे कहाँ?” डॉक्टर ने इवान की आँखों में देखते हुए पूछा, “घनी
अँधेरी रात में, कच्छा पहनकर! आपकी तबीयत ठीक नहीं है,
यहीं रुक जाइए!”
“जाने दो ना,” इवान ने परिचारकों से कहा जो
दरवाज़ा रोके खड़े थे, “छोड़ोगे या नहीं?” डरावनी आवाज़ में कवि चिल्लाया.
र्यूखिन
काँप उठा और महिला परिचारिका ने मेज़ पर लगा एक बटन दबाया, जिसके
साथ ही मेज़ की सतह पर एक चमदार डिब्बा और कीटाणुरहित इंजेक्शन की शीशी आ गई.
“अच्छा तो ये बात है!” इवान ने जंगली और आहत
स्वर में कहा, “ठीक है! अलबिदा...” और सिर उठाए वह खिड़की के परदे की ओर लपका. एक धमाका-सा हुआ, मगर परदे के पीछे लगे न टूटने वाले काँच ने उसे रोक लिया, अगले ही क्षण इवान परिचारकों के हाथों में पड़ा था. उसके गले से भर्राहट
की आवाज़ आ रही थी. वह काटना चाह रहा था और चिल्ला रहा था :
”कैसे-कैसे
शीशे तुम लोगों ने लगा रखे हैं!...छोड़ो! छोड़ो, कहता हूँ!”
डॉक्टर के हाथ में सुई चमकी. नर्स ने झटके से पुराने ढीले-ढाले कुरते की
बाँह फाड़ दी और नरमी से इवान का हाथ पकड़ लिया. ईथर की गंध फैल गई. इवान चार
आदमियों के हाथों में ढीला पड़ गया. चपलता से डॉक्टर ने इस क्षण का फायदा उठाकर
इवान के हाथ में सुई घोंप दी. इवान को वे कुछ क्षण और थामे रहे और फिर उसे सोफे पर
डाल दिया.
“डाकू!” इवान चिल्लाया और सोफे से उछला, मगर उसे फिर सोफे पर धकेल दिया गया. जैसे ही उसे फिर छोड़ा गया वह फिर
उछलने को तत्पर हुआ, मगर फिर अपने आप ही वहीं बैठ गया. वह
चुप हो गया. जंगलीपन से इधर-उधर देखता रहा, फिर उसने अचानक
एक जम्हाई ली, फिर विकटतापूर्वक हँसा.
“पकड़ ही लिया, आख़िर में,” – एक और जम्हाई लेकर वह बोला. अचानक लेट गया, सिर तकिए
पर रखकर मुट्ठी बच्चों के समान, गाल के नीचे रखकर उनींदे
स्वर में बड़बड़ाने लगा, बिना किसी कड़वाहट के, “बहुत अच्छा है...खुद ही इसकी कीमत चुकाओगे. मैंने आगाह कर दिया, अब जो चाहे कर लो! मुझे अब सबसे ज़्यादा फिक्र पोंती पिलात की
है...पिलात...” और उसने आँखें बन्द कर लीं.
“स्नान, एक सौ सत्रह नम्बर का स्वतंत्र कमरा और साथ
में चौकीदार,” डॉक्टर ने चश्मा पहनते हुए आदेश दिया. र्यूखिन
फिर एक बार काँप गया : सफ़ेद दरवाज़े बिना आवाज़ किए खुल गए. उनके पीछे गलियारा धुँधला-सा
प्रकाशित हो रहा था. गलियारे से रबड़ के चक्कों वाला स्ट्रेचर आया, जिस पर शांत पड़े इवान को डाला गया. वह वापस गलियारे में चला गया, उसके पीछे दरवाज़े बन्द हो गए.
“डॉक्टर,” फुसफुसाकर घबराए हुए र्यूखिन ने पूछा, “इसका
मतलब यह सचमुच बीमार है?”
“ओह, हाँ,” डॉक्टर बोला.
“उसे हुआ क्या है?” नम्रता से र्यूखिन ने पूछा.
थके हुए डॉक्टर ने उसकी ओर देखकर सुस्त आवाज़ में उत्तर दिया, “चलन और वाणी प्रक्रियाओं का उन्माद...भ्रमात्मक निष्कर्ष...कारण, शायद, जटिल है... शिज़ोफ्रेनिया होने का अन्दाज़
लगाया जा सकता है. साथ ही शराब की लत भी है...”
डॉक्टर के शब्दों से र्यूखिन कुछ भी समझ नहीं पाया. उसने अनुमान लगाया कि
इवान निकलायेविच की हालत बुरी है और एक आह भरकर उसने पूछा, “और वह किसी सलाहकार के बारे में क्या कह रहा है?’
“शायद उसने किसी को देखा है, जिसने उसके दिमाग़ को
झकझोर दिया है. हो सकता है सम्मोहित कर दिया...”
कुछ मिनटों बाद ट्रक र्यूखिन को वापस मॉस्को ले गया. उजाला हो रहा था, और
सड़कों पर अभी तक जल रही ट्यूब लाइटों की रोशनी अप्रिय लग रही थी. ड्राइवर चिढ़
रहा था कि उसकी रात बर्बाद हो गई. पूरी ताकत से उसने ट्रक को छोड़ दिया और बार-बार
इधर-उधर मोड़ने लगा.
और जंगल गायब हो गया. दूर कहीं पीछे छूट गया. नदी कहीं कोने में दुबक गई.
ट्रक के सामने विभिन्नताएँ आती-जाती रहीं : कुछ जालियाँ चौकीदारों समेत, घास
से लदी गाड़ियाँ, पेड़ों के ठूँठ, कोई
मस्तूल, मस्तूल पर कुछ रीलें, बजरियों
के ढेर, धरती-नन्हीं धारियों से सजी – यूँ लगता था कि मॉस्को अब आया, अब आया; मॉस्को यहीं नुक्कड़ के पीछे है और अभी गाड़ी वहीं रुकेगी.
र्यूखिन
ज़ोर-ज़ोर से उछल रहा था, हिचकोले खा रहा था. कोई पेड़ का
ठूँठ जिस पर वह बैठा था, बार-बार उसके नीचे से फिसल जाने की
कोशिश कर रहा था. रेस्तराँ के तौलिए, जिन्हें पुलिस वाले और
पेंतेलेय फेंककर ट्रालीबस से वापस चले गए थे पूरे ट्रक में बिखरे पड़ रहे थे. र्यूखिन
ने उन्हें समेटने की कोशिश की मगर फिर कड़वाहट से सोचकर, ‘भाड़ में जाएँ! मैं क्यों बेवकूफ की तरह चक्कर खाता रहूँ...?’ उसने टाँग से उन्हें दूर उछाल दिया. उनकी ओर देखना भी बन्द कर दिया.
मुसाफ़िर का मूड बहुत ज़्यादा ख़राब था. स्पष्ट था कि पागलखाने की सैर ने
उसके दिल पर बड़ी गहरी छाप छोड़ी थी. र्यूखिन समझने की कोशिश कर रहा था कि उसे
कौन-सी चीज़ तंग कर रही है. नीले बल्बों की रोशनी वाला गलियारा, जो
उसके दिमाग़ में घर किए जा रहा था? यह ख़याल कि बुद्धिभ्रंश
से बड़ा दुर्भाग्य संसार में कोई नहीं है? हाँ, हाँ, यह भी. मगर यह तो एक आम ख़्याल था. इसके अलावा
भी कुछ था, वह क्या? अपमान? बिल्कुल ठीक, हाँ, अपमानजनक
शब्द जो बेज़्दोम्नी ने सीधे उसके मुख पर फेंक मारे थे. मुसीबत की बात यह नहीं थी
कि वे शब्द केवल अपमानजनक थे, बल्कि यह, कि वे सत्य थे.
कवि अब इधर-उधर नहीं देख रहा था. वह सिर्फ ट्रक के गन्दे फर्श को देखे जा
रहा था. फिर उसने आपने-आप को कोसते हुए कुछ बड़बड़ाना शुरू कर दिया.
’हाँ,
कविताएँ...वह बत्तीस साल का है! आगे क्या होगा? आगे वह प्रतिवर्ष कुछ कविताएँ रचता रहेगा – बुढ़ापे तक? हाँ, बुढ़ापे तक.
इन कविताओं से उसे क्या लाभ होगा? प्रसिद्धि? क्या बकवास है! कम से कम अपने आप को तो धोखा न दो. जो ऊल-जलूल कविताएँ
लिखता है उसे प्रसिद्धि कभी प्राप्त नहीं हो सकती. ऊल-जलूल क्यों? सच कहा, बिल्कुल सच! र्यूखिन ने अपने आपको
प्रताड़ित करते हुए कहा – जो कुछ भी लिखता हूँ,
उनमें से किसी पर भी मैं विश्वास नहीं करता!
इन्हीं ख़यालों में डूबे कवि को एक झटका लगा. उसके नीचे का फर्श अब उछल
नहीं रहा था. र्यूखिन ने सिर उठाया और देखा कि वह मॉस्को पहुँच चुका है, ऊपर
से मॉस्को में पौ फट रही है, बादल सुनहरी रोशनी में नहा रहे
हैं, तरुमंडित राजपथ के मोड़ पर अन्य कई वाहनों की लाइन में
ट्रक खड़ा है और उससे कुछ ही दूर धातु का बना एक आदमी वृक्षों से आच्छादित गलियारे
को उदासीनतापूर्वक देख रहा है.
बीमार कवि के मस्तिष्क में कुछ विचित्र से विचार रेंग गए: ‘यह है वास्तविक सफलता का उदाहरण,’ र्यूखिन
तनकर ट्रक में खड़ा हो गया और उसने हाथ उठाकर अलिप्त-से खड़े उस लौह-पुरुष पर
आक्रमण करना चाहा: ‘उसने जीवन में जो भी क़दम उठाया,
उसके साथ जो कुछ भी घटित हुआ, सभी का उसे लाभ
ही हुआ, सभी ने उसे प्रसिद्धि ही प्रदान की! मगर उसने किया
क्या! मैं समझ नहीं पा रहा हूँ...तूफ़ानी धुंध...इन शब्दों में कुछ बात तो अवश्य
है? समझ में नहीं आता!...किस्मत वाला है, किस्मत वाला!’ र्यूखिन ने कहा और तभी उसने
महसूस किया कि उसके पैरों के नीचे का ट्रक सरक रहा है, ‘मार डाला, गोली से उड़ा दिया इसे उस श्वेत सैनिक ने
और अमर बना दिया...’
वाहनों की कतार आगे बढ़ी. एकदम बीमार और बूढ़ा हो चला कवि दो मिनट के अन्दर
ही ग्रिबायेदव के बरामदे में पहुँचा. बरामदा ख़ाली हो चुका था. कोने में कुछ लोग
अपनी शराब ख़त्म कर रहे थे, और उनके बीच में एक परिचित उदघोषक शैम्पेन का गिलास लिए
भाग-दौड़ कर रहा था.
तौलियों में छिपे र्यूखिन से अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच टकराया और उसने
तत्क्षण ही कवि को उन गन्दे तौलियों से मुक्त किया. अगर अस्पताल में और फिर ट्रक
में र्यूखिन बहुत ज़्यादा परेशान न हो गया होता तो वह अवश्य ही मज़े ले-लेकर
सुनाता कि अस्पताल में क्या हुआ और इस कहानी को अपनी कल्पना से सजाकर ही कहता. मगर
इस समय वह इस मन:स्थिति में ही नहीं था. साथ ही, चाहे र्यूखिन की निरीक्षण शक्ति
कितनी ही कमज़ोर क्यों न हो, इस समय, ट्रक
के कष्टप्रद अनुभव के बाद, उसने जीवन में पहली बार इस
समुद्री डाकू को तीखी नज़रों से देखा और वह समझ गया कि हालाँकि वह बेज़्दोम्नी के
बारे में सवाल पूछता जा रहा था, साथ ही “ओय-ओय-ओय!” कहता जा रहा था, मगर वह बेज़्दोम्नी के भविष्य के बारे में पूरी तरह उदासीन था. उसे उस पर
ज़रा भी दया नहीं आ रही थी. “शाबाश! बिल्कुल ठीक!” र्यूखिन ने उन्माद भरी, आत्मनाशक कड़वाहट से सोचा
और पागलपन की कहानी को बीच ही में रोककर पूछा, “अर्चिबाल्द
अर्चिबाल्दविच, मुझे थोड़ी वोद्का...”
समुद्री डाकू सहानुभूति का भाव चेहरे पर लाते हुए फुसफुसाया, “मैं समझ सकता हूँ...अभी लो...” और उसने बेयरे
को हाथ के इशारे से बुलाया.
पन्द्रह मिनट बाद र्यूखिन पूरी तरह अकेला बैठकर मछली से खिलवाड़ करते हुए
गिलास पर गिलास शराब पीता जा रहा था. वह समझ रहा था और स्वीकार भी कर रहा था कि
उसके जीवन में कुछ भी सुधारना अब संभव नहीं है, सिर्फ भूलना ही बेहतर है.
कवि ने अपनी रात गँवा दी, जबकि अन्य व्यक्ति हर्षोल्लास में मग्न थे. अब वह समझ चुका
था कि गुज़री हुई रात को वापस लौटाना असंभव है. सिर्फ लैम्प से दूर सिर उठाकर आकाश
की ओर देखना ही बाकी था, यह समझने के लिए कि रात ढल चुकी थी,
कभी न लौटने के लिए. बेयरे जल्दी-जल्दी मेज़ों पर से मेज़पोश समेट
रहे थे. बरामदे के आसपास घूमती बिल्लियों पर सुबह का साया था. कवि पर अपने आपको
थामने में असमर्थ सवेरा गिर पड़ा.
********
सात
शापित फ़्लैट
अगर अगली सुबह स्त्योपा लिखादेयेव से कोई कहता कि, “स्त्योपा! अगर तुम इसी वक़्त नहीं उठे तो तुम्हें गोली मार दी जाएगी!” तो स्त्योपा अपनी भारी, मुश्किल से सुनाई पड़ने वाली
आवाज़ में कहता, “मार दो, मेरे साथ
जो जी में आए कर लो, मगर मैं उठूँगा नहीं!”
बात यह नहीं कि वह उठना नहीं चाहता था - उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह आँखें ही
नहीं खोल सकता, क्योंकि जैसे ही वह ऐसा करेगा, एक
बिजली सी टूट पड़ेगी जो उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े कर देगी. इस मस्तक में भारी-भारी
घण्टे बज रहे थे. आँखों की पुतलियों और बन्द पलकों के बीच सुनहरी हरी किनारी वाले
कत्थई शोले तैर रहे थे. उसका जी मिचला रहा था, मगर यह भी समझ
में आ रहा था कि इस मिचली का सम्बन्ध एक भद्दे, बेसुरे
ग्रामोफोन से आती हुई आवाज़ से था.
स्त्योपा ने कुछ याद करने की कोशिश की, मगर उसे सिर्फ एक ही बात याद आई कि
शायद कल, न जाने कहाँ, वह हाथ में
रुमाल पकड़े खड़ा था और किसी स्त्री का चुम्बन लेने की कोशिश कर रहा था, जिसके बाद उसने उस महिला से वादा किया कि अगले दिन ठीक दोपहर को वह उसके
घर आएगा. महिला ने इनकार करते हुए कहा : “नहीं, नहीं, मैं घर पर नहीं रहूँगी!” मगर स्त्योपा अपनी ही ज़िद पर अड़ा रहा : “कुछ भी
कहो, मगर मैं तो आऊँगा ही!”
वह महिला कौन थी? इस वक़्त कितने बजे हैं? कौन सी तारीख
है? कौन सा महीना है? स्त्योपा
निश्चयपूर्वक नहीं जानता था और सबसे बुरी बात यह थी कि वह यह भी नहीं समझ पा रहा
था कि इस वक़्त वह कहाँ है! उसने कम से कम आख़िरी गुत्थी को सुलझाने की दृष्टि से
बाईं आँख की चिपकी हुई पलक को खोलने की कोशिश की. धुँधलके में कोई चीज़ मद्धिम
रोशनी में चमक रही थी. आख़िरकार स्त्योपा ने आईने को पहचान लिया और वह समझ गया कि
वह अपने पलंग पर, यानी कि भूतपूर्व जौहरी के पलंग पर पड़ा है.
पलक खोलते ही सिर पर मानो हथौड़े पड़ने लगे, और उसने कराह कर
जल्दी से आँख बन्द कर ली.
चलिए, हम समझा देते हैं: स्त्योपा लिखादेयेव, वेराइटी थियेटर का डाइरेक्टर सुबह अपने उसी क्वार्टर में उठा, जिसमें वह मृतक बेर्लिओज़ के साथ रहता था. यह क्वार्टर सदोवया रास्ते पर
छहमंज़िली U आकार की इमारत में था.
यहाँ यह बताना उचित होगा कि यह क्वार्टर, 50 नम्बर वाला, बदनाम तो नहीं, मगर फिर भी विचित्र रूप से चर्चित
था. दो वर्ष पहले तक इसकी मालकिन जौहरी दे फुझेर की विधवा थी. पचास वर्षीय अन्ना
फ्रांत्सेव्ना दे फुझेर ने, जो बड़ी फुर्तीली और आदरणीय महिला
थी, पाँच में से तीन कमरे किराए पर दे दिए थे. एक ऐसे
व्यक्ति को जिसका कुलनाम, शायद, बेलामुत
था; और एक अन्य व्यक्ति को जिसका कुलनाम खो गया था.
और पिछले दो सालों से इस घर में अजीब-अजीब घटनाएँ होनी शुरू हो गईं. इस घर
से लोग बिना कोई सुराग छोड़े गायब होने लगे.
एक बार किसी छुट्टी के दिन घर में एक पुलिसवाला आया. उसने दूसरे किराएदार
को (जिसका कुलनाम खो चुका था) बाहर ड्योढ़ीं पर बुलाया और कहा कि उसे एक मिनट के
लिए किसी कागज़ पर दस्तखत करने के लिए पुलिस थाने बुलाया गया है. किराएदार ने अन्ना
फ्रांत्सेव्ना की वफादार नौकरानी अनफीसा से कहा कि वह दस मिनट में लौट आएगा. इतना
कहकर वह सफ़ेद दस्ताने पहने चुस्त-दुरुस्त पुलिसवाले के साथ चला गया. मगर वह न केवल
दस मिनट बाद नहीं लौटा, बल्कि कभी भी नहीं लौटा. इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह
हुई कि उसके साथ-साथ वह पुलिसवाला भी सदा के लिए लुप्त हो गया.
ईश्वर में विश्वास करने वाली, और स्पष्ट कहा जाए तो अंधविश्वासी,
अनफीसा ने बेहद परेशान अन्ना फ्रांत्सेव्ना से साफ-साफ कहा, कि यह काला जादू है और वह अच्छी तरह जानती है कि किराएदार और पुलिसवाले को
कौन घसीट कर ले गया है, मगर रात में उसका नाम नहीं लेना
चाहती. मगर काला जादू यदि एक बार शुरू हो जाए तो फिर उसे किसी भी तरह रोका नहीं जा
सकता. दूसरा, बिना कुलनाम का किराएदार, जहाँ तक याद पड़ता है, सोमवार को ग़ायब हुआ था,
और बुधवार को बेलामुत को माने ज़मीन गड़प कर गई, मगर भिन्न परिस्थितियों में. सुबह आम दिनों की तरह उसे काम पर ले जाने
वाली कार आई और ले गई, मगर न उसे और दिनों की तरह वापस लाई
और न ही फिर कभी इस तरफ दिखाई दी.
बेलामुत की पत्नी का दु:ख और भय अवर्णनीय है. मगर, अफ़सोस,
दोनों ही अधिक दिनों तक नहीं रहे. उसी शाम अनफीसा के साथ दाचा (शहर
से बाहर बनाई गई समर क़ॉटेज) से, जहाँ कि अन्ना फ्रांत्सेव्ना
जल्दबाजी में चली गई थी, लौटने पर उन्हें बेलामुत की पत्नी
भी घर में नज़र नहीं आई. यह भी कम है : बेलामुत के दोनों कमरों के दरवाज़े भी सीलबन्द
पाए गए.
किसी तरह दो दिन गुज़रे. तीसरे दिन अनिद्रा से ग्रस्त अन्ना फ्रांत्सेव्ना
फिर से जल्दबाजी में दाचा चली गई...यह बताना पड़ेगा कि वह वापस नहीं लौटी.
अकेली रह गई अनफीसा. जी भर कर रो लेने के बाद रात को दो बजे सोई. उसके साथ
आगे क्या हुआ, मालूम नहीं, लेकिन दूसरे क्वार्टरों
में रहने वालों ने बताया कि क्वार्टर नं. 50 में जैसे सुबह तक बिजली जलती रही और
खटखटाहट की आवाज़ें आती रहीं. सुबह पता चला कि अनफीसा भी नहीं है.
ग़ायब हुए लोगों के बारे में और इस शापित घर के बारे में इमारत के लोग कई
तरह के किस्से कहते रहे, जैसे कि दुबली-पतली, ईश्वर भीरु
अनफीसा एक थैले में अन्ना फ्रांत्सेव्ना के पच्चीस कीमती हीरे ले गई; कि दाचा के लकड़ियाँ रखने के कमरे में उसी तरह के कई हीरे और सोने की कई
मुहरें पाई गईं, और भी इसी तरह के कई किस्से; मगर जो बात हमें मालूम नहीं, उसे दावे के साथ नहीं
कहेंगे.
जो कुछ भी हुआ हो, यह
क्वार्टर सीलबन्द और खाली सिर्फ एक हफ़्ते तक रहा. उसके बाद उसमें रहने आए मृतक
बेर्लिओज़ – अपनी पत्नी के साथ और यही स्त्योपा – अपनी बीबी के साथ. स्वाभाविक है कि जैसे ही वह इस घर में रहने लगे,
उनके साथ भी शैतान जाने क्या-क्या होने लगा. केवल एक महीने के भीतर
ही दोनों की पत्नियाँ ग़ायब हो गईं, मगर कुछ सुराग छोड़े बिना
नहीं. बेर्लिओज़ की पत्नी के बारे में सुना गया कि वह खारकोव में किसी बैले
प्रशिक्षक के साथ देखी गई; और स्त्योपा की पत्नी बोझेदोम्का
में मिली, जहाँ, जैसी कि ख़बर है,
वेराइटी थियेटर के डाइरेक्टर ने अपने असीमित प्रभाव के बल पर इस
शर्त पर उसे कमरा दिलवा दिया कि सदोवया रास्ते पर उसका नामोनिशान न रहे...
हाँ, तो
स्त्योपा कराह रहा था. उसने नौकरानी ग्रून्या को बुलाकर उससे पिरामिदोन की गोली
माँगनी चाही, मगर वह समझ सकता था कि ऐसा करना बेवकूफ़ी
होगी...ग्रून्या के पास कोई गोली-वोली नहीं होगी. उसने मदद के लिए बेर्लिओज़ को
पुकारने की कोशिश की. दो बार कराहकर पुकारा, “मीशा...” मगर आप समझ सकते हैं, उसे कोई जवाब नहीं मिला.
क्वार्टर में पूरी शांति छाई थी.
पैरों की उँगलियों को
थोड़ा हिलाते ही वह समझ गया कि वह मोज़े पहने ही सो गया था. काँपते हाथ कूल्हों पर
फेरते हुए वह यह समझने की कोशिश करने लगा कि वह पैंट पहने है अथवा नहीं, मगर
समझ नहीं पाया.
आख़िर में वह इस नतीजे
पर पहुँचा कि उसे फेंक दिया गया है और वह बिल्कुल अकेला है; उसकी
मदद करने वाला कोई नहीं है. उसने उठने की कोशिश की. चाहे कितना ही प्रयत्न क्यों न
करना पड़े.
स्त्योपा ने चिपकी
हुई पलकों को प्रयत्नपूर्वक अलग करते हुए आईने में झाँका. उसने स्वयँ के
प्रतिबिम्ब को बिखरे बालों, सूजे हुए-काले-नीले पड़े चेहरे और तैरती आँखों वाले,
गन्दी, मुड़ी-तुड़ी कमीज़, टाई,
मोज़े और अण्डरवियर पहने व्यक्ति के रूप में देखा.
ऐसा उसने स्वयँ को
आईने में पाया और आईने के पास ही काले सूट और काली टोपी पहने एक आदमी को देखा.
स्त्योपा पलंग पर बैठ गया. जितनी फाड़ सकता था, उतनी
अपनी खून जैसी लाल आँखें फाड़-फाड़कर उसने अजनबी को देखा.
अपनी मोटी भारी आवाज़ में, विदेशियों जैसे लहज़े से यह कहकर ख़ामोशी को अजनबी ने ही
तोड़ा, “शुभ दिन, परम प्रिय स्तिपान
बग्दानोविच!”
कुछ रुककर भयंकर कोशिश के बाद स्त्योपा बोल पाया, “आपको क्या चाहिए?” और स्वयँ ही अपनी आवाज़ न
पहचान कर सकते में आ गया. उसने “क्या” तारसप्तक में, “आपको” मन्द सप्तक में कहा, जबकि “चाहिए” उसके मुख से निकल ही नहीं सका.
अजनबी दोस्ताना अन्दाज़ में हँसा. उसने हीरे की तिकोनी फ्रेम वाली सोने की
घड़ी निकालकर ग्यारह बार बजाई और बोला, “ग्यारह! ठीक एक घण्टे से मैं
आपके उठने का इंतज़ार कर रहा हूँ, क्योंकि आपने मुझे दस बजे
यहाँ आने के लिए कहा था. लीजिए, मैं आ गया!”
स्त्योपा ने पलंग के पास तिपाई पर पड़ी अपनी पैंट को टटोला और फुसफुसाया, “माफ़ कीजिए...” जल्दी से पैंट पहनकर भर्राई हुई
आवाज़ में बोला, “कृपया अपना नाम बताइए?”
उसे बोलने में बहुत कष्ट हो रहा था. प्रत्येक शब्द के साथ मानो दिमाग में
कोई एक सुई चुभो रहा था, जिसके कारण उसे नारकीय यातनाएँ हो रही थीं.
“क्या? आप मेरा नाम भी भूल गए?” और अजनबी हँस पड़ा.
“माफ़ कीजिए...” स्त्योपा भर्राया. वह महसूस कर
रहा था कि यह बोझिलपन उसे एक नया लक्षण उपहार में देने वाला है : उसे लगा, मानो पलंग के पास का फर्श कहीं ग़ायब हो गया है, और
इसी क्षण वह सर के बल उड़कर शैतान की ख़ाला के पास पाताल पहुँच जाएगा.
“प्रिय स्तिपान बग्दानोविच,” मेहमान भेदक
मुस्कुराहट के साथ बोला, “किसी गोली-वोली से कोई फ़ायदा
नहीं होने वाला. पुरानी कहावत को याद कीजिए – जैसे
को तैसा. सिर्फ एक ही चीज़ आपको जीवन तक वापस ला सकती है और वह है वोद्का के दो पैग
और तीखा, चटपटा नाश्ता.”
स्त्योपा चालाक था और बीमार होने के बावजूद वह स्पष्ट समझ रहा था कि जब उसे
इस हालत में पकड़ लिया गया है तो उसे सब कुछ साफ़-साफ़ कबूल कर लेना चाहिए.
“साफ़-साफ़ कहूँ तो,” उसने ज़ुबान की थोड़ी-थोड़ी
हलचल करते हुए कहना शुरू किया, “कल मैं थोड़ी-सी...”
“बस, आगे एक भी शब्द नहीं!” मेहमान ने कहा और कुर्सी के साथ एक ओर को सरक गया.
स्त्योपा ने आँखें फाड़-फाड़कर देखा कि छोटी-सी टेबुल पर एक ट्रे रखी जा चुकी
है, उसमें
कटी हुई सफ़ेद डबल रोटी के टुकड़े, कटोरी में दबे हुए कैवियर,
तश्तरी में मशरूम का अचार, बन्द डोंगे में कोई
चीज़ और जवाहिरे की बीबी की बड़ी काँच की सुराही में वोद्का. स्त्योपा को इस बात से
बड़ा आश्चर्य हुआ कि काँच की इस सुराही की ऊपरी सतह पर ठण्डक के कारण पानी की
बूँदें जम रही थीं. मगर इसका कारण स्पष्ट था – सुराही
बर्फ की तश्तरी में रखी थी.
अजनबी ने स्त्योपा के आश्चर्य को दिमागी बीमारी की हद तक बढ़ने नहीं दिया और
फुर्ती से आधा पैग वोद्का उसके आगे बढ़ा दी.
“और आप?” स्त्योपा ने पूछा.
“शौक से!”
उछलते हुए हाथ से स्त्योपा ने प्याला होठों से लगाया और अजनबी एक ही घूँट
में अपना पैग पी गया. कैवियर का ज़ायका लेते हुए स्त्योपा ने बड़ी कठिनाई से अपने
मुख से शब्द निकाले, “आप...क्या...खाएँगे...?”
“माफ़ कीजिए, मैं कभी भी कुछ भी नहीं खाता,” अजनबी बोला और उसने दूसरा पैग ढाला. ढँका हुआ बर्तन खोलते ही उसमें टमाटर
सॉस में लिपटे सॉसेज नज़र आए.
आँखों
के सामने की वह शापित हरियाली पिघलने लगी, बोलने लगी,
और खास बात यह हुई कि स्त्योपा को सब कुछ याद आ गया. यह, कि कल यह बात स्खोद्न्या में हुई थी, स्केच-चित्रकार
खुस्तोव के दाचा में, जहाँ यही खुस्तोव टैक्सी में बैठाकर
स्त्योपा को ले गया था. याद आया कि कैसे मेट्रोपोल के पास उन्होंने यह टैक्सी तय
की थी, तब वहाँ कोई अभिनेता, नहीं,
अभिनेता नहीं...अटैची में ग्रामोफोन लिए. हाँ,हाँ,हाँ दाचा में ही हुआ था यह सब! और याद आया, इस
ग्रामोफोन के कारण कुत्ते चिल्लाने लगे थे. बस केवल वह महिला, जिसका स्त्योपा चुम्बन लेना चाहता था, पट नहीं पाई
थी...शैतान जाने, कौन थी वह...शायद रेडियो पर काम करती है,
शायद नहीं.
इस तरह धीरे-धीरे कल की घटनाएँ स्पष्ट होती जा रही थीं, मगर
स्त्योपा को अब इस बात में दिलचस्पी थी कि उसके शयनागार में यह अजनबी वोद्का और
जलपान की सामग्री लेकर कैसे प्रकट हो गया. यह मालूम करना बेवकूफ़ी नहीं होगी!
“तो शायद अब आपको मेरा नाम याद आ गया होगा?”
मगर स्त्योपा केवल झेंपकर मुस्कुराया और उसने दोनों हाथ हिला दिए.
“ख़ैर! मुझे लग रहा है कि आपने वोद्का के बाद पोर्टवाइन पी ली थी! क्या ऐसा
करना उचित है?”
“मैं आपसे अब अर्ज़ करना चाहता हूँ कि कृपया यह बात हम दोनों के बीच ही रहने
दीजिए...” स्त्योपा ने गहरी नज़रों से देखते हुए कहा.
“ओ, बेशक, बेशक! मगर मैं
खुस्तोव के बारे में कुछ नहीं कर सकता.”
“क्या आप खुस्तोव को जानते हैं?”
“कल आपके दफ़्तर के कमरे में इस व्यक्ति की झलक देखी थी, मगर उसके चेहरे पर एक सरसरी नज़र डालते ही मालूम हो जाता है कि वह कैसा
आदमी है: बदमाश, झगडालू, मौकापरस्त और
चापलूस!”
‘बिल्कुल ठीक!’ इस सटीक, सही
और संक्षिप्त परिभाषा से हकबकाए स्त्योपा ने सोचा.
हाँ, कल का दिन टुकड़ों-टुकड़ों में याद आ रहा था, मगर फिर भी वेराइटी के डाइरेक्टर की बेचैनी कम नहीं हुई थी. बात यह थी कि
इस कल के दिन में एक बेहद बड़ा काला छेद था. इस चौड़ी टोपी वाले अजनबी को स्त्योपा
ने अपने कमरे में कल नहीं देखा था.
“काले जादू का प्रोफेसर वोलान्द,”...स्त्योपा की उलझन
को देखते हुए मेहमान ने भारी आवाज़ में सब कुछ तरतीब से बताना शुरू किया.
कल दिन में वह विदेश से मॉस्को आया था और तुरंत ही स्त्योपा से मिलकर अपनी
कलाकार मण्डली का वेराइटी में कार्यक्रम रखने का प्रस्ताव रखा. स्त्योपा ने मॉस्को
की क्षेत्रीय दर्शक कमिटी को फोन करके प्रोफेसर का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. (स्त्योपा
के चेहरे का रंग पीला पड़ गया और वह आँखें झपकाने लगा.) प्रोफेसर के साथ सात
कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने सम्बन्धी अनुबन्ध पर हस्ताक्षर कर दिए. (स्त्योपा का
मुँह खुला रह गया.) यह तय किया कि अधिक जानकारी के लिए वोलान्द कल सुबह (यानी कि
आज सुबह) दस बजे उसके घर आए...और वोलान्द आ गया है!
आते ही नौकरानी ग्रून्या से मिला, जिसने बताया कि वह अभी-अभी आई है,
वह रोज़ आती-जाती रहती है, बेर्लिओज़ घर पर नहीं
है, और यदि आगंतुक स्तिपान बग्दानोविच से मिलना चाहे तो खुद
ही उसके शयनगृह में चला जाए. स्तिपान बग्दानोविच इतनी गहरी नींद सोता है कि उसे
उठाने की ज़िम्मेदारी वह नहीं ले सकती. स्तिपान बग्दानोविच की हालत देखकर अभिनेता
ने ग्रून्या को वोद्का, बर्फ और खाने की चीज़ें लाने के लिए
पास की दुकान में भेजा...
“आपसे हिसाब करने की अनुमति चाहता हूँ,” हारे
हुए स्त्योपा ने दाँत भींचकर कहा और पर्स ढूँढ़ने लगा.
“ओह, क्या बेवकूफ़ी है!” मेहमान
कलाकार चहका और उसने आगे कुछ भी सुनने से इनकार कर दिया.
इस तरह, वोद्का और जलपान सामग्री की बात तो समझ में आ गई, मगर फिर भी स्त्योपा की ओर देखने पर दया आती थी : उसे पक्का यक़ीन था कि
उसने इस वोलान्द को कल देखा ही नहीं और चाहे मार डालो, उसके
साथ अनुबन्ध की बात तो हुई ही नहीं. हाँ, खुस्तोव था,
मगर वोलान्द नहीं था.
“कृपया अनुबन्ध दिखाइए,” हौले से स्त्योपा ने
कहा.
“लीजिए, लीजिए...”
स्त्योपा ने उस कागज़ को देखा और मानो बुत बन गया. सब कुछ एकदम सही था. सबसे
पहले, स्त्योपा
के अपने, ‘शैतान की बला से’ वाले
अन्दाज़ में किए गए हस्ताक्षर! कोने से झाँकती वित्तीय संचालक की तिरछी लिखाई वाली
अनुमति, जो कलाकार वोलान्द को सात कार्यक्रमों के लिए
स्वीकृत 35,000 रूबल में से 10,000
रूबल देने की सिफारिश करती थी. उस पर तुर्रा यह है कि इसके पास ही वोलान्द की
स्वीकृति थी, जो यह दर्शाती थी कि उसे ये 10,000 रूबल प्राप्त हो चुके हैं!
यह सब क्या है? अभागे स्त्योपा ने सोचा और उसका सिर चकराने लगा. कहीं कम्बख़्त स्मृतिभ्रंश तो नहीं हो रहा है? मगर,
ज़ाहिर है, कि अनुबन्ध दिखाए जाने के बाद उसके
बारे में अचरज भरा, क्रोध भरा कोई भी विचार कोई माने नहीं
रखता था, बल्कि भोंडा ही प्रतीत होता. स्त्योपा ने मेहमान से
एक मिनट के लिए बाहर जाने की अनुमति माँगी और वैसे ही, जुराबें
पहने हुए बाहर के प्रवेश-कक्ष में रखे टेलिफोन की ओर भागा. जाते-जाते वह रसोईघर की
ओर मुँह करके चिल्लाया, “ग्रून्या!”
मगर किसी ने जवाब नहीं दिया. अब उसने बेर्लिओज़ के कमरे के दरवाज़े में झाँका, जो
कि प्रवेश-कक्ष में ही खुलता था, और वहीं, जैसी कि कहावत है, बुत बन गया. दरवाज़े के हत्थे पर
उसने रस्सी से लटकती मोम की बड़ी-सी सील देखी. आदाब अर्ज़ है! – स्त्योपा के सिर पर मानो किसी ने हथौड़ा मारा. बस, यही
होना बाकी था! और स्त्योपा के विचार मानो रेल की पटरियों पर दौड़ने लगे, जैसा कि दुर्घटना के समय आम तौर पर होता है, एक ही
दिशा में, और शैतान जाने, कहाँ.
स्त्योपा के दिमाग में हो रही गड्डमड्ड का वर्णन करना कठिन है. एक ओर वह काली टोपी
वाला शैतान, ठंडी वोद्का और अविश्वसनीय अनुबन्ध के साथ;
और दूसरी ओर दरवाज़े पर टँगी सील! जैसे कि यह कहना चाह रही हो कि
बेर्लिओज़ ने कुछ गड़बड़ की है; कोई विश्वास भी नहीं करेगा;
ओय,ओय, नहीं करेगा
विश्वास! मगर फिर भी सील तो है! हूँ...
तभी स्त्योपा के दिमाग में उस लेख के बारे में उल्टे-सीधे विचार आने लगे जो
उसने मिखाइल अलेक्सान्द्रविच के हाथ में यह कहकर ठूँस दिया था कि उसे अपनी पत्रिका
में छाप दे. वैसे, यह हमारी आपस की बात है कि लेख एकदम बकवास था! किसी काम का
नहीं, और पारिश्रमिक भी कम ही था...
लेख की याद आते ही स्त्योपा के दिमाग में उस सन्देहास्पद वार्तालाप की याद
भी झाँक गई, जो उसके और मिखाइल अलेक्सान्द्रविच के बीच चौबीस अप्रैल की
शाम को रात्रि भोजन के समय हुआ था. उस वार्तालाप को सन्देहास्पद कहना सही नहीं
होगा (क्योंकि स्त्योपा ऐसी बातचीत में कभी भी भाग नहीं लेता). मगर यह बहस किसी
अनावश्यक विषय पर थी. खुलकर सार्वजनिक स्थान पर, निश्चय ही,
उस बारे में बात नहीं की जा सकती थी. सील लगने से पहले, इस बातचीत को कोई भी बकवास कहकर अनदेखा कर सकता था, मगर
सील के बाद...
“ओह, बेर्लिओज़, बेर्लिओज़!” स्त्योपा का सिर मानो उबलने लगा – “मेरे
दिमाग में यह बात कैसे नहीं आई!”
मगर वह अधिक देर तक शोकमग्न न रह सका और स्त्योपा ने वेराइटी थियेटर के
वित्तीय संचालक रीम्स्की का नम्बर घुमाया. स्त्योपा की स्थिति बड़ी विचित्र थी : एक
तरफ यह भय था कि विदेशी उससे इस बात पर नाराज़ हो जाएगा कि अनुबन्ध दिखाए जाने के
बाद भी स्त्योपा उसकी सत्यता की जाँच कर रहा है; और वित्त संचालक से बात कर सकना भी
टेढ़ी खीर थी. आख़िर उससे सीधे-सीधे यह तो नहीं पूछा जा सकता था कि ‘क्या मैंने कल काले जादू के प्रोफेसर के साथ 35,000
रुबल के अनुबन्ध पर हस्ताक्षर किए हैं?’ ऐसा पूछना उचित
नहीं है!
“हैलो!” टेलिफोन के चोंगे में रीम्स्की की तीखी,
अप्रिय आवाज़ सुनाई दी.
“नमस्ते, ग्रिगोरी दानीलविच,” स्त्योपा ने हौले से कहा, “मैं लिखादेयेव हूँ.
बात यह है कि...अं...अं...मेरे पास बैठा है वह...अं...कलाकार वोलान्द...तो...मैं
यह पूछना चाहता था कि, आज की शाम का प्रोग्राम क्या पक्का है?”
“आह, काला जादू?” चोंगे
में रीम्स्की बोला, “अभी इश्तहार तैयार हो जाएँगे.”
“अहा,” मरी-सी आवाज़ में स्त्योपा ने कहा, “मिलते हैं...”
“क्या आप शीघ्र आ रहे हैं?” रीम्स्की ने पूछा.
“आधे घण्टॆ में,” स्त्योपा ने कहा और टेलिफोन के
चोंगे को लटकाकर, अपने गर्म सिर को दोनों हाथों से भींच
लिया. आह, यह क्या गड़बड़ घोटाला हो गया! मेरी बुद्धि को क्या
हो गया है, लोगों? आँ?
और अधिक देर तक बाहरी कमरे में रुकना उचित नहीं था. स्त्योपा ने तत्क्षण
अपने दिमाग में एक योजना बना ली : हर कोशिश से अपने भुलक्कड़पन को छिपाना होगा, और
अब सबसे पहले विदेशी से बड़ी चालाकी से पूछना होगा कि वह वेराइटी में शाम को क्या
दिखाने जा रहा है?
स्त्योपा टेलिफोन के पास से मुड़ा और तभी, कमरे में शीशे में जिसे आलसी
ग्रून्या ने बहुत दिनों से साफ नहीं किया था, उसने एक
विचित्र व्यक्ति को साफ-साफ देखा : लम्बा, डण्डी की तरह पतला,
चश्मा पहने (आह, काश इवान निकलायेविच वहाँ
होता! वह इस आकृति को तुरंत पहचान जाता). यह आकृति एक बार दिखकर फौरन लुप्त हो गई.
स्त्योपा ने उत्तेजना से आँखें फाड़-फाड़कर कमरे में देखा, और
दूसरी बार धक्का लगा, क्योंकि अब आईने में एक तन्दुरुस्त
बिल्ला प्रकट होकर लुप्त हो गया.
स्त्योपा के दिल को मानो किसी ने चीर दिया. वह लड़खड़ाया.
‘यह सब क्या है?’ उसने सोचा, ‘कहीं मैं पागल तो नहीं हो रहा हूँ? ये प्रतिबिम्ब
कैसे?’ उसने बाहरी कमरे में देखा और चिल्ला पड़ा.
“ग्रून्या! यह बिल्ला क्यों घूम रहा है? कहाँ से आ
गया और उसके साथ और कौन है?”
“घबराइए मत, स्तिपान बग्दानोविच,” आवाज़ सुनाई दी, मगर ग्रून्या की नहीं, बल्कि शयनगृह में बैठे मेहमान की, “यह बिल्ला
मेरा है. परेशान मत होइए. और ग्रून्या भी नहीं है, मैंने उसे
वरोनेझ भेजा है, उसकी मातृभूमि में, क्योंकि
वह शिकायत कर रही थी कि आपने उसे लम्बे अर्से से छुट्टी नहीं दी है.”
ये शब्द इतने आकस्मिक और निरर्थक थे कि स्त्योपा ने सोचा कि उसने कुछ गलत
सुन लिया है. हड़बड़ाहट में वह शयनगृह की ओर दुलकी चाल से दौड़ा और दहलीज़ पर ही मानो
जम गया. उसके बाल खड़े हो गए. माथे पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूँदें जम गईं.
शयनगृह में अब मेहमान अकेला नहीं था, बल्कि अपने पूरे गुट के साथ था.
दूसरी कुर्सी में वही व्यक्ति था जो अभी-अभी आइने से प्रकट हुआ था. अब वह अच्छी
तरह दिखाई दे रहा था : परों जैसी मूँछें, चश्मे की एक काँच
चमकती हुई और दूसरी काँच गायब. शयनगृह में और भी बदतर चीज़ें दिखाई दे रही थीं :
गद्देदार स्टूल पर पालथी मारे जो तीसरा प्राणी बैठा था वह कोई और नहीं बल्कि वही
अकराल-विकराल बिल्ला था जिसने एक पंजे में वोद्का का पैग और दूसरे में नमकीन
कुकुरमुत्ता टँका काँटा पकड़ रखा था.
रोशनी, जो शयनगृह में वैसे ही कम थी, स्त्योपा
को गुल होती नज़र आई – ‘शायद ऐसे ही पागल हुआ करते
हैं!’ उसने सोचा और दीवार की सहारा लेकर अपने आप को
गिरने से रोका.
“मैं देख रहा हूँ कि आपको कुछ आश्चर्य हो रहा है, परमप्रिय
स्तिपान बग्दानोविच?” वोलान्द दाँत किटकिटाते हुए
स्त्योपा से मुखातिब हुआ, “असल में अचरज करने जैसी कोई
बात है ही नहीं. यह मेरे सहयोगी हैं.”
जैसे ही बिल्ले ने वोद्का का पैग खत्म किया, स्त्योपा का हाथ दरवाज़े की चौखट से
सरककर नीचे गिर पड़ा.
“और इन सहयोगियों को जगह चाहिए,” वोलान्द बोलता
रहा, “मतलब यह कि हम चारों में से कोई एक इस क्वार्टर
में फालतू है. मेरा ख़्याल है कि वह फालतू व्यक्ति हैं आप!”
“वे ही! वे ही!” बकरी जैसी आवाज़ में चौखाने वाला
लम्बू मिमियाया, स्त्योपा के लिए बहुवचन का प्रयोग करते हुए, “ख़ास तौर से पिछले कुछ दिनों से बहुत सुअरपना कर रहे हैं. शराब पीते रहते
हैं, अपने पद का फ़ायदा उठाकर औरतों से सम्बन्ध बनाते रहते
हैं, कुछ भी काम नहीं करते, और कुछ कर
भी नहीं सकते, क्योंकि जो भी काम दिया जाता है, उसे ये समझ ही नहीं पाते. अधिकारियों की आँखों में धूल झोंकते रहते हैं!”
“सरकारी कार को फालतू दौड़ाते रहते हैं!” कुकुरमुत्ते
को चूसते हुए बिल्ले ने रूठे हुए स्वर में जोड़ा.
और तभी इस क्वार्टर में चौथी और अंतिम घटना घटी, जब
स्त्योपा ने लगभग फर्श पर घिसटते हुए दरवाज़े की चौखट को खरोचना शुरू किया.
शीशे में से सीधे कमरे में उतरा एक छोटा-सा मगर असाधारण रूप से चौड़े कन्धों
वाला आदमी, जिसने सिर पर हैट लगा रखी थी और जिसका एक दाँत बाहर को
निकला था. इस दाँत ने वैसे ही गन्दे उसके व्यक्तित्व को और भी अस्त-व्यस्त बना
दिया था. इस सबके साथ उसके बाल भी आग जैसे लाल रंग के थे.
“मैं,” बातचीत में यह नया व्यक्ति भी टपक पड़ा, “समझ नहीं पा रहा, कि वह डाइरेक्टर कैसे बन गया!”
लाल बालों वाला अनुनासिक स्वर में बोले जा रहा था, “यह वैसा ही डाइरेक्टर है जैसा कि मैं बिशप!”
“तुम बिशप जैसे बिल्कुल नहीं लगते, अज़ाज़ेला !” बिल्ले ने सॉसेज के टुकड़े अपनी प्लेट में डालते हुए फिकरा कसा.
“यही तो मैं भी कहता हूँ!” लाल बालों वाले की
नाक बोली, और वोलान्द की ओर मुड़कर वह आदरपूर्वक बोला, “महाशय, उसे मॉस्को के सब शैतानों के बीच फेंकने की
आज्ञा दें!”
“फेंक दो!!!” अचानक अपने बाल खड़े करते हुए
बिल्ला गुर्राया.
तब स्त्योपा के चारों ओर शयनगृह घूमने लगा, वह सिर के बल दहलीज़ से टकराया और होश
खोते हुए सोचने लगा, ‘मैं मर रहा हूँ...’
मगर वह मरा नहीं. हौले हौले आँखें खोलने पर उसने देखा कि वह पत्थर की किसी
चीज़ पर बैठा है. उसके चारों ओर किसी चीज़ का शोर सुनाई दे रहा था. ठीक से आँखें
खोलने पर उसने देखा कि यह सागर का शोर था, लहरें बिल्कुल उसके पैरों को छू रही
थीं, और संक्षेप में कहा जाए, तो वह
बिल्कुल सागर पर बने लकड़ी के प्लेटफॉर्म की कगार पर बैठा नज़र आया, उसके नीचे चमकता हुआ समुद्र और पीछे पहाड़ी पर बसा एक सुन्दर शहर था.
स्त्योपा
समझ नहीं पाया कि ऐसी परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए और वह लड़खड़ाते कदमों से
प्लेटफॉर्म से होकर सागर तट की ओर चलने लगा.
इस प्लेटफॉर्म पर एक आदमी खड़ा था जो सिगरेट पीता जा रहा था और समुद्र के जल
में थूकता जा रहा था. उसने स्त्योपा की ओर वहशी आँखों से देखा और थूकना बन्द कर
दिया. तब स्त्योपा ने एक उपाय सोचा : वह घुटनों के बल अनजान सिगरेट पीने वाले के
सामने बैठ गया और बोला, “मैं विनती करता हूँ, कृपया
मुझे बताइए कि यह कौन-सा शहर है?”
“आख़िरकार...!” हृदयहीन सिगरेटधारी बोला.
“मैं नशे में नहीं हूँ,” भर्राई हुई आवाज़ में
स्त्योपा बोला, “मैं बीमार हूँ, मुझे
कुछ हो गयहै, मैं बीमार हूँ...मैं कहाँ हूँ? यह कौन-सा शहर है?”
“आह, याल्टा...”
स्त्योपा ने गहरी साँस ली, वह लड़खड़ाकर पहलू के बल गिर पड़ा और उसका सिर प्लेटफॉर्म के
गरम पत्थर से टकराया.
*******
आठ
प्रोफेसर और कवि के बीच द्वन्द्व
ठीक उसी समय जब याल्टा में होश स्त्योपा का साथ छोड़े जा रहा था, यानी
लगभग साढ़े ग्यारह बजे, वो इवान निकलायेविच बेज़्दोम्नी के
पास वापस लौटा, जो कि एक लम्बी और गहरी निद्रा से तभी जागा
था. कुछ देर तक तो वह सोचता रहा कि वह इस अनजान सफेद
दीवारों वाले, चमकदार खूबसूरत टेबुल वाले, सफेद कमरों वाले कमरे में कैसे आ गया, जिसके बाहर
उसे सूरज की रोशनी का अनुभव हो रहा था.
इवान ने सिर को झटका देकर यह इत्मीनान कर लिया कि दर्द नहीं है और तभी उसे
याद आया कि वह चिकित्सालय में है. इस ख़्याल ने बेर्लिओज़ की मृत्यु की याद हरी कर
दी: लेकिन आज इस विचार ने उसे उतनी बुरी तरह नहीं झकझोरा. गहरी नींद के बाद इवान
कुछ शान्त हो गया था. अब वह ठण्डे दिमाग से बहुत कुछ स्पष्टतापूर्वक सोच सकता था.
साफ, नर्म,
गुदगुदे बिस्तर पर कुछ देर निश्चल पड़े रहने के बाद इवान ने अपने
निकट ही घण्टी का बटन देखा. बिना ज़रूरत चीज़ों को छूने की आदत से मजबूर इवान ने
बटन दबा दिया. वह किसी आवाज़ की या किसी के आने की उम्मीद कर रहा था, मगर हुआ बिल्कुल उल्टा. इवान के पलंग की टाँग पर लगे हुए एक मटमैले-से
बेलन में लगी रोशनी जल उठी और उस पर चमकते हुए अक्षर प्रकट हो गए, “पेय”. कुछ देर स्थिर रहने के बाद इस बेलन ने अपनी
धुरी पर ज़ोर-ज़ोर से घूमना शुरू कर दिया, और तब तक घूमता
रहा, जब तक कि उस पर “नर्स” अक्षर नहीं दिखाई दिए. ज़ाहिर है कि इस चालाक बेलन ने इवान को हैरान कर
दिया. “नर्स” शब्द के बाद अब
बेलन पर “डॉक्टर को बुलाइए” यह
लिखावट आ चुकी थी.
“हूँ”...इवान मनन करने लगा कि इस शैतान बेलन के साथ
आगे क्या सलूक किया जाए. आख़िर तीर में तुक्का लग ही गया. जैसे ही इवान ने “सहायक डॉक्टर” शब्द आते ही दूसरी बार बटन दबाया,
बेलन से एक हल्की-सी आवाज़ आई, वह रुक गया.
रोशनी बुझ गई और कमरे में सफ़ेद कोट पहने एक सहृदय महिला ने प्रवेश किया. उसने
इवान से कहा, “नमस्ते!”
इवान ने कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि उसे इन परिस्थितियों में यह “नमस्ते” बेतुकी जान पड़ी. बात सही थी – एक तन्दुरुस्त आदमी को अस्पताल में डाल दिया गया था और ऐसा दिखा रहे हैं
मानो यही ठीक था.
उस महिला ने चेहरे पर से सहानुभूति का भाव ढलने नहीं दिया और एक बटन दबाकर
खिड़की के परदे ऊपर उठा दिए. कमरे के फर्श को छूती चौड़ी और हल्की जाली से सूरज ने
कमरे में झाँका. जाली के पीछे एक बाल्कनी दिखाई दी, उसके पीछे बल खाती नदी का किनारा और
नदी के दूसरे किनारे पर चीड़ के पेड़ों का प्रसन्न-सा वन.
“कृपया नहा लीजिए,” महिला ने कहा और उसके हाथों
के नीचे की दीवार खिसकी, जिसके पीछे सभी सामग्री से सुसज्जित
स्नानगृह एवं शौचालय दिखाई दिए.
हाँलाकि इवान ने निश्चय कर लिया था कि वह इस महिला से बात नहीं करेगा, मगर
फिर भी स्नानगृह के नल से तेज़ धार से बहते हुए पानी को देखकर वह अपने आपको रोक
नहीं पाया और वह व्यंग्यात्मक सुर में बोला, “क्या बात
है! मानो ‘मेट्रोपोल’ में
हों!”
“ओह, नहीं,” महिला ने गर्व
से कहा, “उससे भी कहीं ज़्यादा अच्छा है. इस तरह की
सामग्री तो विदेशों में भी कहीं नहीं मिलेगी; वैज्ञानिक और
डॉक्टर ख़ास तौर से हमारा अस्पताल देखने आते हैं. हर रोज़ पर्यटक, विदेशी आते रहते हैं.”
“विदेशी पर्यटक” शब्द सुनते ही इवान को कल वाला
सलाहकार याद आ गया. उसकी आँखों के आगे धुंध छा गई. कनखियों से देखते हुए उसने कहा, “विदेशी पर्यटक...कितना सिर पर चढ़ा लेते हैं आप लोग विदेशी पर्यटकों को!
उनके बीच कई किस्म के लोग होते हैं. मैं कल ऐसे ही एक पर्यटक से मिला था, और लेने के देने पड़ गए.”
और वह पोंती पिलात के बारे में कहने ही वाला था, मगर
उसने अपने आपको रोक लिया, यह समझकर कि इस औरत को इन सब बातों
से क्या लेना-देना; किसी भी परिस्थिति में वह उसकी कोई मदद
तो कर ही नहीं पाएगी.
नहाए-धोए इवान निकलायेविच को वह सब कुछ दिया गया, जिसकी
स्नानोपरांत एक पुरुष को आवश्यकता होती है: इस्तरी की हुई शर्ट, तंग पैजामा, जुराबें...मगर यह तो कुछ भी नहीं,
अलमारी का दरवाज़ा खोलकर डॉक्टर ने दिखाया और पूछा, “क्या पहनेंगे, गाऊन या पैजामा?”
ज़बर्दस्ती इस नए आवास में कैद इवान ने महिला की इस बेतकल्लुफी से घबराकर
उसे हाथों से लगभग धकेल दिया और चुपचाप पैजामे की तह की हुई गड्डी में उँगली गड़ा
दी.
इसके बाद इवान निकलायेविच को खाली और निःशब्द गलियारे से होते हुए एक बहुत
बड़े कक्ष में ले जाया गया. इवान ने, जिसने सभी घटनाओं का उपहासपूर्वक
मुकाबला करने की ठान ली थी, फ़ौरन ही अलौकिक उपकरणों से
सुसज्जित इस कक्ष को “फैक्टरी-रसोईघर” का नाम दे दिया.
ऐसा करने का भी एक कारण था. इस कक्ष में अनेक बड़ी और छोटी अलमारियाँ रखी
थीं, जो
चमचमाते हुए, निकल के विभिन्न उपकरणों से अटी पड़ी थीं. कुछ
जटिल-से आकार की कुर्सियाँ थीं, चमकदार शेड वाले फूले-फूले
से लैम्प, अनगिनत बोतलें, गैस के बर्नर,
बिजली के तार, और अन्य अनेक ऐसे उपकरण जिनके
बारे में किसी को जानकारी नहीं थी.
कक्ष में इवान की ओर तीन लोग बढ़े – दो महिलाएँ और एक पुरुष – सभी सफेद कपड़े पहने थे. सबसे पहले उसे कोने में रखे एक टेबुल की ओर ले
जाया गया. स्पष्ट था कि उससे कुछ पूछा जाने वाला था. इवान ने अपनी स्थिति का मनन
किया. उसके सामने तीन रास्ते थे. पहला रास्ता बहुत लुभावना जान पड़ा : इन लैम्पों
और चमचमाती वस्तुओं पर झपटकर उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाए और इस तरह उसे यहाँ
ज़बर्दस्ती रोके रखे जाने पर विरोध प्रकट किया जाए. मगर आज का इवान कल के इवान से
बहुत भिन्न था, इसलिए पहला रास्ता उसे सन्देहास्पद जान पड़ा
: वे लोग ये निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि वह एक ख़तरनाक मानसिक रोगी है. इसलिए
इवान ने इस ख़्याल को दिमाग से निकाल दिया. दूसरा : तुरंत ही उस सलाहकार और पोंती
पिलात की कहानी शुरू कर दी जाए. मगर कल के अनुभव ने सिद्ध कर दिया था कि इस कहानी
पर या तो कोई विश्वास ही नहीं करेगा या उसके अर्थ का अनर्थ निकाला जाएगा. इसलिए
इवान ने इस मार्ग को भी छोड़ दिया और तीसरी राह के बारे में सोचने लगा : ख़ामोशी
के आलम में खो जाया जाए.
पूरी तरह ऐसा करना संभव न हो सका और चाहे-अनचाहे किन्हीं प्रश्नों के उत्तर
देने ही पड़े, चाहे संक्षेप में या तेवर चढ़ाकर.
इवान से उसकी पिछली ज़िन्दगी का पूरा ब्यौरा पूछा गया, यह
भी कि उसे लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व लाल बुखार कब और कैसे हुआ था. इवान के जवाबों
से एक पूरा पृष्ठ भर जाने के बाद उसे उलटा गया और सफ़ेद वस्त्र पहनी महिला ने इवान
के रिश्तेदारों के बारे में पूछताछ आरंभ कर दी. सवालों का एक लम्बा सिलसिला शुरू
हो गया : कौन मर गया, कब, कैसे;
क्या शराबी था? गुप्त रोगों से पीड़ित था?...और भी इसी तरह का बहुत कुछ. अंत में पत्रियार्शी के किनारे घटी कल की घटना
के बारे में बताने को कहा गया, मगर सब कुछ सुनकर भी कोई नहीं
चौंका, और न ही किसी को पिलात की कहानी सुनकर आश्चर्य हुआ.
अब महिला ने इवान को पुरुष के हवाले कर दिया, और उसने बिल्कुल भिन्न रुख अपनाया.
उसने इवान से कुछ भी नहीं पूछा, उसने इवान के बदन का तापमान
देखा, उसकी नब्ज़ देखी, इवान की आँखों
में झाँका, उन पर किसी लैम्प से रोशनी फेंकी. अब पुरुष की
सहायता के लिए दूसरी महिला आगे बढ़ी; इवान की कमर में कुछ
चुभोया गया, मगर दर्द का अहसास नहीं हुआ, उसके सीने पर एक छोटे-से हथौड़े से कुछ निशान बनाए गए. हथौड़े से घुटनों
पर चोट की गई, जिससे इवान की टाँगें उछलने लगीं, उँगली में कुछ चुभोकर उसमें से खून निकाला गया, कुहनियों
में भी कुछ चुभोया गया, हाथों में रबर के कंगन पहनाए गये.
इवान मन ही मन कड़वाहट से मुस्कुराया और सोचने लगा कि इस सब का अंत कैसे
विचित्र और बेवकूफ़ी भरे ढंग से हो रहा है. ज़रा सोचिए! कहाँ तो वह सबको अजनबी
सलाहकार के सम्भावित ख़तरे से आगाह करने चला था, उसे पकड़ने चला था और कहाँ ख़ुद इस
रहस्यमय कमरे में आ टपका और अपने चाचा फ़्योदर के बारे में सब बेवकूफ़ियाँ बताने
लगा, जो वलोग्दा में शराब के नशे में धुत रहता था. ओफ,
यह बेवकूफी बर्दाश्त नहीं होती!
आख़िरकार इवान को छोड़ दिया गया. उसे वापस अपने कमरे में ले जाया गया, जहाँ
उसे मक्खन लगी ब्रेड, दो आधे उबले अण्डे और कॉफ़ी दी गई.
इवान ने पेश की गई सामग्री खा-पी ली. उसने निश्चय किया कि वह इस अस्पताल के
प्रमुख संचालक का इंतज़ार करेगा. इसी प्रमुख का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की और
उससे न्याय पाने की उम्मीद अभी भी इवान को थी.
यह प्रमुख उसके नाश्ता समाप्त होने के कुछ ही देर बाद प्रकट हुआ.
अप्रत्याशित रूप से इवान के कमरे का दरवाज़ा खुला और सफ़ेद चोगे पहने कई लोग दाखिल
हुए. उनके आगे-आगे लगभग पैंतालीस वर्ष का सफ़ाचट दाढ़ी-मूँछों वाला व्यक्ति
कलाकारों जैसे अन्दाज़ में चल रहा था. उसकी आँखें पैनी थी. उसका अभिवादन किया गया
इसलिए उसका आगमन एक समारम्भ जैसा प्रतीत हुआ. ‘जैसे कि पोंती पिलात!’ इवान के दिमाग में ख़याल आया.
अवश्य ही वह प्रमुख था. वह कुर्सी पर बैठ गया जबकि अन्य सभी खड़े रहे.
“डॉक्टर
स्त्राविन्स्की,” आगंतुक ने इवान को अपना परिचय दिया और
सहृदयता से उसकी ओर देखा.
“लीजिए अलेक्सान्द्र निकलायेविच,” एक साफ सुथरी
दाढ़ी वाले ने कहा और प्रमुख को ऊपर-नीचे, आगे-पीछे लिखा हुआ
कागज़ थमा दिया. वह इवान के बारे में जानकारी थी.
‘सब कुछ गुड़-गोबर हो गया!’ इवान ने सोचा.
प्रमुख अभ्यस्त नज़रों से उस कागज़ को पढ़कर “ओह...ओह...” फुसफुसा रहा था. साथ ही आसपास खड़े लोगों से किसी समझ में न आने वाली भाषा
में कुछेक वाक्य भी कह रहा था.
“यह भी लैटिन में, जैसे कि पिलात, बोलता है...” निराशा से इवान ने सोचा. मगर तभी
एक शब्द को सुनकर वह चौंक गया. यह शब्द था “पागलपन” – ओह, यही तो उस नीच विदेशी ने पत्रियार्शी के किनारे
कहा था, वही शब्द अब प्रोफेसर स्त्राविन्स्की ने दुहराया.
‘यह भी मालूम था!’ इवान ने बेचैनी से सोचा.
प्रमुख का मानो यह नियम था कि जो उससे कहा जा रहा था, उससे
वह सहमत होता और उस पर हर्ष प्रकट करते हुए कहता, “बहुत
अच्छा, बहुत अच्छा...”
“बहुत अच्छा!” स्त्राविन्स्की ने कागज़ लौटाते
हुए किसी से कहा और फिर वह इवान की ओर मुख़ातिब हुआ, “आप
कवि हैं?”
“हाँ, कवि हूँ,” इवान ने
बड़ी मायूसी से उत्तर दिया और उसे कविता के प्रति एक अवर्णनीय घृणा-सी महसूस हुई.
अपनी ही कविता, जो उसे कण्ठस्थ थी, अप्रिय
प्रतीत हुई.
उसने माथे को सिकोड़ते हुए स्त्राविन्स्की से पूछ लिया, “आप प्रोफेसर हैं?”
इस पर स्त्राविन्स्की ने गहरे अन्दाज़ से मगर अपनेपन से सिर हिला दिया.
“और आप – यहाँ प्रमुख हैं?” इवान ने बात जारी रखी.
स्त्राविन्स्की ने इस पर सिर हिलाया.
“मुझे आपसे बात करनी है,” इवान निकलायेविच ने
अर्थ पूर्ण स्वर में कहा.
“मैं भी इसीलिए आया हूँ,” स्त्राविन्स्की ने
उत्तर दिता.
अब प्रतीक्षित घड़ी आ गई है, इवान ने महसूस करते हुए कहा, “बात यह है कि मुझे पागल करार दे दिया गया है. कोई मेरी बात सुनना ही नहीं
चाहता!...”
“ओह, नहीं! हम पूरे ध्यान से आपकी बात सुनेंगे.” स्त्राविन्स्की ने बड़ी संजीदगी से मानो उसे तसल्ली देते हुए कहा, “और किसी भी सूरत में आपको पागल करार नहीं देने देंगे.”
“तो फिर ध्यान से सुनिए, कल शाम को पत्रियार्शी तालाब
के किनारे पर मैं एक रहस्यमय व्यक्ति से मिला, विदेशी था
शायद, जिसे पहले ही बेर्लिओज़ की मौत के बारे में पता था और
जिसने स्वयँ पोंती पिलात को देखा है.”
सभी बिना पलक झपकाए कवि की बात सुनते रहे.
“पिलात को? पिलात, जो ईसा मसीह
के समय हुआ करता था!” इवान की ओर आँखें सिकोड़कर देखते
हुए स्त्राविन्स्की ने पूछा.
“वही.”
“आहा!” स्त्राविन्स्की ने कहा, “और यह बेर्लिओज़ ट्रामगाड़ी के नीचे कुचला गया न?”
“मेरी ही आँखों के सामने कल पत्रियार्शी के किनारे ट्राम ने उसका गला काट
दिया, जिसके बारे में इस रहस्यमय व्यक्ति ने...”
“पोंती पिलात का परिचित?” स्त्राविन्स्की ने
बड़ी समझदारी के साथ पूछा.
“वही,” इवान ने ज़ोर देकर स्त्राविन्स्की को
तौलते हुए कहा, “उसी ने पहले से कह रखा था, कि अन्नूश्का ने सूरजमुखी का तेल गिरा दिया है...और वह उसी जगह फिसल कर
गिर पड़ा! यह आपको कैसा लग रहा है?” इवान ने बड़े
भेदभरे अन्दाज़ में कहा. उसे उम्मीद थी कि उसके शब्दों का सब पर गहरा असर होगा.
मगर कोई असर नहीं हुआ और स्त्राविन्स्की ने अगला सवाल पूछा, “मगर यह अन्नूश्का है कौन?”
इस सवाल ने इवान को कुछ परेशान कर दिया. उसके चेहरे पर एक शिकन-सी आई. उसने
बुझते हुए कहा, “अन्नूश्का का यहाँ कोई काम नहीं. शैतान जाने वह कौन
है. सदोवया में रहने वाली कोई बेवकूफ होगी. ज़रूरी यह है कि उसे पहले से ही इस तेल
के बारे में पता था. आप समझ रहे हैं ना?”
“बहुत अच्छी तरह समझ रहा हूँ,” स्त्राविन्स्की
ने संजीदगी से कहा, और कवि के घुटनों को छूते हुए बोला, “परेशान मत होइए और आगे बोलिए.
“हाँ, बोलूँगा,” इवान ने
स्त्राविन्स्की के ही लहजे में कहा. अपने कटु अनुभव से वह समझ चुका था कि संजीदगी
ही उसके लिए बेहतर है, “हाँ, वह...वह
भयंकर व्यक्ति...वह झूठ बोलता है कि वह सलाहकार है, और उसे
किसी असाधारण शक्ति का ज्ञान है...उदाहरण के लिए, उसका पीछा
करते रहो मगर उसे पकड़ पाना असम्भव है. उसके साथ एक जोड़ी और भी है, एक अच्छी जोड़ी, अपनी ही तरह की : एक लम्बू, टूटे ऐनक वाला; और उसके अलावा, एक बड़ा अकराल-विकराल बिल्ला जो ट्रामगाड़ी में अपने आप सफर करता है. इसके
अलावा...” इवान बड़े जोश में बिना किसी रोक-टोक के कहता
रहा, “वह स्वयँ पोंती पिलात के बरामदे में उपस्थित था,
इसमें कोई शक नहीं है,. यह क्या बात हुई?
उसे फ़ौरन गिरफ़्तार करना ज़रूरी है, नहीं तो
वह बड़ी तबाही मचा देगा.”
“इसीलिए आप कह रहे हैं कि उसे गिरफ़्तार किया जाए? क्या
मैं आपको ठीक से समझ रहा हूँ?” स्त्राविन्स्की ने पूछा.
‘यह आदमी अकलमन्द है,’ इवान ने सोचा, ‘मानना पड़ेगा कि कभी-कभार बुद्धिजीवियों में भी बुद्धिमान लोग मिल जाते
हैं. इससे इनकार नहीं किया जा सकता!’ और उसने जवाब दिया, “एकदम सही! और मैं क्यों न इस बात पर ज़ोर दूँ? आप
ख़ुद ही समझ सकते हैं! मगर इस बीच मुझे ही यहाँ ज़बर्दस्ती रोक लिया गया है,
आँखों में लैम्प की रोशनी चुभोई जा रही है, स्नानगृह
में नहलाया जाता है, चाचा फ़्योदर के बारे में पूछा जाता
है!...और वह तो इस दुनिया में काफ़ी पहले से नहीं हैं! मैं यह माँग करता हूँ कि
मुझे फ़ौरन छोड़ दिया जाए.”
“वाह! क्या बात है, अतिसुन्दर!” स्त्राविन्स्की बोला, “सब कुछ स्पष्ट हो गया
है. वास्तव में एक तन्दुरुस्त आदमी को अस्पताल में रोके रखने का कोई मतलब ही नहीं
है? ठीक है...मैं आपको फौरन यहाँ से जाने दूँगा, यदि आप ये कह दें कि आप निरोगी, स्वाभाविक, स्वस्थ्य हैं. साबित करने की ज़रूरत नहीं, सिर्फ कह
भर दीजिए. तो, आप स्वस्थ्य हैं?”
पूरी तरह ख़ामोशी छा गई और वह मोटी औरत, जो सुबह इवान की देखभाल कर रही थी,
प्रशंसा से प्रोफेसर को देखने लगी, और इवान ने
एक बार और सोचा, ‘वास्तव में बुद्धिमान है!’
उसे प्रोफेसर का सुझाव बहुत पसन्द आया, मगर उत्तर देने से पहले काफी देर
सोचा और फिर माथे को सिकोड़कर काफी विश्वास के साथ कहा, “मैं, स्वस्थ्य हूँ.”
“सुन्दर!” स्त्राविन्स्की के सिर से मानो बोझ हट गया, “अगर
ये बात है तो आइए सब बातों पर तार्किक दृष्टि से गौर करें. आपका कल का दिन ही
लीजिए,” वह मुड़ा और उसे तुरंत इवान से सम्बन्धित
केस-पेपर दे दिया गया. “उस अजनबी की तलाश में, जो अपने आपको पोन्ती पिलात का परिचित कहता है, आपने
क्या नहीं कर डाला!” स्त्राविन्स्की ने अपनी लम्बी
उँगलियों को चटखाते हुए, कभी इवान की ओर तथा कभी कागज़ पर
नज़र दौड़ाई, “अपने सीने पर सलीब और मूर्ति लटका ली.
ठीक है?”
“ठीक है,” इवान ने बेरुखी से कहा.
“मुंडेर से भागते हुए अपने चेहरे को ज़ख़्मी कर लिया. ठीक है? बुझी हुई मोमबत्ती लेकर रेस्तराँ में घुस गए, सिर्फ
कच्छा पहन कर और किसी को मार बैठे. आपको हाथ-पैर बँधी हुई अवस्था में यहाँ लाया
गया. यहाँ आकर आपने पुलिस को टेलिफोन करके गोला-बारूद भेजने को कहा. फिर खिड़की से
बाहर कूदने की कोशिश की, ठीक है? अब
सवाल यह है कि ऐसी हरकतें करके क्या किसी को पकड़ना सम्भव है? और अगर आप मानसिक रूप से स्वस्थ हैं तो आप खुद ही कहेंगे : किसी भी तरह
सम्भव नहीं. आप यहाँ से जाना चाहते हैं? शौक से जाइए. मगर
सिर्फ यह पूछने की इजाज़त दीजिए कि आप यहाँ से जाएँगे कहाँ?”
“बेशक पुलिस में,” इवान ने इस बार कुछ नरम पड़ते
हुए कहा. वह प्रोफेसर की नज़रों के सामने कमज़ोर महसूस कर रहा था.
“सीधे यहाँ से?”
“हूँ.”
“और अपने फ्लैट में नहीं जाएँगे?” स्त्राविन्स्की
ने फौरन पूछा.
“वहाँ जाने का समय नहीं है. जब तक मैं फ्लैट में जाऊँगा, वह हाथ से निकल जाएगा.”
“यह बात है! और आप पुलिस में कहेंगे क्या?”
“पोंती पिलात के बारे में,” इवान निकलायेविच ने
कहा और उसकी आँखों के आगे धुंध छाने लगी.
“हूँ, अति सुन्दर!” स्त्राविन्स्की
नम्रतापूर्वक चहका और दाढ़ी वाले की ओर मुड़कर बोला, “फ्योदर
वासिल्येविच, नागरिक बेज़्दोम्नी को शहर जाने के लिए छुट्टी
दे दीजिए. मगर इस कमरे को यूँ ही रहने दीजिए. चादरें भी न बदलिए, दो घण्टॆ बाद नागरिक बेज़्दोम्नी फिर यहाँ आ जाएँगे. अच्छा तो...” फिर वह कवि की ओर मुड़कर बोला, “आपके लिए
सफ़लता की कामना मैं नहीं करूँगा, क्योंकि मुझे आपकी सफ़लता
में रत्ती भर भी विश्वास नहीं है. हम शीघ्र ही फिर मिलेंगे!” और वह खड़ा हो गया. उसके साथ आया जमघट भी सरका.
“मैं यहाँ फिर आऊँगा ही क्यों?” उत्तेजित होकर
इवान ने पूछा.
स्त्राविन्स्की को जैसे इसी प्रश्न का इंतज़ार था, वह
फौरन फिर से बैठ गया और बोला, “इसलिए कि जैसे ही आप
कच्छा पहने पुलिस थाने जाकर यह कहेंगे कि आप पोंती पिलात को व्यक्तिगत रूप से
जानने वाले व्यक्ति से मिले हैं – तुरंत आपको यहाँ
लाया जाएगा, और आप फिर से इसी कमरे में दिखाई देंगे.”
“यहाँ कच्छे का क्या सवाल है?” परेशान होते हुए
इवान ने इधर-उधर देखते हुए पूछा.
“खास कारण तो होगा पोंती पिलात, मगर साथ ही कच्छा भी,
क्योंकि यह सरकारी कपड़े तो हम आप से उतरवा लेंगे और आपको अपने
कपड़े दे देंगे. आप यहाँ सिर्फ कच्छे में लाए गए थे. और फिर आप अपने फ्लैट में भी
तो जाना नहीं चाहते हैं न, हालाँकि मैंने इस ओर इशारा भी
किया था. फिर आता है पिलात का ज़िक्र...और आपके खिलाफ़ बन जाता है एक ठोस कारण!”
अब इवान निकलायेविच के साथ एक आश्चर्यजनक घटना घटी. उसकी इच्छा-शक्ति मानो
चूर-चूर हो गई. उसने महसूस किया कि काफी क्षीण हो गया है. उसे किसी की सलाह की
ज़रूरत है.
“तो फिर किया क्या जाए?” अब उसने नम्रता से
पूछा.
“ये हुई न बात!” स्त्राविन्स्की बोला, “यह कुछ अकलमन्दी की बात की है आपने! अब मैं आपको बताऊँगा कि वास्तव में
आपके साथ हुआ क्या था. कल आपको किसी ने पोंती पिलात की कहानी सुनाकर बुरी तरह
डराकर परेशान कर दिया और आप उस परेशानी और डर की हालत में शहर में घूमते रहे तथा
पोंती पिलात के बारे में कहते रहे. ज़ाहिर है कि आपको पागल समझ लिया गया. अब आपकी
ख़ैरियत इसी में है कि आप पूरी तरह शांत रहें. इसलिए आपका यहाँ रहना ज़रूरी है.”
“मगर उसे पकड़ना ज़रूरी है!” इवान विनती करते
हुए रिरियाया.
“ठीक है, मगर उसके लिए आप ही क्यों दौड़-धूप करें?
आप एक कागज़ पर इस व्यक्ति से सम्बन्धित सभी आरोपों तथा सन्देहों को
लिख दीजिए. इससे आसान तरीका और क्या हो सकता है कि आपकी इस दरख़्वास्त को सही जगह
पर भेज दिया जाए. यदि जैसा आप कह रहे हैं, वह एक मुजरिम है,
तो यह मामला बड़ी शीघ्रता से सुलझ जाएगा. मगर सिर्फ एक शर्त है :
अपने दिमाग पर ज़ोर मत डालिए और पोंती पिलात के बारे में कम से कम सोचिए. कहने के
लिए क्या कम बातें हैं! सभी पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए.”
“समझ
गया!” इवान ने दृढ़तापूर्वक कहा, “कृपया मुझे कागज़ और कलम दे दीजिए.”
“कागज़ और छोटी पेंसिल दीजिए...” स्त्राविन्स्की
ने मोटी औरत से कहा, फिर इवान से बोला, “मगर मैं आपको यह सलाह दूँगा कि आज न लिखिए.”
“नहीं, नहीं, आज ही, किसी भी हालत में आज ही,” इवान ने उत्तेजित
होकर कहा.
“अच्छा ठीक है. सिर्फ अपने दिमाग पर ज़ोर मत डालिए. आज सम्भव नहीं है,
कल ही हो पाएगा.”
“वह भाग जाएगा!”
“ओह नहीं,” स्त्राविन्स्की ने दृढ़ प्रतिवाद
करते हुए कहा, “वह कहीं नहीं भागेगा, यह मेरा वादा है. और फिर याद रखिए, यहाँ आपकी हर तरह
से मदद की जाएगी, जिसके बिना आपका कोई काम नहीं होने वाला.
आप सुन रहे हैं न?” अचानक भेदभरी आवाज़ में
स्त्राविन्स्की ने पूछा और इवान निकलायेविच के दोनों हाथ पकड़ लिए. उन्हें अपने
हाथों में लेकर वह एकटक इवान की आँखों में अपनी आँखें गड़ाए रहा और दुहराता रहा, “यहाँ आपकी मदद की जाएगी...आप मेरी आवाज़ सुन रहे हैं? यहाँ आपकी मदद की जाएगी...यहाँ आपकी मदद की जाएगी...आपको आराम मिलेगा.
यहाँ ख़ामोशी है, शांति है...यहाँ आपकी मदद की जाएगी...”
इवान निकलायेविच ने अप्रत्याशित रूप से उबासी ली, उसके
चेहरे के भाव सौम्य होते गए.
“हाँ, हाँ...” वह हौले से
बोला.
“हाँ, यह ठीक है, सुन्दर!” अपनी आदत के मुताबिक स्त्राविन्स्की ने बातचीत ख़त्म करते हुए कहा और उठ
गया, “अलविदा!” उसने इवान से
हाथ मिलाया और बाहर निकलते हुए दाढ़ी वाले की ओर मुड़कर बोला, “हाँ और ऑक्सीजन देकर देखिए...और स्नान.”
कुछ क्षणों बाद इवान के सामने न तो स्त्राविन्स्की था, न
उसके चेले. खिड़की की जाली के बाहर, खुशगवार बसंत की दोपहर
की धूप में मैपल का वन नदी के दूसरे किनारे पर अपनी खूबसूरती बिखेर रहा था,
और निकट ही नदी चमचमा रही थी.
*******
नौ
करोव्येव की करतूतें
निकानोर इवानविच बसोय, 302
बी नम्बर की बिल्डिंग की हाउसिंग सोसाइटी के प्रमुख, बुधवार
तथा गुरुवार के बीच की रात से काफी परेशान थे तथा अनेक बखेड़ों में उलझे थे. यह
वही बिल्डिंग थी, जहाँ स्वर्गीय बेर्लिओज़ रहता था.
जैसा कि आपको याद होगा, आधी रात के समय एक समिति, जिसमें
झेल्दीबिन था, उस इमारत में आई. निकानोर इवानविच को बुलाकर
बेर्लिओज़ की मृत्यु की सूचना दी गई एवँ उसके साथ वे 50 नम्बर के फ्लैट में गए.
वहाँ मृतक की वस्तुओं और उसकी पाण्डुलिपियों को सील कर दिया गया था. इस समय
उस क्वार्टर में न तो काम वाली लड़की ग्रून्या थी, न ही छिछोरा स्तिपान बग्दानोविच.
समिति ने निकानोर इवानविच को बताया कि मृतक की पाण्डुलिपियाँ वे परीक्षण के लिए ले
जा रहे हैं; उसका घर यानी कि तीन कमरे (जौहरी की बीबी का
अध्ययन कक्ष, बैठक और डाइनिंग रूम) हाउसिंग सोसाइटी के कब्जे
में रहेंगे, और मृतक की वस्तुएँ इसी इमारत में हिफ़ाज़त से
तब तक रखी रहेंगी, जब तक उसके निकट सम्बन्धियों का पता नहीं
चल जाता.
बेर्लिओज़ की मृत्यु का समाचार पूरी इमारत में अद्भुत तेज़ी से फैल गया.
गुरुवार सुबह सात बजे से ही बसोय के टेलिफोन की घण्टी बार-बार बजने लगी. लोग स्वयँ
दरख़्वास्त लेकर आने लगे, यह साबित करने के लिए कि मृतक के रिहायशी मकान पर उन्हीं
का हक है. दो घंटो के भीतर निकानोर इवानविच के पास ऐसी 32 अर्ज़ियाँ आ गईं.
इन अर्ज़ियों में क्या कुछ नहीं लिखा था : प्रार्थना थी, धमकी
थी, शर्तें थीं, लालच था, अपने खर्चे से मरम्मत कराने की बात थी, जगह की कमी
का शिकवा था और लुटेरों के बीच एक ही घर में रहने की लाचारी तथा उससे जुड़ी
असमर्थता थी. इन अर्ज़ियों में आँखों में आँसू लाने वाला वर्णन था : कोट की जेबों
से पैसे चोरी होने का फ्लैट नं. 31 में, फ्लैट न मिलने की
सूरत में दो व्यक्तियों द्वारा आत्महत्या कर लेने का वादा और एक नाजायज़ रूप से
गर्भ ठहरने की स्वीकृति भी थी.
निकानोर इवानविच को उसके फ्लैट के बाहरी कमरे में बुलाया गया, उसकी
बाँह पकड़कर फुसफुसाहट के स्वर में, आँख मारकर यह वादा किया
गया कि वह अपने विभिन्न कर्ज़ों से मुक्त हो जाएगा.
यह मानसिक यातना दिन के लगभग एक बजे तक चलती रही, जब
निकानोर इवानविच अपना फ्लैट छोड़कर हाउसिंग सोसाइटी के दफ़्तर भाग गया. मगर जब
उसने देखा कि वहाँ भी उसकी ताक में लोग खड़े हैं, तो वह वहाँ
से भी भाग गया; किसी तरह पीछा करने वालों से जान बचाकर,
जो सीमेंट के आँगन में उसका पीछा कर रहे थे, वह
छठे प्रवेश द्वार में छिप गया और लिफ्ट से पाँचवीं मंज़िल पर पहुँचा, जहाँ यह अभिशप्त फ्लैट नं. 302 स्थित था.
थोड़ी साँस लेकर, पसीने से सराबोर निकानोर इवानविच ने फ्लैट की घण्टी बजाई,
मगर किसी ने भी दरवाज़ा नहीं खोला. उसने बार-बार घण्टी बजाई और फिर
गुस्से में बड़बड़ाना शुरू किया. मगर फिर भी किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला. निकानोर इवानविच
का धैर्य छूटता जा रहा था. वह अपनी जेब से डुप्लिकेट चाबियों का गुच्छा निकालकर
आधिकारिक भाव से दरवाज़ा खोलकर अन्दर गया.
“ऐ, नौकरानी!” अँधेरे
गलियारे में निकानोर इवानविच चिल्लाया, “क्या नाम है?
ग्रून्या? क्या तुम नहीं हो?”
किसी ने भी जवाब नहीं दिया.
तब निकानोर इवानविच ने दरवाज़े पर लगी सील को तोड़ा, अपनी
ब्रीफकेस में से एक छोटा डण्डा निकाला और अध्ययन कक्ष में घुसा.
घुसने को तो वह घुस गया मगर दरवाज़े पर ही विस्फारित नेत्रों से ठहर गया, और
तो और, काँपने भी लगा.
मृतक की लिखने की मेज़ पर एक अनजान व्यक्ति बैठा था, चौख़ाने
वाला कोट पहने एक लम्बू, जिसने जॉकियों जैसी टोपी पहन रखी थी
और डोरी वाला चश्मा लगा रखा था...हाँ, एक शब्द में, वही.
“आप कौन हैं, श्रीमान?” घबराते
हुए निकानोर इवानविच ने पूछा.
“ब्बा! निकानोर इवानविच...” पतली-सी आवाज़ में
अकस्मात् प्रकट हुआ नागरिक चिल्लाया और उसने बड़े जोश में अचानक प्रमुख से हाथ
मिलाया. इस स्वागत से निकानोर इवानविच ज़रा भी खुश नहीं हुआ.
“मैं माफ़ी चाहता हूँ,” वह सन्देह भरी आवाज़ में
बोला, “आप हैं कौन? आप क्या कोई शासकीय
अधिकारी हैं?”
“ओफ, निकानोर इवानविच!” अजनबी
ने हृदयपूर्वक मुस्कुराकर फिकरा कसा, “शासकीय और
अशासकीय क्या होता है? यह तो इस बात पर निर्भर है कि आप किसी
वस्तु को किस नज़र से देखते हैं; यह परिस्थितिजन्य और काफी
सारी शर्तों पर निर्भर है. आज मैं एक अशासकीय अधिकारी हूँ, और
कल, शासकीय! इससे विपरीत भी हो सकता है, निकानोर इवानविच. और क्या कुछ नहीं हो सकता!”
इस तर्क ने हाउसिंग सोसाइटी के प्रमुख को ज़रा भी संतुष्ट नहीं किया. मूल
रूप से ही शक्की होने के कारण उसने अन्दाज़ लगाया कि उसके सामने खड़ा बड़बड़ाता हुआ
यह व्यक्ति अवश्य ही अशासकीय है, और साथ ही निकम्मा, डींग मारने वाला
भी है.
“आप हैं कौन? आपका उपनाम क्या है?” प्रमुख ने संजीदा होते हुए पूछा और वह अजनबी की दिशा में बढ़ने लगा.
“मेरा उपनाम...” प्रमुख की संजीदगी से ज़रा भी
विचलित हुए बिना उस नागरिक ने कहा, “समझ लीजिए, करोव्येव . क्या आप कुछ खाना चाहेंगे, निकानोर इवानविच?
बिना किसी तकल्लुफ के! हाँ?”
“माफ़ी चाहूँगा,” कुछ अभद्रता के साथ निकानोर इवानविच
ने कहा, “खाना क्या चीज़ है! (मानना पड़ेगा, हालाँकि यह अच्छा नहीं लग रहा, कि निकानोर इवानविच
स्वभाव से ही कुछ असभ्य थे.) मृतक के आधे हिस्से को दबोच लेने की इजाज़त नहीं है!
आप यहाँ क्या कर रहे हैं?”
“आप बैठ तो जाइए, निकानोर इवानविच, ज़रा भी डरे बिना...” वह नागरिक दहाड़ा और उसने
प्रमुख की ओर कुर्सी खिसका दी.
निकानोर इवानविच आपे से बाहर हो गया, उसने कुर्सी एक ओर धकेल दी और ऊँचे
स्वर में पूछा, “आप हैं कौन?”
“मैं, जैसा कि आप देख रहे हैं, इस
फ्लैट में रहने आए विशिष्ठ विदेशी अतिथि का अनुवादक हूँ,” अपने आप को करोव्येव कहने वाले उस व्यक्ति ने अपना परिचय दिया और गन्दे
जूते की एड़ियों से टकटक करने लगा.
निकानोर इवानविच ने मुँह खोला. इस फ्लैट में किसी विदेशी उपस्थिति, वह
भी अनुवादक के साथ, उसके लिए चौंकाने वाली बात थी, इसलिए उसने और अधिक स्पष्टीकरण माँगा.
अनुवादक ने सहर्ष स्पष्ट किया कि विदेशी कलाकार मिस्टर वोलान्द को वेराइटी
थियेटर के डाइरेक्टर स्तिपान बग्दानोविच लिखादेयेव ने उनके इस विदेशी दौरे के
दौरान, जो कि लगभग एक हफ़्ते का है, इसी
फ्लैट में रहने की दावत दी थी. इसके बारे में उसने कल ही निकानोर इवानविच को पत्र
लिखकर विदेशी के लिए एक हफ़्ते के निवास की अनुमति देने की विनती की थी क्योंकि लिखादेयेव
स्वयँ याल्टा जाने वाले थे.
“उसने मुझे कुछ भी नहीं लिखा है,” विस्मित होते
हुए प्रमुख ने कहा.
“आप अपने ब्रीफकेस में देखिए तो सही, निकानोर इवानविच,” करोव्येव ने बड़ी मिठास से कहा.
निकानोर इवानविच ने कंधे उचकाए, ब्रीफकेस खोला और उसे लिखादेयेव का
लिखा पत्र मिल गया.
“इस बारे में मैं भूल कैसे गया?” फटी-फटी आँखों
से उस लिफाफे की ओर देखते हुए निकानोर इवानविच बड़बड़ाया.
“होता
है, होता है, निकानोर इवानविच,” करोव्येव फटे स्वर में चिल्लाया, “परेशानी,
परेशानी, और थकावट और बढ़ा हुआ ब्लड-प्रेशर,
मेरे प्रिय मित्र निकानोर इवानविच! मैं भी भयानक रूप से परेशान हूँ.
शराब के एक पैग के साथ मैं आपको अपने जीवन की कुछ घटनाएँ बताऊँगा तो आप
हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाएँगे!”
“लिखादेयेव याल्टा कब जा रहे हैं?”
“वह तो चले भी गए, चले गए!” अनुवादक चिल्लाया, “उन्होंने सैर-सपाटा भी शुरू
कर दिया होगा! शैतान ही जाने, वह कहाँ हैं.” और अनुवादक न हाथ इस तरह घुमाया मानो वह किसी पवनचक्की का एक पंख हो.
निकानोर इवानविच ने कहा, “मेरा उस विदेशी से व्यक्तिगत रूप से मिलना बहुत
ज़रूरी है.”
अनुवादक ने एकदम इनकार कर दिया, “यह नामुमकिन है. वह व्यस्त है,
बिल्ले को ट्रेनिंग दे रहा है.”
“अगर आप चाहें तो बिल्ले को दिखा सकता हूँ,” करोव्येव
ने प्रस्ताव रखा.
इस बार निकानोर इवानविच ने इनकार कर दिया, तब अनुवादक ने प्रमुख के सामने एक
चौंकाने वाला मगर दिलचस्प प्रस्ताव रखा, “चूँकि वोलान्द
महाशय किसी भी सूरत में होटल में नहीं रहना चाहते और चूँकि उन्हें काफी जगह में
रहने की आदत है, तो क्या प्रमुख उन्हें एक सप्ताह के लिए,
जब तक उनका मॉस्को में दौरे का कार्यक्रम है, इस
पूरे फ्लैट को इस्तेमाल करने की, यानी कि मृतक के कमरों को
इस्तेमाल करने की इजाज़त देंगे? मृतक को तो इससे कोई फर्क
नहीं पड़ेगा.” सीटी जैसी आवाज़ में करोव्येव बुदबुदाया, “इससे तो आप ख़ुद भी सहमत होंगे, निकानोर इवानविच,
उसे फ्लैट की कोई ज़रूरत नहीं है न?”
निकानोर इवानविच ने कुछ क्षीण-सा प्रतिकार करते हुए कहा कि विदेशियों को ‘मेट्रोपोल’ में रहना पड़ता है, न कि किसी के निजी फ्लैट में...”
“मैं तो ख़ुद ही कह रहा हूँ कि वह चक्रम है...शैतान ही जाने वह क्या है?” करोव्येव फुसफुसाते हुए बोला, “मगर वह नहीं चाहता! होटल उसे पसन्द ही नहीं है! यहाँ बैठ जाते हैं ये
परदेसी!” करोव्येव ने अपनी गर्दन में उँगली गड़ाते हुए बड़ी
आत्मीयता के भाव से कहा, “यक़ीन कीजिए, जान खा लेते हैं! आते हैं...और या तो जासूसी के लिए आते हैं, जैसे चुडैल की आख़िरी औलाद हों, या अपनी बेहूदा
हरकतों से सिर खा लेते हैं : यह पसन्द नहीं है, वह पसन्द
नहीं है!...और आपको तो, निकानोर इवानविच, काफ़ी फ़ायदा है. पैसों के मामले में वह आगे-पीछे नहीं देखेगा,” करोव्येव ने कनखियों से इधर-उधर
देखते हुए कहा और फिर प्रमुख के कान में फुसफुसाया, “करोड़पति
है!”
अनुवादक की पेशकश में एक व्यावहारिक अर्थ छुपा हुआ था. प्रस्ताव काफ़ी ठोस
था, मगर
अनुवादक के कहने का ढंग कुछ कमज़ोर था; कुछ सन्देहास्पद बात
थी उसकी बातचीत के लहज़े में, उसकी वेशभूषा में, उसके दयनीय नासपीटे चश्मे में. इसके परिणामस्वरूप कोई अज्ञात भय प्रमुख की
आत्मा को दबोचे जा रहा था; मगर फिर भी उसने इस प्रस्ताव को
स्वीकार करने की ठान ली. इसका कारण यह था कि यह सोसाइटी घाटे में चल रही थी. शिशिर
ऋतु तक घरों को गरम करने के लिए पेट्रोल ख़रीदना आवश्यक था. उसके लिए क्या कुछ
करना पड़ेगा, कुछ ख़बर नहीं. विदेशी के पैसों से यह काम
आसानी से हो जाएगा और काफ़ी कुछ बच भी जाएगा. मगर चतुर और सावधान प्रकृति के
निकानोर इवानविच ने कहा कि पहले उसे इस विषय पर विदेशी ब्यूरो में बात करनी
पड़ेगी.
“मैं समझ सकता हूँ!” करोव्येव चहका, “बिना बात किए
कैसे? करना ही पड़ेगा, यह रहा टेलिफोन,
निकानोर इवानविच, शीघ्र ही बात कर लीजिए!
पैसों के बारे में फिकर न कीजिए,” उसने प्रमुख को सामने
के कमरे में रखे टेलिफोन की ओर ले जाते हुए फुसफुसाहट के साथ कहा, “उससे नहीं तो किससे लेंगे! काश, आपने देखा होता कि
नीत्से में उसका कितना शानदार बंगला है! अगली गर्मियों में, जब
आप विदेश जाएँ, तो ज़रूर देखने जाइएगा – हैरान हो जाएँगे!”
विदेशी ब्यूरो का काम टेलिफोन पर ही अप्रत्याशित और प्रमुख को विस्मित करने
वाली तेज़ी से हो गया. यह पता चला कि वहाँ पहले ही वोलान्द महाशय के लिखादेयेव के
फ्लैट में रहने के इरादे की जानकारी है और उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं है.
“सुन्दर, अति सुन्दर!” करोव्येव
ख़ुशी से चिल्लाया.
उसकी इस प्रसन्नता से थोड़ा घबराकर प्रमुख ने कहा कि हाउसिंग सोसाइटी एक
सप्ताह के लिए फ्लैट नं 50 कलाकार वोलान्द को किराए पर देने के लिए तैयार है.
किराया होगा...निकानोर इवानविच ने कुछ सोचकर कहा, “500 रुबल्स प्रतिदिन.”
अब करोव्येव ने पूरी तरह प्रमुख को
चित कर दिया. चोरों की तरह आँख मारते हुए उसने शयनकक्ष की ओर देखा, जहाँ
से भारी बिल्ले के हलके कदमों की आवाज़ आ रही थी, वह सीटी
बजाती-सी आवाज़ में बोला, “मतलब, एक
सप्ताह के लिए – 3500?”
निकानोर इवानविच ने सोचा कि अब वह कहेगा, “कितने लालची हैं आप, निकानोर इवानविच!” मगर करोव्येव ने एकदम दूसरी बात कही,” यह भी कोई रकम है! पाँच माँगिए, वह देगा.”
विस्मित, भौंचक्का निकानोर इवानविच समझ ही नहीं पाया कि वह कैसे
मृतक के लिखने की मेज़ तक पहुँचा, जहाँ करोव्येव ने बड़ी फुर्ती और सहजता से इस अनुबन्ध की दो
प्रतियाँ तैयार कीं. तत्पश्चात् वह मानो हवा में तैरते हुए उन्हें लेकर शयन-कक्ष
में गया और वापस आया; दोनों प्रतियों पर विदेशी के हस्ताक्षर
थे. प्रमुख ने भी अनुबन्ध पर हस्ताक्षर किए. करोव्येव ने रसीद माँगी पाँच...
“बड़े अक्षरों में, बड़े अक्षरों में, निकानोर इवानविच!...हज़ार रुबल्स...” और वह
बड़े हल्के-फुल्के अन्दाज़ में बोला, “एक, दो, तीन...” और उसने पाँच
नए-नए नोटों की गड्डियाँ प्रमुख की ओर बढ़ा दीं.
नोटों को गिना गया करोव्येव के मज़ाकों और फिकरों के बीच, जैसे
कि ‘पैसों को गिनती पसन्द है’, ‘अपनी आँख – सच्चा पैमाना’ इत्यादि.
पैसों को गिनने के बाद प्रमुख ने करोव्येव से अपने कागज़ात में दर्ज करने
के लिए विदेशी का पासपोर्ट लिया, तत्पश्चात् पासपोर्ट, पैसे तथा
अनुबन्ध ब्रीफकेस में रखने के बाद वह कुछ देर मँडराया और शर्माते हुए कुछ टिकट
माँगने लगा...
“क्या बात है!” करोव्येव चीखा, “आपको कितने टिकट चाहिए, निकानोर इवानविच, बारह, पन्द्रह?”
विस्मित प्रमुख ने स्पष्ट किया कि उसे केवल दो टिकट चाहिए, एक
अपने लिए और एक अपनी पत्नी, पिलागेया अंतोनव्ना के लिए.
करोव्येव ने उसी समय एक नोटबुक
निकाली और एक कागज़ पर दो व्यक्तियों के लिए पहली पंक्ति में दो सीटों के लिए एक
पुर्जा लिखकर दिया. वह कागज़ अनुवादक ने दाहिने हाथ से, हौले
से निकानोर इवानविच के हाथ में ठूँसा और बाएँ हाथ से प्रमुख के दूसरे हाथ में
करकराते करारे नोटों का मोटा-सा बण्डल थमा दिया. जैसे ही उस पर नज़र पड़ी निकानोर इवानविच
लाल हो गया और उसे अपने से दूर हटाने लगा.
“ऐसा नहीं होता,” वह बड़बड़ाया.
“मैं कुछ सुनना नहीं चाहता,” करोव्येव बिल्कुल
उसके कान में फुसफुसाया, “हमारे यहाँ नहीं होता,
विदेशियों में होता है. आप उसका अपमान कर रहे हैं, निकानोर इवानविच, यह अच्छी बात नहीं है. आपने काम
किया है...”
“बड़ी कड़ी जाँच और सज़ा होगी,” बड़े हौले से
प्रमुख ने कहा और कनखियों से इधर-उधर देखा.
“और गवाह कहाँ हैं?” दूसरे कान में करोव्येव फुसफुसाया, “मैं आपसे
पूछता हूं, कहाँ हैं वे? आप भी क्या
बात करते हैं!”
और
तब, जैसा कि बाद में प्रमुख ने स्पष्ट किया, एक आश्चर्यजनक घटना घटी. नोटों का यह बण्डल अपने आप ही उसके ब्रीफकेस में
घुस गया. तत्पश्चात् प्रमुख कुछ कमज़ोर, कुछ टूटा हुआ-सा
सीढ़ियों पर आ गया. उसके मस्तिष्क में विचारों का बवण्डर छाया था. वहाँ नीत्से
वाला बँगला घूम रहा था, और प्रशिक्षित बिल्ला, और यह ख़याल कि वास्तव में कोई गवाह नहीं थे, और यह
कि पिलागेया अंतोनव्ना टिकटें पाकर बड़ी ख़ुश होगी. ये सब बेतरतीब मगर ख़ुशगवार
ख़याल थे. मगर फिर भी उसके मन में बहुत गहरे, कहीं कोई एक
सुई भी चुभ रही थी. यह बेचैनी की चुभन थी. साथ ही, वहीं
सीढ़ियों पर प्रमुख को इस ख़याल ने दबोच लिया कि आख़िर यह अनुवादक अध्ययन-कक्ष में
पहुँच कैसे गया, जबकि दरवाज़ा सीलबन्द था! और उसने, निकानोर इवानविच ने, इस बारे में उससे क्यों कुछ
नहीं पूछा? कुछ देर तक प्रमुख साँड की तरह सीढ़ियों की ओर
देखता रहा, मगर फिर उसने इस बात को दिमाग से झटकने की ठानी
और तय किया कि इन बेसिर-पैर के विचारों से अपने आपको विचलित नहीं होने देगा...
जैसे ही प्रमुख फ्लैट में से बाहर निकला, शयनगृह से एक भारी आवाज़ आई, “मुझे यह निकानोर इवानविच पसन्द नहीं आया. वह लालची और बेईमान है. क्या ऐसा
नहीं हो सकता कि वह फिर यहाँ न आए?”
“महोदय, आपके हुक्म की देर है!” कहीं से करोव्येव ने जवाब दिया,
मगर काँपती, बेसुरी आवाज़ में नहीं, बल्कि स्पष्ट और खनखनाती आवाज़ में.
और तुरंत ही उस पापी अनुवादक ने बाहरी कमरे में आकर टेलिफोन के कुछ नम्बर
घुमाकर न जाने क्यों भेदभरी आवाज़ में कहा, “हैलो! मैं यह बताना अपना
कर्त्तव्य समझता हूँ कि सदोवया रास्ते के 302 बी नम्बर की बिल्डिंग की हाउसिंग
सोसाइटी के प्रमुख निकानोर इवानविच बसोय रिश्वत लेते हैं. इस क्षण उनके 35 नम्बर
के फ्लैट के शौचालय के वातायन में अख़बारी कागज़ में लिपटे चार सौ डालर्स मौजूद
हैं. मैं इसी बिल्डिंग में ग्यारह नम्बर के फ्लैट में रहने वाला तिमाफेइ क्वस्त्सोव
बोल रहा हूँ. मगर यह विनती है कि मेरा नाम गुप्त ही रखा जाए. मुझे डर है कि प्रमुख
मुझसे बदला लेगा.
और उस नीच ने टेलिफोन का चोंगा लटका दिया.
फ्लैट नं. 50 में आगे क्या हुआ यह तो पता नहीं, हाँ
यह मालूम है कि निकानोर इवानविच के घर क्या गुज़रा. घर पहुँचने पर उसने अपने आपको
शौचालय में बन्द कर लिया और ब्रीफकेस से नोटों का वह बण्डल निकाला जो अनुवादक ने
उसे थमाया था. उसने उन्हें गिनकर एक बार फिर इत्मीनान कर लिया कि उस बण्डल में चार
सौ रुबल्स ही थे. इस बण्डल को निकानोर इवानविच ने अख़बार में लपेटा और उसे
वेंटीलेटर पर रख दिया.
पाँच मिनट पश्चात् प्रमुख अपने छोटे-से भोजनगृह की मेज़ पर बैठा था. पत्नी
रसोई से सही ढंग से काटी हुई हेरिंग लाई जिस पर हरी प्याज़ काटकर सजाई गई थी.
निकानोर इवानविच ने एक छोटा पैग बनाकर पी लिया, दूसरा बनाया, पी
लिया. काँटे पर हेरिंग के तीन टुकड़े लगाए...इसी समय घण्टी बजी और पिलागेया
अंतोनव्ना ने भाप निकलता हुआ भगौना मेज़ पर रख दिया, जिसे
देखकर एक ही नज़र में यह अनुमान लगाया जा सकता था कि इस गाढ़े शोरवे वाले बर्तन
में वह है, जिससे अधिक स्वादिष्ट पूरे संसार में और कुछ नहीं
है – मस्तिष्क की हड्डी!
लार निगलते हुए निकानोर इवानविच कुत्ते की तरह बोला, “भाड़ में जाएँ! खाने भी नहीं देते...किसी को भी अन्दर मत आने देना...मैं
घर पर नहीं हूँ, बिल्कुल नहीं हूँ! फ्लैट के बारे में पूछे
तो कहना, परेशान न हो, एक हफ़्ते बाद
मीटिंग होगी...”
बीबी सामने के कमरे की ओर भागी और निकानोर इवानविच ने भाप निकालते डोंगे से
चम्मच की सहायता से उसे निकाल लिया, लम्बाई में चटखी हुई हड्डी को. इसी
क्षण भोजनगृह में दो नागरिक घुसे, और उनके साथ न जाने क्यों
पीली पड़ गई पिलागेया अंतोनव्ना. उन नागरिकों पर नज़र पड़ते ही निकानोर इवानविच भी
सफ़ेद पड़ गया और वह उठ खड़ा हुआ.
“शौचालय कहाँ है?” पहले ने पूछा जो सफ़ेद रंग का
जैकेट पहने था.
खाने की मेज़ पर कुछ बजा (यह निकानोर इवानविच के हाथ से छूटकर गिर पड़े
चम्मच की आवाज़ थी).
“यहाँ, यहाँ,” पिलागेया
अंतोनव्ना जल्दी से बोली.
आगंतुक तुरंत गलियारे की ओर बढ़े.
“बात क्या है?” निकानोर इवानविच ने आगंतुकों के
पीछे आते हुए पूछा, “हमारे फ्लैट में कोई भी आपत्तिजनक
बात नहीं है...आपके परिचय पत्र? माफ़ी चाहता हूँ...”
पहले आगंतुक ने चलते-चलते निकानोर इवानविच को अपना परिचय-पत्र दिखाया और
दूसरा उसी क्षण शौचालय में कमोड पर खड़ा होकर अपना हाथ वातायन में डालता नज़र आया.
निकानोर इवानविच की आँखों के आगे अँधेरा छा गया. अख़बार दूर हटाया गया मगर बण्डल
में रुबल्स नहीं थे बल्कि कुछ अनजाने नोट थे, नीले-से, हरे-से,
जिन पर किसी बूढ़े की तस्वीर थी. मगर निकानोर इवानविच ने स्पष्ट रूप
से नहीं देखा, उसकी आँखों के आगे कुछ धब्बे से तैर रहे थे.
“रोशनदान में डॉलर्स हैं”, पहले ने सोचने के अन्दाज़
में कहा और बड़ी ही नरमाई और प्यार से निकानोर इवानविच से पूछा, “यह आपका पैकेट है?”
“नहीं!” निकानोर इवानविच दर गया, “दुश्मनों ने फेंका होगा!”
“होता है,” पहले ने सहमत होते हुए कहा, और फिर नरमाई से ही आगे बोला, “मगर फिर भी बाकी
के तो देने ही पड़ेंगे.”
“मेरे पास नहीं हैं! भगवान की कसम नहीं हैं, कभी भी
मैंने उन्हें हाथ में भी नहीं पकड़ा!” प्रमुख परेशान
होते हुए चिल्लाया.
वह मेज़ पर झुका, खड़खड़ाकर उसकी दराज़ निकाली, और
उसमें से ब्रीफकेस निकालकर कुछ असम्बद्ध बातें बड़बड़ाता रहा, “यह देखिए अनुबन्ध...वह सँपोला, अनुवादक फेंक गया
है...करोव्येव ...चश्मा पहने है!”
उसने ब्रीफकेस खोला, उसमें झाँका, उसमें हाथ डाला
और...उसका चेहरा काला पड़ गया और उसने ब्रीफकेस शोरवे में गिरा दिया. ब्रीफकेस में
कुछ भी नहीं था : न तो स्तिपान का पत्र, न ही अनुबन्ध,
न ही विदेशी का पासपोर्ट, न पैसे, न थियेटर के टिकट...कुछ भी नहीं, सिवा उस कपड़े के
जो ब्रीफकेस के भीतरी हिस्से पर जड़ा था.
“साथियों!” प्रमुख अप्राकृतिक आवाज़ में
चिल्लाया, “उन्हें पकड़िए! हमारी बिल्डिंग में शैतानी
ताकत घुस गई है!”
मगर तभी पिलागेया अंतोनव्ना को न जाने क्या हुआ, क्योंकि
वह हाथ हिला-हिलाकर चिल्ला पड़ी, “कबूल कर लो इवानविच!
तुम्हारे लिए अच्छा रहेगा!”
निकानोर इवानविच की आँखों में खून उतर आया. वह बीबी के सिर पर मुक्का तानते
हुए भर्राई हुई आवाज़ में चिल्लाया, “ओफ बेवकूफ, पापिन!”
अब वह निढ़ाल होकर कुर्सी पर लुढ़क गया. ज़ाहिर है उसने होनी के सामने हार
मान ली थी.
इसी समय प्रमुख के फ्लैट के दरवाज़े में जड़े चाभी लगाने वाले सुराख से कभी
आँख और कभी कान लगाए तिमाफेइ कन्द्रात्येविच क्वस्त्सोव उत्सुकता से चिपका खड़ा
था.
पाँच ही मिनट बाद आँगन में खड़े उस बिल्डिंग के निवासियों ने देखा कि
हाउसिंग सोसाइटी प्रमुख दो व्यक्तियों के साथ निकलकर बिल्डिंग के मुख्य
प्रवेशद्वार की ओर बढ़ा. सबने देखा कि निकानोर इवानविच के पास छिपाने के लिए मुँह
ही नहीं था; वह घिसटकर चल रहा था, शराबी की तरह,
और कुछ बड़बड़ाता जा रहा था.
इसके एक घण्टॆ बाद वह अनजान परदेसी क्वार्टर नम्बर ग्यारह में प्रकट हुआ, ठीक
उसी समय, जब तिमाफेइ कन्द्रात्येविच दूसरे निवासियों को
नमक-मिर्च लगाकर कह रहा था कि कैसे प्रमुख को दबोचा गया. अजनबी ने उँगली के इशारे
से तिमाफेइ कन्द्रात्येविच को रसोई घर से बाहरी हॉल में बुलाया. उससे कुछ कहा और
उसके साथ कहीं गायब हो गया.
*******
दस
याल्टा की ख़बरें
जब निकानोर इवानविच के साथ यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घट रही थी, ठीक
उसी समय मकान नं. 302 से कुछ ही दूर, उसी सदोवया रास्ते पर
स्थित वेराइटी थियेटर के वित्तीय डाइरेक्टर रीम्स्की के कैबिन में दो व्यक्ति
मौजूद थे : स्वयँ रीम्स्की और वेराइटी के व्यवस्थापक वरेनूखा.
थियेटर की दूसरी मंज़िल पर स्थित इस बड़े-से कैबिन की दो खिड़कियाँ सदोवया
रास्ते की ओर खुलती थीं और एक, जो मेज़ पर बैठे वित्तीय डाइरेक्टर की पीठ के पीछे थी,
वेराइटी के ग्रीष्मोद्यान में खुलती थी, जहाँ
शीतल रेस्तराँ और थियेटर का खुला मंच था. कैबिन में लिखने की बड़ी मेज़ के सामने
पुराने इश्तहार दीवारों पर लटके थे, एक छोटी मेज़ पर पानी का
जग रखा था, चार कुर्सियाँ पड़ी थीं और एक कोने में धूल से अटा
किसी पुराने शो का एक मॉडल भी था. और ज़ाहिर है कि इस सबके अलावा कैबिन में एक
भद्दा, बदरंग, अज्वलनशील छोटा-सा कैश
बॉक्स भी था – रीम्स्की के बाएँ हाथ की ओर,
मेज़ की बगल में.
मेज़ पर बैठा रीम्स्की सुबह से ही बड़े बुरे मूड में था, जबकि
वरेनूखा, इसके विपरीत बहुत ज़िन्दादिल और उत्तेजित नज़र आ रहा
था. बस उसकी शक्ति के, ज़िन्दादिली के सदुपयोग का फिलहाल कोई
रास्ता नज़र नहीं आ रहा था.
इस समय वरेनूखा मुफ़्त में टिकट माँगने वालों से छिपकर वित्तीय डाइरेक्टर के
कैबिन में बैठा था. ये मुफ़्तखोर उसका जीना दूभर कर देते थे, ख़ास
तौर से उस समय जब कोई नया प्रोग्राम आरंभ होने वाला हो. आज, संयोगवश
ऐसा ही दिन था.
जैसे ही टेलिफोन की घण्टी बजी, वरेनूखा ने चोंगा उठाया और झूठ बोलना
शुरू कर दिया, “किसे बुलाऊँ? वरेनूखा
को? वह नहीं हैं, थियेटर से बाहर गए
हैं.”
“तुम एक बार फिर लिखादेयेव को फोन करो प्लीज़,” रीम्स्की
ने परेशानी से कहा.
“वह घर पर नहीं है. मैं कार्पव को पहले ही भेज चुका हूँ. फ्लैट में कोई भी
नहीं है.”
“शैतान ही जाने क्या बात है,” रीम्स्की
केल्कुलेटर की ओर देखते हुए बोला.
दरवाज़ा खुला और एक छोकरा अभी-अभी छपे इश्तेहारों का मोटा बण्डल खींचता हुआ
अन्दर लाया. हरे कागज़ों पर मोटे-मोटे लाल-लाल अक्षरों में छपा था :
देखिए, आज और हर रोज़
वेराइटी में अतिरिक्त शो,
प्रोफेसर वोलान्द का काला जादू
और
उसका भण्डाफोड़!
वरेनूखा ने बड़े खुश होकर इन इश्तेहारों को देखा और छोकरे को आज्ञा दी की वह
सभी प्रतियाँ इधर-उधर लटका दे.
“बहुत अच्छा है, सुन्दर,” वरेनूखा
छोकरे के बाहर जाने के बाद बोला.
“और मुझे यह ख़याल बिल्कुल भी पसन्द नहीं है!” अपनी
सींगों वाली ऐनक से, खा जाने वाली नज़रों से इश्तेहारों को
देखते हुए रीम्स्की बोला, “मुझे तो इस बात का आश्चर्य
है कि उसे इस प्रदर्शन की अनुमति कैसे मिल गई!”
“नहीं, ग्रिगोरी दानिलविच, ऐसा
न कहो; यह एक बहुत सधी हुई चाल है. सारा राज़ तो इस पर्दाफाश
में है.”
“मालूम नहीं, कुछ मालूम नहीं; कोई
राज़-वाज़ नहीं है, और वह हमेशा ऐसी ही ऊटपटांग बातें सोचा
करता है. काश, वह इस जादूगर को दिखा ही देता! कम से कम तुम
तो देख लेते? यह सब उसने कहाँ से सीखा, शैतान ही जाने!”
पता चला कि वरेनूखा ने भी, रीम्स्की की ही तरह जादूगर को नहीं देखा था. कल स्त्योपा ‘पागल की तरह’ (रीम्स्की के शब्दों में) वित्तीय
डाइरेक्टर के पास भागता हुआ आया, हाथ में एक अनुबन्ध लिए और
तत्क्षण उसे पैसे देने पर मजबूर कर दिया. और यह जादूगर न जाने कहाँ था, सिवाय स्त्योपा के उसे किसी ने भी नहीं देखा था.
रीम्स्की ने घड़ी निकालकर देखी – दो बजकर पाँच मिनट हुए थे,
और वह पूरी तरह झल्ला गया. बात ठीक ही थी. लिखादेयेव ने लगभग ग्यारह
बजे फोन करके कहा था कि आधे घण्टे बाद पहुँच रहा है, मगर वह
न आया; और तो और अपने फ्लैट से भी गायब हो गया!
“मेरा काम रुका पड़ा है!” रीम्स्की कराहते हुए
बिना हस्ताक्षर वाले कागज़ों की फाइलों में उँगली गड़ाते हुए बोला.
“कहीं वह बेर्लिओज़ की तरह ट्रामगाड़ी के नीचे तो नहीं आ गया?” वरेनूखा ने टेलिफोन के चोंगे को कान से लगाए-लगाए कहा, जिसमें से लगातार गहरी आशाहीन आवाज़ें आ रही थीं.
“कितना अच्छा होता अगर...” रीम्स्की ने दाँत
पीसे.
इसी क्षण कैबिन में एक औरत खूबसूरत वास्कट, काला स्कर्ट और कोट पहने एड़ीदार
जूतों से खटखट करती आई. अपनी बेल्ट से झूलते छोटे-से पर्स से उसने छोटा-सा सफ़ेद
चौकोर लिफाफा और नोट-बुक निकाली और पूछने लगी, “यहाँ
वेराइटी कौन है? आपके लिए सुपर लाइटनिंग तार है, हस्ताक्षर कीजिए!”
वरेनूखा ने उस औरत की नोट-बुक में चिड़ियों जैसे हस्ताक्षर किए और उस औरत के
बाहर जाते ही लिफाफा खोला.
तार पढ़कर वह आँखें झपकाने लगा और उसने लिफाफा रीम्स्की की ओर बढ़ाया.
तार में लिखा था : “याल्टा मॉस्को. वेराइटी. आज साढ़े ग्यारह बजे नाइट
ड्रेस में बिना जूतों के पागल लिखादेयेव अपने को वेराइटी का डाइरेक्टर बताता पाया
गया. तार दें याल्टा की खुफ़िया पुलिस को : डाइरेक्टर लिखादेयेव कहाँ है.”
“आदाब अर्ज़ चाची जान!” रीम्स्की विस्मय से बोला, “एक और अजूबा!”
“झूठा दिमित्री (बहुरूपिया, जो अपने आपको
त्सार दिमित्री बताकर सिंहासन पर बैठ गया था – अनुवादक) , वरेनूखा ने कहा और टेलिफोन के चोंगे में बोला, “तारघर? वेराइटी स्पीकिंग. सुपर लाइटनिंग तार
लीजिए...आप सुन रहे हैं? ‘याल्टा, खुफिया विभाग...डाइरेक्टर लिखादेयेव मॉस्को वित्तीय डाइरेक्टर रीम्स्की’...”
याल्टा के झूठे के बारे में ख़बर सुनकर भी वरेनूखा स्त्योपा को टेलिफोन पर
हर सम्भव जगह ढूँढ़ने की कोशिश करता रहा, और ज़ाहिर है कहीं कामयाब नहीं हुआ.
वह सोच ही रहा था कि अब कहाँ टेलिफोन किया जाए, इतने में वही
औरत जो पहला तार लेकर आई थी, दुबारा प्रकट हुई. उसने एक और
तार का लिफाफा वरेनूखा को थमा दिया. जल्दी से उसे खोलकर पढ़ने के बाद वरेनूखा के
मुँह से सीटी की आवाज़ निकल गई.
“अब और क्या है?” नर्वस होते, काँपते हुए रीम्स्की ने पूछा.
वरेनूखा ने चुपचाप तार उसकी ओर बढ़ा दिया. वित्तीय डाइरेक्टर ने पढ़ा : “प्रार्थना विश्वास करें याल्टा फेंका गया सम्मोहन वोलान्द खुफिया को तार
करें पुष्टि करें लिखादेयेव की.”
रीम्स्की और वरेनूखा ने एक-दूसरे के सिर से सिर लगाकर फिर से तार पढ़ा और
दुबारा पढ़ने के बाद एक-दूसरे पर नज़रें जमा दीं.
“नागरिकों!” वह औरत झल्लाई, “हस्ताक्षर कीजिए, बाद में जितना चाहे खामोश रहिए!
मुझे तार बाँटने भी जाना है.”
वरेनूखा ने तार से नज़र हटाए बिना आड़े-तिरछे हस्ताक्षर कर दिए, और
वह औरत चली गई.
“तुमने तो उससे क़रीब ग्यारह बजे टेलिफोन पर बात की थी न?” व्यवस्थापक ने पूछा.
“हाँ, मुझे तो मज़ाक ही लग रहा है,” रीम्स्की तीखे स्वर में चिल्लाया, “बात हुई या
नहीं हुई; मगर वह इस वक़्त याल्टा में नहीं हो सकता! यह
हास्यास्पद है!”
“वह नशे में धुत है...” वरेनूखा ने कहा.
“कौन नशे में धुत है?” रीम्स्की ने पूछा और
दोनों ने फिर एक-दूसरे पर नज़रें जमा दीं.
इस बात में कोई सन्देह नहीं था कि याल्टा से किसी झूठे या पागल ने तार किया
था : मगर आश्चर्य इस बात का था कि याल्टा का यह रहस्यमय व्यक्ति वोलान्द को कैसे जानता
है जो कल ही मॉस्को आया है? उसे लिखादेयेव और वोलान्द के बीच सम्बन्ध के बारे में कैसे
पता चला?
“सम्मोहन,” वरेनूखा ने तार में छपे शब्द को
दुहराया, “उसे वोलान्द के बारे में कैसे मालूम हुआ?” उसने पलकें झपकाईं और एकदम निर्णयात्मक स्वर में चिल्लाया, “ओह, नहीं! बकवास, बकवास,
बकवास!”
“यह वोलान्द, शैतान उसे ले जाए, रुका कहाँ है?” रीम्स्की ने पूछा.
वरेनूखा ने तुरंत इनटूरिस्ट ब्यूरो से सम्पर्क स्थापित किया और रीम्स्की को
पूरी तरह आश्चर्य में डालते हुए बोला कि वोलान्द लिखादेयेव के फ्लैट में रुका हुआ
है. इसके पश्चात् उसने वहाँ फोन किया और सुनता रहा कि टेलिफोन से सिर्फ गहरे
सिग्नल आ रहे हैं. इन सिग्नलों के बीच दूर कहीं से भारी, नर्वस
आवाज़, रोती हुई-सी, गाती हुई-सी सुनाई
पड़ती थी: “...चट्टानें मेरी आरामगाह...” और वरेनूखा ने तय किया कि टेलिफोन के सम्पर्क तारों में कहीं से रेडियो
थियेटर से आवाज़ें घुल-मिल गई हैं.
“फ्लैट से कोई जवाब नहीं आ रहा,” वरेनूखा ने
चोंगा वापस रखते हुए कहा, “फिर से फोन करके देखता
हूँ...”
उसने अपना वाक्य पूरा नहीं किया, दरवाज़े में वही औरत प्रकट हुई और
दोनों, रीम्स्की तथा वरेनूखा, उसके स्वागत
में उठ खड़े हुए और उस औरत ने अब सफ़ेद नहीं, बल्कि कोई
काला-सा कागज़ निकाला.
“अब यह काफ़ी दिलचस्प होता जा रहा है,” शीघ्रता
से जाती हुई औरत का आँखों से पीछा करते हुए वरेनूखा दाँतों के बीच बुदबुदाया.
रीम्स्की ने झपटकर वह कागज़ ले लिया था.
फोटोग्राफी के कागज़ की काली पार्श्वभूमि में काली लाइनें साफ-साफ दिखाई दे
रही थीं.
“प्रमाण हेतु संलग्न मेरी लिखावट, मेरा हस्ताक्षर तार
से पुष्टि करें, वोलान्द पर गुप्त नज़र रखें – लिखादेयेव.”
थियेटर में अपनी बीस वर्ष की नौकरी में वरेनूखा ने हर चमत्कार देखा था, मगर
इस बार उसे ऐसा लगा कि उसकी अकल कुन्द पड़ती जा रही है और वह कुछ भी नहीं कह सका,
सिवाय इस साधारण वाक्य के, “यह असम्भव
है!”
मगर रीम्स्की ने ऐसा नहीं किया. वह उठा, और दरवाज़ा खोलकर बाहर स्टूल पर बैठी
रिसेप्शनिस्ट से बोला, “पोस्टमैन के अलावा और किसी को
अन्दर मत आने देना!” और उसने अन्दर से ताला लगा लिया.
तत्पश्चात् उसने मेज़ पर से कागज़ों का गठ्ठर उठाया और बड़े ध्यान से स्त्योपा
के बाईं ओर को झुके फोटोग्राफ में बड़े-बड़े लिखे अक्षरों का फाइलों में लिखे उसके
निर्णयों और हस्ताक्षरों से मिलान करता रहा. वरेनूखा टेबल पर लगभग औंधा हो गया और
रीम्स्की के गाल पर गरम साँस छोड़ता रहा.
अंत में वित्तीय डाइरेक्टर ने दृढ़ता से कहा, “यह उसी की लिखावट है.”
रीम्स्की के चेहरे पर होते परिवर्तनों को देखकर वरेनूखा चकित हो गया.
दुबला-पतला वित्तीय डाइरेक्टर मानो और अधिक दुबला हो गया, और
अधिक बूढ़ा हो गया. सींगों वाले चश्मे से ढँकी उसकी आँखें अपनी हमेशा की चुभन खो
बैठीं. उनमें झाँकने लगे चिंता और दुख.
वरेनूखा
ने वह सब किया जो एक व्यक्ति को हैरान कर देने वाली परिस्थिति में करना चाहिए. वह
कैबिन में दो बार दौड़ लगा आया, दो बार ऊपर की ओर हाथ उठाए,
पीले-पीले पानी का पूरा गिलास पी गया और उसने स्तम्भित होकर कहा, “समझ नहीं पा रहा हूँ! नहीं स-म-झ-पा-र-हा!”
मगर रीम्स्की खिड़की की ओर देखकर गहरे तनाव में कुछ सोचता रहा. वित्तीय
डाइरेक्टर की स्थिति अत्यंत कठिन हो गई थी. उसी समय असाधारण घटनाओं के लिए
ज़िम्मेदार साधारण कारणों को स्पष्ट करना ज़रूरी था.
आँखों को बारीक करते हुए वित्तीय डाइरेक्टर ने नाइट ड्रेस और बिना जूतों
वाले स्त्योपा की कल्पना की जो आज लगभग साढ़े ग्यारह बजे किसी अनदेखे अतिशीघ्रगामी
वायुयान में चढ़ रहा था और वही स्त्योपा उतने ही बजे कच्छा पहने याल्टा के हवाई अड्डे
पर खड़ा था...शैतान ही जाने यह सब क्या हो रहा है!
हो सकता है आज स्त्योपा ने अपने फ्लैट से उसे फोन ही न किया हो? नहीं,
वह स्त्योपा ही था. क्या वह स्त्योपा की आवाज़ नहीं पहचानता? अगर आज स्त्योपा ने उससे बात न की हो, तो भी कल शाम
को इसी अपने कैबिन से वह बेवकूफ़ी भरा अनुबन्ध-पत्र लेकर आया था और वित्तीय
डाइरेक्टर को अपने छिछोरेपन से हिला गया था. आख़िर वह थियेटर में कुछ बताए बिना
एकदम चला कैसे गया? चाहे रेल से हो या हवाई जहाज़ से? अगर कल शाम को उड़कर भी गया हो तो आज दोपहर तक निश्चय ही याल्टा नहीं पहुँच
सकता; या पहुँच गया होगा?
“यहाँ से याल्टा कितने किलोमीटर दूर है?” रीम्स्की
ने पूछा.
वरेनूखा ने अपनी दौड़-धूप बन्द कर दी और दहाड़ा, “सोच लिया! सब सोच लिया! रेल से जाने पर यहाँ से सेवस्तापोल तक एक हज़ार
पाँच सौ किलोमीटर, याल्टा तक और आठ सौ किलोमीटर जोड़ लो,
मगर हवाई जहाज़ से ज़रूर कुछ कम ही है.”
हूँ...हूँ...रेल से जाने का सवाल ही नहीं उठता. तो फिर कैसे? लड़ाकू
हवाई जहाज़ से? कौन स्त्योपा को बिना जूतों के किसी लड़ाकू
हवाई जहाज़ में बैठने दे सकता है? क्यों? शायद, उसने याल्टा पहुँचने पर जूते उतार दिए हों?
फिर भी वही बात : क्यों? और जूते पहनकर लड़ाकू
हवाई जहाज़ में...मगर लड़ाकू हवाई जहाज़ का सवाल ही कहाँ उठता है? ख़बर तो यह आई है कि ख़ुफ़िया पुलिस में वह साढ़े ग्यारह बजे आया, और मॉस्को में वह मुझसे बातें कर रहा था टेलिफोन पर...लीजिए...और रीम्स्की
की आँखों के सामने अपनी घड़ी का डायल घूम गया...उसे याद आई घड़ी की सुइयों की
स्थिति. ख़तरनाक! वक़्त था ग्यारह बजकर बीस मिनट. इसका मतलब क्या हुआ? अगर यह मान लिया जाए कि बातचीत के तुरंत बाद स्त्योपा हवाई अड्डे पर मौजूद
था और करीब पाँच मिनट बाद उसमें बैठ गया, तब
भी...अविश्वसनीय..., निष्कर्ष यह निकला कि हवाई जहाज़ ने
सिर्फ पाँच मिनट में एक हज़ार से भी अधिक किलोमीटर का फासला तय कर लिया? यानी कि एक घण्टे में 12000किलोमीटर उड़ा! यह तो हो ही नहीं सकता, इसलिए वह याल्टा में नहीं है.
फिर क्या संभावना शेष है? सम्मोहन? कोई भी ऐसी सम्मोहन शक्ति
इस पृथ्वी पर नहीं है , जो किसी आदमी को हज़ारों किलोमीटर दूर
फेंक दे! शायद उसे भ्रम हो रहा है कि वह याल्टा में है! उसे तो शायद सपना आ रहा है,
मगर क्या याल्टा की खुफ़िया पुलिस को भी सपना आ रहा है! नहीं...माफ़
कीजिए, ऐसा नहीं होता है!...मगर तार तो वे वहीं से भेज रहे
हैं?
वित्तीय डाइरेक्टर का चेहरा भय से विवर्ण हो गया. इसी समय दरवाज़े का हैंडल
बाहर से घुमाया, मरोड़ा जा रहा था और सुनाई दे रहा था कि रिसेप्शनिस्ट
लगातार चिल्लाती जा रही है :
“नहीं! नहीं जाने दूँगी! चाहे तो मुझे मार डालो! ज़रूरी मीटिंग चल रही है!”
रीम्स्की ने अपने आप पर भरसक काबू रखते हुए टेलिफोन उठाया और बोला, “याल्टा के लिए सुपर-अर्जेंट कॉल लीजिए.”
“शाबाश!” वरेनूखा अर्थभरी मुस्कुराहट के साथ
बोला.
मगर याल्टा से बात न हो सकी. रीम्स्की ने टेलिफोन का चोंगा रख दिया और बोला, “क्या मुसीबत है, लाइन ख़राब है.”
ज़ाहिर था कि टेलिफोन लाइन की ख़राबी ने उसे न जाने क्यों बुरी तरह उद्विग्न
कर दिया और सोचने पर मजबूर कर दिया. कुछ देर सोचकर उसने एक हाथ से फिर टेलिफोन
उठाया और दूसरे हाथ से वह जो कुछ चोंगे में बोलता जा रहा था, लिखने
लगा :
“सुपर लाइटनिंग तार लीजिए. वेराइटी. हाँ. याल्टा. खुफ़िया पुलिस. हाँ. ‘आज क़रीब साढ़े ग्यारह बजे लिखादेयेव ने मुझसे टेलिफोन पर मॉस्को में बात
की. इसके बाद ड्यूटी पर नहीं आया, टेलिफोन पर उसे ढूँढ़ नहीं
सके. हस्ताक्षर सत्यापित करता हूँ. निर्दिष्ट कलाकार पर नज़र रखने का बन्दोबस्त कर
रहा हूँ. वित्तीय डाइरेक्टर रीम्स्की.”
“बहुत
अच्छे!” वरेनूखा ने सोचा, मगर वह
पूरी तरह सोच नहीं पाया; क्योंकि उसके दिमाग में यह विचार
कौंध गया, “बेवकूफ़ी है! वह याल्टा में नहीं हो सकता!”
इस बीच रीम्स्की ने यह किया कि सभी टेलिग्रामों तथा स्वयँ द्वारा भेजे गए
तार की कापी को एक तरतीब से लगाकर उन्हें एक लिफाफे में रखा, उसे
बन्द किया, उस पर कुछ शब्द लिखे और वरेनूखा को देते हुए बोला, “फ़ौरन, इवान सावेल्येविच, स्वयँ
ले जाओ. उन्हीं को फैसला करने दो.”
‘यह वास्तव में बुद्धिमत्तापूर्ण बात है,” वरेनूखा
ने सोचा और लिफ़ाफ़े को अपनी ब्रीफ़केस में छिपा दिया. तत्पश्चात् उसने एक आख़िरी
कोशिश करने के इरादे से स्त्योपा के फ्लैट का टेलिफोन नम्बर मिलाया. रिसीवर से आती
हुई आवाज़ों को सुना और बड़ी प्रसन्नता और रहस्यपूर्ण ढंग से आँख मारी, और मुँह बनाया. रीम्स्की ने उसकी ओर गर्दन बढ़ाई.
“क्या मैं कलाकार वोलान्द से बात कर सकता हूँ?” बड़ी
मिठास से वरेनूखा ने पूछा.
“वे व्यस्त हैं,” रिसीवर ने झनझनाती आवाज़ में
उत्तर दिया, “कौन बात कर रहा है?”
“वेराइटी का व्यवस्थापक वरेनूखा.”
“इवान सावेल्येविच?” रिसीवर ख़ुशी से चिल्ला पड़ा, “आपकी आवाज़ सुनकर बेहद ख़ुशी हुई! आपका स्वास्थ्य कैसा है?”
“धन्यवाद!” असमंजस में पड़कर वरेनूखा बोला, “मैं किससे बात कर रहा हूँ?”
“सहायक! उनका सहायक एवम् अनुवादक करोव्येव .” रिसीवर
चहका, “मैं आपकी खिदमत में हाज़िर हूँ, प्रिय इवान सावेल्येविच! मेरे लायक जो भी सेवा हो, शौक
से बताइए. ठीक है?”
“माफ़ कीजिए, क्या स्तिपान बग्दानोविच लिखादेयेव इस
समय घर पर नहीं हैं?”
“ओह, नहीं हैं! नहीं हैं!” रिसीवर चिल्लाया, “चले गए.”
“कहाँ?”
“शहर से बाहर, मोटर में सैर-सपाटा करने!”
“क..क्या? सै...सैर करने? और वह
वापस कब आएँगे?”
“बोले कि खुली हवा में थोड़ी साँस लेकर लौट आऊँगा!”
“ये बात है...,” परेशानी से बोला वरेनूखा, “धन्यवाद! कृपया वोलान्द महाशय को बता दीजिए कि उनका शो आज तीसरे भाग में
है.”
“सुन रहा हूँ. ये क्या बात हुई! ज़रूर बता दूँगा. इसी समय अवश्य बता दूँगा,” चोंगे से रुक-रुककर जवाब आया.
“शुभ कामनाएँ!” वरेनूखा ने अचम्भे से कहा.
“कृपया मेरी भी,” रिसीवर बोला, “सर्वश्रेष्ठ हार्दिक शुभेच्छाएँ ग्रहण करें! सफ़लता की कामनाएँ, शांति और सुख के लिए शुभेच्छाएँ ग्रहण करें!”
“देखा, बेशक! मैंने पहले ही कहा था!” गुस्से से व्यवस्थापक बोला, “कोई याल्टा-वाल्टा
नहीं गया है, वह सैर-सपाटा करने गया है!”
“अगर यह बात है, तो...” गुस्से
से लाल-पीले होते हुए वित्तीय डाइरेक्टर ने कहा, “तो यह
वाक़ई सुअरपन है, जिसकी कोई मिसाल नहीं है!”
“याद आया! याद आ गया! पूश्किनो में ‘याल्टा’ नामक शराबखाना खुला है! सब साफ है! वह गया, पीकर धुत
हो गया और अब वहाँ से तार भेज रहा है!”
“यह बड़ी नीचता है!” गाल नोचते हुए रीम्स्की बोला
और उसकी आँखों से क्रोध की चिनगारियाँ बरसने लगीं, “यह
सैर-सपाटा उसे बहुत महँगा पड़ेगा!”
मगर तभी उसका यह आवेश कमज़ोर पड़ गया और वह अविश्वास से बोला, “मगर, ऐसा कैसे, ख़ुफ़िया
पुलिस...”
“बकवास है! यह उसका ही किया हुआ मज़ाक है,” व्यवस्थापक
ने बीच में टोककर कहा, “तो यह लिफ़ाफ़ा ले जाऊँ?”
फिर से दरवाज़ा खुला और फिर से अवतीर्ण हुई वही...’वह’. न जाने क्यों बड़े विषाद से रीम्स्की ने सोचा और दोनों अन्दर आती महिला डाकिया
के स्वागत में खड़े हो गए.
इस बार तार में लिखा था:
सत्यापन के लिए धन्यवाद, शीघ्र पाँच सौ भेजें खुफ़िया पुलिस को,
कल मॉस्को के लिए उडूँगा – लिखादेयेव.
“वह पागल हो गया है...” निढाल होते हुए वरेनूखा
ने कहा.
रीम्स्की ने चाभियों की छनछनाहट के साथ अज्वलनशील कैश बॉक्स में से पैसे
निकाले, पाँच सौ रूबल गिने, घण्टी बजाई,
एक कर्मचारी को वे रूबल दिए और उसे तारघर भेजा.
“क्षमा करें ग्रिगोरी दानिलविच,” अपनी आँखों पर
विश्वास न करते हुए वरेनूखा बोला, “मेरे ख़याल में आप
बेकार पैसा फूँक रहे हैं!”
“वे वापस मिल जाएँगे,” रीम्स्की ने धीमे से कहा, “उसे इस पिकनिक के बारे में ठोस जवाब देना पड़ेगा,” और ब्रीफ़केस की ओर इशारा करते हुए वरेनूखा से बोला, “तुम जाओ, इवान सावेल्येविच, देर
न करो.”
वरेनूखा ब्रीफकेस लेकर बाहर को दौड़ा. वह नीचे उतरा और टिकटघर के सामने आज
तक की सबसे लम्बी लाइन देखकर टिकट खिड़की पर बैठी लड़की के पास गया. लड़की बोली कि और
एक घण्टॆ में हाउस-फुल हो जाने की उम्मीद है, क्योंकि जैसे ही नया इश्तेहार लगाया
गया, लोग लहर की तरह बढ़ते चले आए. उसने लड़की को हॉल में
सामने वाली लाइन में तथा बॉक्स में तीस बेहतरीन स्थान रोक रखने को कहा और शो के
मुफ़्त पास माँगने वाले शैतानों से बचकर अपने ऑफ़िस में दुबक गया, क्योंकि उसे टोपी लेनी थी. तभी टेलिफोन चीखा.
“हाँ!”
“इवान सावेल्येविच?” रिसीवर से घिनौनी भारी-सी
आवाज़ आई.
“वे थियेटर में नहीं!” वरेनूखा कहने ही वाला था
कि रिसीवर ने उसे बीच ही में रोक दिया, “बेवकूफ़ मत बनो,
इवान सावेल्येविच; और सुनो, ये टेलिग्राम कहीं भी न ले जाओ और न ही किसी को दिखाओ!”
“कौन बोल रहा है?” वरेनूखा गरजा, “यह बेवकूफ़ी भरी हरकतें बन्द कीजिए, नागरिक! आपको अभी
ढूँढ़ लिया जाएगा! आप किस नम्बर से बोल रहे हैं?”
“वरेनूखा,” वही डरावनी आवाज़ बोली, “क्या तुम रूसी भाषा समझते हो? ये टेलिग्राम कहीं भी
मत ले जाओ.”
“ओह, तो आप बाज़ नहीं आएँगे?” व्यवस्थापक पागल हो गया, “देख लेना! आपको इसकी
कीमत चुकानी पड़ेगी!” और भी कोई धमकी दी उसने मगर फिर
एकदम चुप हो गया, क्योंकि उसने महसूस किया कि उसकी आवाज़ कोई
नहीं सुन रहा.
उसके ऑफ़िस के कमरे में एकदम अँधेरा छा गया. वरेनूखा बाहर की ओर भागा. अपने
पीछे उसने दरवाज़ा धड़ाम् से बन्द किया और बगल के रास्ते से वसंतोद्यान की ओर लपका.
व्यवस्थापक बहुत उत्तेजित और जोश में था. इस बेहूदे टेलिफोन के बाद उसे ज़रा
भी सन्देह नहीं रहा था कि ये गुण्डों की टोली भद्दे मज़ाक कर रही है, और
लिखादेयेव के गायब होने के पीछे ये ही मज़ाक थे. इन दुराचारियों का पर्दाफ़ाश करने
की तीव्र इच्छा व्यवस्थापक को बेचैन किए थी. और ताज्जुब नहीं कि उसके दिल में कोई
ख़ुशगवार-सा ख़याल तैर गया. ऐसा अक्सर होता है जब कोई व्यक्ति आकर्षण का केन्द्र
बनना चाहता है, कोई सनसनीखेज़ ख़बर कहीं ले जाना चाहता है.
उद्यान में हवा व्यवस्थापक के चेहरे को मार रही थी और उसकी आँखों में रेत
डाल रही थी; मानो उसका रास्ता रोक रही हो, उसे
चेतावनी दे रही हो. दूसरी मंज़िल पर कोई खिड़की धड़ाम से बजी, उसकी
काँच टूटते–टूटते बची. लिण्डन और मैपल वृक्षों के सिरे बड़ा
अजीब, डरावना-सा शोर कर रहे थे. कभी अँधेरा तो कभी उजाला हो
रहा था. व्यवस्थापक ने आँखें मलकर देखा कि मॉस्को के आकाश पर पीली किनार वाला
गरजता हुआ बादल बढ़ा आ रहा है. कहीं गड़गड़ाहट हो रही थी.
वरेनूखा चाहे कितनी ही जल्दी में क्यों न हो, उसके मन में एकाएक तीव्र इच्छा हुई
कि एक सेकण्ड के लिए यह जाकर देखे कि ग्रीष्मकालीन टॉयलेट में मेकैनिक ने लैम्प पर
जाली लगाई है या नहीं.
चाँदमारी की जगह से होकर जाते हुए वरेनूखा घनी लिली की झाड़ियों तक पहुँचा, जिनके
बीच नीले रंग का टॉयलेट था. मेकैनिक बड़ा सधा हुआ कारीगर था. पुरुष-कक्ष में लैम्प
धातु की जाली पहन चुका था, मगर व्यवस्थापक को इस बात से बड़ा
दुःख हुआ कि गहराते अँधेरे में भी साफ़ नज़र आ रहा था कि पूरी दीवारों पर कोयले तथा
पेंसिल से कुछ लिखा है.
“अब यह क्या मुसीबत है...” व्यवस्थापक ने मुँह
खोला ही था कि उसे अपने पीछे से घुरघुराती आवाज़ सुनाई दी, “इवान सावेल्येविच, क्या यह आप हैं?”
वरेनूखा काँप गया. वह मुड़ा और उसने अपने पीछे एक नाटे से मोटे को देखा, शायद
बिल्ले जैसा आकार था उसका.
“हाँ, मैं ही हूँ,” वरेनूखा
ने बेरुखी से उत्तर दिया.
“बहुत-बहुत ख़ुशी हुई...” चिचियाते हुए बिल्ले
जैसा मोटा बोला और अचानक उसने मुड़कर वरेनूखा के कान पर इतनी ज़ोर से थप्पड़ मारा कि
व्यवस्थापक के सिर से टोपी उड़कर कमोड के छेद में जाकर ऐसे गुम हो गई, जैसे गधे के सिर से सींग.
मोटे की थप्पड़ से पूरे टॉयलेट में एकदम ऐसे उजाला हो गया जैसे बिजली कौंधने
से होता है, साथ ही बिजली कड़कने की आवाज़ भी आई. तत्पश्चात् एक बार और
उजाला हुआ और व्यवस्थापक के सामने एक और आकृति उभरी – छोटा, मगर खिलाड़ियों जैसे कन्धों वाला, आग जैसे लाल बालों वाला, एक आँख में फूल पड़ा हुआ,
मुँह से निकलते नुकीले दाँत वाला. इस दूसरे ने व्यवस्थापक के दूसरे
कान पर थप्पड़ जमा दिया. इस थप्पड़ के जवाब में आसमान में फिर बिजली कड़की और टॉयलेट
की लकड़ी की छत पर मूसलाधार बारिश होने लगी.
“क्या करते हो, दोस्त,” पगला
गए व्यवस्थापक ने कानाफूसी के स्वर में कहना चाहा, मगर तभी
उसे अहसास हुआ कि ये ‘दोस्त’ शब्द सार्वजनिक प्रसाधन-कक्ष में निहत्थे आदमी पर हमला करने वाले डाकुओं
के लिए उचित नहीं है, और उसने भर्राए हुए स्वर में कहना
चाहा: “नाग...” मगर तभी उसे
एक तीसरा भयानक थप्पड़ न जाने किस ओर से पड़ा कि उसकी नाक से ख़ून बहकर उसके कोट पर
जा गिरा.
“तुम्हारे ब्रीफ़केस में क्या है, रक्तखोर!” बिल्ले जैसा मोटा चुभती हुई पैनी आवाज़ में चीखा, “टेलिग्राम? और तुम्हें टेलिफोन पर चेतावनी दी गई थी
कि उन्हें कहीं न ले जाओ? कहा था कि नहीं? मैं तुमसे पूछ रहा हूँ!”
“दी थी चे-ता-वनी-वनी...” दम घुटते व्यवस्थापक
ने उत्तर दिया.
“इसके बावजूद तुम भागे? ब्रीफकेस इधर दो, केंचुए!” उसी ज़हरीली आवाज़ में, जो टेलिफोन पर सुनाई दी थी, दूसरा चिल्लाया और उसने वरेनूखा
के काँपते हाथों से ब्रीफ़केस छीन लिया.
और उन दोनों ने व्यवस्थापक को बाँहों से पकड़ लिया, उसे
उद्यान से बाहर धकेलकर सदोवया रास्ते पर ले गए. तूफ़ान पूर ज़ोर पर था. पानी रास्ते
के बाज़ू की नहर में साँय-साँय कर रहा था, फ़ेन उगलती लहरें
ऊपर उठ रही थीं, छतों पर से पानी पाइपों पर प्रहार कर रहा था,
रास्तों पर फ़ेनिल पानी दौड़ता चला जा रहा था. सदोवया पर से सभी जीवित
वस्तुएँ बह चुकी थीं. इवान सावेल्येविच को बचाने वाला कोई नहीं था. मटमैली नदियों
में उछलते, कड़कती बिजली की रोशनी में नहाए वे डाकू, एक सेकण्ड में अधमरे व्यवस्थापक को बिल्डिंग नं. 302 बी तक ले आए, उसके प्रवेश द्वार की ओर मुड़े, जहाँ दीवारों से दो
नंगे पैरों वाली औरतें चिपकी खड़ी थीं, हाथों में अपनी
स्टॉकिंग्स तथा जूते पकड़े. इसके बाद छठे प्रवेश-द्वार में घुसे. पगला गया वरेनूखा
पाँचवीं मंज़िल पर ले जाया गया और भली-भाँति परिचित स्त्योपा लिखादेयेव के अँधेरे
कमरे के फर्श पर धम्म से पटक दिया गया.
यहाँ दोनों डाकू गायब हो गए और उनके स्थान पर प्रकट हुई एकदम निर्वस्त्र
लड़की – लाल बालों वाली, फास्फोरस जैसी जलती आँखों वाली.
वरेनूखा समझ गया कि अब उसके साथ सबसे भयंकर घटना घटने वाली है और वह कराहकर
दीवार की ओर सरका. लड़की उसकी ओर बढ़ी और अपने पंजे उसके कन्धों पर गड़ा दिए. वरेनूखा
के बाल खड़े हो गए, क्योंकि गीले, ठण्डे कोट में भी उसने
महसूस किया कि ये पंजे उसके कोट से भी ज़्यादा ठण्डॆ हैं, वे
बर्फ की तरह ठण्डॆ हैं.
‘आओ, मैं तुम्हारा चुम्बन लूँ,” लड़की ने बड़े प्यार से कहा और वरेनूखा की आँखों के ठीक सामने वे जलती हुई
आँखें चमक उठीं. वरेनूखा होश-हवास खो बैठा, चुम्बन का अनुभव
भी न कर सका.
********
ग्यारह
इवान के दो रूप
नदी के उस पार वाला मैपल का जंगल, जो अभी घण्टे भर पहले मई की दुपहरी
में चमक रहा था, अचानक अँधेरे में खो गया और पिघल गया.
खिड़की के बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी. आकाश में जब-तब बिजली कौंध जाती
थी, आकाश
गिरने को हो रहा था और मरीज़ के कमरे को एक डरावने रंग से भर रहा था.
इवान चुपके से रो रहा था. वह पलंग पर बैठा मटमैली उबलती फेनिल नदी को देख
रहा था. बिजली की हर कड़क के साथ वह कराह उठता और चेहरे को हाथों में छिपा लेता.
इवान के लिखे हुए पन्ने फर्श पर इधर-उधर उड़ रहे थे. उन्हें तूफ़ान आने से पूर्व
कमरे में घुस आई हवा ने बिखेर दिया था.
उस ख़तरनाक परामर्शदाता के बारे में एक अर्ज़ी लिखने की उसकी हर कोशिश बेकार
हो चुकी थी. उसने डॉक्टर की मोटी सहायिका प्रस्कोव्या फ़्योदरव्ना से पेंसिल और
कागज़ माँगा और मेज़ पर बैठकर लिखना शुरू किया. आरम्भिक पंक्तियाँ बड़ी निडरता से
लिखीं :
“पुलिस को मासोलित के सदस्य इवान निकलायेविच बिज्दोम्नी की ओर से निवेदन. कल शाम को मैं स्वर्गीय
एम.ए.बेर्लिओज़ के साथ पत्रियार्शी तालाब के किनारे गया...”
तभी वह परेशान हो उठा, ख़ासतौर से ‘स्वर्गीय’ शब्द से. बड़ी आश्चर्यजनक बात लिख दी थी उसने – स्वर्गीय के साथ गया? मृतक तो चलते नहीं हैं न! ठीक
ही है, ऐसा लिखने से उसे निश्चय ही पागल समझेंगे.
ऐसा सोचकर इवान निकलायेविच ने इन पंक्तियों में सुधार करना चाहा. फिर लिखा: “एम.ए.बेर्लिओज़ के साथ, जो बाद में मर गया...” इससे भी उसे संतोष नहीं हुआ. तीसरी बार लिखा, जो
पहली दो पंक्तियों से भी बदतर साबित हुआ : “...बेर्लिओज़
के साथ, जो ट्रामगाड़ी के नीचे आ गए थे...” तभी उसे ध्यान आया कि इसी नाम का एक संगीतकार भी है, अत: उसने लिखा...”संगीतकार के साथ नहीं...”
इन दोनों बेर्लिओज़ों की उलझन से बचने के लिए इवान ने फिर से बड़े सशक्त
अन्दाज़ में लिखना चाहा, जिससे कि पढ़ने वालों का ध्यान एकदम उसकी ओर आकर्षित हो
जाए. उसने लिखा कि बिल्ला ट्रामगाड़ी में बैठा था, फिर सिर
कटने वाली घटना की ओर आया. कटे हुए सिर और परामर्शदाता की भविष्यवाणी ने उसका
ध्यान पोंती पिलात की ओर मोड़ दिया. इवान ने फ़ैसला किया कि अपने विचारों की स्पष्ट
अभिव्यक्ति के लिए न्यायाधीश वाली कहानी पूरी की पूरी लिख दी जाए, उस क्षण से जब वह रक्तवर्णी किनारवाले सफ़ेद चोगे में हिरोद के महल की
स्तम्भों वाली छत पर अवतीर्ण हुआ.
इवान बड़ी मेहनत से लिखता रहा. लिखे हुए को बार-बार मिटाकर नए शब्द लिखता
रहा. उसने पोंती पिलात तथा पिछले पंजों के बल खड़े बिल्ले की तस्वीरें बनाने की भी
कोशिश की. लेकिन इन तस्वीरों से कोई फ़ायदा नहीं हुआ. जैसे-जैसे वह आगे-आगे लिखता
रहा, उसका
लेख अधिकाधिक क्लिष्ट, उलझनभरा, समझ
में न आने वाला होता गया.
जब आसमान में दूर से धुएँ जैसी किनारीवाला डरावना बादल बढ़ता आ रहा था और
उसने मैपल के जंगल को ढँक दिया; जब तेज़ हवाएँ चलने लगीं, तब तक इवान
शिथिल पड़ चुका था. वह समझ गया कि यह निवेदन उससे नहीं लिखा जाएगा, अत: उसने इधर-उधर बिखर चुके कागज़ों को समेटने की कोशिश नहीं की और निराशा
से नि:शब्द रोने लगा.
सहृदय प्रस्कोव्या फ़्योदरव्ना तूफ़ान के समय इवान को देखने आई. उसे यह देखकर
बड़ा दु:ख हुआ कि वह रो रहा है. उसने परदे बन्द कर दिए ताकि बिजली मरीज़ को डरा न
सके; ज़मीन
पर बिखरे कागज़ उठाए और उन्हें लेकर डॉक्टर के पास भागी.
वह आया, उसने इवान को हाथ में इंजेक्शन दिया और दिलासा देते हुए
कहा कि अब सब ठीक हो जाएगा, इवान को और रोना नहीं पड़ेगा,
सब बदल जाएगा, इवान सब कुछ भूल जाएगा.
डॉक्टर का कहना ठीक ही था. जल्दी ही मैपल का जंगल पूर्ववत् हो गया. उसका
एक-एक वृक्ष स्वच्छ नीले आकाश के नीचे दिखाई देने लगा और नदी का जल भी शांत हो
गया. इवान की पीड़ा धीरे-धीरे कम होने लगी; अब कवि शांतचित्त लेटा आसमान में
इन्द्रधनुष देख रहा था.
शाम तक ऐसा ही रहा, उसने ध्यान भी नहीं दिया कि कब इन्द्रधनुष बिखर गया,
कब आसमान उदास होकर गहरा गया, और कब मैपल का
जंगल फिर काला हो गया.
गरम-गरम दूध पीने के बाद इवान फिर लेट गया. वह ताज्जुब करने लगा कि उसके
विचार कैसे बदल गए. उसकी स्मृति में वह दुष्ट बिल्ला अब इतना दुष्ट नहीं प्रतीत हो
रहा था, कटा हुआ सिर उसे इतना अधिक भयभीत नहीं कर रहा था और उसके
बारे में सोचना छोड़ इवान यह सोचने लगा कि यह अस्पताल इतना बुरा नहीं है, कि स्त्राविन्स्की बहुत होशियार है, उससे बातें करना
अच्छा लगता है. तूफ़ान के बाद शाम की हवा मीठी और प्यारी प्रतीत हो रही थी.
दर्द का यह घर सो रहा था. ख़ामोश गलियारों में दूधिए सफ़ेद लैम्प बुझ चुके थे, उनकी
जगह मद्धिम नीले बल्ब जल रहे थे. दरवाज़ों के बाहर गलियारों के रबड़ जड़े फर्श पर
परिचारिकाओं के सतर्क सावधान कदमों की आहट क्रमश: धीमी होती जा रही थी.
इवान का मिजाज़ अब खुशगवार हो चुका था. वह लेटे-लेटे मद्धिम रोशनी फेंकते
हुए बल्ब की ओर देख लेता था, तो कभी काले मैपल के वन के पीछे से झाँकते हुए चाँद की ओर.
साथ ही वह अपने आप से बातें कर रहा था.
‘बेर्लिओज़ अगर ट्रामगाड़ी के नीचे आकर मर गया तो मैं इतना उत्तेजित क्यों
हुआ?’ कवि ने कारण मीमांसा करते हुए सोचा, ‘मेरी बला से वह कीचड़ में गिरे! मैं आख़िर उसका हूँ कौन? क्या यार हूँ या समधी? अगर गौर से देखा जाए तो मैं
उसे ठीक से जानता भी नहीं था. सचमुच, मैं उसके बारे में
जानता ही कितना हूँ? सिर्फ यह कि वह गंजा ख़तरनाक हद तक मीठा
बोलने वाला था.’ फिर न जाने किसे सम्बोधित करते हुए कवि
ने आगे सोचा, ‘मैं इस रहस्यमय परामर्शदाता, जादूगर और काली तथा खाली आँख वाले शैतान प्रोफेसर के पीछे इतना पागल क्यों
हुआ? यह सब दौड़धूप क्यों की? उसका पीछा
क्यों किया? कच्छा पहनकर, हाथ में
मोमबत्ती लेकर, और रेस्तराँ में उसके कारण गड़बड़ क्यों की?’
“मगर, मगर, मगर,” अचानक कहीं, न कान में, न दिल
में पहले वाले इवान ने नए इवान से संजीदगी से कहा, “बेर्लिओज़
का सिर कटने वाला है, वह पहले से जानता था? मैं परेशान कैसे नहीं होता?”
”क्या
बात करते हो दोस्त!” नए इवान ने पुराने इवान का
प्रतिवाद करते हुए कहा – “यहाँ कोई गोलमाल है,
इतना तो एक बच्चा भी समझ सकता है. वह शत-प्रतिशत रहस्यमय व्यक्ति
है. यही तो दिलचस्प बात है! आदमी व्यक्तिगत तौर पर पोंती पिलात को जानता था. इससे
बढ़कर आपको और क्या चाहिए? और पत्रियार्शी पर इतना उधम मचाने
के बदले क्या उससे यह पूछना ज़्यादा ठीक नहीं होता कि पोंती पिलात और कैदी
हा-नोस्त्री का आगे क्या हुआ?”
“और मैं न जाने क्या सोचने लगा! ख़ास बात यह है कि मासिक पत्रिका के सम्पादक
को ट्राम ने कुचल दिया. इससे क्या, पत्रिका का निकलना बन्द
हो जाएगा? किया भी क्या जा सकता है: आदमी नश्वर है और
आकस्मिक रूप से उसका नाश हो जाता है. भगवान उसकी आत्मा को शांति दे! दूसरा सम्पादक
आ जाएगा...शायद पहले से भी ज़्यादा मीठा बोलने वाला.”
थोड़ी-सी झपकी लेने के बाद नए इवान ने पुराने से पूछा :
“फिर इस सब में मैं कौन हुआ?”
“बेवकूफ़,” कहीं से भारी-सी आवाज़ सुनाई दी. यह न
पुराने इवान की थी न ही नए वाले की. यह उस परामर्शदाता की आवाज़ से काफी
मिलती-जुलती थी.
इवान को न जाने क्यों “बेवकूफ” शब्द सुनकर बुरा
नहीं लगा, बल्कि आश्चर्य हुआ. वह मुस्कुराया और
अर्धनिद्रावस्था में ख़ामोश हो गया. इवान तक दबे पाँव एक सपना पहुँचा, जिसमें उसे हाथी के पैर जैसा लिण्डन का वृक्ष दिखाई दिया. बगल से बिल्ला
गुज़र गया. ख़तरनाक नहीं, बल्कि खुशगवार. जैसे ही नींद इवान को
थपकियाँ देकर सुलाने ही वाली थी, कि अचानक जाली वाला दरवाज़ा
बिना आवाज़ किए खुल गया. फिर बालकनी में एक रहस्यमय आकृति प्रकट हुई, जो चाँद की रोशनी से अपने आपको छिपा रही थी. उसने इवान को उँगली के इशारे
से धमकाया.
इवान बिना डरे पलंग से उठा. उसने देखा कि बालकनी में एक आदमी खड़ा है. इस
आदमी ने होठों पर उँगली ले जाते हुए कहा – “श् श्!”
*****
बारह
काला जादू एवं उसका भण्डाफोड़
सुराखों वाली पीली टोपी पहने, नाशपाती जैसी लाल नाकवाला, चौखाने वाली पतलून और पॉलिश किए हुए जूते पहने एक नाटा आदमी वेराइटी
थियेटर के रंगमंच पर दो पहिए वाली साधारण साइकिल पर प्रविष्ट हुआ. फॉकस्ट्रॉट की
धुन के साथ उसने एक चक्कर लगाया. तत्पश्चात् वह विजयी मुद्रा में चीखा, जिससे साइकिल पिछले पहिए पर सीधी खड़ी हो गई. पिछले पहिए को चलाते हुए वह
नाटा व्यक्ति सिर के बल खड़ा हो गया. बड़ी निपुणता से उसने सामने वाले पहिए के पेंच
खोलकर उसे साइकिल से अलग कर दिया और अकेले पिछले पहिए पर दोनों हाथों से पैडल
घुमाते हुए साइकिल चलाता रहा.
एक ऊँचे, धातु के बने डंडे पर, जिस पर एक सीट
लगी हुई थी और एक पहिया फिट था, भरे-भरे बदन की भूरे बालों
वाली लड़की जालीदार ब्लाउज़ और चाँदी के सितारे जड़ा स्कर्ट पहनकर दाखिल हुई. वह
स्टेज पर गोल-गोल चक्कर लगाने लगी. उसके निकट आने पर नाटे आदमी ने अपने पैर से सिर
की टोपी निकालकर उसका अभिवादन किया और स्वागतार्थ आवाज़ें निकालने लगा.
अंत में आठ साल का बूढ़े-बूढ़े से चेहरे वाला एक बच्चा स्टेज पर आया और दोनों
बड़े कलाकारों के बीच अपनी नन्ही-सी साइकिल के साथ समा गया, जिस
पर मोटर का भोंपू लगा था.
इस तिकड़ी ने कुछ देर तक चक्कर लगाए और बैण्ड के शोर के बीच स्टेज के
बिल्कुल किनारे तक आ गए. सामने की पंक्ति में बैठे दर्शक धक्क से रह गए और पीछे की
ओर झुके, क्योंकि दर्शकों को यह प्रतीत हो रहा था, मानो यह तिकड़ी अपनी साइकिलों समेत स्टेज के सामने स्थित गहरी जगह में बैठे
ऑर्केस्ट्रा वालों से जा भिड़ेगी.
मगर सभी साइकिलें ठीक उसी क्षण रुक गईं जब अगला पहिया वादकों के सिरों पर
गिरने ही वाला था. साइकिल सवार ‘आप्प’ चिल्लाते हुए नीचे
उतर पड़े और दर्शकों का अभिवादन करने लगे. भूरे बालों वाली लड़की जनता की ओर हवाई
चुम्बन फेंकती रही और नन्हा बच्चा अपने भोंपू पर हास्यास्पद आवाज़ें निकालता रहा.
तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूँज उठा, नीले परदे ने दोनों ओर से आगे बढ़कर
साइकिल सवारों को ढँक लिया; दरवाज़ों पर हरी रोशनी में चमकते ‘निर्गम’ शब्द बुझ गए और ट्रेपेज़ी के जाल में
गुम्बद के ऊपर, सूरज की तरह सफ़ेद गोले जल उठे. अंतिम शो से
पूर्व मध्यांतर हो गया था.
केवल एक आदमी ऐसा था जिसे जूली के परिवार द्वारा दिखाए गए साइकिल के करतब
ज़रा भी पसन्द नहीं आए, वह था ग्रिगोरी दानिलविच रीम्स्की. वह अपने ऑफिस के कमरे
में नितांत अकेला बैठा था और अपने पतले होंठ काट रहा था. उसके चेहरे पर बार-बार
सिहरन दौड़ जाती थी. लिखादेयेव के अप्रत्याशित रूप से गायब होने की घटना से वरेनूखा
के अचानक गायब होने की घटना भी जुड़ गई थी.
रीम्स्की को मालूम था कि वह कहाँ जा रहा है, मगर वह गया तो सही...परंतु वापस नहीं
आया! रीम्स्की ने कन्धे उचकाकर अपने आप से कहा, “मगर
क्यों?”
और अचरज की बात तो यह थी कि उस जैसे वित्तीय डाइरेक्टर के लिए सबसे आसान था
उस जगह फोन करना जहाँ वरेनूखा गया था और यह पता करना कि उसके साथ हुआ क्या था, मगर
रात के दस बजे तक वह इस बारे में कोई भी फैसला नहीं कर पाया.
आख़िरकार रात के दस बजे उसने निश्चय किया कि वह फोन करेगा. उसने टेलिफोन का
रिसीवर उठाया और पाया कि उसका टेलिफोन बन्द पड़ा है. चौकीदार ने बताया कि थियेटर के
अन्य सभी फोन बन्द हैं. इस अप्रिय घटना ने, जो निश्चय ही अलौकिक नहीं थी,
वित्तीय डाइरेक्टर को झकझोर दिया. साथ ही वह ख़ुश भी था, टेलिफोन करने से बच गया!
जब वित्तीय डाइरेक्टर के सिर के ठीक ऊपर लाल रंग का बल्ब जल उठा और
आँखमिचौली खेलने लगा, जो मध्यांतर की सूचना देता था, तभी
चौकीदार ने आकर बताया कि विदेशी कलाकार आया है. वित्तीय डाइरेक्टर का दिल एकदम बैठ
गया, घोर निराशा के साथ वह पर्यटक मेहमान का स्वागत करने आगे
बढ़ा, क्योंकि उससे मिलने के लिए और कोई बचा ही नहीं था.
बड़े-से मेकअप रूम में, जहाँ सिग्नल देती हुई घंटियाँ बज रही थीं, कई लोग उत्सुकता से झांक रहे थे. वहाँ चमकीली पोशाकों में और सिर पर पगड़ी
बाँधे जादूगर थे; जालीदार कमीज़ पहने स्केटर था; पाउडर लगाने से पीतवर्ण जान पड़ता सूत्रधार और मेकअपमैन दिखाई दे रहे थे.
आगंतुक ने सबको अपने अभूतपूर्व लम्बे कोट और काली नक़ाब से प्रभावित कर दिया
था. इससे भी बढ़कर गज़ब की चीज़ थी इस काले जादूगर के दो साथी : टूटा चश्मा पहने
चौख़ाने वाला लम्बू और काला मोटा बिल्ला. बिल्ला पिछले पंजों पर चलकर मेकअप रूम में
आया और सोफ़े पर बैठकर आँखें सिकोड़ कर आँखमिचौली खेलते बिजली के बल्बों को देखने
लगा.
रीम्स्की ने चेहरे पर मुस्कुराहट लाने की कोशिश की, जिससे
उसके चेहरे पर कड़वाहट और दुष्टता आ गई. उसने झुककर जादूगर का अभिवादन किया जो
बिल्ले की बगल में सोफ़े पर बैठा था. हस्तान्दोलन नहीं हुआ. चौख़ाने वाले ने स्वयँ
ही अपना परिचय ‘इनके सहायक’ कहकर
दिया. इस बात से भी वित्तीय डाइरेक्टर को आश्चर्य हुआ और बुरा भी लगा : अनुबन्ध
में किसी भी सहायक की बात नहीं थी.
बड़ी कड़वाहट और मजबूरी से ग्रिगोरी दानिलविच ने अपने सिर पर गिरे जा रहे
चौख़ाने वाले लम्बू से पूछ कि कलाकार का सामान कहाँ है.
“हमारे जन्नत के हीरे, बहुमूल्य डाइरेक्टर महोदय,” – फटे बाँस-सी आवाज़ में जादूगर के सहायक ने कहा, “हमारा सामान सदा हमारे साथ ही रहता है. यह देखिए! एक, दो, तीन!” और अपनी नुकीली
उँगलियाँ रीम्स्की की आँखों के सामने नचाकर उसने अचानक बिल्ले के कान के पीछे से
रीम्स्की की सुनहरी घड़ी पट्टे सहित निकाली. यह घड़ी अब तक वित्तीय डाइरेक्टर के कोट
के अन्दर जैकेट की जेब में जंज़ीर की सहायता से लटकाकर रखी हुई थी.
रीम्स्की ने न चाहते
हुए भी अपना पेट पकड़ लिया. सभी उपस्थित व्यक्ति आश्चर्य से चीख उठे और दरवाज़े में
झाँकता हुआ मेकअप मैन वाह-वाह कर उठा.
“आपकी
घड़ी है? कृपया लीजिए!” मुस्कुराते
हुए चौख़ाने वाले लम्बू ने कहा और घबराए हुए रीम्स्की की ओर गन्दी हथेली से घड़ी बढ़ा
दी.
“इसके साथ ट्राम गाड़ी में न बैठना...” हौले से
मगर प्रसन्नता से सूत्रधार ने मेकअप मैन से कहा.
मगर बिल्ले ने एक और करतब कर दिखाया, जो घड़ी वाले जादू से कहीं बेहतर था.
अचानक वह सोफ़े से उठा और पिछले पैरों पर चलकर ड्रेसिंग टेबुल के पास रखी तिपाई के
पास पहुँचा; अगले पंजे से तिपाई पर रखी काँच की बड़ी शीशी का
ढक्कन खोलकर ग्लास में पानी डाला, पानी पीकर वापस ढक्कन लगा
दिया और मेकअप वाले रुमाल से अपनी मूँछें पोंछीं.
अबकि बार किसी के मुँह से आवाज़ तक नहीं निकली, बस
सबके मुँह खुले रह गए, केवल मेकअप मैन चहका, “ओह, कमाल है!”
तीसरी बार घण्टी बज उठी. सब लोग उत्तेजित होकर अन्य चमत्कारों की प्रतीक्षा
में मेकअप रूम से निकल गए.
एक मिनट पश्चात् हॉल में लाइटें बन्द हो गईं, परदे के सामने, नीचे की ओर लगे लैम्प से लाल रोशनी आने लगी. परदे के पीछे से स्टेज पर आया
मोटा, बच्चों की तरह मुस्कुराता, चिकनी
दाढ़ी वाला, मुड़ा-तुड़ा चोगा और गन्दे कपड़े पहने एक आदमी. यह
था सम्पूर्ण मॉस्को का परिचित और प्रिय संयोजक जॉर्ज बेंगाल्स्की.
“तो नागरिकों...” बेंगाल्स्की ने बच्चों की-सी
मुस्कुराहट के साथ कहना शुरू किया, “अब आपके सामने
आएँगे...” और बेंगाल्स्की ने अपनी ही बात काटते हुए
दूसरे ही लहज़े में कहना शुरू किया, “मैं देख रहा हूँ कि
तीसरे खण्ड में दर्शकों की संख्या बढ़ गई है. हमारे यहाँ आज आधा मॉस्को आया है! अभी
कुछ दिन पहले मैं अपने एक मित्र से मिला. मैंने पूछा : ‘आजकल तुम हमारे यहाँ क्यों नहीं आते? कल हमारे यहाँ
आधा मॉस्को उपस्थित था.’ उसने जवाब दिया, ‘मैं बचे हुए आधे मॉस्को में रहता हूँ.’ बेंगाल्स्की
रुका, इस प्रतीक्षा में कि लोग हँसेंगे, मगर जब कोई भी नहीं हँसा तो उसने कहा, “तो
प्रस्तुत है प्रसिद्ध विदेशी कलाकार मिस्टर वोलान्द अपने काले जादू के कारनामों के
साथ! मगर, हम-आप तो जानते हैं...” बेंगाल्स्की ने विद्वत्तापूर्ण मुस्कुराहट से कहा, “कि काले जादू का अस्तित्व नहीं होता, वह केवल एक
भ्रम है; और मिस्टर वोलान्द को हर दर्जे की हाथ की सफ़ाई आती
है; जो इस कार्यक्रम के सबसे दिलचस्प हिस्से में ज़ाहिर होगा – यह कार्यक्रम है, काले जादू की तकनीक का पर्दाफाश,
और चूँकि हम सबको इस तकनीक में दिलचस्पी है, तो
मैं वोलान्द महाशय को आमंत्रित करता हूँ...”
इतना कहकर बेंगाल्स्की ने अपने दोनों हाथों की हथेलियों को अभिवादन के
अन्दाज़ में हिलाते हुए परदे की ओर इशारा किया, जिससे परदा धीमी आवाज़ करते हुए खुल
गया.
जादूगर का अपने लम्बू सहायक और पिछले पैरों पर चलकर स्टेज पर आते बिल्ले के
साथ प्रवेश करना जनता को बेहद पसन्द आया.
“कुर्सी!” वोलान्द ने धीरे से आज्ञा दी, और उसी क्षण न जाने कैसे और कहाँ से स्टेज पर कुर्सी आ गई, जिस पर बैठकर जादूगर बोला, “मुझे बताओ, प्रिय फ़ागोत,” वोलान्द चौख़ाने वाले लम्बू से
मुखातिब हुआ, जिसका ज़ाहिर है करोव्येव के अलावा एक दूसरा भी नाम था, “तुम्हारा क्या ख़याल है, मॉस्को की जनता काफ़ी बदल गई
है?”
जादूगर ने जनता की ओर देखा जो हवा से प्रकट हुई कुर्सी देखकर सकते में आ गई
थी.
“ठीक कहा, जनाब!” फ़ागोत-करोव्येव
ने भी हौले से ही जवाब दिया.
“तुम ठीक कहते हो, लोग बहुत ज़्यादा बदल गए हैं;
ऊपरी तौर से, मैं सोचता हूँ, उसी तरह जैसे यह शहर बदल गया है. उनकी वेश भूषा के बारे में तो कहना ही
क्या, मगर अब दिखाई देती हैं ये...क्या नाम
है...ट्रामगाड़ियाँ, मोटरगाड़ियाँ...”
“बसें,” फ़ागोत ने नम्रतापूर्वक आगे जोड़ा.
जनता बड़े ध्यान से यह बातचीत सुन रही थी, इस ख़याल से कि यह जादुई कारनामों की
प्रस्तावना है. रंगमंच का पार्श्व भाग कलाकारों और रंगकर्मियों से खचाखच भरा था और
उनके बीच रीम्स्की का तनावग्रस्त, निस्तेज चेहरा दिखाई दे
रहा था.
बेंगाल्स्की, जो स्टेज के एक सिरे पर था, बेचैन
होने लगा; उसने एक भौंह ऊपर उठाई और इस खाली क्षण का लाभ
उठाते हुए बोला, “विदेशी कलाकार मॉस्को से प्रभावित जान
पड़ते हैं, जो तकनीकी दृष्टि से काफी विकसित हो चुका है,
और मॉस्कोवासियों ने भी उन्हें प्रभावित किया है,” यहाँ बेंगाल्स्की दो बार मुस्कुराया : पहली बार - नीचे बैठे दर्शकों के
लिए, और दूसरी बार – बाल्कनी
वालों के लिए.
वोलान्द, फ़ागोत और बिल्ले ने अपने चेहरे संयोजक की ओर मोड़े.
“क्या मैंने विस्मय का प्रदर्शन किया था?” जादूगर
ने फ़ागोत से पूछा.
“बिल्कुल नहीं, महाशय, आपने
किसी प्रकार के विस्मय का कोई प्रदर्शन नहीं किया,” उसने
जवाब दिया.
“तो फिर यह आदमी क्या कह रहा है?”
“वह तो यूँ ही झूठ बोला है!” खनखनाती आवाज़ में
पूरे थियेटर को सम्बोधित करते हुए चौखाने वाला सहायक बोला और बेंगाल्स्की की ओर
मुड़कर उसने फिर कहा, “मुबारक हो, आपको,
महाशय झूठे!”
बाल्कनी से हँसने की आवाज़ें गूँज उठीं. बेंगाल्स्की ने सिहरकर अपनी आँखें
निकालीं.
“मगर मुझे, ज़ाहिर है, उतनी
दिलचस्पी नहीं है बसों में, टेलिफोनों में और...”
“मशीनों में!” लम्बू बोला.
“बिल्कुल ठीक, धन्यवाद!” हौले-हौले
भारी-भरकम आवाज़ में जादूगर ने कहा, “मुझे इस बात में
दिलचस्पी है कि क्या इन लोगों की अंतरात्मा में भी कोई परिवर्तन आया है?”
“हाँ, महाशय, यह बहुत
महत्त्वपूर्ण प्रश्न है.”
पार्श्वभाग में लोग एक-दूसरे की ओर कनखियों से देखने और कन्धे सिकोड़ने लगे.
बेंगाल्स्की का चेहरा लाल हो गया था. रीम्स्की का पीला, मगर
तभी, हॉल में आरम्भ हो चुकी उत्तेजना को ताड़कर जादूगर बोला, “हम काफी बोल चुके हैं, प्रिय फ़ागोत, और जनता उकताने लगी है. चलो, शुरू में कोई आसान-सा
करतब दिखा दो.”
हॉल में कुछ राहतभरी हलचल हुई. फ़गोत और बिल्ला अलग-अलग दिशाओं की ओर हटे.
फ़ागोत ने अपनी उँगलियाँ नचाते हुए कहा, “तीन, चार!” और हवा में से एक ताश की गड्डी प्रकट हुई. उसे फेंटकर इस तरह बिखेरा कि वह
एक फीते की शक्ल में बदल गई. बिल्ले ने इस फीते को पकड़कर उसे वापस छोड़ दिया. फ़ागोत
ने घोंसले में दुबके पंछी की तरह अपना मुँह खोला और साँप की तरह बल खाते फीते का
एक-एक पत्ता निगल लिया.
इसके
बाद बिल्ले ने पिछला दाहिना पैर घुमाते हुए झुककर जनता का अभिवादन किया. हॉल
तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा.
“बेहतरीन, शाबाश!” लोग
चिल्ला पड़े.
फ़ागोत ने नीचे बैठे लोगों की ओर उँगली से इशारा किया और उन्हें सम्बोधित
करते हुए बोला, “मेहरबान, क़दरदान! इस वक़्त ताश
की गड्डी सातवीं पंक्ति में बैठे हुए पार्चेव्स्की की जेब में है – तीन रुबल वाले नोट और कोर्ट के उस समन के बीच जहाँ उन्हें महोदया
ज़ेल्कोवाया का कर्ज़ चुकाने के सिलसिले में बुलाया गया है.”
सामने की कतारों में बैठे लोगों के बीच हलचल मच गई, लोग
उठ-उठकर देखने लगे और अंत में एक नागरिक ने, जिसका नाम
वास्तव में पार्चेव्स्की था, विस्मय तथा घबराहट से अपनी जेब
से ताश की गड्डी निकाली और उसे हवा में घुमाने लगा, यह न
जानते हुए कि उसका क्या किया जाए.
“इसे अपने ही पास रहने दीजिए, यादगार के तौर पर!” फ़ागोत चिल्लाया, “कल शाम खाने की मेज़ पर आपने
ठीक ही कहा था कि जुए के बिना मॉस्को में जीना दुश्वार हो जाता.”
“घिसी-पिटी चाल है!” बालकनी से आवाज़ सुनाई दी, “यह उन्हीं का आदमी है.”
“आप ऐसा सोचते हैं?” बालकनी की ओर आँखें सिकोड़कर
देखते हुए फ़ागोत दहाड़ा, “तब तो आप भी हमारे ही आदमी हैं,
क्योंकि अब ताश की गड्डी आपकी जेब में है!”
बालकनी में कुछ हलचल हुई और एक आश्चर्यमिश्रित चीख सुनाई दी.
“बिल्कुल ठीक! उसके पास ही है! यह रही, यह! रुको! हाँ,
यह तो दस रुबल के नोटों की गड्डी है!”
नीचे बैठे हुए लोगों ने मुड़कर देखा. बालकनी में बैठे किसी आदमी की जेब से
बैंक में बनाई गई गड्डी निकली, जिस पर लिखा था “एक हज़ार रुबल”.
बगल में बैठे लोग उस पर झपट पड़े और वह परेशानी की हालत में बैंक द्वारा
चिपकाए गए कागज़ को फाड़कर यह देखने की कोशिश कर रहा था कि नोट असली हैं या जादुई.
“हे भगवान! असली हैं! दस-दस रुबल के नोट!” बालकनी
से खुशी भरी किलकारियाँ सुनाई दीं.
“मेरे साथ भी ऐसा ही ताश वाला चमत्कार कीजिए,” हॉल
के बीचोंबीच बैठा हुआ एक मोटा चिल्लाया.
“ओह,
खुशी से!” फ़गोत ने जवाब दिया, “मगर सिर्फ आप ही के साथ क्यों? क्यों न सभी इस खेल
में हिस्सा लें!” और उसने हुक्म दिया, “कृपया ऊपर देखिए! एक!” उसके हाथ में पिस्तौल
दिखाई दिया, वह चिल्लाया, “दो!” पिस्तौल की नली ऊपर मुड़ गई. वह चिल्लाया, “तीन!” पिस्तौल चलने की आवाज़ सुनाई दी और हॉल में सफ़ेद कागज़ के टुकड़ों की बारिश
होने लगी.
वे हॉल में तैरते रहे; इधर-उधर, बालकनी पर, ऑर्केस्ट्रा पर, स्टेज पर...कुछ क्षणों बाद नोटों की
यह बारिश और घनी होती गई और कुर्सियों तक पहुँच गई. दर्शक उन्हें पकड़ने लगे.
सैकड़ों हाथ उठे; दर्शकों ने नोटों के आर-पार प्रकाशित स्टेज की ओर देखा और
उन पर छपे निशानों को ध्यान से देखा – वे असली थे.
ख़ुशबू ने तो कोई सन्देह ही नहीं छोड़ा : यह ताज़े छपे हुए नोटों की ख़ुशबू थी. पहले
प्रसन्नता और फिर विस्मय ने समूचे थियेटर को घेर लिया. चारों ओर से आवाज़ें आ रही
थीं, “नोट, नोट!” विस्मयजनित चीखें, “आह, आह!” सुनाई पड़ रही थीं और हँसी भी छलक पड़ती थी. कोई-कोई तो रेंगकर कुर्सियों के
नीचे उड़कर पहुँचे नोटों को पकड़ने लगा. बहुत से लोग कुर्सियों पर खड़े हो गए और
पकड़ने लगे तैरते हुए शैतान नोटों को.
पुलिस के सिपाही भौंचक्के रह गए और कलाकार स्टेज के पार्श्व भाग से निकलकर
बाहर आने लगे.
हॉल में एक आवाज़ सुनाई दी, “तुम इसे क्यों पकड़ रहे हो? यह
मेरा है, मेरी ओर उड़कर आया था!” और
दूसरी आवाज़ बोली, “धक्का क्यों दे रहे हो? मैं भी धक्का मारूँगा!” तभी हॉल में पुलिस वाले
का हैट दिखाई दिया. हॉल में से किसी को पकड़कर ले गए.
लोगों की उत्तेजना बढ़ती ही गई और वह न जाने कहाँ तक पहुँचती यदि फ़ागोत ने
हवा में फूँक मारकर नोटों की इस बरसात को बन्द न कर दिया होता.
दो नौजवानों ने एक-दूसरे को अर्थभरी नज़रों से देखा और मुस्कुराते हुए अपनी
जगह से उठे और सीधे जलपानगृह की ओर चल पड़े. थियेटर में हंगामा मचा हुआ था, सभी
दर्शकों की आँखों में चमक थी. न जाने यह सब कैसे रुकता, यदि
बेंगाल्स्की साहस बटोरकर अपने स्थान से न हिलता. अपने आप पर काबू पाते हुए पहले
उसने हाथ मले, जैसी कि उसकी आदत थी, और
फिर खनखनाती आवाज़ में बोला, “तो नागरिकों, अभी-अभी हमने आम सम्मोहन का एक उदाहरण देखा. यह एक वैज्ञानिक प्रयोग था,
जो यह सिद्ध कर रहा था कि कोई चमत्कार, कोई
जादू नहीं होता. हम वोलान्द महाशय से प्रार्थना करते हैं कि वे इस प्रयोग का रहस्य
हमें बताएँ, अब, महोदय, आप देखेंगे कि ये, नोटों जैसे कागज़ उसी तरह ग़ायब हो
जाएँगे, जिस तरह वे प्रकट हुए थे.”
उसने ताली बजाई, मगर किसी ने भी उसका साथ नहीं दिया, उसके
मुख पर विश्वास भरी मुस्कुराहट थी, मगर आँखों में इस विश्वास
की कोई झलक नहीं थी, बल्कि उनमें झाँक रही थी प्रार्थना.
जनता को बेंगाल्स्की का भाषण अच्छा नहीं लगा. हॉल में निपट ख़ामोशी छा गई, जिसे
तोड़ा चौख़ाने वाले फ़ागोत ने.
“यह फिर से झूठ बोलने का उदाहरण है...” वह ज़ोर
से बोला, “नागरिकों! नोट असली हैं!”
“हुर्रे!” कहीं ऊपर से भारी-भरकम आवाज़ सुनाई दी.
“मगर यह,” फ़ागोत ने बेंगाल्स्की की ओर इशारा
करते हुए कहा, “मुझे तंग कर रहा है. पूरे वक़्त बकवास
किए जाता है, कोई इससे पूछे या न पूछे, गलत-सलत बातों से पूरा ‘शो’ बिगाड़े जा रहा है! हमें इसका क्या करना चाहिए?”
“उसका सिर काट देना चाहिए,” बालकनी से कोई
गम्भीरता से बोला.
“आपका क्या ख़याल है? यह ठीक रहेगा?” फ़ागोत इस मूर्खतापूर्ण प्रस्ताव पर बोल पड़ा, “इसका
सिर काट दिया जाए? क्या बात है! बिगिमोत!” वह बिल्ले की ओर देखकर चिल्लाया, “यही करो! एक,
दो, तीन!!”
और, एक अप्रत्याशित घटना घटी. बिल्ले के काले बाल खड़े हो गए,
वह डरावनी आवाज़ में चिल्लाया. फिर उसने अपने शरीर को गोल-गोल किया
और चीते की तरह बेंगाल्स्की के सीने की ओर उछला, वहाँ से
उसके सिर पर कूदा. सूत्रधार की गर्दन को अपने पंजों से कुरेदते हुए उसने दो झटकों
में उसकी फूली-फूली गर्दन से सिर को तोड़ लिया.
थियेटर में बैठे ढाई हज़ार लोग एक आवाज़ में चीख उठे. टूटी हुई नसों से
फ़व्वारे की तरह उछलता खून नीचे गिरकर कोट और चोगे को भिगो रहा था. बिना सिर का धड़
पैरों पर कुछ देर खड़ा लड़खड़ाकर फर्श पर बैठ गया. हॉल में महिलाओं की उन्मादभरी
चीखें सुनाई दीं. बिल्ले ने सिर फ़ागोत को दे दिया जिसने उसे बालों से पकडकर
दर्शकों को दिखाया, और यह सिर अचानक चिल्ला पड़ा, “डॉक्टर
को बुलाओ!”
“आइन्दा तुम हर बात में अपनी झूठी नाक घुसेडोगे?” फ़ागोत ने रोते हुए सिर से गरजकर पूछा.
“नहीं, कभी नहीं!” सिर
भर्राई हुई आवाज़ में बोला.
“भगवान के लिए, उसे न सताइए!” अचानक बॉक्स में से किसी महिला की आवाज़ सुनाई पड़ी, और
जादूगर उस आवाज़ की दिशा में मुड़ा.
“तो, नागरिकों, क्या इसे माफ़ कर
दिया जाए?” फ़ागोत ने हॉल की ओर देखते हुए पूछा.
“माफ़ कर दो! माफ़ कर दो!” पहले सिर्फ महिलाओं की
आवाज़ें सुनाई दीं. बाद में पुरुषों की आवाज़ें भी मिल गईं.
“क्या हुक्म है, आका?” फ़ागोत
ने नकाबपोश से पूछा.
“जाने दो.” वह सोचते हुए बोला, “वे लोग आम लोगों की तरह ही हैं. पैसे से प्यार करते हैं, मगर यह तो हमेशा ही होता आया है...मानव को हमेशा पैसा प्रिय रहा है,
चाहे वह किसी भी चीज़ से बना हो...चमड़े से, कागज़
से, पीतल से, या सोने से. ओछापन है,
और क्या...मगर कभी-कभी उनके दिल में दया भी जागती है...साधारण
लोग...संक्षेप में कहें तो पुराने लोगों की तरह ही हैं...क्वार्टरों की समस्या ने
उन्हें बिगाड़ दिया है...” उसने आदेश दिया, “सिर वापस रख दो.”
बिल्ले ने बड़ी सफ़ाई से सिर वापस गर्दन पर रख दिया. वह अपनी जगह पर ऐसे बैठ
गया, मानो
वहाँ से कभी जुदा ही न हुआ था. अचरज की बात तो यह हुई कि घाव का कोई निशान भी न
बचा. बिल्ले ने अपने पंजों से बेंगाल्स्की का कोट और चोगा झटक दिया. उन पर से खून
के निशान भी गायब हो गए.
फ़ागोत ने बैठे हुए बेंगाल्स्की को उठाया. उसके चोगे की जेब में नोटों की एक
गड्डी डाली और उसे स्टेज से यह कहते हुए बिदा किया, “यहाँ से दफ़ा हो जाओ! आपके बिना
ज़्यादा अच्छा लगता है!”
निरर्थक इधर-उधर देखकर लड़खड़ाते हुए सूत्रधार पहले अग्निशामक यंत्र की ओर
पहुँचा ही था कि उसकी तबियत बिगड़ गई, वह दयनीय स्वर में चीखा, “सिर, मेरा सिर!”
उसकी ओर कुछ लोग भागे, जिनमें रीम्स्की भी था. सूत्रधार रोता जा रहा था. हाथों से
हवा में मानो कुछ पकड़ता जा रहा था और बड़बड़ा रहा था:
“मेरा सिर वापस दे दो! वापस दो सिर! क्वार्टर ले लो, तस्वीरें
ले लो, सिर्फ सिर वापस दे दो!”
चपरासी डॉक्टर को बुलाने दौड़ा. बेंगाल्स्की को मेकअप रूम में सोफे पर
लिटाने की कोशिश की गई, मगर वह उठ-उठकर भागता रहा. वह धीरे-धीरे आक्रामक होता जा
रहा था. एम्बुलेंस बुलानी पड़ी. जब अभागे सूत्रधार को वहाँ से ले जाया गया तो
रीम्स्की फिर स्टेज की ओर भागा. उसने देखा कि वहाँ और भी नई-नई करामातें हो रही
हैं. हाँ, अब, शायद, कुछ ही देर पहले, जादूगर, अपनी
बदरंग कुर्सी समेत गायब हो गया था, मगर दर्शकों को इस बात का
शायद पता ही नहीं चल पाया. उनका ध्यान फ़ागोत की ऊटपटांग, अजीबोगरीब
हरकतों की तरफ ही लगा रहा.
और फ़ागोत ने तड़पते हुए सूत्रधार को भेजने के बाद दर्शकों से कहा, “चलो अब इस ‘बोर’ आदमी
से तो छुट्टी मिली. चलिए, अब ‘मीना-बाज़ार’ शुरू करते हैं!”
उसी क्षण स्टेज पर फारसी कालीन बिछ गए, बड़े-बड़े शीशे दिखाई देने लगे,
उन पर हरी-हरी रोशनी पड़ रही थी; शीशों के
दरम्यान थे शो-केस, जिनमें अलग-अलग रंगों और डिज़ाइनों की
ख़ूबसूरत फारसी पोशाकें लटक रही थीं. दूसरे शो-केस में सैकड़ों टोपियाँ थीं – महिलाओं के लिए – परों वाली, बेपर की, घुँघरू जड़ी, बिना
घुँघरुओं की. सैंकड़ों जूते थे – काले, सफ़ेद, पीले, चमड़े के, ऊँची एड़ी वाले, लेस लगे, पत्थर
जड़े. जूतों के बीच दिखाई दिए सेंट के शो-केस जिनमें रखी क्रिस्टल की कुप्पियों में
प्रकाश की किरणें आँख मिचौली खेल रही थीं. लेडीज़ पर्सों का तो जैसे पहाड़ खड़ा हो
गया – चीते की खाल वाले, रेशमी,
मखमली. उनके बीच लम्बे-सुनहरे लिपस्टिक वाले केसेस के ढेर लग गए.
शैतान जाने कहाँ से लाल बालों वाली सुन्दर लड़की, ख़ूबसूरत
काली ड्रेस पहने मुस्कुराती हुई, सेल्सगर्ल के अंदाज़ में
शो-केसों के पास टपक पड़ी. लड़की बेहद ख़ूबसूरत थी...सिर्फ गर्दन पर घाव के एक निशान
को छोड़कर उसमें कोई भी तो नुख्स नहीं था.
फ़ागोत ने बहुत ही मीठी मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि यह दुकान पुरानी पोषाकों
और पुराने जूतों के बदले नई पोषाकें और जूते देगी, पैरिस वाले फैशन के. यही बात उसने
प्रसाधन सामग्री, पर्सेस इत्यादि के बारे में भी कही.
बिल्ला पिछले पंजों से चलने लगा, साथ ही अगले पंजों से उसने द्वार
खोलने की-सी मुद्रा में अभिनय किया.
लड़की भर्राई-सी, मगर मीठी आवाज़ में कुछ गाने लगी, जो
समझ में नहीं आ रहा था. हाँ, हॉल में बैठी महिलाओं के
हाव-भाव से समझ में आ रहा था कि यह काफी दिलचस्प चीज़ थी.
“गेर्लेन, शानेल पाँच नम्बर वाला, मित्सुको, नार्सिस, नुआर,
पार्टियों वाली ड्रेस, कॉकटेल पार्टी वाली
ड्रेस...”
फ़ागोत दूर सरका, बिल्ले ने अभिवादन किया और लड़की ने काँच के शो-केस खोले.
“आइए!” फ़ागोत दहाड़ा, “हिचकिचाइए मत, शर्माइए मत!”
जनता परेशान हो गई, मगर अभी तक किसी ने भी स्टेज पर जाने का साहस नहीं किया
था. आख़िर दसवीं पंक्ति से एक साँवली लड़की मुस्कुराती हुई उठी, मानो उसे इस सबकी कोई फिकर नहीं है, वह तो बस यूँ ही
देखना चाह रही है; लड़की चलते हुए स्टेज पर चढ़ी.
“शाबाश!” फ़ागोत चिल्लाया, “पहले मेहमान का स्वागत है! बिगिमोत, कुर्सी! जूतों
से शुरू करें मैडम!”
साँवली लड़की कुर्सी पर बैठ गई, और फ़ागोत ने तुरंत उसके सामने जूतों
का ढेर लगा दिया.
उस श्यामला ने अपने सीधे पैर का जूता निकाला, दूधिया जूते को पहनकर देखा, कालीन पर एक-दो बार पैर बजाए, एड़ी देखी.
“ये काटेंगे तो नहीं?” उसने खोए-खोए अन्दाज़ में
पूछा.
फ़ागोत बुरा मान गया, “क्या कह रही हैं!” बिल्ले
को भी बुरा लगा, उसने भी गुस्से से म्याऊँ-म्याऊँ किया.
“मैं यह जोड़ी लेती हूँ, महाशय,” साँवली लड़की ने गरिमा के साथ दूसरा भी जूता पहनते हुए कहा.
उसके पुराने जूते परदे के पीछे फेंक दिए गए, और वह भी लाल बालों वाली लड़की और फ़गोत
के साथ परदे के पीछे गई, जिसके हाथों में हैंगर पर लटकी कई
फ़ैशनेबल पोषाकें थीं. बिल्ला कुछ सकुचाया, मदद करने लगा और
भाव खाने के लिए उसने गर्दन से टेप लटका लिया.
एक मिनट के बाद वह ऐसी पोषाक पहन कर आई कि लोगों ने अपने-अपने दिल थाम लिए.
यह बहादुर लड़की आश्चर्यजनक रूप से सुन्दर हो गई थी. वह शीशे के सामने रुकी, उसने
अपने खुले कन्धे देखे, बालों को हाथ से ठीक किया और मुड़कर
अपनी पीठ देखने लगी.
“हमारी फर्म याददाश्त के तौर पर आपको यह भेंट देती है,” फ़ागोत ने उसे सेंट की एक कुप्पी देते हुए कहा.
“धन्यवाद!” साँवली लड़की ने कहा और वह अपनी सीट
की ओर जाने लगी. जब तक वह चलती रही, दर्शक उचक-उचक कर उस
कुप्पी की ओर देखकर उसे छूने की कोशिश करते रहे.
अब तो सभी कोनों से स्टेज पर महिलाएँ आने लगीं. इस रेल-पेल में, उत्तेजना
के वातावरण में, हँसी में खिलखिलाहट में और आहों में एक
पुरुष की आवाज़ सुनाई दी : “मैं तुम्हें नहीं जाने
दूँगा!” इसके बाद स्त्री का स्वर सुनाई दिया, “ तानाशाह, दुष्ट! ओह, मेरा हाथ
तो न मरोड़ो!” महिलाएँ परदे के पीछे गायब होती रहीं,
वहाँ अपनी पहनी हुई पोषाकें छोड़कर नई पोषाकों में बाहर आती रहीं.
सुनहरे पैरों वाली तिपाहियों पर महिलाओं की पूरी क़तार बैठी थी, जो नए जूते पहन-पहनकर बड़ी ताकत से कालीन पर पैर पटक रही थीं. फ़ागोत घुटनों
के बल खड़ा होकर सींगों वाले जूते चढ़ाने के चप्पे से मदद कर रहा था और बिल्ला
पर्सों और जूतों के बोझ से हाँफ़ता शो-केस से जूते निकाल-निकालकर तिपाहियों तक ला
रहा था और वापस शो-केसों तक जा रहा था. गर्दन पर ज़ख़्म के निशान वाली लड़की कभी
दिखाई देती थी, कभी गायब हो जाती थी और आख़िर में थककर वह
पूरी तरह फ्रांसीसी भाषा में ही बड़बड़ाती रही. अचरज की बात यह थी कि उसके आधा शब्द
कहते ही सभी औरतें, वे भी, जिन्हें
फ्रांसीसी बिल्कुल नहीं आती थी, उसकी पूरी बात समझ रही थीं.
इसी समय सबको चौंका दिया एक आदमी ने. वह दौड़कर स्टेज पर पहुँचा और कहने लगा
कि उसकी पत्नी फ्लू से बीमार है इसलिए वह विनती करता है कि उसके लिए भी कुछ भेजा
जाए. यह साबित करने के लिए कि वह वास्तव में शादी-शुदा है, वह
अपना पासपोर्ट भी दिखाने के लिए तैयार था. इस पत्नी-प्रेमी पुरुष की अपील का
ज़ोरदार ठहाकों से स्वागत किया गया, फ़ागोत ने दहाड़कर कहा कि
वह बिना पासपोर्ट देखे इस पति की बात पर विश्वास करता है और उसने उसे दो रेशमी
पैजामे दिए. बिल्ले ने अपनी ओर से लिपस्टिक की ट्यूब दी.
वे महिलाएँ जिन्हें देर हो चुकी थी, स्टेज की ओर भाग रही थीं. स्टेज से
मुस्कुराती सौभाग्यशाली महिलाएँ बॉल-डांस की वेश-भूषा में, डिज़ाइनों
वाले पैजामों में, मुलाकातों के लिए पहनी जाने वाली ड्रेस
में, एक भौंह पर झुकी हुई टोपियों में नीचे आ रही थीं.
तभी फ़ागोत ने घोषणा की कि देर हो जाने के कारण ठीक एक मिनट बाद दुकान को कल
शाम तक के लिए बन्द किया जाता है. इससे भगदड़ अपनी चरम सीमा तक पहुँच गई. महिलाएँ
सब लाज-शरम, झिझक छोड़कर जो हाथ लग रहा था वही खींचे ले जा रही थीं. एक
महिला तूफ़ान की तरह परदे के पीछे घुसी और वहाँ अपनी पहनी हुई पोषाक फेंककर जो उसके
हाथ लगी, उसी ड्रेस को बदन पर डालकर बाहर आई. यह था बड़-बड़े
फूलों वाला रेशमी गाउन. साथ ही उसने सेंट की दो बोतलें भी लपक लीं.
ठीक एक मिनट बाद
पिस्तौल की आवाज़ सुनाई दी, शीशे ग़ायब हो गए, शो-केस और तिपाहियाँ ज़मीन में समा गए, कालीन और
पर्दा हवा में घुल गए. अंत में पुराने जूतों और पोषाकों का पहाड़ भी गायब हो गया और
बाकी रहा सिर्फ स्टेज – गम्भीर, खाली और नंगा.
इस घटनाक्रम में अब एक नया व्यक्ति शामिल हुआ.
बॉक्स नं. 2 से एक भारी, खनखनाती, ज़ोरदार आवाज़ सुनाई दी : “फिर भी, कलाकार महाशय, हम चाहते
हैं कि आप शीघ्र ही अपनी कारगुज़ारियों का रहस्य सबके सामने रखें; ख़ास तौर से जो आपने नोटों वाला कमाल दिखाया, उसके
बारे में. साथ ही सूत्रधार को भी स्टेज पर वापस लाया जाए. दर्शकों को उसके भविष्य
के बारे में चिंता है.”
यह आवाज़ थी आज की शाम के प्रमुख मेहमान अर्कादी अपालोनविच
सिम्प्लियारव की, जो मॉस्को के थियेटरों की
ध्वनि-संयोजन समिति के प्रमुख थे.
अर्कादी अपालोनविच बॉक्स में दो महिलाओं के साथ बैठे थे. एक थी अधेड़ उम्र
की, फैशनेबल,
महँगी पोषाक पहने; और दूसरी – जवान, आकर्षक, सीधी-सादी ड्रेस
में. पहली, जैसा कि बाद में लिखवाई गई रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ,
उनकी पत्नी थी और दूसरी एक दूर की रिश्तेदार, जो
अभिनेत्री बनना चाहती थी. सरातोव से आई यह तरुणी अर्कादी अपालोनविच के क्वार्टर
में ही रहती थी और उससे थियेटर जगत को काफी आशाएँ थीं.
“क्षमा करें!” फ़गोत बोला, “मैं माफ़ी चाहता हूँ. पर्दाफाश करने जैसा कुछ भी नहीं है सब कुछ साफ़ और
स्पष्ट है.”
“नहीं, माफ कीजिए! पर्दाफ़ाश तो होना ही चाहिए. बगैर
इसके आपके ये अद्भुत कारनामे उलझन में डाल रहे हैं. दर्शक समुदाय माँग करता है कि
आप उन्हें समझाएँ!”
“दर्शक समुदाय ने,” सिम्प्लियारव को बीच में
टोकते हुए वह ढीठ जोकर बोला, “जैसे कुछ कहा ही नहीं है?
मगर अर्कादी अपालोनविच, आपके इस हार्दिक
अनुरोध को ध्यान में रखते हुए, मैं, पर्दाफ़ाश
कर ही देता हूँ. मगर इसके लिए मुझे एक छोटा-सा कारनामा करने की इजाज़त दें?”
“ठीक है,” अर्कादी अपालोनविच ने सौजन्य से कहा, “मगर उसका भेद भी खोलना होगा!”
“मंज़ूर है, मंज़ूर है! तो, अर्कादी
अपालोनविच, अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं पूछ सकता हूँ कि
कल शाम आप कहाँ थे?”
इस अचानक और धृष्ठतापूर्ण प्रश्न से अर्कादी अपालोनविच के चेहरी रंग उड़
गया.
“कल शाम अर्कादी अपालोनविच ध्वनि संयोजन समिति की मीटिंग में थे,” उनकी पत्नी ने झटके से उत्तर दिया और आगे बोली, “मगर, मैं समझ नहीं पा रही, इस
प्रश्न का जादुई कारनामों से क्या सम्बन्ध है?”
“है, मैडम!” फ़ागोत ने ज़ोर
देकर कहा, “स्वाभाविक ही है कि आप नहीं समझ पाएँगी.
मीटिंग के बारे में आपको पूरी ग़लतफ़हमी है. मीटिंग का बहाना बनाकर, जो कल शाम को होने ही वाली नहीं थी, अर्कादी अपालोनविच
ने अपने ड्राइवर को चिस्तीये प्रुदी स्थित ध्वनि-संयोजन समिति के सामने छुट्टी दे
दी (पूरे थियेटर में सन्नाटा छा गया), और ख़ुद बस से येलोखोव्स्काया
मार्ग पर प्रवासी थियेटर की अभिनेत्री मीलित्सा अन्द्रेयेव्ना पकाबात्का के पास
गए. उसके साथ उन्होंने क़रीब चार घण्टे बिताए.”
“ओह!” सन्नाटे में किसी की तड़पती हुई आवाज़ सुनाई
दी.
अर्कादी अपालोनविच की जवान रिश्तेदार धीमी किंतु भयंकर आवाज़ में ठहाका
मारकर हँस पड़ी.
“अब समझ में आया!” वह बोली, “मुझे बहुत पहले से शक था. अब साफ़ हो गया कि इस प्रतिभाहीन औरत को लुइज़ा का
रोल कैसे मिला!”
उसने अचानक अपनी छोटी-सी किंतु भारी छतरी से अर्कादी अपालोनविच के सिर पर
प्रहार किया.
धूर्त फ़ागोत, जो वास्तव में करोव्येव था, चिल्लाया, “नागरिकों, यह था पर्दाफ़ाश का एक नमूना, जो अर्कादी अपालोनविच के ही मत्थे पड़ा!”
“बेशरम, तुमने अर्कादी अपालोनविच को छूने की हिम्मत
कैसे की?” अर्कादी अपालोनविच की बीवी दहाड़ी. वह अपने
विशालकाय आकार में बॉक्स में खड़ी हो गई थी. जवान रिश्तेदार पर शैतानी हँसी का
दूसरा दौरा पड़ा.
“मेरे सिवा उन्हें कौन छू सकता है भला!” और
दुबारा छतरी के अर्कादी अपालोनविच के सिर पर पटकने की आवाज़ सुनाई दी.
“पुलिस! इसे ले जाओ,”सिम्प्लियारव की बीवी इतनी भयंकर
आवाज़ में चिल्लाई कि कईयों के दिल की धड़कन बन्द हो गई.
और तब बिल्ला उछलकर माइक्रोफोन के पास गया और मानवी आवाज़ में बोला, “शो ख़त्म हुआ! ऑर्केस्ट्रा! मार्च की धुन काटो!!”
मतिहीन निर्देशक ने यह समझे बिना कि क्या कर रहा है, यंत्रवत्
ढंग से अपनी छड़ी घुमाई, मगर ऑर्केस्ट्रा शुरू नहीं हुआ,
झँकार सुनाई नहीं दी, साजिन्दों ने पकड़ नहीं
ली, बस बिल्ले के घिनौने विशेषण के अनुसार मानो काटते हुए,
विसंगत मार्च बजाना शुरू कर दिया.
एक क्षण के लिए महसूस हुआ कि शायद कभी, दक्षिणी सितारों के नीचे, किसी कैफ़े में कुछ-कुछ समझ में न आने वाले, धुँधले-से,
तैरते हुए-से इस मार्च के शब्द सुने थे:
हमारे साहिबे आज़म को
प्यार है घरेलू पंछियों से
और वे ख़ुश होते हैं
सुन्दर लड़कियों से!!!
हो सकता है, ऐसे कोई शब्द थे ही नहीं, बल्कि इसी
धुन पर कोई और शब्द थे, बेहूदा-से, मगर
ख़ास बात यह नहीं है. ख़ास बात यह है कि वेराइटी थियेटर में इस सबके बाद भगदड़ मच गई.
सिम्प्लियारव के बॉक्स की ओर पुलिस दौड़ी. कुछ मनचले बॉक्स की रेलिंग पर चढ़ गए,
ज़हरीली हँसी के दौर सुनाई देते रहे. पागलपन की चीखें, जो ऑर्केस्ट्रा की सुनहरी तश्तरियों की खनखनाहट के बीच दब गईं.
साफ़ नज़र आ रहा था कि स्टेज अचानक खाली हो गया, फ़ागोत
और दुष्ट बिल्ला बिगिमोत हवा में घुल गए, गायब हो गए,
वैसे ही, जैसे कुछ देर पहले जादूगर अपनी बदरंग
कुर्सी के साथ गायब हो गया था.
*********
तेरह
हीरो का प्रवेश
तो, अजनबी ने इवान को उँगली के इशारे से धमकाया और अपने होठों
पर उँगली रखते हुए कहा, “श् श्...!”
इवान ने पलंग के नीचे पैर रखे और देखने लगा. बालकनी से चिकने चेहरे, काले
बालों और तीखी नाक वाला एक आदमी उत्तेजित आँखों से कमरे में झाँक रहा था. लगभग
अड़तीस वर्ष की आयु वाले इस व्यक्ति के माथे पर बालों की लट उतर आई थी.
जब इस रहस्यमय आगंतुक को यक़ीन हो गया कि इवान कमरे में अकेला है तो उसने
इधर-उधर की आहट ली और फिर कूदकर कमरे में आ गया. इवान ने अब देखा कि वह अस्पताल के
कपड़े पहने हुए है. लम्बे अंतर्वस्त्र, जूते, कन्धे पर
भूरा गाउन.
आगंतुक ने इवान को आँख मारते हुए चाबियों का गुच्छा अपनी जेब में छिपा लिया
और पूछा, “क्या मैं बैठ सकता हूँ?” और
इवान के इशारे पर कुर्सी पर बैठ गया.
“आप यहाँ आए कैसे?” धमकाती उँगली को याद करके
इवान ने फुसफुसाहट से पूछा, “बालकनी की जाली के दरवाज़ों
पर तो ताले लगे हैं न?”
“दरवाज़ों पर तो ताले हैं,” मेहमान ने कहा, “मगर प्रस्कोव्या फ़्योदरव्ना बहुत प्यारी, मगर
भुलक्कड़ औरत है. मैंने एक महीने पहले उसकी चाबियों का गुच्छा मार लिया, और इस तरह मैं बड़ी बालकनी में आ सकता हूँ, जो सब
कमरों को घेरती है. इस तरह मैं कभी-कभी अपने पड़ोसी से मिल लिया करता हूँ.”
“जब तुम बालकनी में आ सकते हो, तो कूदकर भाग भी तो
सकते हो. या ऊँचाई बहुत है?” इवान ने दिलचस्पी लेते हुए
पूछा.
“नहीं,” मेहमान ने ज़ोर देकर कहा, “मैं ऊँचाई से नहीं डरता. भागता इसलिए नहीं हूँ कि भागकर जाऊँगा कहाँ.” फिर थोड़ा रुककर बोला, “तो, बैठ जाएँ?”
“बैठेंगे...” इवान ने आगंतुक की भूरी और परेशान
आँखों में झाँकते हुए कहा.
“हाँ...” मेहमान ने ज़िन्दादिली से पूछा, “मगर, तुम आक्रामक तो नहीं हो न? मुझसे शोर, अत्याचार, सताना,
पीछा करना...यह सब बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता. ख़ासतौर से किसी आदमी
की चीख मुझसे सुनी नहीं जाती, चाहे वह दुखभरी चीख हो या
पागलपन की. पहले आप मुझे बताइए, आप ख़तरनाक तो नहीं हैं?”
“कल मैंने रेस्तराँ में एक आदमी के थोबड़े को लाल कर दिया,” कवि ने बहादुरी दिखाते हुए स्वीकार किया.
“कारण?” मेहमान ने सख़्ती से पूछा.
“हाँ, कोई कारण नहीं था,” परेशान
होते हुए इवान ने उत्तर दिया.
“बेहूदगी है,” मेहमान ने अपनी राय देते हुए आगे
कहा, “और आपने क्या कहा, थोबड़ा
लाल कर दिया? यह साबित नहीं हो सका है कि आदमी के पास होता
क्या है, थोबड़ा या चेहरा; शायद चेहरा
ही होता है. आपने...घूँसों से...नहीं, ऐसा नहीं चलेगा,
यह आदत छोड़नी पड़ेगी.” इस तरह इवान को
धमकाकर वह आगे बोला, “पेशा?”
“कवि,” इवान ने कुछ बेरुखी से कहा.
आगंतुक को अच्छा नहीं लगा.
“आह, मेरे साथ ऐसा क्यों होता है!” वह चहका, मगर फिर तुरंत ही स्वयँ को संयत करते हुए
पूछने लगा, “तुम्हारा नाम क्या है?”
“बिज्दोम्नी .”
“ओय,ओय!” मेहमान के माथे
पर शिकन आ गई.
“तुम्हें क्या मेरी कविताएँ अच्छी नहीं लगतीं?” इवान
ने उत्सुकतावश पूछा.
“ज़रा भी अच्छी नहीं लगतीं.”
“आपने पढ़ी कौन-सी हैं?”
“मैंने आपकी एक भी कविता नहीं पढ़ी,” मेहमान ने
बड़ी बेदिली से कहा.
“तो फिर आप कैसे कह सकते हैं?”
“ओह, आख़िर ऐसी भी क्या बात है?” मेहमान ने कहा, “जैसे कि मैंने औरों की रचनाएँ
पढ़ी ही न हों? और फिर...उनमें ख़ास क्या है? मानता हूँ कि वे अच्छी हैं. आप ख़ुद ही बताइए क्या आपकी कविताएँ सचमुच
अच्छी हैं?”
“अद्भुत हैं!” इवान ने एकदम निडर होकर कहा.
“लिखना बन्द कर दीजिए,” आगंतुक ने मानो विनती
करते हुए कहा.
“वादा करता हूँ! कसम खाता हूँ!” इवान ने दरबारी
अन्दाज़ में कहा.
इस शपथ विधि पर हाथ मिलाकर मुहर लगाई गई. तभी गलियारे में हल्के क़दमों की
आहट और कुछ आवाज़ें सुनाई दीं.
“श्...” मेहमान फुसफुसाया और बालकनी में कूदकर
उसने जाली का दरवाज़ा बन्द कर लिया.
प्रस्कोव्या फ़्योदरव्ना ने कमरे में झाँककर इवान से पूछा कि वह कैसा महसूस
कर रहा है. क्या वह अँधेरे में सोना चाहता है या उसके लिए लाइट जला दी जाए? इवान
ने कहा कि लाइट जलने दी जाए. मरीज़ को ‘शुभरात्रि’ कहकर प्रस्कोव्या फ़्योदरव्ना चली गई. जब सब कुछ शांत हो गया तो मेहमान फिर
से वापस आ गया.
उसने वैसी ही फुसफुसाहट में इवान को बताया कि 119नं. के कमरे में एक लाल
रंग वाले मोटे को लाया गया है, जो हर समय रोशनदान में रखे नोटों के बण्डल के बारे में
बड़बडाता रहता है. वह दावे के साथ कह रहा है कि सदोवया भाग में शैतान का साया पड़ा
है.
“पूश्किन को जी भर के गालियाँ दे रहा है और बार-बार कह रहा है : ‘कुरालेसव, वंस मोर, वंस मोर!’ मेहमान बड़ी उत्तेजना से बता रहा था. थोड़ा शांत होने के बाद वह बैठ गया और
आगे बोला, “भगवान उसकी रक्षा करे!,” और इवान से हो रही बातचीत को आगे बढ़ाते हुए बोला, “तो, आपको यहाँ किसलिए लाया गया?”
“पोंती पिलात के कारण,” इवान ने मुँह बनाते हुए,
फर्श की ओर देखते हुए कहा.
“क्या!” मेहमान चिल्लाया और फिर उसने अपने हाथ
से अपना मुँह बन्द कर लिया, “कैसी चौंकाने वाली बात है!
प्लीज़, प्लीज़ पूरी बात बताइए!”
न जाने क्यों इवान को लगा कि वह इस अजनबी पर विश्वास कर सकता है. उसने पहले
सकुचाते, शरमाते और फिर निडर होकर पत्रियार्शी उद्यान में घटी कल की
घटना सुना दी. इस रहस्यमय चाभी चोर के रूप में उसे अपनी व्यथा-कथा का एक सहृदय
श्रोता मिल गया था! मेहमान ने इवान को पागल नहीं समझा. उसकी कहानी में पूरी
दिलचस्पी दिखाई और जैसे-जैसे किस्सा आगे बढ़ता गया वह अधिकाधिक उत्तेजित होता गया.
वह बीच-बीच में इवान को टोकता जा रहा था, “हाँ, हाँ! आगे, आगे, प्लीज़, मगर भगवान के लिए एक भी शब्द न छोड़िए!”
इवान ने भी पूरी-पूरी बात कही. उसे खुद भी बड़ी राहत महसूस हो रही थी. वह
कहता गया, कहता गया और उस जगह तक आया जब लाल किनारी वाले सफ़ेद चोगे
में पोंती पिलात बालकनी में प्रविष्ट हुआ.
तब मेहमान ने प्रार्थना की मुद्रा में हाथ जोड़े और बुदबुदाया, “ओह, मैंने यही तो सोचा था! ओह, मैंने सही अन्दाज़ लगाया था!”
बेर्लिओज़
की भयानक मृत्यु के वर्णन पर श्रोता ने एक रहस्यपूर्ण टिप्पणी की, उसकी आँखों से कड़वाहट झाँक उठी, “मुझे एक बात
का अफ़सोस है कि इस बेर्लिओज़ के स्थान पर आलोचक लातून्स्की या साहित्यकार
म्स्तिस्लाव लाव्रोविच नहीं थे,” - और जैसे अपने आप से
बोला, “आगे!”
कण्डक्टर को पैसे देते हुए बिल्ले के वर्णन पर तो मेहमान बहुत ख़ुश हो गया
और जब इवान अपने पंजों के बल उछल-उछलकर मूँछों के पास पैसे उठाए बिल्ले की नकल कर
रहा था तो वह हँसत-हँसते लोट-पोट हो गया.
“और इस तरह...” ग्रिबायेदव में घटी घटना के बारे
में सुनाते हुए उदास हो गए इवान ने कहा, “मैं यहाँ आ
पहुँचा.”
मेहमान ने सहानुभूति से इवान के कन्धे को थपथपाया और बोला, “अभागा कवि! मगर, प्यारे, तुम
ख़ुद ही इस सबके लिए ज़िम्मेदार हो. उसके साथ इतना खुल जाने की और बदतमीज़ी करने की
कोई ज़रूरत नहीं थी. उसी का नतीजा तुम्हें मिल गया. आपको तो ‘शुक्रिया’ कहना चाहिए कि आप बड़े सस्ते में छूट
गए.”
“मगर, असल में, वह है कौन?” इवान ने उत्तेजनावश घूँसा तानते हुए पूछा.
मेहमान ने इवान को जवाब में एक प्रश्न पूछा, “तुम परेशान तो नहीं हो जाओगे?
हम सब निराश लोग हैं...डॉक्टरों का आना, इंजेक्शन
वगैरह, वगैरह तो नहीं होगा न?”
“नहीं, नहीं!” इवान
बेसब्री से चीखा, “बताइए, वह कौन
है?”
“अच्छा,” मेहमान ने कहा और बड़ी संजीदगी और शांति
से बोला, “कल पत्रियार्शी तालाब के किनारे आपकी मुलाकात
हुई थी शैतान से.”
इवान परेशान नहीं हुआ क्योंकि उसने वादा किया था, मगर
वह अन्दर तक दहल गया.
“यह असम्भव है! शैतान का अस्तित्व ही नहीं है!”
“माफ़ कीजिए! कम से कम आपको तो यह बात नहीं कहनी चाहिए. आप पहले व्यक्ति हैं
जिसको उसके कारण दुःख उठाना पड़ा है. आप यहीं पागलखाने में बैठे रहिए और सोचते रहिए
कि वह है ही नहीं. बड़ी अजीब बात है!”
इवान
प्रतिवाद नहीं कर सका.
“जैसे ही आपने उसका वर्णन करना शुरू किया, मैं अन्दाज़
लगाता रहा कि कल आपको किससे बातें करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. मुझे तो बेर्लिओज़
पर आश्चर्य हो रहा है! मगर आपमें बहुत बचपना है,” मेहमान
ने माफ़ी माँगने के अन्दाज़ में कहा, “उसके बारे में
मैंने कितना सुना है, थोड़ा बहुत पढ़ा भी है! इस प्रोफेसर की
पहली ही बातों से मेरा सन्देह दूर हो गया. उसे ना पहचानना असम्भव है, मेरे दोस्त! मगर आप...आप मुझे फिर माफ़ कीजिए, अगर
मैं ग़लत नहीं हूँ, तो बड़े कच्चे आदमी हैं?”
“बेशक,” इवान को पहचानना मुश्किल हो रहा था.
“और...चेहरा भी, जिसका वर्णन आप कर रहे थे...अलग-अलग
तरह की आँखें, भँवे! माफ़ करना, शायद
आपने ‘फ़ाउस्ट’ ऑपेरा के बारे
में भी नहीं सुना?”
इवान बुरी तरह बौखला गया और लाल चेहरे से न जाने क्यों याल्टा के
सेनिटोरियम की यात्रा के बारे में बड़बड़ाने लगा...
“यही तो,...यही तो...मुझे ज़रा भी ताज्जुब नहीं है!
मगर बेर्लिओज़ ने, मैं फिर कहता हूँ, उसने
मुझे चौंका दिया है. उसने न केवल काफ़ी-कुछ पढ़ रखा था, बल्कि
वह बहुत चालाक भी था. मगर वोलान्द तो बड़े-बड़े धूर्त लोगों की आँखों में भी धूल
झोंक सकता है, तो फिर बेर्लिओज़ की क्या बात है!”
“क्या...?” अब चिल्लाने की बारी इवान की थी.
“धीरे!”
इवान ने सिर पर हाथ मारते हुए फुसफुसाहट से कहा, “ठीक है, ठीक है, उसके विज़िटिंग
कार्ड पर ‘व’ अक्षर था. हाय,
हाय, हाय; तो यह बात थी!” वह कुछ देर तक चुप रहा. बौखला गया था. जाली के उस पार तैरते हुए चाँद को
देखते हुए उसने पूछा, “तो, वह,
निश्चय ही पोंती पिलात के पास मौजूद था? क्या
उसका तब जन्म हो चुका था? और सब मुझे पागल कहते हैं!” इवान ने दरवाज़े की ओर इशारा करते हुए कहा.
मेहमान के होठों पर एक कटु मुस्कान छा गई.
“हम सच का सामना करें,” मेहमान मुँह फेरकर
बादलों के बीच भागते हुए रात के मुसाफिर को देखते हुए बोला, “तुम और मैं पागल हैं, इनकार कैसे करें! देखो न,
उसने तुम्हें बुद्धू बनाया और तुम उसके जाल में फँस गए; तुम्हारी मनःस्थिति इसके लिए अनुकूल थी. जो तुम कह रहे हो, वह सब कुछ वास्तव में घटित हुआ था. यह इतनी अजीब बात है कि मनोवैज्ञानिक
स्त्राविन्स्की ने भी तुम्हारा विश्वास नहीं किया. उसने तुम्हें देखा था?” (इवान ने सिर हिला दिया.) “तुमसे बातें करने
वाला पिलात के पास भी था, काण्ट के साथ नाश्ते की मेज़ पर भी
था, और अब वह मॉस्को आ गया है.”
“शैतान जाने यहाँ वह क्या-क्या गुल खिलाने वाला है! किसी तरह उसे पकड़ना
चाहिए?” नए इवान में पुराने इवान ने सिर उठाते हुए कुछ
अविश्वास से कहा.
“तुम कोशिश तो कर चुके हो, पछताओगे,” मेहमान ने व्यंग्यपूर्वक कहा, “मैं तो कहता हूँ
कि किसी को भी ऐसी कोशिश नहीं करनी चाहिए. वह जो भी करेगा, शायद
अच्छा ही करेगा. आह, आह! मुझे कितना अफ़सोस हो रहा है कि उसकी
मुलाक़ात तुमसे हुई, मुझसे नहीं! मेरा सब कुछ तो जल चुका है,
मगर मैं इस मुलाक़ात के लिए प्रस्कोव्या फ़्योदरव्ना की चाबियों का
गुच्छा भी दे देता और तो मेरे पास देने के लिए कुछ है भी नहीं, मैं निर्धन हूँ!”
“मगर तुम्हें उसकी ज़रूरत क्यों पड़ गई?”
मेहमान उदास हो गया, हिचकिचाया और काफ़ी देर ख़ामोश रहने के बाद बोला, “ देखो, कैसी अजीब बात है, मैं
यहाँ उसी की बदौलत आया हूँ, जिसके कारण तुम आए हो. हाँ,
उसी पोंती पिलात के कारण,” मेहमान ने
भयभीत नज़रों से इधर-उधर देखते हुए कहा, “बात यह है,
कि साल भर पहले मैंने पोंती पिलात के बारे में एक उपन्यास लिखा था.”
“तुम लेखक हो?” कवि ने उत्सुकता से पूछा.
मेहमान
के चेहरे पर स्याही छा गई, उसने इवान को घूँसा दिखाते हुए
कहा, “मैं मास्टर हूँ,” वह
गम्भीर हो गया और उसने अपने गाउन की जेब से काली टोपी निकाली जिस पर पीले रेशमी
धागे से ‘एम’ अक्षर काढ़ा गया
था. उसने टोपी पहन ली और इवान को अपनी पूरी काया घूमकर दिखाने लगा, जैसे सिद्ध करना चाहता हो कि वह – मास्टर
है, “उसने ख़ुद अपने हाथों से यह टोपी मेरे लिए बनाई है,” उसने रहस्यमय अन्दाज़ में कहा.
“तुम्हारा उपनाम क्या है?”
‘अब मेरा कोई नाम, उपनाम नहीं,” विचित्र मेहमान ने उदास लहज़े में कहा, “मैंने
उसे ठुकरा दिया है. उसी तरह जैसे ज़िन्दगी की और चीज़ों को. उसे भूल जाएँ.”
कम से कम तुम उपन्यास के बारे में तो बताओ,” इवान ने बड़ी शराफ़त से कहा.
“तो सुनो, मेरी कहानी, बिल्कुल
आम कहानियों जैसी नहीं है,” मेहमान ने कहना शुरू किया.
...इतिहास में शिक्षा प्राप्त करने के बाद कोई दो वर्ष तक, वह
मॉस्को के एक म्युज़ियम में काम करता रहा था. साथ ही अनुवाद कार्य भी करता था.
“किस भाषा से?” इवान ने दिलचस्पी लेते हुए पूछा.
“मैं मातृभाषा के अलावा पाँच भाषाएँ जानता हूँ,” मेहमान ने बताया, “अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन और
ग्रीक. इटालियन भी थोड़ी-बहुत पढ़ लेता हूँ.”
“उस्ताद हो!” इवान के स्वर में ईर्ष्या थी.
इतिहासकार अकेला रहता था. उसके न तो कोई रिश्तेदार थे और न ही मॉस्को में
कोई परिचित. और, एक दिन उसने लॉटरी में एक लाख रूबल जीत लिए. “मेरी ख़ुशी का आप अन्दाज़ा नहीं लगा सकते,” काली
टोपी वाले मेहमान ने उसी तरह फुसफुसाकर आगे कहा, “जब
मैंने मैले कपड़ों वाली टोकरी से टिकट निकालकर देखा कि उस पर भी वही नम्बर है जो
अख़बार में छपा है! टिकट...,” उसने समझाया, “मुझे म्युज़ियम में दिया गया था.”
एक लाख जीतने के बाद इस रहस्यमय मेहमान ने यह किया कि किताबें ख़रीदीं, मिस्नित्स्काया
वाले अपने कमरे को छोड़ दिया...
“ऊ...ऊ, वह तो कबूतरखाना था...” मेहमान शिकायत के स्वर में बोला.
...और अर्बात के पास
एक मकान मालिक से मकान किराए पर लिया.
“जानते हो मकान मालिक क्या होता है?” मेहमान ने
इवान से पूछा और तुरंत ही समझाते हुए बोला, “यह कुछ
गिने-चुने बदमाश हैं, जो मॉस्को में सही-सलामत बच गए हैं.” तो मकान मालिक के पास दो कमरे किराए पर लिए. ये कमरे बगीचे से घिरे एक
छोटे से घर के तहख़ाने में थे. म्युज़ियम की नौकरी छोड़कर पोंती पिलात के बारे में
उपन्यास लिखने लगा.
“ओह, यह सुनहरे दिन थे,” चमकती
आँखों से वक्ता बोला, “एकदम स्वतंत्र घर, साथ ही प्रवेश कक्ष – सिंक के साथ,” उसने कुछ गर्व से कहा, “ठीक प्रवेश-द्वार से
आती पगडंडी पर खुलती नन्ही-नन्ही खिड़कियाँ, चार कदम दूर लिली,
लिण्डन और मैपल के सुगन्धित वृक्ष! आहा, आहा,
आहा! सर्दियों में मैं कभी-कभार खिड़की से किसी के काले पैर देखता और
उनके नीचे करकराती बर्फ की आवाज़ सुनता. मेरे कमरे की अँगीठी में सदा आग जलती रहती.
मगर अचानक बहार आ गई और मटमैले शीशों के पार मैंने लिली की नंगी शाखों को हरियाले
वस्त्र पहनते हुए देखा. और तब पिछले बसंत में एक ऐसी ख़ुशनुमा बात हो गई जो एक लाख
रूबल जीतने से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण थी. वैसे, एक लाख काफ़ी
होते हैं, यह तो आप भी मानेंगे.”
“ठीक कहते हो,” ध्यान से सुनते हुए इवान ने कहा.
“मैंने खिड़कियाँ खोल दीं और बिल्कुल नन्हे, दूसरे
कमरे में बैठने लगा.” मेहमान ने हावभाव करते हुए बताया, “यह दीवान, उसके सामने एक और दीवान, उनके बीच एक नन्ही-सी टेबुल, उस पर ख़ूबसूरत नाइट
लैम्प, और उधर खिड़की के पास किताबें; और
यहाँ – छोटी सी लिखने की मेज़, और सामने वाले चौदह वर्ग मीटर क्षेत्रफल के बड़े कमरे में हैं – किताबें, किताबें और अँगीठी! आह क्या बात थी! – लिली की ख़ुशबू आती! मेरा सिर थककर हल्का हो जाता, पिलात
अन्त की ओर बढ़ता रहता...”
“सफ़ेद चोगा, लाल किनार! मैं समझ रहा हूँ!” इवान चहका.
“बिल्कुल ठीक! पिलात भागता रहा, अन्त की ओर, अन्त की ओर, और मैं जानता था कि उपन्यास के अन्तिम
शब्द होंगे : ‘जूडिया के पाँचवें न्यायाधीश, अश्वारोही पोंती पिलात’. फिर, ज़ाहिर
है, मैं घूमने निकल जाता. एक लाख काफ़ी मोटी रकम थी. मेरे पास
भूरे रंग का ख़ूबसूरत सूट था. या मैं कभी किसी सस्ते रेस्तराँ में खाने के लिए चला
जाता. अर्बात में एक गज़ब का रेस्तराँ है, मालूम नहीं अब वह
है या नहीं.”
मेहमान की आँखें पूरी
खुल गईं और वह चाँद की तरफ़ देखते हुए आगे बोला :
“वह हाथों में घिनौने, उत्तेजित करने वाले पीले फूल
लिए जा रही थी...
“वह
हाथों में घिनौने, उत्तेजित करने वाले पीले फूल लिए जा रही
थी. शैतान जाने उन फूलों का क्या नाम है मगर न जाने क्यों वे मॉस्को में ही
पहले-पहल दिखाई देते हैं. ये फूल उसकी काली रंग की हल्की पोशाक पर बिल्कुल अलग-थलग
नज़र आ रहे थे. वह पीले फूल लिए चल रही थी! बुरा रंग है. त्वेर्स्काया रास्ते से वह
गली में मुड़ी और उसने एकदम पलटकर मुझे देखा. त्वेर्स्काया रास्ता मालूम है न?
त्वेर्स्काया रास्ते पर सैंकड़ों लोग चल रहे थे, मगर मैं कसम खाकर कह सकता हूँ कि उसने सिर्फ मुझे देखा. और देखा, उत्तेजना से नहीं, कुछ पीड़ा से. मुझे उसके सौन्दर्य
ने उतना घायल नहीं किया जितना उसकी आँखों में छिपे असाधारण, अनचीन्हे
अकेलेपन ने.
“उस पीले रंग के कारण मैं भी गली में मुड़ गया और उसके पीछे-पीछे चलने लगा.
हम उस आड़ी-टेढ़ी उकताहट भरी गली में चुपचाप चले जा रहे थे; मैं
एक किनारे पर और वह दूसरे किनारे पर. और सोचिए, गली में एक
पंछी तक नहीं था. मैं बेचैन था, क्योंकि मुझे महसूस हो रहा
था कि मेरा उसके साथ बात करना ज़रूरी था. और मैं परेशान था कि मैं एक भी शब्द कह
नहीं पाऊँगा और वह चली जाएगी, मैं उसे फिर कभी नहीं देख
सकूँगा.
“और मुलाहिज़ा फ़रमाइए, वह एकदम बोली:
“आपको
मेरे फूल अच्छे लगे?”
“मुझे अच्छी तरह याद है कि उसकी आवाज़ कैसे गूँजी थी; थोड़ी
भारी, रुक-रुककर, उसकी गूँज गली में
फैल गई और गन्दी पीली दीवार से टकराकर वापस लौट आई. मैं जल्दी से उसके पास
जाते-जाते बोला, “नहीं!”
“उसने अचरज से मेरी ओर देखा, और मैं फ़ौरन अप्रत्याशित
रूप से साफ-साफ समझ गया कि यही वह औरत है जिसे मैं पूरी ज़िन्दगी प्यार करता रहा
हूँ! यह हुई न बात, हाँ? शायद तुम
कहोगे, पागल है?”
“मैं कुछ नहीं कह रहा,” इवान ने उत्तर दिया और
आगे बोला, “आगे बोलो न प्लीज़!”
मेहमान बताता रहा.
“हाँ, उसने अचरज से मेरी ओर देखा और फिर पूछा, “क्या आपको फूल पसन्द नहीं हैं?”
उसकी आवाज़ में, मेरे ख़याल से, आक्रामकता थी. मैं
उसके साथ-साथ चलता रहा, उसके कदम से कदम मिलाकर और मुझे ज़रा
भी झिझक नहीं लग रही थी.
“नहीं, फूल तो पसन्द हैं, मगर
ऐसे वाले नहीं,” मैंने कहा.
“तो फिर कैसे?”
“मुझे गुलाब पसन्द हैं.”
“मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने ऐसा क्यों कहा, क्योंकि वह
झेंपती हुई मुस्कुराई और उसने फूल नाली में फेंक दिए. मैं हैरान हो गया. मैं फूल
चुनकर उसके हाथ में देने लगा मगर उसने हँसकर उन्हें दूर कर दिया. फूल लिए मैं ही
चलता रहा.
“इस तरह ख़ामोश हम तब तक चलते रहे, जब तक उसने वे फूल
मेरे हाथ से खींचकर फुटपाथ पर न फेंक दिए. इसके बाद उसने अपने काले खूबसूरत
दस्ताने वाले हाथ में मेरा हाथ ले लिया और हम साथ-साथ चलने लगे.”
“फिर?” इवान ने पूछा, “कृपया सब कुछ बताओ, कुछ भी मत छोड़ना.”
“फिर?” मेहमान ने उलटकर सवाल किया, “फिर क्या हुआ, आप ख़ुद ही अन्दाज़ा लगा सकते हैं.” उसने आँखों मे अचानक आए आँसुओं को दाहिने हाथ से पोंछा और कहने लगा – “हमारे सामने जैसे मूर्तिमन्त प्यार उछलकर प्रकट हो गया; जैसे किसी सुनसान गली में ज़मीन से कोई खूनी उछलकर आ जाता है, उसने हम दोनों को चौंका दिया!
“जैसे बिजली चौंकाती है, जैसे फिनिश चाकू चौंकाता है!
“बाद में उसने मुझे बताया कि ऐसी ‘अचानक’ वाली बात नहीं थी, वास्तव में हम दोनों सदियों से
एक-दूसरे से प्यार करते रहे हैं, एक-दूसरे को जाने बगैर,
देखे बगैर. वह किसी और आदमी के साथ रहती रही और मैं भी...उस...क्या
नाम...”
“किसके साथ?” बिज्दोम्नी ने पूछा.
“उसी...ओह, वही...अं...” मेहमान
उँगलियाँ चटख़ाते हुए बोला.
“क्या तुम्हारी शादी हो गई थी?”
“हाँ, हाँ, तभी तो मैं याद करने
की कोशिश कर रहा हूँ...शादी हुई...वारेन्का से, या मानेच्का
से, नहीं, वारेन्का से...धारियों वाली
पोशाक पहने...म्युज़ियम...मगर मुझे याद नहीं आ रहा.
“फिर वह बोली कि हाथों में पीले फूल लिए उस दिन वह इसलिए निकली थी, जिससे मैं उसे पहचान जाऊँ, और अगर ऐसा नहीं हुआ होता
तो वह ज़हर खाकर मर जाती, क्योंकि उसका जीवन एकदम खोखला है.”
“हाँ, प्यार ने एक पल में हमें चौंका दिया. मैं यह बात
उसी दिन एक घण्टॆ बाद, समझ गया, जब हम
बिना किसी ओर ध्यान दिए क्रेमलिन की नदी किनारे वाली दीवार के पास पहुँच गए.
“हम इस तरह बातें कर रहे थे, मानो कल ही बिछड़े हों,
जैसे कि एक दूसरे को बरसों से जानते हों. दूसरे दिन फिर वहीं,
मॉस्को नदी के किनारे, मिलने का वादा करके हम
बिदा हुए और वादे के मुताबिक मिले. मई का सूरज हमें आलोकित करता. और शीघ्र ही वह
औरत मेरी बीवी बन गई, खुले आम नहीं, गुप्त
रूप से.
“वह मेरे पास रोज़ आती, मैं सुबह से उसका इंतज़ार करता
रहता. अपनी बेचैनी छिपाने के लिए मैं टेबुल पर पड़ी
चीज़ें इधर-उधर करता रहता. दस मिनट पहले ही मैं खिड़की पर बैठ जाता और दरवाज़े की आहट
लेता रहता. और देखिए तो: मेरी उससे मुलाक़ात होने से पहले हमारे आँगन में शायद ही
कभी कोई आता, साफ़-साफ़ कहूँ तो कोई भी नहीं आता था; और अब, मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानो पूरा शहर ही
हमारे आँगन की ओर दौड़ा चला आ रहा है. दरवाज़ा बजता, दिल धड़कता,
मगर हाय, मेरी खिड़की से लगे गलियारे में नज़र
आते एक जोड़ी गन्दे जूते. चाकू तेज़ करने वाला. किसे चाहिए चाकू तेज़ करने वाला?
क्या तेज़ करना है? कहाँ के चाकू? कैसे चाकू?
“वह दरवाज़े से एक ही बार प्रविष्ट होती, मगर दिल इससे
पहले दसियों बार धड़क चुका होता. मैं झूठ नहीं बोल रहा. फिर जब उसके आने का समय
होता और घड़ी बारह बजाती, दिल तब तक धड़कता रहता, जब बिना कोई आहट किए, ख़ामोश, एक
जोड़ी काले, ख़ूबसूरत स्टील के बकल जड़े जूते मेरी खिड़की के
सामने से गुज़रते.
“कभी-कभी वह दूसरी खिड़की के पास अपने जूते की नोक से ठक-ठक करती. मैं उसी
क्षण खिड़की के पास लपककर आ जाता. जूता गायब हो जाता; काली,
उजाले को रोकती मखमल लुप्त हो जाती और मैं उसके लिए दरवाज़ा खोलने
लगता.
“हमारे प्यार की किसी को भनक तक न मिली, यह मैं दावे
के साथ कह सकता हूँ, हालाँकि ऐसा कभी होता नहीं है. मगर इस
बारे में न तो उसके पति को पता चला, न ही परिचितों को. उस
पुराने मकान में जिसके तहख़ाने में मैं रहता था, लोगों को
सिर्फ इतना पता था कि मेरे पास कोई महिला आती है, मगर उसका
नाम कोई नहीं जानता था.”
“मगर वह है कौन?”
मेहमान ने इशारे से बताया कि वह कभी भी किसी को भी इस बारे में नहीं
बताएगा. उसने आप बीती सुनाना जारी रखा.
इवान समझ गया कि मास्टर और वह अनजान महिला एक-दूसरे को इतना प्यार करते थे
कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करना असम्भव था. इवान अपनी आँखों के सामने मानो तहख़ाने
वाले दो कमरे देख रहा था जिनमें लिली के पेड़ और अहाते की दीवारों के कारण हमेशा
धुँधलका छाया रहता था; महोगनी का पुराना फर्नीचर, अलमारी,
उस पर घड़ी, जो हर तीस मिनट बाद घण्टे बजाती थी,
और किताबें –फर्श से लेकर अर्श तक – और छोटी-सी अँगीठी.
इवान को यह भी पता चला कि उसका मेहमान एवम् उसकी रहस्यमय पत्नी अपने
सम्बन्धों के आरम्भ में ही समझ गए थे कि उस दिन त्वेर्स्काया रास्ते पर और बाद में
गली में खींचती उन्हें किस्मत ही ले गई थी और यह भी कि वे एक-दूसरे के लिए ही बने
हैं.
मेहमान की कहानी से इवान को मालूम हुआ कि वे प्रेमी अपना दिन किस तरह
बिताते थे. जैसे ही वह आती, एप्रन पहन लेती और उस नन्हे से कमरे में जहाँ उस बेचारे
मरीज़ का प्रिय वाश-बेसिन था, लकड़ी की मेज़ पर केरोसीन का
स्टोव जलाकर नाश्ता बना लेती. फिर सामने वाले कमरे में टॆबुल पर नाश्ता सजा देती.
जब मई के महीने में बिजली कड़कती, मूसलाधार बारिश होती और
उनकी धुँधली पड़ गई खिड़कियों की बगल से होकर पानी झर-झर बहता हुआ इस आरामदेह नीड़
में घुसने की कोशिश करता तो प्रेमी अँगीठी जलाते और उसमें आलू भूनते. आलुओं से भाप
निकलती, उनके काले पड़ गए छिलके उँगलियों को भी काला करते.
तहख़ाने में हँसी खनकती; बारिश के बाद बाग में पेड़ अपनी गीली
टहनियों को उतार फेंकते. बारिश के बाद उमस भरी गर्मी आई और फूलदान में काफ़ी इंतज़ार
के बाद दोनों के पसन्दीदा गुलाब सजने लगे.
वह, जिसने अपना नाम मास्टर बताया था, लिखता
रहता और वह, बालों में अपनी पतली-पतली उँगलियाँ डाले लिखे
हुए पन्ने पढ़ती रहती और पढ़ने के बाद वह यह टोपी बनाने लगती. कभी-कभी वह अलमारी के
निचले खाने के सामने उकडूँ बैठ जाती या फिर ऊपरी खाने के सामने टेबुल पर चढ़कर खड़ी
हो जाती और कपड़े से सैकड़ों किताबों की धूल भरी जिल्दें पोंछती. वह उसकी प्रसिद्धि
की कामना करती, उसे काम करने की प्रेरणा देती और तभी उसने
उसे मास्टर कहना शुरू किया. वह जूडिया के पाँचवें न्यायाधीश के बारे में लिखे जाने
वाले शब्दों का इंतज़ार करती रहती, ज़ोर-ज़ोर से उपन्यास के
अनेक वाक्य दुहराती जो उसे बेहद पसन्द थे और कहती कि यह उपन्यास उसकी जान है.
उपन्यास पूरा हुआ अगस्त के महीने में, किसी टाइपिस्ट ने उसकी पाँच कापी
टाइप कीं. अंत में वह घड़ी भी आ पहुँची, जब गुप्त आरामगाह
छोड़कर कठोर ज़िन्दगी में जाना था.
“और मैं ज़िन्दगी में निकल पड़ा, उपन्यास हाथ में लेकर
और तब मेरा जीवन समाप्त हो गया,” मास्टर बुदबुदाया और
उसने सिर झुका लिया. पीले रेशमी ‘एम’ वाली काली बेचारी टोपी बड़ी देर तक इधर-उधर हिलती रही. फिर उसने बची हुई
कहानी भी सुनाई मगर उसका सिलसिला टूट चुका था. सिर्फ एक ही बात समझ में आ रही थी
कि इवान के मेहमान के साथ कोई भयानक हादसा हुआ था.
“मैं साहित्य जगत में पहली बार आया था, मगर अब,
जबकि सब कुछ ख़त्म हो चुका है और मेरा अंत निकट है, मैं उसके बारे में सोचकर काँप जाता हूँ!” मास्टर
उत्तेजना में बुदबुदाया और उसने अपना हाथ ऊपर उठा लिया – “हाँ, उसने मुझे बहुत चौंका दिया, आह, कितना चौंका दिया!”
“किसने?” इवान ने भी हौले से पूछा.
“उसी सम्पादक ने, मैं कह तो रहा हूँ, सम्पादक ने! कैसे पढ़ा उसने मेरा उपन्यास, वह मेरी ओर
इस तरह देख रहा था मानो मेरा गाल फूल गया हो. बार-बार कनखियों से एक कोने की ओर
देखता और बिना बात खिखियाता. बेकार में ही पांडुलिपि को मरोड़ता और घुरघुराता. जो
सवाल उसने मुझसे पूछे वे भी मूर्खतापूर्ण थे. उपन्यास के बारे में कुछ भी नहीं
पूछा, मगर वह यह जानना चाहता था कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, क्या मैं काफी समय से लिख रहा हूँ,
मेरे बारे में कहीं कोई चर्चा क्यों नहीं है और उसने, मेरी राय में, उसने बेसिर-पैर का सवाल भी पूछा:
किसने मुझे ऐसे विचित्र विषय पर उपन्यास लिखने के लिए उकसाया है?
“उसने मुझे सवाल पूछ-पूछकर हैरान कर दिया. मैंने उससे सीधे-सीधे पूछ लिया
कि वह मेरा उपन्यास छापेगा या नहीं.
“तब वह गड़बड़ा गया और बोला कि वह अकेला इसके बारे में निर्णय नहीं ले सकता,
इस उपन्यास का सम्पादक मण्डल के अन्य सदस्यों द्वारा पढ़ा जाना बेहद
ज़रूरी है; ख़ासकर आलोचक लातून्स्की एवम् अरीमान तथा
साहित्यकार म्स्तिस्लाव लाव्रोविच तो इसे पढ़ेंगे ही. उसने मुझे दो सप्ताह बाद आने
के लिए कहा.
मैं ठीक दो सप्ताह बाद वापस गया. मेरा स्वागत किया एक लड़की ने जिसकी आँखें
लगातार झूठ बोलते रहने के कारण अपनी नाक की तरफ ही देखती थीं.”
“वह लप्शेनिकवा है, सम्पादक की सेक्रेटरी,” इवान ने मुस्कुराते हुए कहा. वह उस दुनिया को भली-भाँति जानता था, जिसका विद्रूप वर्णन अभी-अभी उसके मेहमान ने किया था.
“हो सकता है,” उसे बीच ही में टोकते हुए मेहमान
बोला, “तो उसने मुझे अपना चीकट, मुड़ा-तुड़ा
उपन्यास वापस कर दिया. मुझसे आँखें चुराते हुए लप्शेनिकवा ने बताया कि इस समय
प्रकाशन गृह में अगले दो वर्षों तक के लिए काफ़ी साहित्य है इसलिए मेरे उपन्यास को
छापने का प्रश्न ही नहीं उठता.
“उसके बाद मुझे कुछ भी याद नहीं है,” मास्टर
आँसू पोंछते हुए बड़बड़ाया, “याद है तो सिर्फ उपन्यास की
जिल्द पर बिखरी लाल पंखुड़ियाँ और मेरी प्रियतमा की आँखें. हाँ, वे आँखें मुझे अभी भी याद हैं.”
इवान के मेहमान की कहानी बेतुकी होती गई, वह इधर-उधर की बातें भी उसमें
घुसेड़ता रहा. कभी वह बारिश की बात करता और उसके कारण उसकी आरामगाह में हो रही
असुविधा की, कभी यह कहता कि वह कहीं चला गया. हल्के से चीखता
और कहता कि वह उसे दोष नहीं देता जिसने उसे इस संघर्ष में धकेल दिया था – ओह, नहीं, ज़रा भी नहीं.
“याद है, याद है, अख़बार में रखा
वह नासपीटा परिशिष्ट,” मेहमान बुदबुदाया और उसने दोनों
हाथों से हवा में अख़बार का चित्र खींचा. इवान को आगे कहे गए बेतुके वाक्यों से पता
चला कि किसी और सम्पादक ने अख़बार में उपन्यास का बड़ा अंश छाप दिया था, उसके उपन्यास का जो स्वयँ को मास्टर कहता था.
मेहमान के अनुसार इस बात को दो दिन भी नहीं बीते थे कि किसी और अख़बार में
आलोचक अरीमान का लेख छपा. लेख का शीर्षक था, ‘सम्पादक के परों में छिपा
दुश्मन,” लेख में कहा गया था कि इवान के मेहमान ने सम्पादक
की अनुभवहीनता और नासमझी का लाभ उठाकर ईसा मसीह के औचित्य को छापने का प्रयत्न
किया है.
“हाँ, याद आया, याद आया!” इवान चिल्लाया, “मगर मैं भूल गया कि आपका नाम
क्या छपा था!”
“मेरे नाम को भूल जाएँ, मैं फिर कहता हूँ, अब मेरा कोई नाम नहीं है,” मेहमान ने जवाब दिया, “बात नाम की नहीं है. एक दिन बाद एक और अख़बार में म्स्तिस्लाव लाव्रोविच का
लेख छपा, जिसमें लेखक ने पिलातवाद और भगवान का विद्रूप वर्णन
करने वाले उस व्यक्ति पर गहरी चोट करने को कहा था, जिसने इस
पिलातवाद को अख़बारों में घसीटा था.
‘पिलातवाद’ शब्द से भौंचक्का होकर मैंने तीसरा
अखबार खोला. इसमें दो लेख थे : पहला लातून्स्की का और दूसरे के नीचे हस्ताक्षर थे ‘न.ए.’. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि
लातून्स्की के लेख के सामने अरीमान और लाव्रोविच के लेख मज़ाक कहलाने लायक थे. बस
इतना ही कहना काफी है कि लातून्स्की के लेख का शीर्षक था ‘लड़ाकू रूढ़िवादी’. मैं अपने बारे में लिखे लेख को
पढ़ने में इतना खो गया कि यह भी न जान पाया कि वह कब (दरवाज़ा बन्द करना मैं भूल गया
था) गीली छतरी और गीले अख़बार हाथों में लिए मेरे सामने खड़ी हो गई. उसकी आँखों से
आग बरस रही थी, हाथ काँप रहे थे और सर्द थे. पहले तो वह
मुझसे लिपटकर मुझे चूमती रही, फिर भर्राई आवाज़ में टेबुल पर
हाथ मारकर बोली कि वह लातून्स्की को ज़हर दे देगी.”
इवान परेशानी में कुछ कसमसाया, मगर बोला कुछ नहीं.
“दिन बेजान, उदास थे. उपन्यास लिखा जा चुका था,
करने को कुछ और था नहीं, सो हम दोनों यही करते
कि अंगीठी के सामने कालीन पर बैठ जाते और उसमें जलती आग देखते रहते.अब हम पहले के
मुक़ाबले ज़्यादा देर एक-दूसरे से दूर रहते थे. वह घूमने निकल जाती. और मैं अपने आप
में, अपने असली रूप में आ जाता जैसा कि मेरे जीवन में बहुत
कम हुआ है...अचानक अप्रत्याशित रूप से मुझे एक दोस्त मिल गया. ज़रा सोचिए, मैं वैसे लोगों से कतराता हूँ, अजनबी-सा बना रहता
हूँ. लोगों से यदि मिलता भी हूँ तो अविश्वास से, शक से;
और देखो, अब मेरे दिल में एक अनजान, अप्रत्याशित, न जाने किस रूप-रंग का आदमी सबसे
ज़्यादा आता था और वह मुझे सबसे ज़्यादा अच्छा भी लगता.
“तो उन दुर्दिनों में हमारे बगीचे का दरवाज़ा खुला; दिन
खुशगवार, हेमंत ऋतु का था. वह घर पर नहीं थी. वह मेरे मकान
मालिक के पास किसी काम से आया था, फिर वापस बगीचे में आया और
फ़ौरन मुझसे दोस्ती कर ली. उसने बताया कि वह पत्रकार है. वह मुझे इतना अच्छा लगा कि
आज भी मुझे उसकी बहुत याद आती है. फिर वह मेरे पास बार-बार आने लगा. मुझे पता चला
कि वह अकेला है, मेरे बगल के ही फ्लैट में रहता है, इसी तरह के फ्लैट में, मगर वहाँ जगह बहुत कम है,
वगैरह-वगैरह. उसने मुझे अपने घर कभी नहीं बुलाया. मेरी पत्नी को वह
ज़रा भी नहीं भाता था, मगर मैं उसकी पैरवी करता. तब वह बोली, “जो तुम्हारा दिल चाहे करो, मगर मैं कहे देती हूँ कि
यह आदमी मुझे बहुत घृणित प्रतीत होता है.”
“मैं हँस पड़ा. मगर बात यह थी कि आख़िर उसने मुझे आकर्षित क्यों किया था?
बात असल में यह है कि एक सीधा, सरल आदमी बिना अपने पेट में कोई
रहस्य छिपाए, दिलचस्प नहीं हो सकता. अलोइज़ी...हाँ, मैं बताना भूल गया कि मेरे नए मित्र का नाम अलोइज़ी मगारिच था...वह रहस्यमय
व्यक्ति था. इतने बुद्धिमान आदमी से न मैं अपने जीवन में कभी मिला और न ही
मिलूँगा. अगर अख़बार में छपी किसी टिप्पणी का मतलब मुझे समझ में नहीं आता तो अलोइज़ी
चुटकियों में मुझे समझा देता, जैसे यह उसके बाएँ हाथ का खेल
हो. यही बात रोज़मर्रा की ज़िन्दगी और उससे जुड़ी समस्याओं के बारे में थी. मगर यह तो
कुछ भी नहीं है. मुझे आकर्षित किया उसके साहित्य-प्रेम ने. उसने तब तक चैन नहीं
लिया, जब तक मेरा पूरा उपन्यास मुझसे पढ़वा नहीं लिया;
उपन्यास के बारे में उसने बहुत अच्छी राय दी, मगर
सम्पादक की इस बारे में क्या प्रतिक्रिया थी यह भी अचूक बतला दिया, मानो उस समय वह वहाँ मौजूद था. वह शत-प्रतिशत सही उतरता. इसके अलावा उसने
यह भी बता दिया कि मेरा उपन्यास क्यों नहीं छप सका. उसने सीधे-सीधे बता दिया कि
फलाना-फलाना अध्याय हटाना पड़ेगा...
“अख़बारों में तीव्र आलोचनात्मक लेख छपते ही रहे. पहले तो मैं उन पर हँस
देता था. मगर जैसे-जैसे उनकी संख्या बढ़ती गई, मेरे रवैये में
फर्क आने लगा. दूसरी तरह की प्रतिक्रिया थी – आश्चर्य.
इन लेखों की हर पंक्ति में कुछ न कुछ झूठ और अविश्वसनीय ज़रूर होता; हालाँकि वह सब कुछ बड़ी दमदार, धमकाती शैली में लिखा
जाता था. मुझे ऐसा महसूस होता मानो इन लेखों के लेखक वह नहीं कह रहे, जो वास्तव में कहना चाहते हैं, इसीलिए उनकी आलोचना
इतनी तीखी होती जा रही है. और फिर आई तीसरी अवस्था – डर की. डर उन लेखों का नहीं, बल्कि ऐसी चीज़ों का
जिनका उपन्यास से दूर-दूर का भी सम्बन्ध नहीं था. जैसे कि मुझे अँधेरे से डर लगने
लगा. दूसरे शब्दों में यह अवस्था मानसिक रोगी की, पागलपन की
थी. मुझे रात भर लाइट जलाकर सोना पड़ता, क्योंकि हमेशा यह डर
लगा रहता कि बन्द खिड़कियों में से लम्बे-लम्बे, तीखे तंतुओं
वाला कोई ऑक्टोपस कमरे में कूद पड़ेगा.
“मेरी प्रियतमा भी बहुत बदल गई हालाँकि मैंने उसे सम्भावित हत्यारे के बारे
में नहीं बताया था. मगर वह समझ रही थी कि मेरे साथ कुछ अजीब सी बात हो रही है;
वह दुबली हो गई, पीली पड़ गई, उसकी हँसी कहीं खो गई. वह मुझसे बस यही कहती कि उसी के कारण मुझे यह दुःख
उठाना पड़ रहा है. न वह मुझसे उपन्यास पूरा करने की ज़िद करती, न यह सब होता. न वह उपन्यास का एक अंश छपवाने की ज़िद करती न सारी दुनिया
मेरे पीछे पड़ जाती. उसने कहा कि मैं सब कुछ छोड़कर एक लाख रूबल में से बचे हुए
पैसों में दक्षिण में कालासागर तट पर जाकर रहने लगूँ.
“वह बहुत ही ज़िद करने लगी और मैं उससे बहस नहीं करना चाहता था. (मुझे
पूर्वाभास हो गया था कि मैं कालासागर न जा सकूँगा) मैंने वादा किया कि मैं जल्दी
ही चला जाऊँगा; मगर उसने कहा कि मेरा टिकट वही खरीदेगी. तब
मैंने बचे हुए सारे पैसे, जो करीब दस हज़ार रूबल थे, उसके हाथ में दे दिए.
“इतने सारे क्यों?” उसे आश्चर्य हुआ. मैंने कहा
कि मुझे चोरों से डर लगता है, और उससे विनती की कि वह मेरे
जाने तक मेरे इस धन को सुरक्षित रखे. उसने पैसे पर्स में रख लिए और मुझे चूमकर
कहने लगी कि मुझे ऐसी स्थिति में छोड़कर जाने के बदले मरना ज़्यादा आसान होगा,
मगर घर पर उसका इंतज़ार हो रहा होगा, वह मजबूर
है और वह कल फिर आएगी. उसने मुझे मनाते हुए कहा कि मैं किसी चीज़ से न डरूँ.
“यह हुआ शाम के धुँधलके में, अक्टूबर के मध्य में. वह
चली गई. उसके जाने के बाद मैं बिना लाइट जलाए सोफे पर लेट गया और मेरी आँख लग गई.
अचानक मुझे आभास हुआ कि कमरे में ऑक्टोपस है. अँधेरे में टटोलते हुए मैंने बड़ी
मुश्किल से लैम्प जलाया. मेरी जेब घड़ी में रात के दो बजे थे. मैं स्वयँ को बीमार
अनुभव करता सोया था, जब जागा तो सचमुच में बीमार हो गया था.
मुझे लगा कि शिशिर का अँधेरा शीशों में से अन्दर घुस रहा है और मैं उसमें डूबता जा
रहा हूँ. मैं अपना संतुलन खो चुका था. मैं चीखकर किसी के पास भागने के लिए हाथ-पैर
मारने लगा, चाहे वह ऊपर की मंज़िल पर रहने वाला मेरा
मकान-मालिक ही क्यों न हो. मैं पागल की भाँति हाथ-पैर चलाता रहा. रही-सही शक्ति
बटोरकर मैं अँगीठी के पास गया और उसमें रखी लकड़ियाँ जला दीं. जब वे चटचट की आवाज़
के साथ जलने लगीं और अँगीठी के नन्हे दरवाज़े पर दस्तक हुई तो मुझे कुछ हल्का महसूस
हुआ. मैं सामने के कमरे में गया, वहाँ बत्ती जलाई, सफ़ेद वाइन की बोतल निकाली और उसका ढक्कन खोलकर बोतल से ही गटगट पीने लगा.
इससे मेरा डर काफ़ी कम हुआ – मैं बजाय मकान-मालिक
के पास भागने के अँगीठी की ओर आया. मैंने अँगीठी का दरवाज़ा खोल दिया, जिससे गर्म हवा मेरे चेहरे और हाथों से लिपटने लगी और फुसफुसाया: समझ जाओ,
मेरे साथ कोई दुर्घटना हो गई है...आओ, आओ,
आओ!
“मगर कोई नहीं आया. अँगीठी में आग गरज रही थी, खिड़की
पर बारिश टकरा रही थी. और तब मानो इस सबका अंतिम चरण आ पहुँचा. मैंने मेज़ की दराज़
में से मोटा-सा उपन्यास एवम् पांडुलिपि निकाली और उन्हें जलाने लगा. यह बड़ा
मुश्किल काम है, क्योंकि लिखा हुआ कागज़ आसानी से नहीं जलता.
अपने नाखूनों को ज़ख़्मी करते हुए मैं पन्ने फाड़ता गया. उन्हें लकड़ियों के बीचे में
खड़ा रखता रहा और चिमटे से अन्दर घुसाता रहा. उनकी राख मुझे बीच-बीच में
जल्दी-जल्दी जलाने में बाधा डाल रही थी, राख लौ का गला घोंट
रही थी, मगर मैं उससे संघर्ष करता रहा और मेरा उपन्यास भी
ज़बर्दस्त प्रतिरोध करता रहा, फिर भी वह नष्ट होता रहा. मेरी
आँखों के सामने चिर-परिचित शब्द नाचते रहे. पीलापन नीचे से ऊपर की ओर बढ़कर पन्नों
को समेटता जा रहा था. मगर शब्द लौ के बीच भी चमकते रहे. वे सिर्फ तभी लुप्त हुए जब
कागज़ काला हो गया और मैं उन्हें चिमटे से मसलता रहा.
“इसी समय खिड़की पर हौले से खरोंचने की आवाज़ आई. मेरा दिल उछला और मैंने
आख़िरी पन्ने अँगीठी में फेंके और दरवाज़ा खोलने के लिए लपका. सीढ़ियाँ तहख़ाने से
आँगन की ओर के दरवाज़े तक जाती थीं. मैं दरवाज़े के पास गिरता-पड़ता पहुँचा और बोला :
“कौन है?”
“और उस आवाज़ ने, उसकी आवाज़ ने जवाब दिया, “मैं हूँ...”
“पता नहीं कैसे मैंने दरवाज़ा खोला. जैसे ही वह अन्दर आई, मुझसे लिपट गई. वह पूरी गीली थी. गीले गाल, बिखरे
बाल, काँपता तन. मैं सिर्फ इतना ही कह सका :
“तुम...तुम?” – और मेरी आवाज़ टूट गई. हम
नीचे की ओर भागे. उसने जल्दी से कोट उतार फेंका और हम फ़ौरन पहले कमरे में आए.
हल्की-सी चीख़ मारकर उसने नंगे हाथों से अँगीठी में से वे अंतिम पन्ने निकाले जो
जलने से बच गए थे. कमरे में धुआँ भर गया था. मैंने पैरों से आग बुझाई. वह सोफे पर
लुढ़क गई और हिचकियाँ ले-लेकर रोती रही.
जब वह कुछ शांत हुई तो मैंने कहा, “मुझे इस उपन्यास से नफ़रत हो गई
है और मुझे डर लगता है. मैं बीमार हूँ. मुझे बहुत डर लग रहा है.”
वह उठी और बोली, “हे भगवान, तुम कितने बीमार हो!
क्यों? किसलिए? मगर मैं तुम्हें
बचाऊँगी, बचाऊँगी मैं तुम्हें यह क्या बात हुई?”
“मैंने उसकी आँखों की ओर देखा जो धुँए से और रोने के कारण फूल गई थीं.
मैंने महसूस किया कि उसकी ठण्डी हथेलियाँ मेरे माथे को सहला रही हैं.
“मैं तुम्हारा इलाज करूँगी, तुम्हें ठीक करूँगी,” वह बड़बड़ाई, मेरे कन्धों को पकड़कर बोली, “तुम उसे पुनर्जीवित करोगे. ओह, मैंने इसकी एक प्रति
अपने पास क्यों न रखी!”
वह गुस्से से दाँत पीसती रही, कुछ बेतरतीब-सा बड़बड़ाती रही. फिर
होंठ भींचकर वह जले हुए पन्ने इकट्ठे करने लगी. उपन्यास के मध्य का कोई अध्याय था,
याद नहीं कौन-सा. उसने जले हुए पन्ने तरतीब से लगाए, उन्हें एक कागज़ में लपेटा. उस पर एक रिबन बाँधी. उसकी हरकतों से लग रहा था
कि उसने कोई फैसला कर लिया है और अपने आप पर काबू पा लिया है. उसने थोड़ी सी वाइन
माँगी और पीकर शांति से बोली :
“देखो, ऐसी देनी पड़ती है झूठ की कीमत...,” वह बोली, “मैं और झूठ नहीं बोलना चाहती. मैं
अभी भी तुम्हारे पास ठहर सकती हूँ, मगर मैं ऐसा इस तरह नहीं
करना चाहती. मैं नहीं चाहती कि वह हमेशा यही सोचता रहे कि मैं उसके घर से रात को
भाग गई. उसने मुझे कभी कोई दुःख नहीं दिया. उसे अचानक बुला लिया गया. उसकी
फैक्ट्री में आग लग गई है. मगर वह जल्दी से लौट आएगा. मैं कल सुबह उसे सब कुछ बता
दूँगी, कह दूँगी कि मैं किसी और से प्यार करती हूँ और तब मैं
हमेशा के लिए तुम्हारे पास आ जाऊँगी. बोलो, तुम्हें इससे
इनकार तो नहीं?”
“मेरी प्यारी, मासूम साथी,” मैंने उससे कहा, “मैं तुम्हें ऐसा करने की
इजाज़त नहीं दूँगा. मेरा भविष्य तो अँधेरे में है और मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ
तुम भी तिल-तिल कर मरो.”
“सिर्फ यही कारण है?”
“सिर्फ यही!”
उसमें मानो जान पड़ गई हो. वह मुझसे लिपट गई. मेरे कन्धे को सहलाते हुए बोली, “तो मैं भी तुम्हारे साथ मरूँगी. सुबह मैं तुम्हारे पास आ रही हूँ.”
बस, यही आख़िरी बात है मेरी ज़िन्दगी की जो मुझे याद है. वह
बाहरी कमरे से आती प्रकाश की किरण..., उस रोशनी में बिखरी
हुई लट..., उसकी हैट और निश्चय से भरी उसकी आँखें. बाहरी
दहलीज़ पर छाया अँधेरा और सफ़ेद पैकेट भी याद है.
“मैं तुम्हें छोड़ने आ सकता था मगर मुझमें अकेले वापस आने की शक्ति नहीं है,
मुझे डर लग रहा है.”
“डरो मत. बस कुछ घण्टे इंतज़ार कर लो. कल सुबह मैं तुम्हारे साथ रहूँगी,” - यही उसके आख़िरी शब्द थे.
“श्...श्...श्...!” तभी रोगी ने अपने आपको रोकते
हुए कहा और ऊँगली ऊपर उठाई, “आज की चाँद की रात बड़ी
बेचैन है!”
वह बालकनी में छिप गया. इवान ने गलियारे में पहियों की गाड़ी के चलने की आवाज़
सुनी, कोई
धीरे-से कराहा या शायद चिल्लाया.
जब सब कुछ शांत हो गया तो मेहमान फिर से वापस आया और बोला कि 120 नंबर के
कमरे में कोई आ गया है. किसी ऐसे आदमी को लाया गया है जो यह विनती कर रहा है कि
उसका सिर उसे लौटा दिया जाए. दोनों उत्तेजनावश खामोश हो गए. फिर कुछ देर शांत रहकर
अपनी पुरानी बातचीत पर लौट आए. मेहमान ने कुछ कहने के लिए मुँह खोलना चाहा, मगर
रात सचमुच बड़ी बेचैन थी. बाहर गलियारे से अब भी आवाज़ें आ रही थीं इसलिए मेहमान ने
इवान के कान में इतने धीमे से कहना शुरू किया कि उसे सिर्फ कवि ही सुन सकता था,
पहले वाक्य को छोड़कर जो उसने सुना वह कुछ ऐसा था :
“उसके जाने के पन्द्रह मिनट बाद मेरी खिड़की पर दस्तक हुई...”
मरीज़ ने जो कुछ इवान के कान में कहा, उसने उसे काफ़ी व्याकुल कर रखा था.
उसके चेहरे पर बार-बार सिहरन दौड़ जाती थी. उसकी आँखों में भय और वहशत के भाव तैर
जाते थे. वह बार-बार चाँद की तरफ उँगली उठता था, जो बालकनी
से कब का बिदा हो चुका था. जब बाहर से सारी आवाज़ें आनी बन्द हो गईं तो मेहमान इवान
से कुछ दूर सरककर बैठ गया और कहने लगा –
“तो, जनवरी के मध्य में, रात को,
उसी कोट में, जिसके अब बटन टूट चुके थे,
मैं अपने आँगन में ठण्ड से ठिठुर रहा था. मेरे पीछे बर्फ का बड़ा ढेर
था जिसने लिली की झाड़ियों को छुपा दिया था. मेरे सामने थीं परदे लगी हुई मेरी
खिड़कियाँ जिनसे मद्धिम रोशनी आ रही थी. मैं पहली खिड़की के पास गया और सुनने लगा – मेरे कमरे में पियानो बज रहा था; मैं सिर्फ सुन ही
सका, कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ देर रुककर मैं बाहर गली
में निकल आया. बर्फीला तूफ़ान शैतानी नाच कर रहा था. मेरे पैरों में आए एक कुत्ते
ने मुझे भयभीत कर दिया. मैं सड़क की दूसरी ओर भागा. ठण्ड और भय, जो मेरे साथी बन चुके थे, मुझे पागलपन की सीमा तक ले
गए. मेरा कोई ठिकाना नहीं था. मेरे पास मेरी गली के सामने से गुज़रने वाली
ट्रामगाड़ी के नीचे जान दे देने के अलावा और कोई चारा नहीं था. दूर से मैंने रोशनी
से भरे, बर्फ से ढँके डिब्बों को देखा और बर्फ पर उनकी
चरमराहट सुनी. मगर, मेरे दोस्त, समस्या
यह थी कि भय ने मेरे रोम-रोम में अपना घर कर लिया था, और मैं
ट्रामगाड़ी से भी ऐसे ही डर गया जैसे कुत्ते से डरा था. मेरी बीमारी से बदतर इस
अस्पताल में और कोई बीमारी नहीं है, मैं पूरे यक़ीन के साथ कह
रहा हूँ!”
“मगर आप उसे ख़बर दे सकते थे,” इवान ने बेचारे
मरीज़ के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए कहा, “फिर उसके पास
आपके पैसे भी तो हैं? शायद उसने उन्हें सँभाल कर रखा हो?”
“इसमें कोई सन्देह नहीं है, बेशक, सँभालकर ही रखा है. मगर आप शायद मुझे समझ नहीं पा रहे हैं? या शायद मैं अपनी बात कहने की क्षमता खो चुका हूँ. मुझे इसके बारे में ज़रा
भी दुःख नहीं है, क्योंकि अब मुझे उनकी ज़रूरत नहीं है. उसके
सामने...” मेहमान ने दूर अँधेरे में दृष्टि गड़ाते हुए
कहा, “इस पागलखाने का ख़त पड़ा होगा. अब आप ही बताइए इस
पते से मैं उसे ख़त कैसे भेज सकता हूँ? मानसिक रोगी? आप मज़ाक कर रहे हैं, मेरे दोस्त! उसे दुःख पहुँचाऊँ?
मैं ऐसा नहीं कर सकता!”
इवान इस तर्क का कोई जवाब नहीं दे पाया, मगर ख़ामोश इवान को मेहमान की पीड़ा का
अनुभव हो रहा था, उसे उसके प्रति सहानुभूति हो रही थी.
मेहमान ने यादों में खोकर अपना काली टोपी वाला सिर हिलाया और बोला, “गरीब बेचारी, मुझे उम्मीद है कि वह मुझे भूल गई
होगी!”
“आप ठीक भी हो सकते हैं...” इवान ने सकुचाते हुए
कहा.
“मेरी बीमारी लाइलाज है,” मेहमान ने शांतिपूर्वक
कहा, “जब स्त्राविन्स्की कहता है कि वह मुझे मेरी
ज़िन्दगी वापस दे देगा, तो मुझे विश्वास नहीं होता. वह एक
सहृदय व्यक्ति है और सिर्फ मुझे दिलासा देना चाहता है. मगर मैं इस बात से भी इनकार
नहीं करता कि अब मैं पहले से काफ़ी अच्छा हूँ. तो मैं कहाँ रुका था? बर्फ, ये उड़ती हुई ट्रामगाड़ियाँ. मैं जानता था कि यह
अस्पताल शुरू हो चुका है और मैं पूरा शहर पैदल पार कर यहाँ आने के लिए निकल पड़ा.
पागलपन! शायद शहर से बाहर निकलकर बर्फ के कारण जम ही जाता, मगर
मैं सौभाग्यवश बच गया. एक ट्रक में कुछ ख़राबी हो गई थी, मैं
ड्राइवर के पास पहुँचा; यह जगह शहर से चार किलोमीटर दूर थी,
उसे मुझ पर दया आ गई. ट्रक यहीं आ रहा था. और वह मुझे यहाँ ले आया.
मेरे बाएँ पैर की उँगलियाँ जम चुकी थीं, मगर उन्हें ठीक कर
दिया गया. अब मैं चार महीनों से यहाँ हूँ. मुझे यहाँ उतना बुरा नहीं लगता. इन्सान
को बड़ी-बड़ी योजनाएँ नहीं बनानी चाहिए, वाकई! जैसे मैं पूरी
दुनिया देखना चाहता था. मगर शायद यह मेरे नसीब में नहीं है. मैं इस दुनिया का एक
नन्हा-सा हिस्सा ही देख सकता हूँ. यह हिस्सा बेहतरीन तो नहीं है, मगर बुरा भी नहीं है. अब जल्दी ही गर्मी का मौसम आने वाला है. प्रस्कोव्या
फ़्योदरव्ना कहती है कि बालकनी पर बेल छा जाएगी. चाबियों के गुच्छे ने मेरा काम
आसान कर दिया है. रातों को चाँद होगा. ओह, वह छिप गया! थोड़ी
राहत महसूस हो रही है. रात आधी गुज़र गई. अब मैं चलता हूँ.”
“पिलात और येशू का आगे क्या हुआ?” इवान ने
चिरौरी करते हुए पूछा, “मैं जानना चाहता हूँ. बताइए न!”
“ओह, नहीं, नहीं,” मेहमान ने काँपते हुए कहा, “अपने उपन्यास की
याद से ही मैं सिहर उठता हूँ! पत्रियार्शी पर आपसे जो मिला था, वही ठीक-ठीक बता सकता है. बातचीत के लिए धन्यवाद. फिर मिलेंगे!”
और इससे पहले कि इवान कुछ समझ पाता, हल्की-सी आवाज़ के साथ जाली का दरवाज़ा
बन्द हो गया, मेहमान ग़ायब हो गया.
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चौदह
मुर्गे की बदौलत
मानसिक तनाव सहन न कर सका रीम्स्की और ‘शो’ समाप्त
होने के बाद की औपचारिकताओं का इंतज़ार न करके अपने ऑफिस की ओर भागा. वह मेज़ पर
बैठकर सूजी-सूजी आँखों से अपने सामने पड़े जादुई नोटों की ओर देखने लगा. वित्तीय-डाइरेक्टर
की बुद्धि निर्बुद्धि तक पहुँच चुकी थी. बाहर से लगातार शोर सुनाई दे रहा था.
लोगों के झुँड वेराइटी थियेटर से बाहर निकल रहे थे. वित्तीय-डाइरेक्टर के तीक्ष्ण
कानों में अचानक पुलिस की सीटी की आवाज़ सुनाई दी. यह सीटी कभी भी किसी सुखद घटना
की सूचक नहीं होती. मगर जब यह आवाज़ फिर से सुनाई पड़ी और उसकी मदद के लिए एक और
ज़ोरदार, ज़्यादा ताकतवर, लम्बी सीटी आ
गई, फिर सड़क से अजीब-सा शोर, ताने कसती,
छेड़ती हुई आवाज़ें सुनाई पड़ीं तो वित्तीय डाइरेक्टर समझ गया कि फिर
से कोई लफ़ड़ा हो गया है. न चाहते हुए भी रीम्स्की के दिमाग में ख़याल कौंध गया कि यह
काले जादू के जादूगर और उसके साथियों द्वारा दिखाए गए घृणित कारनामों से ही
सम्बन्धित है. तीखे कानों वाला वित्तीय डाइरेक्टर बिल्कुल भी गलत नहीं था.
जैसे ही उसने सदोवया की ओर खुलती हुई खिड़की से बाहर देखा उसका चेहरा
आड़ा-तिरछा हो गया और वह फुसफुसाहट के बदले फुफकार पड़ा, “मुझे मालूम था!”
सड़क की जगमगाती रोशनी में अपने ठीक नीचे फुटपाथ पर उसने एक महिला को देखा.
वह केवल बैंगनी रंग के अंतर्वस्त्र पहने थी. बेशक, उसके सिर पर टोप और हाथों में छाता
था.
इस महिला को चारों ओर से ठहाके लगाती, ताने कसती भीड़ ने घेर रखा था. महिला
अपनी शर्मिन्दगी छुपाने के लिए या तो बैठ जाती, या भागने की
कोशिश करती. ठहाके जारी रहे. इन ठहाकों से वित्तीय डाइरेक्टर ने रीढ़ की हड्डी में
ठण्डी सिहरन महसूस की. महिला के निकट ही एक और आदमी डोल रहा था जो अपना कोट उतारने
की कोशिश कर रहा था, मगर बदहवासी के कारण वह अपना आस्तीन में
फँसा हाथ बाहर नहीं निकाल पा रहा था.
कहकहों और चीखों की आवाज़ें एक और जगह से भी आ रही थीं – बाईं ओर के प्रवेश-द्वार से. उधर मुँह घुमाकर देखने पर ग्रिगोरी दानिलविच
ने एक अन्य महिला को देखा – गुलाबी अंतर्वस्त्रों
में. वह सड़क से उछलकर फुटपाथ पर आना चाह रही थी ताकि प्रवेशद्वार में शरण ले सके,
मगर भीड़ उसका रास्ता रोक रही थी और लालच और फैशन की मारी, गरीब बेचारी...फ़ागोत की फर्म द्वारा ठगी गई महिला के दिल में इस समय सिर्फ
एक ही ख़याल था कि धरती फट जाए तो उसमें समा जाऊँ. पुलिस वाला उस अभागी स्त्री के
निकट जाने की कोशिश कर रहा था. सीटी बजाते हुए वह आगे बढ़ रहा था और उसके पीछे-पीछे
थे कुछ मनचले. यही लोग तो ठहाके लगा रहे थे, सीटियाँ बजा रहे
थे.
एक दुबला-पतला मूँछों वाला कोचवान पहली निर्वस्त्र महिला के पास लपकता हुआ
आया. उसने झटके से अपने मरियल घोड़े को उसके निकट रोक लिया. मुच्छड़ का चेहरा खुशी
से खिल उठा.
रीम्स्की ने अपने सिर पर हाथ मार लिया, घृणा से थूककर वह खिड़की से परे हट
गया.
थोड़ी देर टेबुल के पास बैठकर वह सड़क से आती हुई आवाज़ें सुनता रहा. अब अनेक
स्थानों से सीटियों की चीखें सुनाई पड़ रही थीं. फिर धीरे-धीरे उनका ज़ोर कम होता
गया. रीम्स्की को ताज्जुब हुआ कि यह सब लफ़ड़ा अपेक्षाकृत काफ़ी कम समय में ख़त्म हो
गया.
हाथ-पैर हिलाने की, ज़िम्मेदारी का कड़वा घूँट पीने की घड़ी आ पहुँची. तीसरे अंक
के दौरान टेलिफोन ठीक कर दिए गए थे; टेलिफोन करना था,
इस सारे झँझट की सूचना देनी थी, मदद माँगनी थी,
इस झमेले से बाहर निकलना था, लिखादेयेव के सिर
पर सारा दोष मढ़कर अपने आपको बचाना था वगैरह, वगैरह...थू...थू...शैतान!
बदहवास डाइरेक्टर ने दो बार टेलिफोन के चोंगे की ओर हाथ बढ़ाकर पीछे खींच लिया. तभी
ऑफ़िस की इस मृतप्राय ख़ामोशी में वित्तीय डाइरेक्टर के ठीक सामने टेलिफोन ख़ुद ही
बजने लगा; वह काँपने लगा और मानो बर्फ हो गया. ‘मेरा दिमाग काफ़ी उलझ गया है,’ उसने सोचा और
चोंगा उठा लिया. उठाते ही मानो उसे बिजली का झटका लगा और उसका चेहरा कागज़ से भी
सफ़ेद हो गया. चोंगे से किसी महिला की शांत, मगर रहस्यमय,
कामासक्त आवाज़ फुसफुसाई:
“कहीं भी फोन न करना, रीम्स्की! अंजाम बुरा होगा!”
चोंगा ख़ामोश हो गया. रीम्स्की ने महसूस किया की रीढ़ की हड्डी में चींटियाँ
रेंग रही हैं; चोंगा रखकर न जाने क्यों उसने अपनी पीछे की खिड़की से बाहर
देखा. नन्ही-नन्ही कोपलों से अधढँकी मैपिल वृक्ष की टहनियों की ओट से, बादल के पारदर्शी घूँघट से झाँकता चाँद नज़र आया. न जाने क्यों रीम्स्की इन
टहनियों से नज़र न हटा सका और जैसे-जैसे वह उन्हें देखता रहा, एक अनजान भय उसे जकड़ने लगा.
कोशिश करके उसने चाँद की रोशनी से प्रकाशित खिड़की से अपना चेहरा हटाया और
कुर्सी पर से उठने लगा. फोन करने का अब सवाल ही नहीं था. इस समय वित्तीय डाइरेक्टर
के दिमाग में बस एक ही ख़याल था, जल्दी से जल्दी इस थियेटर से बाहर जाना.
वह बाहर की आहट लेने लगा : थियेटर ख़ामोश था. रीम्स्की समझ गया कि काफ़ी देर
से वह दूसरी मंज़िल पर एकदम अकेला है. इस ख़याल से उसे फिर से एक बचकाना, अदम्य
भय महसूस हुआ. वह यह सोचकर काँपने लगा कि अब उसे खाली गलियारों से और सीढ़ियों पर
से अकेले गुज़रना पड़ेगा. उसने उत्तेजना में टेबुल पर सामने पड़े जादुई नोट उठाकर
अपने ब्रीफकेस में ठूँस लिए, खाँसकर अपना गला साफ़ किया,
जिससे अपने आपको कुछ तो सँभाल सके, मगर खाँसी
भी कमज़ोर-सी, भर्राई-सी निकली.
उसे महसूस हुआ कि ऑफिस के दरवाज़े के नीचे से एक सड़ी हुई, गीली-सी
ठण्डक उसकी ओर बढ़ती चली आ रही है. वित्तीय डाइरेक्टर की पीठ पर सिहरन दौड़ गई. तभी
अकस्मात् घड़ी ने बारह घण्टे बजाना शुरू कर दिया. घण्टॆ की आवाज़ ने भी वित्तीय
डाइरेक्टर को कँपकँपा दिया. जब उसे बन्द दरवाज़े के चाबी के सुराख में विलायती चाबी
घूमने की आवाज़ सुनाई दी, तब तो मानो उसके दिल ने भी धड़कना
बन्द कर दिया. अपने गीले, ठण्डे हाथों से ब्रीफकेस को थामे
रीम्स्की ने महसूस किया कि अगर यह सरसराहट कुछ देर और जारी रही तो वह अपने आप को
रोक न पाएगा और चीख़ पड़ेगा.
आखिर दरवाज़ा खुल ही गया और धीमे क़दमों से अन्दर आया वरेनूखा. रीस्म्की जिस
तरह खड़ा था, वैसे ही बैठ गया, क्योंकि उसके पैरों
ने जवाब दे दिया. एक लम्बी साँस खींचकर वह चापलूसी के अन्दाज़ में मुस्कुराया और
हौले से बोला, “हे भगवान, तुमने
मुझे कितना डरा दिया!”
हाँ, उसके
इस अचानक आ धमकने से कोई भी भयभीत हो सकता था, मगर साथ ही
रीम्स्की को इससे बड़ी खुशी हुई. इस उलझन की कम से कम एक गुत्थी तो सुलझती दिखाई
दी.
“बोलो,
बोलो, जल्दी बोलो!” रीम्स्की ने इस गुत्थी का सिरा पकड़ते हुए भर्राई आवाज़ में कहा, “इस सबका क्या मतलब है?”
“माफ़ करना...” आगंतुक ने दरवाज़ा बन्द करते हुए
गहरी आवाज़ में कहा, “मैं समझा कि तुम जा चुके हो,” और वरेनूखा टोपी उतारे बिना आकर रीम्स्की के सामने वाली कुर्सी पर बैठ
गया.
वरेनूखा के जवाब में कुछ ऐसी लापरवाह विचित्रता थी जो रीम्स्की के
संवेदनशील मन में, जो दुनिया के बेहतरीन सेस्मोग्राफ से भी टक्कर ले सकता था,
चुभ गई. ऐसा क्यों? जब वरेनूखा यह समझ रहा था
कि वित्तीय डाइरेक्टर जा चुका है, तब वह उसके ऑफिस में क्यों
आया? उसका अपना कमरा भी तो है? यह हुई
पहली बात. दूसरी यह कि चाहे वह किसी भी प्रवेश-द्वार से अन्दर घुसता, किसी न किसी चौकीदार से उसका सामना हो ही जाता, उन्हें
तो आदेश दिया गया थी कि ग्रिगोरी दानिलविच कुछ और देर अपने ऑफ़िस में रुकेंगे.
मगर वह और अधिक देर इस विचित्रता के बारे में विचार नहीं कर सका. असल बात
यह नहीं थी.
“तुमने फोन क्यों नहीं किया? यह याल्टा वाली गड़बड़
क्या है?”
“वही, जो मैं कह रहा था,” हलकी-सी
कराह के साथ वरेनूखा ने कहा, मानो उसके दाँत में दर्द हो रहा
हो, “उसे पूश्किनो के शराबखाने में पाया गया.”
“पूश्किनो में? यानी मॉस्को के पास? और टेलिग्राम तो यालटा से आया था!”
कहाँ का याल्टा? कैसा याल्टा? पूश्किनो के तार मास्टर
को शराब पिला दी और दोनों मस्ती करने लगे, ‘याल्टा’ के नाम से तार भेजना भी ऐसी ही हरकत थी.”
“ओ हो...ओ हो...ठीक है, ठीक है...” रीम्स्की बोल नहीं रहा था – गा रहा था.
उसकी आँखें पीली रोशनी में चमक उठीं. आँखों के सामने बेशर्म स्त्योपा को नौकरी से
अलग करने की रंगीन तस्वीर नाच उठी. मुक्ति! लिखादेयेव नाम की इस मुसीबत से छुटकारा
पाने का सपना न जाने कब से वित्तीय डाइरेक्टर देख रहा था! शायद स्तिपान बग्दानोविच
बर्खास्तगी से भी ज़्यादा सज़ा पाए...
“खुलकर कहो!” रीम्स्की पेपरवेट से खटखट करते हुए
आगे बोला.
वरेनूखा ने खुलकर कहना आरम्भ किया. जैसे ही वह वहाँ पहुँचा, जहाँ
उसे वित्तीय डाइरेक्टर ने भेजा था, उसे फ़ौरन बिठाकर उन्होंने
ध्यान से उसकी बात सुनना आरम्भ किया. कोई भी, बेशक, यह मानने को तैयार नहीं था कि स्त्योपा याल्टा में हो सकता है. सभी ने वरेनूखा
की इस बात को मान लिया कि वह पूश्किनो स्थित ‘याल्टा’ में हो सकता है.
“मगर अभी वह कहाँ है?” परेशान वित्तीय डाइरेक्तर
ने बीच में ही उसे टोकते हुए पूछा.
“और कहाँ हो सकता है...” व्यवस्थापक ने तिरछा
मुँह करके मुस्कुराते हुए कहा, “ज़ाहिर है, जेल में!”
“अच्छा, अच्छा! ओह, धन्यवाद!”
वरेनूखा कहता रहा. जैसे-जैसे वह कहता गया, रीम्स्की की आँखों के सामने
लिखादेयेव की बेतरतीब बेहूदगियों की लड़ी खुलती गई. हर कड़ी पिछली कड़ी से ज़्यादा
बदतर. शराब पीकर पूश्किनो के टेलिग्राफ-ऑफिस के लॉन में तार बाबू के साथ डांस करना
- फ़ालतू-से हार्मोनियम की धुन पर! और हँगामा भी कैसा किया! भय से काँपती महिलाओं
के पीछे भागना! ‘याल्टा’ के
वेटर से हाथापाई! ‘याल्टा’ के
फर्श पर हरी प्याज़ बिखेर दी! सफ़ेद सूखी ‘आय दानिला’ शराब की आठ बोतलें तोड़ दीं! टैक्सी वाले का मीटर तोड़ दिया, क्योंकि उसने स्त्योपा को अपनी गाड़ी देने से इनकार कर दिया था. जिन
नागरिकों ने बीच-बचाव करना चाहा, उन्हें पुलिस के हवाले करने
की धमकी दी! सिर्फ शैतानी नाच!
स्त्योपा को मॉस्को में थियेटर से जुड़े सभी लोग जानते थे, और
सभी को मालूम था कि वह अच्छा आदमी नहीं था. मगर वह, जो
व्यवस्थापक उसके बारे में बता रहा था, वह तो स्त्योपा के लिए
भी भयानक था. हाँ, भयानक! बहुत ही भयानक...!
रीम्स्की की चुभती हुई आँखें व्यवस्थापक के चेहरे में चुभने लगीं और
जैसे-जैसे वह आगे बोलता गया, ये आँखें और उदास होने लगीं. जैसे-जैसे व्यवस्थापक की
कहानी जवान और रंगीन होती गई...वित्तीय डाइरेक्टर का उस पर से विश्वास कम होता
गया. जब वरेनूखा ने बताया कि बेहूदगी करते हुए स्त्योपा ने उन लोगों का भी मुकाबला
किया जो उसे मॉस्को वापस ले जाने आए थे, तो वित्तीय
डाइरेक्टर को पूरा विश्वास हो गया कि आधी रात को वापस आया व्यवस्थापक सरासर झूठ
बोल रहा है! सफ़ेद झूठ! शुरू से आख़िर तक सिर्फ झूठ!
न तो वरेनूखा पूश्किनो गया था और न ही स्त्योपा वहाँ था. शराब में बहका तार
भेजने वाला क्लर्क भी नहीं था; न तो शराबख़ाने में थीं टूटी बोतलें और न ही स्त्योपा को
बाँधा गया रस्सियों से...ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था.
जैसे ही वित्तीय डाइरेक्टर इस नतीजे पर पहुँचा कि व्यवस्थापक झूठ बोल रहा
है, उसके
शरीर में सिर से पैर तक भय की लहर दौड़ गई. उसे दुबारा महसूस हुआ कि दुर्गन्धयुक्त
सीलन कमरे में फैलती जा रही है. उसने व्यवस्थापक के चेहरे से एक पल को भी नज़र नहीं
हटाई, जो अपनी ही कुर्सी में टेढ़ा-मेढ़ा हुआ जा रहा था,
और लगातार कोशिश कर रहा था कि नीली रोशनी वाले लैम्प की छाया से
बाहर न आए. एक अख़बार की सहायता से वह अपने आपको इस रोशनी से बचा रहा था, मानो वह उसे बहुत तंग कर रही हो. वित्तीय डाइरेक्टर सिर्फ यह सोच रहा था
कि इस सबका मतलब क्या हो सकता है? सुनसान इमारत में इतनी देर
से आकर वह सरासर झूठ क्यों बोल रहा है? एक अनजान दहशत ने
वित्तीय डाइरेक्टर को धीरे-धीरे जकड़ लिया. रीम्स्की ने ऐसे दिखाया जैस वरेनूखा की
हरकतों पर उसका बिल्कुल ध्यान नहीं है, मगर वह उसकी कहानी का
एक भी शब्द सुने बिना सिर्फ उसके चेहरे पर नज़र गड़ाए रहा. कुछ ऐसी अजीब-सी बात थी,
जो पूश्किनो वाली झूठी कहानी से भी अधिक अविश्वसनीय थी और यह बात थी
व्यवस्थापक के चेहरे और तौर-तरीकों में परिवर्तन.
चाहे कितना ही वह अपनी टोपी का बत्तख जैसा किनारा अपने चेहरे पर खींचता रहे, जिससे
चेहरे पर छाया पड़ती रहे, या लैम्प की रोशनी से अपने आप को
बचाने की कोशिश करता रहे – मगर वित्तीय डाइरेक्टर
को उसके चेहरे के दाहिने हिस्से में नाक के पास बड़ा-सा नीला दाग दिख ही गया. इसके
अलावा हमेशा लाल दिखाई देने वाला व्यवस्थापक एकदम सफ़ेद पड़ गया था और न जाने क्यों
इस उमस भरी रात में उसकी गर्दन पर एक पुराना धारियों वाला स्कार्फ लिपटा था. साथ
ही सिसकारियाँ भरने और चटखारे लेने जैसी घृणित आदतें भी वह अपनी अनुपस्थिति के
दौरान सीख गया था; उसकी आवाज़ भी बदल गई थी, पहले से भारी और भर्राई हुई, आँखों में चोरी और भय
का अजीब मिश्रण मौजूद था – निश्चय ही इवान
सावेल्येविच वरेनूखा बदल गया था.
कुछ और भी बात थी, जो वित्तीय डाइरेक्टर को परेशान कर रही थी. वह क्या बात थी
यह अपना सुलगता दिमाग लड़ाने और लगातार वरेनूखा की ओर देखने के बाद भी वह नहीं समझ
सका. वह सिर्फ यही समझ सका कि यह कुछ ऐसी अनदेखी, अप्राकृतिक
बात थी, जो व्यवस्थापक को जानी-पहचानी जादुई कुर्सी से जोड़ती
थी.
“तो उस पर आख़िरकार काबू पा लिया, और उसे गाड़ी में डाल
दिया,” वरेनूखा की भिनभिनाहट जारी थी. वह अख़बार की ओट
से देख रहा था और अपनी हथेली से नीला निशान छिपा रहा था.
रीम्स्की ने अपना हाथ बढ़ाया और यंत्रवत् उँगलियों को टेबुल पर नचाते हुए
विद्युत घण्टी का बटन दबा दिया. उसका दिल धक् से रह गया. उस खाली इमारत में घण्टी
की तेज़ आवाज़ सुनाई देनी चाहिए थी, मगर ऐसा नहीं हुआ. घण्टी का बटन निर्जीव-सा टेबुल में
धँसता चला गया. बटन निर्जीव था और घण्टी बिगाड़ दी गई थी.
वित्तीय डाइरेक्टर की चालाकी वरेनूखा से छिप न सकी. उसने आँखों से आग
बरसाते हुए लरज़कर पूछा, “घण्टी क्यों बजा रहे हो?”
“यूँ ही बज गई,” दबी आवाज़ में वित्तीय डाइरेक्टर
ने जवाब दिया और वहाँ से अपना हाथ हटाते हुए मरियल आवाज़ में पूछ लिया, “तुम्हारे चेहरे पर यह क्या है?”
“कार फिसल गई, दरवाज़े के हैंडिल से टकरा गया,” वरेनूखा ने आँखें चुराते हुए कहा.
“झूठ! झूठ बोल रहा है!” अपने ख़यालों में वित्तीय
डाइरेक्टर बोला और उसकी आँखें फटी रह गईं, और वह कुर्सी की
पीठ से चिपक गया.
कुर्सी के पीछे, फर्श पर एक-दूसरे से उलझी दो परछाइयाँ पड़ी थीं – एक काली और मोटी, दूसरी पतली और भूरी. कुर्सी की पीठ,
और उसकी नुकीली टाँगों की परछाई साफ-साफ दिखाई दे रही थी, मगर पीठ के ऊपर वरेनूखा के सिर की परछाई नहीं थी. ठीक उसी तरह जैसे कुर्सी
की टाँगों के नीचे व्यवस्थापक के पैर नहीं थे.
“उसकी परछाईं नहीं पड़ती!” रीम्स्की अपने ख़यालों
में मग्न बदहवासी से चिल्ला पड़ा. उसका बदन काँपने लगा.
वरेनूखा ने कनखियों से देखा, रीम्स्की की बदहवासी और कुर्सी के
पीछे पड़ी उसकी नज़र देखकर वह समझ गया कि उसकी पोल खुल चुकी है.
वरेनूखा कुर्सी से उठा, वित्तीय डाइरेक्टर ने भी यही किया, और
हाथों में ब्रीफकेस कसकर पकड़े हुए मेज़ से एक कदम दूर हटा.
“पाजी ने पहचान लिया! हमेशा से ज़हीन रहा है,” गुस्से
से दाँत भींचते हुए वित्तीय डाइरेक्टर के ठीक मुँह के पास वरेनूखा बड़बड़ाया और
अचानक कुर्सी से कूदकर अंग्रेज़ी ताले की चाबी घुमा दी. वित्तीय डाइरेक्टर ने बेबसी
से देखा, वह बगीचे की ओर खुलती हुई खिड़की के निकट सरका. चाँद
की रोशनी में नहाई इस खिड़की से सटा एक नग्न लड़की का चेहरा और हाथ उसे दिखाई दिया.
लड़की खिड़की की निचली सिटकनी खोलने की कोशिश कर रही थी. ऊपरी सिटकनी खुल चुकी थी.
रीम्स्की को महसूस हुआ कि टेबुल लैम्प की रोशनी मद्धिम होती जा रही है और
टेबुल झुक रहा है. रीम्स्की को मानों बर्फीली लहर ने दबोच लिया. उसने ख़ुद को
सम्भाले रखा ताकि वह गिर न पड़े. बची हुई ताकत से वह चिल्लाने के बजाय
फुसफुसाहट के स्वर में बोला, “बचाओ...”
वरेनूखा दरवाज़े की निगरानी करते हुए उसके सामने कूद रहा था, हवा
में देर तक झूल रहा था. टेढ़ी-मेढ़ी उँगलियों से वह रीम्स्की की तरफ इशारे कर रहा था,
फुफकार रहा था, खिड़की में खड़ी लड़की को आँख मार
रहा था.
लड़की ने झट से अपना लाल बालों वाला सिर रोशनदान में घुसा दिया और जितना
सम्भव हो सका, अपने हाथ को लम्बा बनाकर खिड़की की निचली चौखट को खुरचने
लगी. उसका हाथ रबड़ की तरह लम्बा होता गया और उस पर मुर्दनी हरापन छा गया. आख़िर हरी
मुर्दनी उँगलियों ने सिटकनी का ऊपरी सिरा पकड़कर घुमा दिया, खिड़की
खुलने लगी. रीम्स्की बड़ी कमज़ोरी से चीखा, दीवार से टिककर
उसने ब्रीफकेस को अपने सामने ढाल की भाँति पकड़ लिया. वह समझ गया कि सामने मौत खड़ी
है.
खिड़की
पूरी तरह खुल गई, मगर कमरे में रात की ताज़ी हवा और लिण्डन के
वृक्षों की ख़ुशबू के स्थान पर तहख़ाने की बदबू घुस गई. मुर्दा औरत खिड़की की सिल पर
चढ़ गई. रीम्स्की ने उसके सड़ते हुए वक्ष को साफ देखा.
इसी समय मुर्गे की अकस्मात् खुशगवार बाँग बगीचे से तैरती हुए आई. यह
चाँदमारी वाली गैलरी के पीछे वाली उस निचली इमारत से आई थी, जहाँ
कार्यक्रमों के लिए पाले गए पंछी रखे थे. कलगी वाला मुर्गा चिल्लाया यह सन्देश
देते हुए कि मॉस्को में पूरब से उजाला आने वाला है.
लड़की के चेहरे पर गुस्सा छा गया, वह गुर्राई और वरेनूखा चीखते हुए,
दरवाज़े के पास हवा से फर्श पर आ गया.
मुर्गे ने फिर बाँग दी; लड़की ने अपने होंठ काटे और उसके लाल बाल खड़े हो गए. मुर्गे
की तीसरी बाँग के साथ ही वह मुड़ी और उड़कर गायब हो गई. उसके पीछे-पीछे वरेनूखा भी
कूदकर और हवा में समतल होकर, उड़ते हुए क्यूपिड के समान,
हवा में तैरते हुए धीरे-धीरे टेबुल के ऊपर से खिड़की से बाहर निकल
गया.
बर्फ से सफ़ेद बालों वाला बूढ़ा, जो कुछ ही देर पहले तक रीम्स्की था,
दरवाज़े की ओर भागा, चाबी घुमाकर, दरवाज़ा खोलकर अँधेरे गलियारे में भागने लगा. सीढ़ियों के मोड़ पर भय से
कराहते हुए उसने बिजली का बटन टटोला और सीढ़ियाँ रोशनी में नहा गईं. सीढ़ियों पर यह
काँपता हुआ बूढ़ा गिर पड़ा, क्योंकि उसे ऐसा लगा कि उस पर पीछे
से वरेनूखा ने छलाँग लगाई है.
नीचे आने पर उसने लॉबी में स्टूल पर बैठे-बैठे सो गए चौकीदार को देखा.
रीम्स्की दबे पाँव उसके निकट से गुज़रा और मुख्यद्वार से बाहर भागा. सड़क पर आकर उसे
कुछ राहत महसूस हुई. वह इतना होश में आ गया कि दोनों हाथों से सिर पकड़ने पर महसूस
कर सके कि अपनी टोपी ऑफिस में ही छोड़ आया है.
ज़ाहिर है कि वह टोपी लेने वापस नहीं गया मगर एक गहरी साँस लेकर पास के
सिनेमा हॉल के कोने पर दिखाई दे रही लाल रोशनी की तरफ भागा. एक मिनट में ही वहाँ
पहुँच गया. कोई भी कार रोक नहीं रहा था.
“लेनिनग्राद वाली गाड़ी पर चलो, चाय के लिए दूँगा!” भारी-भारी साँस लेते हुए दिल पकड़कर बूढ़ा बोला.
“गैरेज जा रहा हूँ...” तुच्छता से ड्राइवर बोला
और उसने गाड़ी मोड़ ली.
तब रीम्स्की ने ब्रीफकेस खोलकर पचास रूबल का नोट निकाला और ड्राइवर के
सामने वाली खिड़की के पास नचाया.
कुछ ही क्षणों में गरगराहट के साथ कार बिजली की तरह सदोवया रिंग रोड पर लपक
पड़ी. बूढ़ा सीट पर सिर टिकाकर बैठ गया और ड्राइवर के निकट के शीशे में रीम्स्की ने
देखी ड्राइवर की प्रसन्न चितवन और अपनी बदहवास नज़र.
स्टेशन की इमारत के सामने कार से कूदकर रीम्स्की ने जो सामने पड़ा उस सफ़ेद
ड्रेस वाले आदमी से चिल्लाकर कहा, “फर्स्ट क्लास! एक! तीस दूँगा!” – उसने ब्रीफकेस से नोट निकाले, “प्रथम श्रेणी का,
नहीं तो दूसरे दर्जे का दो! वह भी नहीं तो ऑर्डिनरी दो!”
उस आदमी ने चमकती हुई घड़ी पर नज़र दौड़ाकर रीम्स्की के हाथ से नोट खींच लिए.
ठीक पाँच मिनट बाद स्टेशन के शीशा जड़े गुम्बद के नीचे से लेनिनग्राद वाली
गाड़ी निकली और अँधेरे में खो गई. उसी के साथ रीम्स्की भी खो गया.
पंद्रह
निकानोर इवानविच का सपना
यह अन्दाज़ लगाना मुश्किल नहीं है लाल चेहरे वाला मोटा, जिसे
अस्पताल के कमरा नं. 119 में लाया गया था, निकानोर इवानविच
बसोय था.
मगर उसे प्रोफेसर स्त्राविन्स्की के पास एकदम नहीं लाया गया, बल्कि
कुछ देर कहीं और रखने के बाद उसे यहाँ भेजा गया था.
इस दूसरी जगह के बारे में निकानोर इवानविच बहुत कम याद रख सका. उसे सिर्फ
मेज़, अलमारी
और सोफ़े की ही याद थी.
निकानोर इवानविच को अपनी आँखों के आगे रक्त-दाब और मानसिक उत्तेजना के कारण
सब कुछ धुँधला नज़र आ रहा था. जब वहाँ उससे बातचीत शुरू की गई तो काफ़ी विचित्र, उलझी,
नहीं के बराबर बातें हो पाईं.
पहला ही सवाल, जो उससे पूछा गया, वह था – “आप निकानोर इवानविच बसोय, सदोवया पर बिल्डिंग नं.
302 बी. की हाउसिंग सोसाइटी के प्रेसिडेण्ट हैं?”
इस पर निकानोर इवानविच ने बड़ी भयानक हँसी के साथ जवाब दिया :
“मैं निकानोर हूँ, बेशक, निकानोर!
मगर मैं प्रेसिडेण्ट कहाँ से हो गया!”
“क्या मतलब?” आँखें सिकोड़कर निकानोर इवानविच से
पूछा गया.
“मतलब यह...” वह बोला, “कि अगर मैं प्रेसिडेण्ट हूँ तो मुझे फौरन समझ लेना चाहिए था कि वह एक
दुष्ट शक्ति है! वर्ना यह सब क्या है? चश्मा टूटा हुआ...चीथडों
में लिपटा हुआ...वह किसी विदेशी का अनुवादक कैसे हो सकता है?”
“किसके बारे में बात कर रहे हैं?” निकानोर इवानविच
से पूछा गया.
“करोव्येव !” निकानोर इवानविच चिल्लाया, “हमारी बिल्डिंग के पचास नम्बर के फ्लैट में घुस गया है. लिखिए: करोव्येव !
उसे फ़ौरन पकड़ना होगा. लिखिए: छठा प्रवेश द्वार. वहीं वह है.”
“डॉलर्स कहाँ से लिए?” बड़े प्यार से निकानोर इवानविच
से पूछा गया.
“सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी परमेश्वर,” निकानोर इवानविच बोला, “सब देखता है, और मुझे भी वहीं जाना है. मैंने डॉलर्स कभी छुए भी नहीं और मुझे कोई शक भी
नहीं हुआ कि ये कैसे नोट हैं! अगर मैंने गुनाह किया है तो भगवान मुझे सज़ा देगा.” कभी अपनी शर्ट खींचते हुए, कभी ढीली करते हुए,
कभी सलीब का निशान बनाते हुए भावपूर्ण स्वर में निकानोर इवानविच
कहता गया, “लिये! लिये, मगर हमारे
सोवियत नोट लिये! लेकर दस्तख़त भी किये. बहस नहीं करता; हमारा
सेक्रेटरी प्रलेझ्नेव भी अच्छा आदमी है, बहुत अच्छा है! मैं
खुल्लम-खुल्ला कहता हूँ कि हाउसिंग सोसाइटी में सब चोर हैं. मगर डॉलर्स मैंने नहीं
लिए!”
जब उससे कहा गया कि बेवकूफ़ होने का ढोंग न करो और सीधे-सीधे बताओ कि बाथरूम
के रोशनदान में डॉलर्स कहाँ से आए तो निकानोर इवानविच घुटनों के बल बैठकर, मुँह
खोलकर आगे-पीछे डोलने लगा, मानो लकड़ी के फर्श की पट्टियाँ
निगलना चाहता हो.
“अगर आप कहें तो...” वह मिमियाया, “मैं मिट्टी खाने के लिए तैयार हूँ, यह साबित करने के
लिए कि मैंने डॉलर्स नहीं लिए? और करोव्येव, वह तो शैतान है!”
बर्दाश्त करने की भी एक हद होती है. पूछताछ करने वालों ने अब अपनी आवाज़
ऊँची कर ली थी. वे चेतावनी दे रहे थे कि अब वक़्त आ गया है कि निकानोर इवानविच आदमी
की ज़बान में बात करे.
तभी कमरा निकानोर इवानविच की डरी हुई आवाज़ से गूँज उठा, जो
उछलकर खड़ा हो गया था, “देखो, देखो
वहाँ है! अलमारी के पीछे! देखो, कैसे मुँह चिढ़ा रहा है! उसका
चश्मा...पकड़ो! कमरे में पाक पानी छिड़को!”
निकानोर इवानविच का चेहरा फक् हो गया था, काँपते हुए वह हवा में सलीब का निशान
बना रहा था. दरवाज़े की तरफ भागकर वापस आ रहा था, कोई
प्रार्थना बुदबुदा रहा था और अंत में सिर्फ अनाप-शनाप बकने लगा.
ज़ाहिर था कि निकानोर इवानविच बात करने लायक नहीं रह गया था. उसे एक अलग
कमरे में बिठा दिया गया, जहाँ वह थोड़ा शांत हो गया. अब वह सिर्फ प्रार्थना कर रहा
था और बीच-बीच में सिसकियाँ ले रहा था.
सदोवया रास्ते पर फ्लैट नं. 50 में एक टीम भेजी गई, मगर
वहाँ न तो कोई करोव्येव मिला, न ही कोई करोव्येव को जानने वाला.
वह फ्लैट जहाँ मृतक बेर्लिओज़ और याल्टा जाने वाला लिखादेयेव रहते थे, एकदम खाली था. कमरे की अलमारियों को सील कर दिया गया था और उन पर मोम की
मुहर चुपचाप बैठी थी. यह सब देखकर सदोवया से वापस आ गए. उनके साथ ही बिल्डिंग से
निकला परेशान, हैरान प्रलेझ्नेव जो हाउसिंग सोसाइटी का
सेक्रेटरी था.
शाम को निकानोर इवानविच को स्त्राविन्स्की के अस्पताल में लाया गया. वहाँ
उसने इतनी गड़बड़ की कि स्त्राविन्स्की की आज्ञानुसार उसे नींद का इंजेक्शन देना
पड़ा. आधी रात के बाद निकानोर इवानविच की आँख लगी. वह 119 नं. के कमरे में सो रहा
था और बीच-बीच में कराह रहा था.
धीरे-धीरे उसकी नींद गहरी होती गई. उसने करवटें बदलना और कराहना बन्द कर
दिया. उसकी साँस एक लय में चलने लगी; तब उसे कमरे में अकेला छोड़ दिया गया.
निकानोर इवानविच ने सपना देखा, जो निःसन्देह उसकी आज की मुसीबतों से
जुड़ा हुआ था. उसने देखा कि सुनहरे बिगुल लिए कुछ लोग उसे पकड़कर समारोहपूर्वक एक
चमचमाते भव्य द्वार की ओर ले जा रहे हैं. इस द्वार तक आकर उसके साथ आए लोगों ने
मानो उसके सम्मान में स्वागत गीत बजाना शुरू किया. तभी आकाशवाणी हुई:
“स्वागत है, निकानोर इवानविच! लाइए डॉलर्स दीजिए!”
अचम्भे से निकानोर इवानविच ने ऊपर देखा, वहाँ काले रंग का लाऊडस्पीकर लगा था.
फिर न जाने कैसे वह एक थियेटर में आ गया, जहाँ सुनहरी छत से शानदार झुंबर लटके
हुए थे और दीवारों पर ख़ूबसूरत दिये जड़े थे. सब कुछ वैसा ही था जैसा एक शानदार
छोटे-से थियेटर में होता है. स्टेज पर मखमली परदा था, गहरे
बैंगनी लाल रंग का, सुनहरे सितारे जड़ा हुआ, प्रोम्प्टिंग बॉक्स था, दर्शक भी थे.
निकानोर इवानविच को यह देखकर थोड़ा अचरज हुआ कि दर्शकों में सभी केवल पुरुष
थे. वे भी दाढ़ी वाले. इस बात का भी उसे आश्चर्य हुआ कि वहाँ कुर्सियाँ नहीं थीं, सभी
फर्श पर बैठे हुए थे; फर्श बढ़िया पॉलिश किया हुआ, चिकना था.
इस नए वातावरण की हिचक को मिटाकर निकानोर इवानविच भी औरों की तरह एक लाल
दाढ़ी वाले मोटे और एक पीत वर्ण, बेढब नागरिक के बीच ज़मीन पर बैठ गया. किसी ने भी आगंतुक की
ओर ध्यान नहीं दिया.
तभी घण्टी की मन्द आवाज़ सुनाई पड़ी, हॉल की रोशनी गुल हो गई, परदा खुल गया और स्टेज पर दिखाई पड़ी एक मेज़ और एक कुर्सी. मेज़ पर रखी थी
सुनहरी घण्टी. पृष्ठभूमि में काला मखमल जड़ा था.
पार्श्व वीथि से चिकने और करीने से सँवारे बालों वाला एक युवा, सुदर्शन
कलाकार आया. हॉल में बैठे दर्शकों में हलचल मच गई और सभी स्टेज की तरफ देखने लगे.
कलाकार बॉक्स की तरफ बढ़ा और हाथ मलने लगा.
“बैठे हैं?” मधुर, भारी
स्वर में उसने मुस्कुरा कर दर्शकों से पूछा.
“बैठे हैं, बैठे हैं...” अनेक
मोटी, पतली आवाज़ों के समूह ने जवाब दिया.
“हुँ...” कलाकार ने सोचने के-से अन्दाज़ में कहा, “आप कितने उकता चुके हैं, क्या मैं नहीं जानता! दूसरे
लोग सड़कों पर घूमते हैं, मौजमस्ती करते हैं, बसंत के सूरज का आनन्द लेते हैं और आप यहाँ उमस भरे हॉल में ज़मीन पर पड़े
हैं! क्या कार्यक्रम इतना दिलचस्प है? ख़ैर, अपनी-अपनी पसन्द का सवाल है,” कलाकार ने
दार्शनिक अन्दाज़ में कहा.
तत्पश्चात् उसने अपना स्वर और लहज़ा बदलकर खुशनुमा ऊँची आवाज़ में कहा, “तो, कार्यक्रम के अगले कलाकार हैं – निकानोर इवानविच बसोय, हाउसिंग सोसाइटी के
प्रेसिडेण्ट और संतुलित आहार वाले भोजनालय के प्रमुख. निकानोर इवानविच, आइए!”
भीड़ ने तालियाँ बजाईं. चकित निकानोर इवानविच ने आँखें फाड़कर चारों ओर नज़र
दौड़ाई, जबकि सूत्रधार ने अपने चेहरे पर पड़ती हुई रोशनी को हाथों
से रोकते हुए हॉल में बैठे निकानोर इवानविच को ढूँढ निकाला और उँगली के इशारे से
उसे स्टेज पर आने के लिए कहा. निकानोर इवानविच समझ नहीं पाया कि वह कैसे स्टेज पर
पहुँच गया.
उसकी आँखें स्टेज के सामने और नीचे से आती हुई रोशनी से चौंधिया गईं; जिससे
सामने बैठे दर्शक अंधकार में डूब गए.
“तो निकानोर इवानविच, एक उदाहरण प्रस्तुत कीजिए,” बड़े प्यार से युवा कलाकार ने कहा, “और डॉलर्स
निकालिए.”
एकदम ख़ामोशी छा गई. निकानोर इवानविच ने गहरी साँस लेकर धीमी आवाज़ में कहा, “भगवान की कसम...”
मगर उसके आगे कुछ कहने से पहले ही हॉल में “हाय...हाय...” के नारे लगने लगे. निकानोर इवानविच परेशान होकर चुप हो गया.
“जहाँ तक मैं समझ सका हूँ...” सूत्रधार ने कहा, “आप भगवान की कसम खाकर यह कहना चाहते थे कि आपके पास डॉलर्स नहीं हैं?” और उसने सहानुभूति से निकानोर इवानविच की ओर देखा.
“बिल्कुल ठीक, मेरे पास नहीं हैं...” निकानोर इवानविच ने जवाब दिया.
“तो फिर...” कलाकार ने पूछा, “माफ़ करना, उस फ्लैट के शौचालय में 400 डॉलर्स कहाँ
से आए, जिसमें सिर्फ आप अपनी पत्नी के साथ रहते हैं?”
“जादुई होंगे!” अँधेरे हॉल में किसी ने
व्यंग्यपूर्ण फिकरा कसा.
“बिल्कुल ठीक...जादुई ही थे,” बड़ी नम्रता से
निकानोर इवानविच ने शायद अँधेरे हॉल या पब्लिक को सम्बोधित करते हुए कहा, “शैतानी ताकत, चौख़ाने वाली कमीज़ पहने अनुवादक ने
उन्हें फेंका है.”
हॉल में फिर अप्रसन्न चीखें गूँज उठीं. जब आवाज़ें कुछ ख़ामोश हुईं तो कलाकार
ने कहा, “देखिए कैसी-कैसी लाफोन्तेन की कहानियाँ मुझे सुननी
पड़ती हैं. 400 डॉलर्स फेंक कर गया! लीजिए सा’ब: आप सब यहाँ
डॉलर वाले हैं! मैं आपसे पूछता हूँ – क्या इस बात
पर यक़ीन किया जा सकता है?”
“हमारे पास कोई डॉलर-वॉलर नहीं हैं,” हॉल में से
कुछ आहत स्वर सुनाई दिए, “मगर इस बात पर कोई विश्वास
नहीं करेगा.”
“मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ,” कलाकार ने ज़ोर
देकर कहा, “और मैं आपसे पूछता हूँ; कौन-सी चीज़ फेंकी जा सकती है?”
“बच्चा! हॉल में कोई चिल्लाया.
“बिल्कुल ठीक,” सूत्रधार ने कहा, “बच्चा, गुमनाम ख़त, इश्तेहार,
वगैरह...वगैरह, मगर चार सौ डॉलर्स कोई नहीं
फेंकेगा, क्योंकि दुनिया में ऐसा बेवकूफ कोई नहीं है,” निकानोर इवानविच की ओर देखकर सूत्रधार ने मायूसी और उलाहने के साथ कहा, “आपने मुझे दुःख पहुँचाया है निकानोर इवानविच! मुझे आप पर काफ़ी भरोसा था.
तो यह बात कुछ जमी नहीं.”
हॉल में निकानोर इवानविच की ओर देखकर सीटियाँ बजने लगीं.
“डॉलर्स हैं उसके पास,” हॉल में कई आवाज़ें
गूँजीं, “ऐसे ही लोगों के कारण ईमानदार भी मारे जाते
हैं.”
“उस पर गुस्सा मत उतारिए,” सूत्रधार ने नर्मी से
कहा, “वह मान जाएगा,” और
निकानोर इवानविच की ओर अपनी नीली, आँसू भरी आँखों से देखते
हुए आगे बोला, “तो, निकानोर इवानविच,
जाइए अपनी जगह.”
इसके बाद सूत्रधार ने घण्टी बजाकर कहा, “मध्यांतर, बदमाशों!”
परेशान निकानोर इवानविच, जो अप्रत्याशित रूप से इस कार्यक्रम का हिस्सा बन गया था,
न जाने कैसे वापस अपनी जगह फर्श पर पहुँच गया. उसने देखा कि हॉल में
पूरी तरह अँधेरा छा गया है, दीवारों पर उछल-उछलकर लाल चमकीले
अक्षर आने लगे : ‘डॉलर्स दो!’
इसके बाद फिर परदा खुल गया और सूत्रधार ने कहा, “सिर्गेइ गिरार्दविच दुंचिल से निवेदन है कि वे स्टेज पर आएँ.”
दुंचिल एक सहृदय, मगर कुछ बीमार-सा, लगभग पचास वर्ष का
व्यक्ति था.
सिर्गेइ गिरार्दविच,” सूत्रधार उससे मुख़ातिब हुआ, “आप यहाँ डेढ़ महीने से हैं, मगर बचे हुए डॉलर्स देने
से फिर भी इनकार किए जा रहे हैं, जबकि देश को विदेशी मुद्रा
की इतनी ज़रूरत है और वह आपके किसी काम की नहीं है. फिर भी आप अपनी ज़िद पर अड़े हुए
हैं. आप तो समझदार हैं. सब कुछ जानते हैं. फिर भी मेरे पास नहीं आ रहे.”
“मुझे अफसोस है कि मैं इस बारे में कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि मेरे पास अब डॉलर्स हैं ही नहीं,” दुंचिल
ने इत्मीनान से कहा.
“कम से कम जवाहरात तो होंगे?” कलाकार ने पूछा.
“जवाहरात भी नहीं हैं.”
कलाकार ने सिर झुकाया और कुछ सोचने के बाद उसने ताली बजाई. पार्श्व से एक
अधेड़ उम्र की औरत फ़ैशनेबल कपड़े पहने आई. उसके कोट में कॉलर नहीं थी और टोपी सुन्दर, बुनी
हुई थी. औरत कुछ उत्तेजित लग रही थी, मगर दुंचिल ने
निर्विकार भाव से उसकी ओर देखा.
“यह महिला कौन है?” सूत्रधार ने दुंचिल से पूछा.
“यह मेरी बावी है,” दुंचिल ने गरिमापूर्वक कहा
और कुछ हिकारत से बीवी की लम्बी गर्दन की ओर देखा.
“माफ़ कीजिए मैडम दुंचिल, हमने आपको तकलीफ़ दी,” सूत्रधार ने महिला से कहा, “बात यह है कि हम
आपसे पूछना चाहते थे कि क्या आपके पति के पास और भी डॉलर्स हैं?”
“उसने तभी सब कुछ दे दिया था,” कुछ परेशान होते
हुए मैडम दुंचिल ने कहा.
“अगर ऐसी बात है,” सूत्रधार ने कहा, “तो ऐसा ही सही. अगर सब कुछ दे दिया था तो हमें फौरन सिर्गेइ गिरार्दविच से
बिदा लेनी होगी, क्या करें! सिर्गेइ गिरार्दविच, आप चाहें तो थियेटर से बाहर जा सकते हैं...” सूत्रधार
ने शानदार अभिवादन किया.
दुंचिल
बड़ी शान से मुड़ा और पार्श्व की ओर जाने लगा.
“एक मिनट!” सूत्रधार ने उसे रोकते हुए कहा, “जाते-जाते हमारे कार्यक्रम का एक और आइटम दिखाने की इजाज़त दीजिए,” और उसने दुबारा ताली बजाई.
पिछला काला पर्दा हठा और स्टेज पर एक जवान सुन्दर लड़की नृत्य की पोशाक पहने, हाथों
में सुनहरी ट्रे पकड़े बाहर निकली. ट्रे में एक मोटी गड्डी रिबन से बँधी हुई तथा
हीरों का नेकलेस था, जिसमें से चारों दिशाओं में नीली,
पीली और लाल लपटें निकल रही थीं.
दुंचिल एक कदम पीछे हटा और उसका चेहरा पीला पड़ गया. हॉल में स्तब्धता छा
गई.
“अठारह हज़ार डॉलर्स और चालीस हज़ार स्वर्ण मुद्राओं का नेकलेस,” कलाकार ने विजयी मुद्रा में कहा, “छुपा रखे थे सिर्गेइ
गिरार्दविच ने खारकोव शहर में अपनी मेहबूबा इडा गिर्कुलानव्ना वोर्स के क्वार्टर
में, जिसे देखने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ और जो बड़ी ख़ुशी
से इस बेशकीमती, मगर एक व्यक्ति के लिए निरर्थक ख़ज़ाने को
यहाँ ले आई. बहुत-बहुत धन्यवाद, इडा गिर्कुलानव्ना!”
सुन्दरी ने मुस्कुराते हुए अपने चमकीले दाँत दिखा दिए. उसकी मखमली पलकें
थरथरा उठीं.
सूत्रधार ने दुंचिल से कहा, “और आपके गरिमायुक्त नक़ाब के
पीछे छिपी है एक लालची मकड़ी, एक ख़तरनाक धोखेबाज़ और झूठा. आप
अपनी ज़िद से सबको डेढ़ महीने तक परेशान करते रहे. अब आप सीधे घर जाइए और वहाँ जो
नरक आपकी पत्नी आपके लिए बनाएगी, वही आपकी सज़ा है.”
दुंचिल लड़खड़ाकर गिरने ही वाला था कि किसी के मज़बूत हाथों ने उसे थाम लिया.
तभी सामने के परदे की घरघराहट सुनाई दी और सभी उसके पीछे छिप गए.
उन्मत्त तालियों ने हॉल को इस कदर हिला दिया कि निकानोर इवानविच को झुंबरों
में लौ उछलती प्रतीत हुई, और जब सामने का काला परदा हटा तो स्टेज पर सिवाय सूत्रधार
के और कोई नहीं था. उसने तालियों के दूसरे दौर को रोकते हुए अभिवादन किया और बोलना
शुरू किया, “दुंचिल की शक्ल में आपके सामने एक ख़ास तरह
के गधे ने अभिनय किया था. मैंने आपसे कल ही कह दिया था कि विदेशी मुद्रा को छिपाने
से कोई फ़ायदा नहीं है. उसका उपयोग कोई भी कभी नहीं कर सकता, मैं
दावे के साथ कहता हूँ. अब इस दुंचिल को ही लीजिए. उसे मोटी तनख़्वाह मिलती है,
किसी चीज़ की ज़रूरत भी नहीं है. उसके पास बढ़िया फ्लैट है, बीबी है, सुन्दर-सी महबूबा भी है. तो फिर, बजाय चैन से रहने के इस शैतान ने हीरे-जवाहरात और डॉलर्स छुपाए. नतीजा
क्या हुआ? सबके सामने पोल खुल गई. और साथ ही पारिवारिक
कड़वाहट भी मोल ली. तो, और कौन देना चाहता है? कोई है? तो अब प्रोग्राम का अगला आइटम है पूश्किन के ‘कंजूस ज़मींदार’ के कुछ अंशों का मंचन. पेश कर
रहे हैं प्रसिद्ध ड्रामा आर्टिस्ट कुरालेसव साव्वा पतापविच, जिन्हें
हमने ख़ास तौर से यहाँ बुलाया है.”
हट्टा-कट्टा, मोटा, चिकने चेहरे का आदमी कुरालेसव,
लम्बा कोट और सफ़ेद टाई पहने फ़ौरन रंगमंच पर आ गया.
बिना किसी भूमिका के उसने उदास चेहरे को ख़ास अन्दाज़ देकर भवें सिकोड़ीं और
सुनहरी घण्टी की ओर कनखियों से देखते हुए कृत्रिम आवाज़ में बोला, “जैसे एक मनचला नौजवान आँखमिचौली खेलती व्यभिचारिणी से मिलने की राह देखता
है...”
और कुरालेसव ने अपने बारे में काफी
बुरी बातें बताईं. निकानोर इवानविच सुनता रहा कि कैसे एक अभागी विधवा मूसलाधार
बारिश में उसके सामने घुटने टेके रोती रही, मगर कुरालेसव का दिल न पसीजा. निकानोर इवानविच सपना देखने तक
पूश्किन की रचनाओं के बारे में कुछ भी नहीं जानता था मगर पूश्किन को भली-भाँति
जानता था और लगभग रोज़ ही वह इस तरह की बातें कहता था, जैसे: “और क्या क्वार्टर का किराया पूश्किन देगा? या “सीढ़ियों पर लगा बल्ब शायद पूश्किन ने उतारा है?”, “मिट्टी का तेल, शायद, पूश्किन
ख़रीदेगा?”
मगर अब पूश्किन की एक रचना से परिचित होने के बाद निकानोर इवानविच उदास हो
गया. उसकी आँखों के सामने बारिश में भीगती, अपने अनाथ बच्चों के साथ घुटने टेकती
महिला का चित्र तैर गया. उसके दिल में आया: ‘कमाल की
चीज़ है यह कुरालेसव भी!’
और वह, ऊँची आवाज़ में अपने दोष स्वीकार कर पछताता रहा. आख़िर में
उसने निकानोर इवानविच को बुरी तरह बौखला दिया, क्योंकि वह
अचानक किसी ऐसे व्यक्ति से बातें करने लगा जो रंगमंच पर था ही नहीं. उस व्यक्ति के
जवाब में भी खुद ही बोलने लगा. वह स्वयँ को कभी ‘सम्राट’,
तो कभी ‘सामंत’; कभी ‘पिता’, तो कभी ‘पुत्र’;
कभी ‘आप’ और
कभी ‘तुम’ से सम्बोधित करता
रहा.
निकानोर
इवानविच सिर्फ एक ही बात समझ पाया कि कलाकार बहुत बुरी मौत मरा. उसके अंतिम शब्द
थे: “चाबियाँ! मेरी चाबियाँ!” इसके वह फर्श पर गिर पड़ा. भर्राई हुई आवाज़ में रोते हुए उसने सावधानी से
अपनी टाई निकाल दी.
मरने के बाद कुरालेसव उठा. अपने
कपड़ों से धूल झाड़ते हुए उसने दर्शकों का अभिवादन किया, और
एक कृत्रिम हँसी के साथ हल्की तालियों के बीच धीरे-धीरे दूर हटता गया.
सूत्रधार बोला, “अभी हमने साव्वा पतापविच की शानदारी अदाकारी में ‘कंजूस ज़मींदार’ देखा. इस ज़मींदार को आशा थी,
कि उसके पास अप्सराएँ दौड़ी हुई आएँगी और कुछ सुखद चमत्कार होंगे.
मगर, जैसा कि आपने देखा, ऐसा कुछ भी
नहीं हुआ. न तो अप्सराएँ आईं, न कवियों ने उसकी प्रशंसा में
गीत लिखे; न ही उसके लिए कोई स्मारक बना; उल्टे वह बड़ी दर्दनाक मौत मरा – दिल के
दौरे से, अपने सन्दूक के ऊपर, जो
डॉलर्स और हीरे-जवाहरातों से भरा था, वह नरक में गया. मैं
चेतावनी देता हूँ कि यदि आपने भी डॉलर्स वापस न किए तो आपका भी यही हश्र होगा!” न जाने यह पूश्किन की कविता का असर था, या सूत्रधार
के भाषण का, मगर हॉल में से एक लजीली आवाज़ सुनाई दी, “मैं डॉलर्स देता हूँ.”
“कृपया, मेहेरबानी करके स्टेज पर आइए!” सूत्रधार ने अँधेरे हॉल को गौर से देखते हुए आदर से कहा.
और रंगमंच पर दिखाई दिया सफ़ेद बालों वाला नाटा आदमी, जिसके
चेहरे को देखकर लगता था कि उसने क़रीब तीन हफ़्तों से दाढ़ी नहीं बनाई थी.
“माफ कीजिए, अपना नाम बताएँगे?” सूत्रधार ने पूछा.
“कनाव्किन निकालाई!” आगंतुक ने शर्माते हुए कहा.
“ओह! बड़ी ख़ुशी हुई नागरिक कनाव्किन, तो फिर?”
‘देता हूँ,” कनाव्किन ने हौले से कहा.
“कितना?”
“एक हज़ार डॉलर्स और दस रूबल वाली 20 सोने की मुद्राएँ.”
“शाबाश! यानी सब कुछ, जो आपके पास है?”
सूत्रधार ने सीधे कनाव्किन की आँखों में देखा. निकानोर इवानविच को महसूस
हुआ मानो इन आँखों से कनाव्किन के जिस्म के आर-पार जाने वाली किरणें निकल रही हैं, जैसे
एक्स-रे किरणें होती हैं. हॉल में लोग साँस लेना भूल गए.
“मुझे विश्वास है!” आख़िरकार सूत्रधार ने कहा और
अपनी नज़र हटा ली, “पूरा विश्वास है! ये आँखें झूठ नहीं
बोल रही. मैं आपको कितनी बार बता चुका हूँ कि आप सबसे बड़ी गलती यह करते हैं कि
आदमी की आँखों का महत्त्व नहीं समझते. याद रखिए, ज़बान झूठ
बोल सकती है, मगर आँखें – कभी
नहीं! जब आपसे अचानक कोई अनपेक्षित सवाल पूछा जाता है, तो आप
ज़रा भी विचलित नहीं होते, एक सेकंड में अपने आप पर काबू पा
लेते हैं; सच को छिपाने के लिए क्या कहना है यह सोच लेते हैं;
जवाब बड़े आत्मविश्वास के साथ देते हैं; आपके
चेहरे की एक भी लकीर थरथराती नहीं – मगर, अफ़सोस, इस एक सवाल ने आपके अंतर्मन में जो उथल-पुथल
मचा दी थी, वह उछलकर आँखों तक आ जाती है. बस, फिर सब ख़त्म! आँखें भेद खोल देती हैं और आप पकड़े जाते हैं!”
इतना बड़ा भाषण, इतने जोश से देने के बाद सूत्रधार ने बड़े प्यार से
कनाव्किन से पूछा, “कहाँ छिपा रखे हैं?”
“मेरी बुआ पराखाव्निकोवा के पास, प्रिचिस्तेन्का
में...”
“ओह! कहीं...ठहरो...क्लाव्दिया इलीनिच्ना के पास तो नहीं?”
“हाँ!”
“अच्छा, हाँ, हाँ, हाँ! छोटा-सा घर? सामने नन्हा-सा बगीचा? मालूम है, मालूम है! वहाँ कहाँ छिपा दिया?”
“कबाड़खाने में, एनिमा के डिब्बे में...”
सूत्रधार ने अपने हाथ जोड़ लिए.
“ऐसी बात कहीं देखी है?” उसने क्षोभ से कहा, “वहाँ उन्हें सीलन लग जाएगी, फफूँद खा जाएगी! क्या
ऐसे लोगों के हाथों में डॉलर्स देने चाहिए? हूँ? बिल्कुल बच्चों जैसी हरकत...हे भगवान!”
कनाव्किन ख़ुद भी समझ गया था कि उसने भद्दी हरकत की है, जिसके
लिए उसे सज़ा मिली है. उसने अपना सिर नीचे झुका लिया.
“पैसे,” सूत्रधार ने आगे कहा, “सरकारी बैंक में रखने चाहिए, ख़ासतौर से बनाए गए सूखे
और सुरक्षित कमरों में, बुआ के कबाड़खाने में तो कभी भी नहीं.
वहाँ उन्हें चूहे खा जाएँगे, कनाव्किन! आप तो बड़े आदमी हैं.”
कनाव्किन समझ नहीं पा रहा था कि वह अपने आपको कहाँ छुपाए, वह
कोट की कॉलर से खेलता रहा.
“ख़ैर!” सूत्रधार कुछ नरम पड़ा, “जो अपनी पुरानी आदतें छोड़ दे...” और फिर एकदम
बोला, “हाँ, ताकि एक ही बार में,
ताकि हमें वहाँ कार दुबारा न ले जाना पड़े...इस बुआ के पास अपने भी
डॉलर्स हैं? हाँ?”
कनाव्किन को उम्मीद नहीं थी कि बात ऐसे पलटा खा जाएगी, वह
काँप गया. थियेटर में ख़ामोशी छा गई.
“ऐ कनाव्किन,” बड़े ही प्यरा से सूत्रधार ने कहा, “मैंने तो इसकी तारीफ़ की थी. इसने तो बेकार में बात उलझा दी! यह अच्छी बात
नहीं है, कनाव्किन! मैंने अभी-अभी आँखों के बारे में कहा था.
मुझे यक़ीन है कि बुआ के पास हैं. तो फिर हमें बेकार में क्यों घुमा रहे हैं?”
“हैं!” कनाव्किन फट पड़ा.
“शाबाश!” सूत्रधार चिल्लाया.
“शाबाश!” हॉल गरज उठा.
जब तालियाँ कुछ थमीं, तो सूत्रधार ने कनाव्किन को मुबारकबाद दी, उससे हाथ मिलाया, उसे कार में घर पहुँचाने का
प्रस्ताव रखा और एक अन्य व्यक्ति को आज्ञा दी कि उसी कार में बुआजी को कार्यक्रम
के लिए महिला थियेटर ले आए.
“हाँ, मैं पूछने वाला था, क्या
बुआजी ने यह नहीं बताया कि अपने डॉलर्स कहाँ छिपा रखे हैं?” सूत्रधार ने कनाव्किन को सिगरेट और उसे जलाने के लिए माचिस की जलती हुई
तीली पेश करते हुए कहा. वह कश खींचते हुए मायूसी से मुस्कुराया.
“मानता हूँ, मानता हूँ,” गहरी
साँस लेकर कलाकार बोला, “वह बुढ़िया भतीजे तो क्या शैतान
को भी नहीं बताएगी! चलो, उसके दिल में मानवीय भावनाओं को जगाने
की कोशिश करें. शायद उसके दिल के सभी तारों में ज़ंग न लगी हो. अच्छा, कनाव्किन, भगवान आपको ख़ुश रखे!”
कनाव्किन ख़ुश होकर चला गया. सूत्रधार ने फिर पूछा कि क्या कोई और डॉलर्स
देना चाहता है? मगर इस बार हॉल में ख़ामोशी छाई रही.
“हे भगवान, अजीब बात है!” सूत्रधार
ने कन्धे उचकाकर कहा और परदे ने उसे छुपा दिया.
रोशनी बुझ गई, कुछ देर तक अँधेरा छाया रहा और दूर अँधेरे में कहीं से
मायूस स्वर सुनाई दिया:
सोने के ढेर पड़े हैं वहाँ, और वे सब हैं मेरे यहाँ
फिर कहीं से दो बार तालियाँ सुनाई दीं.
“महिला थियेटर में कोई महिला डॉलर्स दे रही है,” अचानक निकानोर इवानविच की बगल में बैठा लाल दाढ़ी वाला बोल पड़ा और गहरी
साँस लेकर आगे बोला, “ओह, अगर
मेरे पास हंस न होते! भले आदमी, मेरे पास लिआनोज़व के लड़ाकू
हंस हैं. मेरे बगैर वे मर जाएँगे. पंछी नाज़ुक है, लड़ाकू है,
उड़ना चाहता है...ओह, काश हंस न होते! पूश्किन
की बात से मुझे कोई बहला नहीं सकता,” उसने फिर गहरी
साँस ली.
तभी हॉल रोशनी में नहा उठा. निकानोर इवानविच को सपना आया मानो हॉल के सभी
दरवाज़ों से सफ़ेद कपड़े पहने, हाथों में कड़छियाँ लिए रसोइए अन्दर आ रहे हैं. उन्होंने
सूप का बर्तन और काली ब्रेड की बड़ी-सी ट्रे अन्दर घसीटी. दर्शकों में ख़ुशी की लहर
दौड़ गई. रसोइए बड़ी फुर्ती से थियेटर में घूम-घूमकर ब्रेड के साथ डोंगों में सूप
डालकर दर्शकों को दे रहे थे.
“खाओ, भाइयों!” वे चिल्ला
रहे थे, “और छिपाए हुए डॉलर्स दे दो. बेकार में यहाँ
क्यों बैठे हो? इस फालतू खाने को कौन खाना चाहेगा. घर जाओ और
पियो-खाओ!”
“तुम, चाचा यहाँ क्यों बैठे हो?” निकानोर इवानविच से मुखातिब होकर लाल गर्दन वाला एक मोटा रसोइया उसे सूप
का डोंगा थमाते हुए पूछ बैठा, जिसमें इकलौता गोभी का पत्ता
तैर रहा था.
“नहीं! नहीं! मेरे पास नहीं हैं!” बड़ी भयानक
आवाज़ में निकानोर इवानविच ने जवाब दिया, “बात को समझो,
सच में नहीं हैं!”
“नहीं हैं?” रसोइया भी दहाड़ा, “नहीं हैं?” औरतों जैसी महीन, पुचकारती आवाज़ में उसने पूछा.
“नहीं, नहीं,” वह हौले से
बड़बड़ाता रहा और धीरे-धीरे परिचारिका प्रस्कोव्या फ़्योदरव्ना के रूप में परिवर्तित
हो गया.
वह कराहते हुए निकानोर इवानविच का कन्धा सहला रही थी. तब रसोइए धुआँ बनकर
उड़ गए और परदे वाला थियेटर भी गायब हो गया. निकानोर इवानविच ने डबडबाई आँखों से
अस्पताल के अपने कमरे को देखा. देखा सफ़ेद पहने दो व्यक्तियों को. ये रसोइए नहीं थे
जो यहाँ-वहाँ अपनी नाक घुसेड़ रहे थे, बल्कि डॉक्टर थे. साथ में थी प्रस्कोव्या
फ़्योदरव्ना, हाथ में सूप का डोंगा नहीं, बल्कि जाली से ढँकी इंजेक्शन की सिरिंज वाली प्लेट लिये.
“यह क्या मज़ाक है!” निकानोर इवानविच ने बड़ी
कड़वाहट से कहा, जब उसे इंजेक्शन दिया जा रहा था, “मेरे पास नहीं हैं, नहीं है! पूश्किन को उन्हें
डॉलर्स देने दो...नहीं हैं!”
“नहीं हैं, नहीं हैं,” उसे
पुचकारते हुए सहृदय प्रस्कोव्या फ़्योदरव्ना बोली, “नहीं
तो नहीं, कोई बात नहीं!”
इंजेक्शन के बाद निकानोर इवानविच को कुछ हल्का महसूस हुआ. वह शीघ्र ही गहरी
नींद सो गया.
मगर उसकी चीख़ों से 120 नं. के कमरे में उत्तेजना फैल गई, जहाँ
मरीज़ उठ बैठा और अपना सिर ढूँढ़ने लगा. 118नं. के कमरे में मास्टर उत्तेजित होकर
निराशा से चाँद की ओर देखकर हाथ मलने लगा. उसे याद आ गई थी जीवन की अंतिम शरद की
रात, दरवाज़े के नीचे से कमरे में प्रवेश करती रोशनी की किरण
और बिखरे बाल.
118नं. के कमरे की बालकनी से होकर यह उत्तेजना इवान के पास पहुँची. वह जाग
गया और रोने लगा.
मगर डॉक्टर ने जल्दी ही इन उत्तेजित, दुःखी व्यक्तियों को शांत कर दिया.
वे फिर सो गए. सबसे अंत में सोया इवान, जब नदी के जल पर पौ
फटने लगी थी. दवा पीने के बाद उसे शांति की लहर ने ढँक लिया. उसका शरीर शिथिल पड़
गया. उसे झपकी आने लगी. वह सो गया. अंतिम आवाज़ जो उसने सुनी, वह थी जंगल में चिड़ियों की चहचहाहट. मगर शीघ्र ही सब कुछ शांत हो गया. वह
सपना देखने लगा कि गंजे पहाड़ के पीछे सूरज ढलने लगा है और पहाड़ को दुहरी सुरक्षा
पंक्तियों ने घेर रखा है...
********
सोलह
मृत्युदण्ड
गंजे पहाड़ के पीछे सूरज ढलने लगा था और इस पहाड़ को दुहरी सुरक्षा पंक्तियों
ने घेर रखा था.
वह घुड़सवार दस्ता, जिसने दोपहर को न्यायाधीश का मार्ग रोक दिया था, तेज़ी से शहर के खेव्रोव्स्की द्वार की ओर बढ़ा जा रहा था. उसके लिए रास्ता
साफ़ था. पैदल सैनिक सड़क के दोनों किनारों पर लोगों को, टट्टुओं
को और ऊँटों को धकेलते जा रहे थे और यह दस्ता आसमान तक धूल उड़ाता उस जगह पहुँचा
जहाँ दो रास्ते मिलते थे: दक्षिणी मार्ग जो बेथलेहेम शहर की ओर जाता था, और उत्तर-पश्चिमी मार्ग, जो याफ़ा को जाता था.
घुड़सवार दस्ता उत्तर-पश्चिमी मार्ग की ओर लपका. इस रास्ते से भी उत्सव के लिए
येरूशलम जाने वाली सभी गाड़ियों एवम् यात्रियों को हटाया जा चुका था. भक्तों की भीड़
रास्ते के दोनों ओर पैदल सैनिकों के पीछे खड़ी थी; वे घास में
गड़े अपनी धारियों वाले तम्बुओं से बाहर आ गए थे. एक किलोमीटर जाने के बाद इस दस्ते
ने विद्युत गति से चलने वाली टुकड़ी को भी पीछे छोड़ दिया. एक और किलोमीटर पार करने
के बाद वह गंजे पहाड़ तक पहुँच गया. यहाँ पहुँचकर उसने फुर्ती से पहाड़ को चारों ओर
से घेर लिया. केवल याफ़ा से आने के लिए एक छोटा-सा स्थान छोड़ दिया.
कुछ देर बाद इस दस्ते के पीछे-पीछे एक और दस्ता वहाँ आया. पहाड़ पर क़रीब एक
फर्लांग चढ़कर वह भी मुकुट के आकार में पहाड़ पर बिखर गया.
अंत में एक टुकड़ी मार्क क्रिसाबोय के नेतृत्व में वहाँ पहुँची. सड़क के
किनारे-किनारे दो पंक्तियों में सैनिक चल रहे थे. उनके बीच ख़ुफ़िया दस्ते के साथ
गाड़ी पर तीनों कैदी थे, जिनके गले में सफ़ेद तख़्तियाँ थीं. हर तख़्ती पर अरबी और
ग्रीक भाषाओं में लिखा था ‘डाकू और क्रांतिकारी’. कैदियों की गाड़ी के पीछे थीं दूसरी गाड़ियाँ जिन पर रखे थे वध-स्तम्भ,
रस्सियाँ, फावड़े, बाल्टियाँ
और कुल्हाड़ियाँ. इन गाड़ियों में सवार थे छह जल्लाद. उनके पीछे घोड़ों पर सवार चले
जा रहे थे अश्वारोही दस्ते का प्रमुख मार्क, येरूशलम के
मन्दिर सुरक्षा दस्ते का नायक और टोप पहने वह आदमी, जिसके
साथ पिलात ने महल के अँधेरे कमरे में कुछ क्षण बातें की थीं.
सबसे पीछे थी सैनिकों की श्रृंखला और उसके पीछे-पीछे लगभग दो हज़ार उत्सुक
लोगों की भीड़ चल रही थी. भीषन नारकीय ऊष्मा से बिना घबराए ये लोग वह दिलचस्प नज़ारा
देखने जा रहे थे.
शहर के मनचलों की भीड़ में अब उत्सुक भक्तों की भीड़ भी शामिल हो गई.
उद्घोषकों की पतली आवाज़ बार-बार वही शब्द दुहरा रही थी, जो
दोपहर को पिलात ने कहे थे. इस आवाज़ के साथ-साथ सब बढ़ रहे थे गंजे पहाड़ की ओर.
अश्वारोहियों के दूसरे घेरे तक सबको जाने दिया, मगर
ऊपरी दस्ते ने सिर्फ उन्हीं को आगे बढ़ने दिया जिनका मृत्युदण्ड से कोई सम्बन्ध था,
और फिर विद्युत गति से भीड़ को पहाड़ के चारों ओर इधर-उधर बिखेर दिया.
अब भीड़ ऊपर से पैदल सैनिकों और नीचे से घुड़सवार दस्ते के बीच फँस गई थी.वह
मृत्युदण्ड की प्रक्रिया को पैदल सैनिकों के बीचे से देख सकती थी.
जुलूस को पहाड़ पर चढ़े तीन घण्टॆ से ऊपर हो गए थे. सूरज गंजे पहाड़ के नीचे
ढलने लगा था. मगर गर्मी अभी भी असहनीय थी. दोनों पंक्तियों के सैनिक इस गर्मी से
तड़प रहे थे, उकता रहे थे और मन ही मन तीनों डाकुओं को गालियाँ देते हुए
उनके शीघ्र अंत की कामना कर रहे थे.
अश्वारोही दस्ते का छोटा-सा नायक पसीने से लथपथ था. उसकी सफ़ेद कमीज़ पीठ पर
काली हो गई थी. वह पहाड़ के निचले भाग में बार-बार चहलकदमी कर रहा था. वह पहले
दस्ते के निकट पानी से भरी मशक के पास जाता और उसमें से थोड़ा-थोड़ा पानी निकालकर
घूँटभर पी लेता और अपनी पगड़ी को गीला कर लेता था. इससे उसे कुछ राहत मिलती. वह फिर
चहलकदमी करने लगता, उस धूल भरे रास्ते पर, जो पहाड़ के
ऊपर जाता था. उसकी लम्बी तलवार उसके चमड़े के जूतों से टकरा रही थी. नायक अपने
सैनिकों को सहनशक्ति का उदाहरण देना चाहता था, मगर उन पर तरस
खाकर उसने ज़मीन में इधर-उधर गड़ी बल्लियों पर उनके सफ़ेद कोट फैलाकर तम्बू बनाने की
आज्ञा दे दी. इन्हीं तम्बुओं की छाया में निर्मम सूरज से छिप रहे थे सीरियाई.
मशकें देखते-देखते खाली हो रही थीं. अनेक टुकड़ियों के सैनिक बारी-बारी से पानी
पीने आ रहे थे, शहतूत के मरियल पेड़ों तले उस छोटे-से मटमैले
झरने के पास जो अब इस शैतानी गर्मी में अपने अंतिम दिन गिन रहा था.
सैनिकों की थकान और उनके द्वारा डाकुओं को दी जा रही गालियाँ समझ में आ रही
थीं. न्यायाधीश का भय, कि मृत्युदण्ड के समय येरूशलम शहर में, जिससे उसे घृणा थी, अव्यवस्था और बलवा जैसी घटनाएँ
हो सकती हैं, निरर्थक सिद्ध हुआ. जब मृत्युदण्ड के बाद का
चौथा घण्टा बीत रहा था, तब दोनों सुरक्षा पंक्तियों के बीच
आशंकाओं के बावजूद एक भी आदमी नहीं बचा था. सूरज की गर्मी ने भीड़ को झुलसाकर उसे
वापस येरूशलम भेज दिया था. केवल बचे थे वहाँ न जाने किसके दो कुत्ते, जो न जाने कैसे पहाड़ पर पहुँच गए थे. वे भी गर्मी से बेचैन थे और अपनी
जीभे निकाले गहरी-गहरी साँसें ले रहे थे; उन हरी पीठ वाली
छिपकलियों की ओर ध्यान दिए बिना, जिन पर इस भीषण गर्मी का
कोई असर नहीं हो रहा था, जो पत्थरों तथा पेड़-पौधों के बीच
आराम से घूम रही थीं.
किसी ने भी कैदियों को छुड़ाने की कोशिश नहीं की, न तो
सैनिकों से लबालब भरे येरूशलम में और न ही घेराबन्द पहाड़ पर; और भीड़ शहर की ओर लौट चली क्योंकि मृत्युदण्ड को देखना उतना दिलचस्प नहीं
था, जबकि शहर में शाम को आने वाले ईस्टर के त्यौहार की
तैयारियाँ धूमधाम से चल रही थीं.
रोम के सैनिकों की ऊपरी पंक्ति घुड़सवारों की अपेक्षा अधिक परेशान थी. क्रिसाबोय
ने सिर्फ इतना किया कि सैनिकों को
शिरस्त्राण के स्थान पर गीली सफ़ेद पगड़ी बाँधने की इजाज़त दे दी – मगर उसने सैनिकों को वहीं भाला पकड़े खड़े रहने दिया. वह स्वयँ भी अपनी सूखी
सफ़ेद पगड़ी में जल्लादों से कुछ दूर चहलकदमी कर रहा था. उसने अपनी कमीज़ से शेरों के
मुँह वाले तमगे भी नहीं हटाए थे, पैरों का कवच, तलवार, खंजर भी नहीं हटाए थे. सूरज सीधे क्रिसाबोय पर पड़ रहा था. उस पर तो कुछ असर नहीं हो रहा था,
मगर तमगों के शेरों की ओर तो देखते नहीं बन रहा था; उनसे निकलती उबलती चाँदी की चमक आँखों को अन्धा किए जा रही थी.
क्रिसाबोय के विद्रूप चेहरे पर न तो थकान दिखाई दे रही थी, न ही
अप्रसन्नता और ऐसा लगता था मानो यह भीमकाय अंगरक्षक पूरा दिन, पूरी रात, और एक और दिन, यानी
जितने दिन चाहो इसी तरह चल सकता है. इसी तरह चल सकता है ताँबा जड़े भारी-भरकम पट्टे
पर हाथ रखे; उसी तरह गम्भीरता से कभी वध-स्तम्भों पर लटक रहे
कैदियों को या फिर श्रृंखलाबद्ध सिपाहियों को देखते हुए, उसी
तरह उदासीनता से जूते की नोक से अपने पैरों के नीचे आई हुई समय के साथ सफ़ेद पड़
चुकी मानवीय हड्डियों के टुकड़ों और छोटे-छोटे कंकर-पत्थरों को हटाते हुए.
टोप पहने वह आदमी वध-स्तम्भों से कुछ दूर एक तिपाई पर बैठा था. वह प्रसन्न
प्रतीत होता था, हालाँकि वह हिलडुल नहीं रहा था, मगर
कभी-कभी उकताहट से रेत को खुरच देता था.
हम कह चुके हैं कि पैदल सैनिकों के घेरे के बाहर एक भी व्यक्ति नहीं था मगर
यह पूरी तरह सच नहीं है. एक व्यक्ति तो था वहाँ, लेकिन वह सबको दिखाई नहीं दे रहा था. वह उस तरफ़ नहीं था जहाँ से पहाड़ पर जाने के लिए खुला रास्ता था, और जहाँ से वध करने का दृश्य स्पष्ट दिखाई दे सकता था. बल्कि वह था उत्तरी
छोर पर, वहाँ, जहाँ से पहाड़ पर चढ़ना
कठिन था; धरती ऊबड़-खाबड़ थी; जहाँ
कगारें और कपारें थीं; जहाँ एक कपार में, आकाश द्वारा शापित सूखी धरती से किसी तरह चिपककर जीने की कोशिश करता हुआ
एक अंजीर का बीमार-सा पेड़ खड़ा था.
इसी बेसाया पेड़ के नीचे यह अकेला दर्शक जमकर बैठा था. मृत्युदण्ड से उसे
कोई लेना देना नहीं था. मगर वह मृत्युदण्ड के आरम्भ से ही, यानी
चार घण्टों से वहीं था. सच है कि वध का दृश्य देखने के लिए उसने सबसे बुरी जगह
चुनी थी. यहाँ से भी वध-स्तम्भ दिखाई दे रहे थे; सैनिकों के
घेरे से परे अंगरक्षक के सीने पर दो चमकते बिन्दु दिखाई दे रहे थे. यह काफी था उस
आदमी के लिए जो सबसे बचने की कोशिश कर रहा था.
मगर चार घण्टे पहले, मृत्युदण्ड के आरम्भ में, यह आदमी
कुछ ऐसी हरकतें कर रहा था, कि उसकी तरफ किसी का भी ध्यान जा
सकता था, शायद इसीलिए अब उसने अपना व्यवहार बदल दिया था और
अब वह अकेला था.
तब, जैसे ही जुलूस पहाड़ की चोटी पर पहुँचा, वह वहाँ बौखलाता दाखिल हुआ, जैसे देर से आने वाला
आदमी करता है. वह गहरी-गहरी साँसें ले रहा था और चल नहीं रहा था अपितु भाग रहा था.
वह पहाड़ की चोटी पर जाना चाहता था, लोगों को धक्के मार रहा
था, मगर जब उसने देखा कि सैनिकों का घेरा उसका मार्ग रोक रहा
है, तो उसने बिना उन चेतावनीपूर्ण चीखों पर ध्यान दिए,
घेरा तोड़कर ऊपर, वध-स्तम्भ के बिल्कुल निकट
पहुँचने की बचकाना कोशिश की, जहाँ कैदियों को गाड़ी से उतारा
जा चुका था. उसे भाले के दूसरे सिरे की मार पड़ी और वह चिल्लाते हुए उछलकर
सिपाहियों से दूर छिटक गया. वह दर्द से नहीं, निराशा से चीखा
था. मारने वाले सैनिक को उसने उदासीनता से देखा, जैसे उसे
शारीरिक पीड़ा का अहसास भी न हुआ हो.
खाँसते हुए, हाँफ़ते हुए, सीने को पकड़कर वह पहाड़
की पिछली ओर भागा, इस आशा में कि उत्तरी भाग में उसे कोई
अन्दर जाने का रास्ता मिल जाए. मगर तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी. घेरा बन्द हो चुका
था. और दर्द से विद्रूप चेहरा लिए उस व्यक्ति को गाड़ियों के निकट पहुँचने का अपना
इरादा बदल देना पड़ा, जहाँ से अब वध-स्तम्भ उतारे जा रहे थे.
इन कोशिशों से इसके सिवा कुछ और हासिल होने वाला नहीं था कि उसे पकड़ लिया जाता. आज
के दिन जेलखाने में बन्द रहने का उसका कोई इरादा नहीं था.
अतः वह पिछले भाग की ओर चला गया जहाँ काफ़ी ख़ामोशी थी. वहाँ कोई उसे तंग
नहीं कर सकता था.
अब यह काली दाढ़ी वाला, धूप और अनिद्रा से लाल और जलती हुई आँखों से देखता हुआ
आदमी पत्थर पर बैठकर दुःखी हो रहा था. वह आहें भरते हुए कभी भटकने के कारण जीर्ण
और नीले से मटमैला हो चुका अपना कोट खोल लेता तो कभी पसीने से भरी, भाले से ज़ख़्मी छाती खोल देता था; कभी वह असहनीय
वेदना से आसपास की ओर नज़र दौड़ाता, उन तीन चीलों को देखते हुए
जो शीघ्र ही प्राप्त होने वाले भोजन की आशा में चक्कर लगा रही थीं; या फिर पीली पड़ चुकी धरती को देखता जिस पर कुत्ते का आधा सड़ा शरीर पड़ा था,
जिसके चारों ओर छिपकलियाँ भाग रही थीं.
उस आदमी का दर्द इतना अधिक था कि कभी-कभी वह अपने आप से बड़बड़ाने लगता था.
“ओह, कितना बेवकूफ हूँ मैं!” वह पत्थर पर आगे-पीछे झूलते हुए और नाखूनों से अपनी काली छाती को खुजलाते
हुए बड़बड़ाया, “बेवकूफ़, बेवकूफ़,
औरत, कायर! आदमी नहीं, मुरदार
हूँ!”
उसने चुप होकर सिर झुका लिया और लकड़ी की सुराही से पानी पीकर कुछ ताज़ा
महसूस किया. अब वह कोट के नीचे छिपे चाकू को छू लेता था, या
अपने सामने पत्थर पर कलम और दवात की बगल में पड़े ताड़पत्र को छू लेता था.
इस ताड़पत्र पर लिखा गया था:
“समय भाग रहा है, और मैं, लेवी
मैथ्यू गंजे पहाड़ पर हूँ, मृत्यु अभी आई नहीं है!”
आगे लिखा था:
“सूरज डूब रहा है, अंत अभी नहीं.”
अब लेवी मैथ्यू ने निराश होकर लिखा:
“हे भगवान! उसे क्यों इतना तड़पा रहे हो? उसे जल्दी
मुक्ति दो.”
इतना लिखकर वह फिर कराहा और अपना सीना खुजाने लगा.
लेवी की बदहवासी का कारण वह दुर्भाग्य था, जिसने उसे और येशू को दबोच रखा था.
वह उस गलती के लिए भी पछता रहा था जो उससे हो गई थी.परसों दोपहर को येशू और लेवी
येरूशलम के पास बिफानी में एक माली के घर पर मेहमान थे, जो
येशू के उपदेशों से बहुत प्रभावित था. पूरी सुबह दोनों मेहमान मेज़बान को बगीचे के
काम में मदद कर रहे थे और वे शाम को येरूशलम जाने वाले थे. मगर न जाने क्यों दोपहर
को येशू शीघ्र ही अकेला ही चला गया यह कहकर कि उसे शहर में ज़रूरी काम है. बस,
यही पहली गलती थी लेवी मैथ्यू की. उसने येशू को अकेले क्यों जाने
दिया!
मैथ्यू शाम को भी येरूशलम नहीं जा सका. उसके पूरे बदन में भयानक खुजली होने
लगी. उसे तीव्र ज्वर हो गया, शरीर मानो आग में जल रहा था, दाँत
किटकिटा रहे थे, वह हरएक क्षण बाद पानी माँग रहा था, वह हिल भी नहीं सकता था. वह माली के बरामदे में बिछे बिस्तर पर लुढ़क गया.
शुक्रवार की सुबह ही उसकी आँखें खुल सकीं, जब उसकी बीमारी
उसे उतने ही आश्चर्यजनक ढंग से छोड़ गई, जैसे वह आई था.
हालाँकि वह कमज़ोर था, उसके पैर भी लड़खड़ा रहे थे, मगर फिर भी भावी दुर्भाग्य की आशंका से ग्रस्त वह मेज़बान से विदा लेकर
येरूशलम चला गया. वहाँ उसने देखा कि उसकी आशंका सही थी. अनर्थ हो गया था. लेवी
जाकर भीड़ में खड़ा हो गया. उसने न्यायाधीश को मृत्युदण्ड की घोषणा करते हुए सुना.
जब अभियुक्तों को पहाड़ पर ले जाया जा रहा था, तब लेवी मैथ्यू उत्सुक लोगों की भीड़
के साथ भागता रहा. वह कोशिश कर रहा था कि किसी तरह येशू जान जाए कि वह, यानी लेवी, यहीं है उसके पास, उसने
अंतिम यात्रा पर भी उसका साथ छोड़ा नहीं है. वह प्रार्थना कर रहा है कि येशू की
पीड़ा शीघ्रातिशीघ्र ख़त्म हो जाए, उसे जल्दी से मौत आ जाए.
मगर येशू दूर कहीं अनन्त की ओर नज़रें गड़ाए था, वह लेवी को
देख न सका.
जब यह जुलूस क़रीब आधा मील चल चुका तभी मैथ्यू के दिमाग में, जिसे
सैनिक श्रृंखला के बिल्कुल निकट लोग धक्के मार रहे थे, वह
सीधा-साधा मगर लाजवाब ख़याल कौंध गया. फ़ौरन उसने अपने आप को कोसा कि यह बात उसने
पहले कैसे नहीं सोची. सैनिकों की श्रृंखला सघन नहीं थी. दो-दो सैनिकों के बीच में
कुछ जगह थी. अगर होशियारी से काम किया जाए तो वह उनके बीच में से खिसककर कैदियों
की गाड़ी तक जाकर येशू के पास जा सकता है. तब येशू की पीड़ाओं का अंत हो जाएगा.
बस एक क्षण ही काफी है येशू की पीठ में छुरा घोंपकर यह कहने के लिए कि, ‘येशू! मैं तुम्हें मुक्ति देकर खुद भी तुम्हारे साथ आ रहा हूँ! मैं,
मैथ्यू, तुम्हारा इकलौता विश्वसनीय शिष्य!’ और एक क्षण और मिल जाए तो स्वयँ को भी उसी चाकू से ख़त्म किया जा सकता है;
वध-स्तम्भ की यातनाओं से बचने के लिए लेवी को, जो भूतपूर्व कर-संग्राहक था, इस आख़िरी बात में उतनी
दिलचस्पी नहीं थी. कैसे मरा जाए, इस बारे में वह उदासीन था.
उसे बस यही चिंता थी कि येशू, जिसने कभी किसी का बुरा नहीं
किया था, यातनाओं से मुक्त हो जाए.
योजना तो बड़ी अच्छी थी मगर उसमें बस एक कमी थी – वह यह कि लेवी के पास चाकू नहीं था. उसके पास एक पैसा भी नहीं था.
अपने आप पर खीझते हुए लेवी भीड़ से छिटककर शहर की ओर भागा. उसके गर्म दिमाग
में बस एक ही गर्म ख़याल था कि किसी भी तरह शहर से एक चाकू प्राप्त कर फ़ौरन जुलूस
में वापस आ जाए.
वह शहर के महाद्वार तक पहुँचा, अन्दर प्रवेश करते हुए अनेक कारवाँ
के बीच उसने अपनी दाहिनी ओर एक डबल रोटी की दुकान देखी. हाँफते हुए लेवी ने अपने
आप पर काबू पाते हुए दुकान में घुसकर विक्रेता का अभिवादन किया. उसे अलमारी में
ऊपर रखी डबल रोटी देने की विनती की, जो उसे पसन्द आ गई थी.
जैसे ही विक्रेता उसे निकालने के लिए पीछे गई, उसने फ़ौरन लपक
कर तेज़ धार वाला रोटी काटने का चाकू उठा लिया और दुकान से भागा. कुछ ही मिनटों के
बाद वह फिर याफ़ा के रास्ते पर था. मगर अब जुलूस नज़र नहीं आ रहा था. वह भागता रहा.
बीच-बीच में लड़खड़ाकर ज़मीन पर गिर पड़ता, कुछ देर निश्चल पड़े
रहकर गहरी साँसें लेने के लिए. येरूशलम जाने वाले यात्री उसे देखकर हैरान हो रहे
थे. वह पड़ा रहकर सुन रहा था कि कैसे उसका दिल ज़ोर से धड़क रहा था, न केवल सीने में अपितु सिर में और कानों में भी. कुछ देर साँस लेकर वह
भागने लगता, मगर अब धीरे-धीरे. जब उसने धूल उड़ाते जुलूस को
देखा तब वह पहाड़ के पास पहुँच चुका था.
“हे भगवान...” लेवी कराहा. वह समझ रहा था कि उसे
देर हो चुकी है. और उसे देर हो ही गई.
मृत्युदण्ड को चार घण्टे बीत गए तो लेवी की पीड़ा अपनी चरम सीमा तक पहुँच
गई. वह अनापशनाप बड़बड़ाने लगा. पत्थर से उठकर उसने बेवजह ही धरती पर अब बेकार हो
चुके चाकू से वार कर दिया, अंजीर के पेड़ को लात मारी, पानी फेंक
दिया, सिर पर से टोप फेंक दिया और अपने बालों को खींचते हुए
वह अपने आप को कोसने लगा.
वह अपने आपको बुरा-भला कह रहा था, गुर्रा रहा था, थूक रहा था और अपने माता-पिता को भी गालियाँ दे रहा था कि उन्होंने कैसे
बेवकूफ़ को जन्म दिया है.
जब उसने देखा कि गालियों का कोई असर नहीं हो रहा और उनसे इस तपती भट्टी में
कुछ भी नहीं बदलने वाला है तो उसने अपनी सूखी हथेलियों की मुठ्ठियाँ सूरज की ओर
तान लीं, जो धीरे-धीरे नीचे लुढ़क रहा था, ताकि
लम्बी-लम्बी छायाएँ छोड़ते हुए भूमध्य सागर में गिर जाए.
लेवी ने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए शीघ्र ही कोई चमत्कार करने को कहा
जिससे येशू को शीघ्र ही मौत आ जाए.
आँखें खोलकर उसने देखा कि पहाड़ पर सब कुछ वैसा ही है, केवल
अंगरक्षक के सीने पर चमकते धब्बे कुछ धुँधले हो गए हैं. सूरज सलीबों पर लटके हुए
कैदियों की पीठ में किरणें चुभो रहा था. उनका मुँह येरूशलम की ओर था. तब लेवी
चिल्लाया.
“मैं तुझे शाप देता हूँ, भगवान!”
भर्राई हुई आवाज़ में वह चिल्लाया कि ईश्वर अन्यायी है और अब उस पर वह
विश्वास नहीं करेगा.
“तुम बहरे हो!” लेवी दहाड़ा, “अगर बहरे नहीं होते तो मेरी प्रार्थना सुनकर उसे फ़ौरन मौत दे देते.”
आँखें मींचकर लेवी आसमान से बिजली गिरने का इंतज़ार करने लगा जो उसे भी जला
देती, मगर
ऐसा कुछ नहीं हुआ. लेवी आसमान की ओर मुँह करते हुए ज़हरीली बातें उगलता रहा. वह
अपनी सम्पूर्ण निराशा के बारे में बताने के बाद अन्य धर्मों एवम् देवताओं के बारे
में सुनाने लगा. हाँ, दूसरा भगवान कभी भी ऐसा नहीं होने देता
कि येशू जैसा आदमी वध-स्तम्भ पर लटकते हुए सूरज की गर्मी में झुलस जाए.
“मैं ही गलत था!” भर्राई हुई आवाज़ में लेवी
चिल्लाया, “तुम बुराई के देवता हो! या तो मन्दिरों में
हो रहे होम-हवन के धुएँ ने तुम्हारी आँखें बन्द कर दी हैं या तुम्हारे कान सिर्फ
भक्तों की प्रशंसा ही सुनते हैं? तुम सर्वशक्तिमान नहीं हो! तुम
काले भगवान हो, डाकुओं के भगवान, उनके
रक्षक, उनकी आत्मा; मैं तुम्हें शाप
देता हूँ!”
तभी भूतपूर्व कर-संग्राहक के चेहरे पर कुछ सरसराहट हुई, पैरों
के नीचे भी कुछ सरक गया. एक बार और सरसराहट हुई. तब, उसने
आँखें खोलकर देखा कि सब कुछ, शायद उसके शाप के कारण या किसी
अन्य वजह से, बदल गया है. सूरज समुद्र में छिपने के पहले ही
गायब हो गया था, उसे निगलते हुए पश्चिम से आकाश पर भयानक
बादल निडरता से बढ़ा चला आ रहा था. उसकी किनार सफ़ेद झाग जैसी थी, काले आवरण से पीली चमक बार-बार दिखाई देती थी. बादल दहाड़ा, उसमें से रह-रहकर अग्निशलाकाएँ निकलने लगीं. याफ़ा के रास्ते पर, गियोन घाटी में भक्तों के काफ़िले पर, जो इस अचानक आए
बवण्डर की चपेट में आ चुके थे, धूल के कारण गुबार उड़ रहे थे.
लेवी चुप हो गया. वह समझने की कोशिश कर रहा था कि येरूशलम को अपनी चपेट में
लेनेवाला यह तूफ़ान क्या अभागे येशू की किस्मत बदल देगा. वह उन अग्निशलाकाओं की ओर
देखकर प्रार्थना करने लगा कि येशू वाले वध-स्तम्भ पर बिजली गिर जाए. आसमान के साफ
हिस्से को देखते हुए जहाँ तक अभी तूफ़ान नहीं पहुँचा था, और
जहाँ तूफ़ान से बचने के लिए चीलें एक पंख पर मुड़ रही थीं, लेवी
पछताने लगा कि उसने शाप देने में इतनी जल्दबाज़ी क्यों कर दी. अब भगवान उसकी
प्रार्थना बिल्कुल नहीं सुनेगा.
लेवी ने पहाड़ के नीचे की ओर देखा: जहाँ पहले घुड़सवार खड़े थे, वहाँ
अब काफ़ी कुछ बदल चुका है. लेवी साफ़ देख रहा था कि सैनिक ज़मीन में गड़े तम्बू उखाड़कर
अपनी-अपनी बरसातियाँ ओढ़ रहे हैं. साईस काले घोड़ों की लगाम पकड़कर रास्ते पर सरपट
भाग रहे हैं. स्पष्ट था कि सेना हट रही थी. लेवी ने उड़ती धूल से बचने के लिए हाथों
को चेहरे पर रख लिया. वह सोचने लगा कि घुड़सवारों के वापस लौटने का क्या मतलब हो
सकता है? उसने नज़र ऊपर उठाई तो देखा कि लाल रंग की फ़ौजी
बरसाती पहने एक आकृति वधस्थल की ओर जा रही है. और तब अच्छे परिणाम की आशा से
भूतपूर्व कर-संग्राहक का दिल ठण्डा पड़ गया.
मृत्युदण्ड के पाँचवें घण्टे में पहाड़ पर चढ़ने वाला व्यक्ति था सेना का
कमाण्डर, जो येरूशलम से अपने सहायक के साथ आ रहा था. क्रिसाबोय की टुकड़ी ने ट्रिब्यून को सलामी दी. कमाण्डर ने क्रिसाबोय
को अलग बुलाकर फुसफुसाकर कुछ कहा.
अंगरक्षक ने उसे दुबारा सलामी दी. वह जल्लादों की ओर बढ़ा जो वध-स्तम्भों के निकट
ही पत्थरों पर बैठे थे. ट्रिब्यून आगे चलकर तिपाई पर बैठे व्यक्ति की ओर बढ़ा. उस
व्यक्ति ने उठकर गर्मजोशी से उसका स्वागत किया. ट्रिब्यून ने उसे धीरे से कुछ कहा
और वे वध-स्तम्भों की ओर चले. अब उनके साथ मन्दिर की सुरक्षा टुकड़ी का प्रमुख भी
हो लिया.
क्रिसाबोय ने वध-स्तम्भों के निकट
पड़े हुए चीथड़ों की ओर कनखियों से देखा, जो कुछ देर पहले तक अपराधियों की
पोशाक थे और जिन्हें लेने से जल्लादों ने इनकार कर दिया था. क्रिसाबोय ने दो जल्लादों को बुलाकर आज्ञा दी, “मेरे पीछे आओ!”
निकट के वध-स्तम्भ से भर्राहट भरा ऊल-जुलूल-सा गाना सुनाई दे रहा था. उस पर
लटकाया गया गेस्तास मक्खियों और सूरज के कारण मृत्युदण्ड के तीन ही घण्टे बाद पागल
हो गया था. अब वह अंगूरों के बारे में गा रहा था. मगर पगड़ी से ढँके अपने सिर को वह
कभी-कभी धीरे से हिला देता था, तब अलसाई हुई मक्खियाँ उसके चेहरे से उड़ जातीं और वापस
उड़कर वहीं बैठ जाती थीं.
दूसरे वध-स्तम्भ पर दिसमास अन्य दोनों की अपेक्षा अधिक तड़प रहा था, क्योंकि
उसने अपने होश नहीं खोए थे. वह अपना सिर बार-बार हिला रहा था, कभी दाहिने तो कभी बाएँ, जिससे कन्धों पर कानों से
चोट कर सके.
इन दोनों से अधिक सुखी था येशू. पहले ही घण्टे में बेहोशी उसे घेरने लगी, वह
सिर लटकाकर अपनी सुध खो बैठा. मक्खियों ने उसके चेहरे को पूरी तरह ढँक लिया. अब
उसका चेहरा काले सरसराते पदार्थ से ढँका प्रतीत होता था. पेट पर, बगल में, सीने पर मोटी-मोटी जोंकें बैठी थीं जो उसके
नंगे, पीले बदन को चूस रही थीं.
टोप पहने व्यक्ति की आज्ञा का पालन करते हुए एक जल्लाद ने भाला उठाया और
दूसरा वध-स्तम्भ के पास बाल्टी और स्पंज लाया. पहले वधिक ने भाला उठाकर येशू के
दोनों हाथों में चुभोया, जो सलीब के दोनों सिरों पर रस्सियों से बाँधे गए थे.
दुबला-पतला शरीर जिसकी पसलियाँ दिखाई पड़ रही थीं कुछ सिहरा. जल्लाद ने भाले की नोक
पेट पर घुमाई. तब येशू ने सिर उठाया, मक्खियाँ भिनभिनाकर उड़
गईं. लटके हुए येशू का मक्खियाँ काटने से सूजा हुआ चेहरा दिखाई दिया; तैरती हुई आँखों वाला यह चेहरा पहचाना नहीं जा रहा था.
पलकें खोलकर हा-नोस्त्री ने नीचे देखा. उसकी स्वच्छ आँखें धुँधली पड़ गई
थीं. “हा-नोस्त्री,” जल्लाद ने कहा.
हा-नोस्त्री ने सूजे हुए होठों से कुछ हरकत करते हुए डाकुओं जैसी भर्राई
हुई आवाज़ में पूछा, “क्या चाहिए? मेरे पास क्यों आए
हो?”
“पियो!” जल्लाद ने कहा और पानी में डूबा हुआ एक
स्पंज का टुकड़ा भाले की नोक पर सवार होकर येशू के होठों के निकट पहुँचा. उसकी
आँखों में कुछ चमक दिखाई दी, वह अत्यन्त अधीरता से उस पानी
को चूसने लगा. पास के वध-स्तम्भ से दिसमास की आवाज़ सुनाई दी:
“यह अन्याय है! मैं भी वैसा ही डाकू हूँ, जैसा यह है.”
दिसमास ने सीधा होने की कोशिश की मगर वह हिल न सका. उसके हाथों को तीन
स्थानों पर रस्सी के वलयों ने सलीब से जकड़ रखा था. उसने पेट तान लिया, नाखूनों
से सलीब को पकड़ लिया और क्रोध से येशू के वध-स्तम्भ की ओर अपना सिर घुमा लिया.
धूल के अन्धड़ और बादल ने उस जगह को ढाँक लिया, गहन
अँधेरा छा गया. जब धूल उड़ गई तब अंगरक्षक चिल्लाया, “दूसरे
स्तम्भ पर, ख़ामोश रहो!”
दिसमास चुप हो गया. येशू जल में डूबे स्पंज से दूर होकर प्रयत्नपूर्वक मीठी
और विश्वासपूर्ण आवाज़ में बोलने की कोशिश करने लगा, मगर आवाज़ भर्राई हुई ही निकली. उसने
जल्लाद से कहा, “उसे भी पानी पिलाओ.”
अँधेरा बढ़ता जा रहा था. बादलों ने आधे आकाश को ढँक लिया था. येरूशलम की ओर
बढ़ते सफ़ेद उबलते बादल काली नम अग्निशलाकाओं से सुसज्जित घनघोर घटा का नेतृत्व कर
रहे थे. पहाड़ी के ठीक ऊपर बिजली कड़की. जल्लाद ने भाले की नोक से गीला स्पंज हटा
लिया.
“महामहिम की महानता के गुण गाओ!” उसने घोषणा की
और धीरे से भाला येशू के सीने में चुभो दिया. वह काँपा और फुसफुसाया, “महामहिम...”
उसके पेट पर रक्त की धारा बह चली. निचला जबड़ा काँपा और उसका सिर झूल गया.
बिजली की दूसरी कड़क के साथ जल्लाद ने दिसमास को पानी पिलाया और वही शब्द
कहे,
“महामहिम
के गुण गाओ!” और उसे भी मार डाला.
मतिहीन हुआ गेस्तास, जैसे ही उसने जल्लाद को अपने निकट देखा, घबराकर चिल्लाया, मगर जैसे ही उसके होठों को नमी ने
स्पर्श किया उसने कराह कर पानी चूसना शुरू कर दिया. कुछ ही क्षणों बाद उसका शरीर
भी लटक गया, जितना रस्सियों के रहते लटक सकता था.
टोप वाला आदमी जल्लाद और अंगरक्षक के पीछे-पीछे चल रहा था और उसके पीछे था
मन्दिर के सुरक्षा दल का नायक. पहले स्तम्भ के पास रुककर टोप वाले आदमी ने गौर से
येशू के लहूलुहान शरीर को देखकर उसकी एड़ियों को अपने सफ़ेद हाथों से छुआ और अपने
साथियों से बोला, “मर गया.”
यही क्रिया अन्य दो वध-स्तम्भों के पास भी हुई.
इसके बाद ट्रिब्यून ने अंगरक्षक को इशारा किया और वे मन्दिर सुरक्षा-दल के
नायक और टोप वाले आदमी के साथ पहाड़ी से नीचे उतरने लगे. अँधेरा छा गया, आसमान
में बिजलियाँ कड़कने लगीं. इस गड़गड़ाहट में अंगरक्षक की चीख : “घेरा तोड़ दो!” डूब गई. प्रसन्न सिपाही अपने टोप
पहनते हुए पहाड़ी से नीचे भागे. अँधेरे ने येरूशलम को ढँक लिया.
अचानक तेज़ बारिश होने लगी जिसने अंगरक्षक को आधे रास्ते में दबोच लिया.
बारिश इतनी तेज़ थी कि नीचे भागते हुए सिपाहियों को दबोचने के लिए पहाड़ पर से पानी
के उफ़नते हुए रेले दौड़ने लगे. सिपाही गीली मिट्टी पर फिसलने लगे, गिरने
लगे. वे मुख्य मार्ग पर पहुँचने की कोशिश कर रहे थे, जहाँ
उफ़नते पानी में तार-तार भीगा हुआ घुड़सवार दस्ता येरूशलम जा रहा था. कुछ मिनटों के
पश्चात् तूफ़ान, पानी और अग्नि के तांडव के बीच पहाड़ी पर केवल
एक आदमी बचा था. वह बेकार में ही चुराए हुए चाकू को संभालते, फिसलन भरे स्थानों से बचते, हर सम्भव सहारे को
तलाशते, कभी-कभी घुटनों के बल रेंगते वध-स्तम्भों की ओर बढ़ा.
कभी वह पूरी तरह अँधेरे में डूब जाता था, तो कभी बिजली की
चकाचौंध उसे आलोकित कर जाती थी.
वध-स्तम्भों के निकट पहुँच कर उसने अपने लथपथ कोट को उतार फेंका, केवल
एक कमीज़ में वह येशू के पैरों से लिपट गया. उसने सभी रस्सियाँ काट दीं, नीचे वाले क्रॉस पर चढ़ा, येशू के शरीर का आलिंगन
करते हुए उसके दोनों हाथ मुक्त कर दिए. गीला, नंगा येशू का
बदन लेवी को साथ लिए भूमि पर गिर पड़ा. लेवी उसे अपने कंधों पर उठाना चाह रहा था
तभी किसी ख़याल ने उसे रोक दिया. उसने वहीं पानी में डूबी धरती पर उस शरीर को छोड़
दिया और लड़खड़ाते, फिसलते पैरों से अन्य दो वध-स्तम्भों की ओर
बढ़ा. उसने उनकी भी रस्सियाँ काट दीं और दो और मृत शरीर ज़मीन पर गिर पड़े.
कुछ और क्षणों के बाद पहाड़ की चोटी पर बचे थे केवल वे ही दो मृत शरीर और
तीन खाली वध-स्तम्भ. पानी के थपेड़े इन शरीरों को उलट-पलट रहे थे.
इस समय पहाड़ी पर न तो लेवी था और न ही येशू का शरीर.
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सत्रह
परेशानी भरा दिन
शुक्रवार की सुबह, यानी उस आफत के मारे शो के दूसरे दिन, वेराइटी थियेटर के सभी उपस्थित कर्मचारी – रोकड़िया वसीली स्तिपानविच लास्तच्किन, दो
एकाउण्टेण्ट, तीन टाइपिस्ट लड़कियाँ, दोनों
टिकट बाँटने वाली, चपरासी, परदा खोलने
वाले और झाड़ू लगाने वाले – यानी, वे सभी जो उपस्थित थे अपनी सीट के बदले सदोवया रास्ते की ओर खुलने वाली
खिड़कियों की देहलीज़ पर बैठ कर देख रहे थे कि वेराइटी की दीवार के उस ओर क्या हो
रहा है. वेराइटी की दीवार के नीचे हज़ारों लोगों की दो कतारों वाली लम्बी लाइन खड़ी
थी, जिसका दूसरा सिरा दूर कहीं कुद्रिन्स्काया चौक पर ख़त्म
हो रहा था. दोनों कतारों के अगले हिस्से में मॉस्को के थियेटर जगत की कम से कम
20-25 जानी-मानी हस्तियाँ थीं.
ये लम्बी लाइनें काफ़ी उत्तेजित मालूम होती थीं; आने-जाने
वाले लोगों का ध्यान वहाँ हो रही बातचीत की ओर बरबस खिंच जाता था. वे सभी कल के उस
काले जादू वाले अप्रतिम शो के बारे में गर्मागर्म बहस कर रहे थे. इन्हीं कहानियों
से रोकड़िया वसीली स्तिपानविच भी परेशान हो उठा था. वह कल थियेटर मे नहीं था. गेट
कीपर भगवान जाने क्या कह रहे थे...और यह भी कि शो के बाद कुछ भद्र महिलाएँ अभद्र
अवस्था में रास्ते पर भाग रही थीं...और भी इसी तरह का कुछ-कुछ. लजीला और ख़ामोश वसीली
स्तिपानविच इन सब कथाओं को सुनते हुए बस पलकें झपका रहा था. वह समझ नहीं पा रहा था
कि उसे क्या करना चाहिए, मगर कुछ न कुछ तो करना ही था न,
क्योंकि इस समय वेराइटी के उपस्थित कर्मचारियों में वही एक वरिष्ठ
अधिकारी था.
दस बजते-बजते टिकट लेने वालों की लाइन इतनी लम्बी हो गई कि उसकी ख़बर पुलिस
को भी हो गई; ग़ज़ब की फुर्ती से फ़ौरन पैदल एवम् घुड़सवार दस्ते वहाँ भेज
दिए गए जिन्होंने इस कतार में कुछ अनुशासन बनाए रखा. मगर लगभग एक किलोमीटर लम्बा
यह नाग अपने आप में कम दिलचस्प नहीं था, जिसने सदोवया पर
लोगों को हैरत में डाल दिया था.
यह तो थी वेराइटी के बाहर की बात, मगर अन्दर भी वातावरण कोई खुशगवार
नहीं था. सुबह से ही लिखादेयेव, रीम्स्की, कैश ऑफ़िस, टिकट खिड़की और वरेनूखा के कमरों में
टेलिफोन की घंटियाँ बजने लगीं. आरम्भ में तो वसीली स्तिपानविच और टिकट-विक्रेता
लड़की और गेट कीपरों ने टेलिफोन पर पूछे जा रहे सवालों के जवाब दिए, मगर कुछ ही देर बाद उन्होंने उस ओर ध्यान देना ही बन्द कर दिया; क्योंकि उनके पास उन सवालों के कोई जवाब ही नहीं थे कि लिखादेयेव, वरेनूखा और रीम्स्की कहाँ हैं. पहले उन्होंने कह दिया कि “लिखादेयेव अपने फ्लैट में है,” मगर जवाब आया कि
वे फ्लैट पर फोन कर चुके हैं, जहाँ उन्हें यह बताया गया है
कि लिखादेयेव वेराइटी में है.
एक परेशान महिला ने फोन पर माँग की कि उसे रीम्स्की का पता बताया जाए, जब
उसे सलाह दी गई कि वह रीम्स्की की बीवी को फोन कर ले तो टॆलिफोन का चोंगा सिसकियाँ
लेते हुए बोला कि वही रीम्स्की की पत्नी है और उसके पति का कहीं पता नहीं है. एक
भगदड़-सी मच गई. झाड़ू लगाने वाली ने सबको बता दिया कि जब वह वित्तीय डाइरेक्टर के
कमरे में सफ़ाई करने गई तो देखा कि दरवाज़ा पूरा खुला है, सभी
लाइटें जल रही हैं, बाग की तरफ खुलने वाली खिड़की का शीशा
टूटा हुआ है, कुर्सी ज़मीन पर पड़ी है और कमरे में कोई नहीं
है.
दस बजने के कुछ बाद मैडम रीम्स्काया तीर की तरह वेराइटी में घुसी. वह रो
रही थी और हाथ मल रही थी. वसीली स्तिपानविच पूरी तरह बौखला गया, वह
समझ नहीं पा रहा था कि उसे क्या सलाह दे.
साढ़े दस बजे पुलिस आई. पहला ही तर्कसंगत सवाल उसने यह किया, “ये क्या हो रहा है नागरिकों? बात क्या है?”
बौखलाए हुए, पीले पड़ गए वसीली स्तिपानविच को आगे करके सब पीछे हट गए.
सब कुछ साफ-साफ बताना ही पड़ा और स्वीकार करना पड़ा कि वेराइटी के सभी प्रशासनिक
अधिकारी – डाइरेक्टर, वित्तीय
डाइरेक्टर और व्यवस्थापक न जाने कहाँ गुम हो गए हैं; और कल
के कार्यक्रम के बाद सूत्रधार को पागलखाने भेज दिया गया है यानी कल का कार्यक्रम
बड़ा लफ़ड़े वाला साबित हुआ.
सुबकती हुई मैडम रीम्स्काया को किसी तरह जितना सम्भव था, समझा-बुझाकर
घर भेज दिया गया और काफ़ी दिलचस्पी से झाड़ू लगाने वाली से पूछा गया कि उसने वित्तीय
डाइरेक्टर के कमरे को किस हालत में देखा था. सभी कर्मचारियों को अपनी-अपनी जगह पर
जाकर काम करने के लिए कह दिया गया. कुछ ही देर में तेज़ कान वाले, मज़बूत, सिगरेट की राख के रंग के, तेज़ दृष्टि वाले कुत्ते के साथ खोजी दस्ता आ गया. वेराइटी के कर्मचारियों
के बीच कानाफूसी होने लगी कि यह कुत्ता और कोई नहीं बल्कि सुप्रसिद्ध जासूसी
कुत्ता तुज़्बुबेन है. वास्तव में वह वही था. उसकी हरकतों से सभी हैरान रह गए. जैसे
ही तुज़्बुबेन वित्तीय डाइरेक्टर के कमरे में घुसा उसने अपने पीले नुकीले दाँत
दिखाकर गुर्राना शुरू कर दिया, फिर वह पेट के बल लेट गया और
आँखों में पीड़ा तथा वहशीपन का भाव लिए टूटी हुई खिड़की की ओर रेंग गया. अपने भय पर
काबू पाते हुए वह खिड़की की देहलीज़ पर कूद गया और अपना नुकीला सिर ऊपर करके गुस्से
और वहशत से चीख़ने लगा. वह खिड़की से हटना नहीं चाह रहा था, गुर्राता
जा रहा था, काँप रहा था और नीचे छलाँग लगाने को तैयार था.
कुत्ते को कमरे से बाहर लाकर गलियारे में छोड़ दिया गया, जहाँ
से वह प्रवेश द्वार से बाहर निकलकर सड़क पर आ गया और अपने साथ दौड़ रहे पुलिस वालों
को टैक्सी-स्टैण्ड तक ले आया. यहाँ आकर उसकी खोज के निशान खो गए. इसके बाद
तुज़्बुबेन को वापस ले जाया गया.
खोजी दल वरेनूखा के कमरे में बैठ गया. यहीं वेराइटी के उन सभी कर्मचारियों
को बारी-बारी से बुलाया गया जो कल के शो में उपस्थित थे. अन्वेषण दल को हर कदम पर
अप्रत्याशित कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. खोज का सिलसिला रह-रहकर टूट जाता
था.
“इश्तेहार थे?”
इश्तेहार थे. मगर रात ही रात में उन पर नये इश्तेहार चिपका दिए गए थे और
अब चाहे कुछ भी कर लो एक भी इश्तेहार उपलब्ध नहीं था.
“यह जादूगर आया कहाँ से था?”
“मगर उसे जानता कौन था!”
“उसके साथ कोई अनुबन्ध किया गया?”
“किया ही होगा,” परेशान वसीली स्तिपानविच ने
जवाब दिया.
“अगर किया गया तो वह रोकड़िया विभाग से ही तो गया होगा न?”
“जाना ही चाहिए था,” और अधिक व्यथित होते हुए वसीली
स्तिपानविच ने कहा.
“तो फिर वह है कहाँ?”
“नहीं है,” रोकड़िए ने हाथ हिलाकर और अधिक पीला
पड़ते हुए जवाब दिया. और सचमुच, उस अनुबन्ध का कहीं
नामो-निशान नहीं था; न तो रोकड़ विभाग में, न ही वित्तीय डाइरेक्टर के कमरे में, न तो लिखादेयेव
के पास और न ही वरेनूखा की मेज़ पर.
इस जादूगर का नाम क्या था? वसीली स्तिपानविच को मालूम नहीं, वह
कल के शो में आया ही नहीं था. गेट कीपर नहीं जानते, टिकट
विक्रेता ने दिमाग़ पर ज़ोर दिया, सोचने लगी, सोचने लगी और अंत में बोली, “वो...शायद,
वोलान्द.”
“हो सकता है वोलान्द न हो! हो सकता है, वोलान्द न
होकर फोलान्द हो? शायद फोलान्द हो.”
पूछने पर पता चला कि विदेशी यात्रियों के ब्यूरो में किसी ऐसे जादूगर के
बारे में सुना ही नहीं गया, जिसका नाम वोलान्द या फिर फोलान्द हो.
डाक लाने, ले जाने वाले कार्पव ने बताया कि शायद यह जादूगर लिखादेयेव के फ्लैट
में रुका था. उसी समय सब लोग वहाँ पहुँचे. वहाँ कोई जादूगर नहीं था. लिखादेयेव ख़ुद
भी मौजूद नहीं था. नौकरानी ग्रून्या भी नहीं थी; और वह ग़ायब
कहाँ हो गई इस बारे में भी कोई कुछ बता न सका. हाउसिंग सोसाइटी के प्रेसिडेण्ट
निकानोर इवानविच नहीं थे, प्रोलेझ्नेव भी नहीं थे.
कुछ अजीब-सी बात हो गई था: सभी उच्च प्रशासनिक अधिकारी गायब थे; कल
एक विचित्र-सा, लफ़ड़े वाला शो हुआ था, और
किसने, किसके कहने से उसका आयोजन किया था – पता नहीं.
इसी चक्कर में दोपहर हो गई, जब टिकट खिड़की खुलने वाली थी. मगर अब
उसका सवाल ही नहीं उठता था. वेराइटी के प्रवेश द्वारों पर फौरन एक विशाल नोटिस लगा
दिया गया : आज का ‘शो’ रद्द
कर दिया गया है.” बाहर खड़ी लाइन में असंतोष की लहर दौड़
गई, मगर कुछ देर बहस करने के बाद वह कतार टूटने लगी. करीब एक
घण्टे बाद सदोवया पर उसका नामो-निशान नहीं बचा. अन्वेषण दल भी किसी अन्य स्थान पर
अपनी खोज जारी रखने के लिए चला गया. पहरेदारों के अलावा बाकी सभी कर्मचारियों की
छुट्टी कर दी गई. वेराइटी का द्वार बन्द कर दिया गया.
रोकड़िए
वसीली स्तिपानविच को फ़ौरन दो काम करने थे. पहला यह कि मनोरंजन कमिटी में जाकर कल
के शो के बारे में रिपोर्ट करे; और दूसरा, कल के शो से प्राप्त 21,711 रूबल की धनराशि उसके
रोकड़ विभाग में जमा कर दे.
सलीकापसन्द और आज्ञाकारी वसीली स्तिपानविच ने अख़बारी कागज़ में नोटों के
बण्डल लपेटे, उस पर एक डोरी बाँधी, उसे बैग में
रखा और हिदायतों को ध्यान में रखते हुए बस या ट्राम के स्टॉप के बदले टैक्सी के
अड्डे पर गया.
जैसे ही वहाँ खड़ी तीन टैक्सियों के चालकों ने हाथ में फूली हुई बैग लिए
टैक्सी स्टैण्ड की ओर लपककर आते मुसाफ़िर को देखा, तीनों के तीनों न जाने क्यों उसकी ओर
गुस्से से देखते हुए अपनी गाड़ियों के साथ वहाँ से रफ़ूचक्कर हो गए.
रोकड़िया उनकी इस हरकत से हक्का-बक्का रह गया. वह बुत की भाँति खड़ा रहा यह
सोचते हुए कि इस सबका मतलब क्या हो सकता है!
तीन मिनट बाद एक खाली टैक्सी आती दिखाई दी, चालक ने मुसाफिर को देखते ही मुँह
बनाया.
“टैक्सी खाली है?” आश्चर्य से खखारते हुए वसीली
स्तिपानविच ने पूछा.
“पहले पैसे दिखाओ,” गुस्से में ड्राइवर ने उसकी
ओर नज़र उठाए बगैर कहा.
और भी अधिक चकित होकर रोकड़िए ने वह कीमती बैग बगल में दबाकर दस रूबल का एक
नोट निकालकर चालक को दिखाया.
“नहीं जाऊँगा!” उसने टका-सा जवाब दिया.
“माफ कीजिए...” रोकड़िए ने कहना चाहा, मगर चालक ने उसे बीच में टोकते हुए पूछा, “तीन
रूबल के नोट हैं?”
रोकड़िया सकते में आ गया. उसने दो-तीन रूबल के नोट निकालकर ड्राइवर को
दिखाए.
“बैठिए,” वह चिल्लाया और उसने मीटर इतनी ज़ोर से
घुमाया कि वह टूटते-टूटते बचा, “चलें!”
“क्या चिल्लर नहीं है?” रोकड़िए ने नर्मी से
पूछा.
“पूरी जेब भरी है चिल्लर से!” चालक दहाड़ा और
सामने के नन्हे-से आईने में उसकी खून बरसाती आँखें दिखाई दीं, “ये तीसरा हादसा हुआ आज मेरे साथ. औरों के साथ भी ऐसा ही हुआ. किसी एक सूअर
के बच्चे ने दस का नोट दिया और मैंने उसे चिल्लर थमाई – साढ़े चार रूबल...उतर गया, बदमाश! पाँच मिनट बाद
देखता क्या हूँ कि दस के नोट के बदले है, नरज़ान की बोतल का
लेबल! ड्राइवर ने कुछ न छापने योग्य शब्द कहे. दूसरी बार हुआ ज़ुब्रास्का के बाद.
दस का नोट! तीन रूबल की चिल्लर वापस की. चला गया! मैंने अपने बटुए में हाथ डाला,
वहाँ एक बरैया ने मेरी उँगली में काट लिया! और दस का नोट नहीं है!
ओ...ह!” चालक ने फिर कुछ न छापने योग्य गालियाँ दीं, “कल इस वेराइटी में (असभ्य शब्द) किसी एक गिरगिट के बच्चे ने दस के नोटों
का करिश्मा दिखाया था (असभ्य गाली).”
रोकड़िए को मानो साँप सूँघ गया. उसने कुछ अचकचाकर ऐसा ज़ाहिर किया मानो ‘वेराइटी’ शब्द पहली बार सुन रहा हो, और सोचने लगा :’तो यह बात है, भुगतो...’
अपने गंतव्य तक पहुँचकर, टैक्सी ड्राइवर को सही-सलामत पैसे देकर रोकड़िया उस
बिल्डिंग में घुसा और गलियारे से होते हुए कमिटी के प्रमुख के ऑफिस की ओर चल पड़ा
और उसे फ़ौरन आभास हुआ कि वह गलत वक़्त पर आया है. मनोरंजन कमिटी के दफ़्तर में भगदड़
मची हुई थी. रोकड़िए के पास से भागती हुए एक पत्रवाहक लड़की गुज़री, जिसके सिर का रूमाल खुल चुका था और आँखें फटी-फटी थीं.
“नहीं, नहीं, नहीं, मेरे प्यारों!” वह चिल्लाई, न जाने किसकी ओर मुख़ातिब होकर, “कोट और पैण्ट
तो वहीं हैं, मगर कोट के अन्दर कोई नहीं है!”
वह भागती हुई किसी दरवाज़े के पीछे छिप गई और उसके पीछे कप-प्लेटें टूटने की
आवाज़ें आने लगीं. सचिव के कमरे से रोकड़िए का परिचित, कमिटी के पहले सेक्टर का प्रमुख
बेतहाशा भागता हुआ बाहर आया, मगर वह इतना बदहवास था कि अपने
रोकड़िए दोस्त को भी न पहचान पाया, और वह भी कहीं छिप गया.
इस सबसे घबराकर रोकड़िया सचिव के कमरे तक पहुँचा, जो
कमिटी के दफ़्तर के प्रमुख का एक तरह से प्रवेश-कक्ष ही था, यहाँ
आकर मानो उस पर बिजली गिर पड़ी.
कमरे के बन्द दरवाज़े के पीछे से गरजती हुई आवाज़ सुनाई दे रही थी, जो
निःसंदेह ही कमिटी के प्रमुख की यानी प्रोखर पित्रोविच की ही थी. “क्या किसी पर बरस रहे हैं?” परेशान रोकड़िए ने
सोचा, मगर कमरे में झाँकने पर उसने दूसरा ही नज़ारा देखा:
चमड़े की कुर्सी की पीठ पर सिर टिकाए, बेतहाशा कराहते हुए,
हाथ में गीला रूमाल पकड़े कमरे के मध्य तक टाँगें फैलाए प्रोखर
पित्रोविच की सचिव सुन्दरी अन्ना
रिचार्दव्ना पड़ी थी.
अन्ना रिचार्दव्ना की पूरी ठुड्डी पर लिपस्टिक पुती हुई थी, और
गुलाबी कोमल गालों पर पलकों से मसकारा की काली धाराएँ बह रही थीं.
किसी को अन्दर घुसते देख अन्ना रिचार्दव्ना उछल पड़ी, वह
रोकड़िए का कोट पकड़कर उससे लिपट गई और चीख़ने लगी, “हे
भगवान! कम से कम एक तो बहादुर निकला! सब भाग गए, सबने
विश्वासघात किया! चलो, चलो, उसके पास
चलें! मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि क्या करना चाहिए!” और
रोते-रोते उसने रोकड़िए को कमरे के अन्दर घसीटा.
कमरे में घुसते ही रोकड़िए के हाथ से बैग छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ा और उसके
विचार उलट-पुलट हो गए. अब यह तो बताना ही पड़ेगा कि ऐसा क्यों हुआ.
लिखने की भव्य मेज़ के पीछे, जिस पर एक विशाल दवात रखी थी,
खाली सूट बैठा था और बिना स्याही में डुबोए, यानी
सूखी कलम से कागज़ पर कुछ लिख रहा था. सूट के साथ टाई भी थी, कोट
की जेब से बॉलपेन झाँक रहा था, मगर कॉलर के ऊपर न तो गर्दन
थी, न ही सिर; उसी तरह आस्तीनों से
कलाइयाँ भी नहीं दिखाई दे रही थीं. सूट काम में डूबा था और उसका चारों ओर मची भगदड़
की ओर ज़रा भी ध्यान नहीं था. किसी के आने की आहट सुनकर कोट ने कुर्सी में कुछ हलचल
की और कॉलर के ऊपर प्रोखर पित्रोविच की जानी-पहचानी आवाज़ गूँजी, “क्या बात है? दरवाज़े पर लिखा है न, कि मैं अभी किसी से नहीं मिल सकता!”
ख़ूबसूरत सेक्रेटरी ने एके सिसकी ली और हाथ मलते हुए चिल्लाई, “देख रहे हैं? वह नहीं है! नहीं है! उसे वापस लाइए,
वापस लाइए!”
अब दरवाज़े से कोई झाँका, चीखा और छूमंतर हो गया. रोकड़िए ने महसूस किया कि उसकी
टाँगें काँप रही हैं और वह कुर्सी के किनारे पर बैठ गया, मगर
वह अपनी बैग उठाना नहीं भूला. अन्ना रिचार्दव्ना रोकड़िए के चारों ओर उछल-कूद मचा
रही थी. वह उसका कोट पकड़कर चीखी, “मैं उसे हमेशा मना
करती थी, जब वह शैतान की कसम खाता था! बन गया अब खुद ही
शैतान!” अब वह मेज़ की ओर भागी और सुरीली मीठी आवाज़ में,
जो रोने से कुछ भारी हो गई थी, पूछने लगी, “प्रोशा! तुम कहाँ हो?”
“कौन ‘प्रोशा’?” सूट
ने कुर्सी में और भी धँसते हुए ज़ोर से पूछा.
“नहीं पहचानता! मुझे नहीं पहचानता! आप समझ रहे हैं?” सेक्रेटरी रो पड़ी.
“कृपया ऑफिस में मत रोइए!” सूट अब चिढ़ गया था.
उसने आस्तीनों से कोरे कागज़ों का गट्ठा अपनी ओर खींच लिया, जिससे
उन पर निर्णय लिख सके.
“नहीं, मैं नहीं देख सकती यह सब!” कहकर रोती हुई अन्ना रिचार्दव्ना सचिव के कमरे में भागी, उसके पीछे ही बन्दूक की गोली की तरह भागा रोकड़िया.
“ज़रा सोचिए, मैं बैठी हूँ,” परेशान अन्ना रिचार्दव्ना रोकड़िए को बाँह पकड़कर सुनाने लगी, “और कमरे में घुसा बिल्ला – काला, हट्टा-कट्टा, मानो बिल्ला नहीं हिप्पोपोटेमस हो.
मैंने उसे ‘शुक् शुक्!’ कहा.
वह बाहर भाग गया, फिर कमरे में घुसा बिल्ले जैसे मुँह वाला
एक मोटा आदमी और बोला, “तो, मैडम,
आप मेहमानों से ‘शुक् शुक्!’ कहती हैं?” वह बेशरम सीधा प्रोखर पित्रोविच के कमरे में घुसने लगा. मैं चिल्ला रही थी: “क्या पागल हो गए हो?” और वह दुष्ट सीधा कमरे
में घुसकर प्रोखर पित्रोविच के सामने वाली
कुर्सी पर बैठ गया. और वह...सहृदय आदमी है, मगर जल्दी घबरा
जाता है, भड़क उठा! मैं बहस नहीं करूँगी. भेड़िए की तरह काम
करने वाला, कुछ जल्दी परेशान होने वाला, भड़क उठा: “आप ऐसे कैसे बिना सूचना दिए अन्दर
घुस आए?” और वह ढीठ आदमी बेशर्मी से मुस्कुराते हुए
कुर्सी पर जम गया और बोला, “मैं आपसे काम के बारे में
बात करने आया हूँ.” प्रोखर पित्रोविच ने गुस्से से कहा, “मैं
व्यस्त हूँ!” और सोचो – वह बोला, “आप ज़रा भी व्यस्त नहीं हैं...” हाँ? प्रोखर पित्रोविच आपे से बाहर हो गया और चीखा, “ये क्या मुसीबत है? इसे यहाँ से ले जाओ, काश मुझे शैतान उठा लेता!” और वह, सोचिए, मुस्कुराकर बोला, “शैतान उठा ले? यह तो हो सकता है!” और झन् से हुआ, मैं चीख भी न सकी, देखती क्या हूँ: वह नहीं है...वह...बिल्ले से चेहरे वाला...और यह...सूट
यहाँ बैठा है...हें...हें...हें!!!” अन्ना रिचार्दव्ना
के होठ, दाँत सब गड्ड्मड्ड हो गए और वह भें S S
S करके रोने लगी.
सिसकियों पर काबू पाते हुए उसने साँस ली, मगर कुछ और ही समझ में न आने वाली
बात कहने लगी.
“और लिख रहा है, लिख रहा है, लिखे
जा रहा है! पागल हो जाऊँगी! टेलीफोन पर बात कर रहा है! सूट! सब भाग गए, खरगोशों की तरह!”
रोकड़िया सकते में खड़ा हुआ था. मगर किस्मत उसे बचा ले गई, सेक्रेटरी
के ऑफिस में खामोश, कामकाजी भाव से पुलिस घुसी...दो पुलिस
वाले. उन्हें देखकर सेक्रेटरी और ज़ोर से रो पड़ी. वह रोती जा रही थी और प्रमुख के
ऑफिस की ओर इशारा करती जा रही थी.
“रोते नहीं हैं, महोदया, रोइए
मत,” शांति से पहला पुलिस वाला बोला. रोकड़िया समझ गया
कि उसकी यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है और वह उस कमरे से बाहर खिसक लिया, एक ही मिनट बाद वह खुली हवा में साँस ले रहा था. उसके दिमाग में सनसनाहट
हो रही थी. इस सनसनाहट में गेट कीपर की बिल्ले के बारे में बताई गई कहानियाँ उभर
रही थीं, जिसने कल के शो में हिस्सा लिया था. “ओ...हो...हो! कहीं वह हमारा वाला बिल्ला तो नहीं था?”
जब कमिटी के ऑफिस में कुछ बात नहीं बनी तो, शरीफ-दिल वसीली स्तिपानविच ने उसकी
शाखा में जाने का इरादा किया जो वगान्कव्स्की चौराहे पर स्थित थी. अपने आपको कुछ
संयत करने के इरादे से उसने यह दूरी पैदल ही तय की.
शहर की यह मनोरंजन कमिटी की शाखा एक पुराने महल में थी, जो
अपने शानदार स्तम्भों के लिए मशहूर था.
मगर आज आगंतुक स्तम्भों से नहीं मगर उनके नीचे हो रही गड़बड़ के कारण हैरान
हो रहे थे.
कुछ आगंतुक एक महिला को घेरकर खड़े थे, जो एक टेबुल पर कुछ मनोरंजक साहित्य
रखकर उसे बेच रही थी और बेतहाशा रो रही थी.इस समय यह महिला किसी को कुछ भी नहीं
दिखा रही थी और आगंतुकों के प्रश्नों के उत्तर में केवल हाथ झटक रही थी; और इसी समय ऊपर से, नीचे से, किनारे
से, सभी विभागों से लगभग बीस टेलिफोन बज रहे थे.
कुछ देर रोकर, महिला एकदम सिहर उठी, और
उन्मादपूर्वक चीखी, “फिर वही!” और वह थरथराती आवाज़ में तारसप्तक में गाने लगी:
सुन्दर सागर पवित्र बायकाल...”
सीढियों से नीचे उतरता पत्रवाहक न जाने किसको मुक्के दिखाता हुआ इस महिला
के साथ मोटी, बुझी-बुझी आवाज़ में गा उठा:
सुन्दर जहाज़ मछलियों की गठरी!...”
इन दो आवाज़ों में और आवाज़ें भी मिलती गईं, धीरे-धीरे इस समूहगान ने पूरी इमारत
को भर दिया. पास ही के कमरा नं. 6 में जहाँ हिसाब-किताब की जाँच का विभाग था,
किसी की भारी, भर्राई आवाज़ अलग-थलग सुनाई पड़
रही थी. टेलिफोन की घंटियाँ मानो इस कोरस को पार्श्व संगीत प्रदान कर रही थीं.
“हेय, बर्गूज़िन...दस्ता घुमाओ!...”
पत्रवाहक सीढ़ियों पर दहाड़ा.
लड़की के चेहरे पर आँसू बह चले, उसने दाँत भींचने की कोशिश की मगर उसका
मुँह अपने आप खुल गया, और वह सबसे ऊँचे सुर में गाने लगी.
“काश, नौजवान होता आसपास!”
ख़ामोश आगंतुकों को इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि अलग-अलग स्थानों पर
बिखरे होने के बावजूद सभी कर्मचारी इस प्रकार गा रहे थे, मानो
एक समूह में खड़े हों और वे सभी किसी अदृश्य निर्देशक की ओर देखते हुए गा रहे थे – मानो उसके इशारों का पालन कर रहे हों. वगान्कव्स्की चौराहे से गुज़रने वाले
उस भवन के प्रवेश-द्वार के पास ठिठकते और वहाँ के प्रसन्न और उल्लासमय वातावरण पर
ताज्जुब करते आगे बढ़ जाते.
जैसे ही पहला पद समाप्त हुआ, गायन अचानक रुक गया, मानो निर्देशक की डण्डी ने उन्हें अचानक रोक दिया हो. पत्रवाहक बड़बड़ाया और
न जाने कहाँ छिप गया. तभी प्रवेश-द्वार खुला और उसमें से गर्मियों का कोट पहने,
जिसके नीचे से सफ़ेद कमीज़ के किनारे झाँक रहे थे, एक व्यक्ति प्रकट हुआ, उसके साथ-साथ आ गया पुलिस का
सिपाही.
“कुछ कीजिए, डॉक्टर, विनती करती
हूँ...” लड़की उन्मादपूर्वक चिल्लाई.
इस मनोरंजन दफ़्तर की शाखा का सचिव दौड़कर सीढ़ियों पर आया और ज़ाहिर था, कि
वह अपमान और शर्म से लाल होकर रिरियाते हुए बोला, “देख
रहे हैं न डॉक्टर, शायद यह सामूहिक सम्मोहन की घटना है...इसलिए,
ज़रूरी है...” वह अपना वाक्य पूरा भी नहीं
कर पाया था कि उसके शब्दों ने उसे धोखा दे दिया और वह अचानक गा उठा:
“शील्का और नेरचिंस्क...”
“बेवकूफ़!” लड़की चिल्लाई तो सही, मगर यह न समझा पाई कि वह किस
पर बरस रही है, और आगे कुछ कहने के स्थान पर वह भी एक ऊँची
तान लेकर शील्का और नेरचिन्स्क की प्रशंसा में गाने लगी.
“अपने आप पर काबू रखो! गाना बन्द करो!” डॉक्टर
सेक्रेटरी की ओर मुख़ातिब हुआ.
ज़ाहिर था कि सेक्रेटरी स्वयँ भी यह गाना रोकने के लिए कोई भी कीमत देने को
तैयार था, मगर गाना रोकने के स्थान पर वह खुद भी ज़ोर-ज़ोर से गाता रहा
और यह समूहगान उस चौराहे पर आने-जाने वालों को बता रहा था कि खण्डहरों में उस पर
किसी जंगली जानवर ने हमला नहीं किया और गोली शिकारियों को छू नहीं पाई!
जैसे ही यह पद समाप्त हुआ डॉक्टर ने लड़की के मुँह में दवा की कुछ बूँदें
डालीं और फिर वह भागा सेक्रेटरी एवम् अन्य कर्मचारियों को दवा पिलाने.
“माफ़ करना, मैडम,” वसीली
स्तिपानविच अचानक लड़की से पूछ बैठा, “आपके पास काला
बिल्ला तो नहीं आया?”
“कैसा बिल्ला? कहाँ का बिल्ला?” गुस्से में लड़की चीखी, “गधा बैठा है हमारे ऑफिस
में, गधा!” और उसने आगे पुश्ती जोड़ी, “सुनता है तो सुने! मैं सब कुछ बता दूँगी.” और
उसने वास्तव में सब कुछ बता दिया.
बात यह थी कि शहर की इस मनोरंजन शाखा के प्रमुख को, जिसने
सब कुछ गुड़-गोबर कर दिया था (लड़की के शब्दों में), शौक
चर्राया अलग-अलग मनोरंजन कार्यक्रम सम्बन्धी गुट बनाने का.
“प्रशासन की आँखों में धूल झोंकी!” लड़की दहाड़ी.
इस साल के दौरान उसने लेरमन्तव का अध्ययन करने के लिए, शतरंज,
तलवार, पिंग-पांग और घुड़सवारी सीखने के लिए
गुट बनाए. गर्मियों के आते-आते नौकाचलन और पर्वतारोहण के लिए भी गुट बनाने की धमकी
दे दी.
“और आज, दोपहर की छुट्टी के समय वह अन्दर आया,
और अपने साथ किसी घामड़ को हाथ पकड़कर लाया,” लड़की बताती रही, “न जाने वह कहाँ से आया था – चौख़ाने की पतलून पहने, टूटा चश्मा लगाए, और...थोबड़ा ऐसा जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता!”
और इस आगंतुक का, लड़की के अनुसार, सभी भोजन कर रहे
कर्मचारियों से यह कहकर परिचय कराया गया कि वह कोरस आयोजन करने की कला का विशेषज्ञ
है.
संभावित पर्वतारोहियों के चेहरे उदास हो गए, मगर प्रमुख ने तत्क्षण सभी को दिलासा
दिया. इस दौरान वह विशेषज्ञ मज़ाक करता रहा, फ़िकरे कसता रहा
और कसम खाकर विश्वास दिलाता रहा कि समूहगान में समय काफ़ी कम लगता है और उसके फ़ायदे
अनगिनत हैं.
लड़की के अनुसार पहले उछले फानव और कसार्चुक, इस दफ़्तर के सबसे बड़े चमचे, यह कहकर कि वे पहले नाम लिखवा रहे हैं. अब बाकी लोग समझ गए कि इस ग्रुप को
रोकना मुश्किल है, लिहाज़ा सभी ने अपने-अपने नाम लिखवा दिए.
यह तय किया गया कि गाने की प्रैक्टिस दोपहर के भोजन की छुट्टी के समय की जाएगी,
क्योंकि बाकी का सारा समय लेरमन्तव और तलवारों को समर्पित था.
प्रमुख ने यह दिखाने के लिए कि उसे भी स्वर ज्ञान है, गाना
शुरू किया और आगे सब कुछ मानो सपने में हुआ. चौखाने वाला समूहगान विशेषज्ञ दहाड़ा:
“सा-रे-ग-म!” गाने से बचने के लिए अलमारियों के
पीछे छिपे लोगों को खींच-खींचकर बाहर निकाला. कसार्चुक से उसने कहा कि उसकी सुर की
समझ बड़ी गहरी है; दाँत दिखाते हुए सबको बूढ़े संगीतज्ञ का आदर
करने के लिए कहा, फिर उँगलियों पर ट्यूनिंग फोर्क से खट्-खट्
करते हुए वायलिन वादक से ‘सुन्दर सागर’ बजाने के लिए कहा.
वायलिन झंकार कर उठा. सभी बाजे बजने लगे...खूबसूरती से. चौख़ाने वाला सचमुच
अपनी कला में माहिर था. पहला पद पूरा हुआ. तब वह विशेषज्ञ एक मिनट के लिए क्षमा
माँगकर जो गया...तो गायब हो गया. सबने सोचा कि वह सचमुच एक मिनट बाद वापस आएगा.
मगर वह दस मिनट बाद भी वापस नहीं लौटा. सब खुश हो गए, यह
सोचकर कि वह भाग गया.
और अचानक सबने दूसरा पद भी गाना शुरू कर दिया. कसार्चुक सबका नेतृत्व कर
रहा था, जिसको ज़रा भी स्वर ज्ञान नहीं था मगर जिसकी आवाज़ बड़ी ऊँची
थी. सब गाते रहे. विशेषज्ञ का पता नहीं था! सब अपनी-अपनी जगह चले गए, मगर कोई भी बैठ नहीं सका, क्योंकि सभी अपनी इच्छा के
विपरीत गाते ही रहे. रुकना हो ही नहीं पा रहा था! तीन मिनट चुप रहते, फिर गाने लगते! चुप रहते – गाने लगते! तब
समझ गए कि गड़बड़ हो गई है. दफ़्तर का प्रमुख शर्म के मारे मुँह छिपाकर अपने कमरे में
छिप गया.
लड़की की कहानी रुक गई. दवा का उस पर कोई असर नहीं हुआ था.
क़रीब पन्द्रह मिनट बाद वगान्कव्स्की चौक में तीन ट्रक आए, उनमें
प्रमुख समेत दफ़्तर के सभी कर्मचारियों को भर दिया गया.
जैसे ही पहला ट्रक चलने को तैयार हुआ, और वह दफ़्तर के द्वार से निकलकर चौक
में आया, सभी कर्मचारियों ने जो एक दूसरे के कन्धे पर हाथ
रखे खड़े थे, अपने-अपने मुँह फाड़े और पूरा चौक उस लोकप्रिय
गीत से गूँज उठा. दूसरे ट्रक ने इसका साथ दिया और फिर तीसरे ने भी. उसी तरह चलते
रहे. रास्ते से गुज़रने वालों ने इस काफ़िले पर सिर्फ उड़ती हुई नज़र डाली और वे चलते
रहे. उन्होंने सोचा कि शायद ये कोई पिकनिक पार्टी है जो शहर से बाहर जा रही है.
वास्तव में वे शहर से बाहर ही जा रहे थे मगर पिकनिक पर नहीं, बल्कि प्रोफेसर स्त्राविन्स्की के मनोरुग्णालय में.
आधे घण्टे बाद पूरी तरह मतिहीन रोकड़िया मनोरंजन दफ़्तर की वित्तीय शाखा में
पहुँचा, इस उम्मीद से कि वह सरकारी रकम से छुट्टी पा जाएगा.
पिछले अनुभव से कुछ सीखकर काफी सतर्कता बरतते हुए उसने सावधानी से उस लम्बे
हॉल में झाँका, जहाँ सुनहरे अक्षर जड़े धुँधले शीशों के पीछे कर्मचारी बैठे
थे. यहाँ रोकड़िए को किसी उत्तेजना या गड़बड़ के लक्षण नहीं दिखाई दिए. एक अनुशासित
ऑफिस जैसा ही वातावरण था.
वसीली स्तिपानविच ने उस खिड़की में
सिर घुसाया जिस पर लिखा था ‘धनराशि जमा करें’, और वहाँ बैठे
अपरिचित कर्मचारी का अभिवादन करके उससे पैसे जमा करने वाला फॉर्म माँगा.
“आपको क्यों चाहिए?” खिड़की वाले कर्मचारी ने
पूछा.
रोकड़िया परेशान हो गया.
“मुझे रकम जमा करनी है. मैं वेराइटी से आया हूँ.”
“एक मिनट,” कर्मचारी ने जवाब दिया और फौरन जाली
से खिड़की में बना छेद बन्द कर दिया.
“आश्चर्य है!” रोकड़िए ने सोचा. उसका
आश्चर्य-चकित होना स्वाभाविक ही था. ज़िन्दगी में पहली बार उसका ऐसी परिस्थिति से
सामना हुआ था. सबको मालूम है कि पैसे प्राप्त करना कितना मुश्किल है : हज़ार
मुसीबतें आ सकती हैं.
आखिरकार जाली खुल गई. और रोकड़िया फिर खिड़की से मुखातिब हुआ.
“क्या आपके पास बहुत पैसा है?” कर्मचारी ने
पूछा.
“इक्कीस हज़ार सात सौ ग्यारह रूबल.”
“ओहो!” कर्मचारी ने न जाने क्यों व्यंग्यपूर्वक
कहा और रोकड़िए की ओर हरा फॉर्म बढ़ा दिया.
रोकड़िया इस फॉर्म से भली-भाँति परिचित था. उसने शीघ्र ही उसे भर दिया और
बैग में रखे पैकेट की डोरी खोलने लगा. जब उसने पैकेट खोल दिया तो उसकी आँखों के
सामने पूरा कमरा घूमने लगा, उसकी तबियत ख़राब हो गई. वह दर्द से बड़बड़ाने लगा.
उसकी आँखों के सामने विदेशी नोट फड़फड़ाने लगे, इनमें थे: कैनेडियन डॉलर्स, ब्रिटिश पौंड, हॉलैण्ड के गुल्देन, लात्विया के लाट, एस्तोनिया के क्रोन...
“यह वही है, वेराइटी के शैतानों में से एक” – गूँगे हो गए रोकड़िए के सिर पर भारी-भरकम आवाज़ गरजी. और वसीली स्तिपानविच
को उसी क्षण गिरफ़्तार कर लिया गया.
*********
अठारह
अभागे मेहमान
ठीक उसी समय जब मेहनती रोकड़िया टैक्सी में बैठकर लिखने वाले सूट से टकराने
वाला था, कीएव से मॉस्को आने वाली रेल के आरामदेह, स्लीपर कोच नम्बर 9 से अन्य यात्रियों के साथ हाथ में एक छोटी-सी फाइबर की
सूटकेस लिए मॉस्को स्टेशन पर एक शरीफ़ मुसाफिर उतरा. यह मुसाफिर कोई और नहीं
स्वर्गवासी बेर्लिओज़ का मामा, कीएव की भूतपूर्व इंस्टिट्यूट
रोड़ पर रहने वाला अर्थशास्त्री संयोजक, मक्समिलियान
अन्द्रेयेविच पप्लाव्स्की था. मक्समिलियान अन्द्रेयेविच के मॉस्को आगमन का कारण वह
टेलिग्राम था जो उसे परसों शाम को मिला था और जिसमें लिखा था:
“मुझे अभी-अभी ट्रामगाड़ी ने कुचल दिया है पत्रियार्शी तालाब के पास. अंतिम
संस्कार शुक्रवार को तीन बजे दोपहर आ जाओ – बेर्लिओज़.”
मक्समिलियान अन्द्रेयेविच कीएव के बुद्धिमान लोगों में गिना जाता था, और
वह वाक़ई था भी. मगर अत्यंत बुद्धिमान व्यक्ति भी इस टेलिग्राम को पढ़कर बौखला ही
उठेगा. यदि कोई व्यक्ति स्वयँ तार भेजता है कि उसे ट्रामगाड़ी ने कुचल दिया है,
इसका मतलब यह हुआ कि वह जीवित है. मगर फिर अंतिम संस्कार क्यों?
या फिर उसकी हालत इतनी खराब है कि उसे अपनी मृत्यु की पूर्वसूचना
मिल चुकी है? यह सम्भव है, मगर यह समय
निर्धारण बड़ा अजीब है: उसे कैसे मालूम कि उसका अंतिम संस्कार शुक्रवार को दिन में
तीन बजे किया जाएगा? बड़ा अजीब टेलिग्राम है!
मगर बुद्धिमान आदमी इसीलिए बुद्धिमान कहे जाते हैं कि वे उलझी हुई
परिस्थिति को भी सुलझा लेते हैं. बिल्कुल आसान है. गलती हो गई है और मतलब बदल गया
है. यह शब्द ‘मुझे’ बेर्लिओज़ के बदले,
किसी दूसरे टेलिग्राम से यहाँ आ गया है, जो
इबारत के अंत में ‘बेर्लिओज़’ बन गया है. इस तरह पढ़ने से टेलिग्राम का सन्देश साफ हो जाता था, मगर वह दर्दनाक था.
जब बीबी को हैरत में डालने वाले दुःख की तीव्रता कुछ कम हुई तो मक्समिलियान
अन्द्रेयेविच फौरन मॉस्को जाने की तैयारी करने लगा.
मक्समिलियान अन्द्रेयेविच का एक भेद खोलना ही पड़ेगा. इस बारे में कोई शक
नहीं कि उसे अपनी बीवी के इस भतीजे के असमय मरने पर बहुत अफ़सोस हुआ था. मगर एक
व्यावहारिक व्यक्ति होने के कारण वह समझ रहा था कि अंतिम संस्कार में उसकी
उपस्थिति अनिवार्य नहीं है. मगर फिर भी मक्समिलियान अन्द्रेयेविच शीघ्र ही मॉस्को
पहुँचना चाहता था. कारण क्या था? कारण – फ्लैट! मॉस्को में
फ्लैट? यह बड़ी महत्वपूर्ण बात थी. न जाने क्यों मक्समिलियान
अन्द्रेयेविच को कीएव पसन्द नहीं था, और मॉस्को जाकर रहने के
विचार ने पिछले कुछ समय से उसे इस बुरी तरह कुरेदना शुरू कर दिया था कि उसकी रातों
की नींद उड़ गई थी. अब उसे बसंत में द्नेप्र की बाढ़ उल्हासित नहीं करती थी, जब निचले टापुओं को डुबोते हुए वह क्षितिज से मिल जाती थी. अब उसे सामन्त
व्लादीमिर के स्मारक के निकट से आरम्भ होने वाला सुन्दर प्राकृतिक दृश्य आनन्द
नहीं देता था. व्लदीमिर पहाड़ के ईंटों वाले रास्ते पर बसंत ऋतु में नाचते सूरज के
धब्बे देखकर अब वह खुश नहीं होता था. वह इस सबसे उकता गया था, वह मॉस्को जाना चाहता था.
उसने अख़बारों में इश्तेहार दिए इंस्टिट्यूट रोड पर स्थित अपने फ्लैट से
मॉस्को के किसी छोटे फ्लैट को बदलने के लिए, मगर कोई नतीजा नहीं निकला. कोई भी
इच्छुक नहीं था ऐसे प्रस्ताव के लिए और यदि भूला-भटका कोई मिल भी जाता, तो उसकी माँग बड़ी ऊलजलूल होती थी.
इस टेलिग्राम से मक्समिलियान अन्द्रेयेविच हक्का-बक्का रह गया. यह वह घड़ी
थी, जिसे
खोना अक्षम्य होता. व्यावहारिक आदमी जानते हैं कि ऐसे मौके बार-बार नहीं आते.
संक्षेप में, बिना किसी मुसीबत में पड़े मॉस्को वाले भतीजे के सदोवया
वाले फ्लैट पर कब्ज़ा किया जा सकता था. हाँ, यह मुश्किल था,
बहुत मुश्किल, मगर इन मुश्किलों को किसी भी
कीमत पर दूर करना ही था. अनुभवी मक्समिलियान अन्द्रेयेविच जानता था कि इस दिशा में
पहला और अनिवार्य कदम था: शीघ्र ही, किसी भी तरह, मृत भतीजे के तीन कमरों में जाकर रुकना और वहाँ अपना नाम लिखवाना, चाहे थोड़े समय के लिए ही सही.
शुक्रवार की दोपहर को मक्समिलियान अन्द्रेयेविच सदोवया की बिल्डिंग नं. 302
के उस कमरे में दाखिल हुआ जहाँ हाउसिंग कमिटी का दफ़्तर था.
उस तंग कमरे में, जिसकी दीवार पर एक पुराना चार्ट लटक रहा था, कुछ चित्रों के माध्यम से यह दिखाता हुआ कि नदी में डूबे हुओं को
पुनर्जीवित कैसे किया जाता है – लकड़ी की मेज़ के
पीछे, उत्तेजित आँखों से इधर-उधर देखता, दाढ़ी बढ़ाए अधेड़ उम्र का एक आदमी निपट अकेला बैठा था.
“क्या मैं कमिटी के प्रमुख से मिल सकता हूँ?” अर्थशास्त्री
संयोजक ने अपनी सूटकेस निकट की कुर्सी पर रखकर, हैट उतारते
हुए बड़ी शालीनता से पूछा.
ऐसा लगा कि इस सीधे-साधे सवाल ने उस आदमी को बहुत परेशान कर दिया. उसका
चेहरा विवर्ण हो गया. उत्तेजना में कनखियों से इधर-उधर देखते हुए वह बुदबुदाया कि
प्रमुख नहीं है.
“क्या वह अपने फ्लैट में है?” पप्लाव्स्की ने
पूछा, “मुझे ज़रूरी काम है.”
बैठे हुए आदमी ने फिर बेतुका-सा जवाब दिया. मगर फिर भी यह समझ में आ रहा था
कि प्रमुख अपने घर पर नहीं है
“कब आएँगे?”
इस सवाल का बैठे हुए आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया और आँखों में पीड़ा का भाव
लिए खिड़की से बाहर देखने लगा.
“ओ हो!” तेज़ तर्रार पप्लाव्स्की ने अपने आप से
कहा और वह सेक्रेटरी के बारे में पूछने लगा.
मानसिक तनाव के कारण उस आदमी का चेहरा लाल हो गया. फिर उसने और मरी हुई
आवाज़ में बताया कि सेक्रेटरी भी नहीं...सेक्रेटरी बीमार है...”
“ओहो!” पप्लाव्स्की ने फिर अपने आप से कहा और पूछा, “मगर कमिटी में कोई तो होगा?”
“मैं हूँ,” कमज़ोर आवाज़ में उस आदमी ने कहा.
“देखिए,” ज़ोर देते हुए पप्लाव्स्की ने कहा, “मैं अपने
भतीजे, मृत बेर्लिओज़ का इकलौता वारिस हूँ, जो जैसा कि आपको मालूम है, पत्रियार्शी के निकट मर
गया, और नियमानुसार मुझे उसका फ्लैट जो आपकी इस बिल्डिंग में
50नं. पर है, विरासत में मिलना चाहिए...”
“मुझे पता नहीं है, दोस्त,” पीड़ा से उसे बीचे में ही टोकते हुए वह बोला.
“मगर, माफ कीजिए,” खनखनाती
आवाज़ में पप्लाव्स्की बोला, “आप हाउसिंग कमिटी के सदस्य
हैं और आपका फर्ज़...”
तभी कमरे में एक आदमी घुसा. उसे देखते ही टेबुल के पीछे बैठे हुए आदमी का
चेहरा पीला पड़ गया.
“आप कमिटी के सदस्य पित्नाझ्का हैं?” उसने आते
ही पूछा.
“हाँ,” मुश्किल से सुनाई दिया.
आने वाले ने बैठे हुए आदमी के कान में कुछ कहा, जिससे
वह घबरा कर कुर्सी से उठा और कुछ ही क्षणों बाद उस खाली कमरे में पप्लाव्स्की अकेला बचा था.
‘ओह, क्या मुसीबत है! क्या ज़रूरी था कि वे सभी एक
साथ...’ निराशा से पप्लाव्स्की ने सोचा और वह सिमेंट का
आँगन पार करके फ्लैट नं. 50 की ओर लपका.
जैसे ही अर्थशास्त्री संयोजक ने घण्टी बजाई, दरवाज़ा खुला और मक्समिलियान
अन्द्रेयेविच अंधेरे-से प्रवेश-कक्ष में घुसा. उसे इस बात पर अचरज हुआ कि दरवाज़ा
आख़िर खोला किसने? प्रवेश-कक्ष में कोई नहीं था, केवल एक भारी-भरकम बिल्ले को छोड़कर, जो कुर्सी पर
बैठा था.
मक्समिलियान
अन्द्रेयेविच खाँसा. उसने पैरों से आवाज़ की तब कहीं जाकर अध्ययन-कक्ष का दरवाज़ा
खुला और करोव्येव बाहर आया. मक्समिलियान
अन्द्रेयेविच ने अपनी गरिमा बनाए रखते हुए, झुककर उसका
अभिवादन किया, और बोला, “मेरा नाम
पप्लाव्स्की है. मैं मामा...”
वह अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि करोव्येव ने जेब से गंदा रूमाल निकाला, उसमें
नाक समेत अपना चेहरा छिपा लिया और रोना शुरू कर दिया.
“...मृतक बेर्लिओज़ का...”
“क्या कहते हैं, क्या कहते हैं,” करोव्येव रूमाल हटाकर टोकते हुए बोला, “जैसे ही
मैंने आपकी ओर देखा, मैं समझ गया कि आप वही हैं!” उसका चेहरा आँसुओं से भीग गया और वह पतली-सी आवाज़ में चिल्लाता रहा, “कितना बड़ा दुःख है न? यह सब क्या हो रहा है? हाँ?”
“ट्रामगाड़ी ने कुचल दिया?” पप्लाव्स्की ने फुसफुसाकर पूछा.
“पूरी तरह चकनाचूर कर दिया,” करोव्येव चिल्लाया
और उसके चश्मे के नीचे से आँसुओं की धार बह निकली, “आर-पार
हो गई. मैं तो वहीं था, विश्वास कीजिए – खट्! सिर उधर! सीधा पैर – टक् दो भागों
में! दायाँ – टक् से दो भागों में! ऐसा करती हैं
ये ट्रामगाड़ियाँ!” अधिक न सह सका करोव्येव ! उसने आईने
से लगी दीवार में नाक मारते हुए बेतहाशा हिचकियाँ ले-लेकर रोना शुरू कर दिया.
बेर्लिओज़ का मामा इस अपरिचित व्यक्ति के ऐसे आचरण से क्षुब्ध हो गया. ‘कहते हैं कि इस ज़माने में सहृदय व्यक्ति नहीं मिलते!’ ऐसा सोचते-सोचते उसकी भी आँखों से आँसुओं की धार बह निकली. मगर तभी उसके
मन पर सन्देह का बादल छा गया, एक दुष्ट विचार उसके मन को
डसने लगा कि कहीं यह संवेदनशील व्यक्ति बेर्लिओज़ के घर में घुसकर उसे हथियाने वाला
तो नहीं है, क्योंकि ऐसे भी हादसे हो चुके हैं.
“माफ कीजिए, क्या आप मेरे स्वर्गीय मीशा के दोस्त थे?” उसने आस्तीन से अपनी सूखी दाहिनी आँख पोंछते हुए पूछ लिया, बाईं आँख से वह दुःख के मारे करोव्येव के चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश कर रहा था. मगर
वह ऐसी बुरी तरह दहाड़ मार-मार कर रो रहा था कि कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था सिवाय “टक् दो टुकड़ों” के. काफी रोने पीटने के बाद करोव्येव
आख़िर दीवार से दूर हटा और बोला, “नहीं, मैं और नहीं बर्दाश्त कर सकता! जाकर वालेरिन
की तीन सौ बूँदें ले लेता हूँ!” और पप्लाव्स्की की ओर
अपना रोता हुआ चेहरा फेरकर बोला, “ऐसी होती हैं,
ये ट्रामगाड़ियाँ!”
“माफ़ कीजिए, मुझे आपने टेलिग्राम भेजा था?” मक्समिलियान अन्द्रेयेविच सोचने लगा कि वह गज़ब का रोतला आदमी कौन हो सकता
था.
“उसने!” करोव्येव ने उँगली से बिल्ले की ओर इशारा करते हुए कहा.
पप्लाव्स्की की आँखें फटी रह गईं. उसे लगा कि उसने कुछ गलत सुन लिया है.
“नहीं, अब मुझमें हिम्मत नहीं है,” नाक सुड़कते हुए करोव्येव बोलता रहा, “मुझे याद
आ रहा है: पैरों पर पहिया, एक-एक पहिए का वज़न दस-दस
मन...टक्! जाऊँ, जाकर सोने की कोशिश करता हूँ, नींद आएगी तो भूल जाऊँगा,” और वह प्रवेश-कक्ष
से चला गया.
बिल्ले ने हरकत की, वह कुर्सी से कूदा, पिछले पैरों पर
खड़ा हो गया, सामने वाले पंजे कूल्हे पर रखे और अपना मुँह
खोलकर बोला, “हाँ, मैने टेलिग्राम
भेजा था, फिर?”
मक्समिलियान अन्द्रेयेविच का सिर घूमने लगा, हाथ-पैर सुन्न पड़ गए, उसके हाथ से सूटकेस गिर पड़ा और वह बिल्ले के सामने वाली कुर्सी पर धम् से
बैठ गया.
“मैं शायद रूसी में ही पूछ रहा हूँ,” गम्भीरता
से बिल्ले ने कहा, “आगे क्या?”
मगर पप्लाव्स्की ने कोई जवाब नहीं
दिया.
“पासपोर्ट!” बिल्ले ने फूला हुआ पंजा आगे बढ़ा
दिया.
पप्लाव्स्की की आँखों के सामने बस बिल्ले की दो दहकती हुई आँखों के अलावा
और कुछ नहीं था. उसने छुरी की भाँति अपना पासपोर्ट जेब से निकालकर बढ़ा दिया.
बिल्ले ने ड्रेसिंग टेबुल पर रखी हुई काली फ्रेम वाली ऐनक उठा ली, उसे
पहन लिया, जिससे वह और अजीब नज़र आने लगा और उसने हाथ नचाते
हुए पप्लाव्स्की के उछलते हुए हाथ से
पासपोर्ट छीन लिया.
‘अजीब बात है: मैं बेहोश होऊँ या नहीं?’ पप्लाव्स्की
ने सोचा. दूर से करोव्येव की हलचल सुनाई दे रही थी. पूरा कमरा वालेरिन की
गंध से भर गया था, साथ ही इत्र की और न जाने कौन-सी अजीब-सी
गन्ध भी समा गई थी.
“यह पासपोर्ट किसने दिया है?” बिल्ले ने पढ़ते
हुए पूछा. जवाब नहीं आया.
“चार सौ बारह नम्बर के दफ़्तर ने...” बिल्ले ने
पासपोर्ट पर, जिसे उसने उल्टा पकड़ रखा था, हाथ फेरते हुए अपने आप से कहा, “हाँ – बेशक! मुझे यह दफ़्तर मालूम है! वहाँ जिसे चाहे उसे पासपोर्ट दे देते हैं!
और मैं, आप जैसे को, निश्चय ही
पासपोर्ट नहीं देता! किसी हालत में नहीं देता! आपके चेहरे की ओर देखते ही एकदम मना
कर देता!” बिल्ला इतना क्रोधित हो गया कि उसने पासपोर्ट
ज़मीन पर फेंक दिया. “आपकी अंतिम संस्कार के समय
उपस्थिति की कोई ज़रूरत नहीं है,” बिल्ला अफसरों जैसे
अन्दाज़ में बोलता रहा, “जाइए, अपने
शहर लौट जाइए!” और वह दरवाज़े की ओर देखकर पुकारने लगा, “अज़ाज़ेला !”
उसकी
पुकार पर प्रवेश-कक्ष में आया एक छोटे कद वाला, लँगड़ाता हुआ, काला
तंग कोट पहने, कमर में बँधे चमड़े के बेल्ट में खंजर खोंसे, लाल
बालों वाला, पीला दाँत बाहर को निकला हुआ, दाहिनी
आँख में फूल पड़ा हुआ आदमी.
पप्लाव्स्की का दम घुटने लगा, वह
कुर्सी से उठा और सीना पकड़कर लड़खड़ा गया.
“अज़ाज़ेला, ले जाओ,” बिल्ले
ने हुक्म दिया और कमरे से बाहर निकल गया.
“पप्लाव्स्की,” आने वाले ने नकियाते हुए हौले से
कहा, “उम्मीद है आप सब समझ गए हैं?”
पप्लाव्स्की ने सिर हिलाया.
“फ़ौरन कीएव वापस लौट जाओ,” अज़ाज़ेला ने अपनी बात
जारी रखी, “वहाँ पानी से भी ख़ामोश, घास से भी छोटे बनकर बैठो और मॉस्को के किसी फ्लैट का सपना भी मत देखो,
समझ गए?”
यह नाटा, जिसने पप्लाव्स्की को अपने बाहर निकले दाँत, खंजर
और टेढ़ी आँख से भयानक रूप से दहला दिया था, अर्थशास्त्री के
केवल कन्धे तक पहुँचता था मगर वह बड़ी फुर्ती से और सधे हुए ढंग से हरकत कर रहा था.
सबसे पहले उसने पासपोर्ट उठाकर मक्समिलियान अन्द्रेयेविच को थमा दिया, जिसने
अपने मरियल हाथ से उसे वापस ले लिया. फिर अज़ाज़ेला नामक इस व्यक्ति ने एक हाथ से उसका सूटकेस उठाया
और दूसरे हाथ से दरवाज़ा खोलकर बेर्लिओज़ के मामा को हाथ पकड़कर सीढ़ियों तक ले गया. पप्लाव्स्की
दीवार से सट गया. बिना किसी चाबी के अज़ाज़ेला
ने सूटकेस खोल दिया और उसमें से एक टाँग
वाली तली हुई भारी-भरकम मुर्गी निकाली जो तेल से भीगे कागज़ में लिपटी थी. उसने
मुर्गी ज़मीन पर रख दी. फिर दो जोड़ी अंतर्वस्त्र निकाले, दाढ़ी
करने का उस्तरा निकाला, कोई किताब और एक चमड़े का केस भी
निकाला और इस सबको पैर से सीढ़ियों पर धकेल दिया, सिवाय
मुर्गी के. फिर खाली सूटकेस भी वहीं फेंक दिया. उसके नीचे गिरने की आवाज़ से पता
चलता था कि उसका ढक्कन भी टूटकर अलग हो गया है.
फिर लाल बालों वाले उस शैतान ने मुर्गी की टाँग पकड़कर उठा लिया और उसी से पप्लाव्स्की
की गर्दन पर इतनी ज़ोर से प्रहार किया कि
मुर्गी का शरीर अलग हो गया और टाँग अज़ाज़ेला के हाथ में रह गई. “अब्लोन्स्की के घर में सब उलट-पुलट हो गया,” महान
लेखक लेव टॉल्स्टॉय ने ऐसी स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा था. ठीक ऐसा ही वह अब भी
कहता. हाँ, पप्लाव्स्की की आँखों के सामने सब गड्डमड्ड हो गया. उसकी
आँखों के सामने बिजली की एक लकीर–सी कौंधी, जिसके पीछे-पीछे मानो काला नाग गुज़रा, जिसने मई की
उस दोपहर में निमिष मात्र के लिए अंधेरा कर दिया और पप्लाव्स्की नीचे सीढ़ियों पर तैरता चला गया, हाथों में पासपोर्ट पकड़े. सीढ़ियों के मोड़ तक आने पर उसके पैर से खिड़की का
शीशा खन् से टूट गया और वह सीढ़ी पर बैठा नज़र आया. उसके साथ ही उड़ रही थी बेपैर की
मुर्गी जो और भी आगे बढ़ गई और सीढ़ियों की गहराई में गिर गई. ऊपर ठहरे अज़ाज़ेला ने
मुर्गी की टाँग को साफ़ करके उसकी हड्डी को अपनी जेब में डाल लिया, फिर वह वापस फ्लैट में चला गया और दरवाज़ा धम् से बन्द हो गया. इसी समय
नीचे से सतर्क कदमों की आहट सुनाई दी.
और
एक मंज़िल नीचे दौड़ने के बाद पप्लाव्स्की वहाँ पड़ी लकड़ी की बेंच पर बैठ गया और तब जाकर
उसने साँस ली.
एक मझोले कद का अधेड़ आदमी, बड़ा अजीब-सा, मातमी चेहरा लिए,
पुराना टसर का सूट पहने, हरी रिबन वाली सख़्त
हैट पहने सीढ़ियों पर ऊपर चढ़ रहा था. पप्लाव्स्की को देखकर वह उसके पास रुक गया.
“महाशय, कृपया बताइए कि फ्लैट नं. 50 कहाँ है,” उस आदमी ने दुःखी भाव से पूछा.
“ऊपर,” पप्लाव्स्की ने फट् से कहा.
“बहुत बहुत धन्यवाद, महाशय,” उसी तरह निराश आवाज़ में कहकर वह आदमी ऊपर चढ़ गया, और
पप्लाव्स्की उठकर नीचे की ओर दौड़ने लगा.
अब सवाल उठता है कि क्या मक्समिलियान अन्द्रेयेविच पुलिस थाने जा रहा था
रिपोर्ट करने कि दिन-दहाड़े उस पर कातिलाना हमला हुआ है? नहीं,
किसी भी हालत में नहीं, यह हम विश्वास के साथ
कह सकते हैं. पुलिस थाने जाकर यह कहना कि चश्मा पहने बिल्ले ने उसका पासपोर्ट पढ़ा,
और फिर तंग कोट वाले आदमी ने चाकू से...नहीं, दोस्तों,
मक्समिलियान अन्द्रेयेविच सचमुच एक समझदार आदमी था.
अब तक वह नीचे पहुँच गया था. उसके ठीक सामने था गोदाम में जाने का दरवाज़ा.
इस दरवाज़े का शीशा टूटा हुआ था. पप्लाव्स्की ने पासपोर्ट जेब में छिपा लिया और ऊपर
से फेंकी गई अपनी चीज़ों को पाने की उम्मीद में इधर-उधर देखने लगा. मगर उनका कहीं
नामोनिशान नहीं था. पप्लाव्स्की को अपने आप पर आश्चर्य भी हुआ कि उसे खोई हुई
चीज़ों का अफ़सोस क्यों नहीं हो रहा है. उसे अब दूसरे ही दिलचस्प और दिलकश ख़याल ने
घेर लिया: इस दूसरे व्यक्ति पर उस फ्लैट में क्या गुज़रती है? ठीक
ही तो है: चूँकि उसने पूछा था कि वह कहाँ है, इसका मतलब वह
वहाँ पहली बार जा रहा है. शायद वह उस चांडाल-चौकड़ी के चँगुल में फँसने जा रहा हो
जो फ्लैट नं.50 में घुस आई थी. पप्लाव्स्की को लग रहा था कि वह आदमी जल्दी ही वहाँ से बाहर
आएगा. किसी भाँजे के किसी अंतिम संस्कार में जाने की बात अब मक्समिलियान अन्द्रेयेविच
सोच भी नहीं रहा था और कीएव जाने वाली गाड़ी के छूटने में अभी काफी समय था.
अर्थशास्त्री इधर-उधर देखकर गोदाम में घुस गया. तभी दूर ऊपर से दरवाज़ा बन्द होने
की आवाज़ आई. ‘अब वह अन्दर घुसा!’ पप्लाव्स्की ने डूबते दिल से
सोचा. गोदाम में काफी ठंडक थी, चूहों और जूतों की दुर्गन्ध आ
रही थी. मक्समिलियान अन्द्रेयेविच लकड़ी के एक ठूँठ पर बैठ गया और इंतज़ार करने लगा.
यह जगह ठीक थी, इस जगह से छठे अनुभाग का दरवाज़ा दिखाई दे रहा
था.
मगर अपेक्षा से अधिक इंतज़ार करना पड़ा कीएव निवासी को सीढ़ियाँ न जाने क्यों
खाली थीं. बड़ी आसानी से सब कुछ सुनाई दे रहा था. आख़िरकार पाँचवीं मंज़िल का दरवाज़ा
धड़ाम् से बन्द हुआ. पप्लाव्स्की के दिल की
धड़कन रुक गई. ‘हाँ, उसके पैरों की आहट है.
नीचे आ रहा है.’ चौथी मंज़िल पर इस फ्लैट के ठीक नीचे
वाले घर का दरवाज़ा खुला. आहट रुक गई. स्त्री की आवाज़...दुःखी व्यक्ति की
आवाज़...हाँ यह उसी की आवाज़ है...शायद कुछ इस तरह कह रहा था, “छोड़ो, ईसा मसीह की ख़ातिर...” पप्लाव्स्की का कान टूटे शीशे से
सट गया. इस कान ने सुनी एक स्त्री की हँसी, जल्दी-जल्दी नीचे
आने वाले कदमों की निडर आहट; और उसी स्त्री की पीठ की झलक
दिखाई दी. हाथ में रेक्ज़िन का हरा पर्स पकड़े वह स्त्री मुख्य दरवाज़े से निकलकर
आँगन में गई और उस व्यक्ति के कदमों की आहट फिर से आने लगी. “अचरज की बात है, वह वापस फ्लैट में जा रहा है. कहीं
वह इस चौकड़ी में से एक तो नहीं? हाँ, वापस
जा रहा है. फिर ऊपर का दरवाज़ा खुला. चलो, और इंतज़ार कर लेते
हैं...”
इस बार कुछ कम इंतज़ार करना पड़ा. दरवाज़े की आवाज़. कदमों की आहट. कदमों की
आहट रुक गई. एक बदहवास चीख. बिल्ली की म्याऊँ-म्याऊँ. आहट तेज़, टूटी-फूटी,
नीचे, नीचे, नीचे!
पप्लाव्स्की का इंतज़ार पूरा हुआ. बार-बार सलीब का निशान बनाता और कुछ-कुछ
बड़बड़ाता वह मुसीबत का मारा उड़ता हुआ आया, बिना टोपी के, चेहरे
पर वहशीपन, गंजे सिर पर खरोंचें और गीली पतलून के साथ. वह
घबराकर बाहर वाले दरवाज़े का हैंडिल घुमाने लगा, डर के मारे
यह भी भूल गया कि वह बाहर की ओर खुलता है या अन्दर की ओर. आख़िरकार दरवाज़ा खुल ही
गया और वह बाहर आँगन की धूप में रफू-चक्कर हो गया.
तो फ्लैट की जाँच पूरी हो चुकी थी, अपने मृत भांजे के बारे में, उसके फ्लैट के बारे में ज़रा भी न सोचते हुए मक्समिलियान अन्द्रेयेविच उस ख़तरे के बारे में सोच-सोचकर काँपने लगा जिससे
वह दो-दो हाथ कर चुका था. वह सिर्फ इतना ही बड़बडा रहा था: “सब समझ गया! सब समझ गया!” और वह बाहर आँगन में
भाग गया. कुछ ही मिनटों के बाद एक ट्रॉली बस अर्थशास्त्री संयोजक को कीएव जाने
वाले रेल्वे स्टेशन की ओर ले गई.
जब तक अर्थशास्त्री नीचे गोदाम में बैठा था, उस छोटे कद के आदमी के साथ अत्यंत ही
अप्रिय घटना घटी. वह छोटे कद का आदमी वेराइटी में रेस्तराँ चलाता था और उसका नाम
था अन्द्रेइ फकीच सोकव. जब तक वेराइटी में पूछताछ होती रही, अन्द्रेइ
फकीच उस सबसे दूर रहा, बस एक बात गौर करने जैसी थी, वह यह कि वह हमेशा से
और अधिक दुःखी लगने लगा और साथ ही उसने पत्रवाहक कार्पव से यह भी पूछा कि वह जादूगर रुका कहाँ है.
इस तरह, अर्थशास्त्री से पूछकर रेस्तराँ वाला पाँचवीं मंज़िल पर
पहुँचा और उसने फ्लैट नं. 50 की घंटी बजाई.
तत्क्षण दरवाज़ा खुला, मगर रेस्तराँ वाला कुछ काँपते हुए, कुछ
लड़खड़ाते हुए उसी समय अन्दर नहीं घुसा. बात ठीक ही थी. दरवाज़ा खोलने वाली एक लड़की
थी – जिसने लेस वाले एप्रन के सिवा कुछ नहीं पहना
था, सिर पर सफ़ेद टोप था. हाँ, पैरों
में सुनहरे जूते थे. लड़की का डीलडौल, नाकनक्श अच्छे थे,
सिवाय एक बात के कि उसकी गर्दन पर एक लाल-सा चोट का निशान था.
“घण्टी बजाई है तो आइए!” लड़की ने होटल वाले पर
अपनी हरी निर्लज्ज आँखें जमाते हुए कहा.
अन्द्रेइ
फकीच के मुँह से सिसकी निकल गई, वह आँखें झपकाते हुए, टोपी निकालकर प्रवेश-कक्ष में
प्रविष्ट हुआ. इसी समय वहाँ रखा हुआ टेलिफोन बज उठा. वह निर्लज्ज नौकरानी एक पैर
कुर्सी पर रखे टेलिफोन का रिसीवर उठाकर बोली, “हैलो!”
रेस्तराँ वाला समझ नहीं पा रहा था कि वह अपनी नज़रें किधर घुमाए, एक
पैर से दूसरे पैर पर अपना शरीर घुमाते हुए वह सोच रहा था: ‘क्या नौकरानी है इस विदेशी की! छिः कितनी घिनौनी!’ और इस घिनौनी चीज़ से बचने के लिए वह इधर-उधर देखने लगा.
यह बड़ा-सा, अंधेरा-सा प्रवेश-कक्ष अजीब-अजीब चीज़ों से और वस्त्रों से
अटा पड़ा था. कुर्सी की पीठ पर एक ग़मी के मौके पर पहनने वाला कोट था, जिसकी किनारी लाल थी, ड्रेसिंग टेबल की छोटी-सी
स्टूल पर सुनहरी मूठ वाली एक लम्बी तलवार रखी थी. तीन चाँदी की मूठों वाली तलवारें
कोने में ऐसी ही खड़ी थीं, मानो छतरी या छड़ी हों और रेंडियर
के सींगों पर गरुड़ के पंखों वाले शिरस्त्राण टँगे थे.
“हाँ”, नौकरानी टेलिफोन पर बात कर रही थी, “क्या? सरदार मायकेल? सुन रही
हूँ. हाँ! कलाकार महोदय आज घर पर ही हैं. हाँ, आपसे मिलकर
खुश होंगे. हाँ, मेहमान...चोगा या काला कोट. क्या? रात के बारह बजे.” बात ख़त्म करके उसने रिसीवर
अपनी जगह पर रखा और रेस्तराँ वाले की ओर मुख़ातिब हुई, “आप
किसलिए आए हैं?”
“मुझे नागरिक कलाकार से मिलना है.”
“क्या? ख़ुद उनसे?”
“हाँ, उन्हीं से,” रेस्तराँ
वाले ने रोनी आवाज़ में कहा.
“पूछती हूँ,” लड़की ने असमंजस में पड़कर कहा और
मृत बेर्लिओज़ के कमरे का दरवाज़ा थोड़ा-सा खोलकर बोली, “सरदार,
एक नाटा आदमी आया है जो कहता है कि उसे महोदय से मिलना है.”
“आने दो,” कमरे के अन्दर से करोव्येव की फटी हुई
आवाज़ आई.
“जाइए, ड्राइंग रूम में चले जाइए,” लड़की ने इतनी सहजता से कहा मानो उसने कपड़े पहन रखे हों, और ड्राइंग रूम का दरवाज़ा खोलकर वह प्रवेश-कक्ष से बाहर निकल गई.
वहाँ जाते हुए, जहाँ जाने के लिए उसे कहा गया था, होटल
वाला अपने काम के बारे में ही भूल गया, इतना आश्चर्य उसे उस
कमरे को देखकर हुआ. बड़ी-बड़ी खिड़कियों के रंगीन शीशों से (जवाहिरे की बीवी की
कल्पना की बदौलत, जो कहीं खो गई थी) कमरे में एक अजीब-सा
प्रकाश आ रहा था, जो आमतौर से चर्च के प्रकाश की भाँति था.
पुरानी भव्य अँगीठी में बसंत के गर्म दिन के बावजूद आग जल रही थी. मगर फिर भी कमरे
में ज़रा भी गर्मी नहीं थी, उल्टे आगंतुक को कब्र की-सी नमी
और ठण्डक ने घेर लिया. अँगीठी की ओर ताकता हुआ शेर की खाल पर काला बिल्ला बैठा था.
एक मेज़ भी थी, जिस पर नज़र पड़ते ही ईश्वर से डरने वाला
रेस्तराँ वाला सिहर उठा. टेबल पर चर्च वाले किमखाब थे. किमखाब पर बड़े पेट वाली,
फफूँद लगी और धूल भरी अनेक बोतलें पड़ी थीं. बोतलों के बीच में एक
तश्तरी रखी थी जिसे देखते ही फौरन समझ में आ रहा था कि वह खालिस सोने की है.
अँगीठी के पास नाटा, लाल बालों वाला कमर में खंजर खोंसे
लम्बी स्टील की तलवार पर माँस के टुकड़े भून रहा था, और आग
में उसका रस बूँद-बूँद कर गिर रहा था और चिमनी से धुआँ बाहर निकल रहा था. कमरे में
न केवल भूने जा रहे माँस की, बल्कि कोई अन्य ख़ुशबू भी फैली
थी, इत्र और लोभान की मिली-जुली, जिससे
रेस्तराँ वाले के (जिसने अख़बारों में बेर्लिओज़ की दर्दनाक मौत और उसके रहने के
ठिकाने के बारे में पढ़ रखा था) दिल में एक ख़याल कौंध गया कि कहीं बेर्लिओज़ के लिए
चर्च में की जाने वाली अंतिम सर्विस तो यहाँ नहीं की गई है,
मगर इस ख़याल को बेतुका समझकर उसने दिल से निकाल दिया.
परेशान, भौंचक्के रेस्तराँ वाले ने अचानक एक भारी-भरकम आवाज़ सुनी, “कहिए, मैं आपकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ?”
अब रेस्तराँ वाले ने अँधेरे में बैठे उसे पहचाना, जिसकी
उसे ज़रूरत थी.
काले जादू का विशेषज्ञ एक बहुत बड़े, नीचे पलंग पर बैठा था, जिस पर कई सारे तकिए पड़े थे. रेस्तराँ वाले ने देखा कि उस कलाकार ने केवल
काला कच्छा और काले नुकीले जूते ही पहन रखे थे.
“मैं,” रोनी आवाज़ में रेस्तराँ वाला बोला, “वेराइटी थियेटर के रेस्तराँ का प्रमुख हूँ...”
कलाकार ने बहुमूल्य पत्थर जड़ी अँगूठियों वाला अपना हाथ आगे बढ़ाया जैसे कि
रेस्तराँ वाले का मुँह बन्द करना चाहता हो, और उत्तेजित होते हुए बोला, “नहीं, नहीं, नहीं! आगे एक शब्द
भी नहीं! किसी भी हालत में और कभी भी नहीं! आपके रेस्तराँ की एक भी चीज़ मैं अपने
मुँह में नहीं डाल सकता! कल, आदरणीय महोदय, मैं आपके काउंटर के पास से गुज़रा था और अभी तक मैं न तो वहाँ की मछली भूला
हूँ और न ही भेड़ के दूध का पनीर! मेरे लाडले! पनीर हरे रंग का नहीं होता, आपको किसी ने बुद्धू बनाया है. उसे तो सफ़ेद होना चाहिए. और, हाँ, चाय? बस, नाली का पानी! मैंने अपनी आँखों से देखा कि एक फूहड़ लड़की ने बाल्टी भर
पानी आपके समोवार में डाला जबकि समोवार में से चाय देते जा रहे थे. नहीं, मेरे प्यारे, ऐसा नामुमकिन है!”
“मैं माफ़ी चाहता हूँ...” इस अचानक हुए हमले से
भौंचक्का होकर अन्द्रेइ फकीच बोला, “मैं इस काम के लिए
नहीं आया, और मछली का यहाँ कोई काम नहीं है...”
“काम कैसे नहीं है, अगर वह सड़ी हुई हो तो?”
“मछली दूसरी श्रेणी के ताज़ेपन की भेजी गई थी,” रेस्तराँ
वाले ने जानकारी दी.
“मेरे लाड़ले, यह बकवास है!”
“कैसी बकवास?”
“दूसरी श्रेणी का ताज़ापन – यही बकवास है!
ताज़ापन बस एक ही होता है – प्रथम श्रेणी का,
वही अंतिम श्रेणी का भी होगा. और यदि मछली दूसरी श्रेणी की है तो इसका
मतलब यह हुआ कि वह बासी है!”
“मैं माफ़ी चाहता हूँ,” रेस्तराँ वाले ने फिर
कहना चाहा. वह समझ नहीं पा रहा था कि इस आक्रमण को कैसे रोके.
“आपको माफ़ी नहीं मिल सकती,” उसने ज़ोर देकर कहा.
“मैं इस काम के लिए नहीं आया था!” एकदम परेशान
होते हुए रेस्तराँ वाले ने कहा.
“इस काम के लिए नहीं?” विदेशी जादूगर को बड़ा
आश्चर्य हुआ, “फिर ऐसी क्या बात हो सकती है, जो आपको मुझ तक खींच लाई? अगर मैं भूल नहीं रहा हूँ
तो आपके पेशे से सम्बन्धित मैं केवल एक महिला को जानता था, वह
भी काफी अर्सा पहले, जब आप इस दुनिया में आए भी न थे. ख़ैर,
मुझे खुशी हुई. अज़ाज़ेला ! रेस्तराँ प्रमुख को बैठने के लिए स्टूल
खिसकाओ.”
माँस भूनने वाले ने मुड़कर अपने नुकीले दाँतों से रेस्तराँ वाले को भयभीत
करते हुए, हौले से बलूत की एक छोटी-सी काली तिपाई उसकी ओर सरका दी.
कमरे में बैठने के लिए और कुछ था ही नहीं.
रेस्तराँ वाले ने कहा, “बहुत-बहुत धन्यवाद,” और
वह तिपाई पर बैठ गया.
उसका पिछला पैर चर्रर् र्... करके उसी क्षण टूट गया और रेस्तराँवाला कराहते
हुए भीषण दर्दनाक ढंग से फर्श पर धम्म् से टकराया. गिरते-गिरते उसके पैर ने दूसरी
तिपाई को भी धक्का दिया, जो उसके सामने रखी थी और उसकी पैंट पर लाल शराब का पूरा
प्याला गिर पड़ा जो उस तिपाई पर रखा था.
कलाकार बोल पड़ा, “ओह! आपको चोट तो नहीं आई?”
अज़ाज़ेला ने रेस्तराँ वाले को उठने
में मदद की और उसे बैठने के लिए एक और तिपाई दी. दर्द में डूबी आवाज़ ने रेस्तराँ
वाले ने मेज़बान की पेशकश, पैंट निकालकर अँगीठी के सामने उसे सुखाने की, ठुकरा दी और काफी अटपटेपन से गीले कपड़ों में दूसरी तिपाई पर सम्भलकर बैठ
गया.
“मुझे
नीचे बैठना अच्छा लगता है,” कलाकार ने बात शुरू करते
हुए कहा, “ऐसी निचली जगहों से गिरने का उतना ख़तरा नहीं
होता. हाँ, तो हम मछली पर रुके थे? मेरे
प्यारे! ताज़ा, ताज़ा, ताज़ा, और ताज़ा...यही हर होटल वाले का लक्ष्य होना चाहिए. हाँ, इधर थोड़ा बढ़ाइए...”
अँगीठी की लाल रोशनी में रेस्तराँ वाले के सामने तलवार चमक उठी, और अज़ाज़ेला
ने सोने की प्लेट में सनसनाता हुआ माँस का टुकड़ा रखा, उस पर
नींबू का रस निचोड़ा, और दो दाँत वाले सोने के काँटे के साथ
प्लेट रेस्तराँ वाले की ओर बढ़ा दी.
“आभारी हूँ... मैं...”
“नहीं, नहीं, खाइए.”
रेस्तराँ वाले ने मुरव्वत में टुकड़ा मुँह में डाला और फ़ौरन समझ गया कि वह
वास्तव में कोई बहुत ताज़ी और असाधारण रूप से स्वादिष्ट वस्तु चख रहा है. मगर उस
रसदार, ख़ुशबूदार माँस को चूसते-चूसते रेस्तराँ वाला दुबारा
गिरते-गिरते बचा. बगल के कमरे से बड़ा काला पक्षी उड़ता हुआ आया और रेस्तराँ वाले के
गँजे सिर को अपने पंख से दबा गया. जब वह घड़ी के नज़दीक रखी लकड़ी की शेल्फ पर बैठ
गया तो पता चला कि वह उल्लू है. “हे भगवान!” डरपोक, जैसे कि सभी होटल वाले होते हैं, अन्द्रेइ फकीच ने सोचा,...’क्या फ्लैट है!’
“शराब का एक पैग? सफ़ेद, लाल?
दिन के इस वक़्त आप कौन से देश की शराब पसन्द करेंगे?”
“आभारी हूँ...मैं पीता नहीं हूँ...”
“बकवास! तो फिर पाँसे का खेल हो जाए? या आपको कोई और
खेल पसन्द है? दमीनो, ताश?”
“खेलता नहीं हूँ,” रेस्तराँ वाला अब तक थक चुका
था.
“बहुत बुरी बात है,” मेज़बान ने बात ख़त्म करते
हुए कहा, “ख़ैर, मर्ज़ी आपकी,
मगर वे आदमी बड़े धूर्त होते हैं जो शराब, खेल,
सुन्दर औरतों की संगत और खाने के समय की बातचीत से बचते हैं. ऐसे
लोग या तो गम्भीर रोग से ग्रस्त होते हैं या आसपास के लोगों से घृणा करते हैं. यह
भी सच है कि अपवाद हो सकते हैं. कभी-कभी तो मेरे साथ समारम्भ की मेज़ पर बड़े चालू
लोग बैठे हैं!...तो कहिए आपका क्या काम है?”
“कल आपने बड़े कारनामे दिखाए...”
“मैंने?” जादूगर आश्चर्य से बोला, “रहम कीजिए. मैं तो यह सब करता नहीं हूँ!”
“गलती हो गई,” रेस्तराँ वाले ने फ़ौरन कहा, “हाँ, वो, काले जादू का खेल...”
“हाँ, ओह, हाँ, हाँ! मेरे प्यारे, मैं तुम्हें सच्ची बात बता देता
हूँ: मैं कोई कलाकार-वलाकार नहीं हूँ, मुझे तो सिर्फ
मॉस्कोवासियों को इकट्ठा देखना था और इसके लिए सबसे अच्छी जगह थियेटर ही थी. यह
देखो, मेरे साथी ने...” उसने
बिल्ले की ओर इशारा किया, “सारा तमाशा आयोजित किया था,
मैं तो बस बैठे-बैठे मॉस्कोवासियों को देखता रहा. मगर इस तरह परेशान
मत होइए, और मुझे बताइए, उस शो से
सम्बन्धित ऐसी कौन-सी बात थी जिसके कारण आप यहाँ आए?”
“अगर आप देखते कि कार्यक्रम के दौरान छत से कागज़ उड़कर नीचे आ रहे थे,” रेस्तराँ वाले ने अपनी आवाज़ नीचे करके परेशान होकर इधर-उधर नज़रें घुमाईं, “– और उन्हें सबने उठा लिया, फिर एक नौजवान मेरे पास
रेस्तराँ में आया, मुझे एक नोट दिया और मैंने उसे रेज़गारी
लौटाई...साढ़े आठ रूबल...फिर दूसरा आया.”
“नौजवान?”
“नहीं, बड़ा आदमी, फिर तीसरा,
चौथा...मैं सबको रेज़गारी देता रहा. और आज जब अपना कैश बॉक्स देखने
लगा, तो देखा – नोटों के
बदले थे कागज़ के टुकड़े! रेस्तराँ को एक सौ नौ रूबल का जुर्माना देना पड़ा.”
“ओय, ओय, ओय!” जादूगर ने सहानुभूति दिखाई, “क्या उन्होंने
असली नोट समझ लिए? मुझे विश्वास है कि उन्होंने ऐसा जानबूझकर
नहीं किया.”
रेस्तराँ वाले ने अफसोस ज़ाहिर करते हुए तिरछी नज़रों से इधर-उधर देखा, मगर
कुछ कहा नहीं.
“क्या वे बदमाश थे?” जादूगर ने उत्सुकतापूर्वक
मेहमान से पूछा, “क्या मॉस्कोवासियों के बीच बदमाश भी
हैं?”
इस सवाल के जवाब में रेस्तराँ वाला इतनी लाचारी और कटुतापूर्वक मुस्कुराया
कि कोई सन्देह ही नहीं रहा: हाँ, मॉस्को में बदमाश भी हैं.
“बड़ी ओछी बात है!” वोलान्द उत्तेजित होकर बोला, “आप एक गरीब आदमी हैं...क्या आप – सचमुच
गरीब हैं?”
रेस्तराँ वाले ने सिर झुका लिया, ज़ाहिर था कि वह गरीब है.
“आपके पास कितना पैसा है?”
सवाल बड़ी सहृदयता से पूछा गया था, मगर वह था तो अटपटा ही. रेस्तराँ
वाला हिचकिचाया.
“दो सौ उनचास हज़ार रूबल, पाँच बैंकों के खातों में,” बगल के कमरे से चिरचिरी आवाज़ सुनाई दी, “और घर
में फर्श के नीचे दस-दस रूबल की दो सौ स्वर्ण मुद्राएँ हैं.”
रेस्तराँ वाला मानो अपनी तिपाई से चिपक गया.
“यह तो कोई बड़ी रकम नहीं है,” वोलान्द ने
सहानुभूति से अपने मेहमान से कहा, “हालाँकि देखा जाए तो
आपको उसकी ज़रूरत नहीं है. आप कब मरेंगे?”
अब तो रेस्तराँ वाला परेशान हो गया.
“यह न तो किसी को मालूम है और न ही इससे किसी को कोई मतलब है.”
“हाँ, किसी को मालूम नहीं है,” वही घृणित आवाज़ कमरे से सुनाई दी, “सोचो,
न्यूटन की बाइनोमियल थ्योरम! वह ठीक नौ महीने बाद अगली फरवरी में
पेट के कैंसर से फर्स्ट मॉस्को युनिवर्सिटी के अस्पताल के चौथे नम्बर के वार्ड में
मरेगा.”
रेस्तराँ वाले का चेहरा पीला पड़ गया.
“नौ महीने,” वोलान्द ने सोच में पड़कर कहा, “दो सौ उनचास हज़ार...इसका मतलब हुआ हर महीने करीब सत्ताईस हज़ार? कुछ कम तो है, मगर सीधी-साधी ज़िन्दगी के लिए काफ़ी
है. फिर ये सुवर्ण मुद्राएँ भी तो हैं.”
“...सोने के सिक्कों का उपयोग नहीं हो पाएगा,” फिर
वही आवाज़ आई, जिससे रेस्तराँ वाले का सीना बर्फ हो गया, “अन्द्रेइ फकीच की मृत्यु के बाद फौरन ही वह बिल्डिंग तोड़ दी जाएगी और
स्वर्ण मुद्राएँ सरकारी बैंक में जमा हो जाएँगी.”
“मैं तो आपको अस्पताल में भर्ती होने की सलाह नहीं दूँगा,” कलाकार ने आगे कहा, “कराहते, चिल्लाते ना-उम्मीद बीमारों के बीच मरने में कोई तुक नहीं है. इन सत्ताईस
हज़ार से जश्न क्यों न मनाया जाए और ज़हर लेकर दूसरी दुनिया में प्रस्थान किया जाए,
जहाँ संगीत की मधुर लहरियाँ हैं, नशीली
सुन्दरियाँ हैं और जाँबाज़ दोस्त हैं?”
रेस्तराँ
वाला स्तब्ध बैठा रहा और मानो अचानक बूढ़ा हो गया. उसकी आँखों के चारों ओर काले
घेरे पड़ गए, गाल पिचक गए और निचला जबड़ा नीचे लटक गया.
“हम तो ख़यालों में खो गए,” मेज़बान चहका, “काम की बात करें. आप के पास हैं वे कागज़ के टुकड़े? दिखाइए.”
रेस्तराँ वाले ने परेशान होते हुए जेब से कागज़ में बन्धी गड्डी निकाली और
उसे खोलते ही मानो पत्थर हो गया. वहाँ वास्तव में दस-दस के नोट थे.
“मेरे प्यारे, तुम सचमुच बीमार हो,” वोलान्द ने कन्धे उचकाते हुए कहा.
होटल वाला भयंकर हँसी हँसते हुए तिपाई से उठ गया.
“और,” वह फिर रिरियाया, “और अगर वे फिर...”
“हूँ,” कलाकार सोचने लगा, “तो हमारे पास फिर से आइए. मेहेरबानी होगी! आप से मिलकर बड़ी ख़ुशी हुई.”
तभी करोव्येव उस कमरे से उछलकर बाहर आया, वह रेस्तराँ वाले का हाथ पकड़कर
ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा और अन्द्रेइ फोकिच से बार-बार कहने लगा कि वह सबका उनकी ओर
से अभिवादन करे. ठीक से समझ न पाते हुए रेस्तराँ वाला सामने के कक्ष की ओर बढ़ा.
“हैला, ले जाओ!” करोव्येव चीखा.
फिर वही बेशर्म लाल बालों वाली वस्त्रहीन लड़की प्रवेश-कक्ष में थी.
रेस्तराँ वाला सिकुड़कर दरवाज़े से निकला, वह फुसफुसाया, “अलविदा!’ और शराबियों की तरह चलने लगा. कुछ
नीचे जाने के बाद वह रुका, सीढ़ियों पर बैठ गया, कागज़ में बँधे नोट निकालकर देखने लगा, वे सही-सलामत
थे.
तभी इस मंज़िल पर स्थित फ्लैट के दरवाज़े से हरे पर्स वाली औरत निकली.
सीढ़ियों पर बैठकर नोटों को देखते हुए इस आदमी को देखकर वह मुस्कुराई और बोली, “हमारी भी क्या बिल्डिंग है! यह सुबह से पीकर बैठा है...सीढ़ियों का शीशा
फिर से टूट गया है,” ध्यान से रेस्तराँ वाले की ओर
देखते हुए आगे बोली, “ये, तुम्हारे
नोट अण्डे तो नहीं देंगे न! थोड़े मुझे दे देते! हाँ?”
“मुझे छोड़ दो, येशू की ख़ातिर,” रेस्तराँ वाला घबराकर पैसे छुपाने लगा. औरत ठहाका मारकर हँस पड़ी, “तुझे बालों वाला शैतान ले जाए! मैं तो मज़ाक कर रही थी...” और वह नीचे चली गई.
होटल वाला धीरे-धीरे उठा. उसने अपना हाथ ऊपर उठाया, ताकि
अपनी हैट ठीक कर सके. तभी उसे पता चला कि सिर पर तो हैट है ही नहीं. वापस जाने के
ख़याल से वह ख़ौफ़ खा गया, मगर हैट का अफ़सोस था. थोड़ा सोचने के
बाद वह वापस गया और उसने घण्टी बजाई.
“अब और क्या चाहिए?” उस दुष्ट हैला ने पूछा.
“मैं अपनी हैट भूल गया...” रेस्तराँ वाला अपने
गंजे सिर में उँगलिया गड़ाते हुए फुसफुसाया. हैला मुड़ी. रेस्तराँ वाले ने ख़यालों
में उस पर थूका और अपनी आँखें बन्द कर लीं. जब उसने उन्हें खोला तो हैला ने उसे
उसकी हैट और काली मूठ वाली तलवार थमा दी.
“यह मेरी नहीं है,” वह तलवार दूर करते हुए,
और फ़ौरन हैट पहनते हुए बुदबुदाया.
“क्या आप बिना तलवार के आए थे?” हैला को आश्चर्य
हुआ.
रेस्तराँ वाला कुछ बुदबुदाते हुए तुरंत नीचे की ओर भागा. न जाने क्यों उसके
सिर को कुछ अजीब-सा महसूस हो रहा था और हैट में काफ़ी गर्मी लग रही थी; उसने
उसे उतारा और डर के मारे उछलकर हौले से चीखा. उसके हाथ में मखमली टोप था, मैले कुचले मुर्गी के परों से सजा. रेस्तराँ वाले ने सलीब का निशान बनाया.
तभी वह मखमल म्याऊँ-म्याऊँ कर उठा, वह काले नन्हे-से बिल्ले
के रूप में बदल गया और फिर से अन्द्रेइ फकीच के सिर पर उछलकर उसके गंजे सिर को
अपने नाखूनों से खुरचने लगा. एक बदहवास चीख के साथ रेस्तराँ वाला नीचे की ओर भागने
लगा और बिल्ली का बच्चा उसके सिर से गिरकर ऊपर की ओर लपका.
खुली हवा में पहुँचने के बाद, रेस्तराँ वाला तीर की तरह मुख्यद्वार
की ओर लपका और उसने हमेशा के लिए उस शैतानी फ्लैट नं. 302 को राम-राम कहा.
सबको मालूम है कि आगे उसके साथ क्या हुआ. मोड़ पर पहुँचकर उसने वहशियों की
भाँति इधर-उधर देखा, मानो कुछ ढूँढ़ रहा हो. एक मिनट बाद वह सड़क की दूसरी ओर
स्थित दवाई की दुकान में था. जैसे ही उसने कहा, “कृपया
मुझे बताइए...”
काउण्टर के दूसरी ओर खड़ी महिला चिल्ला पड़ी, “नागरिक! आपका तो पूरा सिर खुरच
गया है!”
पाँच मिनट बाद रेस्तराँ वाले का सिर बैण्डेज में बँध गया. उसने पता लगाया
कि यकृत रोगों के सबसे अधिक जाने-माने विशेषज्ञ हैं प्रोफेसर बर्नार्ड्स्की और
कुज़्मिन. कौन नज़दीक है पूछने पर पता चला कि कुज़्मिन बस एक घर छोड़कर ही छोटे-से सफ़ेद
बँगले में रहता है. वह खुशी से पागल हो गया और दो मिनट बाद वह उस छोटे-से सफ़ेद
बँगले में था. यह घर बहुत पुराना था, मगर बहुत, बहुत
आरामदेह था. रेस्तराँ वाले को याद आया कि पहले उससे टकराई एक बूढ़ी नर्स जिसने उसका
हैट लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, मगर चूँकि हैट था ही नहीं,
अतः नर्स खाली मुँह चलाती हुई न जाने कहाँ चली गई.
उसके स्थान पर कमान के नीचे, शीशे के पास एक मध्यम आयु की महिला
दिखाई दी, जिसने छूटते ही कहा कि डॉक्टर के पास उन्नीस तारीख
से पहले समय नहीं है. रेस्तराँ वाला सोच में पड़ गया कि क्या उपाय किया जाए. टटोलती
हुई नज़र से कमान की ओर देखते हुए उसने ताड़ लिया कि डॉक्टर के कमरे के बाहर तीन
आदमी इंतज़ार कर रहे हैं और वह फुसफुसाया, “मैं बस मरने
ही वाला हूँ...”
उस औरत ने अविश्वास से रेस्तराँ वाले के पट्टियों वाले सिर को देखा और थोड़ा
हिचकिचाकर बोली, “ओह, ऐसी बात है...” और उसने रेस्तराँ वाले को कमान से आगे जाने दिया.
इसी समय सामने का दरवाज़ा खुला और उसमें से सुनहरी फ्रेम का चश्मा दिखाई
दिया, एप्रन
पहनी महिला बोली, “नागरिकों, यह
मरीज़ लाइन तोड़कर जाएगा.” रेस्तराँ वाला इधर-उधर देख भी
नहीं पाया था, कि उसने अपने आपको प्रोफेसर कुज़्मिन के सामने
पाया. इस लम्बे-से कमरे में कोई भी भयानक, अजीब, और दवाखाने जैसी बात नहीं थी.
“क्या शिकायत है?” मीठी आवाज़ में कुज़्मिन ने
पूछा और उत्सुकता से पट्टियाँ बंधे सिर की ओर देखने लगा.
“अभी-अभी विश्वसनीय लोगों से सुनकर आया हूँ,” रेस्तराँ
वाले ने वहशीपन से दीवार पर जड़े एक ग्रुप फोटो की ओर देखते हुए कहा, “कि अगली फरवरी में मैं यकृत के कैंसर से मरने वाला हूँ. विनती करता हूँ कि
इसे रोकिए!”
प्रोफेसर कुज़्मिन जैसे बैठा था वैसे ही कुर्सी की आरामदेह पीठ से टिक गया.
“माफ कीजिए, मैं आपको समझ नहीं पा रहा...आप...डॉक्टर
के पास गए थे? आपके सिर पर पट्टियाँ क्यों बँधी हैं?”
“कैसा डॉक्टर? कहाँ का डॉक्टर?...अगर आप उस डॉक्टर को देखते!” उसने दाँत
किटकिटाए, “सिर की तरफ ध्यान मत दीजिए, उसका यहाँ कोई सम्बन्ध नहीं है,” रेस्तराँ वाले
ने जवाब दिया, “सिर पर थूकिए, उसकी
यहाँ ज़रूरत नहीं है. यकृत का कैंसर, रोकिए, प्लीज़!”
“मगर, यह आपसे किसने कहा?”
“उस पर विश्वास कीजिए,” रेस्तराँ वाले ने तैश
में आकर कहा, “उसे मालूम है!”
“मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा,” कन्धे उचकाते हुए
डॉक्टर ने अपनी कुर्सी टेबुल से दूर सरकाई और बोला, “उसे
कैसे मालूम कि आप कब मरने वाले हैं? ख़ासकर तब, जबकि वह डॉक्टर नहीं है?”
“चार नम्बर के वार्ड में,” रेस्तराँ वाला बोला.
अब प्रोफेसर ने अपने मरीज़ की ओर देखा, उसके सिर की ओर देखा और उसकी गीली
पैंट की ओर देखते हुए सोचने लगा, “इन्हीं की कमी थी!
पागल!” उसने पूछा, “आप
वोद्का पीते हैं न?”
“मैंने उसे कभी छुआ भी नहीं,” रेस्तराँ वाले ने
जवाब दिया.
एक मिनट बाद वह कपड़ों के बिना, ठण्डी रेक्सिन जड़ी लम्बी मेज़ पर लेटा
था, और डॉक्टर उसका पेट दबा रहा था. कहना पड़ेगा कि रेस्तराँ
वाला खुश हो गया. प्रोफेसर ने दृढ़ता से कहा कि अभी, कम से कम
इस क्षण, रेस्तराँ वाले के शरीर में कैंसर का कोई लक्षण नहीं
है, मगर अगर ऐसी बात है...यानी अगर उसे डर है और किसी नीम
हकीम ने उसे भयभीत कर दिया है, तो बेहतर है कि सारी जाँचें
कर ली जाएँ...प्रोफेसर ने पर्ची पर कुछ लिखा, यह समझाने के
लिए कि कहाँ जाना होगा, क्या ले जाना होगा. साथ ही एक और
चिट्ठी भी लिखी प्रोफेसर बूरे को जो न्यूरोपैथोलोजिस्ट था. रेस्तराँ वाले को यह
बताया गया कि उसकी दिमागी हालत बहुत बिगड़ी हुई है.
“कितनी है आपकी फीस, प्रोफेसर?” प्यार से मगर कम्पित आवाज़ में रेस्तराँ वाले ने अपनी जेब से नोटों वाला
पैकेट निकालते हुए पूछा.
“जितना आप चाहें,” प्रोफेसर ने रूखा-सा जवाब
दिया.
रेस्तराँ वाले ने तीस रूबल निकालकर मेज़ पर रख दिए, तत्पश्चात्
अप्रत्याशित रूप से, मानो बिल्ली जैसे हाथों से हरकत करते
हुए, उनके ऊपर खनखनाते हुए सिक्कों का अख़बार में लिपटा ढेर
रख दिया.
“यह क्या है?” कुज़्मिन ने मूँछों पर ताव देते
हुए पूछा.
“संकोच मत कीजिए, नागरिक प्रोफेसर,” रेस्तराँ वाला फुसफुसाया, “आपसे विनती करता हूँ – कैंसर को रोक दीजिए!”
“फ़ौरन अपना सोना उठाओ,” प्रोफेसर ने
स्वाभिमानपूर्वक कहा, “बेहतर है, आप
अपने दिमाग की ओर ध्यान दें. कल ही पेशाब की जाँच करवाइए, ज़्यादा
चाय न पीजिए और नमक बिल्कुल मत खाइए.”
“सूप में भी नहीं?” रेस्तराँ वाले ने पूछ लिया.
“किसी में भी नहीं,” कुज़्मिन ने हुक्म दिया.
“ए...ख...” रेस्तराँ वाला निराशा से चहका,
प्यार से प्रोफेसर की ओर देखते हुए उसने सोने के सिक्के उठा लिए और
बिना मुड़े पीछे दरवाज़े की ओर सरकने लगा.
उस दिन प्रोफेसर के पास ज़्यादा मरीज़ नहीं थे और शाम ढलते-ढलते अंतिम मरीज़
भी चला गया. एप्रन उतारते हुए प्रोफेसर ने उधर देखा जहाँ रेस्तराँ वाला नोट रखकर
गया था, और देखता क्या है, कि वहाँ एक भी नोट
नहीं है, बल्कि ‘अब्राऊ दूर्सो’ वाईन की बोतलों के तीन लेबल पड़े हैं.
“शैतान जाने क्या है यह सब!” एप्रन ज़मीन से छूते
हुए कागज़ के टुकड़ों को हाथ में लेते हुए कुज़्मिन बड़बड़ाया – “वह न केवल पागल था अपितु बदमाश भी था! मगर मैं समझ नहीं रहा कि उसे मुझसे
क्या चाहिए था? क्या पेशाब की जाँच के लिए सिफारिशी पर्चा?
ओह! वह मेरा ओवर कोट ले गया!” वैसे ही एक
हाथ में एप्रन पहने वह बाहर से प्रवेश-कक्ष की ओर गया और चिल्लाया, “क्सेनिया निकितीश्ना! देखिए, सारे ओवरकोट सही सलामत
हैं?”
पता चला कि सभी ओवरकोट सही-सलामत हैं. मगर जब प्रोफेसर एप्रन उतारकर टेबुल
की ओर वापस आया तो उसकी नज़र ठिठककर रह गई और वह बुत बन गया. उस जगह, जहाँ
बोतल के लेबल पड़े थे, एक नन्हा-सा काला, बदशक्ल बिल्ली का बच्चा सामने पड़ी तश्तरी से दूध पी रहा था.
“यह क्या है पता तो चले? यह तो...” उसने महसूस किया कि उसका सिर ठण्डा पड़ता जा रहा है.
प्रोफेसर की हल्की और असहाय चीख सुनकर क्सेनिया निकितीश्ना भाग कर आई और
उसे सांत्वना देने लगी, यह कहकर कि शायद कोई मरीज़ बिल्ली का बच्चा छोड़ गया है,
प्रोफेसरों के यहाँ अक्सर ऐसा होता रहता है.
“शायद गरीब होगा,” क्सेनिया निकितीश्ना ने
समझाया, और हमारे यहाँ, बेशक...”
वे सोचने लगे कि कौन इसे फेंककर जा सकता है. पेट में अल्सर वाली बुढ़िया पर
दोनों का शक गया.
“वही, बेशक,” क्सेनिया निकितीश्ना
ने कहा, “उसने सोचा होगा, मुझे तो
मरना ही है, और बिल्ली के बच्चे पर उसे तरस आ गया होगा.”
“मगर सोचिए,” कुज़्मिन चिल्लाया, “फिर दूध! वह भी साथ लाई? तश्तरी भी!”
“उसने पैकेट में दूध लाया होगा, यहाँ आकर तश्तरी में
डाल दिया,” क्सेनिया निकितीश्ना ने समझाया.
“कुछ भी कारण रहा हो, इस बिल्ली के बच्चे को और
तश्तरी को यहाँ से हटाइए,” कुज़्मिन ने कहा और वह
क्सेनिया निकितीश्ना के साथ दरवाज़े तक आया. जब वह वापस लौटा तो तस्वीर बदल चुकी
थी.
खूँटी पर एप्रन टाँगते हुए, प्रोफेसर ने आँगन में खिलखिलाने की
आवाज़ सुनी; उसने बाहर देखा, ज़ाहिर है,
बुत बन गया. आँगन में केवल एक कुर्ता पहने एक औरत सामने वाले बरामदे
की तरफ़ भागी जा रही थी. प्रोफेसर को मालूम था कि वह मारिया अलेक्सान्द्रव्ना थी.
साथ में एक नौजवान भी खिलखिला रहा था.
“क्या बात है?” कुज़्मिन ने नफरत से कहा.
तभी दीवार के पीछे, प्रोफेसर की बिटिया के कमरे में पियानो पर ‘अलिलुय्या...’ गीत बज उठा, और प्रोफेसर की पीठ के पीछे चिड़िया की चहचहाहट सुनाई दी. वह मुड़ा तो देखता
क्या है, मेज़ पर एक मोटी चिड़िया फुदक रही थी.
‘हुँ...चुपचाप...’ प्रोफेसर ने सोचा, ‘वह कमरे में उड़कर आ गई, जब मैं खिड़की से हटा. सब ठीक
है,’ प्रोफेसर ने अपने आपको समझाया, यह महसूस करते हुए कि सब ठीक नहीं है, सब गड़बड़ है,
इसी चिड़िया के कारण. उसकी ओर ध्यान से देखते हुए प्रोफेसर को लगा कि
यह साधारण चिड़िया नहीं है. वह दुष्ट चिड़िया दाहिनी टाँग पर झुकते हुए गिर रही थी,
पंख फड़फड़ा रही थी, गर्दन मोड़ रही थी – यानी पियानो की धुन पर यूँ नाच रही थी जैसे शराबखाने के बाहर शराबी.
बदतमीज़ी कर रही थी, बेशर्मी से प्रोफेसर की ओर देखते हुए आँख
मार रही थी. कुज़्मिन का हाथ टेलिफोन पर पड़ा और वह अपने सहपाठी बूरे को फोन करने
लगा, यह पूछने के लिए कि साठ साल की उमर में ऐसी चिड़ियों का
क्या मतलब होता है, खासकर तब, जब सिर
अचानक चक्कर खाने लगे?
इस दौरान चिड़िया बड़ी-सी दवात पर बैठ गई, जो प्रोफेसर को उपहार में मिली थी,
उसमें बीट कर दी (मैं मज़ाक नहीं कर रहा), फिर
ऊपर उड़कर हवा में तैर गई, एक झटके के साथ सन् 1894 में
युनिवर्सिटी से निकले स्नातकों की तस्वीर फोड़ दी और फिर खिड़की से बाहर उड़ गई.
प्रोफेसर ने टेलिफोन का नम्बर बदल दिया और बूरे के बदले जोंक बेचने वाले ऑफिस को
फोन करके कह दिया, “मैं प्रोफेसर कुज़्मिन बोल रहा हूँ.
मेरे घर पर फौरन जोंके भेज दीजिए.”
रिसीवर रखकर जैसे ही वह पीछे मुड़ा, प्रोफेसर फिर सकते में आ गया. टेबुल
के पीछे नर्स जैसा रूमाल सिर पर टाँके एक महिला हाथ में बैग लिए बैठी थी, जिस पर लिखा था, ‘जोंके’.
उसके मुँह की ओर देखते ही प्रोफेसर चीख पड़ा. वह आदमी का चेहरा था, टेढ़ा, कान तक मुँह से निकलता एक दाँत था. उस महिला
की आँखें बेजान थीं.
“ये पैसे मैं ले लूँगी,” मर्दों-सी आवाज़ में वह
नर्स बोली, “इन्हें यहाँ पड़े रहने की ज़रूरत नहीं है.
फिर उसने पंछियों जैसी हथेली से लेबल उठा लिए और वह हवा में विलीन होने लगी.
दो घण्टे बीत गए, प्रोफेसर अपने शयन-कक्ष में पलंग पर बैठा था. उसकी भँवों
पर, कानों के पीछे, गर्दन पर जोंकें
चिपकी हुई थीं. कुज़्मिन के पैरों के पास जो मोटे रेशमी कम्बल के नीचे थे बूढ़ा,
सफ़ेद मूँछों वाला प्रोफेसर बूरे बैठा था. वह बड़ी सहानुभूति से
कुज़्मिन की ओर देख रहा था और उसे सांत्वना दे रहा था, कि यह
सब बकवास है. खिड़की से रात झाँक रही थी.
मॉस्को में उस रात और क्या-क्या अजीब, ख़ौफ़नाक घटनाएँ हुईं, हमें मालूम नहीं और न ही हम जानना चाहेंगे, क्योंकि
हमें इस सत्य कथा के दूसरे भाग में जाना है. मेरे साथ, पाठकगण!
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द्वितीय भाग
मास्टर और मार्गारीटा
उन्नीस
मार्गारीटा
मेरे साथ, पाठकगण! आपसे किसने कह दिया कि दुनिया में असली, सच्चा, सच्चा प्यार नहीं है? झूठ
बोलने वाले की गन्दी ज़बान कट जाएगी!
मेरे साथ आओ, मेरे पाठक, सिर्फ मेरे साथ और मैं आपको
ऐसे प्यार के दर्शन करवाऊँगा!
नहीं! मास्टर गलत था, जब वह तैश में इवानूश्का से आधी रात के बाद अस्पताल में कह
रहा था कि वह उसे भूल चुकी है. ऐसा हो ही नहीं सकता था. वह उसे बिल्कुल नहीं भूली
थी.
पहले तो हम वह भेद खोल दें जो मास्टर इवानूश्का पर खोलना
नहीं चाहता था. उसकी प्रियतमा का नाम था मार्गारीटा निकालायेव्ना
. मास्टर ने गरीब बिचारे कवि को उसके बारे में जो भी बताया, वह
सब सच था. उसने अपनी प्रिया की बिल्कुल सही तस्वीर खींची थी. वह ख़ूबसूरत थी और
बुद्धिमान भी थी. इसके साथ ही एक बात और बता दें – मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि बहुत-सी औरतें अपनी ज़िन्दगी मार्गारीटा
निकालायेव्ना की ज़िन्दगी से बदलने के लिए सब कुछ देने को तैयार हो जातीं. तीस
वर्षीय मार्गारीटा की कोई संतान नहीं थी; वह एक बहुत बड़े
विशेषज्ञ की पत्नी थी, जिसने सरकार के लिए एक बहुत ही
महत्त्वपूर्ण अन्वेषण किया था. उसका पति जवान, सुन्दर,
सहृदय, ईमानदार था और अपनी पत्नी की पूजा करता
था. मार्गारीटा निकालायेव्ना अपने पति के साथ अर्बात के निकट एक बड़े ख़ूबसूरत मकान
की ऊपरी मंज़िल पर रहती थी, जिसके चारों ओर एक बाग था. जादू
भरी जगह! जो भी यहाँ आएगा, वह यही कहेगा. जिसे जाना हो मेरे
पास आए, मैं उसे पता बताऊँगा, रास्ता
दिखाऊँगा – वह घर अभी भी सही-सलामत है.
मार्गारीटा निकालायेव्ना को पैसों की ज़रूरत नहीं थी. मार्गारीटा निकालायेव्ना
जो चाहे ख़रीद सकती थी. उसके पति के परिचितों में काफी दिलचस्प लोग थे. मार्गारीटा निकालायेव्ना
ने स्टोव को कभी हाथ भी नहीं लगाया था. मार्गारीटा निकालायेव्ना साझे के फ्लैट में
रहने की झंझट से नावाक़िफ़ थी. संक्षेप में...वह सुखी थी? एक
मिनट के लिए भी नहीं! तब से, जब उन्नीस साल की उम्र में उसकी
शादी हुई और वह इस घर में आई, उसे सुख क्या है, मालूम ही नहीं हुआ. हे भगवान! इस औरत को आख़िर किस चीज़ की ज़रूरत थी! किस
चीज़ की तलाश थी इस सुन्दरी को जिसकी आँखों में सदा एक अनबूझी चमक दिखाई देती थी?
इस भुवनमोहिनी की क्या चाह थी, जो तिरछे नेत्र
कटाक्ष से घायल कर देती थी और बसंत ऋतु में छुई-मुई के फूलों से अपने आपको सजाती
थी? नहीं जानता. मुझे पता नहीं. ज़ाहिर था, उसने सच बोला था. उसे चाहिए था वह – मास्टर,
न कि भव्य प्राचीन महल, न बाग और न ही धन. वह
उससे प्रेम करती थी, उसने सच कहा था.
मुझे, सच्चे कहानीकार को, पराए आदमी को भी,
बहुत दुःख हुआ इस विचार से कि मार्गारीटा ने क्या भोगा होगा,
जब वह दूसरे दिन मास्टर के घर आई (सौभाग्य से, वह अपने पति से बात न कर पाई, क्योंकि वह निश्चित
समय पर घर नहीं लौटा था), क्या-क्या सहा होगा उसने यह जानकर
कि मास्टर गायब हो गया है.
उसने उसके बारे में जानने के लिए सब कुछ किया, मगर
कुछ भी न जान पाई. तब वह वापस अपने महल में लौट आई और वहीं पहले की भाँति रहने
लगी.
“हाँ, हाँ, हाँ, वही गलती!” मार्गारीटा ने शीत ऋतु में अँगीठी
के पास बैठकर आग की लपटों की ओर देखते हुए कहा, “मैं उस
रात उसके पास से वापस ही क्यों आई? क्यों? यह तो बेवकूफ़ी है! मैं वादे के मुताबिक दूसरे दिन गई थी, मगर तब तक देर हो चुकी थी. मैं अभागे लेवी मैथ्यू के ही समान लौटी,
बहुत देर से!
इन सब शब्दों का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि यदि वह वास्तव में, उस रात मास्टर के पास रुक भी जाती, तो क्या बदल
जाता! क्या उसे बचा सकती थी? हम कहते, बेवकूफ़ी
है! मगर हम उस बदहवास औरत के सामने ऐसा नहीं कहेंगे.
इसी पीड़ा में मार्गारीटा निकालायेव्ना ने पूरी सर्दियाँ गुज़ारीं और बसंत ऋतु आ गई. उसी
दिन, शुक्रवार
को, जब हर तरह की बेहूदा घटनाएँ हो रही थीं, जिनके पीछे मॉस्को में आए काले जादू के जादूगर का हाथ था; जब बेर्लिओज़ के मामा को वापस कीएव भगा दिया गया था, जब
रोकड़िए को गिरफ़्तार कर लिया गया था और अन्य अनेक ऊलजुलूल, समझ
में न आने वाली घटनाएँ हुई थीं, मार्गारीटा क़रीब दोपहर को
अपने शयन-कक्ष में उठी, जो महल जैसे घर के बुर्ज वाले हिस्से
में स्थित था.
जागने के बाद मार्गारीटा रोई नहीं, जैसा कि अक्सर होता था; क्योंकि वह इस पूर्वाभास के साथ जागी थी कि आज कुछ न कुछ ज़रूर होगा. इस
आभास को दिल में सँजोए वह उसे सहलाती रही, बढ़ाती रही,
ताकि वह खो न जाए.
“मुझे विश्वास है,” मार्गारीटा विश्वासपूर्वक
बुदबुदाई, “मुझे पूरा विश्वास है! कुछ न कुछ होगा! ऐसा
हो ही नहीं सकता कि कुछ न घटे, नहीं तो मुझे इतनी यातना
क्यों सहनी पड़ती? मैं स्वीकार करती हूँ कि मैं झूठ बोलती रही,
धोखा देती रही और लोगों से छिपकर एक गुमनाम ज़िन्दगी जीती रही,
मगर मुझे इतनी कठोर शिक्षा तो नहीं मिलनी चाहिए...कुछ न कुछ तो ज़रूर
होगा क्योंकि ऐसा नहीं होता कि कोई चीज़ निरंतर होती ही रहे. इसके अलावा, मेरा सपना सच्चा था, मैं दावे के साथ कह सकती हूँ...
लाल, धूप में चमकते परदों की ओर देखते, उतावलेपन
से कपड़े बदलते हुए और तीन आईनों वाले ड्रेसिंग टेबुल के सामने अपने छोटे, घुंघराले बाल सँवारते हुए मार्गारीटा अपने आप से बातें करती रही.
इस रात मार्गारीटा ने जो सपना देखा था, वह अद्भुत था. बात यह थी कि अपनी
पीड़ा भरे सर्दी के दिनों में उसने मास्टर को कभी भी सपने में नहीं देखा. रात में
वह उसे छोड़ देता और वह सिर्फ दिन में ही घुलती रहती. और अब सपने में भी आ गया.
मार्गारीटा ने सपने में एक अनजान जगह देखी – उजाड़, निराश, आरम्भिक बसंत के धुँधले आकाश तले. देखा वह
टुकड़ों वाला, उड़ता आकाश और उसके नीचे चिड़ियों का ख़ामोश झुण्ड.
एक ऊबड़-खाबड़ पुल, जिसके नीचे छोटी-सी मटमैली बसंती नदी;
उदास, दयनीय, अधनंगे पेड़;
इकलौता मैपल का वृक्ष – वृक्षों के
बीच, किसी बाड़ के पीछे, लकड़ी का मकान,
शायद – रसोईघर था, या शायद स्नानगृह, शैतान ही जाने क्या था वह! आसपास
सब उनींदा-सा, बेजान-सा, इतना उदास कि
पुल के पास वाले उस मैपल के वृक्ष से लटक जाने को जी चाहे. न हवा की हलचल, न बादल की सरसराहट, न ही जीवन का कोई निशान. यह तो
नरक जैसी जगह है ज़िन्दा आदमी के लिए!
और सोचिए, उस लकड़ी वाले घर का दरवाज़ा खुलता है और उसमें से निकला,
वह. काफ़ी दूर है, मगर वही था. साफ़ दिख रहा था.
कपड़े इतने फटे हैं कि पहचाना नहीं जा सकता कि उसने क्या पहन रखा है. बाल बिखरे हुए,
दाढ़ी बढ़ी हुई. आँखें बीमार, उत्तेजित. हाथ के
इशारे से उसे बुला रहा था. उस ठहरी हुई हवा में छटपटाती मार्गारीटा ऊबड़-खाबड़ ज़मीन
पर उसकी ओर भागी, और तभी उसकी आँख खुल गई.
“इस सपने का दो में से एक ही मतलब हो सकता है,” मार्गारीटा
निकालायेव्ना अपने आपसे तर्क करती रही, “अगर वह मर चुका
है, और मुझे बुला रहा है, तो इसका मतलब
यह हुआ कि वह मेरे लिए आया है, और मैं शीघ्र ही मर जाऊँगी.
यह बहुत अच्छा होगा, क्योंकि तब मेरी पीड़ा का अंत हो जाएगा.
यदि वह जीवित है, तो इस सपने का केवल एक ही मतलब है, वह मुझे अपने बारे में याद दिला रहा है. वह कहना चाहता है कि हम फिर
मिलेंगे. हाँ, हम मिलेंगे, बहुत जल्दी.”
इसी उत्तेजित अवस्था में मार्गारीटा ने वस्त्र पहने और अपने आप को विश्वास
दिलाती रही कि सब कुछ ठीकठाक हो जाएगा. और ऐसे मौके का फ़ायदा उठाना चाहिए. पति
पूरे तीन दिनों के लिए दौरे पर गया है. ये तीन दिन उसके अपने हैं, कोई
भी उसे कुछ भी सोचने से नहीं रोक सकता, उसके बारे में सोचने
से, जो उसे अच्छा लगता है. ऊपरी मंज़िल के ये पाँचों कमरे,
यह पूरा घर जिससे मॉस्को के लाखों लोग ईर्ष्या करते हैं, उसके पूरे अधिकार में है.
मगर इस शानदार, आरामदेह फ्लैट में पूरे तीन दिनों के लिए आज़ादी पाकर
मार्गारीटा ने सबसे अच्छी जगह नहीं चुनी. चाय पीकर वह बिना खिड़कियों वाले अँधेरे
कमरे में गई, जहाँ सूटकेसें और अन्य अनेक पुरानी चीज़ें दो
बड़ी-बड़ी अलमारियों में रखी थीं. एक छोटी तिपाई पर बैठकर उसने पहली अलमारी का निचला
खाना खोला. रेशमी कतरन के बीच से उसने वह चीज़ निकाली, जो उसे
सबसे प्रिय थी. मार्गारीटा के हाथों में पुराना अल्बम था, कत्थई
चमड़े की जिल्द वाला, जिसमें मास्टर की तस्वीर थी, बैंक की पासबुक थी जिसमें उसके नाम पर दस हज़ार जमा थे; सिगरेट की चमकीली चाँदी वाले कागज़ में रखे सूखे हुए गुलाब की पंखुड़ियाँ
थीं, और टाइपराइटर में टाइप किया हुआ वह उपन्यास, जिसका निचला हिस्सा जल चुका था.
इस ख़ज़ाने को लेकर मार्गारीटा निकालायेव्ना अपने शयन-कक्ष में लौट आई, उसने
तीन शीशों वाली टेबुल पर मास्टर का फोटो रखा और क़रीब एक घण्टा बैठी रही; अपने घुटनों पर अधजले उपन्यास को रखकर उसे पलटती रही, बार-बार पढ़ती रही, वह, जिसमें
जल चुकने के बाद न आदि था न अंत: “...अँधेरा, भूमध्य सागर की ओर से आता हुआ, न्यायाधीश की घृणा के
पात्र शहर को घेरता जा रहा था. सभी लटकते पुल, जो मन्दिर को
अंतोनियो की ख़ौफ़नाक मीनार से जोड़ते थे, गायब हो गए; आकाश से एक अनन्त ने आकर घुड़सवारी के मैदान में रखी सभी परों वाली ईश्वरों
की मूर्तियों को ढँक लिया. हसमन का महल अपने झरोखों समेत; बाज़ार,
कारवाँ, सराय, गलियाँ,
पोखर...येरूशलम – महान शहर – गायब हो गया मानो धरती पर उसका अस्तित्व ही न रहा हो...”
मार्गारीटा आगे पढ़ना चाहती थी, मगर आगे कुछ था ही नहीं, सिर्फ कालिख की आड़ी-टेढ़ी किनार के सिवाय.
आँसू पोंछते हुए मार्गारीटा निकालायेव्ना ने उपन्यास को रख दिया. ड्रेसिंग टेबुल पर
कोहनियाँ रख दीं, मास्टर के फोटो से नज़रें हटाए बिना बड़ी देर तक दर्पण में
प्रतिबिम्बित होती रही. फिर उसके आँसू सूख गए. मार्गारीटा ने अपनी दौलत को सहेजकर
रख दिया. कुछ ही मिनटों बाद वह रेशमी कतरन के बीच, अँधेरे
कमरे की अलमारी में थी और अँधेरे कमरे के दरवाज़े का ताला आवाज़ के साथ बन्द हो गया.
मार्गारीटा निकालायेव्ना ने आकर
कोट पहना, ताकि वह घूमने जा सके. उसकी सुन्दर नौकरानी नताशा ने पूछ
लिया कि खाना क्या बनेगा और यह जवाब पाकर कि कुछ भी बना लो, वह
अपना दिल बहलाने के लिए मालकिन से बातें करने लगी. वह न जाने क्या-क्या सुनाती रही,
साथ ही यह भी कि कल थियेटर में एक जादूगर ने ऐसे कारनामे दिखाए कि
सब दंग रह गए; उसने सबको दो-दो विदेशी इत्र की शीशियाँ दीं
और तंग पैजामे भी मुफ़्त में दिए; और फिर जैसे ही ‘शो’ ख़त्म हुआ और दर्शक बाहर निकले, सब – फट् – सभी नंगे दिखाई दिए! मार्गारीटा निकालायेव्ना प्रवेश-कक्ष के शीशे के
सामने कुर्सी पर लुढ़क गई और पेट पकड़कर हँसती रही.
“नताशा! तुम्हें शरम नहीं आती,” मार्गारीटा निकालायेव्ना
बोली, “तुम तो पढ़ी-लिखी, समझदार
लड़की हो; लोग कतारों में खड़े न जाने क्या-क्या कहते हैं और
तुम भी वही दुहराती हो!”
नताशा का चेहरा लाल हो गया, उसने तैश में आकर कहा कि कोई झूठ
नहीं बोल रहा और आज उसने स्वयँ भी अर्बात के डिपार्टमेन्टल स्टोर में एक महिला को
देखा जो स्टोर में जूते पहनकर आई थी, और जैसे ही काउण्टर पर
पैसे देने लगी, जूते उसके पैरों से गायब हो गए और वह सिर्फ
स्टॉकिंग्स में ही रह गई. उसकी आँखें फटी रह गईं! एड़ी पर एक छेद था! और ये जूते
उसी ‘शो’ से उसने लिए थे.
“वैसे ही गई?”
“वैसे ही गई!” नताशा चिल्लाई और अधिक लाल होते
हुए, इस अहसास से, कि मालकिन उस पर
विश्वास नहीं कर रही, “हाँ, कल,
मार्गारीटा निकालायेव्ना , पुलिस वाले रात को
सौ आदमियों को पकड़कर ले गए. इस ‘शो’ से निकली महिलाएँ केवल कच्छे पहने त्वेर्स्काया सड़क पर दौड़ रही थीं!”
“हाँ, यह तो दार्या ने बताया है,” मार्गारीटा निकालायेव्ना ने कहा, “मैं काफी समय
से देख रही हूँ कि वह एक नम्बर की झूठी है.”
यह हँसी-मज़ाक वाली बात नताशा के लिए एक आश्चर्य लेकर ख़त्म हुई. मार्गारीटा निकालायेव्ना
अपने शयन-कक्ष में गई और वहाँ से एक जोड़ी
स्टॉकिंग्ज़ और एक यूडीकोलोन की शीशी लेकर निकली. नताशा से यह कहकर कि वह भी
चमत्कार दिखाना चाहती है, उसने उसे दोनों चीज़ें भेंट करते हुए कहा कि वह उससे सिर्फ
यह विनती करती है कि केवल स्टॉकिंग्ज़ पहनकर त्वेर्स्काया पर मत दौड़ना और दार्या का
विश्वास न करना. एक-दूसरे को चूमकर नौकरानी और मालकिन ने बिदा ली.
ट्रॉलीबस की आरामदेह नर्म कुर्सी पर टिककर बैठी मार्गारीटा निकालायेव्ना अर्बात जा रही थी. वह कभी अपने ख़यालों में डूब
जाती या कभी अपने सामने बैठे दो नागरिकों की फुसफुसाहट भरी बातचीत सुनने लगती.
और वे, कनखियों से इधर-उधर देखते हुए इस भय से कि कोई उनकी बातें
तो नहीं सुन रहा, किसी अजीबोगरीब घटना के बारे में चर्चा कर
रहे थे. तन्दुरुस्त, मोटा, बड़ी-बडी
सूअर जैसी आँखों वाला, जो खिड़की के निकट बैठा था धीमी आवाज़
में बात कर रहा था. वह अपने दुबले-पतले हमराही को बता रहा था कि ताबूत को काले
ढक्कन से ढाँकना पड़ा...
“असम्भव,” सकते में आते हुए पतला फुसफुसाया, “ऐसा तो कभी सुना नहीं...फिर झेल्दीबिन ने क्या किया?”
ट्रॉलीबस की एक-सी घरघराहट में खिड़की के पास से कुछ शब्द सुनाई दिए.
“छापा...खोज...स्कैण्डल, बस, रहस्यमय!”
इन असम्बद्ध टुकड़ों को तरतीब से रखकर मार्गारीटा निकालायेव्ना यह समझी कि
किसी मृत व्यक्ति का, किसका – उन्होंने नाम नहीं
लिया, आज सुबह ताबूत में से सिर चुरा लिया गया. इसी कारण वह
झेल्दीबिन इतना परेशान है. ये लोग भी, जो ट्रॉलीबस में
फुसफुसाकर बातें कर रहे थे, बेसिर वाले मृतक से किसी न किसी
रूप से सम्बन्धित हैं.
“क्या फूल ख़रीद सकेंगे?” पतले आदमी ने चिंता से
पूछा, “तुम कहते हो कि अन्तिम संस्कार दो बजे है?”
आख़िर मार्गारीटा निकालायेव्ना उनकी बातों से उकता गई. यह रहस्यमय फुसफुसाहट, ताबूत
से सिर चुराने के बारे में, उसे बेचैन करने लगी, और वह खुश हो गई यह देखकर कि अब उसे ट्रॉलीबस से उतरना है.
कुछ मिनटों के बाद मार्गारीटा निकालायेव्ना क्रेमलिन की दीवार के निकट एक
बेंच पर बैठी थी, इस तरह कि उसे मानेझ हॉल दिखाई दे रहा था.
मार्गारीटा ने चमकते सूरज की ओर आँखें सिकोड़ कर देखा, अपने
आज के सपने को याद किया. उसे यह बात भी याद आई कि ठीक एक साल पहले आज ही के दिन,
इसी समय, इसी बेंच पर वह उसके साथ बैठी थी और
उसका काला पर्स इसी तरह बेंच पर उसकी बगल में पड़ा था. आज वह उसके निकट नहीं था,
मगर मार्गारीटा निकालायेव्ना अपने ख़यालों में बस उसी से बातें कर
रही थी : “अगर तुम्हें निर्वासित कर दिया गया है,
तो अपने बारे में ख़बर क्यों नहीं भेजते? लोग
अपना पता-ठिकाना बताते ही हैं. क्या तुम अब मुझसे प्यार नहीं करते? नहीं, न जाने क्यों, इस बात पर
मैं विश्वास नहीं करती; मतलब, तुम्हें
निर्वासित किया गया और तुम मर गए...तब, प्लीज़, मुझे छोड़ दो, मुझे जीने की आज़ादी दो, खुली हवा में साँस लेने दो.” मार्गारीटा निकालायेव्ना
ने स्वयँ ही उसकी ओर से जवाब दिया, “तुम आज़ाद हो...क्या
मैं तुम्हें पकड़कर बैठा हूँ?” फिर उसी ने प्रतिवाद भी
किया, “नहीं, ये क्या जवाब हुआ!
नहीं, तुम मेरे ख़यालों से भी दूर चले जाओ, तब मैं आज़ाद हो जाऊँगी.”
लोग मार्गारीटा निकालायेव्ना के नज़दीक से गुज़र रहे थे. एक आदमी उसकी
वेशभूषा, सुन्दरता और अकेलेपन से आकर्षित हुआ. वह खाँसकर उसी बेंच
के किनारे पर बैठ गया जिस पर मार्गारीटा निकालायेव्ना बैठी थी. साहस बटोरकर उसने
कहा, “आज मौसम ख़ास तौर से अच्छा है...” मगर मार्गारीटा ने इतने विषाद से उसकी ओर देखा कि वह उठकर चला गया.
“यह था, नमूना,” मार्गारीटा
ने अपने ख़यालों में ही उससे कहा, जिसने उसे घेर रखा था, “मैंने इस आदमी को क्यों भगा दिया? इस मजनूँ में कोई
बेवकूफ़ी भरी बात नहीं थी, मगर ‘ख़ासतौर
से’ यह शब्द कितना बेहूदा था? मैं
उल्लू की तरह दीवार के नीचे अकेली क्यों बैठी हूँ? मैं
ज़िन्दगी से कट क्यों गई हूँ?
वह बहुत दुःखी हो गई और अपने होश खोने लगी. मगर तभी वह सुबह वाली आशा की
लहर और उत्तेजना उसके शरीर को झकझोरने लगी. “हाँ, कुछ
न कुछ ज़रूर होगा!” लहर ने उसे दुबारा धक्का दिया और वह
समझी कि इस लहर में एक आवाज़ भी है. शहर के शोर के बीच नज़दीक आती ड्रम और पाइपों की
आवाज़ें सुनाई दीं.
सबसे आगे चल रहा था, उद्यान की सीमा पर जड़ी जाली के साथ-साथ, घुड़सवार सिपाही, उसके पीछे तीन पैदल सिपाही थे. फिर धीरे-धीरे
आगे बढ़ता हुआ ट्रक जिस पर बैण्ड बजाने वाले सवार थे. फिर हौले-हौले आगे बढ़ रही थी
अन्तिम-संस्कार के आयोजनों के नई खरीदी गई खुली गाड़ी, उस पर
ताबूत, पुष्प चक्रों के साथ, और
किनारों पर खड़े हुए चार व्यक्ति – तीन पुरुष और एक
महिला जो मृतक की अन्तिम यात्रा में उसका साथ दे रहे थे. अजीब-सी उलझन में फँसे
हुए. ख़ास तौर से उखड़ी-उखड़ी दिखाई दे रही थी वह महिला, जो
पीछे की ओर बाएँ किनारे पर खड़ी थी. इस महिला के फूले-फूले गाल जैसे किसी अजीब भेद
को छिपा रहे थे, लाल फूली आँखों में दुहरा सवाल था. ऐसा लग
रहा था कि अब वह मृतक की ओर आँख मारते हुए देखकर बोल पड़ेगी: “कभी ऐसा भी देखा है? रहस्यमय!” पैदल चलने वालों के चेहरों पर भी वही सवाल था, जिनकी
संख्या करीब तीन सौ थी और वे अन्तिम यात्रा वाली गाड़ी के पीछे-पीछे धीरे-धीरे चल
रहे थे.
मार्गारीटा ने आँखों से इस जुलूस को बिदा किया और दूर जाती तुर्की बैण्ड की
आवाज़ सुनती रही जो लगातार ‘बूम्स, बूम्स” किए जा रहा था, और सोचती रही: “कैसी अजीब शवयात्रा है...और कितनी पीड़ा है इस “बूम्स” में! मैं शैतान को भी अपना दिल दे दूँ, बस यह जानने
के लिए कि वह ज़िन्दा है या नहीं! आखिर यह शव यात्रा है किसकी जिसमें इतने बड़े-बड़े
लोग शामिल हुए हैं?
“मिखाइल अलेक्सान्द्रविच बेर्लिओज़ की,” उसके
नज़दीक ही नाक से बोलते हुए आदमी की अवाज़ सुनाई दी, “मॉसोलित
के प्रेसिडेण्ट की.”
हैरान मार्गारीटा निकालायेव्ना मुड़ी और उसने अपनी बेंच पर बैठे नागरिक को
देखा, जो
इस दौरान चुपके से आकर वहाँ बैठ गया था, जब मार्गारीटा
शवयात्रा देख रही थी, शायद आखिरी सवाल अपने भुलक्कड़पन में
उसने ज़ोर से पूछ लिया था.
जुलूस अब कुछ रुक-सा गया था, शायद लाल ट्रैफिक लाइट के कारण.
“हाँ,” उस अनजान नागरिक ने बात आगे बढ़ाई, “उनकी मानसिक हालत बड़ी अजीब है. मृतक को तो ले जा रहे हैं, मगर सोच रहे हैं कि उसका सिर आख़िर गया कहाँ?”
“कैसा सिर?” मार्गारीटा ने इस आकस्मिक रूप से आ
टपके व्यक्ति की ओर देखते हुए पूछ लिया...यह व्यक्ति छोटे कद का, लाल बालों वाला और बाहर निकले दाँत वाला, इस्तरी की
हुई कमीज़ पर धारियों वाला बढ़िया सूट पहने, चमचमाते चमड़े के
जूतों में था. सिर पर कड़ी हैट थी. टाई चमकीली थी. ख़ास बात यह थी कि जेब में से,
जहाँ अक्सर रूमाल या पेन लगा रहता है, मुर्गी
की कुतरी हुई हड्डी झाँक रही थी.
“देखिए,” लाल बालों वाले ने समझाते हुए कहा, “आज सुबह ग्रिबायेदव हॉल में, ताबूत में से मृतक का
सिर चुरा लिया गया.”
“यह कैसे हो सकता है?” मार्गारीटा ने न चाहते
हुए भी पूछ लिया, तभी उसे ट्रॉलीबस में हो रही, फुसफुसाहट भरी बातचीत भी याद आ गई.
“शैतान जाने कैसे!” लाल बालों वाले ने फैलते हुए
कहा, “मैं समझता हूँ कि बिगिमोत से इस बारे में पूछना
ठीक रहेगा. कितनी सफ़ाई से चुरा लिया! कैसा स्कैण्डल! ख़ास बात यह है कि किसे और
क्यों ज़रूरत पड़ गई इस सिर की?”
अपने आप में कितनी ही मशगूल न थी मार्गारीटा निकालायेव्ना, इस
अनजान नागरिक की बकवास ने उसे चौंका ज़रूर दिया.
“माफ़ कीजिए,” अचानक वह बोली, “कौन से बेर्लिओज़ की? जिसके बारे में आज अख़बारों
में...”
“वही, वही...”
“तो ये सब साहित्यकार हैं, जो शवयात्रा के पीछे-पीछे
चल रहे हैं?” मार्गारीटा ने पूछा और वह सकते में आ गई.
“ज़ाहिर है, वही हैं...”
“आप उन्हें पहचानते हैं?”
“सबको,” लाल बालों वाले ने जवाब दिया.
“बताइए,” मार्गारीटा ने भेदभरी आवाज़ में पूछा, “उनके बीच आलोचक लातून्स्की भी है?”
“कैसे नहीं होगा?” लाल बालों वाले ने जवाब दिया, “वह देखो चौथी लाइन में किनारे पर.”
“वह भूरे बालों वाला?” आँखें सिकोड़ते हुए
मार्गारीटा ने पूछा.
“राख जैसे रंग वाले...देखिए, उसने आँखें आसमान की ओर
उठाईं.”
“पादरी जैसा?”
“हाँ – हाँ!”
आगे मार्गारीटा ने कुछ नहीं पूछा, बस लातून्स्की की ओर देखती रही.
“आप शायद,” मुस्कुराते हुए लाल बालों वाले ने
कहा, “इस लातून्स्की से नफरत करती हैं?”
“मैं और भी किसी से नफ़रत करती हूँ,” दाँत भींचते
हुए मार्गारीटा बोली, “मगर यह सब बताने में मुझे कोई
दिलचस्पी नहीं है.”
इस दौरान शवयात्रा आगे चल चुकी थी, पैदल चलने वालों के पीछे अनेक खाली
मोटर कारें थीं.
“हाँ, इसमें दिलचस्पी वाली बात तो कोई नहीं है,
मार्गारीटा निकालायेव्ना!”
मार्गारीटा चौंक पड़ी, “आप मुझे जानते हैं?”
जवाब के बदले लाल बालों वाले ने हैट उतारकर अभिवादन किया.
‘बिल्कुल डाकू जैसी सूरत है,’ मार्गारीटा ने उस
अचानक मिल गए साथी की ओर देखकर सोचा.
“मगर मैं आपको नहीं जानती,” मार्गारीटा ने रुखाई
से कहा.
“आप मुझे कैसे जान सकती हैं! मगर मुझे आपके पास काम से भेजा गया है,” मार्गारीटा का चेहरा फक् हो गया, वह झटका खा गई.
“आप यह पहले भी कह सकते थे,” वह बोली, “मगर आप न जाने क्या बकवास करते रहे कटे हुए सिर के बारे में! आप मुझे
गिरफ़्तार करना चाहते हैं?”
“ऐसी कोई बात नहीं है,” लाल बालों वाला चहका, “ये क्या अन्दाज़ है: अगर आप से बात कर ली, तो आपको
गिरफ़्तार ही करना है! आप से सिर्फ काम है.”
“कुछ समझ में नहीं आ रहा, क्या काम है?”
लाल बालों वाले ने इधर-उधर देखते हुए भेदभरी आवाज़ में कहा, “मुझे इसलिए भेजा गया है कि मैं आज शाम को आपको निमंत्रित करूँ.”
“क्या बक रहे हैं, कैसा निमंत्रण?”
“एक प्रसिद्ध विदेशी के यहाँ,” लाल बालों वाले
ने अर्थपूर्ण स्वर में आँखें सिकोड़ते हुए कहा.
मार्गारीटा को बहुत गुस्सा आ गया.
“एक नई तरह के लोग आ गए हैं: राहगीरों के रूप में दलाल,” उसने उठते हुए कहा.
“इस विशेषण के लिए धन्यवाद!” लाल बालों ने बुरा
मानते हुए कहा और मार्गारीटा को पीठ पीछे गाली देते हुए बोला, “बेवकूफ़!”
“कमीना!” उसने मुड़ते हुए जवाब दिया, मगर तभी अपने पीछे लाल बालों वाले की आवाज़ सुनी:
“...अँधेरा, भूमध्य सागर की ओर से आता हुआ, न्यायाधीश की घृणा के पात्र शहर को घेरता जा रहा था. सभी लटकते पुल,
जो मन्दिर को अंतोनियो की ख़ौफ़नाक मीनार से जोड़ते थे, गायब हो गए... येरूशलम – महान शहर – ऐसे गायब हो गया मानो धरती पर उसका अस्तित्व ही न रहा हो...ऐसे ही तुम भी
लुप्त हो जाओगी अपनी जली हुई पुस्तक और सूखे हुए गुलाब के साथ! यहाँ बेंच पर अकेले
बैठे रहिए और उसकी प्रार्थना कीजिए कि वह आपको आज़ाद कर दे, खुली
हवा में साँस लेने दे, आपके ख़यालों से चला जाए!”
सफ़ेद चेहरे से मार्गारीटा बेंच की ओर लौटी. लाल बालों वाले ने आँखें
सिकोड़ते हुए उसकी ओर देखा.
“मैं कुछ समझ नहीं पा रही,” मार्गारीटा निकालायेव्ना
ने हौले से कहा, “ठीक है, उपन्यास
के बारे में तो आप जान सकते हैं...झाँककर, चुपके से
पढ़कर...नताशा बिक गई है? हाँ? मगर मेरे
ख़यालों को आप कैसे जान गए?” उसने पीड़ा से माथे पर बल
डालते हुए आगे कहा, “मुझे बताइए, आप
हैं कौन? कौन से दफ़्तर में काम करते हैं?”
“क्या बोरियत है,” लाल बालों वाला बुदबुदाया और
ज़ोर से बोला, “माफ़ कीजिए, मैं आप
से पहले ही कह चुका हूँ कि मैं किसी दफ़्तर में काम नहीं करता! बैठ जाइए!”
मार्गारीटा ने चुपचाप आज्ञा का पालन किया, मगर बैठते-बैठते उसने फिर पूछ लिया, “आप कौन हैं?”
“ठीक
है, मेरा नाम है अज़ाज़ेला, मगर इससे
आपको कुछ भी पता नहीं चलेगा.”
“आप
मुझे नहीं बताएँगे कि आपको उपन्यास के बारे में कैसे पता चला?”
“नहीं
बताऊँगा,” रुखाई से जवाब दिया अज़ाज़ेला ने.
“मगर
आप उसके बारे में कुछ तो जानते हैं?” उसकी चिरौरी-सी
करती हुई मार्गारीटा बुदबुदाई.
“हाँ,
चलिए मान लेते हैं, जानता हूँ.”
“मैं
विनती करती हूँ, सिर्फ इतना बता दीजिए कि क्या वह ज़िन्दा है?
मुझे परेशान न कीजिए!”
“हाँ,
ज़िन्दा है, ज़िन्दा है,” बड़ी बेदिली से अज़ाज़ेला बोला.
“हे
भगवान!”
“कृपया
परेशानियों और चीखों के बिना बात करें,” नाक सिकोड़कर अज़ाज़ेला
ने कहा.
“ओह,
माफ़ कीजिए, माफ कीजिए,” अब आज्ञाकारी और नम्र पड़ गई मार्गारीटा ने कहा, “मैं आप पर यूँ ही गुस्सा हो गई. मगर यह तो आप भी मानेंगे, कि जब यूँ ही रास्ते पर किसी औरत को निमंत्रित किया जाए तो...मैं
पूर्वाग्रह से ग्रसित तो नहीं हूँ, मगर यक़ीन मानिए...” मार्गारीटा अप्रसन्नता से हँस पड़ी, “मैं कभी
किसी विदेशी से मिलती नहीं हूँ और न ही उनसे बात करने की मुझे कोई इच्छा है...और
फिर मेरा पति...मेरी कहानी यह है कि मैं रहती उसके साथ हूँ, जिसे
प्यार नहीं करती; मगर फिर भी उसकी ज़िन्दगी ख़राब करना उचित
नहीं है. मैंने उससे कुछ नहीं पाया, सिवा भलाई और सहृदयता
के...”
अज़ाज़ेला उकताहट से यह असम्बद्ध भाषण सुनकर गम्भीरता से बोला, “कृपया एक मिनट को चुप रहिए!”
मार्गारीटा छोटे बालक की भाँति चुप हो गई.
“मैं आपको ऐसे विदेशी के पास ले जा रहा हूँ, जो आपका
ज़रा भी नुकसान नहीं करेगा. और इस बारे में चिड़िया तक को ख़बर नहीं होगी. इस बात का
मैं आपसे वादा करता हूँ.”
“उसे मेरी ज़रूरत क्यों पड़ गई?” कनखियों से देखते
हुए मार्गारीटा ने पूछ लिया.
“यह आपको बाद में पता चलेगा.”
“समझ गई...मुझे अपने आपको उसके हवाले करना होगा,” मार्गारीटा ने सोच में डूबकर कहा.
इस पर अज़ाज़ेला धृष्ठता से हँस पड़ा
और बोला, “दुनिया की कोई भी औरत, मैं
विश्वास के साथ कह सकता हूँ, इस बात के ख़्वाब देखेगी,” अज़ाज़ेला का चेहरा मुस्कुराहट से टेढ़ा हो गया, “मगर
मैं आपको निराश करते हुए कहूँगा कि ऐसा नहीं होगा.”
“कैसा
है यह विदेशी!” परेशानी में मार्गारीटा इतनी ज़ोर से बोल
पड़ी कि आते-जाते लोग उसे मुड़कर देखने लगे, “और मुझे
उसके पास जाने में क्या दिलचस्पी हो सकती है?”
अज़ाज़ेला उसकी ओर झुककर अर्थपूर्ण स्वर में बोला, “दिलचस्पी तो बहुत ज़्यादा है...आप मौके का फ़ायदा उठाएँगी...”
“क्या?” चीख पड़ी मार्गारीटा और उसकी आँखें
गोल-गोल हो गईं, “अगर मैं आपको सही समझ रही हूँ,
तो आप इस ओर इशारा कर रहे हैं, कि वहाँ मैं
उसके बारे में जान सकूँगी?”
अज़ाज़ेला ने चुपचाप सिर हिलाया.
“चलूँगी!” मार्गारीटा पूरी ताकत से चहकी और अज़ाज़ेला
का हाथ पकड़कर बोली, “चलूँगी, जहाँ
चाहे ले चलो!”
अज़ाज़ेला राहत की साँस लेकर बेंच की पीठ से टिक गया, उसने
पीठ से बेंच पर लिखे गए नाम ‘न्यूरा’ को छिपा दिया और व्यंग्यपूर्वक बोला, “ये औरतें
भी मुसीबत होती हैं!” उसने जेबों में हाथ डालकर पैर
फैला लिए, “मुझे ही, मिसाल के तौर
पर, इस काम के लिए क्यों भेजा गया! बिगिमोत भी आ सकता था,
वह हर जगह ‘फिट’ हो जाता है...”
मार्गारीटा दयनीयता से मुस्कुराती हुई बोली, “आप मुझे सम्मोहित करना और अपनी
पहेलियों से दुःखी करना बन्द कीजिए...मैं एक दुःखी व्यक्ति हूँ, और आप इसका फ़ायदा उठा रहे हैं...मैं किसी लफ़ड़े में पड़ने जा रही हूँ,
मगर कसम से कहती हूँ, सिर्फ उसी की ख़ातिर;
क्योंकि आपने उसके बारे में बताकर मुझे कुछ आशा दी है! मेरा तो इन
बेसिर-पैर की बातों से सिर चकराने लगा है...”
“नाटक नहीं, नाटक नहीं,” मुँह
बनाते हुए अज़ाज़ेला बोला, “मेरी भी हालत पर गौर कीजिए.
व्यवस्थापक को तमाचा मारना, या मामा को घर से बाहर भगा देना,
या किसी पर गोली चलाना या इसी तरह की कोई और हल्की-फुल्की हरकत करना – यह मेरी विशेषता है; मगर प्यार करने वाली औरतों से
बातें करना, माफ़ कीजिए! मैं आपको आधे घण्टे से मना रहा
हूँ...तो, आप चलेंगी?”
“चलूँगी,” मार्गारीटा निकालायेव्ना ने सीधा-सा
जवाब दिया.
“तब मेहरबानी करके यह लीजिए,” अज़ाज़ेला ने जेब से
सोने की एक गोल डिबिया मार्गारीटा की ओर बढ़ाते हुए कहा, “हाँ, इसे छिपा लीजिए, वर्ना
आने-जाने वाले देख लेंगे. आपको इसकी ज़रूरत पड़ेगी, मार्गारीटा
निकालायेव्ना आप पिछले छह महीनों में दुःख के कारण काफ़ी बुढ़ा गई हैं.”
मार्गारीटा
लाल हो गई, मगर कुछ न बोली और अज़ाज़ेला कहता रहा, “आज रात को, ठीक साढ़े नौ बजे, पूरी
तरह निर्वस्त्र होकर इस क्रीम को चेहरे पर और पूरे शरीर पर मलिए. उसके बाद,
जो चाहे कीजिए, मगर टेलिफोन से दूर न हटिए. दस
बजे मैं आपको फोन करके बताऊँगा कि आगे क्या करना है. आपको कुछ भी नहीं करना पड़ेगा,
आपको इच्छित जगह ले जाया जाएगा और आपको कोई तकलीफ़ भी नहीं होगी. समझ
गईं?”
मार्ग़ारीटा कुछ देर चुप रही, फिर बोली, “समझ गई. यह चीज़ खरे सोने से बनी है, वज़न से ही पता
चल रहा है. मैं अच्छी तरह समझ रही हूँ कि मुझे ख़रीदा जा रहा है और बाद में किसी
काले धन्धे में डाला जाएगा जिसकी मुझे बड़ी भारी कीमत चुकानी पडेगी.”
“यह क्या हो गया?” अज़ाज़ेला ने फुफकारते हुए कहा, “आप फिर से?”
“नहीं, रुकिए!”
“क्रीम वापस दे दीजिए.”
मार्गारीटा ने उस डिबिया को कसकर पकड़ लिया और आगे बोली, “नहीं, रुकिए!...मुझे मालूम है कि मैं क्या करने जा
रही हूँ. मगर यह सब सिर्फ उसी के लिए है. मुझे दुनिया में किसी और चीज़ की कोई
उम्मीद नहीं है. मगर मैं आपसे कहना चाहूँगी कि यदि आपने मुझे मार डाला तो आपको
शर्मिन्दगी उठानी पडेगी! हाँ, शर्मिन्दगी! मैं प्यार के लिए
मरने जा रही हूँ!” और मार्गारीटा ने दिल पर हाथ मारते
हुए सूरज की ओर देखा.
“वापस दे दीजिए,” अज़ाज़ेला गुस्से से फुफकारा, “वापस दे दीजिए, भाड़ में जाए यह सब! बिगिमोत को ही
भेजें तुम्हारे पास.”
“ओह, नहीं!” मार्गारीटा
आने-जाने वालों को चौंकाते हुए बोली, “मैं सब कुछ करने
के लिए तैयार हूँ, क्रीम लगाने वाली कॉमेडी करने के लिए भी
तैयार हूँ, शैतान के पास भी जाने के लिए तैयार हूँ. नहीं
दूँगी!”
”ब्बा!” एकदम अज़ाज़ेला दहाड़ा और बगीचे की
दीवार की ओर आँखें फाड़कर देखते हुए उसने किसी ओर इशारा किया.
मार्गारीटा ने उधर मुड़कर देखा, जिधर अज़ाज़ेला ने इशारा किया था और वहाँ कोई ख़ास चीज़ न देखकर
वापस उसकी ओर मुड़ी, ताकि उससे इस अचानक फूट पड़े ‘ब्बा!’ का मतलब पूछ सके, मगर
मतलब समझाने वाला वहाँ कोई था ही नहीं: मार्गारीटा निकालायेव्ना का रहस्यमय साथी
गायब हो चुका था. मार्गारीटा निकालायेव्ना ने जल्दी से पर्स में हाथ डालकर देखा,
जहाँ उसने इस चीख से पहले वह डिबिया छिपाई थी. उसे विश्वास हो गया
कि डिबिया वहीं थी. तब बिना कुछ और सोचे मार्गारीटा जल्दी-जल्दी अलेक्साण्डर
गार्डन से बाहर की ओर भागी.
**********
बीस
अज़ाज़ेला की क्रीम
शाम के साफ आसमान में लटकता हुआ पूरा चाँद मैपल वृक्ष की शाखों के बीच से
दिखाई दे रहा था. लिण्डन और अकासिया धरती पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ और धब्बे बना रहे
थे. तीन पट वाली खुली खिड़की, जिसके परदे खिंचे हुए थे, बिजली की
बदहवास रोशनी में नहाई हुई थी. मार्गारीटा निकालायेव्ना के शयन कक्ष में सभी बल्ब
जल रहे थे और कमरे की अस्त-व्यस्तता को उजागर कर रहे थे. पलंग पर कंबल के ऊपर मोज़े,
स्टॉकिंग्ज़ और अंतर्वस्त्र बिखरे थे. उतारे गए अंतर्वस्त्र फर्श पर
परेशानी से कुचले गए सिगरेट के पैकेट के पास फिंके पड़े थे. जूते पलंग के पास वाली
छोटी-सी तिपाई पर आधे पिए कॉफ़ी के प्याले और ऐशट्रे की बगल में रखे थे, जिसमें आधा पिया सिगरेट का टुकड़ा पड़ा था. कुर्सी की पीठ पर पार्टी में पहनने
की काली पोशाक लटक रही थी. कमरे में विभिन्न प्रकार के इत्रों की ख़ुशबू महक रही थी,
साथ ही इनमें मिली थी जलती हुई इस्त्री की गंध.
मार्गारीटा निकालायेव्ना शीशे के
सामने सिर्फ एक नहाने का गाऊन पहने बैठी थी, जिसे नंगे बदन पर यूँ ही डाल लिया
गया था, पैरों में स्वेड के काले जूते थे. घड़ी जड़ा सोने का
ब्रेसलेट मार्गारीटा निकालायेव्ना के सामने अज़ाज़ेला से मिली डिब्बी के पास पड़ा था
और मार्गारीटा घड़ी के डायल पर से नज़र नहीं हटा रही थी. बीचे-बीच में उसे लगता था
कि घड़ी टूट गई है और काँटे आगे ही नहीं बढ़ रहे. मगर वे घूम रहे थे, हाँ, बहुत धीरे-धीरे, और आख़िर
बड़ा काँटा नौ बजकर उनतीसवें मिनट पर आ ही गया. मार्गारीटा का दिल बुरी तरह धड़क उठा,
जिससे वह एकदम डिब्बी न उठा सकी. अपने आप पर काबू पाते हुए उसने
डिब्बी को खोला और देखा कि उसमें पीली, चिकनी क्रीम थी. उसे
लगा कि उसमें से दलदली कीचड़ की गन्ध आ रही है. ऊँगली की नोक से मार्गारीटा ने
थोड़ी-सी क्रीम निकालकर हथेली पर रखी, अब उसमें से दलदली घास
और जंगल की तेज़ महक आने लगी. वह हथेली से माथे और गालों पर क्रीम मलने लगी. क्रीम
बड़ी जल्दी बदन पर मला जा रहा था. मार्गारीटा को ऐसा लगा कि वह तभी भाप बनकर उड़ रहा
है. कुछ देर मलने के बाद मार्गारीटा ने शीशे में देखा और उसके हाथ से डिब्बी छूटकर
घड़ी पर जा गिरी. घड़ी के शीशे पर दरारें पड़ गईं. मार्गारीटा ने आँखें बन्द कर लीं.
फिर उसने अपने आपको दुबारा आईने में देखा और ठहाका मारकर हँस पड़ी.
किनारों पर धागे की तरह पतली होती गई उसकी भवें क्रीम के कारण मोटी-मोटी हो
गई थीं और हरी-हरी आँखों पर विराजमान थीं. पतली-सी झुर्री जो नाक की बगल में तब, अक्टूबर
में, बन गई थी, जब मास्टर गुम हो गया
था, अब बिल्कुल दिखाई नहीं दे रही थी. कनपटी के निकट के पीले
साये भी गायब हो गए थे. साथ ही आँखों के किनारों पर पड़ी जाली भी अब नहीं थी. गालों
की त्वचा गुलाबी हो गई थी. माथा साफ़ और सफ़ेद हो गया था, बाल
खुल चुके थे.
तीस वर्षीया मार्गारीटा को आईने से देख रही थी काले, घुँघराले
बालों वाली, दाँत दिखाकर बेतहाशा हँसती हुए एक बीस साल की
छोकरी.
हँसना ख़त्म करके मार्गारीटा ने एक झटके से गाऊन फेंक दिया और अपने पूरे बदन
पर जल्दी-जल्दी क्रीम मलने लगी. बदन गुलाबी होकर चमकने लगा. फिर मानो किसी ने सिर
में चुभी हुई सुई बाहर निकाल फेंकी हो. उसकी कनपटी का दर्द गायब हो गया जो कल शाम
से अलेक्सान्द्रव्स्की पार्क में शुरू हुआ था. हाथों-पैरों के स्नायु मज़बूत हो गए, फिर
मार्गारीटा का बदन हल्का हो गया.
वह उछली और पलंग से कुछ ऊपर हवा में तैरने लगी. फिर जैसे उसे कोई नीचे की
ओर खींचने लगा और वह नीचे आ गई.
“क्या क्रीम है! क्या क्रीम है!” मार्गारीटा
कुर्सी में बैठते हुए बोली.
इस लेप से उसमें केवल बाहरी परिवर्तन ही नहीं हुआ था. अब उसके समूचे
अस्तित्व में, शरीर के हर कण में प्रसन्नता हिलोरें ले रही थी, जिसका वह हर क्षण अनुभव कर रही थी, मानो बुलबुलों के
रूप में यह खुशी उसके बदन से फूटी पड़ रही थी. मार्गारीटा ने अपने आपको स्वतंत्र
अनुभव किया, सब बन्धनों से मुक्त. इसके अलावा वह समझ गई,
कि वह हो गया है, जिसका आभास उसे सुबह हुआ था,
और अब वह ख़ूबसूरत घर और अपनी पुरानी ज़िन्दगी को हमेशा के लिए छोड़
देगी. मगर इस पुरानी ज़िन्दगी से एक ख़याल उसका पीछा कर रहा था, वह यह कि एक आख़िरी कर्त्तव्य पूरा करना है इस नए, अजीब,
ऊपर, हवा में खींचते हुए ‘कुछ’ के घटित होने से पहले. और वह, वैसी ही निर्वस्त्र अवस्था में, शयनगृह से हवा में
तैरते-उतरते हुए अपने पति के कमरे में पहुँची और टेबुल लैम्प जलाकर लिखने की मेज़
की ओर लपकी. सामने पड़े राइटिंग पैड से एक पन्ना फ़ाड़कर उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में
पेंसिल से लिखा:
”मुझे
माफ़ करना और जितनी जल्दी हो सके, भूल जाना. मैं तुम्हें
हमेशा के लिए छोड़कर जा रही हूँ. मुझे ढूँढ़ने की कोशिश मत करना, कोई फ़ायदा नहीं होगा. मैं हमेशा सताने वाले दुःखों और मुसीबतों के कारण
चुडैल बन गई हूँ. अब मैं चलती हूँ. अलबिदा! मार्गारीटा.”
अब एकदम हल्के मन से मार्गारीटा हवा में तैरती हुई शयन-गृह में आई और उसके
पीछे-पीछे दौड़ती हुई आई नताशा, अनेक चीज़ों से लदी-फँदी. और ये सारी चीज़ें – हैंगरों में टँगी अनेक पोशाकें, लेस वाले रूमाल,
नीले रेशमी जूते, और बेल्ट, सभी ज़मीन पर बिखर गईं. और नताशा ख़ाली हाथों से तालियाँ बजाने लगी.
“क्यों, अच्छा है न?” भारी
आवाज़ में मार्गारीटा निकालायेव्ना चिल्लाई.
“यह क्या है?” नताशा एड़ियों के बल चलती हुई
फुसफुसाई, “आप यह कैसे कर रही हैं, मार्गारीटा निकालायेव्ना ?”
“यह क्रीम का कमाल है! क्रीम का, क्रीम का!” मार्गारीटा ने शीशे की ओर मुड़ते हुए सुनहरी डिब्बी की ओर इशारा किया.
नताशा गिरती हुई चीज़ों को भूलकर ड्रेसिंग टेबुल के निकट पड़ी उस डिब्बी की
ओर ललचाई नज़रों से देखने लगी, जिसमें अभी भी थोड़ी-सी क्रीम बची थी. उसके होठ कुछ
बुदबुदाने लगे. वह फिर मार्गारीटा की ओर मुड़ी और उसकी प्रशंसा करने लगी, “ओह, आपका तन! त्वचा, हाँ?
मार्गारीटा निकालायेव्ना आपकी त्वचा चमक रही है!” तभी उसे गिरी हुई पोशाक की याद आई. वह सँभल कर उसे झटकते हुए उठाने लगी.
“फेंको! फेंको!” मार्गारीटा चिल्लाई, “भाड़ में जाए, फेंको! नहीं, ठहरो,
उसे तुम मेरी याद की ख़ातिर रख लो. कहती हूँ रख लो, मेरी याद दिलाएगी. कमरे में जो कुछ है, सब ले लो.”
नताशा पगला गई. स्तब्ध होकर उसने मार्गारीटा की ओर देखा, फिर
उसे चूमते हुए उसकी गर्दन से लटक गई.
“शानदार! चमक रही है! शानदार! भँवें, ओह, भँवें!”
“सारे चीथड़े उठा लो, सेंट-इत्र ले लो और अपने बक्से
में रख लो, छिपा लो, “मार्गारीटा
चिल्लाई, “मगर कीमती चीज़ें मत लेना, वर्ना तुम पर चोरी का इल्ज़ाम लगेगा.”
नताशा ने जो हाथ लगा सब उठा लिया – पोशाकें, जूते, स्टॉकिंग्ज़, अंतर्वस्त्र...और
वह शयन- कक्ष से बाहर भागी.
तभी सड़क की दूसरी ओर से संगीतमय वाल्ट्ज़ सुनाई दिया, खिड़की
के उस ओर से, और फाटक की ओर आती हुए कार की आवाज़ सुनाई दी.
“अब अज़ाज़ेला फोन करेगा!” मार्गारीटा ने उस संगीत
को सुनते हुए कहा, “वह ज़रूर फोन करेगा! और वह विदेशी
बिल्कुल ख़तरनाक नहीं है, हाँ, अब मैं
समझ रही हूँ कि वह ज़रा भी ख़तरनाक नहीं है!”
कार दूर जाने की आवाज़ सुनाई दी. फाटक बजा और पगडण्डी पर पैरों की आहट सुनाई
दी.
‘यह निकालाय इवानविच है, आहट से ही पहचान गई मैं,’ मार्गारीटा ने सोचा, ‘जाते-जाते
कोई दिलचस्प और मज़ाकिया हरकत करना चाहिए.’
मार्गारीटा ने परदा हटाया और खिड़की की सिल पर तिरछी होकर बैठ गई, घुटनों
पर हाथ रखे. चाँद की रोशनी उसे दाहिनी ओर से आलोकित कर रही थी. मार्गारीटा ने चाँद
की ओर चेहरा उठाया और सोच में डूबी, कवियों जैसी मुद्रा से
उस ओर देखने लगी. पैरों की आहट कुछ देर बाद रुक गई. चाँद की ओर कुछ देर देखने के
बाद, एक गहरी साँस लेकर मार्गारीटा निकालायेव्ना ने बगीचे की ओर मुँह घुमाया और वहाँ सचमुच उसे
दिखाई दिया निकालाय इवानविच, जो इसी बिल्डिंग की निचली मंज़िल
पर रहता था. चाँद की रोशनी में नहाया हुआ, वह बेंच पर बैठा
था, और यह अन्दाज़ लगाना मुश्किल नहीं था कि वह अचानक ही उस
पर बैठ गया था. उसकी आँखों का चश्मा कुछ खिसक गया था. उसने अपनी ब्रीफकेस दोनों
हाथों में पकड़ रखी थी.
“ओह, नमस्ते, निकालाय इवानविच,” दुःख भरी आवाज़ में मार्गारीटा ने कहा, “आप क्या
मीटिंग से लौट रहे हैं?”
निकालाय इवानविच ने कोई जवाब नहीं दिया, “और मैं...” मार्गारीटा ने और अधिक खिड़की से झुकते हुए कहा, “अकेली बैठी हूँ, देख रहे हैं न? उकता रही हूँ, चाँद की ओर देख रही हूँ और संगीत सुन
रही हूँ.”
बाएँ हाथ से मार्गारीटा ने अपने बालों की लट को ठीक किया और फिर कुछ खीझकर
बोली, “यह असभ्यता है, निकालाय इवानविच! आख़िर मैं एक महिला
हूँ! मेरी बात का जवाब न देना अशिष्टता है!”
निकालाय इवानविच जिसके भूरे जैकेट की एक-एक बटन तक चाँद की रोशनी में नज़र आ
रहा थी, और जिसकी दाढ़ी का एक-एक बाल चमक रहा था, अचानक जंगलीपन से हँस पड़ा. वह बेंच से उठा और घबराहट के मारे, टोपी उतारने के बदले ब्रीफकेस हिलाकर मार्गारीटा का अभिवादन करने लगा.
उसके पैर मुड़ गए, और ऐसा लगा मानो वह नृत्य करना चाहता हो.
“ओह, निकालाय इवानविच, आप कितने ‘बोर’ हैं,” मार्गारीटा
कहती रही, ‘आप सबसे मैं इतनी उकता गई हूँ कि बता नहीं
सकती, और मैं इतनी खुश हूँ कि आप सबसे जुदा हो रही हूँ!
जहन्नुम में जाएँ आप!”
इसी समय मार्गारीटा के शयन-कक्ष में टेलिफोन बज उठा. मार्गारीटा खिड़की की
सिल से कूदी और निकालाय इवानविच के बारे में भूलकर उसने झट् से टेलिफोन का रिसीवर
उठा लिया.
“अज़ाज़ेला बोल रहा हूँ,” रिसीवर से आवाज़ आई.
“प्यारे, प्यारे अज़ाज़ेला !” मार्गारीटा चिल्लाई.
“वक़्त हो गया है! उड़कर बाहर आ जाइए,” अज़ाज़ेला रिसीवर
में बोला और उसके लहजे से साफ़ था कि उसे मार्गारीटा की प्रसन्नता भरी चीख अच्छी
लगी थी, “जब फाटक के ऊपर से उड़ने लगें तो चिल्लाइए: ‘अदृश्य!’ फिर शहर के ऊपर उड़िए, जिससे कुछ आदत हो जाए, फिर दक्षिण की तरफ़, शहर से बाहर, सीधे नदी पर. आपका इंतज़ार हो रहा है!”
मार्गारीटा ने रिसीवर रख दिया, तभी बगल के कमरे में लकड़ी की कोई चीज़
गिरी, फिर दरवाज़े पर दस्तक होने लगी. मार्गारीटा ने दरवाज़ा
खोल दिया और फर्श साफ़ करने का ब्रश नाचते-नाचते शयन-कक्ष में उड़कर आया. उसके बाल
ऊपर और डण्डा नीचे था. अपने डण्डे से फर्श पर खटखट करते हुए, वह लेटी अवस्था में खिड़की की ओर बढ़ा. मार्गारीटा प्रसन्नता से चीखी और उछल
कर इस ब्रश पर चढ़कर बैठ गई. तभी इस ब्रश-सवार महिला को ख़याल आया कि इस गड़बड़ में वह
कपड़े पहनना तो भूल ही गई. वह उछलकर पलंग पर आई और जो हाथ लगा वही उठा लिया. यह
आसमानी रंग की कमीज़ थी. उसे बदन पर डालकर वह खिड़की से बाहर उड़ी. बगीचे के ऊपर
वाल्ट्ज़ के संगीत की आवाज़ अब और तेज़ हो गई थी.
खिड़की से मार्गारीटा नीचे फिसली और उसने निकालाय इवानविच को बेंच पर बैठे
देखा. वह मानो उसमें जम गया था, उन चीखों और गड़बड़ को सुनते हुए जो ऊपर वालों के शयन-कक्ष
से आ रही थीं.
“अलबिदा, निकालाय इवानविच!” मार्गारीटा निकालाय इवानविच के सामने नाचते हुए बोली.
वह सकते में आ गया और बेंच पर रेंगने लगा, उसे अपने पंजों से पकड़े और ब्रीफकेस को
ज़मीन पर मारते हुए.
“अलबिदा सदा के लिए! मैं उड़कर जा रही हूँ,” मार्गारीटा
ने वाल्ट्ज़ से भी ज़्यादा ज़ोर से चिल्लाकर कहा. तभी उसने महसूस किया कि उसे कमीज़ की
कोई ज़रूरत नहीं है और उसने दुष्टता से हँसते हुए उसे निकालाय इवानविच के सिर पर
डाल दिया. निकालाय इवानविच चुँधाते हुए बेंच से ईंटों की पगडण्डी पर गिर पड़ा.
मार्गारीटा ने पीछे मुड़कर आख़िरी बार उस घर को देखा जहाँ वह इतने दिन तड़पी
थी और उसने भड़कती हुई आग में विस्मय से विवर्ण होती नताशा का चेहरा देखा.
“अलबिदा, नताशा!” मार्गारीटा
चिल्लाई और उसने ब्रश खींच लिया, “अदृश्य, अदृश्य!” उसने और भी ऊँची आवाज़ में कहा और
चेहरे को छूती मैपल वृक्ष की शाखों के बीच से फाटक पार कर वह गली में पहुँची. उसके
पीछे-पीछे उड़ रहा था पागल कर देने वाला वाल्ट्ज़ का संगीत.
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इक्कीस
उड़ान
अदृश्य और आज़ाद! अदृश्य और स्वतंत्र! अपनी गली पर उड़ने के बाद मार्गारीटा
दूसरी गली पर आई, जो पहले वाली को समकोण बनाते हुए काटती थी. इस बदहवास,
गड्ढ़ों वाली, टेढ़ी-मेढ़ी और लम्बी गली को,
जहाँ केरोसिन की दुकान का तिरछा दरवाज़ा खुलता था और प्यालों में
केरोसिन तथा कुप्पियों में कीड़े-मकोड़े मारने की दवाई बेची जाती थी, उसने एक क्षण में पार कर लिया. तभी उसे लगा कि पूरी तरह आज़ाद और स्वतंत्र
होने के बावजूद उसे इस बात का ध्यान रखना होगा कि किन चीज़ों का आनन्द उठाना है.
किसी करामात की ही बदौलत वह कुछ ठहर गई और सड़क पर खड़े तिरछे लैम्प के शीशे से
टकराकर मरते-मरते बची. उससे दूर हटकर वह मुड़ी और उसने ब्रश को कसकर पकड़ लिया. अब
वह कुछ धीमी गति से उड़ रही थी, बिजली के तारों और साइन
बोर्ड्स से अपने आप को बचाते हुए, जो फुटपाथ के ऊपर झूल रहे
थे.
तीसरी गली सीधे अर्बात को जाती थी. यहाँ तक आते-आते मार्गारीटा ब्रश पर
काबू करने में कामयाब हो गई थी, समझ गई थी कि ब्रश उसकी हल्की-सी हरकत को भी समझ रहा है;
पाँव या हाथ का हल्का-सा स्पर्श भी; और यह भी
कि शहर के ऊपर उड़ते हुए बहुत ही सावधान रहना होगा, उछल कूद
मचाना ठीक नहीं होगा. साथ ही यह भी पता चल गया था कि रास्ते पर चलने वाले इस उड़ती
हुई बला को नहीं देख पा रहे हैं. किसी ने भी सिर ऊपर नहीं उठाया, कोई भी नहीं चिल्लाया, ‘देखो! देखो!’; किनारे पर कोई भी नहीं हटा, किसी ने सीटी नहीं बजाई,
कोई बेहोश नहीं हुआ, दुष्टता से ठहाका मारकर
नहीं हँसा.
मार्गारीटा ख़ामोशी से उड़ती रही – काफी धीरे, काफी नीचे...दूसरी मंज़िल तक की ऊँचाई पर. मगर इस धीमी उड़ान के बावजूद,
जगमगाते अर्बात पर निकलते-निकलते वह थोड़ा इधर-उधर हो ही गई और उसने
कन्धे से किसी चमकती तश्तरी को धक्का दे ही दिया जिस पर तीर का निशान बना हुआ था.
इससे मार्गारीटा को गुस्सा आ गया. उसने आज्ञाकारी ब्रश को पकड़ा और किनारे पर आ गई,
फिर उस तश्तरी पर हमला करते हुए ब्रश के डण्डे से वार करके उसके
टुकड़े-टुकड़े कर दिए. खनखनाते हुए काँच के टुकड़े नीचे गिर पड़े, आने-जाने वाले ठिठक गए. कहीं से सीटी बजने की आवाज़ आई. मार्गारीटा इस
अनावश्यक काम को पूरा करके ठहाका मारकर हँस पड़ी. ‘अर्बात
पर काफी सावधान रहना होगा,’ मार्गारीटा ने सोचा, ‘यहाँ सब कुछ इतना उलझा हुआ है कि कुछ समझ पाना भी मुश्किल है!’ उसने तारों के बीचे से होकर उड़ने की कोशिश की. मार्गारीटा के नीचे
ट्रॉलीबसों, बसों और कारों की छतें तैर रही थीं; और ऊपर से उसे यूँ लग रहा था मानो फुटपाथों पर टोपियों की नदियाँ बह रही
हों. इन नदियों से बीच-बीच में कुछ धाराएँ अलग होकर रात के जगमगाते दुकानों के
जबड़ों में समाती जा रही थीं. ‘ओह, क्या उलझन है!’ गुस्से से मार्गारीटा ने सोचा, ‘यहाँ मुड़ना असम्भव है.’ अर्बात पार करने के बाद
वह ऊपर उठ गई, चौथी मंज़िलों तक, और
चकाचौंध करते थियेटर की कोने वाली इमारत की बगल से होकर ऊँचे-ऊँचे मकानों वाली
पतली गली में पहुँची. इन घरों की खिड़कियाँ खुली थीं और सभी खिड़कियों से रेडियो
सुनाई दे रहा था. उत्सुकतावश मार्गारीटा ने एक खिड़की में झाँका. रसोईघर देखा.
स्लैब पर दो स्टोव गरज रहे थे, उनके निकट दो औरतें खड़ी थीं,
हाथों में चम्मच लिये, एक-दूसरे को बुरा-भला
कहते हुए.
“अपने पीछे, बाथरूम में बत्ती बुझा देना चाहिए,
पिलागेया पित्रोव्ना, मैं कहे देती हूँ,” वह औरत बोली, जिसके सामने के बर्तन में रखे घोल से
भाप निकल रही थी, “वर्ना हम तुम्हें यहाँ से भगा देंगे!”
“जैसे आप ख़ुद तो बहुत अच्छी हैं,” दूसरी ने जवाब
दिया.
“तुम दोनों ही अच्छी हो,” मार्गारीटा ने खिड़की
में से रसोईघर में आते हुए ज़ोर से कहा. दोनों झगड़ा करने वालियों ने आवाज़ की दिशा
में देखा और हाथों के गन्दे चम्मचों समेत मानो जम गईं. मार्गारीटा ने उनके बीच से
सावधानी से हाथ बढ़ाकर दोनों स्टोव की चाबियाँ घुमाकर उन्हें बुझा दिया. औरतों ने ‘हाय!’ कहा और उनके मुँह खुले रह गए. मगर
मार्गारीटा अब रसोईघर में उकता गई और वापस गली में उड़कर आ गई.
इस गली के अंत में वह आकर्षित हुई एक शानदार आठ-मंज़िला इमारत की ओर, जो
हाल ही में बनी थी. मार्गारीटा नीचे उतरी और ज़मीन पर पहुँच कर उसने देखा कि इमारत
का दर्शनीय भाग काले संगमरमर से बना है, दरवाज़े चौड़े हैं,
उनमें जड़े शीशों से दरबान के कोट के बटन और सुनहरे रिबन वाला टोप
दिखाई दे रहे हैं और दरवाज़ों पर सुनहरे अक्षरों से लिखा था: ‘ड्रामलिट आवास’.
मार्गारीटा उस लिखाई को देखती रही, यह समझने की कोशिश करते हुए कि
ड्रामलिट का क्या मतलब हो सकता है. ब्रश को बगल में दबाए मार्गारीटा अन्दर घुसने
लगी, घबराए दरबान को धक्का देते हुए, और
लिफ्ट के निकट उसकी नज़र दीवार पर लगे उस काले बोर्ड पर पड़ी, जिसमें
सफ़ेद अक्षरों में उस बिल्डिंग में रहने वालों के नाम थे, उनके
फ्लैट नम्बरों सहित. सबसे ऊपर लिखा था “नाटककारों एवम्
साहित्यकारों का आवास” जिससे मार्गारीटा इन नामों को
पढ़ने पर मजबूर हुई. एक आह भरकर वह ऊपर हवा में उठ गई और जल्दी-जल्दी बोर्ड पर लिखे
नाम पढ़ने लगी: खूस्तव, द्वुब्रात्स्की, क्वान्ट, बेस्कूद्निकोव, लातून्स्की...
“लातून्स्की!” मार्गारीटा भुनभुनाई, “लातून्स्की! हाँ, यह वही तो है! इसी ने मास्टर को
मारा है.”
दरवाज़े पर खड़ा दरबान आश्चर्य से आँखें नचाते और उछलते हुए उस काले बोर्ड की
तरफ देखने लगा, यह जानने की कोशिश करते हुए कि यह बोर्ड पर लिखी रहने
वालों की फ़ेहरिस्त एकदम क्यों और कैसे भुनभुनाने लगी.
इस दौरान मार्गारीटा ऊपर सीढ़ियों पर तैर गई, एक उत्तेजना के साथ यह दुहराते हुए: ‘लातून्स्की – चौरासी! लातून्स्की
चौरासी!...’
यह रहा बाईं ओर – 82, दाहिनी ओर – 83, और ऊपर बाईं ओर – 84, यह रही उसकी नेमप्लेट – “ओ. लातून्स्की”.
मार्गारीटा ब्रश से उछलकर नीचे आ गई. उसकी गर्म एड़ियों को पत्थर का फर्श
ठण्डक दे रहा था. मार्गारीटा ने घण्टी बजाई; एक बार, दो बार,
मगर किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला. मार्गारीटा पूरी शक्ति से घण्टी का
बटन दबाती रही और उस घनघनाहट को सुनने लगी, जो लातून्स्की के
घर में हो रही थी. हाँ, आठवीं मंज़िल के फ्लैट नं. 84 का
निवासी, मॉसोलित के प्रेसिडेण्ट का आख़िरी दम तक शुक्रगुज़ार
रहने वाला था, क्योंकि बेर्लिओज़ ट्रामगाड़ी से कुचल गया था,
और इसलिए भी कि शोकसभा का आयोजन आज ही शाम को होने वाला था.
लातून्स्की के सितारे बड़े अच्छे थे – इसी कारण
उसकी मार्गारीटा से मुलाकात न हुई जो इस शुक्रवार को चुडैल बन चुकी थी.
किसी ने भी दरवाज़ा नहीं खोला. तब मार्गारीटा पूरे वेग से नीचे आने लगी, मंज़िलों
को गिनते-गिनते वह नीचे पहुँचकर सड़क पर आ गई. बाहर आकर उसने फिर से मंज़िलें गिनीं,
यह निश्चित करने के लिए कि लातून्स्की के फ्लैट की खिड़कियाँ-कौन सी
हैं. बेशक, ये वे ही कोने वाली पाँच अँधेरी खिड़कियाँ थीं,
आठवीं मंज़िल पर. इस बात को ठीक से देखकर मार्गारीटा फिर से ऊपर उठी
और कुछ ही क्षणों बाद खुली खिड़की से अँधेरे कमरे के अन्दर आ गई, जहाँ केवल चाँद की रोशनी से ही कुछ उजाला था. इस चाँदी के पट्टे पर दौड़कर
उसने बिजली का बटन ढूँढ़ा. एक ही मिनट बाद पूरे फ्लैट में रोशनी फैल गई. ब्रश कोने
में खड़ा हो गया. यह यकीन करने के बाद कि घर पर कोई नहीं है, मार्गारीटा
ने सीढ़ियों की ओर जाने वाला दरवाज़ा खोल दिया और देखने लगी कि नेमप्लेट वहाँ है या
नहीं. नेमप्लेट अपनी जगह पर ही थी; मार्गारीटा वहाँ गई जहाँ
उसे जाना चाहिए था.
हाँ, कहते हैं कि आज भी आलोचक लातून्स्की उस भयानक शाम को याद
करके काँप उठता है, और आज भी बेर्लिओज़ का नाम बड़े आदर से
लेता है. हमें बिल्कुल पता नहीं कि इस शाम को क्या-क्या भयानक और काले कारनामे हो
जाते – जब रसोईघर से वापस आई तो मार्गारीटा के हाथ
में एक भारी हथौड़ा था.
निर्वस्त्र और अदृश्य उड़नपरी अपने आपको संयत किए हुए थी; उसके
हाथ बेसब्री से कसमसा रहे थे. ध्यान से निशाना बाँधकर मार्गारीटा ने पियानो की पट्टियों
को तोड़ डाला और पूरे फ्लैट में पहली यातना भरी आवाज़ गूँज उठी. बेजान, निर्दोष, लकड़ी के बक्से में जकड़ा पियानो कराहता रहा.
उसकी पट्टियाँ बिखरने लगीं, चारों ओर उड़ने लगीं. बाजा गूँजा,
कराहा, भर्राया, बजा.
हथौड़े की चोट से गोली चलने जैसी आवाज़ के साथ ढक्कन भी उड़ गया. गहरी-गहरी साँसें
लेते हुए मार्गारीटा ने सभी तार खींच लिए और हथौड़े से उन्हें कुचल डाला. आख़िरकार
थककर वह कुर्सी पर लुढ़क गई, ताकि थोड़ा दम ले सके.
बाथरूम में पानी पूरे ज़ोर से बह रहा था और रसोईघर में भी. ‘शायद पानी फर्श पर आ गया है,’ मार्गारीटा ने
सोचा और आगे बोली – “बैठने में कोई तुक नहीं है.”
रसोईघर से क़ॉरीडोर में पानी की धारा आने लगी थी. नंगे पैरों से पानी में
छप-छप करते हुए मार्गारीटा रसोईघर से बाल्टियाँ भर-भर के आलोचक के अध्ययन-कक्ष में
लाई और उन्हें लिखने की मेज़ की दराज़ों में उँडेलने लगी. फिर हथौड़े से इस कमरे की
अलमारी के दरवाज़े तोड़ने के बाद वह शयन-कक्ष की ओर लपकी. आईना जड़ी अलमारी तोड़ने के
बाद उसने उसमें से आलोचक का सूट खींचकर उसे बाथरूम के पानी में डुबो दिया.
शयन-कक्ष के नर्म, ख़ूबसूरत, गुदगुदे डबल-बेड पर पूरी
स्याही की दवात उलट दी, जिसे वह अध्ययन-कक्ष से उठा लाई थी.
इस विनाश से उसे बड़ा आनन्द मिल रहा था, मगर फिर भी उसे लग
रहा था, कि यह तो कुछ भी नहीं है. इसलिए वह जो दिखा वह तोड़ती
रही. पियानो वाले कमरे के सारे फ्लॉवर पॉट्स तोड़ डाले. इसके बाद वह फ़ौरन रसोईघर से
चाकू लेकर शयन-कक्ष में घुसी और सभी चादरें फाड़ डालीं, शीशों
में जड़े फोटो फोड़ दिए. उसे थकान का अनुभव नहीं हो रहा था, सिर्फ
उसके बदन पर पसीने की धाराएँ बह रही थीं.
इस समय लातून्स्की के ठीक नीचे वाले फ्लैट नं. 82 में नाटककार क्वाण्ट की
नौकरानी रसोईघर में चाय पी रही थी; यह न समझ पाते हुए कि ऊपर से घड़घड़ाहट
की, दौड़धूप की, ठकठक की आवाज़ें क्यों आ
रही हैं. उसने जब छत की तरफ सिर उठाया तो देखा कि उसकी आँखों के सामने छत का रंग
सफ़ेद से बदलकर मटमैला नीला हो गया है. यह धब्बा धीरे-धीरे बढ़ने लगा और उसमें
बूँदें दिखाई देने लगीं. इस बात पर अचरज करती नौकरानी दो मिनट बैठी रही , तब तक ऊपर छत से सचमुच की बारिश फर्श पर गिरने लगी. अब वह उछल कर उठी और
उसने उस धार के नीचे तसला रख दिया जिससे कुछ भी फायदा नहीं हुआ, क्योंकि अब बारिश गैस के चूल्हे और बर्तनों की मेज़ पर भी पड़ने लगी थी. तब
क्वाण्ट की नौकरानी चीखकर फ्लैट से बाहर आई और सीढ़ियों पर दौड़ने लगी...और
लातून्स्की के फ्लैट में घण्टियाँ बजने लगीं.
“बस, घण्टियाँ बज रही हैं, अब
चला जाए,” मार्गारीटा ने कहा. वह ब्रश पर बैठी और सुनती
रही बाहर से आने वाली आवाज़ को, जो चीख रही थी, “खोलो, खोलो! दूस्या, खोलो!
तुम्हारे यहाँ क्या पानी बह रहा है? हमारे घर में बाढ़ आ गई
है!”
मार्गारीटा एक मीटर ऊपर उठी और उसने फानूस पर चोट की. दो बल्ब फूट गए,
चारों ओर काँच बिखर गया. अब बाहर से आने वाली चीखें बन्द हो गई थीं.
सीढ़ियों पर धमधम की आवाज़ सुनाई दी. मार्गारीटा खिड़की के बाहर तैर गई. खिड़की से
बाहर आकर उसने हथौड़े से खिड़की के काँच पर हल्के से चोट की. वह चूर-चूर हो गया.
संगमरमरी दीवार पर काँच के परखचे नीचे फिसल पड़े. मार्गारीटा अगली खिड़की के पास आई.
नीचे फुटपाथ पर लोग भाग रहे थे. नीचे खड़ी दो कारों में से एक का हॉर्न बजा और वह
चल पड़ी. लातून्स्की की खिड़कियों का काम तमाम करने के बाद मार्गारीटा पड़ोस के फ्लैट
की ओर तैर गई. अब हथौड़े की आवाज़ बार-बार आने लगी, गली आवाज़ों
और खनखनाहट से गूँज उठी. पहले प्रवेश-द्वार से दरबान दौड़कर बाहर आया, उसने ऊपर देखा, थोड़ा हिचका: ज़ाहिर है, समझ नहीं पाया कि उसे क्या करना चाहिए. उसने मुँह में सीटी डाली और
बेतहाशा बजाने लगा. इस सीटी की आवाज़ से तैश में आकर मार्गारीटा ने आठवीं मंज़िल की
आख़िरी खिड़की तोड़ डाली. अब वह सातवीं मंज़िल पर आई और वहाँ भी शीशे तोड़ने लगी.
काँच के दरवाज़ों के पीछे बड़ी देर तक कोई काम न करने से उकताया हुआ दरबान
पूरी ताकत से सीटी बजाता रहा, मानो वह मार्गारीटा की हरकतों के पीछे-पीछे ही था. उस घटना
रहित समय में जब वह एक खिड़की से दूसरी खिड़की तक पहुँचती, वह
साँस ले लेता और मार्गारीटा की हर चोट के साथ गाल फुलाकर सीटी फूँकता रहा और रात
की हवा को मानो आसमान तक भेजता रहा.
उसकी कोशिशें क्रोधित मार्गारीटा की मदद से बड़ी रंग लाईं. उस बिल्डिंग में
कोहराम मच गया. वे काँच जो सही-सलामत थे, निमिषमात्र में चूर-चूर हो रहे थे.
उनमें लोगों के सिर दिखते जो तुरंत गायब हो जाते. खुली खिड़कियाँ बन्द हो जातीं.
सामने की बिल्डिंगों में, खिड़कियों में रोशनी की पार्श्वभूमि
पर काले साए दिखाई देते, जो यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि
बेवजह ही ‘ड्रामलिट’ की नई
इमारत की खिड़कियों के शीशे क्यों टूट रहे हैं.
गली में लोग ‘ड्रामलिट’ की ओर भाग रहे
थे, और उसके अन्दर सीढ़ियों पर बेवजह दौड़ते लोगों की भीड़ थी.
क्वाण्ट की नौकरानी सीढ़ियों पर दौड़ते लोगों को चीख-चीखकर बता रही थी कि उनके फ्लैट
में ऊपर से पानी की धार लग गई थी, उसका साथ शीघ्र ही खूस्तव
की नौकरानी ने दिया, जो क्वाण्ट के ठीक नीचे, 80 नं. के फ्लैट में रहता था. खूस्तव के फ्लैट में छत से पानी आया,
रसोईघर में और शौचालय में. आख़िरकार क्वाण्ट के रसोईघर में छत का एक
बड़ा हिस्सा गिर पड़ा. जिससे सारे गन्दे चीनी के बर्तन चूर-चूर हो गए, और उसके बाद तो मूसलाधार पानी बरसने लगा, लटकते हुए
प्लास्टर से पानी यूँ गिर रहा था, मानो बाल्टियाँ भर-भर कर
उँडेला जा रहा हो. तब पहले प्रवेश-द्वार के पास चीख पुकार शुरू हो गई. चौथी मंज़िल
पर मार्गारीटा ने अंतिम से पहले वाली खिड़की में झाँका और देखा कि वहाँ एक आदमी डर
के मारे गैस-मास्क पहन रहा है. उसकी खिड़की में हथौड़ा मारकर मार्गारीटा ने उसे डरा
दिया, और वह कमरे से बाहर हो गया.
यह भयानक हमला अप्रत्याशित रूप से एकदम बन्द हो गया. तीसरी मंज़िल तक उतरकर
मार्गारीटा ने आखिरी खिड़की में झाँककर देखा, जो हल्के काले परदे से ढँकी थी. कमरे
में मरियल-सा लैम्प जल रहा था. छोटी-सी खाट पर जाली वाली किनारों के बीच एक चार
साल का बच्चा बैठा था और डर के मारे सुन रहा था. कमरे में कोई भी बड़ा आदमी नहीं
था. ज़ाहिर था कि सभी फ्लैट से बाहर भाग गए थे.
“शीशे टूट रहे हैं,” बच्चा बोला और उसने पुकारा, “माँ!”
किसी ने भी जवाब नहीं दिया, तब वह बोला, “माँ, मुझे डर लग रहा है.”
मार्गारीटा ने परदा हटाया और खिड़की से उड़कर अन्दर आई.
“मुझे डर लग रहा है!” बच्चा काँपते हुए फिर
बोला.
“मत डरो, डरो मत, नन्हे,” मार्गारीटा ने अपनी हवा के कारण भर्राई गुनहगार आवाज़ को कोमल बनाते हुए
कहा, “ये तो बदमाश बच्चे शीशे तोड़ रहे थे.”
“गुलेल से?” बच्चे का काँपना बन्द हो गया था.
“हाँ, गुलेल से, गुलेल से,” मार्गारीटा ने ज़ोर देकर कहा, “अब तुम सो जाओ!”
“यह सीन्तिक होगा,” बच्चा बोला, “उसके पास गुलेल है.”
“हाँ, वही है, वही तो है!”
बच्चे ने अचरज से किसी एक कोने की ओर देखा और पूछा, “और तुम कहाँ हो आण्टी?”
“मैं नहीं हूँ,” मार्गारीटा ने जवाब दिया, “मैं तुम्हारे सपने में आया करूँगी.”
“मैंने यही सोचा था,” बच्चा बोला.
“तुम लेट जाओ,” मार्गारीटा ने हुकुम दिया, “गाल के नीचे हाथ रख लो, तुम मुझे सपने में देख
सकोगे.”
“आओ, आओ, सपने में आओ,” बच्चा मान गया और फौरन लेट गया. अपना हाथ उसने गाल के नीचे रख लिया.
“मैं तुम्हें कहानी सुनाऊँगी,” मार्गारीटा बोली
और उसने अपना गर्म हाथ बच्चे के छोटे-छोटे बालों वाले सिर पर रख दिया, “धरती पर एक आण्टी रहती थी. उसके कोई बच्चा नहीं था, और
जीवन में कोई खुशी भी नहीं थी. पहले तो वह बहुत रोई, मगर फिर
दुष्ट हो गई...” मार्गारीटा चुप हो गई. उसने हाथ हटा
लिया. बच्चा सो चुका था.
मार्गारीटा ने चुपचाप हथौड़ा खिड़की की सिल पर रख दिया और खिड़की से बाहर उड़
गई. बिल्डिंग के पास भगदड़ मची थी. काँच के परखचों से अटे पड़े फुटपाथ पर लोग
चिल्लाते हुए भाग रहे थे. उनके बीच में कुछ पुलिस के सिपाही भी दिखाई दे रहे थे.
अचानक घण्टी बजने लगी, और अर्बात की ओर से लाल रंग की, सीढ़ी
वाली दमकल गली में आ धमकी...
आगे की बात में मार्गारीटा को कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने तारों के जाल से
बचने के लिए ब्रश को कसकर पकड़ लिया और एक ही क्षण में उस दुर्दैवी बिल्डिंग से ऊपर
उड़ चली. उसके नीचे की गली टेढ़ी हो गई और नीचे छूट गई. उसके स्थान पर मार्गारीटा के
पैरों तले आईं कुछ छतें, उन्हें अलग करते, एक दूसरे को काटते
हुए चमकते रास्ते. यह सब देखते-देखते एक ओर रह गया, और
अग्निशलाकाएँ एक दूसरे से मिलती और दूर होती रहीं
मार्गारीटा ने एक और छलाँग लगाई और तब यह छतों वाला झुरमुट मानो धरती में
समा गया और उसके स्थान पर दिखाई दिया एक तालाब जिसमें दिखाई दे रही थीं काँपती
रोशनियाँ. यह तालाब अचानक खड़ा होने लगा फिर मार्गारीटा के सिर के ऊपर आ गया. अब
उसके पैरों के नीचे चाँद चमकने लगा. मार्गारीटा समझ गई कि वह उल्टी हो गई है, और
उसने अपने आपको वापस सामान्य स्थिति में कर लिया. मुड़कर उसने देखा कि तालाब गायब
हो गया है और वहाँ, उसके पीछे केवल क्षितिज की लाल रोशनी रह
गई है. वह भी एक क्षण में गायब हो गई. मार्गारीटा ने देखा कि वह अब अपनी बाईं ओर
साथ-साथ ऊपर उड़ते चाँद के साथ अकेली रह गई है. मार्गारीटा के बाल पहले ही खड़े हो
गए थे, और चाँद की सनसनाती रोशनी उसे नहला रही थी. यह देखकर
कि नीचे रोशनी की दो पंक्तियाँ, दो रेखाओं में परिवर्तित हो
रही हैं, मार्गारीटा समझ गई कि वह आश्चर्यजनक रफ़्तार से उड़
रही है, उसे इससे भी आश्चर्य हुआ कि वह थक भी नहीं रही है.
कुछ क्षणों बाद नीचे, धरती के अँधेरे में बिजली की रोशनियों वाला नया तालाब
दिखाई दिया, जो उड़नपरी के पैरों के नीचे से खिसक गया,
मगर फौरन ही गोल-गोल घूमकर धरती में समा गया. कुछ और देर बाद फिर
वही नज़ारा.
“शहर! शहर!” मार्गारीटा चीखी.
इसके बाद उसे दो या तीन बार नीचे मद्धिम रोशनी में चमकती, खुली
म्यानों में रखी पतली-पतली तलवारें दिखाई दीं, वह समझ गई कि
ये नदियाँ हैं.
सिर को ऊपर और बाईं ओर घुमाते हुए उड़नपरी यह देखकर खुश हो रही थी, कि
चाँद उसके ऊपर-ऊपर चल रहा है, पागल की तरह, वापस मॉस्को की ओर; और साथ ही एकदम अपनी जगह रुक भी
रहा है, जिससे उसमें कोई रहस्यमय काली आकृति दिखाई दे रही है – शायद अजगर या कोई कुबड़ा घोड़ा, जो अपनी पतली गर्दन से
पीछे मॉस्को की ओर देख रहा है.
अब मार्गारीटा ने सोचा कि वह बेकार ही इतनी तेज़ ब्रश को हाँक रही है. इससे
उसे कई चीज़ें ध्यान से देखने और उड़ान का आनन्द उठाने का मौका नहीं मिल रहा. मानो
कोई उससे कह रहा था, कि वहाँ, जहाँ वह उड़कर जा रही है,
उसका कोई इंतज़ार कर रहा है और उसे इस बेतहाशा ऊँचाई और गति से
उकताने की कोई ज़रूरत नहीं है.
मार्गारीटा ने ब्रश का बालों वाला भाग नीचे की ओर झुकाया जिससे उसकी पूँछ
ऊपर उठ गई. अपना वेग काफी कम करते हुए वह धरती तक आ पहुँची. यह फिसलन, जैसी
हवाई मशीनों में होती है, उसे बहुत भाई. धरती, मानो उठकर, उससे मिलने आ रही थी और अब तक के उसके
आकारहीन काले आँचल में इस चाँदनी रात में अनेक रहस्यमय सुन्दर चीज़ें दिखाई देने
लगीं. पृथ्वी उसकी ओर बढ़ रही थी और मार्गारीटा का सिर हरे-हरे जँगलों की महक से
झूमने लगा. मार्गारीटा ओस भरे हरे मैदानों के ऊपर छाए कोहरे से गुज़र रही थी;
फिर वह तालाब के ऊपर से गुज़री. मार्गारीटा के नीचे मेंढक एक सुर में
गा रहे थे और दूर, कहीं दूर, न जाने
क्यों दिल को बहुत बेकरार करती एक रेलगाड़ी शोर मचा रही थी. मार्गारीटा ने जल्दी ही
उसे देख लिया. वह हवा में चिनगारियाँ छोड़ते हुए, इल्ली की
तरह धीरे-धीरे रेंग रही थी. उसे पार करने के बाद मार्गारीटा एक और जलाशय के ऊपर से
गुज़री, जिसमें चाँद तैर रहा था; वह कुछ
और नीचे उतरी, मैपल के शिखर से बस कुछ की ऊपर.
वाष्पित होने वाली हवा का शोर मार्गारीटा को अपने निकट आता महसूस हुआ.
धीरे-धीरे इस शोर में किसी रॉकेट के तेज़ी से उड़ने जैसी आवाज़ के साथ-साथ एक औरत के
खिलखिलाने की आवाज़ मिल गई जो आसपास कई मीलों तक सुनाई दे रही थी. मार्गारीटा ने
मुँह घुमाया तो देखा कि उसके निकट कोई काली जटिल वस्तु आ रही है. मार्गारीटा के
निकट आते-आते वह वस्तु स्पष्ट दिखाई देने लगी. दिखाई दे रहा था कि कोई किसी चीज़ पर
सवार होकर उड़ रहा है. वह बिल्कुल साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था: अपनी गति कम करके
मार्गारीटा को नताशा ने पकड़ ही लिया.
वह पूरी तरह नग्न, हवा में उड़ते बिखरे बालों की परवाह न करते, एक मोटे सूअर के ऊपर बैठकर उड़ रही थी, जिसने अपने
अगले पंजों में ब्रीफकेस पकड़ रखी थी और पिछले पंजों से हवा को काटता जा रहा था.
चाँद की रोशनी में बीच-बीच में चमकता उसका चश्मा, जो नाक के
नीचे खिसक गया था, सूअर के साथ-साथ डोरी से बँधा उड़ता जा रहा
था और टोपी बार-बार सूअर की आँखों पर आ जाती थी. अच्छी तरह देखने के बाद
मार्गारीटा समझ गई कि वह तो निकालाय इवानविच है, और तब उसके
ठहाके जंगल में गूँज गए, जो नताशा की खिलखिलाहट में मिल गए.
“नताशा!” मार्गारीटा पैनी आवाज़ में चीखी, “तुमने क्रीम लगाई थी?”
“मेरी जान!” अपनी भारी आवाज़ से सोए हुए लिण्डन
के जँगल को झकझोरते हुए नताशा बोली, “मेरी फ्रांसीसी
रानी, मैंने तो इसके गंजे सिर पर भी मल दी, इसके!”
“राजकुमारी!” भौंडी आवाज़ में अपने सवार को उछलकर
ले जाते हुए सूअर आँसुओं भरी आवाज़ में दहाड़ा.
“मेरी जान! मार्गारीटा निकालायेव्ना!” नताशा
मार्गारीटा के निकट आते हुए चिल्लाई, “मैं मानती हूँ,
मैंने क्रीम ली थी. आख़िर हम भी जीना और उड़ना चाहते हैं! मुझे माफ
कीजिए, मेरी सरकार, मगर मैं वापस नहीं
आऊँगी, किसी हालत में नहीं आऊँगी! ओह, यह
अच्छा है, मार्गारीटा निकालायेव्ना ! मेरे सामने शादी का
प्रस्ताव रखा,” नताशा ने उस बदहवास सूअर के कन्धे में
उँगली चुभोते हुए कहा, “शादी का प्रस्ताव! तुमने मुझे
किस नाम से पुकारा था, हाँ?” वह
सूअर के कान के पास झुकती हुई बोली.
“देवी,” वह भुनभुनाया, “मैं इतनी तेज़ी से नहीं उड़ सकता! मैं अपने महत्त्वपूर्ण कागज़ात खो बैठूँगा.
नतालिया प्रकोफेव्ना, मैं विरोध करता हूँ.”
“तुम अपने कागज़ात समेत भाड़ में जाओ!” पैनी हँसी
हँसते हुए नताशा चिल्लाई.
“ये क्या बात हुई नतालिया प्रकोफेव्ना! कोई हमारी बात सुन लेगा!” सूअर उसे मनाते हुए दहाड़ा.
मार्गारीटा की बगल में छलाँगें मारती नताशा खिलखिलाती हुई उसे बताने लगी कि
मार्गारीटा निकालायेव्ना के फाटक से उड़ने
के बाद उस घर में क्या-क्या हुआ.
नताशा ने स्वीकार किया, कि भेंट में मिली किसी भी चीज़ को छूने के बदले उसने अपने
शरीर से कपड़े उतार फेंके और क्रीम की ओर लपकी, उसने फौरन
अपने बदन पर उसे मल लिया. अब उसके साथ भी वही सब हुआ, जो
उसकी मालकिन के साथ हुआ था. जब नताशा ख़ुशी के मारे हँसती हुई आईने में अपने जादुई
सौन्दर्य को निहार रही थी, तभी दरवाज़ा खुला और नताशा के
सामने निकालाय इवानविच प्रकट हुआ. वह काफी उत्तेजित लग रहा था, हाथों में अपने ब्रीफकेस तथा टोपी के साथ उसने मार्गारीटा निकालायेव्ना की
कमीज़ भी पकड़ रखी थी. नताशा को देखते ही निकालाय इवानविच की बोलती बन्द हो गई. अपने
आपको कुछ संयत करके, केकड़े की तरह लाल हो गए निकालाय इवानविच
ने कहा कि उसने नीचे गिरी छोटी-सी कमीज़ को उठाकर स्वयँ वापस देना अपना कर्त्तव्य
समझा...
“क्या बोला, दुष्ट!” खिलखिलाते
हुए नताशा बताती रही, “क्या-क्या बोला, क्या-क्या कसमें खाईं! कैसे मेरे हाथों में पैसे थमाए! बोला, कि क्लाव्दिया पित्रोव्ना को कुछ भी मालूम नहीं होगा. क्यों, क्या मैं झूठ बोल रही हूँ?” नताशा सूअर पर
चिल्लाई और उसने परेशानी में सिर हिला दिया.
शयन-कक्ष में ऊधम मचाती नताशा ने निकालाय इवानविच पर भी क्रीम मल दी, और
अब उसे आश्चर्य का झटका लगा. निचली मंज़िल पर रहने वाले सम्माननीय नागरिक का चेहरा
पाँच कोपेक के सिक्के जैसा हो गया और उसके हाथ-पैर पंजों जैसे हो गए. अपने आपको
आईने में देखकर निकालाय इवानविच बड़ी हताशा से और जंगलीपन से बिसूरने लगा, मगर अब काफी देर हो चुकी थी. कुछ ही क्षणों बाद वह अपने सवार को लेकर
मॉस्को से दूर न जाने किस जहन्नुम की ओर उड़ चला; वह दुःख से
सिसकियाँ ले रहा था.
“मैं अपने सामान्य रूप को लौटाने की माँग करता हूँ!” अचानक कुछ खीझकर, कुछ मनाते हुए स्वर में सूअर
भर्राया, “मैं किसी गैरकानूनी मीटिंग में उड़कर नहीं
जाऊँगा! मार्गारीटा निकालायेव्ना, आपको अपनी नौकरानी को
उतारना होगा.”
“आह, तो अब मैं तुम्हारे लिए नौकरानी हो गई? नौकरानी?” नताशा सूअर का कान मरोड़ते हुए
चिल्लाई, “और तब मैं देवी थी? तुमने
मुझे क्या कहा?”
“शुक्रतारा! वीनस!” सूअर मनाते हुए बोला. अब वह
पत्थरों के बीच कलकल करती नदी के ऊपर से उड़ रहे थे और अपने पंजों से उसने अखरोट के
पेड़ की टहनियों को छू लिया.
“वीनस! वीनस!” नताशा ने एक हाथ कमर पर रखते हुए
और दूसरा चाँद की तरफ उठाकर विजयोन्माद से कहा, “मार्गारीटा!
महारानी! मेरे लिए प्रार्थना कीजिए, कि मुझे चुडैल ही रहने
दिया जाए. आपके लिए सब कुछ हो सकता है, आपको ताकत मिली है!”
और मार्गारीटा ने जवाब दिया, “अच्छा, मैं
वादा करती हूँ!”
“धन्यवाद!” नताशा ने चिल्लाकर कहा और वह दुबारा
कुछ पीड़ा से और तेज़ी से चिल्लाई, “हेय्! हेय! जल्दी!
जल्दी! और तेज़!” उसने अपनी एड़ियों से बदहवास छलाँगों के
कारण पतली हो गई, सूअर की कमर पकड़ ली; वह
ऐसे दहाड़ा कि हवा फिर से झनझना उठी. एक ही क्षण में नताशा आगे निकलकर एक काले
धब्बे में बदल गई और फिर गायब हो गई. उसकी उड़ान का शोर भी धीरे-धीरे हल्का पड़ गया.
मार्गारीटा पहले ही की तरह धीरे-धीरे सुनसान और अनजान स्थान पर उड़ती रही, पहाड़ियों
के ऊपर, जिन पर बिखरे-बिखरे गोल पत्थर थे, जो विशालकाय मैपलों के बीच की जगह पर पड़े थे. मार्गारीटा उड़ते-उड़ते सोच
रही थी कि वह शायद मॉस्को से बहुत दूर आ गई है. अब ब्रश मैपलों के शिखरों पर नहीं
बल्कि उनके तनों के बीच से होकर उड़ रहा था जो चाँद की रोशनी के कारण एक ओर से
रुपहले प्रतीत हो रहे थे. उड़नपरी की परछाईं ज़मीन पर सामने की ओर पड़ रही थी – अब चाँद मार्गारीटा की पीठ को आलोकित कर रहा था.
मार्गारीटा ने महसूस किया कि कहीं निकट ही पानी है और उसे अन्दाज़ हो गया कि
उसका गन्तव्य निकट ही है. मैपल दूर होते गए और मार्गारीटा हौले-हौले एक सफ़ेद ढलान
की ओर हवा में तैर गई. इस ढलान के पीछे, नीचे, छाया में
थी नदी. सीधी चट्टान के नीचे झाड़ियों पर कोहरा लटक रहा था मगर नदी का दूसरा किनारा
समतल, नीचे था. वहाँ वृक्षों के इकलौते झुरमुट के नीचे अलाव
में आग जल रही थी और कुछ चलती-फिरती आकृतियाँ दिखाई दे रही थीं. मार्गारीटा को यूँ
लगा, जैसे वहाँ से कोई सुरीला, खुशनुमा
संगीत आ रहा है. इसके आगे, जहाँ तक नज़र जाती थी, चाँदी जैसे मैदान पर किसी बस्ती या रिहायश का नामो-निशान नहीं था.
मार्गारीटा
ढलान से नीचे कूद गई और जल्दी से पानी के पास उतरी. इस हवाई सफर के बाद पानी ने
उसका स्वागत किया. ब्रश को दूर फेंककर उसने नदी में सिर के बल छलाँग लगा दी. उसका
हल्का-फुल्का बदन तीर की तरह पानी में घुस गया और ऊपर उछला पानी लगभग चाँद तक
पहुँच गया. पानी गरम था जैसा कि स्नानगृह में होता है और पानी की सतह पर आकर
मार्गारीटा रात के अकेलेपन में नदी में जी भरकर तैरती रही. मार्गारीटा के आसपास
कोई नहीं था, मगर कुछ दूरी पर झाड़ियों के पीछे भी किसी के
तैरने की आवाज़ आ रही थी.
मार्गारीटा दौड़कर किनारे पर आ गई. उसका बदन तैरने के बाद जल रहा था. वह
बिल्कुल भी थकान का अनुभव नहीं कर रही थी और खुशी से गीली घास में नाच रही थी.
अचानक उसने नाचना बन्द कर दिया और वह सावधान हो गई. पानी में हाथ-पैर मारने की
आवाज़ नज़दीक आ रही थी. फिर विलो की झाड़ियों के पीछे से पूरी तरह नग्न एक मोटा बाहर
निकला. उसके सिर पर पीछे को झुकी हुई काली रेशमी टोपी थी. उसकी एड़ियाँ कीचड़ से सनी
थीं. ऐसा लगता था मानो तैरने वाले ने काले जूते पहन रखे हों. जिस तरह वह हाँफ रहा
था और हिचकियाँ ले रहा था उससे साफ़ ज़ाहिर था कि उसने बहुत पी रखी थी. बाद में यह
बात और भी स्पष्ट हो गई, क्योंकि नदी के पानी से कोन्याक की गन्ध आने लगी थी.
मार्गारीटा को देखकर मोटा उसे गौर से निहारने लगा, और
फिर तुरंत खुशी से चिल्ला पड़ा, “यह क्या है? क्या मैं उसे ही देख रहा हूँ? क्लोदीना, यह तुम्हीं तो हो, गर्वीली विधवा? तुम भी यहाँ?” अब वह हाथ मिलाने के लिए आगे
सरका.
मार्गारीटा पीछे हट गई और शालीनता से बोली, “भाड़ में जाओ! यहाँ कोई
क्लोदीना-वोदीना नहीं है! तुम देखो कि किससे बात कर रहे हो,” और एक पल सोच कर उसने एक लम्बी, न छापी जा सकने वाली,
भद्दी गाली दे दी. इस सबने उस छिछोरे मोटे पर गहरा असर किया.
“ओय!” वह हल्के से चहका और काँप उठा, “विशाल हृदया दैदीप्यमान महारानी मार्गो! मुझे माफ कीजिए! मैं गलती कर रहा
था. मगर सारा दोष कोन्याक का है, भाड़ में जाए!” मोटा घुटने के बल बैठ गया और टोपी उतारकर अभिवादन करके बड़बड़ाने लगा. रूसी
वाक्यों में फ्रांसीसी मिलाकर अपने दोस्त हेस्सार की पैरिस में हुई खून-ख़राबे वाली
शादी के बारे में बताने लगा, उसने कोन्याक के बारे में और
अपनी भयंकर गलती के बारे में भी बताया, जिसके कारण वह
शर्मिन्दा था.
“तुम पहले पैंट पहन लेते, सूअर के बच्चे,” मार्गारीटा ने नरम पड़ते हुए कहा.
मोटे ने हँसकर दाँत दिखा दिए, यह देखकर कि मार्गारीटा गुस्सा नहीं
हो रही, और बड़े जोश में बताने लगा कि इस समय उसके पास पैंट
नहीं है, क्योंकि भुलक्कड़पन से वह उसे एनिसेई नदी के तट पर
छोड़ आया है, जहाँ वह इससे पहले तैर रहा था; मगर अब वह वहाँ उड़कर जाएगा, क्योंकि वह नज़दीक ही है,
और पैंट पहन लेगा. फिर आज्ञा का पालन करते हुए वह पीछे-पीछे हटने
लगा और तब तक हटता रहा, जब तक पानी में न गिर पड़ा. मगर
गिरते-गिरते भी उसके छोटे-छोटे कल्लों से सजे चेहरे पर उल्लास और विश्वसनीयता की
मुस्कान थी.
मार्गारीटा ने एक पैनी सीटी बजाई और उड़कर आते हुए ब्रश पर सवार होकर नदी के
दूसरे किनारे की ओर उड़ चली. पहाड़ की परछाईं यहाँ नहीं पहुँच रही थी. चाँद की रोशनी
में पूरा किनारा चमक रहा था.
जैसे ही मार्गारीटा ने गीली घास पर पैर रखा, विलो के वृक्षों के नीचे का संगीत
तेज़ हो गया और अलाव में से फूटकर चिनगारियाँ निकलने लगीं. सरकण्डे की शाखों की
फूली-फूली बालियों के नीचे, जो रोशनी में साफ दिखाई दे रही
थीं, दो कतारों में मोटे-मोटे चेहरे वाले मेंढक बैठे थे और
सीटियाँ बजाते हुए लकड़ी की नली से फूँक-फूँककर परेड का संगीत बजा रहे थे. विलो के
वृक्षों की टहनियों पर इन संगीतकारों के नोट्स लटके थे और मेंढकों के सिरों पर
अलाव की आग की रोशनी नाच रही थी.
यह संगीत मार्गारीटा के सम्मान में था. उसका भव्य स्वागत किया गया था.
पारदर्शी जलपरियों ने अपना गाना बन्द करके पानी के पौधे हिला-हिलाकर मार्गारीटा का
स्वागत किया. उस सुनसान हरे किनारे पर उनका अभिवादन गूँज उठा, जो
दूर-दूर तक सुनाई दे रहा था. निर्वस्त्र चुड़ैलें सरकण्डे के पेड़ों के पीछे से
कूद-कूदकर एक कतार में खड़ी हो गईं और शाही ढंग से झुक-झुककर अभिवादन करने लगीं.
कोई एक बकरी जैसी टाँग वाला उड़कर उसके हाथ से लिपट गया. उसने घास पर रेशमी गलीचा
बिछा दिया, पूछने लगा कि महारानी ने नदी में भली प्रकार
स्नान तो कर लिया न, और उसे थोड़ा सुस्ताने की विनती करने
लगा.
मार्गारीटा ने वैसा ही किया. बकरी जैसी टाँग वाले ने शैम्पेन का जाम उसकी
ओर बढ़ा दिया, जिसे पीते ही उसका दिल फौरन गर्म हो गया. यह पूछने पर कि
नताशा कहाँ है, जवाब मिला कि नताशा पहले ही नहा चुकी और अपने
सूअर के साथ मॉस्को गई है, यह बताने के लिए कि मार्गारीटा
शीघ्र ही पहुँचने वाली है. वह उसके सिंगार में मदद करेगी.
मार्गारीटा के सरकण्डे के पेड़ों के नीचे इस अल्प विश्राम के दौरान एक घटना
घटी. हवा में एक सीटी तैर गई और एक काला बदन हाथ-पैर झटकते हुए पानी में गिर पड़ा.
कुछ ही क्षणों बाद मार्गारीटा के सामने वही कल्लों वाला मोटा था, जो
किनारे पर इतने भद्दे ढंग से उसके सामने प्रकट हुआ था. ज़ाहिर था कि वह एनिसेई तक
जाकर लौट आया था, क्योंकि वह अब फ्रॉक पहनकर पूरी तरह तैयार
था, मगर सिर से पैर तक गीला था. कोन्याक ने ही दुबारा उसे
दुबारा धोखा दिया था. बाहर निकलते-निकलते वह फिर पानी में गिर पड़ा मगर इस दर्दभरी
घटना के दौरान भी उसकी मुस्कान गायब नहीं हुई. उसे मुस्कराती मार्गारीटा के पास
आने दिया गया.
अब सब खड़े हो गए. जलपरियों ने अपना नृत्य समेट लिया और वे चाँद की रोशनी
में विलीन हो गईं. बकरी की टाँग वाले ने पूछ लिया मार्गारीटा से कि वह किस पर
बैठकर नदी पर आई थी; और यह जानकर कि वह ब्रश पर चढ़कर आई थी, वह बोला, “ओह, क्यों?
यह आरामदेह नहीं है!” उसने एक पल में
किन्हीं दो टुकड़ों को जोड़कर कोई रहस्यमय टेलिफोन बनाया और यह माँग की, कि फौरन कार भेजी जाए. यह शीघ्र ही हो गया. किनारे पर शानदार खुली कार आ
गई. सिर्फ ड्राइवर की जगह पर साधारण ड्राइवर नहीं, बल्कि
काला, लम्बी नाक वाला, रेक्ज़िन की हैट
और दस्ताने पहने एक कौआ था. किनारा सुनसान हो गया. चाँद की रोशनी में दूर उड़ती हुई
चुडैलें पिघल गईं. अलाव बुझ गया. कोयलों को भूरी राख ने ढँक लिया.
कल्लों वाले और बकरी जैसी टाँग वाले ने मार्गारीटा को कार में बिठाया और वह
पिछली चौड़ी सीट पर पसर गई. कार चीखी, उछली और चाँद तक ऊपर उठ गई, किनारा गायब हो गया, नदी खो गई. मार्गारीटा मॉस्को
की ओर आने लगी.
********
बाईस
शमा की रोशनी में
ऊँचाई पर उड़ती कार की लगातार हो रही घर्र-घर्र मार्गारीटा को मानो लोरी
सुना रही थी और चाँद की रोशनी उसे हल्की-सी गर्माहट दे रही थी. आँखें बन्द करके
चेहरे पर आती हवा का आनन्द उठाते हुए कुछ अफ़सोस के साथ उसने उस अज्ञात नदी के
किनारे के बारे में सोचा, जिसे वह पीछे छोड़ आई थी; और जिसे
शायद अब वह कभी नहीं देख पाएगी. इस शाम के सब जादुई कारनामों और आश्चर्यजनक घटनाओं
से गुज़रने के बाद उसने यह अन्दाज़ तो लगा लिया था, कि उसे
किसके पास ले जाया जा रहा है, मगर इससे उसे ज़रा भी डर नहीं
लगा. इस उम्मीद ने कि वहाँ उसे अपनी खोई हुई खुशी वापस मिल जाएगी, उसे निडर बना दिया था. मगर इस खुशी के बारे में वह कार में बैठकर ज़्यादा
देर तक नहीं सोच सकी. शायद कौआ अपना काम अच्छी तरह जानता था, या कार बढ़िया थी, मगर शीघ्र ही मार्गारीटा ने आँखें
खोलकर देखा तो नीचे अँधेरे जंगल के बदले था मॉस्को की बत्तियों का लहराता सागर.
काले पक्षी–ड्राइवर ने उड़ते-उड़ते अगले सीधे पहिए को निकाला
और एक सुनसान कब्रिस्तान में, जो द्रगामीलव भाग में था,
कार को उतार दिया. चुपचाप बैठी मार्गारीटा को एक कब्र के पास उसके
ब्रश समेत उतारकर कौए ने कार छोड़ दी, उसे कब्रिस्तान के पीछे
वाली खाई में धकेल दिया. कार इस खाई में गिर कर एक धमाके के साथ ख़त्म हो गई. कौआ
सम्मानपूर्वक फड़फड़ाया, पहिए पर बैठ गया और उसी के साथ उड़
गया.
तभी एक स्मारक के पीछे से एक काला रेनकोट दिखाई दिया. चाँद की रोशनी में एक
दाँत चमका और मार्गारीटा ने अज़ाज़ेला को
पहचान लिया. उसने इशारे से मार्गारीटा को ब्रश पर बैठने के लिए कहा और स्वयँ लम्बे
डण्डे पर कूद गया, दोनों ने ज़ूSSम् से उड़ान
भरी और बिना किसी की नज़रों में पड़े कुछ ही क्षणों बाद सदोवया रास्ते पर बिल्डिंग
नं. 302बी. के नज़दीक उतरे.
जब बगल में ब्रश और डण्डा दबाए ये हमराही मोड़ के पास पहुँचे तो मार्गारीटा
ने वहाँ एक थके हुए आदमी को देखा. उसने टोपी और लम्बे-लम्बे जूते पहन रखे थे. शायद
वह किसी का इंतज़ार कर रहा था. मार्गारीटा और अज़ाज़ेला कितने ही हौले क्यों न चल रहे थे, उस
आदमी ने उन्हें सुन ही लिया और उत्सुकतावश मुड़ा, यह न समझते
हुए कि यह आवाज़ कौन कर रहा है.
दूसरे, पहले से मिलते-जुलते, एक ऐसे ही आदमी
से वे मिले छठे दरवाज़े पर. फिर वही पुनरावृत्ति हुई. कदमों की आहट...आदमी परेशान
होकर मुड़ा और उसने नाक-भौं सिकोड़ लिए. जब दरवाज़ा खुलकर बन्द हो गया तो वह इन
अदृश्य घुसने वालों के पीछे-पीछे देखने लगा, यह बात और है कि
वह कुछ देख नहीं पाया.
तीसरा, जो दूसरे आदमी की प्रतिकृति था, और
शायद पहले की भी, तीसरी मंज़िल के प्रवेश द्वार पर पहरा दे
रहा था. वह बड़ी तीखी सिगरेट पी रहा था. मार्गारीटा को उसके पास से गुज़रते हुए
खाँसी आ गई. सिगरेट पीने वाला अपनी बेंच से ऐसे उछला, मानो
उसे किसीने सुई चुभो दी हो; उसने परेशानी से इधर-उधर देखना
शुरू कर दिया, मुँडॆर की तरफ गया, नीचे
देखा. इस समय तक मार्गारीटा अपने साथी के साथ 50
नं. के फ्लैट पर थी. घण्टी नहीं बजाई. अज़ाज़ेला ने बिना आवाज़ किए अपनी चाबी से
दरवाज़ा खोल दिया.
सबसे पहले मार्गारीटा जिस बात से चौंकी, वह था अँधेरा, जो
वहाँ था. कुछ भी नहीं दिखाई देता था, मानो वह ज़मीन के नीचे आ
गई हो, और मार्गारीटा ने घबराकर अज़ाज़ेला का कोट पकड़ लिया, ताकि
किसी चीज़ से टकरा न जाए. मगर धीरे-धीरे ऊपर से, दूर से,
कोई एक रोशनी झिलमिलाई जो धीरे-धीरे नज़दीक आती गई. अज़ाज़ेला ने चलते-चलते मार्गारीटा की बगल में दबा हुआ
ब्रश निकाल दिया, जो बिना कोई आवाज़ किए अँधेरे में गायब हो
गया. अब वे किन्हीं चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियों पर चढ़ने लगे, मार्गारीटा
को लगा कि ये सीढ़ियाँ कभी ख़त्म ही नहीं होंगी. उसे ताज्जुब हुआ कि मॉस्को के एक आम
फ्लैट के प्रवेश-कक्ष में ऐसी असाधारण, अदृश्य मगर फिर भी
महसूस होने वाली अंतहीन सीढ़ी कहाँ से आ गई. मगर तभी यह ऊपर चढ़ना बन्द हो गया और
मार्गारीटा समझ गई कि वह लैण्डिंग पर खड़ी है. वह रोशनी करीब आती गई और उसके उजाले
में एक आदमी का चेहरा दिखाई दिया; आदमी लम्बा और काला था,
उसने हाथ में यह लैम्प पकड़ रखा था. वे अभागे जीव, जो दुर्भाग्यवश इन दिनों उसके रास्ते में आ गए थे, इस
मद्धिम रोशनी में भी उसे पहचान लेते. यह करोव्येव था, वही फ़गोत भी था.
यह
बात सच है कि करोव्येव का रूप काफ़ी बदल
चुका था. फड़फड़ाती लौ टूटे हुए चश्मे पर नहीं, जिसे बहुत पहले
कचरे में फेंक देना चाहिए था, अपितु एक काँच वाले आले पर पड़
रही थी; यह भी वाक़ई तड़का हुआ ही था. उसके ढीठ चेहरे पर ऊपर
उठी मूँछें मोम लगाकर सँवारी हुई थीं. उसके काले रंग का कारण था वह फ्रॉक-कोट जो
वह पहने हुए था. सिर्फ उसका सीना सफ़ॆद था.
जादूगर, कॉयर-मास्टर, सम्मोहक, अनुवादक और भी न जाने क्या-क्या था यह करोव्येव, शैतान
ही जाने. करोव्येव ने झुककर मार्गारीटा का
अभिवादन किया और लैम्प को हवा में ज़ोरदार घुमाकर उसे अपने पीछे-पीछे आने के लिए
कहा. अज़ाज़ेला गायब हो गया.
‘बड़ी ही अजीब शाम है,’ मार्गारीटा ने सोचा, ‘मैं किसी भी चीज़ की उम्मीद कर सकती थी, सिर्फ इसे
छोड़कर! क्या उनके यहाँ बिजली चली गई है? मगर सबसे ज़्यादा
चौंकाने वाला है – इस जगह का आकार-प्रकार! मॉस्को
के फ्लैट में इतना सब कैसे समा सकता है? किसी भी हालत में
नहीं.’
करोव्येव की मोमबत्ती की रोशनी चाहे कितनी ही मद्धिम क्यों न थी, मार्गारीटा
समझ गई कि वह एक असीमित हॉल में है, जिसमें विशाल स्तम्भों
की कतार है, काली और पहली बार देखने से अंतहीन प्रतीत होती
हुई. किसी दीवान के पास आकर करोव्येव रुका, उसने अपनी
मोमबत्ती किसी स्टूल पर रख दी. उसने इशारे से मार्गारीटा को बैठने के लिए कहा और
स्वयँ उसके निकट ही एक तस्वीर की तरह उस स्टूल पर कुहनियाँ टेके जम गया.
“मुझे अपना परिचय कराने की आज्ञा दें,” करोव्येव
ने बजते हुए कहा, “आपको आश्चर्य हो रहा है न, कि बिजली नहीं है? बचत कर रहे हैं, शायद, आप सोच रही होंगी? नहीं,
नहीं, नहीं! अगर ऐसी बात है तो किसी भी जल्लाद
को या उनमें से किसी भी एक को जो कुछ देर बाद आपके कदमों में गिरने का सौभाग्य
प्राप्त करेंगे, इसी स्टूल पर मेरा सिर कलम करने दो. वह तो
हमारे मालिक को बिजली की रोशनी पसन्द नहीं है, इसलिए,
हम बिजली बिल्कुल आख़िर में जलाएँगे. तब उसमें ज़रा सी भी कटौती नहीं
होगी. हाँ, अगर रोशनी कुछ कम ही रहती तो अच्छा होता.
मार्गारीटा को करोव्येव पसन्द आ गया. उसकी चींचीं की आवाज़ ने उसे काफ़ी
सुकून दिया.
“नहीं,” मार्गारीटा ने जवाब दिया, “सबसे ज़्यादा आश्चर्य मुझे इस बात से हो रहा है, कि
इतना सब कुछ यहाँ कैसे समा सका?” उसने हाथ घुमाकर उस
विशाल हॉल की ओर इशारा किया.
करोव्येव मिठास लिए हौले से हँसा, जिससे उसकी नाक के पास परछाइयाँ तैर
गईं.
“यह तो बड़ा आसान है!” उसने जवाब दिया, “पाँचवें आयाम के बारे में जो जानते हैं उन्हें किसी भी जगह को मनचाहे आकार
का बनाने में कोई तकलीफ नहीं होती. आदरणीय महोदया, कितना भी
बड़ा क्यों न चाहें! मैं...” करोव्येव बड़बड़ाता रहा, “कुछ
ऐसे लोगों को जानता हूँ जिन्हें पाँचवें तो क्या किसी भी आयाम के बारे में कोई भी
जानकारी नहीं है, मगर फिर भी उन्होंने बड़ी ख़ूबसूरती से अपनी
जगह को बड़ा बनाने के काफ़ी करिश्मे कर दिखाए. मिसाल के तौर पर, एक नागरिक को, जैसा कि मुझे बताया गया, ज़िम्ल्यानी वाल में तीन कमरों वाला फ्लैट मिला. बिना किसी पाँचवें-वाँचवें
आयाम के, जिसके कारण दिमाग चकरा जाता है, उसने फ़ौरन उसे चार कमरों वाला बना दिया. एक कमरे को, पार्टीशन खड़ा करके, दो भागों में बाँट दिया.
“इस बड़े फ्लैट के बदले उसने मॉस्को के दो अलग-अलग भागों में दो अलग-अलग
फ्लैट्स ले लिए – एक तीन कमरों वाला और एक दो कमरे
वाला. अब कुल मिलाकर हुए पाँच कमरे. तीन कमरों वाले के बदले उसने दो कमरे वाले दो
फ्लैट ले लिए, और जैसा कि आप देख रही हैं, अब वह छह कमरों का मालिक बन बैठा, जो मॉस्को के
अलग-अलग भागों में बिखरे थे. अब वह अपना अंतिम और शानदार कारनामा करने चला,
अख़बार में इश्तेहार देकर कि मॉस्को के अलग-अलग भागों में बिखरे छह
कमरों के बदले ज़िम्ल्यानी वाल पर एक पाँच कमरों वाला फ्लैट चाहता है; मगर तभी कुछ कारणों से, जिन पर उसका बस नहीं था,
उसकी गतिविधियाँ रुक गईं. शायद, अभी भी उसके
पास कोई कमरा है. बस, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि वह मॉस्को
में नहीं होगा. देखिए, क्या कमाल का चालबाज़ है, और आप अभी तक पाँचवें आयाम के बारे में सोच रही हैं!”
हालाँकि मार्गारीटा पाँचवें आयाम के बारे में ज़रा भी नहीं सोच रही थी, हाँ,
करोव्येव ज़रूर इस विषय में
डूबा हुआ था, मगर वह फ्लैट वाले चालबाज़ की कहानी सुनकर
खिलखिला पड़ी.
करोव्येव आगे बोलता रहा, “चलिए, काम की बातें करें,
काम की बातें, मार्गारीटा निकालायेव्ना! आप
बहुत बुद्धिमान महिला हैं, और, बेशक,
समझ गई हैं, कि हमारा मालिक कौन है.”
मार्गारीटा का दिल धक् हो गया. उसने अपना सिर हिला दिया.
“वही, वही तो...” करोव्येव
बोला, “हम सभी छिपाने के और रहस्यों के दुश्मन हैं. हर
साल हमारे मालिक एक बॉल (नृत्योत्सव) का आयोजन करते हैं. इसे बसंत पूर्णिमा का या
शतनृप नृत्योत्सव कहते हैं. ऐसी भीड़!” अब करोव्येव ने
गाल पर हाथ रख लिया, मानो उसका दाँत दर्द कर रहा हो, “ख़ैर, मैं उम्मीद करता हूँ कि आपको खुद भी विश्वास हो
जाएगा. तो, बात यह है कि मालिक कुँआरे हैं जैसा कि आप ख़ुद ही
समझ रही हैं, मगर महिला मेज़बान तो होना ही चाहिए,” करोव्येव ने हाथ हिलाते हुए कहा, “आप ख़ुद ही
जानती हैं कि मालकिन के बिना...”
मार्गारीटा एक-एक शब्द ध्यान से सुन रही थी: उसके दिल को बड़ी ठण्डक मिल रही
थी; सुख
की कल्पना से उसका सिर घूम रहा था.
“यह प्रथा पड़ गई है,” करोव्येव आगे बोला, “कि नृत्योत्सव की मेज़बान का नाम मार्गारीटा ही होना चाहिए, यह तो हुई पहली बात; और दूसरी यह कि वह स्थानीय
निवासी होना चाहिए; और जैसा कि आप देख रही हैं, हम हमेशा सफर करते रहते हैं और इस समय मॉस्को में हैं. हमें मॉस्को में एक
सौ इक्कीस मार्गारीटा मिलीं, मगर विश्वास कीजिए,” करोव्येव ने अपनी जाँघ पर हाथ
मारते हुए कहा, “एक भी इस लायक नहीं निकली. अब, आख़िर में, सौभाग्य से...”
करोव्येव अर्थपूर्ण ढंग से हँसा, “बिल्कुल संक्षेप में...आप इस
ज़िम्मेदारी से इनकार तो नहीं करेंगी?”
“नहीं करूँगी,” मार्गारीटा ने दृढ़तापूर्वक उत्तर
दिया.
“बेशक!” करोव्येव ने कहा, और
लैम्प उठाकर बोला, “कृपया मेरे पीछे-पीछे आइए.”
वे स्तम्भों की कतार के बीच से होते हुए एक अन्य हॉल में पहुँचे, जहाँ
न जाने क्यों नींबू की खुशबू आ रही थी, जहाँ कुछ
फुसफुसाहट-सी हो रही थी और मार्गारीटा के सिर को कुछ छू गया. वह काँप गई.
“घबराइए मत,” बड़ी मिठास से करोव्येव ने
मार्गारीटा का हाथ पकड़कर सांत्वना दी, “बिगिमोत की
नृत्योत्सव की हल्की-फुल्की शरारत है, और कुछ नहीं. मैं आपको
सलाह देने की हिम्मत कर रहा हूँ, मार्गारीटा निकालायेव्ना,
कि कभी भी, किसी से भी न डरिए. यह बेवकूफी है.
नृत्योत्सव बड़ा शानदार होगा. मैं आपसे छिपाऊँगा नहीं. हम ऐसे लोगों को देखेंगे,
जो अपने ज़माने में बड़े शक्तिशाली शासक रह चुके हैं. मगर जब मैं
सोचता हूँ कि उस महान शक्ति के सामने, जिसकी सेवा में मैं
रहता हूँ, उनकी सामर्थ्य कितनी बौनी है तो हँसी आती है,
दुःख भी होता है...और हाँ, आपकी रगों में भी
तो शाही खून है!”
“शाही खून क्यों?” मार्गारीटा भय से करोव्येव से चिपककर पूछने लगी.
“ओह, महारानी,” करोव्येव ने
हल्के-फुल्के अन्दाज़ में कहा, “खून से सम्बन्धित सवाल,
दुनिया के सबसे जटिल प्रश्न हैं! अगर किन्हीं परदादियों से इस बारे
में पूछा जाए, ख़ासकर उनसे जो अपनी नम्रता के लिए प्रसिद्ध
थीं, तो काफ़ी आश्चर्यजनक भेद खुल जाएँ, आदरणीय मार्गारीटा निकालायेव्ना! इस बारे में कहते हुए यदि मैं भली-भाँति
फेंटी गई ताश की गड्डी की याद दिलाऊँ तो मैं ज़रा भी गलती नहीं करूँगा. कुछ ऐसी
चीज़ें हैं जिनके लिए शहरों और राज्यों की सीमाएँ बेमानी हैं. मैं इस बात की ओर
इशारा करूँगा: एक फ्रांसीसी महारानी से, जो सोलहवीं शताब्दी
में हो चुकी है, यदि कोई यह कहे कि उसकी ख़ूबसूरत
पड़-पड़-पड़-पड़-पड़पोती को, मैं अनेक वर्षों बाद हाथ पकड़कर
मॉस्को के नृत्योत्सव में लाऊँगा तो सोचिए, उसे कितना
आश्चर्य होगा. तो हम आ गए!”
यहाँ करोव्येव ने अपने हाथ का लैम्प बुझा दिया और वह उसके हाथों से गायब हो
गया. मार्गारीटा ने किसी अँधेरे दरवाज़े के नीचे से आती हुए रोशनी का पट्टा देखा.
इस दरवाज़े पर करोव्येव ने हल्के से दस्तक दी. मार्गारीटा इतनी उत्तेजित हो गई कि
उसके दाँत कँपकँपाने लगे और रीढ़ की हड्डी में ठण्डी लहर दौड़ गई. दरवाज़ा खुला. कमरा
छोटा ही था, मार्गारीटा ने एक चौड़ा शाहबलूत का पलंग देखा, जिस पर गन्दी और मुड़ी-तुड़ी चादरें और तकिए थे. पलंग के सामने शाहबलूत की
ही बनी नक्काशी की गई टाँगों वाली मेज़ थी, जिस पर पंछियों के
पंजों की शक्ल के कोटर वाला शमादान रखा था. इन सात सुनहरे पंजों में मोटी-मोटी
मोमबत्तियाँ जल रही थीं. इसके अलावा मेज़ पर शतरंज का एक बोर्ड मोहरों के साथ रखा
था, जो बड़ी नफ़ासत से बनाए गए थे. छोटे-से गलीचे पर नन्हीं-सी
बेंच पड़ी थी. एक ओर मेज़ थी, जिस पर एक सोने का बर्तन और
शमादान रखे थे. इस शमादान की शाखें साँपों के आकार की थीं. कमरे में गन्धक और
तारकोल की गन्ध थी, मोमबत्तियों के कारण पड़ती छायाएँ
एक-दूसरे को सलीब की तरह छेद रही थीं.
उपस्थितों में से मार्गारीटा ने फौरन अज़ाज़ेला को पहचान लिया, जिसने फ्रॉक-कोट पहन लिया था और पलंग
के सिरहाने खड़ा था. सजा-धजा अज़ाज़ेला उस डाकू जैसा बिल्कुल नहीं लग रहा था, जिसे पहली बार मार्गारीटा ने अलेक्सान्द्रव्स्की पार्क में देखा था. उसने
बड़ी अदा से मार्गारीटा का अभिवादन किया.
वेराइटी के सम्माननीय रेस्तराँवाले को उलझन में डालने वाली निर्वस्त्र
चुडैल, वही हैला, जिसे सौभाग्यवश थियेटर के
उस अनोखे प्रोग्राम की रात को मुर्गे की बाँग ने भयभीत कर दिया था, पलंग के पास फर्श पर बिछे कालीन पर बैठी थी और बर्तन में कुछ हिला रही थी,
जिससे भूरे रंग की भाप निकल रही थी.
इनके अलावा उस कमरे में शतरंज की मेज़ के सामने तिपाई पर एक विशालकाय बिल्ला
बैठा था, जिसने अपने बाएँ पँजे में शतरंज के राजा को पकड़ रखा था.
हैला ने उठकर मार्गारीटा का अभिवादन किया. ऐसा ही बिल्ले ने भी तिपाई से
कूदकर किया, पिछले दाहिने पंजे को घुमाते हुए उसने राजा को नीचे गिरा
दिया और उसके पीछे-पीछे पलंग के नीचे चला गया.
यह सब मोमबत्तियों की धुँधली रोशनी में डर से सहमी मार्गारीटा देखती रही.
उसकी नज़र बिस्तर की ओर गई, जिस पर बैठा था वह, जिसे कुछ ही देर
पहले पत्रियार्शी पर बेचारे इवान ने विश्वास दिलाया था, कि
शैतान का अस्तित्व नहीं है. यह अस्तित्वहीन अस्तित्व ही पलंग पर बैठा था.
मार्गारीटा के चेहरे पर दो आँखें गड़ गईं. दाहिनी आँख की सुनहरी चमक किसी की
भी दिल की गहराई में जैसे उतर जाती थी, और बाईं खाली और काली, जैसे सुई का छेद हो, जैसे अँधेरे, छाया वाले अंतहीन कुएँ का मुँह. वोलान्द का चेहरा एक ओर को मुड़ा था,
मुँह का दायाँ किनारा नीचे को खिंच गया था; ऊँचे,
गंजे होते गए माथे की चमड़ी को मानो धूप ने हमेशा के लिए जला दिया
था.
वोलान्द पलंग पर पसरकर बैठा था. उसने गन्दा, धब्बेदार और कन्धे पर पैबन्द लगा
केवल एक लम्बा नाइट गाउन पहन रखा था. उसने एक नंगा पैर अपने नीचे सिकोड़ रखा था,
और दूसरा बेंच पर फैला रखा था. इसी काले पैर का घुटना भाप निकलते
हुए उबटन से हैला साफ कर रही थी.
मार्गारीटा ने वोलान्द की खुली हुई बालरहित, चिकनी छाती पर काले पत्थर का,
सोने की जंज़ीर में लटकता गुबरैला देखा, जिसकी
पीठ पर कुछ लिखा हुआ था. पलंग पर वोलान्द की बगल में एक भारी स्टैण्ड पर एक
विचित्र गोल रखा था, जो बिल्कुल सजीव जान पड़ता था, और जिस पर एक ओर से सूरज की रोशनी पड़ रही थी.
कुछ क्षण ख़ामोशी छाई रही. ‘वह मुझे पढ़ रहा है,’ मार्गारीटा
ने सोचा और उसने अपनी इच्छा-शक्ति से काँपती हुए टाँगों पर काबू पा लिया.
आख़िर में वोलान्द ने मुँह खोला. वह मुस्कुराया, जिससे
उसकी चमकीली आँख मानो जलने लगी: “स्वागत है, महारानी, और मैं अपनी इस घर की पोशाक के लिए माफ़ी
चाहता हूँ.”
वोलान्द
इतने निचले सुर में बोल रहा था कि कुछ शब्दों में भर्राहट का अनुभव होता था.
वोलान्द ने पलंग से लम्बी तलवार उठाई, सिर झुकाकर उसकी नोक पलंग के नीचे
घुसाई और बोला, “बाहर आओ! खेल ख़त्म, मेहमान आए हैं.”
“किसी हालत में नहीं,” उत्तेजित होकर करोव्येव मार्गारीटा
निकालायेव्ना के कान में प्रोम्प्टिंग करते हुए बोला.
“किसी भी हालत में नहीं...” मार्गारीटा ने बोलना
शुरू किया.
“महोदय...” करोव्येव कान में बोला.
“किसी भी हालत में नहीं, महोदय,” मार्गारीटा ने अपने आप पर काबू पाते हुए मुस्कुराकर, धीमी परंतु स्पष्ट आवाज़ में कहा और आगे बोली, “मैं
विनती करती हूँ कि कृपया खेल मत बन्द कीजिए. मैं समझती हूँ कि अगर शतरंज से
सम्बन्धित पत्रिकाएँ इस खेल को छापें तो अच्छे पैसे देंगी.”
अज़ाज़ेला हौले से, सहमति
दिखाते हुए मिमियाया, और वोलान्द मार्गारीटा की ओर देखकर
मानो अपने आप से बोला, “हाँ, करोव्येव
ठीक कहता है! ताश की गड्डी कितनी अच्छी तरह फेंटी जा रही है! खून!”
उसने हाथ बढ़ाया और मार्गारीटा को अपने पास बुलाया. वह आगे बढ़ी. उसके नंगे
पाँवों को फर्श का एहसास नहीं हो रहा था. वोलान्द ने अपना भारी, पत्थर
जैसा, मगर गर्म हाथ मार्गारीटा के कन्धे पर रखा और उसे अपने
पास खींचकर पलंग पर अपने निकट बिठा लिया.
“हाँ,
तो अगर आप इतनी सम्मोहक और सहृदय हैं,” वह
बोला, “और मैंने यही उम्मीद भी की थी, तो चलिए, बिना किसी प्रस्तावना और तामझाम के...” वह फिर झुका और पलंग के नीचे देखते हुए चिल्लाया, “यह सर्कस कितनी देर पलंग के नीचे चलती रहेगी? बाहर
निकलो, सिरफिरे हैन्स!”
“घोड़ा नहीं मिल रहा,” दबी और बनावटी आवाज़ में
पलंग के नीचे से बिल्ला बोला, “न जाने छलाँग मारकर कहाँ
भाग गया और उसकी जगह पर मेंढ़क बोल रहा है.”
“तुम यह तो नहीं सोच रहे न, कि मेले में हो?” गुस्से का अभिनय करते हुए वोलान्द ने पूछा, “पलंग
के नीचे कोई मेंढ़क-वेंढ़क नहीं है! इन सस्ती हरकतों को वेराइटी के लिए ही रहने दो.
अगर तुम एकदम बाहर नहीं निकले, तो हम समझ लेंगे कि तुमने हार
मान ली, बेशरम भगोड़ा!”
“किसी हालत में नहीं, मालिक!” बिल्ला दहाड़ा और फौरन पलंग के नीचे से निकल आया, उसके
पंजे में घोड़ा था.
“इनसे मिलिए...” वोलान्द कहने ही वाला था. मगर
उसने अपनी ही बात काटते हुए कहा, “नहीं, मैं इस जोकर को नहीं देख सकता. देखिए, इसने पलंग के
नीचे अपनी क्या हालत बना ली है?”
इस दौरान धूल से सने बिल्ले ने पिछले पैरों पर खड़े होकर मार्गारीटा का
अभिवादन कर दिया था. अब बिल्ले की गर्दन में सफ़ेद बो-टाई लटक रही थी, और
सीने पर डोरी से औरतों की दूरबीन लटक रही थी. बिल्ले की मूँछें भी सुनहरी हो गई
थीं.
“यह क्या हरकत है!” वोलान्द विस्मय से बोला, “तुमने मूँछें सुनहरी क्यों कर लीं? और तुम्हें टाई
की ज़रूरत क्यों पड़ गई, अगर तुमने पैंट ही नहीं पहनी है?”
“बिल्ले को पैंट की ज़रूरत नहीं है, मालिक,” बिल्ले ने बड़ी शालीनता से उत्तर दिया, “आप कहीं
मुझे जूते भी पहनने के लिए तो नहीं कहेंगे? जूतों वाली
बिल्ली तो सिर्फ परीकथाओं में होती है मालिक! मगर कभी आपने नृत्य उत्सव में किसी
को बिना टाई के देखा है? मैं जोकर नहीं बनना चाहता और यह भी
नहीं चाहूँगा कि कोई मुझे गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दे! हर आदमी अपने आपको सजाता ही
है, जो भी मिले उसी से. यही बात दूरबीन के बारे में भी है,
महाशय!”
“मगर मूँछें?...”
“मैं समझ नहीं पा रहा,” बड़ी रुखाई से बिल्ले ने
विरोध किया, “आज दाढ़ी बनाते समय अज़ाज़ेला और करोव्येव ने
सफ़ेद पाउडर क्यों लगाया, वह सुनहरे से बेहतर कैसे हो गया?
मैंने भी अपनी मूँछों पर पाउडर लगाया, बस! हाँ,
अगर मैं दाढ़ी बनाता होता, तो और बात थी! दाढ़ी
वाला बिल्ला – यह सचमुच बेहूदगी होती, मैं यह बात हज़ार बार मानने के लिए तैयार हूँ. मगर आमतौर से,” बिल्ले ने अपमानित महसूस करते हुए कहा, “मैं
देख रहा हूँ कि मेरे बारे में कुछ पूर्वाग्रह हैं, और अब
मेरे सामने एक गंभीर समस्या है कि मैं नृत्योत्सव में जाऊँ या न जाऊँ? आपका क्या ख़याल है, मालिक?”
और बिल्ला आहत होकर ऐसे बिसूरने लगा, मानो बस एक ही क्षण में ज़ोर से रो
पड़ेगा.
“ओह, बदमाश, बदमाश!” सिर हिलाते हुए वोलान्द ने कहा, “हर बार जब वह
हारने की स्थिति में होता है, तो वह इस तरह बात करता है,
मानो कोई सड़क छाप गुण्डा हो. जल्दी से बैठ जाओ, और यह बकवास बन्द करो.”
“मैं बैठ जाता हूँ,” बैठते हुए बिल्ला बोला, “मगर अंतिम बात का विरोध करता हूँ. मेरी बातें बिल्कुल बकवास नहीं हैं,
जैसा कि आपने एक महिला की उपस्थिति में कहा, बल्कि
यह तो ख़ूबसूरती से जमाए शब्दों में प्रस्तुत तर्क है, जिनकी
प्रशंसा तो सेक्स्त एम्पिरिक जैसे भाषाविद् ही कर सकते हैं, मार्त्सिआन
कापेल्ला और ख़ुद अरस्तू भी उनका सही-सही मूल्यांकन करते हैं.”
“राजा को शह,” वोलान्द बोला.
“शौक से, शौक से,” बिल्ले
ने कहा और वह दूरबीन से शतरंज के बोर्ड को देखने लगा.
“तो अब,” वोलान्द मार्गारीटा की ओर मुखातिब हुआ, “आपका अपनी पलटन से परिचय करवाऊँ. यह बेवकूफ का ढोंग कर रहा बिल्ला – बिगिमोत है. अज़ाज़ेला और करोव्येव से आप पहले ही मिल चुकी हैं. यह है मेरी
सेविका, हैला! चुस्त, समझदार और ऐसा
कोई काम नहीं है, जो यह न कर सके.”
सुन्दरी हैला, मार्गारीटा को अपनी हरी आँखों से देखते हुए मुस्कुराई और
इस बीच उसने मालिक के घुटने पर उबटन मलना भी जारी रखा.
“बस, इतने ही हैं,” वोलान्द
बोला. उसने भँवें सिकोड़ लीं, जब हैला ने काफ़ी ज़ोर से उसका
घुटना दबाया, “आप देख रही हैं, पलटन
छोटी-सी है, मिली-जुली है और चालाक नहीं है.” वह चुप होकर अपने सामने पड़े गोल को घुमाने लगा, जो
इतनी ख़ूबसूरती से बनाया गया था, कि उसमें दिखाए गए नीले सागर
हिलोरें ले रहे थे, और गोल के ध्रुव की टोपी बिल्कुल सचमुच
की, हिम की प्रतीत होती थी.
इस बीच शतरंज के बोर्ड पर भगदड़ मच गई. पूरी तरह हैरान, परेशान
सफ़ेद राजा अपने खाने पर धमाचौकड़ी मचा रहा था, निराशा में हाथ
ऊपर उठा-उठाकर कूद रहा था. तीन सफ़ेद पैदल प्यादे परेशानी से उस बिशप की ओर देख रहे
थे, जो तलवार घुमाते हुए उस ओर इशारा कर रहा था, जहाँ बगल के काले और सफ़ेद खानों में वोलान्द के काले सवार दिखाई दे रहे थे,
जो दो फुर्तीले, खानों को खुरों से खुरचते
घोड़ों पर सवार थे.
मार्गारीटा को काफ़ी दिलचस्पी महसूस हो रही थी. उसे यह देखकर एक झटका-सा लगा
कि ये सभी मोहरें जीवित थे.
बिल्ले ने दूरबीन आँखों से हटा ली और हौले से अपने राजा की पीठ पर एक हाथ
जमा दिया. उसने लज्जावश अपना मुँह हाथों में छिपा लिया.
“हाल बुरा है, प्यारे बिगिमोत,” करोव्येव ने हौले से मगर ज़हरीली आवाज़ में कहा.
“हालत शोचनीय है, मगर एकदम निराशाजनक भी नहीं,” बिगिमोत ने जवाब दिया, “फिर मुझे पूरा विश्वास
है कि आख़िर में जीत मेरी ही होगी. बस, स्थिति का ध्यान से
जायज़ा लेना पड़ेगा.”
स्थिति का अध्ययन उसने बड़े अजीब तरीके से करना शुरू कर दिया. अजीब-अजीब ढंग
से मुँह बनाते हुए वह राजा को आँख मारता रहा.
“कोई फ़ायदा नहीं होगा,” करोव्येव ने फ़ब्ती कसी.
“आँय!” बिगिमोत चिल्लाया, “तोते उड़ गए, जैसा मैंने पहले ही कहा था.
सचमुच, दूर, कहीं दूर, हज़ारों पंखों के फड़फड़ाने की आवाज़ सुनाई दी. करोव्येव और अज़ाज़ेला बाहर की ओर भागे.
“और, तुम अपनी नृत्य उत्सव की सनकों के साथ भाड़ में
जाओ!” वोलान्द अपने गोल से आँखें हटाए बिना बरसा.
जैसी ही करोव्येव और अज़ाज़ेला आँखों से ओझल हुए, बिगिमोत
अपने राजा को और ज़ोर से आँख मारने लगा. सफ़ेद राजा आख़िरकार समझ ही गया कि उससे किस
बात की उम्मीद की जा रही है. उसने अपना चोगा उतारकर उसे चौखाने पर फेंक दिया और
बोर्ड छोड़कर भाग गया. बिशप ने राजा का फेंका हुआ चोगा पहन लिया और स्वयँ राजा के
स्थान पर खड़ा हो गया. करोव्येव और अज़ाज़ेला वापस लौटे.
“झूठ, हमेशा की तरह,” अज़ाज़ेला
ने बिगिमोत को छूते हुए शिकायत के स्वर में कहा.
“मुझे सुनाई दिया था,” बिल्ले ने जवाब दिया.
“तो, यह बहुत देर चलेगा?” वोलान्द
ने पूछा, “शह, राजा को.”
“शायद, मैंने गलत सुना, मेरे
मालिक,” बिल्ले ने जवाब दिया, “शह राजा को नहीं मिली है, और मिल भी नहीं सकती.”
“मैं फिर से कहता हूँ, राजा को शह है!”
“मालिक,” झूठमूठ उत्तेजित होते हुए बिल्ले ने
कहा, “आप शायद बहुत थक गए हैं. राजा को शह नहीं है!”
“राजा G2 नंबर के खाने पर है,” वोलान्द ने बोर्ड की ओर देखे बिना कहा.
“मालिक, मुझे डर है,” बिल्ला
बिसूरा; उसने डर का अभिनय करते हुए आगे कहा, “इस खाने पर राजा नहीं है.”
“यह क्या बात हुई?” वोलान्द ने अविश्वास से पूछा
और बोर्ड की ओर देखने लगा, जहाँ राजा के स्थान पर खड़े बिशप
ने मुँह फेरकर हाथों में छिपा लिया था.
“ओह, तुम, कमीने,” वोलान्द ने सोच में डूबकर कहा.
“मालिक! मैं फिर तर्क का सहारा लेता हूँ,” बिल्ला
सीने पर हाथ रखकर बोलने लगा, “अगर खिलाड़ी कहे कि राजा
को शह मिली है और इस बीच राजा बोर्ड पर ही न दिखाई दे, तो शह
नहीं मानी जाएगी!”
“तुम हार मानते हो या नहीं?” वोलान्द ख़ौफ़नाक
आवाज़ में चिल्लाया.
“कृपया, सोचने दीजिए,” शांति
से बिल्ले ने जवाब दिया, और मेज़ पर कोहनियाँ टिका दीं,
कान हाथों से बन्द कर लिए और सोचने लगा. वह बड़ी देर तक सोचता रहा और
आख़िर में बोला, “हार मानता हूँ.”
“इस ज़िद्दी कचरे को मार डालो,” अज़ाज़ेला फुसफुसाया.
“हाँ, हार मानता हूँ,” बिल्ला
बोला, “मगर हार सिर्फ इसलिए मान रहा हूँ कि जलने वालों
की जली-कटी सुनते हुए खेल नहीं सकता!” वह उठा और शतरंज
के मोहरे अपने आप बक्से में चले गए.
“हैला, वक़्त हो गया,” वोलान्द
ने कहा और हैला कमरे से गायब हो गई.
“पैर में दर्द है और यह नृत्योत्सव आ रहा है,” वोलान्द
ने आगे कहा.
“मुझे इजाज़त दीजिए,” हौले से मार्गारीटा ने
विनती की.
वोलान्द ने एकटक उसकी ओर देखा और अपना घुटना उसकी ओर बढ़ा दिया. लावे की तरह
गरम लेप हाथ जला रहा था, मगर मार्गारीटा ने चेहरे पर शिकन लाये बिना, हल्के से, उसे घुटने पर मलना शुरू किया.
“मेरे अज़ीज़ कहते हैं कि यह जोड़ों की बीमारी है,” वोलान्द ने मार्गारीटा से आँख हटाए बिना कहा, “मगर
मुझे पूरा शक है कि मेरे घुटने का दर्द उस सुन्दर मायाविनी की याद है, जिससे मैं सन् 1571 में ब्रोकेन्स्की पहाड़ों पर शैतानी विभाग में प्यार कर
बैठा था.”
“ओह, क्या ऐसा संभव है?” मार्गारीटा
ने कहा.
“बकवास! तीन सौ सालों बाद यह अपने आप चला जाएगा. मुझे कई दवाइयाँ सुझाई गईं,
मगर मैं प्राचीन काल की तरह दादी माँ के नुस्खे ही इस्तेमाल करता
हूँ. मेरी दादी कुछ बड़ी करामाती घास-फूस मुझे विरासत में दे गई है. ख़ैर, कहिए, आपको तो कोई तकलीफ नहीं है? शायद कोई दुःख हो, जो आपके दिल को खाए जा रहा हो?
कोई निराशा?”
“नहीं, महोदय, ऐसा कुछ भी नहीं
है.” बुद्धिमति मार्गारीटा ने जवाब दिया, “और अब, जब मैं आपके पास हूँ, मैं
बहुत अच्छा महसूस कर रही हूँ.”
“खून...बड़ी ऊँची चीज़...” न जाने किससे ख़ुश होकर
वोलान्द बातें कर रहा था. वह आगे बोला, “मैं देख रहा
हूँ कि आपको मेरा गोल काफ़ी दिलचस्प लग रहा है.”
“ओह, हाँ, मैंने ऐसी चीज़ पहले
कभी नहीं देखी.”
“अच्छी चीज़ है. मैं, सच पूछिए तो, रेडियो की ख़बरें पसन्द नहीं करता. ये ख़बरें अक्सर लड़कियाँ ही पढ़ती हैं,
जो जगहों के नाम साफ़-साफ़ नहीं पढ़तीं. इसके अलावा, उनमें से हर तीसरी लड़की तुतलाती है, जैसे कि
जानबूझकर ऐसी लड़कियों को चुना जाता है. मेरा गोल कहीं ज़्यादा अच्छा है, ख़ासकर इसलिए कि मुझे सब घटनाएँ सही-सही जानना ज़रूरी है. मिसाल के तौर पर,
धरती का यह हिस्सा, जिसका किनारा समुद्र धो
रहा है? देखिए, वह आग में नहा रहा है.
वहाँ लड़ाई शुरू हो गई है. मगर थोड़ा नज़दीक से देखें तो और विवरण भी देख सकेंगी.”
मार्गारीटा गोल की ओर झुकी और उसने देखा कि ज़मीन का वह टुकड़ा चौड़ा होता गया, उस
पर अनेक रंग दिखने लगे और वह उभारदार, अद्भुत नक्शे में बदल
गया. इसके बाद उसने नदी की पतली धार भी देखी और उसी के पास देखी एक बस्ती. वह घर
जो छोटे-से दाने की तरह था, बढ़ता गया और माचिस की डिब्बी
जितना बड़ा हो गया. अचानक उस घर की छत बिना आवाज़ किए काले धुएँ के बादल के साथ ऊपर
उड़ गई और उसकी दीवारें टूट गईं, जिससे इस दुमंज़िली इमारत से
कुछ भी बाकी नहीं बचा, सिवाय उस छोटे-से ढेर के जिसमें से
काला धुआँ निकल रहा था. कुछ और निकट से देखने पर मार्गारीटा ने एक छोटी-सी महिला
की आकृति देखी, जो ज़मीन पर लेटी थी, उसके
निकट खून के पोखर में एक नन्हा-सा बच्चा हाथ फैलाए पड़ा था.
“बस इतना ही,” मुस्कुराकर वोलान्द ने कहा, “वह गुनाह नहीं कर सका. अबादोना का काम त्रुटि रहित होता है.”
“मैं उस तरफ़ रहना नहीं चाहूँगी, जिसके विरुद्ध यह
अबादोना है,” मार्गारीटा बोली, “वह किसके पक्ष में है?”
“जितना ज़्यादा मैं आपसे बातें करता हूँ,” बड़े
प्यार से वोलान्द ने कहा, “उतना ही ज़्यादा मुझे विश्वास
होता जाता है कि आप बहुत बुद्धिमान हैं. मैं आपका समाधान करूँगा. वह बिरले ही
निष्पक्ष प्रतीत होता है और दोनों पीड़ित पक्षों के साथ उसकी सहानुभूति है. इस कारण
दोनों पक्षों के लिए नतीजे एक-से ही रहते हैं. अबादोना!...” वोलान्द ने हौले से कहा, और दीवार से काला चश्मा
पहने एक दुबले-पतले आदमी की आकृति निकली. इस चश्मे ने मार्गारीटा पर इतना गहरा असर
किया कि उसने हल्की चीख मारकर वोलान्द के पैर में अपना चेहरा छिपा लिया.
“आह, बस कीजिए,” वोलान्द
चिल्लाया, “आजकल के लोग कितने डरपोक हैं.” उसने हल्के से मार्गारीटा की पीठ थपथपाई, जिससे उसके
शरीर में एक झनझनाहट हुई, “आप तो देख रही हैं कि वह
चश्मा पहने है. इसके अलावा, ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ, और न होगा, कि अबादोना समय से पहले किसी के सामने
प्रकट हो जाए. और, फिर, मैं तो यहाँ
हूँ ही. आप मेरी मेहमान हैं! मैं तो आपको सिर्फ दिखाना चाहता था.”
अबादोना ख़ामोश खड़ा रहा.
“क्या यह सम्भव है कि वह एक सेकण्ड के लिए चश्मा उतार दे?” मार्गारीटा ने वोलान्द से चिपकते हुए पूछा. मगर अब उत्सुकतावश वह काँप रही
थी.
“यह सम्भव नहीं है,” वोलान्द ने गम्भीरता से कहा
और उसने अबादोना को हाथ से इशारा किया. वह गायब हो गया. “तुम क्या कहना चाहते हो, अज़ाज़ेला ?”
“महोदय,” अज़ाज़ेला ने जवाब दिया, “मुझे
कहने की इजाज़त दीजिए, - यहाँ दो बाहरी व्यक्ति आए हैं: एक
सुन्दरी, जो खिलखिलाकर प्रार्थना कर रही है कि उसे उसकी
मालकिन के पास रहने दिया जाए; इसके अलावा उसके साथ है,
माफी चाहता हूँ, उसका सूअर!”
“ये सुन्दरियाँ भी बड़ी अजीब हरकतें करती हैं,” वोलान्द
ने फ़िकरा कसा.
“यह नताशा है, नताशा,” मार्गारीटा
चहकी.
“ठीक है, उसे अपनी मालकिन के साथ रहने दो. और सूअर को
रसोइयों के पास ले जाओ!”
“काट देंगे?” मार्गारीटा ने घबराकर पूछा. “दया कीजिए, महोदय, वह निकालाय इवानविच
है, जो हमारी निचली मंज़िल का पड़ोसी है. यहाँ कुछ भूल हो गई,
उसने उस पर क्रीम मल दी थी...”
“शांत रहिए,” वोलान्द ने कहा, “कौन काट रहा है उसे? उसे वहीं, रसोइयों के पास बैठे रहने दो, बस और कुछ नहीं! आख़िर
आप भी समझ रही होंगी कि मैं उसे नृत्य उत्सव में तो नहीं बुला सकता!”
“ठीक है...” अज़ाज़ेला बोला और उसने आगे कहा, “आधी रात हो चली है, मालिक.”
“ओह, अच्छी बात है,” वोलान्द
मार्गारीटा की ओर मुख़ातिब हुआ, “तो, मैं आपसे विनती करता हूँ! पहले ही आपका धन्यवाद करता हूँ! झिझकिए मत और
किसी भी चीज़ से मत डरिए. पानी के सिवा कुछ मत पीजिए, वर्ना
आप लड़खड़ाने लगेंगी और आपको मुश्किल होगी. तो, चलें!”
मार्गारीटा कालीन से उठी और तब दरवाज़े में प्रकट हुआ करोव्येव .
*********
तेईस
शैतान का शानदार नृत्योत्सव
आधी रात होने को थी, अतः शीघ्रता करना ज़रूरी था. मार्गारीटा ने कुछ
धुँधला-धुँधला महसूस किया. उसे मोमबत्तियों और हीरे-जवाहिरातों का टब याद रहे. जब
मार्गारीटा टब में उतरी तो हैला और उसकी मदद करती नताशा ने किसी गर्म, गाढ़े और लाल द्रव से उसे नहलाया. मार्गारीटा ने नमकीन स्वाद होठों पर
महसूस किया और वह समझ गई कि उसे खून से नहलाया जा रहा है. इस रक्तिम स्नान के बाद
जो द्रव उस पर डाला गया था, वह था – गाढ़ा, पारदर्शी, गुलाबी. इस
गुलाब के तेल से मार्गारीटा की सिर घूमने लगा. फिर उसे एक क्रिस्टल के कोच पर
लिटाकर उसका बदन किन्हीं बड़ी-बड़ी, हरी-हरी पत्तियों से तब तक
घिसा गया, जब तक वह चमक न उठा. अब बिल्ला भी घुस आया और मदद
करने लगा. वह मार्गारीटा के पैरों के निकट बैठ गया और उसके पंजे इस तरह मलने लगा
जैसे सड़क पर बैठकर जूते साफ कर रहा हो. मार्गारीटा को याद नहीं कि उसके पैरों को
गुलाब की पंखुड़ियों के जूते किसने पहनाएँ और इन जूतों में खुद-ब-खुद सुनहरी लेस
कहाँ से लग गई. किसी शक्ति ने मार्गारीटा को खींचा और आईने के सामने खड़ा कर दिया.
उसके बालों में हीरे जड़ित शाही मुकुट चमक उठा. न जाने कहाँ से करोव्येव भी आ गया और उसने मार्गारीटा के सीने पर एक
अण्डाकार फ्रेम में जड़ी, भारी चेन से लटकी, काले घुँघराले बालों वाले कुत्ते की आकृति पहना दी. इस आभूषण ने महारानी
पर काफी बोझ डाला. चेन उसकी गर्दन में गड़ने लगी और कुत्ते की आकृति ने उसे आगे
झुकने पर मजबूर कर दिया. मगर इस चेन के कारण जो असुविधा उसे हो रही थी, उसका पुरस्कार भी मार्गारीटा को शीघ्र ही मिल गया. यह पुरस्कार था – वह सम्मान जो अब उसे करोव्येव और बिगिमोत
दे रहे थे.
“कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं!” करोव्येव स्नानगृह के दरवाज़े के
पास बड़बड़ाया, “कुछ नहीं किया जा सकता, यह ज़रूरी है, बहुत ज़रूरी है. महारानी, आपको अंतिम सलाह देने की इजाज़त दें. हमारे मेहमानों में अनेक प्रकार के
लोग होंगे, और, एक-दूसरे से बिल्कुल
अलग, मगर किसी के भी बारे में महारानी मार्गो, कोई पूर्वाग्रह न रखें! यदि आपको कोई पसन्द न आए...मैं समझ सकता हूँ,
तो भी, ज़ाहिर है, आप इसे
अपने चेहरे पर प्रकट नहीं होने देंगी...नहीं, नहीं, इस बारे में सोचना भी मना है! वह फौरन, उसी क्षण,
ताड़ जाएगा. उसे प्यार करना होगा, प्यार करना
होगा, महारानी. नृत्योत्सव की मेज़बान को इसका सौ गुना
पुरस्कार मिलेगा! और हाँ – किसी को भी छोड़िए मत.
कम से कम एक मुस्कान, अगर बात करने का समय न हो तो, कम से कम सिर का एक हल्का-सा इशारा. जो भी सम्भव है, मगर किसी की भी उपेक्षा न करें. वर्ना वह संतप्त हो जाएँगे...”
अब मार्गारीटा स्नानगृह से निकलकर पूरे अँधेरे में करोव्येव और बिगिमोत के साथ आई.
“मैं, मैं,” बिल्ला
फुसफुसाया, “मैं इशारा करूँगा!”
“करो!” अँधेरे में करोव्येव ने जवाब दिया.
“नृत्योत्सव!” बिल्ले की तीखी चीख सुनाई दी,
और मार्गारीटा ने फौरन चीखकर कुछ क्षणों के लिए अपनी आँखें बन्द कर
लीं. नृत्योत्सव उस पर मानो प्रकाश-पुंज लेकर बरसा, और साथ
में लाया शोर और खुशबू. करोव्येव का हाथ
पकड़कर चलती हुई मार्गारीटा ने अपने आपको एक उष्णकटिबन्धीय जंगल में पाया. लाल
गर्दन वाले, हरी पूँछ वाले तोते वृक्षलताओं से चिपके थे,
उन पर कूद रहे थे और चीख-चीखकर कह रहे थे: “मैं ख़ुश हूँ!” मगर जंगल जल्दी ही समाप्त हो
गया. उसकी नम दमघोंटू हवा का स्थान ले लिया शीतल नृत्योत्सव के हॉल ने, जिसमें पीले, चमकीले स्तम्भों की कतार थी. यह हॉल भी,
जंगल की ही भाँति खाली था, बस सिर्फ स्तम्भों
के पास बुत बने, निर्वस्त्र नीग्रो, सिर
पर चाँदी की पट्टियाँ बाँधे खड़े थे. जैसे ही वहाँ मार्गारीटा ने अपनी मण्डली के
साथ प्रवेश किया जिसमें न जाने कहाँ से अज़ाज़ेला भी आकर मिल गया था, उनके
चेहरे उत्तेजना से मटमैले भूरे हो गए. अब करोव्येव ने मार्गारीटा का हाथ छोड़ दिया और बुदबुदाया: “सीधे त्युल्पान की ओर.”
सफ़ेद त्युल्पानों की एक नीची दीवार मार्गारीटा के सामने प्रकट हो गई, उसके
पीछे थीं छोटे-छोटे शेड्स में अनेक बत्तियाँ और इनके पीछे से फ्रॉक पहने मेहमानों
के सफ़ेद सीने और काले कन्धे. तब मार्गारीटा समझ गई कि नृत्योत्सव में आवाज़ें कहाँ
से आ रही थीं. उस पर बरसात हुई तुरही के स्वर की, और उससे
हटकर अलग से प्रकट हुआ वायलिन का स्वर उसके बदन पर ऐसे लहराने लगा जैसे धमनियों
में दौड़ता हुआ खून. क़रीब डेढ़ सौ लोगों का ऑर्केस्ट्रा ‘पलानेज़’ धुन बजा रहा था.
ऑर्केस्ट्रा के सम्मुख खड़ा निर्देशक मार्गारीटा को देखते ही पीला पड़ गया, मुस्कुराया
और उसने हाथ के झटके से पूरे ऑर्केस्ट्रा को उठा दिया. एक क्षण को भी संगीत को
रोके बगैर ऑर्केस्ट्रा ने खड़े-खड़े मार्गारीटा का स्वर लहरियों से अभिवादन किया.
निर्देशक मुड़ा और उसने नीचे झुककर, हाथ फैलाकर अभिवादन किया,
और मार्गारीटा ने भी मुस्कुराकर उसकी ओर देखते हुए हाथ हिलाया.
“नहीं, यह काफी नहीं है, काफी
नहीं है,” करोव्येव फुसफुसाया, “वह पूरी रात सोएगा नहीं. उससे चिल्लाकर कहिए: स्वागत है, वाल्ट्ज़ सम्राट!”
मार्गारीटा ने चिल्लाकर दुहरा दिया और उसे आश्चर्य हुआ कि उसकी आवाज़, जिसमें
घंटियों की गूँज थी, पूरे ऑर्केस्ट्रा पर छा गई. निर्देशक
प्रसन्नता से थरथरा गया और उसने दाहिना हाथ सीने पर रख लिया, जबकि बाएँ हाथ से वह ऑर्केस्ट्रा का संचालन करता रहा.
“यह भी कम है, काफी नहीं है,” करोव्येव फिर फुसफुसाया, “दाईं ओर देखिए,
पहली कतार के वायलिन वादकों की तरफ, और इस तरह
सिर हिलाइए, कि उनमें से हर वादक यही समझे कि आपने उसे पहचान
लिया है. यहाँ केवल विश्वप्रसिद्ध हस्तियाँ ही हैं. पहले इसे, जो पहले बोर्ड पर है – वह व्येतान है. हाँ,...बहुत अच्छे!...अब आगे!”
“यह संचालक कौन है?” उड़ते हुए मार्गारीटा ने पूछ
लिया.
“जॉन श्त्राऊस,” बिल्ला चिल्लाया, “और मुझे कटिबन्धीय जंगल में पेड़ पर उल्टा टाँग दीजिए, अगर किसी और नृत्योत्सव में पहले कभी ऐसा ऑर्केस्ट्रा बजा हो! मैंने ही
उसे आमंत्रित किया था! और ग़ौर कीजिए, एक भी बीमार नहीं पड़ा,
और किसी ने भी इनकार नहीं किया.”
अगले हॉल में स्तम्भों की कतार नहीं थी. उसके बदले में थीं, एक
तरफ लाल, गुलाबी, दूधिया-सफ़ेद रंगों के
गुलाबों की दीवारें और दूसरी ओर थी दुहरी पत्तियों वाले कामेलिया की जापानी दीवार.
इन दीवारों के मध्य की जगह पर थे छनछनाहट करते हल्के फ़व्वारे; और शैम्पेन के बुलबुले तीन तालाबों में उड़ रहे थे; जिनमें
एक थी – पारदर्शी बैंगनी, दूसरी – माणिक (लाल) और तीसरी – बिलौरी. इनके पास
आ-जा रहे थे सिर पर लाल पट्टी कसे नीग्रो जो चाँदी के मग्स से इन तालाबों से
शैम्पेन निकाल-निकालकर चपटे प्यालों में भर रहे थे. गुलाब की दीवार में एक खाली
जगह थी, जहाँ से लाल, पंछी की पूँछ
जैसा फ्रॉक पहने एक आदमी दिखाई दे रहा था. उसके सामने अविरत शोर था – जॉज़ संगीत का. जैसे ही इस संचालक ने मार्गारीटा को देखा, वह उसके सम्मुख इतना झुका, कि उसके हाथ फर्श को छूने
लगे. फिर वह सीधा खड़ा हो गया और तेज़ आवाज़ में चीखा, “अल्लीलुइया!”
उसने अपने घुटने पर हाथ मारा – एक! फिर दूसरे पर - दो!
सबसे अंतिम संगीतज्ञ की प्लेट ली और उससे स्तम्भ पर चोट की.
वहाँ से हवा में तैरते हुए मार्गारीटा ने देखा कि यह जोशीला जॉज़ निर्देशक, पलानेज़
की ध्वनि से संघर्ष करते हुए, जो मार्गारीटा की पीठ की ओर से
आ रही थी, संगीतज्ञों के सिरों पर अपनी झाँझ मार रहा है और
वे हास्यास्पद भय से नीचे बैठते जा रहे हैं.
अंत में वे उस चौक तक आए, जहाँ मार्गारीटा के अन्दाज़ के मुताबिक वह अँधेरे में लैम्प
उठाए करोव्येव से मिली थी. अब इस चौक में रोशनी के कारण आँखें चकाचौंध हो रही थीं,
जो अँगूर के आकार के झुम्बरों से छन-छनकर आ रही थी. मार्गारीटा को
वहीं ठहराया गया और उसके दाहिने हाथ के नीचे एक नीचा जम्बुमणि का स्तम्भ प्रकट हो
गया.
“यदि बहुत परेशानी हो जाए, तो इस पर हाथ रख सकती हैं,” करोव्येव फुसफुसाया.
किसी एक काले आदमी ने मार्गारीटा के पैरों के निकट एक तकिया सरकाया, जिस
पर सोने के तारों से घुँघराले बालों वाले कुत्ते की तस्वीर कढ़ी थी. इस पर उसने
किन्हीं हाथों की सहायता से घुटना मोड़कर अपना दाहिना पैर रख दिया. मार्गारीटा ने
इधर-उधर देखने की कोशिश की. उसके निकट करोव्येव और अज़ाज़ेला उत्सव की मुद्रा में खड़े थे, जिन्हें देखकर मार्गारीटा को अबादोना की धुँधली-सी याद आई. पीठ में ठण्डक
दौड़ गई तो मार्गारीटा ने मुड़कर देखा, उसके पीछे संगमरमर की
दीवार से शराब का झरना बहकर बर्फ के तालाब में गिर रहा है. बाएँ पैर के निकट उसे
कुछ गर्माहट महसूस हुई, यह बिगिमोत था.
मार्गारीटा ऊँचाई पर थी, उसके पैरों के नीचे एक बहुत शानदार सीढ़ी नीचे को जा रही
थी. सीढ़ी कालीन से ढँकी थी. नीचे, बहुत दूर, मानो मार्गारीटा दूरबीन के उल्टे सिरे से देख रही हो, एक बहुत बड़ा हॉल था. हॉल में एक भव्य अंगीठी थी, जिसके
अँधेरे ठण्डे जबड़े में लगभग पाँच टन लकड़ी समा सकती थी. यह खाली हॉल और सीढ़ी आँखों
में चुभने वाले प्रखर प्रकाश से आलोकित थी. अब काफ़ी दूर से तुरही की आवाज़
मार्गरीटा तक पहुँच रही थी. इस तरह स्तब्ध वे सब एक मिनट तक खड़े रहे.
“मेहमान कहाँ हैं?” मार्गारीटा ने करोव्येव से पूछा.
“आएँगे, महारानी, आएँगे,
अभी आएँगे. उनकी कोई कमी नहीं होगी. और उनका यहाँ स्वागत करने के
बदले मैं लकड़ियाँ काटना ज़्यादा पसन्द करता.”
“लकड़ियाँ तोड़ने की बात क्या करते हो,” बातूनी
बिल्ले ने कहा, “मैं तो ट्रामगाड़ी में कण्डक्टर की
नौकरी भी कर लेता, मगर इस काम से ज़्यादा बुरा दुनिया में और
कोई काम नहीं है!”
“सब कुछ पहले ही तैयार हो जाना चाहिए, महारानी,” करोव्येव ने बिगड़ी हुई दूरबीन में एक आँख से देखते हुए समझाया.
“इससे बुरी और कोई बात नहीं होती कि सबसे पहला मेहमान यह सोचने लगे कि उसे
क्या करना चाहिए, और उसकी कानूनी पत्नी उसे उलाहना देने लगे
कि वे सबसे पहले क्यों आ गए. ऐसे नृत्योत्सवों को तो गन्दी नाली में फेंक देना
चाहिए, महारानी!”
“बिल्कुल नाली में,” बिल्ले ने समर्थन किया.
“आधी रात होने में दस सेकण्ड से भी कम हैं,” करोव्येव
ने कहा, “बस अभी शुरू हो जाएगा.”
ये दस सेकण्ड मार्गारीटा को बहुत लम्बे लगे. वे, शायद,
ख़त्म भी हो गए और कुछ भी नहीं हुआ. मगर तभी नीचे विशाल भट्ठी से
किसी चीज़ की आवाज़ आई. उसमें से एक वध-स्तम्भ उछलकर निकला, जिस
पर आधा सड़ा एक कंकाल बेतहाशा झूल रहा था. वह कंकाल रस्सी से छूटकर नीचे गिर गया,
ज़मीन से टकराया और उसमें से फ्रॉक-कोट पहने, काले
बालों वाला सुन्दर युवक चमकीले जूते पहने उछलकर बाहर आया. भट्ठी में से आधा सड़ा
ताबूत बाहर आया. उसका ढक्कन खुल गया और उसमें से एक और मानव अवशेष निकला. सुन्दर
नौजवान बड़ी मर्दानगी से उसकी ओर उछला और उसकी ओर अपनी बाँह मोड़कर बढ़ा दी. दूसरा
अवशेष एक निर्वस्त्र चुलबुली महिला में बदल गया. उसने काले जूते पहन रखे थे. उसके
सिर पर काले पर खोंसे हुए थे. तब दोनों, पुरुष और स्त्री,
ऊपर सीढ़ी की ओर लपके.
“सर्वप्रथम!” करोव्येव चहका, “श्रीमान जैक अपनी अर्धांगिनी के साथ! आपसे मुख़ातिब हैं, महारानी, दुनिया के एक सर्वाधिक दिलचस्प इंसान. एक
पक्के झूठे नोट छापने वाले; सरकार से विश्वासघात करने वाले,
मगर एक अच्छे-भले कीमियाई. इनको प्रसिद्धी मिली इस बात से,” करोव्येव मार्गारीटा के कान में
फुसफुसाया, “कि इन्होंने महाराज की प्रियतमा को ज़हर दे
दिया. यह हरेक के बस की बात तो नहीं है! देखिए, कितने
सुदर्शन हैं!”
पीली पड़ गई मार्गारीटा विस्मय से मुँह खोले नीचे देखने लगी कि वह वध-स्तम्भ
और ताबूत कैसे एक तरफ़ हटकर हॉल के छोटे-से गलियारे में गायब हो गए.
“मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ!” बिल्ला ऊपर चढ़ते
महाशय जैक के चेहरे के एकदम सामने मुँह करके दहाड़ा.
इसे
बीच नीचे अँगीठी से बिना सिर का, कटे हाथ वाला एक पिंजर
निकला, धरती से टकराया और एक फ्रॉक पहने पुरुष में परिवर्तित
हो गया.
श्रीमान जैक की पत्नी अब तक मार्गारीटा के सामने आ चुकी थी और एक घुटना
टेककर मार्गारीटा का घुटना चूम रही थी.
“महारानी...” श्रीमान जैक की पत्नी बुदबुदाई.
“महारानी अत्यंत प्रसन्न हैं!” करोव्येव चिल्लाया.
“महारानी...” हौले से सुन्दर नौजवान श्रीमान जैक
बोला.
“हम सब भावविभोर हैं!” बिल्ला चिल्लाया.
अज़ाज़ेला के साथी, वे नौजवान, बेजान मगर स्वागतपूर्ण
मुस्कुराहट के साथ अब तक श्रीमान जैक और उसकी पत्नी को घेरकर शैम्पेन के जामों तक
ले गए थे, जिन्हें नीग्रो हाथों में लिए खड़े थे. सीढ़ी पर एक
अकेला फ्रॉक वाला दौड़ा आ रहा था.
“ग्राफ रॉबर्ट,” मार्गारीटा से करोव्येव ने
फुसफुसाकर कहा, “पहले ही की तरह दिलचस्प है. गौर कीजिए,
महारानी, कितनी हास्यास्पद बात है, बिल्कुल उल्टी: यह सम्राज्ञी का प्रियतम था और इसने अपनी बीवी को ज़हर दे
दिया.”
“हम बहुत ख़ुश हैं, ग्राफ,” बिगिमोत ने चिल्लाकर कहा.
अँगीठी से गिरते-पड़ते टूटते-बिखरते एक के बाद एक तीन ताबूत निकले, उसके
बाद निकला काले कोट में एक आदमी, जिसे काले जबड़े से निकलकर
उसके पीछे-पीछे आने वाले ने, पीठ पर छुरा मारा. नीचे एक
दबी-दबी चीख सुनाई दी. अँगीठी से लगभग पूरी तरह क्षत-विक्षत लाश निकली. मार्गारीटा
ने आँखें बन्द कर लीं और फौरन किसी हाथ ने उसकी नाक के पास सफ़ेद नमक की नन्ही-सी
कुप्पी सरका दी. मार्गारीटा को लगा, कि वह नताशा का हाथ था.
सीढ़ी धीरे-धीरे भरने लगी. अब करीब-करीब हर सीढ़ी पर, दूर से
एक-से दिखने वाले, फ्रॉक पहने व्यक्ति और उनके साथ वस्त्रहीन
औरतें थीं, जो एक दूसरे से केवल अपने बालों में खोंसे पंखों
के और जूतों के रंग के कारण अलग प्रतीत होती थीं.
मार्गारीटा के पास आई, लँगड़ाती हुई, दाहिने पैर में अजीब-सा
लकड़ी का जूता पहने, ‘नन’ जैसी
आँखों वाली, दुबली-पतली, नम्र और न
जाने क्यों गर्दन में हरी पट्टी बाँधे एक महिला.
“कितनी हरी है?” मार्गारीटा ने यंत्रवत् पूछा.
“सबसे मोहक और हृष्ट-पुष्ट महिला,” करोव्येव फुसफुसाया, “आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ: मैडम तोफाना, जो
नैपल्स और पालेर्मो के नौजवानों में बहुत लोकप्रिय थीं, ख़ासकर
उन महिलाओं के बीच, जो अपने पति से तंग आ चुकी थीं. क्या
महारानी, ऐसा होता है कि कोई अपने पति से उकता जाए?”
“हाँ,” मार्गारीटा ने डूबी हुई आवाज़ में जवाब
दिया, साथ ही वह दो फ्रॉक वालों का मुस्कुराकर स्वागत भी
करती रही, जो एक के बाद झुककर उसका घुटना और हाथ चूम रहे थे.
“तो यह,” करोव्येव मार्गारीटा के कान में
फुसफुसाया और साथ ही किसी से चिल्लाकर बोला, “गेर्त्सोग,
शैम्पेन का जाम! मैं भाव विभोर हूँ! तो, यह मैडम
तोफाना इन अभागी स्त्रियों से निकटता स्थापित कर, उन्हें
नन्ही-नन्ही कुप्पियों में कोई द्रव बेचती. पत्नी यह द्रव पति के सूप में उँडेल
देती. वह उसे खाता. प्यार दिखाने के लिए पत्नी का धन्यवाद करता और अपने आपको बहुत
ताज़ा एवम् बेहतर महसूस करता. यह बात और है, कि कुछ घण्टों
बाद उसे बड़ी तेज़ प्यास लगती, उसके बाद वह बिस्तर पर लेट जाता
और एक दिन बाद वह नैपल्स निवासिनी सुन्दरी, जिसने पति को सूप
पिलाया था, आज़ाद हो जाती, जैसे बसंती
हवा.”
“और उसके पैर में यह क्या है?” मार्गारीटा ने
पूछा. साथ ही वह उन मेहमानों की ओर अपना हाथ भी बढ़ाती रही, जो
मैडम तोफाना को पीछे छोड़ते हुए आ रहे थे, “और उसकी
गर्दन पर यह हरियाली क्यों है? क्या गर्दन टूटी हुई है?”
“मैं अति प्रसन्न हूँ, सामन्त!” करोव्येव चीखा और तभी मार्गारीटा से बोला, “ख़ूबसूरत
गर्दन है, मगर जेल में उसके साथ दुर्घटना हुई. उसके पैर पर,
महारानी स्पेनिश जूता है, और यह पट्टी इसलिए
कि जब जेल वालों को पता चला कि लगभग पाँच सौ पतियों ने नैपल्स और पालेर्मो को
हमेशा के लिए छोड़ दिया है, तो उन्होंने गुस्से में आकर मैडम
तोफाना का गला दबा दिया.”
“मैं कितनी भाग्यवान हूँ, साँवली महारानी, जो मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ.” तोफाना ने ‘नन’ के-से अन्दाज़ में घुटने पर झुकने की कोशिश
करते हुए कहा. स्पेनिश जूता उसके इस काम में बाधा डाल रहा था. करोव्येव और बिगिमोत
ने उसकी उठने में मदद की.
“मैं बहुत प्रसन्न हूँ,” मार्गारीटा ने औरों की
ओर हाथ बढ़ाते हुए उससे कहा.
अब तो सीढ़ी पर नीचे की ओर से आने वालों का ताँता लग गया. मार्गारीटा हाथ
उठाती और गिराती रही, और दाँत दिखाकर मेहमानों का मुस्कुराहट से स्वागत करती
रही. हवा में शोर भर गया था; मार्गारीटा जिन नृत्य हॉलों को
छोड़कर आई थी, वहाँ से समुद्र की लहरों जैसा संगीत का स्वर
सुनाई दे रहा था.
“और यह...उकताने वाली औरत,” अब करोव्येव फुसफुसाने
के बदले ज़ोर से बोला, क्योंकि वह जानता था कि इस शोर में
उसकी आवाज़ लोगों को सुनाई नहीं देगी, “नृत्योत्सवों की
दीवानी है, मगर हमेशा अपने रूमाल के बारे में शिकायत करने की
बात सोचती रहती है.”
मार्गारीटा ने नज़र से उस औरत को ढूँढ़ लिया, जिसकी ओर करोव्येव ने इशारा किया था.यह एक बीस वर्षीय अद्वितीय
सुन्दरी थी. उसकी आँखें काफी बेचैन और परेशान लग रही थीं
“कैसा रूमाल?” मार्गारीटा ने पूछा.
“उसके लिए एक नौकरानी रखी गई है,” करोव्येव ने
स्पष्ट किया, “और वह पिछले तीस साल से उसकी नन्ही-सी
मेज़ पर रात को छोटा-सा रूमाल रख देती है. जैसे ही सुबह वह उठती है, रूमाल वहाँ देखती है. उसने उसे चूल्हे में डाला, नदी
में फेंक दिया, मगर उससे कुछ भी फायदा नहीं हुआ.”
“कैसा
रूमाल?” मार्गारीटा ने फुसफुसाकर हाथ ऊपर उठाते और नीचे
गिराते हुए कहा.
“नीली किनारी वाला रूमाल. बात यह है कि जब वह रेस्त्राँ में काम करती थी,
मालिक ने उसे नीचे गोदाम में बुलाया, और नौ
महीने बाद उसने एक बालक को जन्म दिया. उसे जंगल में ले गई और उसके मुँह में रूमाल
ठूँस दिया. फिर बालक को ज़मीन में गाड़ दिया. अदालत में उसने बताया कि उसके पास
बच्चे को पिलाने के लिए कुछ भी नहीं था.”
“और इस रेस्तराँ का मालिक कहाँ है?” मार्गारीटा
ने पूछा.
“महारानी,” अचानक बिल्ले ने नीचे से लहराते हुए
कहा, “मुझे आपसे पूछने की इजाज़त दीजिए: यहाँ मालिक का
क्या काम? उसने तो जंगल में बच्चे का गला नहीं घोंटा.”
मार्गारीटा ने निरंतर मुस्कुराते और दाहिना हाथ हिलाते हुए, बाएँ
हाथ से पैने नाखून बिगिमोत के कानों में घुसा दिए और फुसफुसाते हुए बोली, “तुम, सूअर कहीं के, अगर फिर बातचीत
के बीच में टपके, तो...”
बिगिमोत नृत्योत्सव के मौहोल के लिए बेसुरी आवाज़ में फूट पड़ा, “महारानी...कान सूज जाएगा...मैं सूजे कान से इस उत्सव का मज़ा क्यों किरकिरा
करूँ? – मैंने तो न्याय की बात की थी...न्याय की
दृष्टि से...चुप रहूँगा, चुप रहूँगा...समझ लीजिए, कि मैं बिल्ला नहीं, बल्कि मछली हूँ, मगर मेरा कान तो छोड़ दीजिए.”
मार्गारीटा ने कान छोड़ दिया और उसके सामने याचना भरी उदास आँखें आ गईं.
“मैं सौभाग्यशाली हूँ, मेज़बान महारानी, कि आपने मुझे पूर्णिमा के इस शानदार नृत्योत्सव में आमंत्रित किया!”
“और मैं,” मार्गारीटा ने जवाब में कहा, “आपसे मिलकर खुश हूँ, बहुत खुश. क्या आप शैम्पेन
पसन्द करेंगी?”
“आप क्या करने जा रही हैं, महारानी?!” बदहवासी से, मगर बिना आवाज़ किए करोव्येव मार्गारीटा के कान में चिल्लाया, “ट्रैफिक रुक जाएगा.”
“मुझे पसन्द है,” उस औरत ने विनती के-से स्वर
में कहा, और एकदम यंत्रवत् दुहराने लगी, “फ्रीडा, फ्रीडा! मेरा नाम फ्रीडा है, महारानी!”
“तो आज तुम नशे में धुत हो जाओ, फ्रीडा, और किसी बात की चिंता मत करो,” मार्गारीटा ने
कहा.
फ्रीडा ने दोनों हाथ मार्गारीटा की ओर बढ़ा दिए, मगर करोव्येव
और बिगिमोत ने बड़े हौले से उसके हाथ अपने हाथों में ले लिए, और
वह भीड़ में गुम हो गई.
अब नीचे से आदमियों की मानो दीवार बढ़ी आ रही थी, मानो
उस चौक पर हमला करने आ रहे हों, जहाँ मार्गारीटा खड़ी थी.
स्त्रियों के नंगे बदन फ्रॉक पहने आदमियों के बीच-बीच में ऊपर चढ़ रहे थे. मार्गारीटा
की तरफ तैरते आ रहे थे साँवले, गोरे, कॉफी
के रंग जैसे और एकदम काले बदन. भूरे, काले, बादामी, सुनहरे, सन जैसे रंग
के बालों में चमक रही थी, तैर रही थीं – अनेक बहुमूल्य पत्थरों से निकलती रंगबिरंगी प्रकाश की किरणें. उनके सीनों
पर हीरे-जवाहिरात ऐसे दमक रहे थे, मानो किसी ने आदमियों के
इस आगे बढ़ते जमघट पर प्रकाश की बूँदें छिड़क दी हों. अब मार्गारीटा हर सेकण्ड अपने
घुटने पर किसी न किसी के होठों का स्पर्श महसूस कर रही थी, हर
सेकण्ड अपना हाथ चूमे जाने के लिए आगे बढ़ा रही थी. उसके चेहरे ने मानो एक स्वागत
भरी मुस्कान का मुखौटा पहन लिया था.
“मैं बहुत खुश हूँ,” एक सुर में करोव्येव गा रहा
था, “हम खुश हैं...सम्राज्ञी खुश हैं...”
“महारानी प्रसन्न हैं,” नकियाते सुर में अज़ाज़ेला
पीठ के पीछे भुनभुनाता.
“मैं खुश हूँ!” बिल्ला चिल्लाता.
“मार्कीज़ा,” करोव्येव बडबड़ाया, “इसने अपने पिता, दो भाइयों और दो बहनों को सम्पत्ति
के कारण ज़हर दे दिया... महारानी खुश हैं. मैडम मीनकिना, ओह,
कितनी सुन्दर हैं! थोड़ी नर्वस ज़रूर हैं. नौकरानी के चेहरे को
घुँघराले बालों वाले चिमटे से क्यों दागना था? ऐसी हालत में
तो सिर्फ सिर ही काट दिया जाता है! महारानी खुश हैं! महारानी, कृपया एक सेकण्ड ध्यान दें: सम्राट रूदोल्फ, सम्मोहक
और कीमियाकार. एक और अलकीमी – सूली पर चढ़ा दिया
गया था. ओह, यह रही वो! ओह, इनका कितना
सुन्दर वेश्यालय था स्त्रासबुर्ग में! हम खुश हैं! मॉस्को की दर्जिन! हम सब उसकी
अलौकिक कल्पनाशक्ति के लिए उसे बहुत पसन्द करते हैं. वह एक होटल चलाती थी और उसने
एक ख़तरनाक हास्यास्पद हरकत की थी: दीवार में दो छेद बना दिए थे...”
“औरतों को मालूम नहीं हुआ?” मार्गारीटा ने पूछा.
“एक-एक को मालूम था, महारानी,” करोव्येव बोला, “मैं खुश हूँ! यह बीस वर्षीय नौजवान
बचपन से अपनी कल्पनाशक्ति के लिए मशहूर था. यह विचारक और आश्चर्यजनक व्यक्ति था.
एक लड़की ने उससे प्यार किया था, मगर इसने उसे वेश्यालय में
बेच दिया.”
नीचे से मानो एक नदी बढ़ी आ रही थी, जिसका अंत नज़र नहीं आता था. इसका
उद्गम, वह विशालकाय भट्टी, उसे भरती जा
रही थी. इस तरह एक घण्टा गुज़र गया और दूसरा चल रहा था. अब मार्गारीटा ने महसूस
किया कि उसकी चेन पहले से भारी हो गई है. हाथ के साथ भी कुछ अजीब बात हुई. अब हर
बार उसे उठाने के पहले उसके चेहरे पर शिकन आने लगी. करोव्येव की दिलचस्प कहानियाँ
अब उसका ध्यान नहीं आकर्षित कर रही थीं. मंगोल चेहरे, काले
चेहरे, गोरे चेहरे बेमतलब हो गए; वे
कभी-कभी गड्डमड्ड हो जाते, और उनके बीच की हवा काँपने और
सिकुड़ने लगती. मार्गारीटा के दाहिने हाथ में अचानक ऐसा दर्द होने लगा, मानो कोई सुई चुभो रहा हो; और दाँत भींच कर उसने
अपने पास रखे स्तम्भ पर कोहनी टिका दी. कुछ अजीब-सी आवाज़...मानो पंखों के फड़फड़ाने
की आवाज़ अब पीछे के हॉल से आ रही थी. साफ समझ में आया कि वहाँ मेहमान नृत्य कर रहे
हैं और मार्गारीटा को लगा कि इस विशाल हॉल की मज़बूत संगमरमरी दीवारें, मोज़ाइक के और क्रिस्टल के फर्श भी एक लय में धड़क रहे हैं.
मार्गारीटा को न तो गेयस सीज़र कालिगुला में, न ही मेसालिना में अब कोई दिलचस्पी
रह गई थी. अब न तो किसी राजा, न ड्यूक, न सरदार, न आत्मघाती, न ज़हर
देने वाला, न सूली पर टाँगने वाला, न
जल्लाद, न जेलर, न बेईमान, न जासूस, न देशद्रोही, न पागल,
न तलाशी लेने वाला – किसी में भी अब
वह रुचि नहीं ले रही थी. उन सबके नाम उसके दिमाग में गड्डमड्ड हो गए, चेहरे एक-दूसरे में मिल गए. उसके दिमाग में बस एक ही दुःखी चेहरा रह गया,
वाक़ई आग जैसी लाल दाढ़ी से सजा माल्यूता स्कुरातोव का चेहरा.
मार्गारीटा की टाँगें लड़खड़ा रही थीं, प्रतिक्षण वह डर रही थी
कि उसके आँसू निकल पड़ेंगे. सबसे ज़्यादा दर्द हो रहा था उसके दाहिने घुटने में,
जिसे अतिथि चूम रहे थे. वह सूज गया था, उसकी
चमड़ी नीली पड़ गई थी, बावजूद इसके कि कई बार नताशा का हाथ इस
घुटने को किसी सुगन्धित द्रव्य से सहला चुका था. तीसरे घण्टे के अंत में
मार्गारीटा ने बिल्कुल मुरझाई, असहाय नज़रों से नीचे की ओर
देखा और खुशी से काँप गई. मेहमानों की कतार बहुत छोटी हो गई थी.
नृत्य समारोहों के नियम हर जगह समान होते हैं, महारानी,” करोव्येव फुसफुसाया, “अब यह लहर गिरना शुरू हो गई है. मैं विश्वास दिलाता हूँ कि ये आख़िरी क्षण
भी हम बर्दाश्त कर लेंगे. यह ब्रोकेन के कुछ घुमक्कड़ लोगों का झुण्ड है. वे हमेशा
आख़िर में आते हैं. हाँ, ये वही हैं. दो पियक्कड़ बेताल...बस?
ओह, नहीं, एक और है;
नहीं, दो हैं!”
सीढ़ियों पर दो अंतिम मेहमान बढ़े आ रहे थे. “हाँ, यह
तो कोई नया है,” करोव्येव ने काँच से आँखें सिकोड़कर
देखते हुए कहा, “ओह, हाँ, हाँ, एक बार अज़ाज़ेला की उससे मुलाकात हो गई थी और
कोन्याक पीते-पीते उसने सलाह दी थी, कि एक आदमी का काँटा
कैसे निकालना चाहिए, जिसके भेद खोल देने का डर था. उसने अपने
परिचित को, जो सदा उस पर निर्भर रहता था, कमरे की दीवारों पर ज़हर छिड़कने की आज्ञा दी...”
“उसका नाम क्या है?” मार्गारीटा ने पूछा.
“ओह, सच तो यह है कि अभी मैं भी नहीं जानता,” करोव्येव ने जवाब दिया, “अज़ाज़ेला से पूछना
पड़ेगा.”
“और उसके साथ कौन है?”
“वही, उसका आज्ञाकारी सेवक. मैं खुश हूँ!” करोव्येव अंतिम दोनों का स्वागत करते हुए चिल्लाया.
सीढ़ी खाली हो गई. एहतियात के तौर पर और दो मिनट इंतज़ार किया, मगर
अँगीठी से कोई और बाहर नहीं निकला.
एक सेकण्ड बाद न जाने कैसे, मार्गारीटा उसी कमरे में पहुँच गई,
जहाँ स्नानगृह था और वहाँ हाथों-पैरों में दर्द के कारण वह रोते हुए
फर्श पर लुढ़क गई. मगर हैला और नताशा ने उसे धीरज बँधाते हुए फिर से रक्त स्नान
करवाया, फिर से उसके बदन को मला और मार्गारीटा फिर से
ताज़ातरीन हो गई.
“एक बार और, महारानी मार्गो,” बगल में प्रकट हुआ करोव्येव फुसफुसाया, “सारे कक्षों
में जाना होगा, जिससे कि आदरणीय मेहमान अपने आपको उपेक्षित न
समझें.”
और मार्गारीटा फिर स्नानगृह वाले कमरे से उड़ी. त्युल्पान की दीवार वाले मंच
पर, जहाँ
संगीत सम्राट का वाल्ट्ज़ बज रहा था, अब वानर-जॉज़ छाया था.
भीमकाय, छितरे कल्ले वाला गुरिल्ला, हाथों
में तुरही उठाकर कठिनता से नृत्य करते हुए ऑर्केस्ट्रा का संचालन कर रहा था. ओरांग
उटाँग एक कतार में बैठे थे और चमकदार तुरहियाँ बजा रहे थे. उनके कन्धों पर हाथों
में हार्मोनियम लिए खुशनुमा चिम्पांज़ी बैठे थे. दो, सिंहों
जैसी दाढ़ी वाले वनमानुष जैसे बन्दर पियानो बजा रहे थे, मगर
इनकी आवाज़ सेक्सोफोन, वायलिन और ड्रम्स के शोर में सुनाई
नहीं पड़ रही थी जो लंगूरों, विशालकाय मैण्ड्रिल्स और छोटे
मार्मोसेट्स के हाथों में थे. शीशे के फर्श पर अनगिनत जोड़े अपने लोचदार और सफाईदार
नृत्य से अचम्भित कर रहे थे. वे एक ही दिशा में मुड़ते, एक
दीवार की तरह चलते, मानो अपने रास्ते से सब कुछ हटा देंगे.
नृत्य करते जोड़ों के सिरों पर ज़िन्दा मखमली तितलियाँ उड़ रही थीं, छत से फूलों की वर्षा हो रही थी. जब बिजली बन्द हुई तो असंख्य झाड़-फानूस
जल उठे, हवा में अनगिनत रोशनियाँ तैर गईं.
फिर मार्गारीटा एक विशाल तालाब वाले कक्ष में आई, जहाँ
स्तम्भों की कतार थी. विशालकाय काला नेपच्यून अपने जबडे से गुलाब जल की धारा बिखेर
रहा था. तालाब से मदमस्त कर देने वाली शैम्पेन की ख़ुशबू
उठ रही थी. यहाँ एक अजीब-सी ख़ुशी दिखाई दे रही थी. औरतें खिलखिलाते हुए अपने जूते
फेंक देतीं और पर्स अपने साथी या नीग्रो के हाथों में थमा देतीं, जो तौलिए लिए भागकर आ रहे थे, और किलकारियाँ मारते
हुए पंछी की तरह पानी में कूद जातीं. फेनिल लहरें ऊपर आतीं. इस बड़े तालाब का
क्रिस्टल तल भी नीचे लगी रोशनी से आलोकित था, और उसमें तैरते
हुए चाँदी-से बदन दिखाई दे रहे थे. तालाब से औरतें पूरी तरह मस्त होकर बाहर
निकलतीं. उनकी खिलखिलाहट स्तम्भों के बीच से गूँज उठती, जैसा
कि सार्वजनिक स्नानगृहों में होता है.
इस पूरी भीड़भाड़ में केवल एक पूरी तरह नशे में धुत चेहरा याद रहा – खाली-खाली आँखों वाला, मगर इन खाली आँखों से भी
विनती-सी करता हुआ; और केवल एक शब्द याद रहा – ‘फ्रीडा’! शराब की गन्ध के कारण मार्गारीटा का सिर
घूमने लगा. वह वहाँ से जाने की इच्छा करने लगी, मगर तभी
बिल्ले की एक हरकत ने उसे रोक लिया. बिगिमोत ने नेपच्यून के जबड़े के पास जाकर कुछ
किया, जिससे फुसफुसाकर शोर मचाती, उत्तेजित
करती शैम्पेन की धार बन्द हो गई. नेपच्यून अब खिलदंड़े फेनिल द्रव की जगह एक गहरी
पीली धार फेंकने लगा.
औरतें चीख मारकर बोल पड़ीं, ‘कोन्याक!’ और वे तालाब से
दूर उछल कर स्तम्भों के पीछे चली गईं. कुछ ही क्षणों में टब पूरा भर गया और बिल्ला
हवा में तीन कुलाँचे मारकर, लबालब भरे कोन्याक में गिर पड़ा.
वह बाहर निकला – बदहवास – टाई की गाँठ खुल चुकी थी, मूँछों का सुनहरा रंग गायब
हो गया था, उसकी दूरबीन भी खो गई थी. बिगिमोत की ही भाँति
करने की कोशिश की सिर्फ एक ने, उसी दर्जिन ने और उसके साथी
एक अनजान संकरित खून के नौजवान ने. ये दोनों कोन्याक की ओर लपके, मगर तभी करोव्येव ने मार्गारीटा
का हाथ पकड़ा और वे नहाने वालों को छोड़कर चले गए.
मार्गारीटा को महसूस हुआ मानो वह कहीं उड़ी जा रही है, जहाँ
विशाल पत्थरों के तालाब में सीपों के पर्वत थे. फिर वह उस काँच के फर्श के ऊपर से
उड़ी जिसके नीचे मानो नरक की आग जैसी भट्ठियाँ जल रही थीं, जिनके
बीच घूम रहे थे शैतानों जैसे सफ़ेद रसोइये. फिर कहीं और, कहाँ,
यह समझने की शक्ति वह अब खो चुकी थी; जहाँ काले
अँधेरे गोदामों में मोमबत्तियाँ जल रही थीं, जहाँ लड़कियाँ
दहकते कोयलों पर सनसनाता हुआ माँस प्लेटों में डाल-डाल कर दे रही थीं; जहाँ बड़े-बड़े जाम उसकी सेहत के लिए पिए जा रहे थे. फिर उसने देखे सफ़ेद
भालू, जो स्टॆज पर हार्मोनियम बजाकर नाच रहे थे. फिर देखा
जादूगर सलमान्द्रा को जो आग में नहीं जल सकता था; और उसकी
शक्ति दुबारा क्षीण होने लगी.
“बस, आख़िरी दौर,” करोव्येव
ने सहानुभूतिपूर्वक फुसफुसाकर कहा, “और फिर हमारी छुट्टी.”
करोव्येव के साथ वह फिर नृत्य वाले
हॉल में आई, जहाँ मेहमान अब नृत्य नहीं कर रहे थे, बल्कि स्तम्भों के बीच-बीच में खड़े थे. हॉल का मध्य भाग खाली छोड़ा गया था.
मार्गारीटा को याद नहीं कि उसे इस खाली भाग में प्रकट हुए मंच पर चढ़ने में किसने
मदद की. जब वह ऊपर चढ़ी तो दूर कहीं आधी रात के घण्टे बजे, जो
उसके हिसाब से कब की ख़त्म हो चुकी थी. आख़िरी घण्टे की गूँज के साथ मेहमानों की भीड़
पर सन्नाटा छा गया. तब मार्गारीटा ने फिर से वोलान्द को देखा. वह अबादोना, अज़ाज़ेला और अबादोना जैसे दिखने वाले कुछ काले नौजवानों के साथ चला आ रहा
था. अब मार्गारीटा ने देखा कि उसके लिए बनाए गए स्टेज के सामने ही एक और स्टेज था वोलान्द
के लिए. मगर वह उस पर नहीं चढ़ा. मार्गारीटा को इस बात से भी आश्चर्य हुआ कि
वोलान्द नृत्योत्सव के इस अंतिम महान चरण में वैसे ही आया था, जैसे वह अपने शयन-कक्ष में था. उसके कन्धों से वही गन्दा धब्बेदार कुर्ता
झूल रहा था, पैरों में वही मुड़े-तुड़े जूते थे. वोलान्द के
हाथ में थी खुली हुई तलवार, मगर इस तलवार का उपयोग वह चलते
समय सहारा देने वाली छड़ी के रूप में कर रहा था. लँगड़ाते हुए वोलान्द अपने लिए बनाए
गए स्टेज के निकट रुका और फ़ौरन अज़ाज़ेला उसके सामने हाथों में प्लेट लिए आ खड़ा हुआ.
इस प्लेट पर मार्गारीटा ने एक आदमी का कटा हुआ सिर देखा, जिसके
सामने के दाँत टूटे हुए थे. पूरी ख़ामोशी छाई रही और उसे केवल एक बार एक अजीब-सी
घण्टी की आवाज़ ने तोड़ा, जो प्रवेश-द्वार पर लगी होती है.
“मिखाइल अलेक्सान्द्रविच,” वोलान्द हौले से सिर
की तरफ मुख़ातिब हुआ, और तब मरे हुए आदमी की पलकें ऊपर उठीं.
काँपते हुए मार्गारीटा ने देखीं बेजान चेहरे पर जीवित, सोच
में डूबी, पीड़ा झेलती आँखें. “सब
वैसे ही हो गया, सच है न?” वोलान्द
ने सिर की आँखों में झाँकते हुए आगे कहा, “सिर काटा औरत
ने, मीटिंग हुई नहीं, और मैं आपके
फ्लैट में रह रहा हूँ. यह प्रमाण है और प्रमाण – दुनिया
की सबसे ज़िद्दी चीज़ है. मगर अब हमें भविष्य में दिलचस्पी है, न कि उस हादसे में जो घट चुका है. आप हमेशा ज़ोर-शोर से इस सिद्धांत का
प्रतिपादन करते रहे हैं, कि सिर कटने के बाद जीवन समाप्त हो
जाता है, वह राख बनकर अस्तित्वहीन हो जाता है. मुझे अपने सभी
मेहमानों की उपस्थिति में आपको यह बताते हुए खुशी हो रही है, हालाँकि मेरे मेहमान किसी और ही सिद्धांत के प्रमाण हैं, कि आपका सिद्धांत ठोस और बुद्धिमत्तापूर्ण है. मगर, जैसा
कि सर्वविदित है, सभी सिद्धांतों का एक-दूसरे की बदौलत ही
अस्तित्व है. इनमें एक यह है, कि हरेक को उसके विश्वास के
अनुरूप ही फल मिलता है. हाँ, ऐसा ही होगा! आप अस्तित्वहीन हो
जाएँगे, और मुझे उस प्याले से – जिसमें आप परिवर्तित होने वाले हैं – अस्तित्व
के लिए जाम पीकर खुशी होगी.” वोलान्द ने तलवार उठाई.
तभी सिर की पलकें बुझकर काली हो गईं और सिकुड़ गईं, फिर
टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गईं; आँखें गायब हो गईं और जल्दी ही
मार्गारीटा ने प्लेट में देखी पीली, पन्ने की आँखों और मोती
के दाँतों वाली, सोने के आधार पर रखी खोपड़ी. खोपड़ी का ढक्कन
झटके से खुल गया.
“इसी क्षण, मालिक,” करोव्येव
ने वोलान्द की प्रश्नार्थक नज़र को ताड़ते हुए कहा, “वह
आपके सामने आएगा. मैं इस कब्र-सी ख़ामोशी में सुन रहा हूँ उसके चमकते जूतों की
चरमराहट और उस जाम की खनखनाहट, जो उसने आख़िरी बार मेज़ पर रखा
था, अपने जीवन की अंतिम शैम्पेन पीकर. लीजिए, वह आ गया.”
वोलान्द की तरफ बढ़ते हुए, उस हॉल में एक नया, अकेला मेहमान
आया. बाह्य रूप से वह अन्य पुरुष मेहमानों से भिन्न नहीं था, सिर्फ एक बात को छोड़कर: मेहमान घबराहट के मारे लड़खड़ा रहा था, जो दूर से ही दिखाई दे रही थी. उसके गाल जल रहे थे, आँखें
घबराहट भरी चँचलता से इधर-उधर भाग रही थीं. मेहमान स्तम्भित था, और यह स्वाभाविक ही था: उसे यहाँ की हर चीज़ आश्चर्यचकित किए दे रही थी,
ख़ासतौर से वोलान्द की वेशभूषा.
मगर मेहमान का स्वागत बड़ी ज़िन्दादिली से किया गया.
“ओह, प्रिय सामंत मायकेल,” स्वागतपूर्ण मुस्कुराहट से वोलान्द मेहमान से मुख़ातिब हुआ, जिसकी आँखें अब माथे तक चढ़ चुकी थीं, “आपका
परिचय कराते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है,” वोलान्द ने
अब मेहमानों की ओर मुड़कर कहा, “आदरणीय सामंत मायकेल,
जो मनोरंजन समिति में विदेशियों को राजधानी के दर्शनीय स्थलों से
अवगत कराने का काम करते हैं.”
अब मार्गारीटा चौंक गई, क्योंकि उसने इस मायकेल को पहचान लिया था. उसने उसे मॉस्को
के थियेटरों और होटलों में कई बार देखा था. ‘शायद...’ मार्गारीटा ने सोचा, ‘यह भी मर चुका है?’ मगर तभी सारी बात स्पष्ट हो गई. “प्रिय सामंत,” वोलान्द ने खुशी से मुस्कुराते हुए अपनी बात जारी रखी, “इतने मुग्ध हो गए कि मॉस्को में मेरे आगमन के बारे में जानकर उन्होंने
मुझे फौरन टेलिफोन किया और अपनी सेवाओं के बारे में मुझे बताया, यानी मॉस्को के दर्शनीय स्थलों की सैर कराने के बारे में. ज़ाहिर है कि
मुझे उन्हें अपने यहाँ आमंत्रित करके खुशी हुई है.”
इसी समय मार्गारीटा ने अज़ाज़ेला को खोपड़ी वाली प्लेट करोव्येव को देते हुए
देखा.
“हाँ, तो सामंत महोदय,” अचानक
निकटता दर्शाते हुए वोलान्द ने अपनी आवाज़ नीची कर की और बोला, “आपकी असीम उत्सुकता के बारे में अफ़वाहें फैल रही हैं. सुना है कि उत्सुकता
और बातूनीपन लोगों का ध्यान आकर्षित करने लगे हैं. इसके अलावा दुष्ट ज़बानें यह भी
कहती सुनी गई हैं कि आप एजेण्ट और जासूस हैं. इसके साथ ही यह अन्दाज़ भी लगाया जा
रहा है कि इस सबके कारण महीने भर के अन्दर आपका दर्दनाक अंत हो जाएगा. तो, आपको इस थकाने वाले इंतज़ार से बचाने के लिए हमने सोचा कि आपकी मदद की जाए.
आपने मेरे पास आकर मुझसे बातें करके कुछ देखने-सुनने की इच्छा प्रकट की थी,
उसी बात का हमने फायदा उठाया है.”
सामंत का चेहरा अबादोना से भी ज़्यादा पीला पड़ गया. फिर एक चौंकाने वाली बात
हुई. अबादोना ने सामंत के सामने खड़े होकर एक क्षण के लिए अपना चश्मा उतारा. इसी
समय अज़ाज़ेला के हाथ में कोई चीज़ चमकी, कुछ ताली-सी बजने की आवाज़ आई और
सामंत नीचे धरती पर गिरने लगा. उसके सीने से लाल खून का फव्वारा निकलकर उसकी कलफ
लगी कमीज़ और जैकेट को सराबोर करने लगा. करोव्येव ने इस उछलती हुए धार के नीचे
खोपड़ी वाला प्याला रखा और भर जाने के बाद उसे वोलान्द को पेश कर दिया. अब तक सामंत
का निर्जीव शरीर फर्श पर गिर पड़ा था.
“आपकी
सेहत के लिए, दोस्तों,” धीरे से
वोलान्द ने कहा और प्याला उठाकर उसे होठों तक ले गया.
तभी एक अद्भुत परिवर्तन हुआ. धब्बों वाली कमीज़ और मुड़े-तुड़े जूते गायब हो
गए. वोलान्द एक काली पोशाक में दिखा, कमर में स्टील की तलवार लटकाए. वह
फौरन मार्गारीटा के पास आया और उसके पास प्याला लाते हुए अधिकारपूर्ण स्वर में
बोला, “पियो!”
मार्गारीटा का सिर घूम गया, वह लड़खड़ाने लगी, मगर प्याला अब तक उसके होठों तक पहुँच चुका था, और
कुछ आवाज़ें, किसकी – वह
पहचान नहीं पाई, उसके दोनों कानों में कह रही थीं: “डरिए मत, महारानी...डरिए मत, महारानी,
खून कब का ज़मीन में चला गया है. और वहाँ, जहाँ
वह गिरा था, अंगूर की बेलें उग आई हैं.”
मार्गारीटा ने आँखें खोले बिना एक घूँट पिया और उसकी नस-नस में एक मीठी-सी
लहर दौड़ गई, कानों में घण्टियाँ बजने लगीं. उसे लगा कि कानों को बहरा
कर देने वाले मुर्गे चिल्ला रहे हैं. कहीं दूर मार्च का संगीत बज रहा है. मेहमानों
के झुण्ड अपना आकार खोने लगे: फ्रॉक पहने मर्द और औरतें कंकालों में परिवर्तित
होकर बिखर गए, मार्गारीटा की आँखों के सामने उस कक्ष पर सड़न
छाने लगी जिस पर कब्र की-सी गन्ध फैल गई. स्तम्भ बिखर गए, रोशनियाँ
बुझ गईं, सब कुछ सिमटने लगा; न बचे
झरने, न ही त्युल्पान और अन्य फूल. बचा सिर्फ उतना ही जितना
पहले था – जवाहिरे की बीवी का सीधा-सादा
ड्राइंगरूम, और उसके अधमुँदे दरवाज़े से बाहर झाँकती प्रकाश
की एक पट्टी. इसी अधखुले दरवाज़े में प्रविष्ट हुई मार्गारीटा
**********
चौबीस
मास्टर की वापसी
वोलान्द के शयन-कक्ष में सब कुछ वैसा ही था जैसा कि नृत्य-समारोह के पूर्व
था. वोलान्द
एक कुर्ते में पलंग पर बैठा था, सिर्फ अब हैला उसके पैरों पर
उबटन नहीं मल रही थी, बल्कि मेज़ पर, जहाँ
पहले शतरंज खेली जा रही थी, खाना खा रही थी. करोव्येव और अज़ाज़ेला फ्रॉक-कोट उतारकर मेज़ के पास बैठे थे और उनके
पास बिल्ला विराजमान था, जो अभी भी अपनी बो-टाई को निकालना
नहीं चाहता था, हालाँकि अब वह गन्दे चिथड़े में बदल चुकी थी.
मार्गारीटा लड़खड़ाते हुए मेज़ के निकट गई और उसका सहारा लेकर खड़ी हो गई. तब वोलान्द
ने उसे इशारे से बुलाया, जैसा कि तब किया था, और कहा कि वह उसके निकट बैठ जाए.
“तो, आपको बहुत परेशान किया?” वोलान्द ने पूछा.
“ओह, नहीं, महाशय,” मार्गारीटा ने बहुत ही धीमे स्वर में जवाब दिया.
“शानदार पेय,” बिल्ले ने कहा और एक पारदर्शक
द्रव प्याले में डालकर मार्गारीटा की ओर बढ़ा दिया.
“क्या यह वोद्का है?” थके स्वर में मार्गारीटा
ने पूछा.
बिल्ला अपमानित अनुभव करते हुए कुर्सी पर उछल गया.
“माफ कीजिए, महारानी,” वह
भर्राई आवाज़ में बोला, “क्या मैं भद्र महिला को वोद्का
देने की जुर्रत कर सकता हूँ? यह खाली स्प्रिट है.”
मार्गारीटा मुस्कुराई और उसने प्याले को दूर हटाना चाहा.
“बेधड़क पी जाइए,” वोलान्द ने कहा.
मार्गारीटा ने फौरन गिलास हाथ में उठा लिया.
“हैला, बैठो,” वोलान्द ने
आज्ञा दी और मार्गारीटा को समझाने लगा, “पूर्णमासी की
रात – त्यौहार की रात होती है. इस रात मैं अपने
निकटतम साथियों और सेवकों के साथ भोजन करता हूँ. तो, अब आप
कैसा महसूस कर रही हैं? यह थकाने वाला नृत्योत्सव कैसा रहा?”
“बेमिसाल!” बिल्ला रिरियाया, “सब मुग्ध हैं, प्रसन्न हैं, आभारी
हैं! कितना सलीका, कितनी बुद्धिमानी, योग्यता
और लुभावनापन!”
वोलान्द ने चुपचाप ग्लास उठाया और मार्गारीटा के जाम से टकराया. मार्गारीटा
चुपचाप पी गई, यह सोचते हुए कि वह उसी समय स्प्रिट से मर जाएगी. मगर कोई
भी बुरी बात नहीं हुई. उसके पेट में जीवन की गर्माहट दौड़ गई, दिमाग में हल्का-सा झटका लगा और उसकी शक्ति वापस आ गई, मानो वह लम्बी, ताज़गी देने वाली नींद से जागी हो,
साथ ही उसे बड़े ज़ोरों की भूख भी लग आई. यह याद करके कि उसने कल सुबह
से कुछ नहीं खाया है, भूख और भी बढ़ गई. वह बेतहाशा मछली पर
टूट पड़ी.
बिगिमोत ने अनन्नास का टुकड़ा काटा, उस पर नमक मिर्च लगाकर उसे खा गया,
इसके बाद उसने स्प्रिट का दूसरा जाम कुछ इस तरह ढाला, कि सबने तालियाँ बजाईं.
दूसरा जाम पीने के बाद मार्गारीटा को लगा कि झुँबरों में लगी मोमबत्तियाँ
कुछ और तेज़ प्रकाश दे रही हैं, अँगीठी की लौ भी प्रखर हो गई है. मगर उसे नशा महसूस नहीं
हो रहा था. अपने सफेद-सफेद दाँतों से माँस का टुकड़ा काटते हुए, मार्गारीटा उसमें से टपकते रस को भी सुड़कती जा रही थी, साथ ही वह यह भी देख रही थी, कि कैसे बिगिमोत मछली
पर चटनी लगा रहा है.
“तुम उसके ऊपर अंगूर भी रखो,” हैला ने बिल्ले की
कमर में उँगलियाँ गड़ाते हुए हौले से कहा.
“कृपया मुझे मत सिखाइए,” बिगिमोत ने जवाब दिया, “मेज़ पर बैठा हूँ, तंग न कीजिए, बैठने दीजिए!”
“ओह, कितना अच्छा लगता है इस तरह खाना, अँगीठी के पास बैठकर अपनों के साथ,” करोव्येव बुदबुदाया.
“नहीं, फ़गोत,” बिल्ले ने
प्रतिवाद किया, “नृत्योत्सव की अपनी भव्यता और अपनी शान
होती है.”
“कोई शान-वान नहीं है, और भव्यता भी नहीं, और वे बेवकूफ भालू, और शेर, अपने
शोर से मेरे सिर में बस अर्धशीशी का दर्द ही पैदा कर रहे थे,” वोलान्द ने कहा.
“मैं सुन रहा हूँ, महाशय,” बिल्ला बोला, “यदि आप सोचते हैं कि भव्यता जैसी
कोई चीज़ नहीं थी, तो मैं भी फौरन आपकी ही हाँ में हाँ
मिलाऊँगा.”
“देखो, तुम!” वोलान्द ने
इसके जवाब में कहा.
“मैं तो मज़ाक कर रहा था,” बिल्ले ने समझौता करते
हुए कहा, “जहाँ तक शेरों का सवाल है, मैं उन्हें तलने के लिए भेज दूँगा.”
“शेरों को खाते नहीं हैं,” हैला बोली.
“आप ऐसा कहती हैं? तब कृपया सुनिए,” बिल्ले ने कहा और प्रसन्नता से माथे पर बल डालते हुए बताने लगा कि कैसे एक
बार वह पूरे उन्नीस दिनों के लिए रेगिस्तान में फँस गया था और इस दौरान उसने सिर्फ
उसी शेर का माँस खाया, जिसे उसने खुद मारा था. सब इस जानकारी
को बड़ी दिलचस्पी से सुनते रहे, मगर जब बिगिमोत ने अपनी बात
ख़त्म की, तो सब एक सुर में चहक उठे, “झूठ! झूठ!”
“और इस झूठ में सबसे मज़ेदार बात यह है,” वोलान्द
ने कहा, “कि वह शुरू से आख़िर तक सिर्फ झूठ ही झूठ है.”
“ओह, ऐसा झूठ है?” बिल्ला
चहका. सबने सोचा कि अब वह विरोध करेगा, मगर उसने सिर्फ इतना
ही कहा, “इतिहास ही निर्णय करेगा.”
“और बताइए,” मार्गो ने वोद्का के बाद उत्साह
महसूस करते हुए अज़ाज़ेला से पूछ लिया, “आपने उस भूतपूर्व
सामंत को क्या गोली मारी थी?”
“ज़ाहिर है,” अज़ाज़ेला ने जवाब दिया, “उसे कैसे नहीं मारता? उसे तो ज़रूर ही गोली मार देनी
चाहिए.”
“मैं इतना घबरा गई थी!” मार्गारीटा चहकी, “यह सब इतना अचानक हो गया!”
“इसमें अचानक होने जैसी कोई बात नहीं है,” अज़ाज़ेला
ने प्रतिवाद करते हुए कहा.
करोव्येव ने बिसूरते हुए कहा, “कैसे नहीं है घबराने वाली बात!
मेरी भी नसें खिंच गई थीं. बुख! धम! सामंत कन्धे के बल!”
:मैं
भी बस उन्माद की अवस्था में पहुँच ही गया था,” बिल्ले
ने मछली वाला चम्मच चाटते हुए पुश्ती जोड़ी.
“मुझे यह बात समझ में नहीं आई,” मार्गारीटा बोली,
और उसकी आँखों में सितारे झिलमिला उठे, “क्या
बाहर कहीं भी संगीत की या इस नृत्योत्सव में हो रहे शोर की ज़रा-सी भी आवाज़ सुनाई
नहीं पड़ी?”
“बिल्कुल सुनाई नहीं दी, महारानी,” करोव्येव ने समझाते हुए कहा, “इसे इसी तरह करना
चाहिए कि कुछ भी सुनाई न दे. यह बड़ी सूझ-बूझ से करने वाली बात है.”
“हाँ, ठीक है, ठीक है...वर्ना
सीढ़ियों पर बैठा वह आदमी...जब हम अज़ाज़ेला के साथ चल रहे थे...और वह दूसरा, दरवाज़े के पास वाला...मेरा ख़याल है कि वह आपके फ्लैट पर नज़र रखे हुए है.”
“सही है, बिल्कुल सही है!” करोव्येव चीखा, “सही है, प्रिय
मार्गारीटा निकालायेव्ना ! आप मेरे सन्देह की पुष्टि कर रही हैं. हाँ, वह फ्लैट पर नज़र रखे हुए था. मैं तो उसे शराबी, या
कोई भुलक्कड़ विद्वान या प्यार का मारा समझने वाला था, मगर
नहीं-नहीं! कोई चीज़ मेरे दिल में चुभ रही थी. आह, वह फ्लैट
पर नज़र रखे था! और वह दूसरा दरवाज़े के पास वाला भी! और सीढ़ी के मोड़ पर जो खड़ा था,
वह भी!”
“और यदि आपको गिरफ़्तार करने आ जाएँ तो?” मार्गारीटा
ने पूछा.
“ज़रूर आएँगे, लुभावनी महारानी, ज़रूर
आएँगे!” करोव्येव ने जवाब दिया, “मेरा दिल कह रहा है कि आएँगे; अभी नहीं, मगर सही वक़्त पर ज़रूर टपकेंगे. मगर मैं समझता हूँ कि कोई दिलचस्प बात नहीं
होगी.”
“ओह, मैं कितनी घबरा गई थी, जब
वह सामंत नीचे गिरा,” मार्गारीटा ने कहा, जो अभी तक उस हत्या से ख़ौफ़ खाए हुए थी. उसने जीवन में पहली बार ही किसी की
हत्या होते हुए देखी थी. “आपका निशाना शायद, बहुत अच्छा है?”
“कुछ ऐसा ही समझ लीजिए,” अज़ाज़ेला ने जवाब दिया.
“कितने कदम से?” मार्गारीटा ने अज़ाज़ेला से
अस्पष्ट-सा सवाल पूछ लिया.
“निर्भर करता है कि कैसे,” अज़ाज़ेला ने तर्कसंगत
उत्तर दिया, “समालोचक लातून्स्की के शीशे पर हथौड़ा लेकर
टूट पड़ना और बात है, और उसी के दिल पर गोली चलाना – और.”
“दिल में!” मार्गारीटा चहकी. न जाने क्यों उसने
अपने दिल पर हाथ रख लिया, “दिल में! उसने दुबारा हौले
से दुहराया.
“यह समालोचक लातून्स्की कौन है?” वोलान्द ने
मार्गारीटा की ओर आँखें सिकोड़कर देखते हुए पूछा.
अज़ाज़ेला, करोव्येव और बिगिमोत शर्मा कर चुप हो गए. मार्गारीटा ने
लाल होते हुए जवाब दिया, “है ऐसा एक समालोचक. आज शाम को
मैंने उसके फ्लैट में तोड़-फोड़ कर दी.”
“क्या बात है! मगर क्यों?”
“उसने, महाशय,” मार्गारीटा
ने समझाया, “एक मास्टर को मार डाला.”
“मगर आपको ख़ुद कष्ट करने की क्या ज़रूरत थी?” वोलान्द
ने पूछा.
“मुझे इजाज़त दीजिए, महोदय,” बिल्ला उछलते हुए खुशी से चिल्लाया.
“तुम बैठो जी,” अज़ाज़ेला खड़े होते हुए गुर्राया, “मैं खुद ही अभी जाकर आता हूँ...”
“नहीं!” मार्गारीटा बोल पड़ी, “नहीं, मैं विनती करती हूँ, महाशय,
इसकी ज़रूरत नहीं है.”
“जैसा आप चाहें, जैसा चाहें,” वोलान्द ने कहा और अज़ाज़ेला वापस अपनी जगह बैठ गया.
“तो हम कहाँ थे, बहुमूल्य महारानी मार्गो?” करोव्येव ने पूछा, “आह, हाँ – दिल. दिल में ही लगेगी.” करोव्येव ने अपनी
लम्बी उँगली निकालकर अज़ाज़ेला की ओर इशारा करते हुए कहा, “इच्छानुसार, दिल के किसी भी हिस्से में, ऊपरी या निचले, कहीं भी.”
मार्गारीटा फौरन समझ
नहीं पाई, मगर समझते ही आश्चर्य से चिल्लाई, “मगर वे तो सब बन्द होते हैं!”
“प्रिय महारानी,” करोव्येव ने गरजते हुए कहा, “यही तो कमाल है कि बन्द हैं! यही तो खास बात है! खुली चीज़ पर तो कोई भी
निशाना लगा सकता है!”
करोव्येव ने मेज़ की दराज़ से हुकुम
की सत्ती निकाली, उसे मार्गारीटा के सामने ले जाकर उँगली से किसी एक निशान
को चुनने के लिए कहा. मार्गारीटा ने दाहिनी ओर ऊपर के कोने वाले चिह्न पर उँगली रख
दी. हैला ने ताश का पत्ता तकिए के नीचे छुपाया और चिल्लाकर कहा, “तैयार है!”
अज़ाज़ेला ने, जो तकिए से मुँह घुमाकर बैठा था, अपनी
फ्रॉक वाली पतलून की जेब से काली स्वचालित पिस्तौल निकाली, उसकी
नली कन्धे पर रखी और बिना मुड़े गोली दाग दी, जिससे
मार्गारीटा के दिल में भयमिश्रित प्रसन्नता की लहर दौड़ गई. गोली लगे तकिए के नीचे
से सत्ती निकाली गई. मार्गारीटा द्वारा बताए गए निशान के आरपार गोली चली गई थी.
“जब आपके हाथ में रिवॉल्वर हो, तब मैं आपसे कभी मिलना
नहीं चाहूँगी,” अज़ाज़ेला की ओर कनखियों से देखते हुए
मार्गारीटा ने शोखी से कहा. वह उन सभी लोगों को पसन्द करती थी, जो कुछ बहुत अच्छा, अजब-सा कर जाते थे.
“बहुमूल्य महारानी,” करोव्येव रिरियाया, “मैं किसी को भी उससे मिलने की सलाह नहीं दूँगा, चाहे
उसके हाथ में रिवॉल्वर हो या न हो! भूतपूर्व कॉयर मास्टर और अग्र-गायक का वचन है
ये, कि कोई भी उससे मिलकर नमस्ते तक नहीं कहेगा.”
इस गोली चलाने के प्रसंग के दौरान बिल्ला मुँह लटकाए बैठा था. अब उसने
घोषणा कर दी, “मैं इस सत्ती वाले रेकॉर्ड को तोडूँगा!” इसके जवाब में अज़ाज़ेला ने चीखकर कुछ कहा. मगर बिल्ला ज़िद्दी था और उसने एक
नहीं, दो पिस्तौलों की माँग की. अज़ाज़ेला ने पैण्ट की पिछली
जेब से दूसरा रिवॉल्वर निकाला और उसे पहले पिस्तौल के साथ, सन्देहपूर्वक
मुँह बनाते हुए, शेखीमार बिल्ले की ओर बढ़ा दिया. अब सत्ती पर
दो निशान तय किए गए. बिल्ले ने तकिए की ओर से मुँह फेर लिया और बड़ी देर तक तैयारी
करता रहा. मार्गारीटा कानों में उँगलियाँ डालकर बैठी उस उल्लू की ओर देखती रही जो
फायरप्लेस के मेंटलपीस पर बैठा ऊँघ रहा था. बिल्ले ने दोनों रिवॉल्वरों से गोलियाँ
दागीं, जिसके फौरन बाद हैला चीख पड़ी, मरा
हुआ उल्लू फायरप्लेस से गिर पड़ा था और चूर-चूर हुई घड़ी रुक गई थी. हैला ने,
जिसका एक हाथ लहूलुहान हो गया था चीखते हुए बिल्ले की खाल पकड़ ली और
वह जवाब में उसके बाल खींचने लगा. वे दोनों मेज़ से टकराते हुए फर्श पर लुढ़क गए.
मेज़ पर से एक प्याला गिरकर चूर-चूर हो गया.
“इस पागल चुडैल को मुझसे दूर हटाओ!” बिल्ला
रिरिया रहा था, और हैला से छूटने की कोशिश कर रहा था,
जो उस पर चढ़ गई थी. लड़ने वालों को अलग किया गया. करोव्येव ने हैला
की ज़ख़्मी उँगली पर फूँक मारी और वह तुरंत ठीक हो गई.
“पास में लोग बातें कर रहे होते हैं तो मैं निशाना नहीं लगा सकता!” बिल्ला चिल्लाया और अपनी खाल को ठीक करने लगा, जिसमें
से पीठ की तरफ एक बड़ा रोएँ वाला हिस्सा सरक गया था.
“मैं शर्त लगाता हूँ,” वोलान्द ने मार्गारीटा से
मुस्कुराते हुए कहा, “कि उसने यह हरकत जानबूझकर की है.
उसका निशाना अच्छा ही है.”
हैला ने बिल्ले से समझौता कर लिया, जिसे प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने
एक-दूसरे का चुम्बन लिया. तकिए के नीचे से ताश का पत्ता निकाला गया. जाँच की गई. अज़ाज़ेला
द्वारा लगाए गए निशाने के अलावा और कहीं
भी निशाना नहीं लगा था.
“यह नहीं हो सकता,” बिल्ले ने ज़ोर देकर कहते हुए
पत्ते को झुम्बर की रोशनी में गौर से देखा.
हँसी-मज़ाक के साथ भोजन चलता रहा. झुम्बरों में मोमबत्तियाँ पिघलती जा रही
थीं. अँगीठी की सूखी सुगन्ध भरी गर्माहट कमरे में फैल रही थी. पेट भर खाना खाने के
बाद मार्गारीटा को एक सुखद अनुभूति हो रही थी. वह देखती रही कि कैसे अज़ाज़ेला के
सिगार से धुएँ के छल्ले निकल रहे हैं, जिन्हें बिल्ला तलवार की नोक से पकड़ने
की कोशिश कर रहा है. उसे कहीं जाने की इच्छा नहीं थी, हालाँकि
उसे महसूस हो रहा था कि काफ़ी देर हो चुकी है. शायद सुबह के छह बज रहे होंगे.
इस ख़ामोशी का फायदा उठाते हुए मार्गारेटा ने नम्रतापूर्वक वोलान्द से कहा, “अब मुझे आज्ञा दीजिए, मेरा वक़्त हो गया है...देर हो
गई.”
“आपको कहाँ की जल्दी है?” वोलान्द ने प्यार से
मगर कुछ रुखाई से पूछा. बाकी सब चुप रहे, यह दिखाते हुए कि
वे सिगार के धुएँ के छल्लों वाले खेल में मगन हैं.
“हाँ, समय हो गया है,” इस
सबसे झेंपकर मार्गारीटा बोली और वह मुड़ी, मानो अपना लबादा या
रेनकोट ढूँढ़ रही हो. अचानक अपनी नग्नता से वह सकुचा गई. वह मेज़ से उठी. वोलान्द ने
चुपचाप अपना गन्दा, धब्बेदार हाउस कोट उठाया और करोव्येव ने
उसे मार्गारीटा के कन्धों पर डाल दिया.
“धन्यवाद, महोदय,” हौले से
मार्गारीटा ने कहा और प्रश्नार्थक नज़रों से वोलान्द की ओर देखने लगी. वह जवाब में
बड़ी शिष्टता और उदासीनता से मुस्कुराया. मार्गारीटा के दिल को गम की काली घटा ने
ढाँक लिया. उसे लगा कि उसे धोखा दिया गया है. नृत्योत्सव के दौरान अर्पित की गई
सेवाओं का उसे न तो कोई इनाम मिलने वाला था और न ही कोई उसे रोकना चाह रहा था. साथ
ही उसे यह भी साफ तौर से पता था कि वह यहाँ से कहीं भी नहीं जा सकती. एक ख़याल उसके
दिमाग को छू गया, कि कहीं वापस अपने आलीशान घर में न जाना
पड़े. और, वह उदास हो गई. क्या खुद ही निर्लज्ज होकर उस बात
के बारे में पूछ ले, जिसका वादा अज़ाज़ेला ने
अलेक्सान्द्रोव्स्की पार्क में किया था? नहीं, किसी कीमत पर नहीं – उसने अपने आप से कहा.
“आपको शुभ कामनाएँ, महोदय,” वह प्रकट में बोली, और स्वयँ अपने आप में सोचने लगी, ‘बस, यहाँ से निकल जाऊँ, फिर तो
नदी में जाकर डूब मरूँगी.”
“बैठिए तो,” अचानक आज्ञा देते हुए वोलान्द ने कहा. मार्गारीटा के चेहरे का रंग बदल गया, और वह बैठ गई.
“शायद जाते-जाते मुझसे कुछ कहना चाहती हैं?” वोलान्द
ने पूछा.
“नहीं, कुछ नहीं, महाशय,” मार्गारीटा ने स्वाभिमानपूर्वक कहा, “बस यही कि
यदि आपको अब भी मेरी ज़रूरत हो तो मैं खुशी-ख्उशी आपकी इच्छा का पालन करूँगी. मैं
नृत्योत्सव में ज़रा भी नहीं थकी और मुझे बहुत मज़ा आया. मतलब, यदि वह और भी चलता रहता तो मैं खुशी-खुशी अपना घुटना आगे करती, ताकि हज़ारों जल्लाद और खूनी उसे चूम सकें,” मार्गारीटा
ने वोलान्द की ओर मानो झरोखे से देखा, उसकी आँखों में आँसू
भर आए.
“सही है! आप एकदम ठीक कह रही हैं!” भयानकता से
वोलान्द चिल्लाया, “ऐसा ही होना चाहिए!”
“ऐसा ही होना चाहिए!” उसके साथियों ने इस गूँज
को दुहराया. “हम आपको परख रहे थे,” वोलान्द कहता रहा, “कभी भी, कुछ भी मत माँगिए! कभी भी नहीं, कुछ भी नहीं,
खास तौर से उनसे जो आपसे शक्तिशाली हैं. वे खुद ही प्रस्ताव रखेंगे
और खुद ही सब कुछ दे देंगे! बैठ जाओ, स्वाभिमानी महिला!” वोलान्द ने मार्गारीटा के कन्धों से भारी-भरकम हाउसकोट खींच लिया. वह फिर
से उसके निकट पलंग पर बैठी नज़र आई, “तो, मार्गो,” वोलान्द ने अपनी आवाज़ को नर्म बनाते
हुए कहा, “आज आपने मेरे लिए मेज़बान का काम किया,
उसके लिए आपको क्या चाहिए? नग्नावस्था में
नृत्योत्सव का संचालन करने के बदले में क्या चाहती हैं? अपने
घुटने की क्या कीमत लगाती हैं? मेरे मेहमानों के कारण
जिन्हें अभी-अभी आपने जल्लाद और खूनी कहा, आपको क्या हानि
हुई? कहिए! अब बिल्कुल निःसंकोच होकर कहिए, क्योंकि प्रस्ताव मैंने रखा है.”
मार्गारीटा का दिल ज़ोर से धड़का, एक गहरी साँस लेकर वह कुछ सोचने लगी.
“बोलिए, बेधड़क कहिए!” वोलान्द
ने उसकी हिम्मत बढ़ाई, “अपनी विचारशक्ति पर, कल्पनाशक्ति पर ज़ोर डालिए, उसे पैना कीजिए! सिर्फ उस
बेहूदे, इतिहास में जमा सामंत की हत्या के वक़्त उपस्थित रहने
पर ही किसी भी आदमी को पुरस्कार मिलना चाहिए, यदि वह व्यक्ति
औरत हो, तो फिर बात ही क्या है. तो?”
मार्गारीटा की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई. वह मन में सोचे गए
अच्छे, बढ़िया शब्दों से अपनी बात कहने जा रही थी कि अचानक वह पीली
पड़ गई. उसका मुँह खुला रह गया. आँखें बाहर निकल आईं. “फ्रीड़ा!
फ्रीड़ा! फ्रीड़ा!” – किसी की चिरौरी करती-सी आवाज़
उसके कानों में गूँजने लगी, “मेरा नाम फ्रीड़ा है!” और मार्गरीटा अटकते हुए बोली, “हाँ, क्या मैं एक चीज़ के लिए प्रार्थना कर सकती हूँ?”
“माँगिए, माँगिए, मेरी जान,” वोलान्द ने जवाब दिया, वह मानो कुछ समझते हुए
मुस्कुराया, “एक चीज़ की माँग कीजिए!”
ओह, कितनी सफ़ाई और स्पष्टता से वोलान्द ने ज़ोर देकर मार्गारीटा
के ही शब्द दुहरा थे, “एक चीज़!” मार्गारीटा ने फिर साँस ली और कहा, “मैं चाहती
हूँ कि फ्रीड़ा को वह रूमाल देना बन्द कर दिया जाए, जिससे
उसने अपने बच्चे का दम घोंट दिया था.”
बिल्ले ने आकाश की ओर आँखें उठाईं और ज़ोर से साँस ली, मगर
कहा कुछ नहीं. शायद उसे नृत्योत्सव के दौरान मरोड़े गए कान की याद आ गई थी.
“इस बात पर गौर करते हुए,” वोलान्द ने
मुस्कुराते हुए कहना शुरू किया, “कि उस बेवकूफ से आपको
कोई रिश्वत नहीं मिल सकती है - हालाँकि यह आपके सम्राज्ञीपद की गरिमा के विरुद्ध
है – मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या किया जाए.
बस, एक ही बात की जा सकती है – मेरे शयनगृह की सभी दरारें और झरोखे चीथड़े ठूँस-ठूँस कर बन्द कर दिए जाएँ.”
“आप किस बारे में कह रहे हैं, महाशय?” मार्गारीटा ने इन असम्बद्ध शब्दों को सुनकर विस्मय से पूछा.
“मैं पूरी तरह आपसे सहमत हूँ, मालिक,” बिल्ला बीच में टपक पड़ा, “बिल्कुल चीथड़ों से,” और उत्तेजना से बिल्ले ने मेज़ पर पंजा मारा.
“मैं सहृदयता के बारे में कह रहा हूँ,” वोलान्द
ने अपनी लाल-लाल आँख मार्गारीटा पर से हटाए बिना, अपने
शब्दों को समझाते हुए कहा, “कभी-कभी एकदम अप्रत्याशित
रूप से और डरते-डरते वह किसी भी बारीक-सी दरार में घुस आती है, इसीलिए मैंने चीथड़ों की बात की थी.”
“मैं भी उसी के बारे में कह रहा था,” बिल्ले ने
मार्गारीटा से दूर झुककर अपने गुलाबी क्रीम लगे तीक्ष्ण कानों को पंजों से ढाँकते
हुए फ़ब्ती कसी.
“भागो यहाँ से,” वोलान्द ने उससे कहा.
“मैंने अभी कॉफी नहीं पी है,” बिल्ले ने जवाब
दिया, “फिर मैं कैसे जा सकता हूँ, मालिक, क्या उत्सव की रात को मेहमानों को दो किस्मों
में बाँटा जा सकता है? पहले प्रथम श्रेणी के, और दूसरे, जैसा कि उस निराश, सिरफिरे
रेस्तराँ वाले ने बताया, दूसरी श्रेणी का ताज़ापन?”
“चुप रहो,” वोलान्द ने उसे आज्ञा दी और
मार्गारीटा की ओर मुख़ातिब होकर पूछा, “आप, ऐसा लगता है, बहुत दयालु व्यक्ति हैं? ऊँचे सिद्धांतों वाली व्यक्ति?”
“नहीं,” मार्गारीटा ने ज़ोर देकर कहा, “मुझे मालूम है
कि आपसे बातें स्पष्ट रूप से ही कहनी चाहिए, और मैं आपसे
साफ-साफ कहती हूँ: मैं एक उथले विचारों वाली, भटकी हुए
स्त्री हूँ. मैंने आपसे फ्रीड़ा के बारे में सिर्फ
इसीलिए प्रार्थना की थी क्योंकि मैं असावधानीवश उसे गहरी उम्मीद दे बैठी. वह
इंतज़ार कर रही है, महाशय; उसे मेरी
सामर्थ्य में विश्वास है. अगर उसे धोखा दिया गया, तो मैं
बड़ी भयंकर परिस्थिति में पड़ जाऊँगी. मुझे पूरी ज़िन्दगी चैन नहीं मिलेगा. कुछ
नहीं किया जा सकता! जो होना था, सो हो गया!”
“आह!” वोलान्द ने कहा, “यह बात समझ में आ रही है.”
“तो आप यह करेंगे?” मार्गारीटा ने हौले से पूछा.
“किसी हालत में नहीं,” वोलान्द ने जवाब दिया, “बात यह है, प्रिय महारानी, कि
यहाँ एक छोटी-सी गड़बड़ हो गई है. हर भूत या चुडैल को अपना-अपना काम करना पड़ता
है. यह बात और है कि हमारी सामर्थ्य बहुत ज़्यादा है; कुछ
जागरूक लोग जितना समझते हैं, उससे कई गुना अधिक...”
“हाँ, बहुत-बहुत ज़्यादा,” बिल्ला अपने आप को रोक नहीं सका. उसे इस सामर्थ्य पर, ज़ाहिर है, गर्व था.
“चुप, शैतान तुझे ले जाए!” वोलान्द ने उससे कहा और मार्गारीटा की ओर देखते हुए आगे बोला, “मगर वह करने से क्या फायदा जिसे किसी दूसरी ताकत को करना होता है? तो, मैं यह नहीं करूँगा, मगर
आप खुद ही इसे करेंगी.”
“और, क्या मुझसे यह हो सकेगा?”
अजाज़ेला ने व्यंग्यपूर्वक अपनी
टेढ़ी आँख मार्गारीटा पर गड़ा दी और चुपके से अपना लाल सिर झटक कर मुस्कुराया.
“हाँ, कीजिए न, क्या मुसीबत है!” वोलान्द बड़बड़ाया और, ग्लोब को घुमाकर उसमें कुछ
देखने लगा. ज़ाहिर है, वह मार्गारीटा से बातें करते वक़्त
कुछ और भी कर रहा था.
“तो, फ्रीडा,” करोव्येव कान
में फुसफुसाया.
“फ्रीडा!” पैनी आवाज़ में मार्गारीटा चीखी.
दरवाज़ा खुल गया और बदहवास, नग्न फ्रीडा फूली-फूली आँखों से कमरे
में दौड़ती आई, उसका नशा अब उतर चुका था, उसने आते ही मार्गारीटा की ओर हाथ बढ़ाए. मार्गारीटा शाही अन्दाज़ में
बोली, “तुम्हें माफ किया जाता है. अब तुम्हें वह रूमाल
नहीं दिया जाएगा.”
फ्रीडा की हिचकी सुनाई दी, वह ज़मीन पर गिर पड़ी और सलीब जैसी अवस्था में मार्गारीटा
के सामने बिछ गई. वोलान्द ने अपना हाथ झटका, और फ्रीडा आँखों
से ओझल हो गई.
“धन्यवाद, अलबिदा,” मार्गारीटा
ने कहा और वह उठने लगी.
“तो, बिगिमोत,” वोलान्द ने
बोलना शुरू किया, “उत्सव की रात को एक नासमझ व्यक्ति के
बर्ताव पर ध्यान नहीं देंगे,” वह मार्गारीटा की ओर
मुड़ा, “तो इसकी गिनती नहीं होगी, क्योंकि मैंने कुछ भी नहीं किया है. आप अपने लिए क्या चाहती हैं?”
खामोशी छा गई जिसे मार्गारीटा के कान में फुसफुसाते हुए करोव्येव ने तोड़ा, “बहुमूल्य सम्राज्ञी, इस बार मैं सलाह दूँगा, कि आप अकल से काम लें! कहीं ऐसा न हो कि सुअवसर हाथ से निकल जाए!”
“मैं चाहती हूँ कि इसी समय, इसी क्षण मेरा प्रियतम,
मास्टर मुझे लौटा दिया जाए,” मार्गारीटा
ने कहा और उसके चेहरे की रेखाएँ थरथराने लगीं.
तभी
कमरे में हवा घुस आई, जिससे मोमबत्तियों की लौ लेट गई,
खिड़की का भारी परदा हट गया, खिड़की फट् से
खुल गई और दूर ऊँचाई पर पूरा; प्रातःकालीन नहीं, बल्कि अर्धरात्रीय चन्द्रमा दिखाई दिया. खिड़की की सिल से होकर फर्श पर
रात के प्रकाश का हरा-सा रूमाल अन्दर आया, उस प्रकाश में
प्रकट हुआ इवानूश्का का रात का मेहमान, जो अपने आपको मास्टर
कहता था. वह अस्पताल के मरीज़ों के कपड़े पहने था – गाउन, जूते और काली टोपी, जिसे
वह अपने से दूर नहीं करता था. उसका दाढ़ी बढ़ा चेहरा विकृत हावभावों से काँप रहा
था. उसने पागलों जैसी घबराहट से मोमबत्तियों की रोशनी को देखा. चाँद का प्रकाश
उसके चारों ओर उबल रहा था.
मार्गारीटा ने उसे फौरन पहचान लिया, वह कराही और हाथ नचाती उसके पास भागी
चली आई. उसने उसके माथे को चूमा, होठों को चूमा, उसके खुरदुरे गाल से अपना चेहरा सटाया, और इतनी देर
तक रोके गए आँसुओं का बाँध टूटकर अगणित धाराओं से उसके चेहरे को भिगोने लगा. वह
सिर्फ एक ही शब्द दुहराती जा रही थी: “तुम...तुम...तुम...”
मास्टर ने उसे दूर धकेलते हुए कहा, “मत रोओ, मार्गो,
मुझे दुःखी न करो, मैं बहुत बीमार हूँ.” उसने खिड़की की चौखट को हाथों से पकड़ लिया, मानो
अभी उसमें से कूदकर भाग जाना चाहता हो. बैठे हुए लोगों को देखकर उसने दाँत पीसे और
चीखा, “मुझे डर लग रहा है, मार्गो!
मुझे फिर भ्रम हो गया है!”
इन हिचकियों से मार्गारीटा का दम घुटने लगा, वह अपने शब्दों पर ज़ोर दे-देकर
फुसफुसाई, “नहीं, नहीं, नहीं, किसी भी चीज़ से मत डरो! मैं तुम्हारे साथ हूँ
न!”
करोव्येव ने हौले से, चुपके
से मास्टर के निकट कुर्सी खिसका दी और वह उस पर बैठ गया, और
मार्गारीटा घुटने टेककर मरीज़ से लिपटी रही और शांत हो गई. अपनी इस उत्तेजना में
उसे पता ही नहीं चला कि कब उसके नग्न शरीर को काले रेशमी गाउन ने ढाँक लिया था.
मरीज़ ने सिर झुकाया और बीमार, निराश आँखों से धरती की ओर
देखने लगा.
“हाँ,” कुछ खामोशी के बाद वोलान्द ने कहा, “इसकी हालत बुरी कर दी है.” उसने करोव्येव को आज्ञा दी, “मेरे
सिपहसालार, इस आदमी को कुछ पीने के लिए दो.”
मार्गारीटा ने थरथराती आवाज़ में मास्टर को मनाया, “पी जाओ, पी जाओ! तुम डर रहे हो? नहीं, नहीं, मेरा विश्वास करो,
ये तुम्हारी मदद करेंगे.”
मरीज़ ने ग्लास लिया और उसमें रखी चीज़ पी गया, मगर
उसका हाथ काँप रहा था और खाली ग्लास उसके पैरों के पास गिरकर टूट गया.
“अच्छा शगुन है! अच्छा शगुन है!” करोव्येव मार्गारीटा
के कान में फुसफुसाया, “देखिए, इसके
होश वापस आ रहे हैं!”
सचमुच, मरीज़ की नज़रों में अब उतना वहशीपन और भय नहीं था.
“मार्गो, क्या यह तुम हो?” चाँद के मेहमान ने पूछा.
“शक मत करो, यह मैं ही हूँ,” मार्गारीटा ने जवाब दिया.
“और!” वोलान्द ने आज्ञा दी.
दूसरा गिलास पीने के बाद मास्टर की आँखों की चमक और बुद्धिमत्ता लौट आई.
“अब, यह बात ही और है,” वोलान्द
ने आँखें सिकोड़ते हुए कहा, “चलिए, अब बात करें. आप कौन हैं?”
“अब मैं कोई नहीं हूँ,” मास्टर ने जवाब दिया और
एक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान उसके चेहरे पर छा गई.
“आप अभी कहाँ से आए?”
“पागलखाने से. मैं...दिमागी मरीज़ हूँ,” आगंतुक
ने जवाब दिया.
मार्गारीटा इन शब्दों को न सह सकी और फिर से रो पड़ी. फिर आँसू पोंछकर वह
चीखी, “कितने भयानक शब्द हैं! भयानक! वह मास्टर है, महाशय,
मैं आपको बता देती हूँ. उसे ठीक कीजिए, वह
इसके लिए लायक है.”
“क्या आप जानते हैं, कि किससे बात कर रहे हैं?” वोलान्द ने आगंतुक से पूछा, “किसके पास आए हैं?”
“जानता हूँ,” मास्टर ने जवाब दिया, “पागलखाने में मेरा पड़ोसी था वह बच्चा, इवान बिज़्दोम्नी.
उसने मुझे आपके बारे में बताया था.”
“क्या बात है, क्या बात है!” वोलान्द बोला, “मुझे इस युवक से पत्रियार्शी
तालाब पर मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. उसने मेरी मति ही फेर दी थी, यह कहकर कि मैं हूँ ही नहीं! मगर आपको तो विश्वास है न, कि यह वास्तव में मैं ही हूँ?”
“विश्वास करना ही पड़ेगा,” आगंतुक ने कहा, “मगर ज़्यादा अच्छा यही होगा कि आपको दिवास्वप्न का, कल्पना
का चमत्कार मान लिया जाए. मैं माफी चाहता हूँ,” मास्टर
ने कुछ ठहरकर आगे कहा.
“फिर क्या, अगर यह अच्छा है, तो
ऐसा ही कीजिए,” वोलान्द ने सहृदयता से जवाब दिया.
“नहीं, नहीं,” मार्गारीटा
ने डरकर कहा और उसने मास्टर का कन्धा पकड़कर उसे झकझोर दिया, “होश में आओ! तुम्हारे सामने सचमुच वही है!”
बिल्ला यहाँ भी बीच में टपक पड़ा, “और, मैं
तो सचमुच भ्रम जैसा ही हूँ. चाँदनी रात में मेरे आकार-प्रकार पर गौर कीजिए,” बिल्ला चाँद की रोशनी में सरक गया और वह कुछ बोलने ही वाला था, कि उसे चुप रहने को कह दिया गया और तब वह इतना कहकर कि, “अच्छा, अच्छा चुप रहूँगा! मैं खामोश भ्रम बन जाऊँगा!” चुप हो गया.
“अच्छा, यह तो बताइए कि मार्गारीटा आपको मास्टर क्यों
कहती है?” वोलान्द ने पूछ लिया.
वह हँस पड़ा और बोला, “इस कमज़ोरी को माफ़ किया जा सकता है. इसके उस
उपन्यास के बारे में ऊँचे ख़याल हैं, जिसे मैंने लिखा था.
“किस बारे में है उपन्यास?”
“पोंती पिलात के बारे में.”
तभी मोमबत्तियों की लौ फिर से उछल कर, फड़फड़ाकर,
प्रखर हो गई, मेज़ पर रखे बर्तन हिलने लगे,
वोलान्द गड़गड़ाते हुए हँसा, मगर उसने इस हँसी
से न तो किसी को डराया, और न ही आश्चर्यचकित किया. बिगिमोत
ने न जाने क्यों तालियाँ बजा दीं.
“किस बारे में, किस बारे में? किसके
बारे में?” वोलान्द ने हँसी रोककर पूछा, “तो अब? यह चौंकाने वाली बात है! आपको कोई और विषय
नहीं मिला? लाइए, देखें,” वोलान्द ने अपने हाथ की हथेली ऊपर की ओर उठा दी.
“मुझे अफ़सोस है, कि मैं ऐसा नहीं कर सकता,” मास्टर ने जवाब दिया, “क्योंकि मैंने उसे
अँगीठी में जला दिया है.”
“माफ़ कीजिए, मैं इस पर विश्वास नहीं करता,” वोलान्द बोला, “ऐसा हो ही नहीं सकता.
पांडुलिपियाँ कभी जलती नहीं.” वह बिगिमोत की ओर मुड़ा
और बोला, “अरे, बिगिमोत, उपन्यास इधर दो.”
बिल्ला फौरन कुर्सी से उछला, और सबने देखा कि वह पांडुलिपियों के
एक ऊँचे ढेर पर बैठा है. सबसे ऊपर की पांडुलिपि उसने झुककर अभिवादन करते हुए
वोलान्द की ओर बढ़ा दी. मार्गारीटा काँप गई और चीख पड़ी, घबराहट
से उसकी आँखों में फिर से आँसू भर आए.
“यही है, पांडुलिपि! यही है!”
वह वोलान्द के सामने झुकी और प्रसन्नता से बोली, “सर्व शक्तिमान! सर्व शक्तिमान!”
वोलान्द ने उस पांडुलिपि को हाथ में लिया, पलटकर देखा, एक
ओर उसे रख दिया और चुपचाप, बिना मुस्कुराए मास्टर की ओर
देखने लगा. मगर वह न जाने क्यों दुःख और घबराहट में डूबकर कुर्सी से उठा, और दूर चाँद की ओर देखते हुए, उँगलियाँ नचाकर
कँपकँपाते हुए बड़बड़ाने लगा, “रात को चाँद की रोशनी
में भी मुझे चैन नहीं है. मुझे क्यों इतना सताया गया? हे
भगवान, भगवान...”
मार्गारीटा मरीज़ के गाउन को पकड़ते हुए उससे लिपट गई. वह खुद भी गम में डूबकर
आँसू भरी आवाज़ में बोली, “हे भगवान, तुम पर दवा का असर
क्यों नहीं हो रहा है?”
“कोई बात नहीं, कोई बात नहीं, कोई
बात नहीं,” करोव्येव मास्टर के निकट जाते हुए फुसफुसाया, “कोई बात नहीं, कोई बात नहीं...एक और गिलास, और मैं भी आपके साथ पिऊँगा.”
और गिलास आँखमिचौली खेलते हुए चाँद की रोशनी में चमका और इस गिलास ने अपना
काम कर दिया. मास्टर को वापस उसकी जगह पर बिठा दिया. मरीज़ का चेहरा शांत हो गया.
“हुँ, अब सब समझ में आ गया,” वोलान्द ने कहा और अपनी बड़ी उँगली से पांडुलिपि पर टकटक करने लगा.
“एकदम साफ़ है,” बिल्ले ने पुष्टि की, वह अपना खामोश भ्रम बने रहने का वादा भूल चुका था, “अब इस षड्यंत्र की मुख्य कड़ी मैं साफ-साफ देख सकता हूँ. तुम क्या कहते हो,
अज़ाज़ेला?” वह चुपचाप अज़ाज़ेला की ओर
मुखातिब हुआ.
“मैं कहता हूँ,” वह दबी
आवाज़ में बोला, “कि तुम्हें डुबो देना अच्छा रहेगा.”
“दया करो, अज़ाज़ेला,” बिल्ले
ने उसे जवाब दिया, “मेरे मालिक को ऐसा करने का सुझाव न
देना. विश्वास करो यदि मैं हर रात तुम्हारे पास वैसे ही चाँद के कपड़े पहनकर आता,
जैसे कि इस बेचारे मास्टर ने पहन रखे हैं, तुम्हें
इशारे करता, तुम्हें अपने पास बुलाता तो, हे अजाज़ेला , तुम्हें कैसा लगता?”
“तो, मार्गारीटा,” वोलान्द
ने बातचीत का सूत्र अपने हाथ में लेते हुए पूछा, “बताइए
तो सही, कि आप क्या चाहती हैं?”
मार्गारीटा की आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं. वह विनती करते हुए वोलान्द से बोली, “मुझे उसके साथ बात करने देंगे?”
वोलान्द ने सिर हिलाकर ‘हाँ’ कहा, तो मार्गारीटा ने मास्टर के कान से लगकर फुसफुसाते हुए कुछ कहा. साफ सुनाई
दिया कि मास्टर ने कहा, “नहीं, बहुत
देर हो चुकी है. मुझे ज़िन्दगी में अब कुछ नहीं चाहिए. सिवाय इसके कि तुम मेरे
सामने रहो. मगर तुम्हें मैं फिर सलाह दूँगा – मुझे
छोड़ दो. मेरे साथ तुम्हारा भी नुकसान होगा.”
“नहीं, नहीं छोडूँगी,” मार्गारीटा
ने जवाब दिया और वह वोलान्द की तरफ मुड़ी, “मैं
प्रार्थना करती हूँ कि हमें दुबारा अर्बात वाले उसी घर में भेज दिया जाए; टेबुल पर लैम्प जलता रहे और सब कुछ वैसा ही हो जाए जैसा पहले था.”
अब मास्टर हँस पड़ा और मार्गारीटा का घुँघराले बालों वाला मुख अपने हाथों
में लेकर बोला, “ओह, इस गरीब औरत की बात न
सुनिए, महोदय! उस घर में कब से कोई दूसरा आदमी रहता है,
और ऐसा कभी होता नहीं है कि सब कुछ वैसा ही हो जाए, जैसा पहले था.” उसने अपना गाल मार्गारीटा के
सिर से सटाकर मार्गारीटा को अपनी बाँहों में भर लिया, और
बड़बड़ाने लगा, “बेचारी, बेचारी...”
“आप कहते हैं कि नहीं हो सकता?” वोलान्द ने कहा, “यह सही है. मगर हम कोशिश करेंगे...” और उसने
कहा, “अजाज़ेला !”
उसी समय छत से अवतीर्ण हुआ घबराया हुआ और लगभग पगला गया एक नागरिक, जिसने
सिर्फ कच्छा पहन रखा था, मगर न जाने क्यों उसके हाथ में एक
सूटकेस था और सिर पर थी टोपी. डर के मारे वह आदमी काँप रहा था और वह धम् से नीचे
बैठ गया.
“मगारिच?” अजाज़ेला ने उस आसमान से टपके प्राणी
से पूछा.
“अलइज़ी मगारिच,” उसने काँपते हुए जवाब दिया.
“आप वही हैं, जिसने इस आदमी के उपन्यास के बारे में
लिखा लातून्स्की का लेख पढ़कर उसकी यह कहते हुए शिकायत की थी कि उसने गैरकानूनी
साहित्य अपने घर में छिपा रखा है?” अजाज़ेला ने पूछा.
नए
आए नागरिक का बदन नीला पड़ गया और उसकी आँखों से पश्चात्ताप के आँसू बहने लगे.
“आप इसके कमरों को हथियाना चाहते थे?” अजाज़ेला ने
यथासम्भव सहृदयता दिखाते हुए पूछा.
क्रोधित बिल्ले की गुर्राहट कमरे में सुनाई दी और मार्गारीटा ने बिसूरते
हुए कहा, “पहचानो! चुडैल को पहचानो!” और वह अलइज़ी मगारिच के चेहरे पर अपने नाखून गड़ाने लगी.
एक कोहराम मच गया.
“क्या कर रही हो?” मास्टर पीड़ा एवम् दुःख से
चीखा, “मार्गो, स्वयँ को लज्जित न
करो!”
“मैं विरोध करता हूँ, यह लज्जाजनक कृत्य नहीं है,” बिल्ला गरजा.
करोव्येव ने मार्गारीटा को खींचकर दूर हटाया.
“मैंने गुसलखाना बनवाया,” दाँत किटकिटाते हुए
लहूलुहान मगारिच बोला और डर के मारे कुछ और ही बोलने लगा, “एक बार पुताई...गन्धक का तेज़ाब...”
“चलो, अच्छा ही है कि गुसलखाना बनवाया,” अजाज़ेला ने उसका समर्थन करते हुए
कहा, “उसे स्नान करना ही चाहिए!” और चिल्लाया, “दफ़ा हो जाओ!”
तब मगारिच सिर के बल लटकने लगा और एक झटके से वोलान्द के शयन-कक्ष की खुली
खिड़की से बाहर फेंक दिया गया.
मास्टर की आँखें फटी रह गईं, वह बुदबुदाया, “मगर यह उस हरकत से कहीं ज़्यादा साफ-सुथरा कारनामा था, जिसके बारे में इवान ने बताया था!” बिल्कुल
भौंचक्का वह इधर-उधर आँखें घुमा रहा था और आखिरकार उसने बिल्ले से कहा, “माफ कीजिए...यह तुम...यह आप...” वह ठिठक गया,
यह न तय कर पाया कि बिल्ले को ‘तुम’ शब्द से सम्बोधित करना चाहिए या ‘आप’ से, “आप वही बिल्ला हैं, जो
ट्रामगाड़ी में बैठे थे?”
“मैं ही हूँ,” खुश होकर बिल्ले ने पुष्टि की,
और आगे बोला, “मुझे यह सुनकर बहुत अच्छा
लगा कि आप बिल्ले के साथ इतनी शिष्टता से पेश आते हैं. बिल्लों को न जाने क्यों
हमेशा ‘तुम’ कहकर पुकारा
जाता है, हालाँकि कभी भी किसी भी बिल्ले ने किसी के भी साथ
बेतकल्लुफी से जाम टकराकर नहीं पिया है.”
“मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता है कि आप एकदम बिल्ले नहीं हैं,” मास्टर ने दुविधा में पड़ते हुए जवाब दिया; “मुझे
अस्पताल वाले किसी भी हालत में पकड़कर ले ही जाएँगे,” उसने
डरते हुए वोलान्द से कहा.
“ऐसे कैसे पकड़कर ले जाएँगे!” करोव्येव ने उसे
धीरज देते हुए कहा, और उसके हाथों में कुछ कागज़ और कुछ
किताबें दिखाई देने लगीं, “यह आपकी बीमारी का इतिहास है?”
“हाँ.”
करोव्येव ने बीमारी के ‘केस-पेपर्स’ अँगीठी में
झोंक दिए.
“कागज़ात नहीं, तो आदमी भी नहीं,” संतुष्ट होकर करोव्येव ने कहा, “और यह आपके
मकान मालिक वाले कागज़ात हैं?”
“हाँ...आँ...”
“इनमें किसका नाम लिखा है? अलइज़ी मगारिच?” करोव्येव ने उस पुस्तिका के पन्ने
पर फूँक मारी, “फू!...वह नहीं है, गौर कीजिए, -वह था भी नहीं. अगर मकान मालिक को
ताज्जुब हो, तो उससे कहिए कि उसे अलइज़ी का सपना आया था.
मगारिच? कौन है मगारिच? कोई मगारिच कभी
था ही नहीं.” तब वह किताब धुँआ बनकर करोव्येव के हाथों
से उड़ गई, “और अब वह किताब है मकान मालिक की मेज़ की
दराज़ में.”
“आप सही कह रहे हैं,” मास्टर ने करोव्येव की हाथ
की सफाई से अचम्भित होते हुए कहा, “कि जब कागज़ात ही
नहीं हैं, तो आदमी भी नहीं होगा. इसीलिए तो मैं भी नहीं हूँ,
मेरे पास भी कोई परिचय-पत्र इत्यादि नहीं है.”
“मैं माफी चाहता हूँ,” करोव्येव चिल्लाया, “यह वाक़ई में सम्मोहन है, यह रहे आपके कागज़ात,” और करोव्येव ने परिचय-पत्र मास्टर की ओर बढ़ा दिया. फिर उसने इधर-उधर नज़र
दौड़ाई और बड़ी मिठास से मार्गारीटा से फुसफुसाकर कहा, “और यह रही आपकी दौलत, मार्गारीटा निकालायेव्ना ,” और उसने मार्गारीटा को किनारों पर झुलसी हुई पांडुलिपि, सूखा हुआ गुलाब, फोटो, और ख़ास
एहतियात के साथ, बैंक की पासबुक दी, “दस हज़ार जो आपने जमा किए थे, मार्गारीटा निकालायेव्ना
! हमें पराई चीज़ नहीं चाहिए.”
“मेरे पंजे झड़ जाएँ, अगर मैं पराई चीज़ को हाथ लगाऊँ,” बिल्ले ने सूटकेस पर नाचते हुए इठलाते हुए कहा. वह सूटकेस पर नाच रहा था,
जिससे उस दुर्दैवी उपन्यास की पांडुलिपि की सारी प्रतियाँ अच्छी तरह
सूटकेस में समा जाएँ.
“और आपका परिचय-पत्र यह रहा, “करोव्येव ने
मार्गारीटा को कागज़ात देते हुए कहा, और फिर वोलान्द की ओर
मुड़कर आदर से बोला, “सब हो गया, मालिक!”
“नहीं, सब नहीं हुआ,” वोलान्द
ने अपने ग्लोब से ध्यान हटाते हुए कहा, “मेरी प्रिय
महारानी, आपकी मण्डली को कहाँ भेजने की आज्ञा देंगी? मुझे तो उसकी ज़रूरत नहीं है.”
अब खुले दरवाज़े से भागती हुए नताशा अन्दर आई, वैसी
ही वस्त्रहीन, हाथ नचाती; मार्गारीटा
से चिल्लाकर बोली, “खुश रहिए, मार्गारीटा
निकालायेव्ना !” उसने सिर झुकाकर मास्टर का अभिवादन
किया और फिर से मार्गारीटा की ओर देखकर बोली, “मुझे तो
मालूम था कि आप कहाँ जाती हैं!”
“नौकरानियाँ सब जानती हैं” बिल्ले ने फ़ब्ती कसी
और अर्थपूर्ण ढंग से पंजा हिलाते हुए बोला, “यह सोचना
गलत है कि वे अन्धी होती हैं.”
“तुम क्या चाहती हो, नताशा?” मार्गारीटा ने पूछा, “उस आलीशान घर में वापस
लौट जाओ.”
“मेरी जान, मार्गारीटा निकालायेव्ना,’ नताशा ने विनती करते हुए कहा और वह घुटनों पर खड़ी हो गई, “उनसे कहिए,” उसने वोलान्द की ओर कनखियों से
देखा, “कि मुझे चुडैल ही रहने दें. मैं वापस वह आलीशान
भवन नहीं चाहती. न तो मैं इंजीनियर से, न ही मेकैनिक से
ब्याह करूँगी! कल श्रीमान जैक ने नृत्योत्सव में मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा.” नताशा ने अपनी मुट्ठी खोलकर कुछ सोने के सिक्के दिखाए.
मार्गारीटा ने प्रश्नार्थक दृष्टि से वोलान्द की ओर देखा. उसने सिर हिलाया.
तब नताशा मार्गारीटा के कन्धे पर झुकी, और ज़ोर से उसे चूमकर खुशी से
चिल्लाते हुए खिड़की से बाहर उड़ गई.
नताशा के स्थान पर अब निकलाय इवानविच दिखाई दिया. वह अपने मानव रूप में
वापस आ चुका था, मगर काफी दुःखी और निराश दिखाई देता था.
“इन्हें तो मैं काफी खुशी से यहाँ से बिदा करूँगा,” वोलान्द ने घृणा से निकलाय इवानविच की ओर देखते हुए कहा, “बहुत ही खुशी से, क्योंकि इनकी यहाँ कोई ज़रूरत नहीं
है.”
“मैं आपसे विनती करता हूँ, कृपया मुझे एक सर्टिफिकेट
दें,” गुस्से से इधर-उधर देखते हुए और उलाहने से निकलाय
इवानविच बोला, “यह बताते हुए कि मैंने कल का दिन कहाँ
गुज़ारा.”
“किस उद्देश्य से?” बिल्ले ने गंभीरता से पूछा.
“पुलिस वालों को और बीवी को दिखाने के लिए,” दृढ़तापूर्वक
निकलाय इवानविच ने कहा.
“आमतौर से हम सर्टिफिकेट देते नहीं हैं,” बिल्ला
नाक-भौं चढ़ाते हुए बोला, “मगर आप के लिए दे देंगे.”
और इससे पहले कि निकलाय इवानविच सँभले, निर्वस्त्र हैला टाइपराइटर पर बैठ गई,
और बिल्ला उसे इमला लिखवाने लगा, “प्रमाणित
किया जाता है कि इस प्रमाण-पत्र के धारक निकलाय इवानविच ने उक्त रात शैतान के
नृत्योत्सव में गुज़ारी, जहाँ उसे एक वाहन के रूप में ले
जाया गया...हैला, ब्रेकेट लगाओ! ब्रेकेट में लिखो ‘सूअर’. हस्ताक्षर – बिगिमोत.”
“और तारीख?” निकलाय इवानविच फिसफिसाया.
“तारीख नहीं डालेंगे, तारीख डालने से प्रमाण-पत्र
बेकार हो जाएगा,” बिल्ल़ा बोला. उसने कागज़ हिलाया,
कहीं से सील लाया, उस पर कायदे से फूँक मारी,
उसे कागज़ पर लगाया और कागज़ निकलाय इवानविच की ओर बढ़ा दिया. इसके
बाद निकलाय इवानविच ऐसे गायब हुआ, जैसे गधे के सिर से सींग.
उसकी जगह प्रकट हुआ एक नया, अप्रत्याशित व्यक्ति.
“यह और कौन आया?” वोलान्द ने हाथ से मोमबत्ती की
रोशनी से बचते हुए झटके से पूछा.
वरेनूखा ने सिर लटकाया, गहरी साँस लेकर धीरे से बोला, “मुझे
वापस भेज दीजिए. मैं पिशाच नहीं बन सका. उस समय मैंने हैला के साथ मिलकर रीम्स्की
को मौत के मुँह में करीब-करीब भेज ही दिया था! मगर मैं खून का प्यासा नहीं हूँ.
मुझे छोड़ दीजिए.”
“यह क्या बकवास है?” वोलान्द ने माथे पर बल
डालते हुए पूछा, “यह रीम्स्की कौन है? क्या गड़बड़ है?”
“आप परेशान न हों, मालिक,” अजाज़ेला बोला और वरेनूखा से मुख़ातिब हुआ, “टेलिफोन
पर गुण्डागर्दी मत करना. टेलिफोन पर झूठ मत बोलना. समझ में आया? फिर कभी ऐसा तो नहीं करोगे?”
खुशी के मारे वरेनूखा पगला गया. उसका चेहरा चमक उठा. बिना यह समझे कि क्या
बोल रहा है, वह बड़बड़ाने लगा, “सच्ची
में...मैं, यानी कि कहना चाहता हूँ, महा...अभी
खाने के बाद...” वरेनूखा ने सीने पर हाथ रखकर याचना के
भाव से अजाज़ेला की ओर देखा.
“ठीक है, घर जाओ!” उसने
जवाब दिया और वरेनूखा हवा में पिघल गया.
“अब मुझे इनके साथ अकेला छोड़ दो,” वोलान्द ने
मास्टर और मार्गारीटा की ओर इशारा करते हुए आज्ञा दी.
वोलान्द की आज्ञा का तुरंत पालन किया गया. कुछ देर की खामोशी के बाद
वोलान्द मास्टर से मुख़ातिब हुआ.
“तो, अर्बात के तहखाने वाले कमरे में? और लिखेगा कौन? और सपने? प्रेरणा?”
“मेरे पास अब कोई सपना नहीं है, प्रेरणा भी नहीं है.” मास्टर ने जवाब दिया, “मुझे अब किसी चीज़ में
कोई दिलचस्पी नहीं है, सिर्फ इसे छोड़कर,” उसने फिर मार्गारीटा के सिर पर हाथ रखा, “मुझे
उन्होंने तोड़ दिया है, मैं उकता गया हूँ और मैं वापस
तहख़ाने में जाना चाहता हूँ.”
“और आपका उपन्यास, पिलात?”
“मुझे नफरत है उस उपन्यास से,” मास्टर ने जवाब
दिया, “उसके कारण मुझे बहुत दुख झेलना पड़ा है.”
“मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ती हूँ,” मार्गारीटा
ने दुखी होकर कहा, “ऐसा मत कहो. तुम मुझे क्यों सता रहे
हो? तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि तुम्हारे इस काम में
मैंने अपनी सारी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी है.” मार्गारीटा
ने अब वोलान्द की ओर मुड़कर कहा, “आप इसकी बात न सुनिए,
महाशय! यह बहुत दुखी है.”
“मगर कुछ तो लिखना ही होगा न?” वोलान्द ने कहा, “अगर आप न्यायाधीश के बारे में लिख चुके हैं, तो कम
से कम इस अलाइज़ी के बारे में ही लिख डालिए...”
मास्टर मुस्कुराया.
“उसे तो लाप्शोन्निकोवा छापेगी नहीं और फिर वह दिलचस्प भी नहीं है.”
“मगर आप ज़िन्दा कैसे रहेंगे? भीख माँगनी पड़ सकती
है.”
“खुशी से, खुशी से,” मास्टर
ने कहा और मार्गारीटा को खींचकर अपने आलिंगन में ले लिता, “वह समझ जाएगी, मुझसे दूर चली जाएगी...”
“मैं ऐसा नहीं सोचता,” वोलान्द मुँह ही मुँह में
बुदबुदाया और आगे बोला, “पोंती पिलात का इतिहास लिखने
वाला आदमी तहखाने में जाएगा, इस उद्देश्य से कि वह लैम्प के
पास बैठा रहे और भूखा मरे.”
मास्टर से दूर हटकर मार्गारीटा गुस्से से बोली, “मैंने वह सब किया, जो कर सकती थी. और मैंने उसके
कानों में सबसे अधिक आकर्षक चीज़ के बारे में भी कहा. मगर इसने इनकार कर दिया.”
“जो आपने उसके कान में फुसफुसाकर कहा, वह मैं जानता
हूँ,” वोलान्द ने प्रतिवाद करते हुए कहा, “मगर वह आपसे ज़्यादा आकर्षक तो नहीं है. मैं आपसे कहता हूँ...” मुस्कुराते हुए उसने मास्टर से कहा, “कि आपका
यह उपन्यास आपके लिए अनेक आश्चर्य लायेगा.
“यह तो बहुत दुःख की बात है,” मास्टर ने जवाब
दिया.
“नहीं, नहीं यह दुःख की बात नहीं है,” वोलान्द बोला, “अब कोई भी दुःखद घटना नहीं
घटॆगी. तो...मार्गारीटा निकालायेव्ना , सब कुछ किया जा चुका
है. आपको मुझसे कोई शिकायत है?”
“आप कैसी बात कर रहे हैं, महाशय!”
“तो, यह लीजिए, मेरी ओर से
यादगार के तौर पर...” वोलान्द ने कहा और तकिए के नीचे
से एक छोटी-सी हीरे जड़ी सोने की नाल निकाली.
“नहीं, नहीं, नहीं, यह किसलिए!”
“आप मुझसे बहस करना चाहती हैं?” मुस्कुराते हुए
वोलान्द ने पूछा.
मार्गारीटा ने इस भेंट को रूमाल में रखकर उसकी गाँठ बाँध ली, क्योंकि
उसके कोट में कोई जेब नहीं थी. तब उसे एक बात का आश्चर्य हुआ. उसने खिड़की से बाहर
चाँद की ओर देखा और कहा, “एक बात मुझे समझ में नहीं आ
रही...रात वही आधी की आधी ही है. शायद काफी पहले सुबह हो जानी चाहिए थी?”
“त्यौहार की रात को कुछ देर तक खींचे रखना अच्छा लगता है!” वोलान्द ने जवाब दिया, “तो, अब मैं आपको शुभकामनाएँ देता हूँ!”
मार्गारीटा ने दोनों हाथ प्रार्थना की मुद्रा में वोलान्द की ओर बढ़ा दिए, मगर
उसके निकट जाने का साहस न कर पाई और हौले से बोली, “अलबिदा!
अलबिदा!”
“फिर मिलेंगे,” वोलान्द ने जवाब दिया.
और काला कोट पहने मार्गारीटा तथा अस्पताल के कपड़ों में मास्टर जौहरी की
बीवी के फ्लैट के प्रवेश-कक्ष से निकले, जहाँ मोमबत्ती जल रही थी, और जहाँ वोलान्द की मण्डली उनका इंतज़ार कर रही थी. जब प्रवेश-कक्ष से
बाहर निकलने लगे, तो हैला ने सूटकेस उठाया जिसमें उपन्यास था
और मार्गारीटा निकालायेव्ना की छोटी-सी दौलत थी. बिल्ला हैला की मदद कर रहा था.
फ्लैट के दरवाज़े पर करोव्येव ने झुककर अभिवादन किया और वह गायब हो गया. बाकी लोग
सीढ़ियों तक छोड़ने आए. सीढ़ियाँ खाली थीं. जब वे तीसरी मंज़िल का मोड़ पार कर रहे
थे, तो हल्की-सी खट् की आवाज़ के साथ कुछ गिरा. मगर इस ओर
किसी ने ध्यान नहीं दिया. छठे नंबर के प्रवेश द्वार के पास आकर अजाज़ेला ने फूँक
मारी. जैसे ही वे बाहर आँगन में निकले, जहाँ चाँद की रोशनी
नहीं आ रही थी, उन्होंने पोर्च में एक व्यक्ति को देखा. वह
जूते और टोपी पहने घोड़े बेचकर सो रहा था. पास ही एक बड़ी काली कार खड़ी थी,
जिसकी बत्तियाँ बुझी हुई थीं. सामने के शीशे में एक कौए की आकृति
दिखाई दे रही थी.
वे कार में बैठने ही वाले थे, तभी मार्गारीटा ने घबराकर हौले से
कहा, “हे भगवान, मैंने नाल खो दी!”
“गाड़ी में बैठिए,” अजाज़ेला ने कहा, “और मेरा इंतज़ार कीजिए. मैं अभी वापस आता हूँ. ज़रा देखूँ कि माजरा क्या
है.” और वह प्रवेश-द्वार से अन्दर गया.
माजरा यह था कि मास्टर और मार्गारीटा के अपने साथियों समेत निकलने के कुछ
देर पहले फ्लैट नं. 48 से, जो कि जवाहिरे की बीवी के फ्लैट के ठीक नीचे था, एक सूखी-सी औरत हाथ में एक बर्तन और पर्स लिए बाहर सीढ़ियों पर आई. यह वही
अन्नूश्का थी, जिसने बुधवार को, बेर्लिओज़
के दुर्भाग्य से, सूरजमुखी का तेल घुमौने दरवाज़े के पास
बिखेर दिया था.
कोई नहीं जानता था, और न ही शायद कभी जान पाएगा कि मॉस्को में यह औरत करती
क्या थी, और कैसे ज़िन्दा रहती थी. उसके बारे में सिर्फ इतना
पता था कि उसे प्रतिदिन या तो बर्तन लिये, या पर्स लिये,
या फिर दोनों साथ में लिये या तो तेल की दुकान पर, या बाज़ार में, या उस घर के प्रवेश द्वार के पास,
जिसमें वह रहती थी, या सीढ़ियों पर देखा जा
सकता था; मगर अक्सर वह दिखाई देती थी फ्लैट नं. 48 के रसोईघर
में, जहाँ वह रहती थी. इसके अलावा यह भी सर्वविदित था,
कि जहाँ भी वह मौजूद रहती या प्रकट होती थी – वहाँ फौरन हंगामा खड़ा हो जाता था और यह भी कि लोगों ने उसका नाम ‘प्लेग’ रख दिया था.
‘प्लेग’ – अन्नूश्का न जाने क्यों सुबह
बड़ी जल्दी उठ जाया करती, और आज न जाने क्यों, मानो किसी अज्ञात शक्ति ने उसे अँधेरे-उजाले के झुरमुटे के पहले ही बारह
बजे के कुछ बाद जगा दिया था. दरवाज़े में चाबी घूमी, अन्नूश्का
की पहले नाक और बाद में वह समूची बाहर निकली और अपने पीछे दरवाज़ा खींचकर कहीं
बाहर जाने की तैयारी करने ही लगी थी, कि ऊपरी मंज़िल का
दरवाज़ा बजा, कोई लुढ़कता हुआ नीचे आया और अन्नूश्का से
टकराते हुए उसे इतनी ज़ोर से एक किनारे पर धकेला कि उसका सिर दीवार से जा टकराया.
“यह सिर्फ एक कच्छे में तुम्हें शैतान कहाँ लिये जा रहा है?” अपना सिर पकड़ते हुए अन्नूश्का गरजी. कच्छा पहना आदमी हाथ में सूटकेस लिए
और टोपी सिर पर डाले, बन्द आँखों से खराश भरी उनींदी आवाज़
में बोला:
“बॉयलर! गंधक का तेज़ाब! सिर्फ पुताई ही कितनी महँगी पड़ी!” और रोते हुए भिनभिनाया, “चली जाओ!” अब वह फिर ज़ोर से फेंका गया, मगर आगे नहीं, सीढ़ियों पर नीचे नहीं, अपितु पीछे – ऊपर, वहाँ जहाँ अर्थशास्त्री के पैर से टूटा खिड़की
वाला शीशा था, और इस खिड़की से उल्टा लटकते हुए वह तीर की
तरह बाहर फेंक दिया गया. अन्नूश्का अपने सिर की चोट के बारे में बिल्कुल भूल गई, “आह” करते हुए वह खिड़की की तरफ लपकी. वह पेट के
बल लेट गई और खिड़की से बाहर सिर निकालकर आँगन में देखने लगी, इस अपेक्षा से कि उसे रोशनी में सड़क पर सूटकेस वाले आदमी का क्षत-विक्षत
शरीर देखने को मिलेगा. मगर आँगन में और सड़क पर कुछ भी नहीं था.
बस यही मानकर सन्तोष कर लेना पड़ा कि वह विचित्र, उनींदा
प्राणी पंछी की तरह, बिना कोई निशान छोड़े घर से उड़ गया.
अन्नूश्का ने सलीब का चिह्न बनाते हुए सोचा, “हाँ,
सचमुच ही फ्लैट का नंबर पचास है! लोग फालतू में ही नहीं कहते! अजीब
है यह फ्लैट! फ्लैट है या बला!”
वह इतना सोच ही पाई थी कि ऊपरी मंज़िल का दरवाज़ा फिर से खुला और दूसरी बार
कोई दौड़ता हुआ नीचे आया. अन्नूश्का दीवार से चिपक गई. उसने देखा कि कोई काफी
इज़्ज़तदार, दाढ़ीवाला मगर कुछ-कुछ सुअर जैसे चेहरे वाला आदमी
अन्नूश्का की बगल से तीर की तरह गुज़रा, और पहले वाले ही की
तरह वह खिड़की के रास्ते घर से बाहर गया, वैसे ही फर्श पर
चूर-चूर हुए बिना. अन्नूश्का भूल गई कि वह किसलिए बाहर निकली थी, और वह वैसे ही सलीब का निशान बनाते सीढ़ियों पर खड़ी “ओह...ओह” करती अपने आप से बातें करती रही.
तीसरी
बार निकला, बिना दाढ़ी के गोल, चिकने
चेहरे वाला, कोट पहने आदमी; वह भागता
हुआ आया और ठीक वैसे ही खिड़की फाँद गया.
अन्नूश्का की तारीफ़ में इतना कहना होगा, कि वह काफी जिज्ञासु थी. यह देखने के
लिए कि आगे कौन से नये चमत्कार होने वाले हैं, उसने कुछ देर
वहीं ठहरने का फैसला कर लिया. ऊपर का दरवाज़ा फिर खुला और इस बार एक पूरा झुण्ड
सीढ़ियाँ उतरने लगा, भागकर नहीं, अपितु
आम आदमियों की तरह. अन्नूश्का दौड़कर खिड़की से दूर हट गई, वह
नीचे अपने फ्लैट तक उतरी, दरवाज़ा फट् से खोलकर उसके पीछे
छिप गई, और दरवाज़े की दरार से उसकी उत्सुकता भरी आँख सट गई.
कोई एक बीमार-सा, अनबीमार-सा मगर अजीब, पीतवर्ण,
बढ़ी हुई दाढ़ी वाला, काली टोपी और कोई
गाऊन-सा पहने डगमगाते कदमों से नीचे उतर रहा था. आधे अँधेरे में अन्नूश्का ने देखा
कि उसे सँभालती हुई ले जा रही थी कोई महिला, जिसने काला-सा
चोगा पहना था, शायद उस महिला के पैर या तो नंगे थे, या फिर उसने पारदर्शी, विदेशी, फटे हुए जूते पहन रखे थे. छिः छिः! जूतों में क्या है! मगर औरत तो नंगी
है! हाँ उस चोगे से उसने अपने तन को केवल ढाँककर ही रखा था! ‘फ्लैट है या बला!’ अन्नूश्का का दिल इस खयाल से
हिलोरें ले रहा था कि कल पड़ोसियों को सुनाने के लिए उसके पास काफी मसाला है.
इस विचित्र लिबास वाली औरत के पीछे थी एक पूरी निर्वस्त्र महिला, उसने
हाथ में सूटकेस पकड़ रखा था, उस सूटकेस के साथ-साथ चल रहा था
एक विशालकाय काला बिल्ला. अन्नूश्का आँखें फाड़े देख रही थी, उसके मुँह से सिसकारी निकलते-निकलते बची.
इस जुलूस के पीछे-पीछे था नाटे कद का विदेशी, वह लँगड़ाकर चल रहा था, उसकी एक आँख टेढ़ी थी, वह सफेद जैकेट पहने, टाई लगाए था, मगर कोट नहीं पहने था. यह पूरा झुण्ड
अन्नूश्का के करीब से होकर नीचे जाने लगा. तभी खट् से कोई चीज़ फर्श पर गिर पड़ी.
यह अन्दाज़ करके कि कदमों की आहट दूर होती जा रही है, अन्नूश्का
साँप की तरह रेंगकर बाहर आई. बर्तन दीवार के निकट रखकर वह पेट के बल फर्श पर लेट
गई और हाथों से चारों ओर टटोलने लगी. उसके हाथों में आया एक रूमाल, जिसमें कोई भारी चीज़ बँधी हुई थी. अन्नूश्का की आँखें विस्फारित होकर
माथे पर चढ़ गईं, जब उसने रूमाल में बँधी हुए चीज़ को देखा!
अन्नूश्का अपनी आँखों तक उस बहुमूल्य वस्तु को ले आई; अब
उसकी आँखें भेड़िए की आँखों जैसी दहकने लगीं. उसके मस्तिष्क में एक तूफान
साँय-साँय करने लगा, ‘मैं कुछ नहीं जानती! मैंने कुछ
नहीं देखा!... भतीजे के पास? या इसके टुकड़े कर दिए
जाएँ...हीरों को तो उखाड़ कर निकाला जा सकता है...और एक-एक करके...एक पित्रोव्का
को, दूसरा स्मलेन्स्क को...और – मैं कुछ नहीं जानती, मैंने कुछ नहीं देखा!’
अन्नूश्का ने उस चीज़ को शमीज़ के अन्दर सीने के पास छिपा लिया. बर्तन
उठाकर रेंगते हुए वह वापस अपने फ्लैट में जाने ही वाली थी कि उसके सामने प्रकट हुआ, शैतान
ही जाने वह कहाँ से आया था, वही सफेद जैकेट, बगैर कोट वाला और हौले से फुसफुसाकर बोला, “रूमाल
और नाल निकालो.”
“कैसा रूमाल, कैसी नाल?” अन्नूश्का
ने बड़े बनावटी ढंग से पूछा, “मैं कोई रूमाल-वुमाल नहीं
जानती. नागरिक, क्या तुमने पी रखी है?”
सफेद जैकेट वाले ने अपनी बस के ब्रेक जैसी मज़बूत और वैसी ही सर्द उँगलियों
से बिना कुछ बोले अन्नूश्का का गला इस तरह दबाया, कि उसके सीने में हवा का जाना एकदम
रुक गया. अन्नूश्का के हाथों से बर्तन छिटककर फर्श पर जा गिरा. कुछ देर तक
अन्नूश्का को बिना हवा दिए जकड़कर, सफेद जैकेट वाले विदेशी
ने उसकी गर्दन से उँगलियाँ हटा लीं. हवा में साँस लेकर अन्नूश्का मुस्कुराई.
“ओह, नाल,” वह बोली, “अभी लो! तो यह आपकी नाल है? मैंने देखा, कि रूमाल में कुछ बँधा पड़ा है...मैंने जान-बूझकर उठाया, जिससे कोई दूसरा न उठा ले, और फिर ढूँढ़ते फिरो!”
रूमाल और नाल लेकर विदेशी उसका झुक-झुककर अभिवादन करने लगा. वह उसका हाथ
अपने हाथों में लेकर विदेशी लहजे में बार-बार उसे धन्यवाद देने लगा.
“मैं आपका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ! मुझे यह नाल किसी की यादगार होने के
कारण बहुत प्रिय है. इसे सँभालकर रखने के लिए मुझे आपको दो सौ रूबल देने की आज्ञा
दें.” और उसने फौरन अपनी जेब से पैसे निकालकर अन्नूश्का
को थमा दिए.
वह बेसुध होकर मुस्कुराने लगी और चिल्लाकर कहने लगी, “ओह, मैं दिल से आपका शुक्रिया अदा करती हूँ!
धन्यवाद! धन्यवाद!”
वह निडर विदेशी एक ही छलाँग में पूरी सीढ़ी फाँद गया, मगर
ओझल होने से पहले वह नीचे से साफ-साफ चिल्लाया, “तुम,
बूढ़ी चुडैल, अगर आइन्दा पराई चीज़ को हाथ भी
लगाओ तो उसे पुलिस में दे देना! अपने सीने से छिपाकर मत रखना!”
इस
सब शोरगुल और गड़बड़ से सुन्न होकर अन्नूश्का कुछ देर तक यंत्रवत् चिल्लाती ही रही, “धन्यवाद! धन्यवाद! धन्यवाद!” मगर विदेशी कब का
गायब हो चुका था.
आँगन में अब कार तैयार थी. मार्गारीटा को वोलान्द की भेंट वापस देकर अजाज़ेला
उससे बिदा लेने लगा. उसने पूछा कि उसे
बैठने में कोई तकलीफ तो नहीं हो रही. हैला ने मार्गारीटा का प्रदीर्घ चुम्बन लिया.
बिल्ला उसके हाथ के निकट लोट गया. बिदा देने वालों ने हाथ हिलाकर कोने में
बेजान-से, निश्चल-से लुढ़के मास्टर से विदा ली, चालक कौए की ओर देखकर हाथ हिलाया और फौरन हवा में पिघल गए. उन्होंने
सीढ़ियों पर चढ़कर जाने का कष्ट उठाना मुनासिब नहीं समझा. कौए ने बत्तियाँ जलाईं
और मुर्दे की तरह सोए पड़े आदमी की बगल से होकर गाड़ी प्रवेश द्वार से बाहर
निकाली. और बड़ी काली कार की बत्तियाँ चहल-पहल और शोरगुल वाले सदोवया की बत्तियों
में मिल गईं.
एक घण्टे बाद अर्बात की एक गली के तहखाने में स्थित उस छोटे-से मकान के
अगले कमरे में, जहाँ सब कुछ ठीक वैसा ही था, जैसा
पिछले साल की जाड़े की उस भयानक रात के पहले हुआ करता था, मखमली
टेबुल क्लॉथ से ढँकी मेज़ पर शेड वाला लैम्प जल रहा था, पास
में ही फूलदानी लिली के फूलों से सजी हुई थी, मार्गारीटा
खामोशी से बैठी खुशी और झेली गई तकलीफों के दुःख के मारे रो रही थी. आग में झुलसी
पाँडुलिपि उसके सामने पड़ी थी, साथ ही साबुत पांडुलिपियों एक
ऊँचा गट्ठा भी पास में पड़ा था. बाजू वाले सोफे पर अस्पताल के गाउन में ही लिपटा
मास्टर गहरी नींद में सो रहा था. उसकी साँसें भी बेआवाज़ थीं.
जी भरकर रो लेने के बाद मार्गारीटा ने साबुत पांडुलिपि उठाई. उसने वह जगह
ढूँढ़ ली जिसे वह क्रेमलिन की दीवार के पास, अजाज़ेला से मुलाक़ात होने के पहले
पढ़ रही थी. मार्गारीटा को नींद नहीं आ रही थी. उसने पांडुलिपि को इतने प्यार से
सहलाया मानो अपनी प्रिय बिल्ली को सहला रही हो. उसे हाथों में लेकर उलट-पुलटकर
देखने लगी, कभी वह प्रथम पृष्ट को देखती, तो कभी अंतिम पृष्ट को. अचानक उसे एक ख़ौफ़नाक खयाल ने दबोच लिया, कि यह सब केवल जादू है, कि अभी पांडुलिपियाँ गायब हो
जाएँगी, कि वह आँख खुलते ही अपने आपको अपने शयनकक्ष में
पाएगी और उसे अँगीठी सुलगाने के लिए उठना पड़ेगा. मगर यह उसके कष्टों की, लम्बी यातनामय परेशानियों की प्रतिध्वनि मात्र थी. कुछ भी गायब नहीं हुआ,
महाशक्तिमान वोलान्द सचमुच सर्वशक्तिमान था, और
मार्गारीटा कितनी ही देर, शायद सुबह होने तक, पांडुलिपि के पन्नों को सहलाती रही, जी भरकर देखती
रही, चूमती रही, और बार-बार पढ़ती रही:
”भूमध्य
सागर से मँडराते अँधेरे ने न्यायाधीश की घृणा के पात्र उस शहर को दबोच लिया...हाँ,
अँधेरा...
*******
पच्चीस
न्यायाधीश ने किरियाफ के जूडा की रक्षा की कैसी कोशिश की
भूमध्य सागर से मँडराते अँधेरे ने न्यायाधीश की घृणा के पात्र उस शहर को
दबोच लिया. मन्दिर को भयानक अन्तोनियो बुर्ज से जोड़ने वाले लटकते पुल ओझल हो गए, आकाश
से एक अनंत चीर ने आकर घुड़सवारी के मैदान के ऊपर स्थित पंखों वाले देवताओं को,
तोपों के लिए बने छेदों सहित हसमन के प्रासाद को, बाज़ारों, कारवाँ, सरायों,
गलियों और तालाबों को ढाँक दिया. महान शहर येरूशलम खो गया, मानो उसका कभी अस्तित्व ही न रहा हो. सब कुछ निगल गया अँधेरा, जो येरूशलम और उसकी सीमाओं पर स्थित सभी जीवित प्राणियों को भयभीत कर रहा
था. बसंत ऋतु के इस निशान माह के चौदहवें दिन के अंतिम प्रहर में सागर की ओर से एक
विचित्र बादल उठा और सब कुछ जलमग्न कर गया.
वह अपने निर्मम प्रहार से गंजे पहाड़ को पस्त कर चुका था, जहाँ
जल्लाद फाँसी चढ़ाए गए कैदियों के शरीर में शीघ्रता से भाले की नोक घुसेड़ रहे थे;
वह येरूशलम के मन्दिर को सराबोर कर चुका था; धुआँधार
बरस कर निचले शहर को लबालब भर चुका था. वह खिड़कियों से अन्दर घुस रहा था, टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों से लोगों को घरों में धकेल रहा था. वह अपनी नमी
देने में कृपणता दिखाकर केवल प्रकाश ही दे रहा था. जैसे ही यह काला धुआँधार राक्षस
आग बरसाता, उस घनघोर अँधेरे में मन्दिर का शिखर चमचमा उठता.
मगर वह एक पल में ही फिर बुझ जाता, और मन्दिर अन्तहीन अँधेरे
में खो जाता. कई बार वह उससे उबरता और फिर बार-बार डूब जाता. हर बार यह डूबना एक
विनाशकारी कड़कड़ाहट साथ लाता.
कुछ अन्य प्रकाश शलाकाएँ, मन्दिर की सामने वाली पश्चिमी पहाड़ी पर स्थित हिरोद के
प्रासाद को इस अनन्त अँधेरे से बुलातीं, और उसकी भयानक,
नेत्रहीन स्वर्णिम प्रतिमाएँ, आकाश की ओर हाथ
पसारे उड़ने लगतीं. मगर आकाश-ज्योति तुरंत लुप्त हो जाती, और
सौदामिनी अपने चाबुक से उन प्रतिमाओं को वापस अन्धकार में खदेड़ देती. मूसलाधार
बारिश की अकस्मात् झड़ी लग गई थी, और तब यह तूफ़ान बवण्डर
में परिवर्तित हो गया. उस जगह, जहाँ दोपहर को, उद्यान में संगमरमरी बेंच के निकट न्यायाधीश और धर्म-गुरू ने वार्तालाप
किया था, तोप से छूटे गोले जैसी भीषण आवाज़ के साथ सरू की
शाख गिरी. पनीली धूल और ओलों के साथ स्तम्भों के नीचे बाल्कनी में टूटे हुए गुलाब,
मैग्नोलिया के पत्ते, नन्ही-नन्ही टहनियाँ और
बालू के कण उड़ने लगे. बवण्डर उद्यान को ज़मींदोज़ कर रहा था.
इस समय स्तम्भों के नीचे था सिर्फ एक व्यक्ति, और
वह था न्यायाधीश.
अब वह कुर्सी पर बैठा नहीं था, अपितु एक नीची मेज़ के निकट पड़ी
शय्या पर लेटा था. मेज़ पर खाने की चीज़ें और सुराहियों में शराब थी. दूसरी,
खाली शय्या, मेज़ के दूसरी ओर पड़ी थी. न्यायाधीश
के पैरों के पास रक्तवर्णी द्रव बिखरा था और पड़े थे टूटी हुई सुराही के टुकड़े.
वह सेवक, जिसने तूफान से पहले मेज़ सजाकर उस पर पेय आदि रखा
था, न जाने क्यों न्यायाधीश की नज़रों से घबरा गया; वह सोचने लगा कि कहीं कुछ कमी रह गई है और न्यायाधीश ने उस पर क्रोधित
होकर सुराही फर्श पर पटककर तोड़ दी और बोला, “चेहरे की
ओर क्यों नहीं देखते, जब मुझे जाम देते हो? क्या तुमने कुछ चुराया है?”
अफ्रीकी सेवक का काला मुख भूरा हो गया. उसकी आँखों में मौत जैसे भय की लहर
तैर गई, वह काँप गया और दूसरी सुराही भी उसके हाथों से छूटते-छूटते
बची, मगर न्यायाधीश का गुस्सा जितनी जल्दी आया था, उतनी ही जल्दी चला भी गया. अफ्रीकी सेवक झुककर सुराही के टुकड़े उठाने ही
वाला था, कि न्यायाधीश ने हाथ के इशारे से उसे जाने के लिए
कहा और सेवक भाग गया. इसीलिए द्रव वहीं बिखरा रह गया.
अब, बवण्डर उठने के बाद अफ्रीकी सेवक एक आले के निकट, जिसमें एक नतमस्तक नग्न स्त्री की श्वेत पाषाण प्रतिमा थी, छिपकर खड़ा हो गया ताकि बेमौके न्यायाधीश के सामने न पड़े और बुलाए जाने
पर फौरन स्वामी की सेवा में उपस्थित हो सके.
इस तूफानी शाम को शय्या पर अधलेटा न्यायाधीश स्वयँ ही जाम में शराब डालकर
लम्बे-लम्बे घूँट भर रहा था, बीच-बीच में वह डबल रोटी के टुकड़े मुँह में डाल लेता,
मछली खाता, नींबू चूसता और फिर से शराब पीने
लगता. न्यायाधीश मानो किसी की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था.
अगर पानी का गरजता शोर न होता, प्रासाद की छत को धमकाती बिजली की
कड़क न होती, बाल्कनी की सीढ़ियों पर गिरते ओलों की
खड़खड़ाहट न होती तो सुना जा सकता था कि न्यायाधीश अपने आपसे बातें करते हुए
बड़बड़ा रहा है. और अगर आसमानी रोशनी की अस्थायी चमक किसी स्थिर प्रकाश में
परिवर्तित हो जाती तो यह भी देखा जा सकता था कि शराब एवम् अनिद्रा के कारण सूजे
हुए न्यायाधीश के चेहरे पर बेसब्री है और वह लाल डबरे में पड़े हुए दो सफ़ेद
गुलाबों को नहीं देख रहा है, बल्कि निरंतर अपना चेहरा उद्यान
की ओर मोड़ रहा है, वह किसी की इंतज़ार कर रहा है, बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है.
कुछ समय बीता और न्यायाधीश की आँखों के सामने की बारिश की झड़ी कुछ मद्धिम
हुई. यह बवण्डर कितना ही भीषण क्यों न था, वह कमज़ोर पड़ ही गया. ओले अब नहीं
गिर रहे थे. बिजली की चमक और कड़क अब रुक-रुक कर आ रही थी. येरूशलम पर अब चाँदी की
किनार वाली गहरी बैंगनी चादर नहीं तनी थी, अपितु साधारण भूरे
काले रंग का बादल तैर रहा था. तूफान मृत सागर की ओर बढ़ गया था.
अब बारिश की आवाज़ और बहते पानी की आवाज़ अलग-अलग सुनी जा सकती थी, जो
उन सीढ़ियों पर बह रहा था, जहाँ से दिन में न्यायाधीश
मृत्युदण्ड सुनाने के लिए चौक पर गया था. आख़िरकार, मौन हो
गए फव्वारे की आवाज़ भी सुनाई दी. उजाला हो गया. पूर्व की ओर भागी जा रही भूरी
चादर में अब नीली-नीली खिड़कियाँ बन गई थीं.
धीमी पड़ गई बारिश के शोर को चीरते हुए, दूर से न्यायाधीश तक तुरहियों की और
सैकड़ों घोड़ों के दौड़ने की आवाज़ पहुँची. इसे सुनकर न्यायाधीश के शरीर में हलचल
हुई. उसका चेहरा खिल उठा. फौजी टुकड़ी गंजे पहाड़ से लौट रही थी. आवाज़ से प्रतीत
होता था कि वह उसी चौक से गुज़र रही है, जहाँ से मृत्युदण्ड
सुनाया गया था.
आख़िर में न्यायाधीश को सीढ़ियों से होकर ऊपर की बाल्कनी तक आती उन कदमों
की आहट सुनाई दी, जिसकी उसे प्रतीक्षा थी. न्यायाधीश ने गर्दन घुमाई,
और उसकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं.
दो संगमरमरी सिंहों की आकृतियों के बीच पहले प्रकट हुआ टोपी वाला सिर, फिर
एक पूरी तरह भीगा हुआ आदमी, जिसकी बरसाती भी उसके शरीर से
चिपक गई थी. यह वही आदमी था, जिसने प्रासाद के अँधेरे कमरे
में मृत्युदण्ड का ऐलान किए जाने से पहले न्यायाधीश से वार्तालाप किया था, और जो फाँसी के समय तिपाई पर बैठा एक टहनी से खेल रहा था.
टोपी वाला आदमी उद्यान का चौक पार करके बाल्कनी के संगमरमरी फर्श पर आया और
हाथ ऊपर उठाकर, मधुर आवाज़ में उसने लैटिन में कहा, “न्यायाधीश की सेवा में स्वास्थ्य और खुशी की कामना!”
“हे भगवान!” पिलात चहका, “तुम्हारे शरीर पर तो एक भी सूखा तार नहीं है! क्या बवण्डर था! हाँ?
कृपा करके फौरन मेरे निकट आ जाओ. कपड़े बदलकर मुझे विस्तार से सब
बताओ.”
आगंतुक ने टोप उतारा. पूरे गीले सिर और माथे से चिपके बालों को मुक्त करते
हुए उसके चिकने चेहरे पर शिष्ट मुस्कान दौड़ गई. वस्त्र बदलने से वह यह कहते हुए
इनकार करने लगा कि बारिश उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती.
“मैं कुछ सुनना नहीं चाहता,” पिलात ने कहा और
ताली बजाकर छिपे हुए सेवक को बुलाया. उसे आगंतुक की सेवा करने और तत्पश्चात् फौरन
गर्म-गर्म कुछ खाने के लिए देने को कहा. बालों को सुखाने, कपड़े
बदलने और दूसरे, सूखे जूते पहनकर
स्वयँ को ठीकठाक करने के लिए न्यायाधीश के मेहमान ने काफी कम समय लिया और बाल
सँवारे, सूखी चप्पलें डाले और सूखे लाल फौजी कोट में वह
शीघ्र ही बाल्कनी पर उपस्थित हो गया.
इस समय तक सूरज येरूशलम में वापस लौट चुका था और भूमध्य सागर में डूबने से
पहले न्यायाधीश की घृणा के पात्र इस शहर पर अपनी अंतिम किरणें बिखेरते हुए बाल्कनी
की सीढ़ियों पर सोना लुटा रहा था. फव्वारा पुनर्जीवित हो गया था और अपनी पूरी
सामर्थ्य से गाने लगा था. कबूतर गुटर गूँ करते हुए रेत पर फुदक रहे थे; गीली
रेत पर चोंच मारते हुए कुछ ढूँढ़ रहे थे. लाल द्रव का नन्हा तालाब सुखा दिया गया
था, टूटी सुराही के टुकड़े उठा लिये गए थे और मेज़ पर
गर्मागर्म माँस रख दिया गया था, जिसमें से भाप निकल रही थी.
“न्यायाधीश हुकुम कीजिए, मैं तैयार हूँ,” आगंतुक ने मेज़ के निकट आते हुए कहा.
“मगर आप कुछ नहीं सुनेंगे, जब तक आप बैठ नहीं जाते और
शराब नहीं पी लेते,” बड़े प्यार से न्यायाधीश ने जवाब
दिया और दूसरी शय्या की ओर इशारा किया.
आगंतुक लेट गया, सेवक ने उसके जाम में गाढ़ी लाल शराब डाली. दूसरे सेवक ने
सावधानी से पिलात के कन्धे पर झुकते हुए न्यायाधीश का जाम भर दिया. इसके पश्चात्
उसने इशारे से दोनों सेवकों को वहाँ से जाने के लिए कहा. जब तक आगंतुक खाता-पीता
रहा, पिलात आँखें सिकोड़े शराब की चुस्कियाँ लेते अपने
मेहमान को देखता रहा. पिलात के सामने उपस्थित व्यक्ति अधेड़ उम्र का था, प्यारा-सा गोल चेहरा, खूबसूरत नाक-नक्श, और मोटी फूली नाक वाला. बालों का रंग कुछ अजीब-सा था. अब सूखते हुए वे
भूरे मालूम पड़ रहे थे. आगंतुक की नागरिकता के बारे में बताना भी कठिन था. उसके
चेहरे की विशेष बात थी उस पर मौजूद सहृदयता की झलक, जिसे
मिटाए जा रही थीं आँखें, या यूँ कहिए कि उससे वार्तालाप कर
रहे व्यक्ति की ओर देखने का तरीका. अपनी छोटी-छोटी आँख़ों को वह अक्सर विचित्र,
अधखुली, फूली-फूली पलकों के नीचे छिपाए रखता
था. तब इन आँखों में निष्पाप चालाकी तैर जाती थी. शायद पिलात का अतिथि मज़ाकपसन्द
था. मगर कभी-कभी वह इस हँसी की चमकती लकीर को बाहर खदेड़ देता और अपनी पलकें पूरी
खोलकर अपने साथी पर अचानक उलाहना भरी दृष्टि डालता, मानो
उसकी नाक पर उपस्थित कोई छिपा हुआ धब्बा ढूँढ़ रहा हो. यह सिर्फ एक ही क्षण चलता.
दूसरे ही क्षण पलकें फिर झुक जातीं, आधी मुँद जातीं और उनमें
फिर तैरने लगती सहृदयता और चालाक बुद्धिमत्ता.
आगंतुक ने दूसरे जाम
से भी इनकार नहीं किया. चटखारे ले-लेकर कुछ मछलियाँ खाईं, उबली
सब्ज़ियाँ चखीं और माँस का एक टुकड़ा भी खाया.
तृप्त होने के बाद उसने शराब की प्रशंसा की, “बेहतरीन चीज़ है, न्यायाधीश, मगर यह ‘फालेर्नो’ तो नहीं?”
“ ‘त्सेकूबा’ – तीस साल पुरानी,” बड़े प्यार से न्यायाधीश बोला.
मेहमान ने सीने पर हाथ रखते हुए कुछ और खाने से इनकार कर दिया और कहा कि वह
भरपेट खा चुका है. तब पिलात ने अपना जाम भरा. मेहमान ने भी वैसा ही किया. दोनों ने
अपने-अपने जाम से थोड़ी-सी शराब माँस वाले पकवान में डाली.
न्यायाधीश ने जाम उठाते हुए कहा, “हमारे लिए, तुम्हारे लिए, रोम के पिता, सर्वाधिक
प्रिय और सर्वोत्तम व्यक्ति, कैसर के लिए!”
इसके बाद उन्होंने जाम खाली किया. अफ्रीकी सेवकों ने फलों और सुराहियों को
छोड़कर बाकी सभी सामग्री मेज़ पर से हटा ली. न्यायाधीश ने उसी तरह इशारे से सेवकों
को हटा दिया. स्तम्भों वाली बाल्कनी में अपने मेहमान के साथ वह अकेला रह गया.
“तो,” पिलात ने धीरे से कहा, “शहर के वातावरण के बारे में क्या कहते हो?”
उसने अपनी दृष्टि अनचाहे ही उधर की, जहाँ उद्यान के पीछे, नीचे, ऊँची स्तम्भों वाली इमारतें और समतल छतें
सूर्य की अंतिम किरणों में जल रही थीं.
“मैं समझता हूँ, न्यायाधीश,” मेहमान ने जवाब दिया, “कि येरूशलम का वातावरण
अब संतोषजनक है.”
“तो क्या यह समझा जाए कि अब किसी तरह की गड़बड़ की कोई आशंका नहीं है?”
“समझ सकते हैं,” न्यायाधीश की ओर प्यार से देखते
हुए मेहमान ने उत्तर दिया, “केवल एक ही के बल पर – कैसर महान की शक्ति के बल पर.”
“हाँ, ईश्वर उन्हें लम्बी आयु दे,” पिलात ने फौरन आगे कहा, “और दे समग्र शांति.” वह कुछ देर चुप रहकर आगे बोला, “तो क्या आप
समझते हैं कि सेनाओं को हटा लिया जाए?”
“मैं समझता हूँ कि विद्युत गति से प्रहार करने वाली टुकड़ी हटाई जा सकती है,” मेहमान ने जवाब देकर आगे कहा, “बिदा लेने से
पहले यदि वह शहर में एक बार परेड कर ले तो अच्छा होगा.”
“बहुत अच्छा खयाल है,” न्यायाधीश ने सहमत होते
हुए कहा, “परसों मैं उसे छोड़ दूँगा और स्वयँ भी चला
जाऊँगा, और – मैं बारहों
भगवान और फरिश्तों की कसम खाकर कहता हूँ कि यह आज ही कर सकने के लिए मैं बहुत कुछ
दे देता.”
“क्या न्यायाधीश को येरूशलम पसन्द नहीं है?” मेहमान
ने सहृदयतापूर्वक पूछ लिया.
“मेहेरबान,” मुस्कुराते हुए न्यायाधीश चहका, “समूची धरती पर इससे अधिक बेकार शहर और कोई नहीं है. मैं मौसम की तो बात ही
नहीं कर रहा! हर बार, जब यहाँ आता हूँ, मैं बीमार पड़ जाता हूँ. यह तो आधी व्यथा है. मगर उनके ये उत्सव – जादूगर, सम्मोहक, मांत्रिक,
तांत्रिक, मूर्तिपूजक...पागल हैं, पागल! उस एक मसीहा को ही लो, जिसका वह इस वर्ष
इन्तज़ार करते रहे! हर क्षण ऐसा लगता रहता है कि किसी अप्रिय खूनखराबे को देखना
पड़ेगा. हर समय सेनाएँ घुमाते रहो, आँसुओं का विवरण और
शिकायतें पढ़ते रहो, जिनमें से आधी तो तुम्हारे खुद के खिलाफ
हैं! मानिए, यह सब बहुत उकताहटभरा है. ओह, अगर मैं सम्राट की सेवा में न होता तो...”
“हाँ, यहाँ के उत्सवों का समय कठिन होता है,” मेहमान ने सहमति जताई.
“मैं पूरे दिल से चाहता हूँ कि वे जल्दी से समाप्त हो जाएँ,” पिलात ने जोश से कहा, “मुझे केसारिया जाने का
मौका तो मिलेगा. विश्वास कीजिए, यह भुतहा निर्माण हिरोद
का...” न्यायाधीश ने हाथ हिलाते हुए स्तम्भों की ओर
इशारा किया, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वह प्रासाद के बारे
में कह रहा है, “मुझे पूरी तरह पागल बना देता है. मैं
यहाँ रात नहीं बिता सकता. पूरी दुनिया में इससे अजीब स्थापत्य कला का नमूना कहीं
और नहीं मिलेगा. खैर, चलिए, काम की बातें
करें. सबसे पहले, यह दुष्ट वारव्वान आपको परेशान नहीं करता?”
मेहमान ने अपनी दृष्टि न्यायाधीश के गाल पर डाली, मगर
वह माथे पर बल डाले उकताहट भरी नज़रों से कहीं दूर देख रहा था, शहर के उस हिस्से की ओर, जो उसके पैरों तले था और
शाम के धुँधलके में धीरे-धीरे बुझता जा रहा था. मेहमान की नज़र भी बुझ गई, उसकी पलकें झुक गईं.
“कह सकते हैं कि वार अब ख़तरनाक नहीं रहा, मेमने की तरह
हो गया है,” मेहमान ने कहना शुरू किया तो उसके गोल
चेहरे पर सिलवटें पड़ गईं, “उसके लिए अब विद्रोह करना
आसान नहीं है.”
“क्या वह काफी मशहूर है?” पिलात ने हँसते हुए
पूछ लिया.
“न्यायाधीश हमेशा की तरह, इस सवाल को काफी बारीकी से
समझ रहे हैं!”
“मगर, फिर भी, सावधानी के तौर
पर हमें...” न्यायाधीश ने चिंता के स्वर में अपनी पतली,
लम्बी, काले पत्थर की अँगूठी वाली उँगली ऊपर
उठाते हुए कहा.
“ओह, न्यायाधीश, विश्वास रखिए.
जब तक मैं जूडिया में हूँ, वार मुझे विदित हुए बिना एक कदम
भी नहीं उठा सकता, मेरे जासूस उसके पीछे लगे हैं.”
“अब मुझे सुकून मिला – वैसे भी जब आप यहाँ
रहते हैं, तो मैं हमेशा ही निश्चिंत रहता हूँ.”
“आप बहुत दयालु हैं, न्यायाधीश!”
“और अब, कृपया मुझे मृत्युदण्ड के बारे में बताइए,” न्यायाधीश ने कहा.
“आप कोई खास बात जानना चाहते हैं?”
“कहीं भीड़ द्वारा अप्रसन्नता, गुस्सा प्रदर्शित करने
के कोई लक्षण तो नज़र नहीं आए? खास बात यही है.”
“ज़रा भी नहीं,” मेहमान ने उत्तर दिया.
“बहुत अच्छा. आपने स्वयँ यकीन कर लिया था कि मृत्यु हो चुकी है?”
“न्यायाधीश इस बारे में निश्चिंत रहें.”
“और बताइए...सूली पर चढ़ाए जाने से पहले उन्हें पानी पिलाया गया था?”
मेहमान ने आँखें बन्द करते हुए कहा, “हाँ, मगर
उसने पीने से इनकार कर दिया.”
“किसने?”
पिलात ने पूछा.
“क्षमा कीजिए, महाबली!” मेहमान
चहका, “क्या मैंने उसका नाम नहीं लिया? हा-नोस्त्री!”
“बेवकूफ!” पिलात ने न जाने क्यों मुँह बनाते हुए
कहा. उसकी दाहिनी आँख फड़कने लगी, “सूरज की आग में झुलस
कर मरना! जो कानूनन तुम्हें दिया जाता है, उससे इनकार क्यों?
उसने कैसे इनकार किया?”
“उसने कहा,” मेहमान ने फिर आँखें बन्द करते हुए
कहा, “कि वह धन्यवाद देता है और इस बात के लिए दोष नहीं
देता कि उसका जीवन छीन लिया जा रहा है.”
“किसे?” पिलात ने खोखले स्वर में पूछा.
“महाबली, यह उसने नहीं बताया.”
“क्या उसने सैनिकों की उपस्थिति में कुछ सीख देने की कोशिश की?”
“नहीं, महाबली, इस बार वह बात
नहीं कर रहा था. सिर्फ एक बात जो उसने कही, वह यह कि इन्सान
के पापों में से सबसे भयानक पाप वह भीरुता को समझता है.”
“यह क्योंकर कहा?” मेहमान ने अचानक फटी-फटी
आवाज़ सुनी.
“यह समझना मुश्किल था. वैसे भी, हमेशा की तरह,
वह बड़ा विचित्र व्यवहार कर रहा था.”
“विचित्र क्यों?”
“वह पूरे समय किसी न किसी की आँखों में देखते हुए मुस्कुरा रहा था, अनमनी मुस्कुराहट...”
“और कुछ नहीं?” भर्राई आवाज़ ने पूछा.
“और कुछ नहीं.”
न्यायाधीश ने जाम में शराब डालकर जाम टकराया. उसे पूरा पी जाने के बाद उसने
कहा, “अब सुनो काम की बात: हालाँकि, कम से कम इस समय,
हम उसके अनुयायियों, शिष्यों को ढूँढ़ नहीं
सकते, मगर यह कहना भी मुश्किल है कि वे हैं ही नहीं!”
मेहमान सिर झुकाकर गौर से सुनता रहा.
“किन्हीं आकस्मिक आश्चर्यों से बचने के लिए,” न्यायाधीश
ने आगे कहा, “मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, कि बिना शोर मचाए पृथ्वी के सीने से उन तीनों मृतकों के शरीर गुप्त रूप से
हटाकर उन्हें चुपचाप दफना दिया जाए, जिससे उनके बारे में न
कोई बात हो, न उनका कोई नामोनिशान बचे.”
“जैसी आज्ञा महाबली,” मेहमान ने कहा और वह उठते
हुए बोला, “इस काम से जुड़ी ज़िम्मेदारी और ज़टिलताओं
को देखते हुए, मुझे फौरन जाने की इजाज़त दें.”
“नहीं, कुछ देर और बैठिए,” पिलात ने इशारे से अपने मेहमान को रोकते हुए कहा, “मुझे और दो बातें पूछनी हैं. पहली – गुप्तचर
प्रमुख के रूप में इस कठिन काम में आपकी सेवाओं और सहयोग की प्रशंसा करते हुए,
जो आपने जूडिया के न्यायाधीश को अर्पण कीं, मुझे
रोम में आपकी सिफारिश करने में प्रसन्नता होगी.”
इस पर मेहमान का चेहरा लाल हो गया. वह उठकर न्यायाधीश का झुककर अभिवादन कर
कहने लगा, “मैं तो सिर्फ सम्राट के प्रति अपने कर्त्तव्य का
पालन करता हूँ.
“मगर मैं आपसे विनती करने वाला था,” महाबली ने
आगे कहा, “यदि आपको तरक्की देकर किसी दूसरी जगह भेजा
जाए तो मना कर दीजिए और यहीं रहिए. मैं आपसे अलग होना नहीं चाहता. बेशक, आपको किसी और तरह से पुरस्कृत किया जाए.”
“मुझे आपके अधीन सेवा करने में बड़ी प्रसन्नता होगी, महाबली.”
“मैं खुश हुआ, तो, अब, दूसरा सवाल. इसका सम्बन्ध उससे है, क्या नाम...हाँ,
किरियाफ के जूडा से.”
अब मेहमान ने अपने विशिष्ट अन्दाज़ में न्यायाधीश की ओर देखा और, जैसाकि
स्वाभाविक था, फौरन नज़र झुका ली.
“कहते हैं कि,” आवाज़ नीची करते हुए न्यायाधीश ने
कहा, “उसने इस सिरफिरे दार्शनिक को अपने यहाँ रखने के
लिए पैसे लिए थे?”
“पैसे मिलेंगे,” गुप्तचर सेवा के प्रमुख ने धीमे
स्वर में जवाब दिया.
“क्या बहुत बड़ी रकम है?”
“यह किसी को पता नहीं, महाबली.”
“आपको भी नहीं?” महाबली ने आश्चर्य से पूछा.
“हाँ, मुझे भी नहीं,” मेहमान
ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया, “मगर मुझे इतना मालूम है कि
उसे ये पैसे आज मिलने वाले हैं. उसे आज कैफ के महल में बुलाया जाने वाला है.”
“ओह, किरियाफ का लालची बूढ़ा,” मुस्कुराते हुए महाबली ने फब्ती कसी, “वह बूढ़ा
है न?”
“न्यायाधीश कभी गलती नहीं करते, मगर इस बार आपका
अनुमान सही नहीं है,” मेहमान ने प्यार से जवाब दिया, “किरियाफ का वह आदमी नौजवान है.”
“ऐसा न कहिए! आप उसका विवरण मुझे दे सकते हैं? वह
सिरफिरा है?”
“ओफ, नहीं, न्यायाधीश!”
“अच्छा. और कुछ?”
“बहुत खूबसूरत है.”
“और? शायद कोई शौक रखता है? कोई
कमज़ोरी?”
“इतने बड़े शहर में सबको अच्छी तरह जानना बहुत मुश्किल है, न्यायाधीश...”
“ओह नहीं, नहीं, अफ्रानी! अपनी
योग्यता को इतना कम मत आँको!”
“उसकी एक कमज़ोरी है, न्यायाधीश,” मेहमान ने कुछ देर रुककर कहा, “पैसों का लोभ.”
“और वह करता क्या है?”
अफ्रानी ने आँखें ऊपर उठाईं, कुछ देर सोचकर बोला, “वह अपने एक रिश्तेदार की दुकान पर काम करता है, जहाँ
सूद पर पैसे दिए जाते हैं.”
“ओह, अच्छा, अच्छा, अच्छा, अच्छा!” अब
न्यायाधीश चुप हो गया, उसने नज़रें घुमाकर देखा कि बाल्कनी
में कोई है तो नहीं, तत्पश्चात् हौले से बोला, “अब सुनिए खास बात...मुझे आज खबर मिली है कि उसे आज रात को मार डाला जाएगा.”
अब मेहमान ने न केवल अपनी खास नज़र न्यायाधीश पर डाली, बल्कि
कुछ देर तक उसे वैसे ही देखता रहा और फिर बोला, “आपने
न्यायाधीश, दिल खोलकर मेरी तारीफ कर दी. मेरे ख़याल से मैं
उसके योग्य नहीं हूँ, मेरे पास ऐसी कोई खबर नहीं है.”
“आपको तो सर्वोच्च पुरस्कार मिलना चाहिए,” न्यायाधीश
ने जवाब दिया, “मगर ऐसी सूचना अवश्य मिली है.”
“क्या मैं पूछने का साहस कर सकता हूँ कि यह खबर आपको किससे मिली?”
“अभी आज यह बताने के लिए मुझे मजबूर न कीजिए, खास तौर
से तब, जब वह अकस्मात् मिली है और उसकी अभी पुष्टि नहीं हुई
है. मगर मुझे सभी सम्भावनाओं पर नज़र रखनी है. यही मेरा कर्त्तव्य है और मैं
भविष्य में घटने वाली घटनाओं के पूर्वाभास को अनदेखा नहीं कर सकता, क्योंकि उसने आज तक मुझे कभी धोखा नहीं दिया है. सूचना यह मिली है,
कि हा-नोस्त्री के गुप्त मित्रों में से एक, इस
सूदखोर की कृतघ्नता से क्रोधित होकर, उसे आज रात को ख़त्म कर
देने के बारे में अपने साथियों के साथ योजना बना रहा है, और
वह इस बेईमानी के पुरस्कार स्वरूप मिली धनराशि को धर्मगुरू के सामने इस मज़मून के
साथ फेंकने वाला है: ‘पाप के पैसे वापस लौटा रहा हूँ’!”
इसके बाद गुप्तचर सेवाओं के प्रमुख ने महाबली पर एक भी बार अपनी विशेष नज़र
नहीं डाली और आँखें सिकोड़े उसकी बात सुनता रहा. पिलात कहता रहा, “सोचिए, क्या धर्मगुरू को उत्सव की रात में ऐसी भेंट
पाकर प्रसन्नता होगी?”
मुस्कुराते हुए मेहमान ने जवाब दिया, “न केवल अप्रसन्नता होगी,
बल्कि मेरे ख़याल में तो इसके फलस्वरूप एक बड़ा विवाद उठ खड़ा होगा.”
“मैं खुद भी ऐसा ही सोचता हूँ. इसीलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि इस
ओर ध्यान दीजिए, मतलब किरियाफ के जूडा की सुरक्षा का प्रबन्ध
कीजिए.”
“महाबली की आज्ञा का पालन होगा,” अफ्रानी ने कहा, “मगर मैं महाबली को सांत्वना देना चाहूँगा: इन दुष्टों का षड्यंत्र सफल
होना मुश्किल है!” कहते-कहते मेहमान पीछे मुड़ गया और
बोलता रहा, “सिर्फ सोचिए, एक आदमी
का पीछा करना, उसे मार डालना, यह मालूम
करना कि उसे कितना धन मिला है, यह धन कैफ को वापस भेजने का
दुःसाहस करना, और यह सब एक रात में? आज?”
“हाँ, खास बात यही है कि वह आज ही मार डाला जाएगा,” ज़िद्दीपन से पिलात ने दुहराया, “मुझे
पूर्वाभास हुआ है, मैं आपसे कह रहा हूँ! कभी भी ऐसा नहीं हुआ
कि उसने मुझे धोखा दिया हो,” अब न्यायाधीश के चेहरे पर
सिहरन दौड़ गई, और उसने फौरन अपने हाथ मले.
“सुन रहा हूँ,” मेहमान ने नम्रता से कहा,
वह उठकर सीधा खड़ा हो गया और अचानक गम्भीरता से पूछने लगा, “तो मार डालेंगे, महाबली?”
“हाँ,” पिलात ने जवाब दिया, “और मुझे केवल आपकी
आश्चर्यजनक कार्यदक्षता पर भरोसा है.”
मेहमान ने कोट के नीचे अपना भारी पट्टा ठीक किया और बोला, “मैं सम्मानित हुआ, आपके स्वास्थ्य और खुशी की कामना
करता हूँ.”
“ओह, हाँ,” पिलात धीरे से
चहका, “मैं तो बिल्कुल भूल ही गया! मुझे आपको कुछ
लौटाना है!...”
मेहमान परेशान हो गया.
“नहीं, न्यायाधीश आपको मुझे कुछ नहीं देना है.”
“ऐसे कैसे नहीं देना है! जब मैं येरूशलम में आया, याद
कीजिए, भिखारियों की भीड़...मैं उन्हें पैसे देना चाहता था,
मगर मेरे पास नहीं थे, तब मैंने आपसे लिए थे.”
“ओह, न्यायाधीश, आप कहाँ की फालतू
बात ले बैठे!”
“फालतू बातों को भी याद रखना ही पड़ता है.”
पिलात मुड़ा, उसने अपने पीछे की कुर्सी पर पड़ा अपना कोट उठाया, उसमें से चमड़े का बैग निकाला और उसे मेहमान की ओर बढ़ा दिया. वह झुका,
और उसे लेकर अपने कोट के अन्दर छिपा लिया.
“मुझे दफनाने के विवरण का इंतज़ार रहेगा, साथ ही
किरियाफ के जूडा के मामले के बारे में भी मुझे आज ही रात को बताओ. सुन रहे हो,
अफ्रानी, आज ही. पहरेदार को मुझे जगाने की
आज्ञा दे दी जाएगी...जैसे ही आप आएँगे. मुझे आपका इंतज़ार रहेगा.
“मैं सम्मानित हुआ!” गुप्तचर सेवाओं के प्रमुख
ने कहा और वह मुड़कर बाल्कनी से चला गया. गीली रेत पर उसके जूतों की चरमराने की
आवाज़ आती रही; फिर संगमरमरी सिंहों के बीचे के फर्श पर उनकी
खट्-खट् सुनाई दी; फिर उसके पैर, धड़
और अंत में टोप भी आँखों से ओझल हो गए. अब जाकर न्यायाधीश ने देखा कि सूर्य कब का
डूब चुका है और अँधेरा छा रहा है.
********
छब्बीस
अन्तिम संस्कार
शायद इस धुँधलके के ही कारण न्यायाधीश का बाह्य रूप परिवर्तित हो गया. मानो
वह देखते ही देखते बूढ़ा हो गया, उसकी कमर झुक गई. इसके साथ ही वह चिड़चिड़ा और उद्विग्न हो
गया. एक बार उसने नज़र इधर-उधर दौड़ाई और न जाने क्यों उस खाली कुर्सी पर नज़र
डालकर, जिसकी पीठ पर उसका कोट पड़ा था, वह सिहर उठा. त्यौहार की रात निकट आ रही थी, संध्या-छायाएँ
अपना खेल खेल रही थीं, और शायद थके हुए न्यायाधीश को यह आभास
हुआ कि कोई उस खाली कुर्सी पर बैठा है. डरते-डरते कोट को झटककर न्यायाधीश ने उसे
वापस वहीं डाल दिया और बाल्कनी पर दौड़ने लगा; कभी वह हाथ
मलता, कभी जाम हाथ में लेता, कभी वह
रुक जाता और बेमतलब फर्श के संगमरमर को देखने लगता, मानो
उसमें कोई लिखावट पढ़ना चाहता हो.
आज दिन में दूसरी बार उसे निराशा का दौरा पड़ा था. अपनी कनपटी को सहलाते
हुए, जिसमें
सुबह की यमयातना की भोंथरी-सी, दर्द भरी याद थी, न्यायाधीश यह समझने की कोशिश कर रहा था कि इस निराशा का कारण क्या है. वह
शीघ्र ही समझ गया, मगर अपने आपको धोखा देता रहा. उसे समझ में
आ गया था कि आज दिन में वह कुछ ऐसी चीज़ खो चुका है, जिसे
वापस नहीं पाया जा सकता और अब वह इस गलती को कुछ ओछी, छोटी,
विलम्बित हरकतों से कुछ हद तक सुधारना चाहता था. न्यायाधीश अपने
आपको यह समझाते हुए धोखे में रख रहा था कि शाम की उसकी ये हरकतें उतनी ही
महत्त्वपूर्ण हैं, जितनी कि सुबह के मृत्युदण्ड की घोषणा.
मगर वह इसमें सफल नहीं हो रहा था.
एक मोड़ पर आकर वह झटके से रुका और सीटी बजाने लगा. इस सीटी के जवाब में
कुत्ते के भौंकने की हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी और उद्यान से बाल्कनी में एक
विशालकाय, तेज़ कानों और भूरे बालों वाला कुत्ता उछलकर आ गया. उसके
गले में सुनहरी जंज़ीर पड़ी थी.
“बांगा, बांगा,” न्यायाधीश
ने कमज़ोर आवाज़ में कहा.
कुत्ता पिछले पंजों पर खड़ा हो गया और अगले पंजे उसने अपने मालिक के कन्धों
पर रख दिए, जिससे वह फर्श पर गिरते-गिरते बचा. न्यायाधीश कुर्सी पर
बैठ गया. बांगा जीभ बाहर निकाले, गहरी साँसे भरते अपने मालिक
के पैरों के पास लेट गया. कुत्ते की आँखों की चमक यह बता रही थी कि तूफ़ान,
दुनिया में सिर्फ जिससे उस निडर कुत्ते को डर लगता था, ख़त्म हो चुका है; साथ ही यह भी कि वह उस व्यक्ति के
पास है जिससे उसे बेहद प्यार है. वह न केवल उसे प्यार करता था, बल्कि उसकी इज़्ज़त करता था, उसे दुनिया का सबसे
अधिक शक्तिशाली व्यक्ति, सबका शासक समझता था, जिसकी बदौलत वह अपने आपको भी विशिष्ट महत्त्व देता था. मगर मालिक के पैरों
के पास पड़े, बगैर उसकी ओर देखे भी कुत्ता फौरन समझ गया कि
उसके मालिक को किसी दुःख ने घेर रखा है. इसलिए वह उठकर खड़ा हो गया और मुड़कर
न्यायाधीश के चोगे की निचली किनार पर गीली रेत लगाते हुए, अपने
सामने के पंजे और सिर को उसके घुटनों पर रख दिया. बांगा की हरकतों से साफ था कि वह
अपने मालिक को सांत्वना और विश्वास दिलाना चाहता है कि मुसीबत में वह उसके साथ है.
यह उसने तिरछी नज़रों से मालिक की ओर देखते हुए दिखाने का प्रयत्न किया, कान खड़े करके मालिक से चिपककर भी वह यह ज़ाहिर करता रहा. इस तरह वे दोनों,
कुत्ता और आदमी, जो एक दूसरे को प्यार करते थे,
त्यौहार की रात का बाल्कनी में स्वागत कर रहे थे.
इस समय न्यायाधीश का मेहमान काफी व्यस्त था. बाल्कनी के सामने वाले उद्यान
की ऊपरी मंज़िल से नीचे उतरकर वह एक और छत पर आया, दाईं ओर मुड़कर उन छावनियों की ओर
मुड़ गया जो महल की सीमा के अन्दर थीं. इन्हीं छावनियों में वे दो टुकड़ियाँ थीं,
जो न्यायाधीश के साथ त्यौहार के अवसर पर येरूशलम आई थीं; और थी न्यायाधीश की वह गुप्त टुकड़ी जिसका प्रमुख यह अतिथि था. अतिथि ने
छावनी में दस मिनट से कुछ कम समय बिताया. इन दस मिनटों के पश्चात् महल की छावनियों
से तीन गाड़ियाँ निकलीं, जिन पर खाइयाँ खोदने के औज़ार और
पानी की मशकें रखी हुई थीं. इन गाड़ियों के साथ भूरे रंग के ओवरकोट पहने पन्द्रह
व्यक्ति घोड़ों पर चल रहे थे. उनकी निगरानी में ये गाड़ियाँ महल के पिछले द्वार से
निकलीं और पश्चिम की ओर चल पड़ीं. शहर के परकोटे की दीवार में बने द्वार से बाहर
निकलकर पगडंडी पर होती हुई पहले बेथलेहेम जाने वाले रास्ते पर कुछ देर चलीं और फिर
उत्तर की ओर मुड़ गईं. फिर खेव्रोन्स्की चौराहे तक आकर याफा वाले रास्ते पर मुड़
गईं, जिस पर दिन में अभियुक्तों के साथ जुलूस जा रहा था. इस
समय तक अँधेरा हो चुका था और आसमान में चाँद निकल आया था.
गाड़ियों के प्रस्थान करने के कुछ देर बाद ही महल की सीमा से घोड़े पर सवार
होकर न्यायाधीश का मेहमान भी निकला. उसने अब काला पुराना चोगा पहन रखा था. मेहमान
शहर से बाहर न जाकर शहर के अन्दर गया. कुछ देर बाद उसे अन्तोनियो की मीनार के निकट
देखा गया, जो उत्तर की ओर, मन्दिर के काफी निकट
थी. इस मीनार में भी मेहमान कुछ ही देर रुका, फिर उसके
पदचिह्न शहर के निचले भाग की तंग, टेढ़ी-मेढ़ी, भूलभुलैया गलियों में दिखाई दिए. यहाँ तक मेहमान टट्टू पर सवार होकर आया.
शहर से भली-भाँति परिचित मेहमान ने उस गली को ढूँढ़ निकाला जिसकी उसे
ज़रूरत थी. उसका नाम ‘ग्रीक गली’ था, क्योंकि यहाँ कुछ ग्रीक लोगों की दुकानें थीं, जिनमें
एक दुकान वह भी थी, जहाँ कालीन बेचे जाते थे. इसी दुकान के
सामने उसने टट्टू रोका, उतरकर उसे सामने के दरवाज़े की एक
गोल कड़ी से बाँध दिया. दुकान बन्द हो चुकी थी. मेहमान उस दरवाज़े में आ गया,
जो दुकान के प्रवेश द्वार की बगल में था और एक छोटे-से चौरस आँगन
में आ गया, जिसमें एक सराय थी. आँगन के कोने में मुड़कर,
मेहमान एक मकान की पत्थर से बनी छत पर आ गया, जिस
पर सदाबहार की बेल चढ़ी थी. उसने इधर-उधर देखा. घर और सराय में अँधेरा था. अभी तक
रोशनी नहीं की गई थी. मेहमान ने हौले से पुकारा, “नीज़ा!”
इस पुकार के जवाब में दरवाज़ा चरमराया और शाम के धुँधलके में एक बेपरदा
तरुणी छत पर आई. वह छत की मुँडॆर पर झुककर उत्सुकतावश देखने लगी कि कौन आया है.
आगंतुक को पहचानकर वह उसके स्वागत में मुस्कुराई. सिर झुकाकर और हाथ हिलाकर उसने
उसका अभिवादन किया.
“तुम अकेली हो?” अफ्रानी ने धीरे से ग्रीक में
पूछा.
“अकेली हूँ,” छत पर खड़ी औरत फुसफुसाई, “पति सुबह केसारिया चला गया.” तरुणी ने दरवाज़े
की ओर नज़र दौड़ाते हुए, फुसफुसाहट से आगे कहा, “मगर नौकरानी है घर पर...” उसने इशारा किया,
जिसका मतलब था – ‘अन्दर आओ’.
अफ्रानी इधर-उधर देखकर पत्थर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा. इसके बाद वह उस तरुणी
के साथ घर के अन्दर छिप गया.
इस तरुणी के पास अफ्रानी कुछ ही देर को रुका – पाँच मिनट से भी कम. इसके
बाद उसने छत से उतरकर टोपी आँखों पर और नीचे सरका ली और सड़क पर निकल आया. इस समय
तक घरों में रोशनियाँ जल उठी थीं. त्यौहार के लिए आई भीड़ अभी भी थी और आने-जाने
वालों और घोड़ों पर सवार लोगों की रेलमपेल में अफ्रानी अपने टट्टू पर बैठा खो गया.
आगे वह कहाँ गया, किसी को पता नहीं.
वह औरत जिसे अफ्रानी ने नीज़ा कहकर सम्बोधित किया था, अकेली
रह जाने पर जल्दी-जल्दी वस्त्र बदलने लगी. जान पड़ता था कि वह काफी जल्दी में थी.
उस अँधेरे कमरे में अपनी ज़रूरत की चीज़ें ढूँढ़ने में काफी कठिनाई हो रही थी,
मगर फिर भी उसने दीया नहीं जलाया, न ही
नौकरानी को बुलाया. तैयार होकर उसने सिर पर बुर्का पहन लिया. उसने आवाज़ देकर कहा, “अगर कोई मुझे पूछता हुआ आए, तो कह देना कि मैं
एनान्ता के यहाँ जा रही हूँ.”
अँधेरे में बूढ़ी नौकरानी के बुड़बुड़ाने की आवाज़ सुनाई दी, “एनान्ता के यहाँ? ओह, क्या
चीज़ है यह एनान्ता! आपके पति ने आपको वहाँ जाने से मना किया है न! दलाल है,
तुम्हारी एनान्ता! मैं तुम्हारे पति से कहूँगी...”
“चुप, चुप, चुप!” नीज़ा बोली, और परछाईं की तरह घर से बाहर फिसल गई.
उसकी चप्पलों की खट्खट् आँगन में जड़े पत्थरों पर गूँजती रही. नौकरानी ने
बड़बड़ाते हुए छत का दरवाज़ा बन्द किया. नीज़ा ने अपना घर छोड़ दिया.
इसी समय आड़ी-तिरछी होते हुए तालाब की ओर जाने वाली एक और गली के एक
भद्दे-से मकान के दरवाज़े से एक नौजवान निकला. मकान का पिछवाड़ा इस गली में खुलता
था और खिड़कियाँ खुलती थीं आँगन में. नौजवान की दाढ़ी करीने से कटी थी. कन्धों तक
आती सफेद टोपी, नया नीला, कौड़ियाँ टँका चोगा और नए
चरमराते जूते पहन रखे थे उसने. तोते जैसी नाक वाला यह खूबसूरत नौजवान त्यौहार की
खुशी में तैयार हुआ था. वह आगे जाने वालों को पीछे छोड़ते हुए जल्दी-जल्दी बेधड़क
जा रहा था, जो त्यौहार के लिए घर लौटने की जल्दी में थे. वह
देखता हुआ चल रहा था कि कैसे एक के बाद एक खिड़कियों में रोशनी होती जा रही है.
नौजवान बाज़ार से धर्मगुरु कैफ के महल को जाने वाले रास्ते पर चल रहा था जो मन्दिर
वाले टीले के नीचे था.
कुछ ही देर बाद वह कैफ के महल के आँगन में प्रवेश करता देखा गया. कुछ और
देर बाद उसे देखा गया इस आँगन से बाहर आते.
उस महल से आने के बाद, जिसमें झाड़फानूस, आकाशदीप जल रहे थे,
और त्यौहार की गहमागहमी चल रही थी, यह नौजवान
और भी बेधड़क, निडर और खुशी-खुशी वापस निचले शहर को लौट रहा
था. उस कोने पर जहाँ यह सड़क बाज़ार के चौक से मिलती थी, बुर्का
पहनी, फुदकती चाल से चलती एक औरत ने, उस
रेलपेल के बीच उसे पीछे छोड़ दिया. इस खूबसूरत नौजवान के निकट से गुज़रते हुए उसने
अपने बुर्के का नकाब क्षण भर के लिए ऊपर उठाकर इस नौजवान को आँखों से इशारा किया,
मगर अपनी चाल धीमी नहीं की, बल्कि और तेज़ कर
दी, मानो उससे भागकर छिप जाना चाहती हो, जिसे उसने पीछे छोड़ दिया था.
नौजवान ने इस औरत को न सिर्फ देखा, बल्कि पहचान भी लिया, और पहचान कर वह काँपते हुए रुक गया और बदहवास होकर उसे जाते देखता रहा.
मगर तभी वह सँभलकर उसे पकड़ने दौड़ा. हाथों में सुराही लेकर जाते हुए एक राही से
वह टकराया लेकिन फौरन ही लपककर वह उस महिला के निकट पहुँच गया और हाँफते हुए गहरी
साँसें लेते परेशान स्वर में उसने पुकारा, “नीज़ा!”
औरत मुड़ी, उसने माथे पर बल डालते हुए उसे देखा, मगर उसके चेहरे पर था एक ठण्डा हताश भाव. उसने ग्रीक में रूखे स्वर में
जवाब दिया, “आह, यह तुम हो,
जूडा! मैंने तुम्हें पहली नज़र में पहचाना ही नहीं. मगर यह अच्छी
बात है. हम लोग ऐसा मानते हैं कि यदि तुम किसी को पहचान न पाओ तो समझो वह अमीर बनने
वाला है...”
जूडा का दिल इतनी ज़ोर से धड़कने लगा, मानो काले कपड़े में बँधा कोई पक्षी
फड़फड़ा रहा हो. इस डर से कि आने जाने वाले सुन न लें, उसने
रुक-रुक कर फुसफुसाते हुए पूछा, “तुम जा कहाँ रही हो,
नीज़ा?”
“तुम्हें इससे क्या?” नीज़ा ने अपनी चाल धीमी
करते हुए और जूडा की ओर उलाहना भरी नज़रों से देखते हुए जवाब दिया.
तब जूडा की आवाज़ में कुछ बचपना-सा आ गया, वह बदहवासी से फुसफुसाया, “क्यों नहीं?...हमने तो वादा किया था. मैं तो
तुम्हारे पास आने वाला था. तुमने कहा था कि सारी शाम घर पर ही रहोगी...”
“आह, नहीं, नहीं,” नीज़ा ने जवाब दिया और ज़िद्दी बच्चे के समान अपना निचला होठ आगे को निकाल
लिया, जिससे जूडा को ऐसा लगा मानो उसका सबसे खूबसूरत चेहरा,
और भी सुन्दर लगने लगा है. नीज़ा बोली, “मैं
उकता गई था. तुम्हारा तो त्यौहार है, मगर मैं क्या करूँ?
बैठे-बैठे सुनती रहूँ कि तुम छत पर कैसी आहें भरते हो? और डरती भी रहूँ कि नौकरानी मेरे ख़ाविन्द से कह देगी? नहीं, नहीं, इसीलिए मैंने तय
कर लिया है कि शहर से बाहर जाकर चिड़ियों की चहचहाहट को सुनूँगी.”
“ऐसे कैसे, शहर से बाहर?” जूडा
ने परेशानी से पूछा, “अकेली?”
“बेशक, अकेली,” नीज़ा ने
जवाब दिया.
“मुझे अपने साथ आने दो,” जूडा ने गहरी साँस लेते
हुए विनती की. उसके विचार धुँधले हो गए, वह दुनिया की हर
चीज़ के बारे में भूल गया और प्रार्थना भरी नज़रों से नीज़ा की नीली, मगर अब काली दिख रही आँखों में देखता रहा.
नीज़ा ने कुछ कहे बगैर अपनी चाल तेज़ कर दी.
“तुम चुप क्यों हो, नीज़ा?” जूडा ने उसके कदम से कदम मिलाते हुए शिकायत के स्वर में पूछा.
वह रुक गई.
“और क्या मैं तुम्हारे साथ उकता न जाऊँगी?”
अब तो जूडा के विचारों की कड़ी पूरी तरह बिखर गई. वह मिन्नत करने लगा.
“अच्छा ठीक है...” नीज़ा ने कुछ नरम पड़ते हुए
कहा, “चलो.”
“कहाँ, आखिर कहाँ जाएँगे?”
“सब्र करो...इस घर के आँगन में चलकर सलाह करते हैं, नहीं
तो मुझे डर है, कि अगर किसी जान-पहचान वाले ने देख लिया तो
कहते फिरेंगे कि मैं अपने प्रेमी के साथ सड़कों पर घूम रही थी.
तब बाज़ार में न नीज़ा बची और न ही जूडा. वे किसी मकान के आँगन के कोने में
खड़े होकर फुसफुसाने लगे.
“तेलियों वाले मोहल्ले में चलो,” नीज़ा ने नकाब
चेहरे पर डालते हुए और किसी आदमी से बचने के लिए मुड़ते हुए कहा, जो बाल्टी लेकर वहाँ आया था, “केद्रोन के पीछे,
गेफसिमान में. समझ गए?”
“हाँ, हाँ, हाँ.”
“मैं आगे चलती हूँ,” नीज़ा आगे बोली, “मगर तुम मेरे पीछे-पीछे मत आओ, मुझसे दूर रहो. मैं
आगे जाऊँगी... जब झरना पार करोगे...तुम्हें मालूम है गुफा कहाँ है?”
“मालूम है, मालूम है...”
“तेलियों के कोल्हू की बगल से ऊपर की ओर जाकर गुफा की ओर मुड़ जाना. मैं
वहीं रहूँगी. मगर इस समय मेरे पीछे मत आना, थोड़ा धीरज रखो,
यहाँ कुछ देर रुको.” इतना कहकर नीज़ा उस
गली से निकलकर यूँ चली गई जैसे उसने जूडा से बात ही न की हो.
जूडा कुछ देर अकेला खड़ा रहा, अपने भागते हुए विचारों को तरतीब में
लाने की कोशिश करने लगा. इन विचारों में एक यह भी था कि उत्सव की दावत के समय अपनी
अनुपस्थिति के बारे में वह अपने रिश्तेदारों को क्या कैफ़ियत देगा. जूडा खड़े-खड़े
कोई बहाना सोचने लगा. मगर जैसा कि हमेशा होता है, परेशानी
में वह कुछ सोच न पाया और उसके पैर उसे अपने आप गली से दूर ले चले.
अब
उसने अपना रास्ता बदल दिया. वह निचले शहर में जाने के बजाय वापस कैफ के महल की ओर
चल पड़ा. जूडा को अब आसपास की चीज़ें देखने में कठिनाई हो रही थी. उत्सव शहर के
अन्दर आ गया था. जूडा के चारों ओर हर घर में अब न केवल रोशनी जल चुकी थी, बल्कि प्रार्थना भी सुनाई देने लगी थी.
देरी से घर जाने वाले अपने-अपने गधों को चाबुक मारकर चिल्लाते हुए आगे धकेल
रहे थे. जूडा के पैर उसे लिये जा रहे थे, उसे पता ही नहीं चला कि कैसे उसके
सामने से अन्तोनियो की काई लगी, ख़ौफ़नाक मीनारें तैरती चली
गईं. उसने किले में तुरही की आवाज़ नहीं सुनी. रोम की मशाल वाली घुड़सवार टुकड़ी
पर उसका ध्यान नहीं गया, जिसकी उत्तेजक रोशनी में रास्ता नहा
गया था. मीनार के पास से गुज़रते हुए जूडा ने मुड़कर देखा कि मन्दिर की डरावनी
ऊँचाई पर दो पंचकोणीय दीप जल उठे हैं. मगर जूडा को वे भी धुँधले ही नज़र आए. उसे यूँ
लगा जैसे येरूशलम के ऊपर दस अतिविशाल दीप जल उठे थे, जो
येरूशलम पर सबसे ऊपर चमकते दीप – चाँद से
प्रतिस्पर्धा कर रहे थे. अब जूडा को किसी से कोई मतलब नहीं था. वह गेफसिमान की ओर
बढ़ा जा रहा था. शहर को जल्द से जल्द पीछे छोड़ना चाहता था. कभी-कभी उसे ऐसा महसूस
होता, जैसे उसके आगे जाने वालों की पीठों और चेहरों के बीच
फुदकती आकृति चली जा रही है, जो उसे अपनी ओर खींच रही है.
मगर यह सिर्फ धोखा था. जूडा समझ रहा था, नीज़ा ने जानबूझकर
उसे पीछे छोड़ा है. जूडा सूद वाली दुकानों के सामने से होकर भाग रहा था. आख़िर में
वह गेफसिमान तक पहुँच ही गया. बेचैन होते हुए भी प्रवेश-द्वार पर उसे इंतज़ार करना
ही पड़ा. शहर में ऊँटों का काफिला प्रवेश कर रहा था जिसके पीछे-पीछे था सीरियाई
फौजी गश्ती-दल जिसे मन ही मन जूडा ने गाली दी...
मगर हर चीज़ का अन्त होता ही है. अशांत और बेचैन जूडा अब शहर की दीवार के
बाहर था. दाईं ओर उसने एक छोटा-सा कब्रिस्तान देखा, उसके निकट कुछ भक्तजनों के धारियों
वाले तम्बू थे. चाँद की रोशनी से नहाए धूल भरे रास्ते को पार करके जूडा केद्रोन
झरने की ओर बढ़ा, ताकि उसे पार कर सके. जूडा के पैरों के
नीचे पानी कलकल करता धीमे से बह रहा था. एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर उछलते वह आखिर
में गेफसिमान के दूसरे किनारे पर पहुँच गया. उसे यह देखकर खुशी हुई कि यहाँ बगीचों
के ऊपर वाला रास्ता एकदम सुनसान है. दूर तेलियों के मुहल्ले के ध्वस्त द्वार दिखाई
दे रहे थे.
शहर के दमघोंटू वातावरण के बाद बसंती रात की महक जूडा को पागल बना दे रही
थी. बगीचे से अकासिया और अन्य फूलों की महक आ रही थी.
प्रवेश-द्वार पर कोई पहरेदार नहीं था, वहाँ कोई था ही नहीं; कुछ क्षणों बाद ज़ैतून के वृक्षों की विशाल रहस्यमय छाया के नीचे जूडा
दौड़ने लगा. रास्ता पहाड़ तक जाता था. तेज़-तेज़ साँस लेते हुए जूडा अँधेरे से
उजाले में चाँद की रोशनी से बने कालीनों पर चलता ऊपर चढ़ने लगा, जो उसे नीज़ा के ईर्ष्यालु पति की दुकान में देखे कालीनों की याद दिला रहे
थे. कुछ देर बाद जूडा के बाईं ओर मैदान में तेलियों का कोल्हू दिखाई दिया. वहाँ था
पत्थर का अजस्त्र पहिया. कुछ बोरे भी रखे थे. सूर्यास्त तक सारे काम समाप्त हो
चुके थे. उद्यान में कोई भी प्राणी नहीं था और जूडा के सिर के ऊपर पंछियों की
चहचहाहट गूँज रही थी.
जूडा का लक्ष्य निकट ही था. उसे मालूम था कि दाईं ओर अँधेरे में अभी उसे
गुफा में बहते पानी की फुसफुसाहट सुनाई देगी. वैसा ही हुआ, उसने
वह आवाज़ सुनी. ठण्डक महसूस हो रही थी.
तब उसने अपनी चाल धीमी करते हुए हौले से आवाज़ दी, “नीज़ा!”
मगर नीज़ा के स्थान पर ज़ैतून के वृक्ष के मोटे तने से अलग होते हुए एक
शक्तिशाली आदमी की आकृति प्रकट हुई. उसके हाथों में कुछ चमका और तत्क्षण बुझ गया.
जूड़ा पीछे की ओर लड़खड़ाया और क्षीण आवाज़ में बोला, “आह!”
दूसरे आदमी ने उसका
रास्ता रोका.
पहले वाले ने, जो सामने था, जूडा से पूछा, “अभी कितना मिला है? बोलो, अगर जान बचाना चाहते हो!”
जूडा के दिल में आशा
जाग उठी और वह बदहवासी से किल्लाया, “तीस टेट्राडाख्मा! तीस
टेट्राडाख्मा! जो कुछ भी पाया, सब यही है. ये रही
मुद्राएँ! ले लीजिए, मगर मेरी जान बख़्श दीजिए.”
सामने वाले आदमी ने
जूडा के हाथ से झटके से थैली छीन ली. उसी क्षण जूडा की पीठ के पीछे बिजली की गति
से चाकू चमका जिसने उस प्रेमी की पसलियों पर वार किया. जूडा आगे की ओर लड़खड़ाया, और अपनी टेढ़ी-मेढ़ी उँगलियों वाले हाथ उसने ऊपर उठा दिए. सामने वाले
व्यक्ति के चाकू ने जूडा को थाम लिया और उसकी मूठ जूडा के दिल में उतर गई.
“नी... ज़ा...,” अपनी ऊँची, साफ़, जवान आवाज़ के बदले जूडा के मुँह से इतने
ही शब्द एक नीची, डरी, उलाहने
भरी आवाज़ में निकले और आगे वह कुछ न बोल सका. उसका शरीर पृथ्वी पर इतनी शक्ति से
गिरा, कि वह गूँज उठी.
अब रास्ते पर एक
तीसरी आकृति दिखाई दी. यह तीसरा कोट और टोपी पहने था.
“आलस मत करो,” तीसरे ने आज्ञा दी. हत्यारों ने
फ़ौरन थैली के साथ वह कागज़ बाँध दिया, जो उन्हें तीसरे
आदमी ने दिया था. वह सब एक चमड़े के टुकड़े में रखकर उस पर डोरी बाँध दी. दूसरे ने
यह पैकेट अपनी कमीज़ में रख लिया. इसके बाद दोनों हत्यारे रास्ते से दूर हटकर चले
गए और ज़ैतून के वृक्षों के बीच अँधेरा उन्हें खा गया. तीसरा, मृतक के पास उकडूँ बैठकर उसके चेहरे को देखता रहा. अँधेरे में वह चेहरा
चूने की तरह सफ़ेद नज़र आ रहा था और बहुत सुन्दर लग रहा था. कुछ क्षणों पश्चात्
रास्ते पर कोई भी जीवित व्यक्ति नहीं रहा. निर्जीव शरीर हाथ पसारे पड़ा रहा. बायाँ
पैर चाँद की रोशनी में था, जिससे उसकी चप्पल का हर बन्द
साफ़ दिखाई दे रहा था.
इस समय पूरा
गेफ़सिमान उद्यान पंछियों के गीतों से गूँज उठा.
जूडा को मारने वाले
दोनों हत्यारे कहाँ लुप्त हो गए, किसी को नहीं मालूम. मगर तीसरे, टोपी वाले के मार्ग के बारे में हम जानते हैं रास्ता छोड़कर वह ज़ैतून के
वृक्षों के झुरमुट से होता हुआ दक्षिण की ओर बढ़ा. प्रमुख द्वार से कुछ पहले वह
उद्यान की दीवार फाँद गया; उसके दक्षिणी कोने में, जहाँ बड़े-बड़े पत्थर पड़े थे. शीघ्र ही वह केद्रोन के किनारे पहुँचा. फिर
पानी में उतरकर कुछ देर तक चलता रहा, जब तक कि उसे दो
घोड़ों के साथ एक आदमी नहीं दिखाई दिया. घोड़े भी प्रवाह में ही खड़े थे. पानी
उनके पैर धोते हुए बह रहा था. साईस एक घोड़े पर बैठा और टोपी वाला उछलकर दूसरे पर
बैठ गया और वे धीरे-धीरे प्रवाह में ही चलते रहे. घोड़ों के खुरों के नीचे पत्थरों
के चरमराने की आवाज़ आ रही थी. फिर घुड़सवार पानी से बाहर आए, येरूशलम के किनारे पर आए और शहर की दीवार के साथ-साथ चलते रहे. यहाँ साईस
अलग हो गया और घोड़े को एड़ लगाकर आँखों से ओझल हो गया. टोपी वाला घोड़ा रोककर
नीचे उतरा और उस निर्जन रास्ते पर उसने अपना कोट उतारा और उसे उलट दिया; कोट के नीचे से उसने एक चपटा, बिना परों वाला
शिरस्त्राण निकाल कर पहन लिया. अब घोड़े पर उछल कर सवार हुआ, फौजी वेष में, कमर में तलवार लटकाए एक सैनिक.
उसने रास खींची और फ़ौजी टुकड़ी का जोशीला घोड़ा तीर की तरह सवार को चिपकाए भागा.
अब रास्ता थोड़ा सा ही था – घुड़सवार येरूशलम के
दक्षिणी द्वार की ओर बढ़ रहा था.
प्रवेश द्वार की कमान
पर मशालों की परेशान रोशनी नाच रही थी. बिजली की गति वाली दूसरी अंगरक्षक टुकड़ी
के सिपाही पत्थर की बेंचों पर बैठे चौपड़ खेल रहे थे. तीर की तरह आते फ़ौजी को देखते
ही वे अपनी-अपनी जगहों से उछल पड़े, फ़ौजी ने उनकी ओर हाथ हिलाया और
शहर में घुस गया.
शहर त्यौहार की
चकाचौंध में डूबा था. सभी खिड़कियों में रोशनी खेल रही थी. चारों ओर से
प्रार्थनाएँ गूँज रही थीं. बाहर खुलती खिड़कियों में देखते हुए घुड़सवार कभी-कभी लोगों को पकवानों से सजी खाने की मेज़ पर देख
सकता था. पकवानों में था बकरी का माँस, शराब के प्याले
और कड़वी घास वाली कुछ और चीज़ें. सीटी पर कोई शांत गीत गुनगुनाते हुए घुड़सवार
धीमी चाल से निचले शहर की खाली सड़कों पर चलते-चलते अंतोनियो की मीनार की ओर बढ़ा, कभी मन्दिर के ऊपर के उन पंचकोणी दीपों की ओर देखते हुए, जैसे दुनिया में और कहीं नहीं थे; या फिर चाँद
को देखते हुए, जो इन पंचकोणी दीपों के ऊपर लटक रहा था.
इस त्यौहार की रात के
आयोजनों में हिरोद के प्रासाद ने कोई हिस्सा नहीं लिया. दक्षिण की ओर खुलने वाले
निचले कमरों में जहाँ रोम की सेना के अफ़सर और अश्वारोही टुकड़ियों के प्रमुख रखे
गए थे, दीप जल रहे थे. वहाँ कुछ हलचल और जीवन के चिह्न
दृष्टिगोचर हो रहे थे. सामने वाले भाग में बेमन से रह रहा महल का निवासी न्यायाधीश
था. यह पूरा भाग अपने स्तम्भों और सुनहरी प्रतिमाओं समेत मानो चाँद की चमक से
अन्धा हो गया था. महल के अन्दर ख़ामोशी और अन्धेरे का साम्राज्य था.
और जैसा कि न्यायाधीश
ने अफ्रानी से कहा था, वह अन्दर जाना नहीं चाहता था. उसने वहीं बालकनी में
ही बिस्तर लगाने की आज्ञा दी, वहीं, जहाँ उसने भोजन किया था और सुबह मुकदमा सुना था. न्यायाधीश बिस्तर पर लेटा
मगर उसकी आँखों से नींद दूर थी. नंगा चाँद ऊपर साफ़ आसमान में लटक रहा था और कई
घण्टों तक न्यायाधीश उस पर से आँखें न हटा सका.
करीब आधी रात को
निद्रादेवी ने महाबली पर दया कर ही दी. कँपकँपाते हुए एक लम्बी जम्हाई लेकर
न्यायाधीश ने अपना कोट निकालकर फेंक दिया, कमर में बँधा पट्टा खोल दिया, जिसमें खोलबन्द स्टील का चाकू लटका था, उसे
बिस्तर के पास वाले आसन पर रख दिया, चप्पलें उतारीं और
लेट गया. बांगा फ़ौरन उसके बिस्तर पर चढ़कर सिर के पास सिर रखकर उसकी बगल में लेट
गया; न्यायाधीश ने कुत्ते की गर्दन पर हाथ रखकर अपनी
आँखें बन्द कर लीं. तभी कुत्ता भी सोया.
बिस्तर आधे अँधेरे
में था, स्तम्भ के कारण चाँद का प्रकाश उस पर नहीं पड़ रहा था, मगर सीढ़ियों से बिस्तर तक चाँद की रोशनी का पट्टा आ रहा था. जैसे ही
न्यायाधीश ने वास्तविक जीवन की गतिविधियों से सम्बन्ध तोड़ा, वह फ़ौरन उस चमकीले रास्ते पर सीधे चाँद की ओर चलने लगा. सपने में खुशी के
कारण वह मुस्कुरा रहा था, क्योंकि इस नीले-नीले रास्ते
पर सब कुछ इतना अद्भुत और सुन्दर था. वह बांगा के साथ-साथ चल रहा था, और उसके साथ था वह घुमक्कड़ दार्शनिक. वे किसी जटिल और महत्त्वपूर्ण विषय
पर बहस कर रहे थे, मगर कोई भी दूसरे को हरा नहीं पा रहा
था. वे किसी भी बात में एक दूसरे के समान नहीं थे और इसी कारण उनकी बहस काफ़ी
दिलचस्प हो गई थी और ख़त्म नहीं हो पा रही थी. ज़ाहिर था कि आज का मृत्युदण्ड
सरासर बेवकूफ़ी थी – यही दार्शनिक जो एक फ़ूहड़
ख़याल की हिमायत कर रहा था, कि सभी व्यक्ति दयालु होते
हैं, उसके साथ-साथ चल रहा था, जिसका मतलब यह हुआ कि वह जीवित था. इस बात का ख़याल भी कितना भयानक है कि
ऐसे व्यक्ति को सूली पर चढ़ाया जा सकता है. सूली दी ही नहीं गई! बिल्कुल नहीं दी
गई! चाँद तक पहुँचने की यात्रा की यही सुखद अनुभूति है.
ख़ाली समय इतना था, जितना आवश्यक था, और तूफ़ान सिर्फ शाम को ही
आएगा, और कायरता सबसे भयानक पापों में से एक है. यही
कहा था येशू हा-नोस्त्री ने. नहीं दार्शनिक, मैं तुमसे
सहमत नहीं हूँ: यह सर्वाधिक भयानक पाप है.
उदाहरण के लिए, जब देव घाटी में मदमस्त जर्मनों ने विशालकाय क्रिसाबोय को लगभग टुकड़े-टुकड़े कर दिया था, तब जूडिया के वर्तमान न्यायाधीश और घुड़सवार टुकड़ी के भूतपूर्व प्रमुख ने
कायरता नहीं दिखाई थी. मगर, मुझ पर दया करो, दार्शनिक! क्या तुम, अपनी बुद्धिमत्ता से यह
नहीं समझ सकते, कि सम्राट के विरुद्ध अपराध करने वाले
व्यक्ति के कारण, जूडिया का न्यायाधीश अपनी नौकरी चौपट
कर देता?
“हाँ – हाँ,” नींद
में ही पिलात कराहते और सिसकियाँ लेते हुए बोला. ज़ाहिर है, चौपट कर देता. दिन में शायद वह यह करता नहीं, मगर
अब रात में, सब कुछ छोड़छाड़ कर, वह नौकरी चौपट करने की बात पर उतारू था, वह सब
कुछ करने को तैयार था, जिससे इस सम्पूर्ण निरपराध
व्यक्ति को, इस सिरफिरे दार्शनिक और चिकित्सक को मृत्यु
से बचा सके.
“अब हम हमेशा साथ-साथ रहेंगे,” सपने में उस
घुमक्कड़ दार्शनिक ने उससे कहा. न जाने कैसे वह सुनहरे भाले वाले घुड़सवार के
रास्ते में खड़ा था. “यदि एक है तो इसका मतलब है कि
दूसरा भी वहीं है! मुझे याद करेंगे तो फ़ौरन तुम्हें भी याद करेंगे. मुझे लावारिस
के, अनजान माता-पिता की संतान के रूप में, और तुम्हें – भविष्यवेत्ता राजा और चक्की
वाले की पुत्री, सुन्दरी पिला के पुत्र के रूप में.”
“हाँ, तुम भूल न जाना, मुझे याद रखना, भविष्यवेत्ता के बेटे को,” सपने में पिलात ने प्रार्थना की और सपने में अपने साथ-साथ चलने वाले एन
सारीदा के निर्धन के सिर हिलाकर स्वीकृति देने पर जूडिया का निर्दयी न्यायाधीश
खुशी के मारे रो पड़ा और सपने में मुस्कुराता रहा!
यह सब बहुत अच्छा लग
रहा था मगर इसी कारण महाबली की नींद का टूटना बहुत भयानक था. बांगा चाँद की ओर
देखकर चिल्लाया और फिसलन भरा नीला रास्ता न्यायाधीश की आँखों से ओझल हो गया. उसने
आँखें खोलीं और पहली बात जो उसे याद आई, वह यह कि दार्शनिक सूली पर
चढ़ाया जा चुका था. उठते ही न्यायाधीश ने आदत के अनुसार बांगा की गर्दन को हाथ से
सहलाया, तत्पश्चात् बीमार आँखों से चाँद को ढूँढ़ने लगा
तो पाया कि वह कुछ किनारे की ओर हट गया है और सफ़ेद पड़ गया है. उसके प्रकाश को काटती
हुई एक अप्रिय, बेचैन-सी रोशनी न्यायाधीश की आँखों के
ठीक सामने बालकनी में खेल रही थी. यह मशाल थी जो क्रिसाबोय के हाथों में फड़फड़ाते हुए धुआँ उगल रही थी.
उसे पकड़ने वाला भय और घृणा से उस ख़तरनाक जानवर के नज़दीक आ रहा था, जो उस पर छलाँग लगाने ही वाला था.
“छूना मत, बांगा,” न्यायाधीश
ने बीमार आवाज़ में कहा और वह खाँसा. रोशनी से बचने के लिए हाथ ऊपर उठाते हुए उसने
आगे कहा, “रात में भी, चाँद के
नज़दीक भी मुझे चैन नहीं है. हे भगवान! तुम्हारा कर्त्तव्य भी बड़ा अप्रिय है, मार्क! सिपाहियों का तो तुम अंग-भंग कर देते हो...”
मार्क ने हैरत से
न्यायाधीश की ओर देखा तो वह सँभल गया. नींद में बोले गए बेकार के शब्दों पर
लीपा-पोती करने के लिए न्यायाधीश ने कहा, “बुरा न मानना, अंगरक्षक, मैं फिर कहता हूँ, मेरी हालत तुमसे भी बुरी है. क्या चाहते हो?”
“गुप्तचर सेवाओं का प्रमुख आने की आज्ञा चाहता है,” मार्क ने शांति से जवाब दिया.
“बुलाइए, बुलाइए,” खाँसते
हुए, गले को साफ करके न्यायाधीश ने आज्ञा दी और नंगे
पैरों को घुमाते हुए अपनी चप्पलें ढूँढ़ने लगा. रोशनी स्तम्भों पर खेल रही थी.
अंगरक्षक के जूतों की ठक-ठक फर्श पर सुनाई दे रही थी. अंगरक्षक उद्यान में निकल
गया.
“चाँद
की रोशनी में भी मुझे चैन नहीं,” दाँत पीसते हुए अपने
आप से न्यायाधीश ने कहा.
बालकनी में अंगरक्षक
के बदले टोपी वाला आदमी प्रकट हुआ.
“बांगा, छूना मत,” न्यायाधीश
ने हौले से कहा और कुत्ते का सिर दबाते हुए उसे बैठा दिया.
बोलने से पहले अपनी
आदत के मुताबिक अफ्रानी ने चारों ओर नज़रें घुमाकर देखा, उसने छाया में जाकर यह विश्वास कर लिया कि बांगा के अलावा बालकनी में कोई
नहीं है, फिर हौले से बोला, “प्रार्थना
करता हूँ, मुझ पर मुकदमा चलाइए, न्यायाधीश! आपने ठीक कहा था. मैं किरियाफ के जूडा की रक्षा नहीं कर सका, उसे मार डाला गया है. मैं विनती करता हूँ कि मुझ पर मुकदमा चलाएँ और मुझे
बर्खास्त करें.”
अफ्रानी ने महसूस
किया कि उसे चार आँखें घूर रही हैं, दो कुत्ते की और दो भेड़िए की.
अफ्रानी ने कोट के
नीचे से दुहरी सील से बन्द की गई खून में लथपथ थैली निकाली.
“यह पैसों वाली थैली हत्यारे धर्मगुरू के मकान पर फेंक कर चले गए. इस थैली
पर लगा हुआ खून किरियाफ के जूडा का है.”
“कितना पैसा है, मुझे दिलचस्पी है?” पिलात ने थैली की ओर झुकते हुए पूछा.
“तीस टेट्राडाख्म.”
न्यायाधीश हँस पड़ा
और बोला, “बहुत कम है.”
अफ्रानी चुप रहा.
“मृतक कहाँ है?”
“यह मुझे नहीं मालूम,” शांत सम्मानजनक भाव से उस
आदमी ने जवाब दिया, जो कभी भी अपनी टोपी नहीं उतारता था, “सुबह उसकी तलाश शुरू करेंगे.”
न्यायाधीश काँप गया, उसने सैण्डिल का बन्द यूँ ही छोड़ दिया, जो
बाँधे नहीं बँध रहा था.
“मगर आपको शायद मालूम है कि वह मार डाला गया है?”
इसके जवाब में
न्यायाधीश को रूखा-सा जवाब मिला, “न्यायाधीश, मैं पन्द्रह साल से
जूडिया में काम कर रहा हूँ. मैंने अपनी सेवा का आरम्भ वालेरी ग्रांट के समय से
किया था. मुझे यह देखने के लिए शव देखने की ज़रूरत नहीं है कि आदमी की हत्या हो गई
है और मैं आपको सूचना दे रहा हूँ कि वह, जिसे किरियाफ
शहर के जूडा के नाम से जाना जाता है, कुछ घण्टॉं पहले
मार डाला गया है.”
“माफ़ करना, अफ्रानी,” पिलात ने जवाब दिया, “मैं अभी ठीक से जागा नहीं हूँ, इसीलिए मैंने यह सब कहा. मैं ठीक से सो नहीं पा रहा हूँ,” न्यायाधीश मुस्कुराया, “और हमेशा सपने में चाँद की
रोशनी देखा करता हूँ. कल्पना कीजिए, यह कितना
हास्यास्पद है. ऐसा लगता है, मानो मैं इस रोशनी में घूम
रहा हूँ. तो मैं इस घटना के बारे में आपकी राय जानना चाहता हूँ. आप उसे कहाँ
ढूँढ़ेंगे? बैठिए, गुप्तचर
सेवा प्रमुख.”
अफ्रानी झुककर
अभिवादन करके, कुर्सी बिस्तर के निकट खिसकाकर, तलवार की झँकार करते हुए बैठ गया.
“मैं उसे गेफसिमान उद्यान के तेलियों के कोल्हू के पास ढूँढ़ना चाहता हूँ.”
“अच्छा, अच्छा, मगर
वहीं क्यों?”
“महाबली, मेरी सूचना के अनुसार जूडा की हत्या न
तो येरूशलम में हुई है और न ही उससे बहुत दूर. वह येरूशलम के निकट ही मारा गया है.”
“मैं आपको अपने काम में बहुत प्रवीण मानता हूँ. मालूम नहीं रोम में क्या
स्थिति है, मगर उपनिवेशों में तो आप जैसा कोई नहीं है.
समझाइए, क्यों?”
अफ्रानी ने हौले से
कहा, “मैं
यह बात सोच भी नहीं सकता कि जूडा शहर की सीमा में, चहल-पहल
में किसी सन्देहास्पद व्यक्तियों के हाथों में पड़ेगा. सड़क पर छिपकर मारना सम्भव
नहीं है. इसका मतलब है, उसे फुसलाकर किसी तहख़ाने में
ले जाया गया. मगर मेरे सैनिकों ने उसे निचले शहर में ढूँढ़ा, और ढूँढ़ ही लिया होता. मगर वह शहर में नहीं है, इस बात की मैं हामी देता हूँ. अगर उसे शहर से दूर मारा जाता तो पैसों वाली
यह थैली इतनी जल्दी धर्मगुरू के घर नहीं फेंकी जाती. वह शहर के नज़दीक ही मारा गया
है. उसे शहर से बाहर ले जाने में वे कामयाब हो गए.”
“मैं समझ नहीं पा रहा, यह कैसे हुआ होगा.”
“हाँ, न्यायाधीश, पूरी
घटना में यही सबसे कठिन प्रश्न है और मैं नहीं जानता कि मैं उसे सुलझा सकूँगा या
नहीं.”
“सचमुच, पहेली ही है! त्यौहार की रात को, एक ईश्वर में विश्वास रखने वाला प्रार्थना और दावत को छोड़कर न जाने क्यों
शहर से बाहर जाता है, और वहाँ ख़त्म हो जाता है. उसे
कौन, कैसे फुसला सका? कहीं
यह किसी औरत का काम तो नहीं है?” न्यायाधीश ने अचानक
जोश से पूछ लिया.
अफ्रानी ने शांति से
ज़ोर देते हुए कहा, “किसी हालत में नहीं, न्यायाधीश.
यह सम्भावना तो है ही नहीं. ज़रा तर्कसंगत ढँग से देखिए. जूडा को मारने में किसे
दिलचस्पी थी? कोई आवारा स्वप्नदर्शी ही हो सकता है, कोई ऐसा समूह, जिसमें कोई औरत थी ही नहीं. शादी करने के न्यायाधीश, पैसे चाहिए; मानव को पृथ्वी पर लाने के लिए उनकी ज़रूरत है; मगर एक औरत की सहायता से किसी आदमी की ह्त्या करने के लिए तो बहुत सारे धन
की आवश्यकता होती है, और किसी भी घुमक्कड़ के पास इतना
धन नहीं है. इस काम में औरत थी ही नहीं, न्यायाधीश, मैं तो यह भी कहूँगा कि इस दिशा में सोचने से मैं गलत दिशा में चलकर
भूलभुलैया में पड़ जाऊँगा.”
“मैं देख रहा हूँ कि आप एकदम सही हैं, अफ्रानी,” पिलात ने कहा, “मैं तो सिर्फ मन की बात कह रहा था.”
“मगर, अफ़सोस, यह बात
गलत है, न्यायाधीश.”
“तो फिर, तो फिर क्या...?” न्यायाधीश उत्सुकतावश अफ्रानी के चेहरे की ओर देखते हुए चहका.
“मैं समझता हूँ कि वही धन ही इसका कारण है.”
“बहुत अच्छा ख़याल है! मगर शहर के बाहर रात को उसे किसने पैसे देने की बात
कही होगी?”
“ओह नहीं, न्यायाधीश, ऐसा नहीं है. मेरा सिर्फ एक ही निष्कर्ष है और यदि वह गलत है तो और कोई
निष्कर्ष मैं नहीं निकाल सकता,” न्यायाधीश के निकट
झुककर फुसफुसाया, “जूडा अपने धन को किसी सुनसान जगह पर
छिपाना चाहता था, जिससे सिर्फ वही परिचित था.”
“बहुत बारीकी से समझा रहे हैं. शायद ऐसा ही हुआ होगा. अब समझ रहा हूँ: उसे
लोगों ने नहीं, अपने ही ख़यालों ने फुसलाया. हाँ, ऐसा ही है.”
“हाँ, जूडा किसी का विश्वास नहीं करता था. वह
पैसे लोगों से छिपा रहा था.”
“आप कह रहे थे गेफसिमान में. मगर आप उसे वहीं क्यों ढूँढ़ना चाहते हैं – मैं स्वीकार करता हूँ कि यह बात मैं समझ नहीं पा रहा हूँ.”
“ओह, न्यायाधीश! यह बहुत आसान है. पैसे कोई रास्तों
में खुली और खाली जगहों पर तो नहीं न छिपाएगा. जूडा न तो हेब्रोन वाले रास्ते पर
था, न ही बेथनी वाले. वह वृक्षों से घिरे हुए सुरक्षित
स्थान पर ही रहा होगा. यह इतना आसान है. और येरूशलम के पास, गेफसिमान के अलावा दूसरी ऐसी जगह है ही नहीं. दूर वह जा नहीं सकता था.”
“आपने मेरा पूरी तरह समाधान कर दिया है. तो अब क्या करना है?”
“मैं जल्दी ही उन हत्यारों को ढूँढ़ना शुरू करूँगा, जो जूडा को शहर से बाहर फुसलाकर ले गए, और साथ
ही मैं अपने आपको न्यायदेवता के अधीन करता हूँ.”
“किसलिए?”
“जब वह कैफ के महल से वापस आ रहा था, मेरे
सैनिकों ने उसे शाम को बाज़ार में खो दिया. यह कैसे हुआ, मैं समझ नहीं पा रहा. मेरे पूरे जीवन में ऐसा कभी नहीं हुआ था. हमारी
बातचीत के फौरन बाद मैंने उसे अपनी निगरानी में
ले लिया था. मगर बाज़ार से वह कहीं खिसक गया, ऐसे कि उसका
नामोनिशान ही खो गया.”
“तो यह बात है! मैं आपको बता दूँ कि आप पर मुकदमा चलाने की मैं कोई ज़रूरत
नहीं समझता. आपने वह सब किया जो सम्भव था,” न्यायाधीश
मुस्कुराया, “और दुनिया में कोई भी इससे अधिक और कुछ कर नहीं
सकता था! खोजी दल को ही सज़ा दीजिए, जो जूडा के पीछे थे. मगर
मैं आपसे कहूँगा कि यह सज़ा कठोर नहीं होनी चाहिए. आखिर हमने इस बदमाश को बचाने के
लिए जो सम्भव था, सब किया! हाँ, मैं
पूछना भूल गया...”न्यायाधीश ने माथा पोंछते हुए कहा, “उन्होंने
कैफ का पैसा वापस कैसे फेंका?”
“देखिए, न्यायाधीश...यह इतना कठिन नहीं है. बदला लेने
वाले कैफ के महल के पिछवाड़े गए, जहाँ से एक गली निकलती है.
वहीं उन्होंने चारदीवारी के ऊपर से थैली फेंक दी.”
“चिट्ठी के साथ?”
“हाँ, ठीक वैसा ही जैसा आपने कहा था, न्यायाधीश. हाँ, देखिए,” अफ्रानी
ने थैली पर लगी मुहर तोड़कर उसके अन्दर की चीज़ें पिलात को दिखाईं.
“यह आप क्या कर रहे हैं, अफ्रानी, होश में आइए, मुहर तो शायद मन्दिर की है!”
“न्यायाधीश,
इस बात से परेशान न हों, अफ्रानी ने थैली बन्द
करते हुए कहा.
“क्या आपके पास सभी तरह की मुहरें हैं?" हँसते हुए पिलात ने पूछ लिया.
“और कोई चारा ही नहीं है, न्यायाधीश,” अफ्रानी ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया.
“मैं कल्पना कर सकता हूँ कि कैफ के यहाँ क्या तमाशा हुआ होगा.”
“हाँ, न्यायाधीश, काफी
बड़ा हंगामा हुआ. उन्होंने फौरन मुझे बुला भेजा.”
अँधेरे में भी साफ दिख रहा था कि पिलात की आँखें चमक रही हैं.
“यह बहुत दिलचस्प है, दिलचस्प...”
“मुझे डर है कि मैं आपका विरोध कर रहा हूँ, न्यायाधीश,
यह ज़रा भी दिलचस्प नहीं था. सबसे ज़्यादा उकताने वाला और थका देने
वाला काम था. मेरे इस प्रश्न के जवाब में कि कैफ के महल से किसी को पैसा तो नहीं
दिया गया, उन्होंने दृढ़ता से कहा कि ऐसा नहीं हुआ."
“ओह, यह बात है? हो
सकता है, जब कह रहे हैं कि नहीं दिया, तो
शायद नहीं दिया होगा. तब तो हत्यारों को ढूँढ़ना और भी मुश्किल हो जाएगा.”
“बिल्कुल ठीक कहते हैं, न्यायाधीश.”
“हाँ, अफ्रानी, अचानक
मुझे ख़याल आया कि कहीं उसने आत्महत्या तो नहीं की?”
“ओह, नहीं, न्यायाधीश!”
विस्मय से कुर्सी की पीठ से टिकते हुए अफ्रानी ने जवाब दिया, “माफ कीजिए, मगर यह बिल्कुल असम्भव है!”
“आह, इस शहर में सब सम्भव है! मैं बहस करने के
लिए तैयार हूँ कि कुछ देर बाद यह अफ़वाह पूरे शहर में फैल जाएगी.”
अब अफ्रानी ने अपनी विशिष्ट नज़र से न्यायाधीश की ओर देखा और सोच कर
बोला, “यह तो हो सकता है, न्यायाधीश.”
ज़ाहिर था, कि न्यायाधीश किरियाफ वाले इस आदमी
की हत्या के प्रश्न से दूर नहीं हटना चाह रहा था, हालाँकि सब
कुछ स्पष्ट हो चुका था, और उसने कुछ खयालों में खो जाने वाले
अन्दाज़ में कहा, “मैं देखना चाहता था कि उसे किस तरह मारा
गया.”
“उसे बड़ी नफ़ासत से मारा गया, न्यायाधीश,”
अफ्रानी ने जवाब दिया और व्यंग्य से न्यायाधीश की ओर देखने लगा.
“आपको कैसे मालूम हुआ?”
“उस थैली की ओर गौर फ़रमाइए न्यायाधीश,” अफ्रानी
ने जवाब दिया, “मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, कि जूडा का खून फव्वारे की तरह उछला, लहर की तरह
बहा. मैं अपनी आँखों से हत्याएँ होते हुए देख चुका हूँ, न्यायाधीश.”
“तो, बेशक, वह उठेगा
नहीं?”
“नहीं, न्यायाधीश, वह
उठेगा,” अफ्रानी ने मुस्कुराते हुए दार्शनिक अन्दाज़ में कहा,
“जब उसके ऊपर मसीहा का बिगुल बजेगा, जिसका
यहाँ सबको इंतज़ार है, मगर उससे पहले वह नहीं उठेगा!”
“बस, अफ्रानी! यह बात अब मेरी समझ में आ गई .
अब दफ़न वाली बात पर आएँ.”
“मृतकों को दफ़ना दिया गया है, न्यायाधीश.”
“ओह, अफ्रानी, आप पर
मुकदमा चलाना अपने आप में एक गुनाह होगा. आपको सर्वोच्च पुरस्कार मिलना चाहिए.
कैसी रही दफ़न-विधि?”
अफ्रानी ने कहना शुरू किया. उसने बताया कि जब वह जूडा मामले में
व्यस्त था, गुप्तचर सैनिकों की टुकड़ी सहायक के नेतृत्व में
पहाड़ी पर पहुँची. शाम हो चुकी थी. पहाड़ी पर एक शरीर नहीं मिला.
पिलात काँप गया, और भर्राई हुई आवाज़ में बोला,
“आह, मैंने इस बात का अनुमान कैसे नहीं
लगाया!”
“चिंता करने की कोई बात नहीं न्यायाधीश,” अफ्रानी
ने कहा और बताया, “दिसमास और गेस्तास के शरीर, जिनकी आँखें जंगली पक्षियों ने निकाल ली थीं, उठा
लिए गए और फ़ौरन तीसरे शरीर की तलाश शुरू हो गई. उसे फ़ौरन ढूँढ़ लिया गया. कोई
आदमी...”
“लेवी मैथ्यू...” पिलात ने प्रश्नार्थक नहीं, अपितु पुष्टि करने के अन्दाज़ में कहा.
“हाँ, न्यायाधीश...”
लेवी मैथ्यू गंजे
पहाड़ की उत्तरी ढलान में स्थित एक गुफा में छिपकर अँधेरा होने का इंतज़ार कर रहा
था. येशू हा-नोस्त्री का नग्न शरीर उसके साथ था. जब मशाल लिये सैनिक गुफा में
पहुँचे तो लेवी घबरा गया और तैश में आ गया. वह चिल्लाया कि उसने कोई अपराध नहीं
किया है, और कानून के अनुसार, हर आदमी को,
यदि वह चाहे तो, अभियुक्त मृतक को दफ़नाने का
पूरा अधिकार है. लेवी मैथ्यू ने कहा कि वह इस शरीर को अलग नहीं करना चाहता. वह
उत्तेजित था, असम्बद्ध बातें कर रहा था, चिल्ला रहा था, कभी विनती करता, कभी धमकी देता, कभी गालियाँ...
“क्या उसे पकड़ना पड़ा?” पिलात ने
निराशा से पूछा.
“नहीं, न्यायाधीश, नहीं,”
अफ्रानी ने शांत भाव से उत्तर दिया, “उस
ज़िद्दी सिरफिरे को हम यह समझाकर शांत कर सके कि यह शरीर दफ़नाया जाएगा. लेवी इस
बात को समझ गया, शांत हो गया, मगर उसने
यह कहा कि वह कहीं नहीं जाएगा और दफ़न विधि में भाग लेगा. उसने कहा कि वह यहाँ से
कहीं नहीं जाएगा, चाहे उसे मार ही क्यों न डाला जाएगा. उसने
अपनी जेब से ब्रेड वाला चाकू भी निकालकर सामने कर दिया.”
“क्या उसे भगा दिया?” दबी आवाज़ में पिलात ने
पूछा.
“नहीं, न्यायाधीश, नहीं.
मेरे सहायक ने उसे दफ़न विधि में शरीक होने की इजाज़त दे दी..”
“आपके किस सहायक ने इसका संचालन किया?” पिलात
ने पूछा. “तोलमाय,” अफ्रानी ने जवाब दिया और कुछ चिंता के
भाव से पूछा, “कहीं उसने कोई गलती तो नहीं कर दी?”
“कहते रहिए,” पिलात बोला, “कोई गलती नहीं हुई. मैं कभी-कभी भटक जाता हूँ, अफ्रानी,
मेरा शायद ऐसे व्यक्ति से पाला पड़ा है, जो
कभी गलती करता ही नहीं. वह व्यक्ति हैं – आप!”
“लेवी मैथ्यू को मृतकों वाली गाड़ी के साथ ले जाया गया और करीब दो
घण्टॆ बाद येरूशलम के उत्तर में एक रेगिस्तानी घाटी में पहुँचे. वहाँ इस टुकड़ी ने
एक गहरा गड्ढा खोदा और उसमें तीनों मृतकों को दफन कर दिया.”
“बिना कफ़न के?”
“नहीं, न्यायाधीश, गुप्तचर
टुकड़ी इस काम के लिए कपड़ा ले गई थी. मृतकों की उँगलियों में अँगूठियाँ भी पहनाई
गईं. येशू को एक दाँते वाली, दिसमास को दो और गेस्तास को तीन
दाँते वाली. गड्ढा बन्द कर दिया गया, उस पर पत्थर रख दिए गए.
उस पर बनाए पहचान वाले चिह्न का तोलमाय को ज्ञान है.”
“आह, अगर मैं यह बात सोच सकता!” पिलात ने माथे
पर बल डालते हुए कहा, “मुझे कम से कम इस लेवी मैथ्यू से तो
मिलना ही चाहिए था...”
“वह यहीं है, न्यायाधीश!”
पिलात की आँखें विस्मय से फटी रह गईं. उसने कुछ देर तक अफ्रानी की
ओर देखा और बोला, “इस घटना से सम्बन्धित तुमने जो कुछ भी
किया, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. कृपया तोलमाय को कल मेरे
पास भेज दें, उसे पहले से ही बता दें कि मैं उसके काम से
बहुत खुश हूँ, और आपको, अफ्रानी...” अब
न्यायाधीश ने मेज़ पर पड़े पट्टे की जेब से हीरे की एक अँगूठी निकालकर गुप्तचर
सेवा के प्रमुख की ओर बढ़ाते हुए कहा, “यह यादगार के तौर पर
मेरी ओर से भेंट!”
अफ्रानी ने झुककर अभिवादन किया और विनयपूर्ण स्वर में कहा, “मैं बहुत सम्मानित हुआ, न्यायाधीश.”
“जिस टुकड़ी ने दफ़न-विधि को पूरा किया, उसे
कृपया इनाम दें. जिन खोजी टुकड़ियों ने जूडा के मामले में लापरवाही की, उसे सज़ा दीजिए और लेवी मैथ्यू को फ़ौरन मेरे पास भेजिए. मुझे येशू वाले
मामले में बहुत-सी बातें उससे पूछनी हैं.” “जैसी आज्ञा, न्यायाधीश,”
अफ्रानी ने कहा और वह अभिवादन करते हुए पीछे हटने लगा.
न्यायाधीश ने तालियाँ बजाकर ज़ोर से कहा, “मेरे
पास आओ! यहाँ दीप जलाओ!”अफ्रानी उद्यान में जा चुका था, और
पिलात की पीठ के पीछे सेवक के हाथों में दिया टिमटिमा रहा था. न्यायाधीश के सामने
मेज़ पर तीन दीप रख दिए गए और तभी चाँद की रात उद्यान में सरक गई, मानो अफ्रानी उसे अपने साथ ले गया हो. अफ्रानी के स्थान पर शक्तिशाली और
विशाल सेनाध्यक्ष के साथ बालकनी से एक अपरिचित व्यक्ति प्रविष्ट हुआ – छोटा और
कमज़ोर. न्यायाधीश की दृष्टि पढ़कर सेनाध्यक्ष फौरन ही उद्यान में गया और आँखों से
ओझल हो गया. न्यायाधीश ने इस आगंतुक को कुछ भयभीत मगर ललचाई आँखों से परखा. ऐसी
नज़रों से उसे देखते हैं, जिसके बारे में काफ़ी सुन रखा हो
और मानो उसके बारे में स्वयँ भी सोचते रहे हों और आखिरकार वह आ ही जाए. करीब चालीस
वर्षीय आगंतुक काला, चीथड़ों में लिपटा था, बदन पर सूखा कीचड़ था. वह भेड़िए जैसा, कनखियों से
देख रहा था. संक्षेप में वह बिल्कुल अप्रिय प्रतीत हो रहा था. उसे देखकर कहा जा
सकता था, मानो वह शहर का कोई भिखारी हो, जैसे मन्दिर की छत पर या गन्दे निचले शहर के भीड़भाड़ वाले बाज़ार में
बहुतायत से दिखाई देते हैं.
ख़ामोशी काफ़ी देर तक रही, जिसे पिलात
के पास लाए गए उस व्यक्ति के विचित्र व्यवहार ने ही तोड़ा. उसके चेहरे का रंग बदल
गया, वह लड़खड़ाया. यदि अपने गन्दे हाथ से उसने मेज़ के
किनारे को न थामा होता, तो वह गिर ही पड़ता.
“क्या बात है?” पिलात ने उससे पूछा.
“कुछ नहीं,” लेवी मैथ्यू ने जवाब दिया और ऐसी मुद्रा बना ली मानो कुछ
निगल रहा हो. उसकी कमज़ोर, नंगी, गन्दी
गर्दन कुछ फूलकर फिर सामान्य हो गई.
“तुम्हें हुआ क्या है, जवाब दो,” पिलात ने दुहराया. “मैं थक गया हूँ,” लेवी ने जवाब
दिया और निराशा से फर्श की ओर देखने लगा.
“बैठो,” पिलात ने उसे विनती के भाव से देखकर कुर्सी
की ओर इशारा कर दिया.
लेवी ने अविश्वास से पिलात की ओर देखा, वह कुर्सी की तरफ बढ़ा. डरते-डरते
उसने सुनहरे हत्थों को छुआ और फिर कुर्सी के बजाय उसके निकट ही फर्श पर बैठ गया.
“बताओ, तुम कुर्सी पर क्यों नहीं बैठे?” पिलात
ने पूछा.
“मैं गन्दा हूँ, मेरे बैठने से कुर्सी गन्दी हो
जाएगी.” लेवी ने ज़मीन की ओर देखते हुए जवाब दिया.
“अभी तुम्हें कुछ खाने को देंगे.”
“मैं खाना नहीं चाहता,” लेवी ने जवाब दिया.
“झूठ क्यों बोलते हो?” पिलात ने शांतिपूर्वक पूछा,
“तुमने पूरे दिन कुछ नहीं खाया है, शायद और भी
ज़्यादा. ठीक है, मत खाओ. मैंने तुम्हें इसलिए बुलाया कि
तुम्हारा चाकू देख सकूँ.”
“जब मुझे यहाँ ला रहे थे तो सिपाहियों ने उसे छीन लिया.” लेवी ने जवाब देकर
निराशापूर्वक कहा, “आप मुझे वह वापस दे दीजिए. मुझे उसे उसके
मालिक को लौटाना है. मैंने उसे चुराया था.”
“किसलिए?”
“ताकि रस्सियाँ काट सकूँ,” लेवी ने जवाब दिया.
“मार्क!” न्यायाधीश चीखा, और सेनाध्यक्ष स्तम्भों के नीचे प्रकट हुआ, “इसका चाकू मुझे दो.”
सेनाध्यक्ष ने कमर में बँधी दो म्यानों में से एक से गन्दा ब्रेड काटने
वाला चाकू निकाला और न्यायाधीश को दे दिया, और स्वयँ दूर हट गया.
“चाकू लिया कहाँ से था?”
“खेव्रोन्स्की दरवाज़े के पास वाली ब्रेड की दुकान से, जैसे ही शहर में दाखिल होते हैं...दाहिनी ओर...”
पिलात ने चौड़े फल की ओर देखा. उँगली से उसकी धार आज़माई, न
जाने क्यों, और कहा, “चाकू की फिक्र मत
करो, वह दुकान में लौटा दिया जाएगा. अब मुझे दूसरी बात बताओ:
मुझे तुम वह बस्ता दिखाओ जिसे तुम साथ लिए घूमते हो, और जिस
पर येशू के शब्द लिखे हैं!”
लेवी ने घृणा से पिलात की ओर देखा और इतनी कड़वाहट से मुस्कुराया कि उसका
चेहरा विकृत हो गया.
“सब कुछ छीन लोगे? उसकी आख़िरी निशानी भी, जो मेरे पास
है?” उसने पूछा.
“मैंने तुमसे यह नहीं कहा कि ‘दो!’, पिलात ने उत्तर दिया, “मैंने कहा, ‘दिखाओ!’”
लेवी ने अपने झोले में हाथ डाला और ताड़पत्र का एक टुकड़ा निकाला. पिलात ने
उसे लिया, खोला, लौ के सामने रखा और आँखें
सिकोड़कर आड़े-तिरछे स्याही के निशानों को समझने की कोशिश करने लगा. इन बल खाती
रेखाओं को समझना कठिन था, और पिलात आँखें सिकोड़े ताड़पत्र
पर झुककर रेखाओं पर उँगली फिराने लगा. आख़िरकार वह समझ गया कि ताड़पत्र किन्हीं
विचारों की, कहावतों की, किन्हीं
तिथियों की, कुछ निष्कर्षों की, कविताओं
की असम्बद्ध लड़ी है. कुछेक पिलात पढ़ पाया: ‘मृत्यु नहीं...कल हमने मीठे बसंती
खजूर खाए...’तनाव से चेहरा विकृत बनाते हुए पिलात ने आँखें सिकोड़कर आगे पढ़ा: ‘हम
जीवन की स्वच्छ नदी देखेंगे...मानवता पारदर्शी काँच से सूरज देखेगी...’
यहाँ पिलात काँप गया. ताड़पत्र की अंतिम पंक्तियों में उसने पढ़ा: ‘...महान
पाप...कायरता.’ पिलात ने ताड़पत्र लपेट दिया और झटके से लेवी की ओर बढ़ा दिया.
“लो,” उसने कहा और कुछ देर चुप रहकर आगे बोला, “जैसा कि मैं देख रहा हूँ, तुम पढ़े-लिखे मालूम होते
हो. तुम्हें बिना घर के, फटे चीथड़ों में घूमने की कोई
ज़रूरत नहीं है. केसारिया में मेरा एक बहुत बड़ा वाचनालय है, मैं बहुत अमीर हूँ, और तुम्हारी सेवाएँ लेना चाहता
हूँ. तुम पुराने लेखों को पढ़ोगे, समझाओगे और सम्भालकर
रखोगे. खाने-पहनने की कमी न होगी.”
लेवी उठकर खड़ा हो गया और बोला, “नहीं, मैं
नहीं जाना चाहता.”
“क्यों?” न्यायाधीश ने पूछा. उसका चेहरा स्याह पड़ गया था,
“तुम मुझसे नफ़रत करते हो? मुझसे डरते हो?”
वही कड़वी हँसी लेवी के मुख पर छा गई. वह बोला, “नहीं,
क्योंकि तुम मुझसे डरते रहोगे. उसे मार डालने के बाद मेरी ओर देखना
तुम्हारे लिए आसान नहीं होगा.”
“चुप रहो,” पिलात ने कहा, “पैसे ले लो.”
लेवी ने इनकार करते हुए सिर हिलाया.
न्यायाधीश ने फिर कहा, “मैं जानता हूँ, तुम अपने आपको येशू
का शिष्य समझते हो. मगर मैं तुमसे कहता हूँ, कि उसकी शिक्षा
को तुम ज़रा भी नहीं समझ पाए. अगर ऐसा होता तो तुम मुझसे ज़रूर कुछ न कुछ ले लेते.
याद करो, मरने से पहले उसने क्या कहा था – कि वह किसी पर भी
दोष नहीं लगा रहा है,” पिलात ने अर्थपूर्ण ढंग से उँगली ऊपर
उठाई, उसका चेहरा थरथराने लगा, “और वह
स्वयँ भी कुछ न कुछ ज़रूर ले लेता. तुम बहुत कठोर हो, मगर वह
कठोर नहीं था. तुम जाओगे कहाँ?”
लेवी अचानक मेज़ के नज़दीक आ गया. उस पर दोनों हाथ जमाकर खड़ा हो गया और
जलती हुई आँखों से न्यायाधीश की ओर देखकर फुसफुसाया, “न्यायाधीश, तुम
जान लो कि मैं येरूशलम में एक आदमी की हत्या करने वाला हूँ. मैं तुम्हें यह इसलिए
बता रहा हूँ, ताकि तुम जान लो कि खून की नदियाँ अभी और
बहेंगी.”
“मुझे भी मालूम है, कि बहेंगी,” पिलात ने जवाब दिया,
“तुमने अपनी बात से मुझे ज़रा भी विस्मित नहीं किया. बेशक तुम मुझे
ही मारना चाहते हो?”
“तुम्हें मारना मेरे लिए सम्भव न होगा,” लेवी ने जवाब दिया. दाँत पीसकर
मुस्कुराते हुए वह आगे बोला, “मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ कि
मैं यह भी अपने मन में लाऊँ, मगर मैं किरियाफ के जूडा के
टुकड़े कर दूँगा, मेरा शेष जीवन इसी कार्य को समर्पित होगा.”
न्यायाधीश की आँखों में संतोषभरी चमक दिखाई दी, और
उसने उँगली के इशारे से लेवी मैथ्यू को अपने और नज़दीक बुलाते हुए कहा, “यह तुम नहीं कर पाओगे, तुम इसके लिए परेशान भी न
होना. जूडा को आज ही रात को मार डाला गया है.”
लेवी उछल पड़ा. वहशीपन से देखते हुए वह चीख पड़ा, “किसने
किया है यह?”
“जलो मत, “दाँत दिखाते हुए पिलात ने जवाब दिया और उसने अपने हाथ मले,
“मुझे डर है, कि तुम्हारे अलावा भी उसके कई और
प्रशंसक थे.”
“यह किसने किया है?” लेवी ने फुसफुसाकर अपना सवाल दुहराया.पिलात ने उसे जवाब
दिया, “यह मैंने किया है.”
लेवी का मुँह खुला रह गया. उसने वहशीपन से न्यायाधीश की ओर देखा.पिलात ने
कहा, “यह
जो कुछ भी मैंने किया, बहुत कम है, मगर
किया है यह मैंने...” और आगे बोला, “तो, अब कुछ लोगे या नहीं?”
लेवी ने कुछ सोचकर नरम पड़ते हुए कहा, “मुझे कुछ कोरे ताड़पत्र दो.”
एक घण्टा बीता. लेवी महल में नहीं था. अब उषःकालीन स्तब्धता को केवल
पहरेदार के कदमों की आवाज़ ही भंग कर रही थी. चाँद शीघ्रता से बेरंग होता जा रहा
था, आकाश
के दूसरे छोर पर सुबह का तारा चमक रहा था. दीप कभी के बुझ चुके थे. बिस्तर पर लेटा
न्यायाधीश एक हाथ गाल के नीचे रखकर गहरी नींद सोया था, बेआवाज़
साँसें ले रहा था. उसके निकट सोया था बांगा.
इस तरह निसान माह की पन्द्रहवीं तिथि की सुबह का स्वागत किया जूडिया के
पाँचवें न्यायाधीश पोंती पिलात ने.
******
सत्ताईस
फ्लैट नम्बर 50 का अन्त
जब तक मार्गारीटा अध्याय के आखिरी शब्दों “... इस तरह निसान माह की
पन्द्रहवीं तिथि की सुबह का स्वागत किया जूडिया के पाँचवें न्यायाधीश पोंती पिलात
ने,” तक
पहुँची, सुबह हो चुकी थी.
विलो और लिंडेन की शाखों के झुरमुट से चिड़ियों की प्रसन्न उत्तेजित
चहचहाट सुनाई दे रही थी.
मार्गारीटा ने कुर्सी से उठकर आलस भरी अँगडाई ली और तभी उसे महसूस हुआ कि
उसका शरीर कितना थक चुका है और वह कितना सोना चाहती है. दिलचस्प बात यह थी कि
मार्गारीटा का दिल और दिमाग बिल्कुल ठीक-ठाक थे. उसके ख़याल इधर-उधर भटक नहीं रहे
थे, उसे ज़रा भी आश्चर्य नहीं हो रहा था कि रात उसने अत्यंत अद्भुत ढंग से
गुज़ारी है. शैतान के नृत्योत्सव में अपनी उपस्थिति की यादें उसे परेशान नहीं कर रही
थीं. वह इस बात से भी विस्मित नहीं थी कि किस आश्चर्यजनक तरीके से उसका मास्टर उसे
लौटा दिया गया था, कि अँगीठी से उपन्यास निकल आया था, कि उस तहख़ाने में सब कुछ अपनी पूर्व स्थिति में था, जहाँ से चुगलखोर अलाइज़ी मगारिच को निकाल दिया गया था. संक्षेप में वोलान्द
से हुई मुलाकात का उस पर कोई मानसिक असर नहीं हुआ. सब कुछ वैसा ही था जैसा होना
चाहिए था. वह बगल वाले कमरे में गई, इस बात का इत्मीनान
कर लिया कि मास्टर गहरी और शांत नींद में सोया है, अनावश्यक
टेबुल लैम्प बुझा दिया और स्वयँ भी सामने की दीवार से लगे दीवान पर लेट गई, जिस पर फटी पुरानी चादर पड़ी हुई थी. एक मिनट बाद ही उसकी आँख लग गई
और इस सुबह को उसने कोई सपना नहीं देखा. तहख़ाने के दोनों कमरे ख़ामोश थे, कॉन्ट्रेक्टर का छोटा सा मकान चुप था, उस बंद
गली में भी सब कुछ सुनसान था.
मगर इस समय, यानी शनिवार की सुबह मॉस्को के एक दफ़्तर वाली पूरी
मंज़िल जाग रही थी. बड़े, सिमेंट के चौक में खुलने वाली
उसकी खिड़कियाँ, जिन्हें इस समय बड़ी-बड़ी विशेषा
गाड़ियाँ हल्की-हल्की बुदबुदाहट के साथ ब्रशों की सहायता से साफ कर रही थीं, पूरी रोशनी से चमक रही थी और उगते हुए सूरज की रोशनी को काट रही थी.
पूरी मंज़िल वोलान्द वाले मामले की छानबीन में व्यस्त थी. दफ़्तर के दसियों
कमरों में रात भर बत्तियाँ जलती रही थीं.
असल में मामला पिछले दिन, शुक्रवार को ही प्रकाश में आ गया था, जब पूरी व्यवस्थापकों की टोली गायब हो जाने के बाद और काले जादू के उस
मशहूर शो के बाद हुई ऊटपटाँग घटनाओं के फलस्वरूप वेराइटी थियेटर को बंद कर देना
पड़ा था. मगर ख़ास बात यह थी कि तब से अब तक लगातार एक के बाद एक अजीबोग़रीब
घटनाओं की सूचना इस निद्राहीन मंज़िल पर आती जा रही थी.
अब विशेषज्ञ इस विचित्र मामले की सभी शैतानी, सम्मोहनकारी, चोरी-बेईमानी भरी, उलझन में डालने वाली, मॉस्को के विभिन्न भागों में घटने वाली घटनाओं को एक कड़ी में पिरोने का
प्रयत्न कर रहे थे.
सबसे पहला व्यक्ति, जिसे इस निद्राहीन, बिजली
की रोशनी से जगमगाती मंज़िल पर बुलाया गया, वह था
ध्वनिसंयोजक समिति का प्रमुख अर्कादी अपालोनविच सिम्प्लियारव.
शुक्रवार को भोजन के बाद उसके कामेन्नी पुल के निकट स्थित फ्लैट में घंटी
बजी और किसी पुरुष की आवाज़ ने अर्कादी अपालोनविच को टेलिफोन पर बुलाया. टेलिफोन
उठाते हुए उनकी पत्नी ने निराशा से बताया कि अर्कादी अपालोनविच की तबियत ख़राब है, इसलिए वे सो रहे हैं और टेलिफोन के निकट नहीं आ सकते. मगर अर्कादी अपालोनविच
को टेलिफोन के निकट आना ही पड़ा. यह पूछने पर कि अर्कादी अपालोनविच को कौन बुला
रहा है, आवाज़ ने संक्षेप में बताया कि वह कहाँ से बोल
रहा है.
“अभी...इसी क्षण...अभी...फ़ौरन...” आम तौर पर धृष्ट प्रमुख की पत्नी तीर की
तरह शयनकक्ष में जाकर अर्कादी अपालोनविच को सोफ़े पर से उठाने लगी, जहाँ वह सो रहा था और कल के शो से सम्बंधित नारकीय अनुभवों के स्मरण से
सिहर उठता था. रात का वह हंगामा, जिसमें सरातोव की उसकी
भतीजी को फ्लैट से निकाला गया था, उसे भुलाए नहीं भूल
रहा था.
सचमुच ही, एक सेकंड बाद तो नहीं, मगर
एक मिनट के बाद भी नहीं, अपितु पाव मिनट में ही अर्कादी
अपालोनविच बाएँ पैर में जूता पहने, सिर्फ कच्छे में
टेलिफोन के पास आकर उसमें बोला, “हाँ,यह मैं हूँ, सुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ.”
उसकी पत्नी, इस समय उन नीच और बेवफाई की हरकतों को भूलकर, जिनका दोषी अर्कादी अपालोनविच था, भयभीत चेहरे
से दरवाज़े से बाहर झाँककर गलियारे में देख लेती थी, और
हवा में जूते उछालकर फुसफुसा रही थी, “जूते पहनो, जूते...पैरों में सर्दी लग जाएगी,” जिस पर
अर्कादी अपालोनविच नंगा पैर हिलाकर बीबी को झिड़क रहा था और उसकी ओर वहशत भरी
आँखों से देखते हुए टेलिफोन में बड़बड़ाता रहा, “हाँ, हाँ, हाँ, मैं
समझ रहा हूँ...अभी निकल रहा हूँ.”
पूरी शाम अर्कादी अपालोनविच ने उसी मंज़िल पर गुज़ारी जहाँ जाँच-पड़ताल
जारी थी. तकलीफदेह बातचीत लम्बी खिंच रही थी...अत्यंत अप्रिय थी यह बातचीत. सब कुछ
सच-सच बताना पड़ा था, न केवल उस घृणित कार्यक्रम के बारे में और बॉक्स में
हुए झगड़े के बारे में, बल्कि बातों-बातों में वह भी
बताना पड़ा जो वाकई में ज़रूरी था; एलाखोव्स्काया मार्ग
पर रहने वाली मिलित्सा अन्द्रेयेव्ना पकोबात्का के बारे में, सरातोव वाली भतीजी के बारे में, और भी बहुत कुछ
जिसे बताते हुए अर्कादी अपालोनविच को अवर्णनीय दुःख हो रहा था.
ज़ाहिर है कि अर्कादी अपालोनविच ने जो एक बुद्धिमान और सुसंस्कृत व्यक्ति
था, जो उस ऊलजलूल शो का गवाह था, जो हर बात भली
भाँति परख सकता था, इस शो का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया; उस रहस्यमय जादूगर का जो नकाब पहने था, और उसके
दोनों साथियों का भी; उसे अच्छी तरह याद था कि उस
जादूगर का नाम वोलान्द था. इन गवाहियों ने खोज को आगे बढ़ाने में काफी मदद की.
अर्कादी अपालोनविच की गवाहियों की अन्य लोगों द्वारा बताई गई बातों से तुलना करने
पर, ख़ासकर ऐसी महिलाओं की बातों से जो शो के बाद काफी
परेशान हुई थीं (वह, जो बैंगनी रंग के अंतर्वस्त्रों
में थी, जिसने रीम्स्की को चौंका दिया था, और, और भी अनेक औरतें), पत्रवाहक कार्पव की कथा से जो सदोवया
के फ्लैट नं. 50 में भेजा गया था – यह बात निश्चित हो गई, कि किस जगह पर इन सब चमत्कारों के लिए दोषी व्यक्ति को खोजा जा सकता है.
फ्लैट नं. 50 में भी गए, एक बार नहीं, कई बार और न
केवल उसे भली भाँति देखा गया, बल्कि दीवारों को भी
ठोक-ठोककर देखा गया , अँगीठी से ऊपर जाते धुएँ के
पाइप तलाशे गए, गुप्त स्थान ढूँढ़े गए, मगर इन सबसे कोई नतीजा नहीं निकला और एक भी बार उस फ्लैट में कोई भी नहीं
मिला, हालाँकि यह बात लगातार महसूस हो रही थी कि फ्लैट
में कोई है ज़रूर; जबकि वे सभी व्यक्ति जो मॉस्को में
आने वाले विदेशियों के बारे में जानकारी रखते थे बता रहे थे कि वोलान्द नामक कोई
भी काले जादू का जादूगर मॉस्को में नहीं है और हो भी नहीं सकता.
सचमुच, उसने आने पर कहीं भी अपना नाम नहीं लिखवाया था, किसी को अपना पासपोर्ट या अन्य कोई दस्तावेज़ नहीं दिखाया था; कोई अनुबंध, कोई समझौता...कुछ भी नहीं और किसी
ने भी उसके बारे में कुछ भी सुना नहीं था! थियेटरों की प्रोग्राम संयोजन समिति का
प्रमुख कितायत्सेव कसम खाकर, हाथ जोड़कर कह रहा था कि
गायब हो चुके स्त्योपा लिखादेयेव ने वोलान्द के प्रोग्राम से सम्बंधित कोई भी
प्रस्ताव पुष्टि के लिए उसके पास नहीं भेजा था, न ही उस
वोलान्द के आगमन के बारे में कितायत्सेव को उसने कोई टेलिफोन ही किया था. इसलिए
कितायत्सेव को कुछ समझ में नहीं आ रहा और न ही कुछ मालूम है कि स्त्योपा वेराइटी
थिएटर में ऐसे कार्यक्रम का संयोजन कैसे कर सका. जब यह बताया गया कि अर्कादी अपालोनविच
ने अपनी आँखों से इस जादूगर का कार्यक्रम देखा है, तो
कितायत्सेव ने हाथ नचाते हुए आकाश की ओर नज़रें गडा दीं. कितायत्सेव की पारदर्शी
काँच की तरह आँखों की ओर देखने मात्र से ही यह पता चलता था कि वह निर्दोष और साफ़
है.
वही प्रोखर पित्रोविच , मुख्य दर्शक समिति का प्रमुख...
बातों-बातों में यह भी बता दूँ कि जैसे ही पुलिस ने उसके कमरे में प्रवेश
किया, वह वापस अपने सूट में लौट आया,जिससे हैरान, परेशान अन्ना रिचार्दोव्ना को बहुत प्रसन्नता हुई और बेकार में ही
उत्तेजित हो रही पुलिस को हुआ चरम अविश्वास. और भी : अपनी जगह पर वापस आने के बाद प्रोखर
पित्रोविच ने उन सभी निर्णयों की पुष्टि
कर दी, जिन्हें उसकी अल्पकालीन अनुपस्थिति के दौरान
उसके सूट ने लिया था.
...तो वही प्रोखर पित्रोविच कह रहा
था, कि वह किसी वोलान्द के बारे में कुछ नहीं जानता.
और लीजिए जनाब, आप चाहें या ना चाहें, एक
बड़ी ही अजीब बात सामने आई : हज़ारों दर्शकों ने, वेराइटी
के कर्मचारियों ने, और उच्च शिक्षा प्राप्त सिम्प्लियारव
अर्कादी अपालोनविच ने भी इस जादूगर और उसके दुष्ट सहायकों को देखा था, मगर उसे ढूँढ पाना असम्भव प्रतीत हो रहा था. तो क्या मैं आपसे पूछ सकता
हूँ कि क्या वह अपने घिनौने प्रदर्शन के बाद फ़ौरन ज़मीन में समा गया, या फिर जैसा कि कुछ लोग समझते हैं, वह मॉस्को आया ही
नहीं? मगर, अगर पहली बात पर विश्वास
किया जाए तो यह भी स्पष्ट है कि वह धरती में समाते-समाते अपने साथ वेराइटी की पूरी
प्रशासनिक टीम को ले गया; और यदि दूसरी बात सच है, तो क्या यह साबित नहीं हो जाता, कि इस बदनाम थियेटर
का प्रशासन, कोई भौंडी हरकत करके (केवल कमरे की टूटी हुई
खिड़की और तुज्बूबेन के विचित्र व्यवहार को ही याद कीजिए) मॉस्को से यूँ गायब हुआ
जैसे गधे के सिर से सींग.
जो इस खोज कार्य का नेतृत्व कर रहा था, उसकी तारीफ करनी ही होगी. गायब हुए
रीम्स्की को विस्मयकारी शीघ्रता से ढूँढ़ निकाला गया. केवल सिनेमा हॉल के निकट के
टैक्सी स्टैण्ड के पास तुज़्बूबेन के व्यवहार का समय के कुछ आँकड़ों से मिलान करना
पड़ा, जैसे कि शो कब ख़त्म हुआ और रीम्स्की कब गायब हुआ,
जिससे फौरन लेनिनग्राद तार भेजा जा सके. एक घण्टे बाद जवाब आया
(शुक्रवार की शाम को), कि रीम्स्की ‘अस्तोरिया’ होटल के चार
सौ बारह नम्बर के कमरे में पाया गया; चौथी मंज़िल पर उस कमरे
की बगल में जहाँ मॉस्को के एक थियेटर का प्रमुख कार्यक्रम संयोजक रुका था, जो इस समय लेनिनग्राद के दौरे पर था; उसी कमरे में,
जहाँ, यह सर्वविदित है कि भूरे नीले रंग का
सुनहरा चमकदार फर्नीचर है और खूबसूरत स्नानगृह है.
अलमारी में छिपकर बैठे रीम्स्की को ‘अस्तोरिया’ के चार सौ बारह नम्बर के
कमरे से बरामद किया गया, उसे गिरफ्तार करके लेनिनग्राद में ही उससे पूछताछ की गई.
जिसके बाद मॉस्को टेलिग्राम भेजा गया कि वित्तीय डाइरेक्टर किन्हीं भी सवालों का
जवाब देने की स्थिति में नहीं है और सिर्फ यही कह रहा है कि उसे बन्द बुलेटप्रूफ
कमरे में सशस्त्र पुलिस के कड़े पहरे के बीच रखा जाए. मॉस्को से टॆलिग्राम के ही
द्वारा यह आज्ञा दी गई कि रीम्स्की को कड़े पहरे में मॉस्को लाया जाए, जिसके फलस्वरूप शुक्रवार की ही शाम को ऐसे पहरे के बीच वह रेल से मॉस्को
के लिए चल पड़ा.
शुक्रवार की ही शाम को लिखादेयेव का भी पता चल गया. सभी शहरों में
लिखादेयेव का वर्णन करने वाले टेलिग्राम भेज दिए, और याल्टा से जवाब आया था कि
लिखादेयेव याल्टा में था, मगर हवाई जहाज़ से मॉस्को के लिए
चल चुका है.
एक ही व्यक्ति जिसका अभी तक पता नहीं चला था, वह था वरेनूखा. पूरे मॉस्को के लिए
परिचित वह थियेटर का संचालक मानो पानी में डूब गया था.
साथ ही वेराइटी के बाहर, मॉस्को के अन्य स्थानों पर घटित घटनाओं की भी जाँच करनी
थी. ‘सुन्दर सागर’ वाली घटना के पीछे क्या कारण था, जिसे
दर्शक कमिटी के सभी कर्मचारी गा रहे थे, यह भी समझाना था (यह
बता दूँ कि प्रोफेसर स्त्राविन्स्की ने कोई इंजेक्शन देकर दो घण्टों के अन्दर
उन्हें ठीक कर दिया था), उन व्यक्तियों का पता लगाना ज़रूरी
था जो पैसों के नाम पर दूसरे व्यक्तियों या संस्थाओं को शैतान जाने क्या दे रहे थे,
और साथ ही उनका भी जिन्हें इन हरकतों से नुक्सान उठाना पड़ा था.
इन सभी घटनाओं में सबसे अधिक अप्रिय, लफ़ड़े वाली और न सुलझ सकने वाली
घटना थी, ग्रिबायेदव हॉल में कॉफ़िन में रखे साहित्यिक
बेर्लिओज़ के मृत शरीर से उसके सिर का चुरा लिया जाना., जो
दिन-दहाड़े हुई थी.
बारह व्यक्तियों की जाँच समिति पूरे मॉस्को में बिखरे इस कठिन मामले की
विभिन्न कड़ियाँ समेटने में लगी थी.
एक जाँचकर्ता प्रोफेसर स्त्राविन्स्की के अस्पताल में पहुँच गया और सबसे
पहले उसने उन लोगों की लिस्ट दिखाने के लिए कहा, जो पिछले तीन दिनों में अस्पताल में
लाए गए थे . इस तरह निकानोर इवानविच बसोय और मुसीबत का मारा सूत्रधार, जिसका सिर उखाड़ दिया गया था, नज़र आए. उनकी तरफ,
न जाने क्यों, काफी कम ध्यान दिया गया. अब यह
साबित करना आसान था कि ये दोनों एक ही गुट का शिकार हुए थे, जिसका
नेतृत्व वह रहस्यमय जादूगर कर रहा था. मगर इवान निकलायेविच बेज़्दोम्नी ने
जाँचकर्ता को काफ़ी आकर्षित किया.
इवानूश्का के कमरे नं. 117 का दरवाज़ा शुक्रवार की शाम को खुला और एक गोल
चेहरे वाला ख़ामोश, नर्म स्वभाव का नौजवान, जो बिल्कुल
जाँचकर्ता जैसा नहीं लगता था, जबकि वह मॉस्को का एक बेहतरीन
जासूस था, कमरे में आया. उसने पलंग पर लेटॆ नौजवान की ओर
देखा जिसके चेहरे का रंग उड़ चुका था और गाल पिचक गए थे. उस नौजवान की आँखों में
झाँक रही थी अपने चारों ओर हो रही हलचल के प्रति पूर्ण उदासीनता. कभी ये आँखें
कहीं दूर, आसपास के वातावरण से ऊपर, तो
कभी अपने आप के ही अन्दर झाँक रही थीं.
जाँचकर्ता ने बड़े प्यार से अपना परिचय दिया और बोला कि वह इवान निकलायेविच
से परसों पत्रियार्शी पर हुई घटनाओं के बारे में पूछताछ करने आया है.
ओह, इवान कितना खुश हो जाता यदि यह जासूस उसके पास पहले आया
होता, कम से कम गुरुवार की रात को, जब
इवान जी तोड़ कोशिश कर रहा था कि कोई उसकी बात सुन ले. अब तो उस सलाहकार को पकड़ने
की उसकी इच्छा ही मर चुकी थी; अब तो उसे किसी के पीछे भागने
की ज़रूरत नहीं थी, उसके पास वे खुद ही चलकर आए थे यह जानने
के लिए कि बुधवार की शाम को क्या हुआ था.
मगर, बेर्लिओज़ की मृत्यु के बाद से अब तक, इवानूश्का एकदम बदल गया था. वह जासूस के सभी प्रश्नों का उत्तर देने के
लिए ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो गया, मगर इवान के चेहरे और उसके
लहज़े से उदासीनता झाँक रही थी. अब कवि को बेर्लिओज़ का भविष्य परेशान नहीं कर रहा
था.
जाँचकर्ता के आने से पूर्व इवान लेटे-लेटे ऊँघ रहा था और उसकी आँखों के
सामने कई दृश्य तैर गए. जैसे कि उसने देखा एक विचित्र, समझ
में न आने वाला, अस्तित्वहीन शहर...उसमें संगमरमर के ढेर,
जीर्ण-शीर्ण, सूरज की रोशनी में चमकती छतें;
अन्तोनियो की काली, उदास, और बेदर्द मीनार; पश्चिम की पहाड़ी पर खड़ा प्रासाद
जिस पर लगभग छत तक घनी हरी बेलें लटकी हुई थीं; डूबते सूरज
की रोशनी में दहकते ताँबे के बुत, जो इस हरियाली के ऊपर खड़े
थे. उसने प्राचीन शहर की दीवारों के नीचे चलते हुए कवच पहने रोमन कमाण्डरों को भी
देखा.
इस ऊँघती हुई स्थिति में इवान के सामने आया कुर्सी पर स्थिर बैठा व्यक्ति, सफ़ाचट
दाढ़ी, पीले, फूले चेहरे वाला; लाल किनार वाला सफ़ेद अंगरखा पहने; घृणा से इस पराए,
फले-फूले उद्यान की ओर देखता हुआ. इवान ने वीरान पीली पहाड़ी को भी
देखा जिस पर खाली वध-स्तम्भ गड़े थे.
और इसलिए पत्रियार्शी तालाब के किनारे हुई घटना में अब कवि इवान
बेज़्दोम्नी को कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी.
“बताइए तो, इवान निकलायेविच, आप
स्वयँ उस घुमौने दरवाज़े से कितनी दूर थे, जब बेर्लिओज़
फिसलकर ट्राम के नीचे आया?”
इवान के होठों पर मुश्किल से समझ में आने वाली उदासीन मुस्कुराहट तैर गई और
वह बोला, “मैं काफी दूर था.”
“और वह चौख़ाने वाला लम्बू दरवाज़े के निकट ही था?”
“नहीं, वह पास ही पड़ी एक बेंच पर बैठा था.”
“आप को अच्छी तरह याद है, कि वह घुमौने दरवाज़े पर उस
वक़्त पहुँचा, जब बेर्लिओज़ गिर चुका था?”
“याद है. नहीं पहुँचा. वह पसरकर बैठा था.”
ये जाँचकर्ता के अंतिम प्रश्न थे. इसके बाद वह उठा, इवान
की ओर हाथ बढ़ाकर उसके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना की और यह विश्वास भी प्रकट
किया कि शीघ्र ही उसकी कविताएँ पढ़ेगा.
“नहीं,” इवान ने हौले से जवाब दिया, “मैं अब और कविताएँ नहीं लिखूँगा.”
जाँचकर्ता शिष्टतापूर्वक मुस्कुराया, उसने कहा कि उसे विश्वास है कि कवि
अभी निराशाजनक मनःस्थिति में है, मगर यह शीघ्र ही गुज़र
जाएगी.
“नहीं,” इवान ने प्रत्युत्तर दिया, वह जाँचकर्ता की ओर न देखकर दूर बुझते हुए क्षितिज की ओर देख रहा था,
“यह स्थिति कभी नहीं गुज़रेगी. वे कविताएँ, जो
मैंने लिखी थीं, - बुरी थीं, और अब यह
बात मैं समझ गया हूँ.”
जासूस इवान से अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करके वहाँ से चला गया.
अंत से आरंभ तक घटनाओं के सिरों को पकड़ते-पकड़ते वह उस उद्गम तक पहुँच गया था, जहाँ
से यह सिलसिला शुरू हुआ था. जासूस को यकीन हो गया था कि ये घटनाएँ पत्रियार्शी पर
हुई हत्या से आरम्भ हुई थीं. बेशक, मॉसोलित के अभागे प्रमुख
को ट्राम के नीचे न तो इवानूश्का ने, न ही चौखाने वाले लम्बू ने धकेला था. उसके ट्राम के पहियों के नीचे आने के पीछे
इनमें से एक भी कारणीभूत नहीं था. मगर जासूस को यह विश्वास ज़रूर था कि बेर्लिओज़
ने ट्राम के नीचे अपने आपको फेंक दिया (या वह उसके नीचे गिर गया), क्योंकि वह सम्मोहन की स्थिति में था.
हाँ, सुबूत काफ़ी इकट्ठे हो चुके थे, यह
भी ज्ञात हो चुका था कि किसे पकड़ना है और कहाँ पकड़ना है. मगर बात यह थी कि
पकड़ना सम्भव ही नहीं हो पा रहा था. उस त्रिवार शापित फ्लैट नं. 50 में, अवश्य ही, हम फिर से दुहराएँगे, कोई मौजूद था. कभी-कभी इस फ्लैट से टेलिफोन की घंटियों का भर्राई या
चिरचिरी आवाज़ में जवाब दिया जाता, कभी-कभी फ्लैट की खिड़की
खोली जाती; कमाल की बात यह थी कि उससे हार्मोनियम की आवाज़
सुनाई देती. मगर फिर भी, हर बार, जब
उसमें कोई जाता, तो वहाँ किसी को न पाता; और वहाँ कई बार, दिन के अलग-अलग वक़्त पर गए. फ्लैट
में जाली लेकर गए, सभी कोनों की जाँच की गई. यह फ्लैट काफी
समय से सन्देहास्पद बना हुआ था. न केवल उस रास्ते पर नज़र रखी जा रही थी, जो गली के नुक्कड़ से आँगन तक आता था, बल्कि गुप्त
दरवाज़े की भी निगरानी की जा रही थी. इतना ही नहीं, छत पर
निकलने वाली धुएँ की चिमनियों के पास भी पहरा लगा दिया गया था. हाँ, फ्लैट नं. 50 शरारतें किए जा रहा था, मगर उसके साथ
कुछ भी करना असम्भव हो गया था.
इस तरह यह काम लम्बा खिंचता गया, शुक्रवार से शनिवार आधी रात तक,
जब सामंत मायकेल अपनी शाम की पार्टियों वाली पोषाक पहने, चमकीले जूते डाले मेहमान बनकर फ्लैट नं.50 में जा रहा था. सुनाई पड़ रहा
था कि सामंत को किस तरह फ्लैट के अन्दर लिया गया. इसके ठीक दस मिनट बाद, बगैर घण्टी बजाए, फ्लैट को छान मारा गया, मगर उसमें मेज़बान मालिक मिला ही नहीं. आश्चर्य की बात तो यह थी कि सामंत
मायकेल का भी वहाँ कोई नामोनिशान नहीं मिला.
तो इस तरह, जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, मामला
शनिवार सुबह तक खिंच गया. अब इसमें कुछ और नए रोचक तथ्य जुड़ गए. मॉस्को के हवाई
अड्डे पर एक नन्हा हवाई जहाज़ उतरा. वह क्रीमिया से आया था. अन्य मुसाफिरों के साथ
उसमें से एक विचित्र मुसाफिर उतरा.. यह एक नौजवान नागरिक था, दाढ़ी बढ़ी हुई, तीन दिनों से बिना नहाए, सूजी-सूजी भयभीत आँखों से देखता हुआ; बिना सामान के;
वेशभूषा भी अजीब ही थी. नागरिक लम्बी, भेड़ की
खाल की हैट में, रात में पहनने वाली कमीज़ के ऊपर सिर्फ एक
चोला-सा पहने था, और रात में ही पहनने वाले नीले ख़ूबसूरत
जूतों में था. जैसे ही वह हवाई जहाज़ से सटी सीढ़ी से नीचे उतरा, उसके पास अफसर पहुँचे. इस नागरिक का इंतज़ार हो रहा था, और कुछ ही देर बाद इस अविस्मरणीय नौजवान, स्तिपान बग्दानोविच
लिखादेयेव को जाँच कमिटी के सम्मुख प्रस्तुत किया गया. उसने नई ही जानकारी दी. अब
स्पष्ट हो गया, कि वोलान्द कलाकार के रूप में वेराइटी में
घुस गया, स्त्योपा लिखादेयेव को सम्मोहित करके; और फिर इसी स्त्योपा को उसने चालाकी से मॉस्को से बाहर फेंक दिया – भगवान
ही जाने कितने किलोमीटर दूर. इस तरह जानकारी तो बढ़ गई, मगर
इससे काम तो आसान नहीं हुआ, बल्कि माफ़ करना, कुछ और ही जटिल हो गया, क्योंकि यह साफ समझ में आ
रहा था कि जो व्यक्ति इस तरह के मज़ाक कर सकता है, जिसका
शिकार स्तिपान बग्दानोविच हुआ था, उसे पकड़ना आसान नहीं होगा. इस दौरान लिखादेयेव को उसी की प्रार्थना पर,
एक सुरक्षित कमरे में बन्द रखा गया. अब जाँच समिति के सामने प्रकट
हुआ वरेनूखा. उसे अभी-अभी अपने फ्लैट से गिरफ़्तार किया गया था, जहाँ गुमनामी के दो दिन बिताकर वह लौटा था.
अजाज़ेला को दिए गए आश्वासन के बावजूद
कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, व्यवस्थापक ने झूठ से ही शुरुआत की. हालाँकि इसके लिए उसे
अत्यंत कठोर दण्ड देना ठीक नहीं, क्योंकि अजाज़ेला ने उसे
टेलिफोन पर झूठ बोलने और दादागिरी करने से मना किया था और इस वक्त व्यवस्थापक
टेलिफोन पर नहीं बोल रहा था. आँखें झपकाते हुए इवान सावेल्येविच ने बताया कि
गुरुवार को दिन में थियेटर के अपने कमरे में अकेले बैठकर उसने खूब शराब पी,
उसके बाद वह कहीं चला गया, मगर कहाँ –
यह उसे याद नहीं. कहीं और भी पुरानी शराब पी, मगर कहाँ – याद
नहीं. फिर कहीं गिर पड़ा, किसी आँगन के पास, मगर कहाँ – यह भी याद नहीं. मगर जब व्यवस्थापक से कहा गया कि वह अपनी इस
बेवकूफी भरी ऊटपटाँग हरकत से एक महत्वपूर्ण मामले की जाँच में बाधा डाल रहा है और
इसकी ज़िम्मेदारी उसी पर होगी, तो वरेनूखा रो पड़ा और
थरथराते गले से कसमें खाते हुए उसने फुसफुसाते हुए कहा कि झूठ सिर्फ डर के मारे
बोल रहा है, क्योंकि उसे डर है कि वोलान्द की मण्डली उससे
ज़रूर बदला लेगी, जिनके हाथों में वह पहले ही पड़ चुका है,
और वह विनती करता है, प्रार्थना करता है कि
उसे बुलेट प्रूफ सुरक्षित कमरे में बन्द रखा जाए.
“छिः तुम, शैतान! भाड़ में जाएँ ये और इनका
बुलेटप्रूफ कमरा!” जाँच समिति का एक सदस्य गुस्से से बड़बड़ाया.
“दुष्टों ने इन सबको बुरी तरह डरा दिया है,” उस जासूस ने कहा जो इवानूश्का से
मिलकर आया था.
वरेनूखा को जैसे भी बन पड़ा, शांत किया गया. उससे कहा गया कि उसकी
यहाँ भी पूरी सुरक्षा की जाएगी. तब जाकर पता चला कि उसने कोई शराब-वराब नहीं पी थी,
बल्कि उसे दो लोगों ने मिलकर मारा था., जिनमें
एक के बाल लाल थे, दाँत बाहर निकला था एवँ दूसरा मोटा...
“आह, बिल्ले जैसा?”
“हाँ, हाँ, हाँ,” उसने भय के मारे मरते हुए इधर-उधर देखकर फुसफुसाते हुए कहा. व्यवस्थापक ने
विस्तारपूर्वक बताया कि उसने फ्लैट नं. 50 में रक्त पिशाच के रूप में दो दिन कैसे
बिताए, और कैसे वह वित्तीय डाइरेक्टर रीम्स्की की मृत्यु का
कारण होते-होते बचा...
इसी समय रीम्स्की को अन्दर लाया गया, जिसे लेनिनग्राद से रेल में लाया गया
था. मगर वह भय से थरथर काँपता, मानसिक रूप से संतुलन खो बैठा
सफ़ेद बालों वाला बूढ़ा, जिसे देखकर पहले के रीम्स्की को
पहचानना बड़ा मुश्किल हो रहा था, किसी भी कीमत पर सच बोलना
नहीं चाह रहा था. वह अपने ज़िद्दीपने से अड़ा रहा. रीम्स्की ने बताया कि उसने अपने
कमरे की खिड़की में किसी हैला को नहीं देखा और न ही वरेनूखा को देखा; उसकी तो सिर्फ तबियत बिगड़ गई थी और स्मृतिविभ्रम में वह लेनिनग्राद चला
गया था. यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि इन सब बातों के बाद वित्तीय डाइरेक्टर ने
उसे बुलेटप्रूफ कमरे में, सशस्त्र सुरक्षा के बीच रखने की
प्रार्थना की.
अन्नूश्का को उस समय गिरफ़्तार किया गया जब वह अर्बात के एक
डिपार्टमेंटल स्टोर में कैशियर को दस डॉलर्स का नोट थमा रही थी. अन्नूश्का की
कहानी – सदोवया बिल्डिंग की खिड़की से उड़कर बाहर जाते हुए लोगों के बारे में और
घोड़े की नाल के बारे में, जिसे अन्नूश्का के अनुसार उसने इसलिए उठाया था कि उसे
पुलिस में जमा कर सके, बड़े ध्यान से सुनी गई.
“क्या घोड़े की नाल सचमुच सोने की थी और उस पर हीरे जड़े हुए थे?” अन्नूश्का से पूछा गया.
“जैसे कि मैं हीरे-वीरे नहीं पहचानती,” अन्नूश्का ने
जवाब दिया.
“मगर जैसे आपने बताया, उसने आपको दस रूबल्स के नोट
दिए थे.”
“जैसे कि मैं दस रूबल के नोट नहीं जानती!” अन्नूश्का ने कहा.
“मगर वे डॉलर्स में कब बदल गए?”
“मैं कुछ नहीं जानती, कहाँ के डॉलर्स, कैसे डॉलर्स, मैंने कोई डॉलर-वॉलर नहीं देखे,”
अन्नूश्का ने उत्तेजित होकर कहा, “हम अपने
अधिकार का उपयोग कर रहे थे! हमें इनाम दिया गया , हम कपड़ा
ख़रीदने गए...” और उसने कहा कि वह हाउसिंग सोसाइटी के किसी भी काम के लिए
ज़िम्मेदार नहीं है, जिसने पाँचवी मंज़िल पर शैतानों को पाल
रखा है, जिससे जीना मुश्किल हो रहा है.
अब जाँचकर्ता ने पेन के इशारे से उसे चुप रहने को कहा, क्योंकि
वह सबको बहुत तंग कर चुकी थी. उसे हरे कागज़ पर बिल्डिंग से बाहर जाने का
अनुमति-पत्र लिखकर दे दिया. इसके बाद सबको राहत देती हुई अन्नूश्का उस बिल्डिंग से
गायब हो गई.
इसके बाद अन्य अनेक लोगों से पूछताछ की गई, जिनमें निकालाय इवानविच भी था,
जो अपनी ईर्ष्यालु बीवी की बेवकूफी के कारण पकड़ा गया, जिसने सुबह पुलिस में रिपोर्ट लिखाई थी, कि उसका पति
गायब हो गया है. निकालाय इवानविच के बयान से समिति को कोई आश्चर्य नहीं हुआ,
जब उसने शैतान के नृत्योत्सव में गुज़ारी गई रात के बारे में फूहड़-सा
सर्टिफिकेट पेश किया. अपनी कहानियों में कि वह कैसे हवा में उड़ते हुए अपनी पीठ पर
मार्गारीटा निकालायेव्ना की नग्न नौकरानी
को न जाने कहाँ, सब शैतानों के साथ नहाने के लिए नदी पर ले
गया, और इससे पूर्व कैसे उसने खिड़की में नग्न मार्गारीटा निकालायेव्ना
को देखा – निकालाय इवानविच सत्य से कुछ
दूर हट गया था. उदाहरण के लिए, उसने यह बताना ज़रूरी नहीं
समझा कि वह फेंके हुए गाऊन को उठाकर शयनकक्ष में गया था और उसने नताशा को ‘वीनस’
की उपमा दी थी. उसके शब्दों से यह निष्कर्ष निकलता था कि नताशा खिड़की के बाहर
उड़ी, उस पर सवार हो गई और उसे मॉस्को से बाहर ले गई.
“बल प्रयोग की सम्भावना से डरकर मुझे उसकी आज्ञा का पालन करना पड़ा,”
निकालाय इवानविच बता रहा था. उसने अपनी व्यथा-कथा यह यह प्रार्थना
करते हुए समाप्त की कि उसकी पत्नी को इस बारे में कुछ न बताया जाए.
निकालाय इवानविच के बयान से यह सिद्ध करना सम्भव हो सका कि मार्गारीटा निकालायेव्ना
और उसकी नौकरानी नताशा, बिना
कोई सुबूत छोड़े गायब हो गई हैं. उन्हें ढूँढ़ने के उपाय किए गए.
इस तरह एक भी क्षण को रुके बिना चलती रही इस पूछताछ में ही शनिवार की सुबह
हो गई.. शहर में इस दौरान अनेक अविश्वसनीय अफ़वाहें जन्म लेती रहीं, फैलती
रहीं, जिनमें रत्ती भर सच को मन भर झूठ से सजाया गया था. कहा
जा रहा था कि वेराइटी में शो हुआ था जिसके बाद सभी दो हज़ार दर्शक नंगे होकर
उछलते-कूदते सड़क पर आ गए, कि झूठे नोट छापने वाली प्रेस का सदोवया
रास्ते पर पता चला है, कि किसी मंडली ने मनोरंजन विभाग के
पाँच व्यक्तियों का अपहरण कर लिया है मगर पुलिस ने उन सबको ढूँढ़ लिया है, और...और भी बहुत कुछ, जिसे दुहराने में कोई लाभ नहीं
है.
तब तक दोपहर के खाने का वक़्त हो गया, और तब वहाँ, जहाँ
जाँच चल रही थी, टेलिफोन की घण्टी बज उठी . सदोवया से खबर
मिली कि वह शापित फ्लैट फिर से जीवन के चिह्न प्रदर्शित कर रहा है. यह कहा गया कि
अन्दर से उसकी खिड़कियाँ खोली गईं, उसमें से पियानो बजने की
और गाने की आवाज़ आई, और खिड़की की सिल पर धूप सेंकते काले
बिल्ले को देखा गया.
लगभग चार बजे, गर्मियों की उस दोपहर में, सरकारी
यूनिफ़ॉर्म पहने एक बहुत बड़ा आदमियों का दल तीन गाड़ियों से सदोवया की बिल्डिंग
नं. 302 के नज़दीक उतरा. यह बड़ा दल दो छोटॆ दलों में बँट गया, जिनमें से एक, गली के मोड़ से आँगन में होते हुए छठे
प्रवेश द्वार में घुसा; और दूसरे ने अक्सर बन्द रहने वाला
छोटा दरवाज़ा खोला, जो चोर दरवाज़े तक ले जाता था. ये दोनों
दल अलग-अलग सीढ़ियों से फ्लैट नं. 50 की ओर चले.
इस समय करोव्येव और अजाज़ेला – करोव्येव अपनी हमेशा की वेषभूषा में था, न कि
उत्सव वाले काले फ्रॉक में – डाइनिंग हॉल की मेज़ पर बैठे नाश्ता कर रहे थे.
वोलान्द अपनी आदत के मुताबिक, शयन-कक्ष में था, और बिल्ला कहाँ था यह हमें मालूम नहीं, मगर रसोईघर
से आती बर्तनों की खड़खड़ से यह अन्दाज़ लगाया जा सकता था कि बिगिमोत वहीं है,
कुछ शरारत करते, अपनी आदत से बाज़ न आते हुए.
“सीढ़ियों पर यह कदमों की आवाज़ कैसी है?” करोव्येव ने काली कॉफी में पड़े चम्मच से खेलते हुए पूछा.
“यह हमें गिरफ़्तार करने आ रहे हैं,” अजाज़ेला ने जवाब
दिया और कोन्याक का एक पैग पी गया.
“आ...अच्छा, अच्छा,” करोव्येव ने इसके जवाब में कहा.
अब तक सीढ़ियाँ चढ़ने वाले तीसरी मंज़िल पर पहुँच चुके थे. वहाँ पानी का नल
ठीक करने वाले दो प्लम्बर बिल्डिंग गरम करने वाले पाइप की मरम्मत कर रहे थे. आने
वालों ने अर्थपूर्ण नज़रों से पाइप ठीक करने वालों की ओर देखा.
“सब घर पर ही हैं,” उनमें से एक नल ठीक करने वाला
बोला, और हथौड़े से पाइप पर खट्खट् करता रहा.
तब आने वालों में से एक ने अपने कोट की जेब से काला रिवॉल्वर निकाला और
दूसरे ने, जो उसके निकट ही था, निकाली ‘मास्टर
की’. फ्लैट नं. 50 में प्रवेश करने वाले आवश्यकतानुसार हथियारों से लैस थे. उनमें
से दो की जेबों में थीं आसानी से मुड़ने वाली महीन, रेशमी
जालियाँ, और एक के पास था – बड़ा-सा चिमटा, तो दूसरा लिए था – मास्क और क्लोरोफॉर्म की नन्ही-नन्ही कुप्पियाँ.
एक ही सेकण्ड में फ्लैट नं. 50 का दरवाज़ा खुल गया और सभी आए हुए लोग
प्रवेश-कक्ष में घुस गए. रसोई के धम्म से बन्द हुए दरवाज़े ने यह साबित कर दिया कि
दूसरा गुट भी ठीक समय पर चोर-दरवाज़े से फ्लैट के अन्दर दाखिल हो चुका है.
इस समय शत-प्रतिशत नहीं तो कुछ अंशों में सफलता मिलती दिखाई दी. फौरन सभी
कमरों में ये लोग बिखर गए, और कहीं भी, किसी को भी न पा सके,
मगर डाइनिंग हॉल में अभी-अभी छोड़े नाश्ते के चिह्न ज़रूर मिले;
और ड्राइंगरूम में फायर प्लेस के ऊपर की स्लैब पर क्रिस्टल की
सुराही की बगल में विशालकाय काला बिल्ला बैठा हुआ मिला. उसने अपने पंजों में स्टोव
पकड़ रखा था.
पूरी खामोशी से, बड़ी देर तक, आए हुए लोगों ने इस
बिल्ले पर ध्यान केन्द्रित किया.
“हाँ...हाँ...सचमुच
ग़ज़ब की चीज़ है,” आगंतुकों में से एक ने फुसफुसाकर कहा.
“मैं गड़बड़ नहीं कर रहा, किसी को छू भी नहीं रहा,
सिर्फ स्टोव दुरुस्त कर रहा हूँ,” बिल्ले ने
बुरा-सा मुँह बनाते हुए कहा, “और मैं यह बताना भी अपना फर्ज़
समझता हूँ कि बिल्ला बहुत प्राचीन और परम पवित्र प्राणी है.”
“एकदम सही काम है,” आगंतुकों में से एक फुसफुसाया और
दूसरे ने ज़ोर से और साफ-साफ कहा, “तो परम पवित्र पेटबोले
बिल्ले जी, कृपया यहाँ आइए.”
रेशमी जाली खोली गई, वह बिल्ले की ओर उछलने ही वाली थी कि फेंकने वाला, सबको विस्मय में डालते हुए लड़खड़ा गया और वह केवल सुराही ही पकड़ सका,
जो छन् से वहीं टूट गई.
“हार गए,” बिल्ला गरजा, “हुर्रे!”
और उसने स्टोव सरकाकर पीठ के पीछे से पिस्तौल निकाल लिया. उसने फ़ौरन पास में खड़े
आगंतुक पर पिस्तौल तान लिया, मगर, बिल्ले
के पिस्तौल चलाने से पहले, उसके हाथों में बिजली-सी कौंधी और
पिस्तौल चलते ही बिल्ला भी सिर के बल फायर प्लेस की स्लैब से नीचे फर्श पर गिरने
लगा, उसके हाथ से पिस्तौल छिटककर दूर जा गिरी और स्टोव भी
दूर जा गिरा.
“सब कुछ ख़त्म हो गया,” कमज़ोर आवाज़ में बिल्ले ने
कहा और खून के सैलाब में धम् से गिरा, “एक सेकण्ड के लिए
मुझसे दूर हटो, मुझे धरती माँ से बिदा लेने दो. ओह, मेरे मित्र अजाज़ेला!” बिल्ला कराहा, खून उसके शरीर
से बहता रहा, “तुम कहाँ हो? बिल्ले ने
बुझती हुई आँखों से डाइनिंग रूम के दरवाज़े की ओर देखा, “तुम
मेरी मदद के लिए नहीं आए, इस असमान, बेईमानी
के युद्ध में मुझे अकेला छोड़ दिया. तुम गरीब बिगिमोत को छोड़ गए, उसको एक गिलास के बदले छोड़ दिया – सचमुच, कोन्याक
के एक ख़ूबसूरत गिलास के बदले! ख़ैर जाने दो, मेरी मौत
तुम्हें चैन नहीं लेने देगी; तुम्हारी आत्मा पर बोझ रहेगी;
मैं अपनी पिस्तौल तुम्हारे लिए छोड़े जा रहा हूँ...”
“जाली, जाली, जाली,” बिल्ले के चारों ओर फुसफुसाती आवाज़ें आ रही थीं. मगर जाली, शैतान जाने क्यों किसी की जेब में अटक गई और बाहर ही नहीं निकली.
“एक ही चीज़, जो गम्भीर रूप से घायल बिल्ले को बचा
सकती है,” बिल्ला बोला, “वह है बेंज़ीन
का एक घूँट...” और आसपास हो रही हलचल का फ़ायदा उठाकर वह स्टोव के गोल ढक्कन की ओर
सरककर तेल पी गया. तब ऊपर के बाएँ पंजे से बहता खून का फ़व्वारा बन्द हो गया.
बिल्ले में जान पड़ गई, उसने बेधड़क स्टोव बगल में दबा लिया,
फिर से उछलकर वह फायर प्लेस के ऊपर वाली स्लैब पर बैठ गया. वहाँ से
दीवार पर लगा वॉलपेपर फ़ाड़ते हुए ऊपर की ओर रेंग गया और दो ही सेकण्ड में
आगंतुकों से काफी ऊपर चढ़कर लोहे की कार्निस पर बैठ गया.
एक क्षण में ही हाथ परदे से लिपट गए और कार्निस के साथ-साथ उसे भी फाड़ते
चले गए, जिससे अँधेरे कमरे में सूरज घुस आया. मगर न तो चालाकी से
तन्दुरुस्त बन गया बिल्ला, न ही स्टोव नीचे गिरे. स्टोव को
छोड़े बिना बिल्ले ने हवा में हाथ हिलाया और उछलकर झुम्बर पर बैठ गया, जो कमरे के बीचोंबीच लटक रहा था.
“सीढ़ी!” नीचे से लोग चिल्लाए.
“मैं द्वन्द् युद्ध के लिए बुलाता हूँ!” नीचे खड़े लोगों पर झुम्बर
पर बैठे-बैठे झूले लेते हुए बिल्ला दहाड़ा, और उसके हाथों
में फिर से पिस्तौल दिखाई दिया. जबकि स्टोव को उसने झुम्बर की शाखों के बीच फँसा
दिया था. बिल्ले ने घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते हुए, नीचे
खड़े लोगों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाना शुरू कर दीं. गोलियों की गूँज से फ्लैट
हिल गया. झुम्बर से गिरे काँच के परखचे फर्श पर बिखर गए, फायर
प्लेस के ऊपर जड़ा आईना सितारों की शक्ल में चटख गया, प्लास्टर
की धूल उड़ने लगी. खाली कारतूस फर्श पर उछलने लगे, खिड़कियों
के शीशे टूटकर गिर गए. गोली लगे, लटकते हुए स्टोव से तेल
नीचे गिरने लगा. अब बिल्ले को ज़िन्दा पकड़ने का सवाल ही नहीं उठता था, और आगंतुकों ने क्रोध में आकर निशाना साधते हुए अपनी पिस्तौलों से उसके
सिर पर, पेट में, सीने पर और पीठ पर
दनादन गोलियाँ बरसाईं. इस गोलीबारी से बिल्डिंग के बाहरी आँगन में भय फैल गया.
मगर यह गोलीबारी ज़्यादा देर न चल सकी और अपने आप कम हो गई. कारण यह था कि
इससे न तो बिल्ला और न ही कोई आगंतुक ज़ख़्मी हुआ. बिल्ले समेत किसी को भी कोई
क्षति नहीं हुई. इस बात की पुष्टि करने के लिए आगंतुकों में से एक ने इस धृष्ट
जानवर पर लगातार पाँच गोलियाँ दागीं और बिल्ले ने भी जवाब में गोलियों की झड़ी लगा
दी, और
फिर वही – किसी पर भी ज़रा सा भी असर नहीं हुआ. बिल्ला झुम्बर पर झूलता रहा जिसका
आयाम धीरे-धीरे कम होता गया. न जाने क्यों पिस्तौल के हत्थे पर फूँक मारते हुए
अपनी हथेली पर वह बार-बार थूकता रहा. नीचे खड़े खामोश लोगों के चेहरों पर जाने
क्यों अविश्वास का भाव छा गया. यह एक अद्भुत, अभूतपूर्व
घटना थी, जब गोलीबारी का किसी पर भी कोई असर न हुआ था. यह
माना जा सकता था कि बिल्ले की पिस्तौल एक खिलौना थी, मगर
आगंतुकों के तमंचों के बारे में तो ऐसा नहीं कहा जा सकता था. पहला ही घाव, जो बिल्ले को लगा था, वह सिर्फ एक दिखावा था,
इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने
का एक बहाना मात्र था; वैसे ही जैसे बेंज़ीन का पीना.
बिल्ले को पकड़ने की एक और कोशिश की गई. एक फँदा फेंका गया जो एक मोमबत्ती
में जाकर फँसा, झुम्बर नीचे आ गया. उसकी झनझनाहट ने पूरी बिल्डिंग को
झकझोर कर रख दिया, मगर इससे कोई लाभ नहीं हुआ. वहाँ मौजूद
लोगों पर काँच के टुकड़ों की बौछार हुई, और बिल्ला हवा में
उड़कर ऊपर, अँगीठी के ऊपर जड़े शीशे की सुनहरी फ्रेम के ऊपरी
हिस्से पर जा बैठा. वह कहीं भी जाने को तैयार नहीं था और, उल्टॆ
आराम से बैठे-बैठे, एक और भाषण देने लगा : “मैं ज़रा भी समझ
नहीं पा रहा हूँ...” वह ऊपर से बोला, “कि मेरे साथ हो रहे इस
ख़तरनाक व्यवहार का कारण क्या है?”
तभी इस भाषण के बीच ही में टपक पड़ी एक भारी, निचले सुर वाली आवाज़, “फ्लैट में यह क्या हो रहा है? मुझे आराम करने में
परेशानी हो रही है.”
एक और अप्रिय नुकीली आवाज़ ने कहा, “यह ज़रूर बिगिमोत ही है, उसे शैतान ले जाए!”
तीसरी गरजदार आवाज़ बोली, “महाशय! शनिवार का सूरज डूब रहा है. हमारे जाने का समय हो
गया.”
“माफ़ करना, मैं आपसे और बातें नहीं कर सकूँगा,”
बिल्ले ने आईने के ऊपर से कहा, “हमें जाना
है.” उसने अपनी पिस्तौल फेंककर खिड़की के दोनों शीशे तोड़ दिए. फिर उसने तेल नीचे
गिरा दिया, और यह तेल अपने आप भभक उठा. उसकी लपट छत तक जाने
लगी.
सब कुछ बड़े अजीब तरीके से जल रहा था, अत्यंत द्रुत गति से और पूरी ताकत से,
जैसा कभी तेल के साथ भी नहीं होता. देखते-देखते वॉल पेपर जल गया,
फटा हुआ परदा जल गया जो फर्श पर पड़ा था और टूटी हुई खिड़कियों की
चौखटें पिघलने लगीं. बिल्ला उछल रहा था, म्याँऊ-म्याऊँ कर
रहा था. फिर वह आईने से उछलकर खिड़की की सिल पर गया और अपने स्टोव के साथ उसके
पीछे छिप गया. बाहर गोलियों की आवाज़ें गूँज उठीं. सामने, जवाहिरे
की बीवी के फ्लैट की खिड़कियों के ठीक सामने, लोहे की सीढ़ी
पर बैठे हुए आदमी ने बिल्ले पर गोलियाँ चलाईं, जब वह एक
खिड़की से दूसरी खिड़की फाँदते हुए बिल्डिंग के पानी के पाइप की ओर जा रहा था. इस
पाइप से बिल्ला छत पर पहुँचा.
यहाँ भी उसे वैसे ही, ऊपर पाइपों के निकट तैनात दल द्वारा, बिना किसी परिणाम के गोलियों से दागा गया और बिल्ला शहर को धूप में नहलाते
डूबते सूरज की रोशनी में नहा गया.
फ्लैट के अन्दर मौजूद लोगों के पैरों तले इस वक़्त फर्श धू-धू कर जलने लगा, और
वहाँ जहाँ नकली ज़ख़्म से आहत होकर बिल्ला गिर पड़ा था, वहाँ
अब शीघ्रता से सिकुड़ता हुआ भूतपूर्व सामंत का शव दिखाई दे रहा था, पथराई आँखों और ऊपर उठी ठुड्डी के साथ. उसे खींचकर निकालना अब असम्भव हो
गया था. फर्श की जलती स्लैबों पर फुदकते, हथेलियों से धुएँ
में लिपटे कन्धों और सीनों को थपथपाते, ड्राइंगरूम में
उपस्थित लोग अब अध्ययन-कक्ष और प्रवेश-कक्ष में भागे. वे, जो
शयन-कक्ष और डाइनिंग रूम में थे, गलियाए से होते हुए भागे.
वे भी भागे जो रसोईघर में थे. सभी प्रवेश-कक्ष की ओर दौड़े. ड्राइंगरूम पूरी तरह
आग और धुएँ से भर चुका था. किसी ने भागते-भागते अग्निशामक दल का टेलिफोन नम्बर
घुमा दिया और बोला, “सदोवया रास्ता, तीन
सौ दो बी!”
और ठहरना सम्भव नहीं था. लपटें प्रवेश-कक्ष तक आने लगीं. साँस लेना मुश्किल
हो चला.
जैसे ही उस जादुई फ्लैट की खिड़कियों से धुएँ के पहले बादल निकले, आँगन
में लोगों की घबराई हुई चीखें सुनाई दीं:
“आग, आग, जल रहे हैं!”
बिल्डिंग के अन्य फ्लैट्स में लोग टेलिफोनों पर चीख रहे थे, “ सदोवया,
सदोवया, तीन सौ दो बी!”
उस वक्त जब शहर के सभी भागों में लम्बी-लम्बी लाल गाड़ियों की दिल दहलाने
वाली घंटियाँ सुनाई देने लगीं, आँगन में ठहरे लोगों ने देखा कि धुएँ के साथ-साथ पाँचवीं
मंज़िल की खिड़की से पुरुषों की आकृति के तीन काले साए
तैरते हुए बाहर निकले, इनके साथ एक साया नग्न महिला की आकृति
का भी था.
*******
अट्ठाईस
करोव्येव और बिगिमोत के अंतिम
कारनामे
ये साए थे, या सदोवया वाली बिल्डिंग के भय से अधमरे लोगों को सिर्फ
अहसास हुआ था, यह कहना मुश्किल है. यदि वे सचमुच साए थे,
तो वे कहाँ गए, यह कोई भी नहीं जानता. वे कहाँ
अलग-अलग हुए, हम नहीं कह सकते, मगर हम
यह जानते हैं, कि सदोवया में आग लगने के लगभग पन्द्रह मिनट
बाद, स्मलेन्स्क मार्केट की तोर्गसीन नामक दुकान के शीशे के
दरवाज़े के सम्मुख एक चौखाने वाला लम्बू प्रकट हुआ, जिसके
साथ एक काला मोटा बिल्ला था.
आने-जाने वालों की भीड़ में सहजता से मिलकर उस नागरिक ने दुकान का बाहरी
दरवाज़ा बड़ी सफ़ाई से खोला. मगर वहाँ उपस्थित छोटे, हड़ीले और बेहद सड़े दिमाग वाले
दरबान ने उसका रास्ता रोककर तैश में आते हुए कहा, “बिल्लियों
के साथ अन्दर जाना मना है.”
“ मैं माफी चाहता हूँ," लम्बू खड़बड़ाया और उसने
टेढ़ी-मेढ़ी उँगलियों वाला हाथ कान पर इस तरह लगाया मानो ऊँचा सुनता हो, “बिल्लियों के साथ, यही कहा न आपने? मगर बिल्ली है कहाँ?”
दरबान की आँखें फटी रह गईं, यह स्वाभाविक ही था : क्योंकि नागरिक
के पैरों के पास कोई बिल्ली नहीं थी, बल्कि उसके पीछे से फटी टोपी पहने एक मोटा निकलकर दुकान में घुस गया, जिसका थोबड़ा बिल्ली जैसा था. मोटे के हाथ में एक स्टोव था. यह जोड़ी न
जाने क्यों मानव-द्वेषी दरबान को अच्छी नहीं लगी.
“हमारे पास सिर्फ विदेशी मुद्रा चलती है,” वह कटी-फटी,
दीमक-सी लगी भौंहों के नीचे से आँखें फाड़े देखता हुआ बोला.
“मेरे प्यारे,” लम्बू ने टूटे हुए चश्मे के नीचे से
अपनी आँखें मिचकाते हुए गड़गड़ाती आवाज़ में कहा, “आपको कैसे
मालूम कि मेरे पास विदेशी मुद्रा नहीं है? आप कपड़ों को
देखकर कह रहे हैं? ऐसा कभी मत कीजिए, मेरे
प्यारे चौकीदार! आप गलती करेंगे, बहुत बड़ी गलती! ज़रा
ख़लीफा हारून-अल-रशीद की कहानी फिर से पढ़िए. मगर इस समय, उस
कहानी को एक तरफ रखकर, मैं आपसे कहना चाहता हूँ, कि मैं आपकी शिकायत करूँगा और आपके बारे में ऐसी-ऐसी बातें बताऊँगा,
कि आपको इन चमकीले दरवाज़ों के बीच वाली अपनी नौकरी छोड़नी पड़ेगी.”
“मेरे पास, हो सकता है, पूरा
स्टोव भरके विदेशी मुद्रा हो,” जोश से बिल्ले जैसा मोटा भी
बातचीत में शामिल हो गया. पीछे से जनता अन्दर घुसने के लिए खड़ी थी और देर होते
देखकर शोर मचा रही थी. घृणा एवम् सन्देह से इस जंगली जोड़ी की ओर देखते हुए दरबान
एक ओर को हट गया और हमारे परिचित, करोव्येव और बिगिमोत,
दुकान में घुस गए.
सबसे पहले उन्होंने चारों ओर देखा और फिर खनखनाती आवाज़ में, जो
पूरी दुकान में गूँज उठी, करोव्येव बोला, “बहुत अच्छी दुकान है! बहुत, बहुत अच्छी दुकान!”
जनता काउंटरों से मुड़कर न जाने क्यों विस्मय से उस बोलने वाले की ओर देखने
लगी, हालाँकि
उसके पास दुकान की प्रशंसा करने के लिए कई कारण थे.
बन्द शेल्फों में रंग-बिरंगे फूलों वाले, महँगी किस्म के, सैकड़ों थान रखे हुए थे. उनके पीछे शिफॉन, जॉर्जेट
झाँक रहे थे; कोट बनाने का कपड़ा भी था. पिछले हिस्से में
जूतों के डिब्बे सजे हुए थे, और कई महिलाएँ नन्ही-नन्ही
कुर्सियों पर बैठकर दाहिने पैर में पुराना, फटा जूता पहने और
बाएँ में नया, चमचमाता पहनकर कालीन पर खट्-खट् कर रही थीं.
दूर, कहीं अन्दर, हार्मोनियम बजाने की,
गाने की आवाज़ें आ रही थीं.
मगर इन सब आकर्षक विभागों को पार करते हुए करोव्येव और बिगिमोत कंफेक्शनरी
और किराना वाले विभाग की सीमा रेखा पर पहुँचे. यह बहुत खुली जगह थी. यहाँ रूमाल
बाँधे, एप्रन पहने महिलाएँ बन्द कटघरों में नहीं थीं, जैसी कि वे कपड़ों वाले विभाग में थीं.
नाटा, एकदम चौकोर आदमी, चिकनी दाढ़ी वाला,
सींगों की फ्रेम वाले चश्मे में, नई हैट जो
बिल्कुल मुड़ी-तुड़ी नहीं थी और जिस पर पसीने के धब्बे नहीं थे, हल्के गुलाबी जामुनी रंग का सूट और लाल दस्ताने पहने शेल्फ के पास खड़ा था
और कुछ हुक्म-सा दे रहा था. सफ़ेद एप्रन और नीली टोपी पहने सेल्स मैन इस हल्के
गुलाबी जामुनी सूट वाले की ख़िदमत में लगा था. एक तेज़ चाकू से, जो लेवी मैथ्यू द्वारा चुराए गए चाकू के समान था, वह
रोती हुई गुलाबी सोलोमन मछली की साँप के समान झिलमिलाती चमड़ी उतार रहा था.
“यह विभाग भी शानदार है,” करोव्येव ने शानदार अन्दाज़
में कहा, “और यह विदेशी भी सुन्दर है,” उसने सहृदयता से गुलाबी जामुनी पीठ की ओर उँगली से इशारा करते हुए कहा.
“नहीं, फ़ागोत, नहीं,” बिगिमोत ने सोचने के-से अन्दाज़ में कहा, “तुम,
मेरे दोस्त, गलत हो...मेरे विचार से इस गुलाबी
जामुनी भलेमानस के चेहरे पर किसी चीज़ की कमी है!”
गुलाबी जामुनी पीठ कँपकँपाई, मगर, शायद,
संयोगवश, वर्ना विदेशी तो करोव्येव और बिगिमोत के बीच रूसी में हो रही बातचीत समझ
नहीं सकता था.
“अच्छी है?” गुलाबी जामुनी ग्राहक ने सख़्ती से पूछा.
“विश्व प्रसिद्ध,” विक्रेता ने मछली के चमड़े में चाकू
चुभोते हुए कहा.
“अच्छी – पसन्द है; बुरी – नहीं –“ विदेशी ने
गम्भीरता से कहा.
“क्या बात है!” उत्तेजना से सेल्स मैन चहका.
अब हमारे परिचित विदेशी और उसकी सोलोमन मछली से कुछ दूर, कंफेक्शनरी
विभाग की मेज़ के किनारे की ओर हट गए.
“बहुत गर्मी है आज,” करोव्येव ने लाल गालों वाली जवान
सेल्स गर्ल से कहा और उसे कोई भी जवाब नहीं मिला. “ये नारंगियाँ कैसी हैं?”
तब उससे करोव्येव ने पूछा.
“तीस कोपेक की एक किलो,” सेल्स गर्ल ने जवाब दिया.
“हर चीज़ इतनी महँगी है,” आह भरते हुए करोव्येव ने
फ़ब्ती कसी, “आह, ओह, एख़,” उसने कुछ देर सोचा और अपने साथी से कहा,
“बिगिमोत, खाओ!”
मोटे ने अपना स्टोव बगल में दबाया, ऊपर वाली नारंगी मुँह में डाली और खा
गया, फिर उसने दूसरी की तरफ हाथ बढ़ाया.
सेल्स गर्ल के चेहरे पर भय की लहर दौड़ गई.
“आप पागल हो गए हैं?” वह चीखी, उसके
चेहरे की लाली समाप्त हो रही थी, “रसीद दिखाओ! रसीद!” और
उसने कंफेक्शनरी वाला चिमटा गिरा दिया.
“जानेमन, प्यारी, सुन्दरी,”
करोव्येव सिसकारियाँ लेते
हुए काउण्टर पर से नीचे झुककर विक्रेता लड़की को आँख मारते हुए बोला, “आज हमारे पास विदेशी मुद्रा नहीं है...मगर कर क्या सकते हैं? मगर मैं वादा करता हूँ कि अगली बार सोमवार से पहले ही पूरा नगद चुका
दूँगा. हम यहीं, नज़दीक ही रहते हैं, सदोवया
पर, जहाँ आग लगी है.”
बिगिमोत ने तीसरी नारंगी ख़त्म कर ली थी, और अब वह चॉकलेटों वाले शेल्फ में
अपना पंजा घुसा रहा था; उसने एक सबसे नीचे रखा चॉकलेट बार
बाहर निकाला जिससे सारे चॉकलेट बार्स नीचे गिर पड़े ; उसने
अपने वाले चॉकलेट बार को सुनहरे कवर समेत गटक लिया.
मछली वाले काउण्टर के सेल्स मैन अपने-अपने हाथों में पकड़े चाकुओं के साथ
मानो पत्थर बन गए; गुलाबी जामुनी इन लुटेरों की ओर मुड़ा, तभी सबने देखा कि बिगिमोत गलत कह रहा था : गुलाबी जामुनी के चेहरे पर किसी
चीज़ की कमी होने के स्थान पर एक फालतू चीज़ थी – लटकते गाल और गोल-गोल घूमती
आँख़ें.
पूरी तरह पीली पड़ चुकी सेल्स गर्ल डर के मारे ज़ोर से चीखी, “पालोसिच!
पालोसिच!”
कपड़ों वाले विभाग के ग्राहक इस चीख को सुनकर दौड़े आए, और बिगिमोत
कंफेक्शनरी विभाग से हटकर अपना पंजा उस ड्रम में घुसा रहा था जिस पर लिखा था,
‘बेहतरीन केर्च हैरिंग’. उसने नमक लगी हुई दो मछलियाँ खींचकर
निकालीं और उन्हें निगल गया. पूँछ बाहर थूक दी.
“पालोसिच!” यह घबराहट भरी चीख दुबारा सुनाई दी, कंफेक्शनरी
वाले विभाग से, और मछलियों वाले काउण्टर का बकरे जैसी दाढ़ी
वाला सेल्स मैन गुर्राया, “तुम कर क्या रहे हो, दुष्ट!”
पावेल योसिफविच फौरन तीर की तरह घटनास्थल की ओर लपका. यह प्रमुख था उस
दुकान का – सफ़ेद, बेदाग एप्रन पहने, जैसा सर्जन लोग
पहनते हैं, साथ में थी पेंसिल, जो उसकी
जेब से दिखाई पड़ रही थी. पावेल योसिफविच, ज़ाहिर है,
एक अनुभवी व्यक्ति था. बिगिमोत के मुँह में तीसरी मछली की पूँछ
देखकर उसने फ़ौरन ही परिस्थिति को भाँप लिया, सब समझ लिया,
और उन बदमाशों पर चीखने और उन्हें गालियाँ देने के बदले दूर कहीं
देखकर उसने हाथ से इशारा किया और आज्ञा दी:
“सीटी बजाओ!”
स्मलेन्स्क के नुक्कड़ पर शीशे के दरवाज़ों से दरबान बाहर भागा और भयानक
सीटी बजाने लगा.
लोगों
ने इन बदमाशों को घेरना शुरू कर दिया, और तब करोव्येव ने
मामले को हाथ में लिया.
“नागरिकों!” कँपकँपाती, महीन आवाज़ में वह चीखा,
“यह क्या हो रहा है? हाँ, मैं आपसे पूछता हूँ! गरीब बिचारा आदमी,” करोव्येव ने अपनी आवाज़ को और अधिक कम्पित करते हुए कहा
और बिगिमोत की ओर इशारा किया, जिसने अपने शरीर को फौरन
सिकोड़ लिया था, “गरीब आदमी, सारे दिन
स्टॉव सुधारता रहता है; वह भूखा था...उसके पास विदेशी मुद्रा
कहाँ से आए?”
इस पर आमतौर से शांत और सहनशील रहने वाले पावेल योसिफविच ने गम्भीरतापूर्वक
चिल्लाते हुए कहा, “तुम यह सब बन्द करो!” और उसने दूर फिर से इशारा किया
जल्दी-जल्दी. तब दरवाज़े के निकट सीटियाँ और ज़ोर से बजने लगीं.
मगर पावेल योसिफोविच
के व्यवहार से क्षुब्ध हुए बिना करोव्येव कहता रहा, “कहाँ से? मैं आपसे सवाल पूछता हूँ! वह भूख और प्यास से बेहाल है! उसे गर्मी लग रही
है. इस झुलसते आदमी ने चखने के लिए नारंगी मुँह में डाल ली. उसकी कीमत है सिर्फ
तीन कोपेक. और ये सीटियाँ बजा रहे हैं, जैसे बसंत ऋतु में
कोयलें जंगल में कूकती हैं; पुलिस वालों को
परेशान कर रहे हैं, उन्हें अपना काम नहीं
करने दे रहे. और वह खा सकता है? हाँ?” अब करोव्येव ने हल्के गुलाबी जामुनी
मोटे की ओर इशारा किया, जिससे उसके मुँह पर
काफी घबराहट फैल गई, “वह है कौन? हाँ? कहाँ से आया? किसलिए? क्या उसके बगैर हम उकता रहे थे? क्या हमने उसे
आमंत्रित किया था? बेशक,” व्यंग्य से मुँह को टेढ़ा बनाते हुए पूरी आवाज़ में वह चिल्लाया, “वह, देख रहे हैं न, उसकी जेबें विदेशी
मुद्रा से ठसाठस भरी हैं. और हमारे लिए...हमारे नागरिक के लिए! मुझे दुःख होता है!
बेहद अफ़सोस है! अफ़सोस!” कोरोव्येप विलाप करने लगा. जैसे प्राचीन काल में शादियों
के समय बेस्ट-मैन द्वारा किया जाता था.
इस बेवकूफी भरे, बेतुके, मगर राजनीतिक दृष्टि से
ख़तरनाक भाषण ने पावेल योसिफविच को गुस्सा दिला ही दिया, वह
थरथराने लगा, मगर यह चाहे कितना ही अजीब क्यों न लग रहा हो,
चारों ओर जमा हुई भीड़ की आँखों से साफ प्रकट हो रहा था कि लोगों को
उससे सहानुभूति हो रही है! और जब बिगिमोत अपने कोट की गन्दी, फटी हुई बाँह आँख पर रखकर दुःख से बोला, “धन्यवाद,
मेरे अच्छे दोस्त, तुम एक पीड़ित की मदद के
लिए आगे तो आए!” तो एक चमत्कार और हुआ. एक भद्र, खामोश बूढ़ा,
जो गरीबों जैसे मगर साफ़ कपड़े पहने हुए था, जिसने
कंफेक्शनरी विभाग में तीन पेस्ट्रियाँ खरीदी थीं, एकदम नए
रूप में बदल गया. उसकी आँखें ऐसे जलने लगीं, मानो वह युद्ध
के लिए तैयार हो रहा हो; उसका चेहरा लाल हो गया, उसने पेस्ट्रियों वाला पैकेट ज़मीन पर फेंका और चिल्लाने लगा, “सच है!” बच्चों जैसी आवाज़ में यह कहने के बाद उसने ट्रे उठाया, उसमें से बिगिमोत द्वारा नष्ट किए गए ‘एफिल टॉवर’ चॉकलेट के बचे-खुचे
टुकड़े फेंक दिए, उसे ऊपर उठाया, बाएँ
हाथ से विदेशी की टोपी खींच ली, और दाएँ हाथ से ट्रे विदेशी
के सिर पर दे मारी. ऐसी आवाज़ हुई मानो किसी ट्रक से लोहे की चादरें फेंकी जा रही
हैं. मोटा फक् हुए चेहरे से मछलियों वाले ड्रम में जा गिरा, इससे
उसमें से नमकीन द्रव का फ़व्वारा निकल पड़ा.
तभी एक और चमत्कार हुआ, हल्का गुलाबी जामुनी व्यक्ति ड्रम में गिरने के बाद
साफ-स्पष्ट रूसी में चिल्ला पड़ा, “मार डालेंगे! पुलिस! मुझे
डाकू मारे डाल रहे हैं!” ज़ाहिर है, इस अचानक लगे मानसिक
धक्के से वह अब तक अनजानी भाषा पर अधिकार पा चुका था.
तब दरबान की सीटी रुक गई, घबराए हुए ग्राहकों के बीच से पुलिस की दो टोपियाँ निकट
आती दिखाई दीं. मगर चालाक बिगिमोत ने स्टोव के तेल से कंफेक्शनरी विभाग का काउण्टर
इस तरह भिगोना शुरू किया जैसे मशकों से हमाम की बेंच भिगोई जाती है; और वह अपने आप भड़क उठा. लपट ऊपर की ओर लपकी और पूरे विभाग को उसने अपनी
गिरफ़्त में ले लिया. फलों की टोकरियों पर बँधे लाल कागज़ के रिबन जल गए. सेल्स
गर्ल्स चीखती हुई काउण्टर के पीछे से निकलकर भागने लगीं और जैसे ही वे बाहर निकलीं,
खिड़कियों पर टँगे परदे भभककर जलने लगे और फर्श पर बिखरा हुआ तेल
जलने लगा. जनता एकदम चीखते हुए कंफेक्शनरी विभाग से पीछे हट गई, अब बेकार लग रहे पावेल योसिफविच को दबाती हुई; और
मछलियों वाले विभाग से अपने तेज़ चाकुओं समेत सेल्स मैनों की भीड़ पिछले दरवाज़े
की ओर भागी. हल्का गुलाबी जामुनी नागरिक किसी तरह ड्रम से निकला. नमकीन पानी से
पूरा तरबतर वह भी गिरता-पड़ता उनके पीछे दौड़ा. बाहर निकलने वाले लोगों के धक्कों
से काँच के दरवाज़े छनछनाकर गिरते और टूटते रहे. और दोनों दुष्ट – करोव्येव और बिगिमोत
– न जाने कहाँ चले गए, मगर कहाँ – यह समझना मुश्किल है. फिर
गवाहों ने जो अग्निकाण्ड के आरम्भ में तोर्गसीन में उपस्थित थे, बताया कि वे दोनों बदमाश छत से लगे-लगे उड़ते रहे और फिर ऐसे फूटकर बिखर
गए, जैसे बच्चों के गुब्बारे हों. इसमें शक है कि यह सब ऐसे
ही हुआ होगा, मगर जो हम नहीं जानते, बस,
नहीं जानते.
मगर हम बस इतना जानते हैं कि स्मलेन्स्क वाली घटना के ठीक एक मिनट बाद बिगिमोत
और करोव्येव ग्रिबायेदव वाली बुआजी के घर के निकट वाले उस रास्ते के फुटपाथ पर
दिखाई दिए, जिसके दोनों ओर पेड़ लगे थे. करोव्येव जाली के निकट रुका
और बोला, “”ब्बा! हाँ, यह लेखकों का
भवन है. बिगिमोत, जानते हो, मैंने इस
भवन की बहुत तारीफ सुनी है. इस घर की ओर ध्यान दो, मेरे
दोस्त! यह सोचकर कितना अच्छा लगता है कि इस छत के नीचे इतनी योग्यता और
बुद्धिमत्ता फल-फूल रही है!”
“जैसे काँच से घिरे बगीचों में अनन्नास!” बिगिमोत ने कहा और वह स्तम्भों
वाले इस भवन को अच्छी तरह देखने के लिए लोहे की जाली के आधार पर चढ़ गया.
“बिल्कुल
सही है,” करोव्येव अपने साथी की बात से सहमत होते हुए बोला,
“दिल में यह सोचकर मीठी सुरसुरी दौड़ जाती है कि अब इस मकान में
‘दोन किखोत’ या ‘फाऊस्त’ या, शैतान मुझे ले जाए, यहाँ ‘मृत आत्माएँ’ जैसी रचनाएँ लिखने वाला भावी लेखक पल रहा है! हाँ?”
“अजीब लगता है सोचकर,” बिगिमोत ने पुष्टि की.
“हाँ,” करोव्येव बोलता रहा, “अजीब-अजीब
चीज़ें होती हैं – इस भवन की क्यारियों में, जो अपनी छत के
नीचे हज़ारों ऐसे लोगों को आश्रय देता है, जो साहित्य-सेवा
में अपना पूरा जीवन बिता देना चाहते हैं. तुम सोचो, कितना
शोर मचेगा तब, जब इनमें से कोई एक जनता के सम्मुख ऐसी रचना
प्रस्तुत करेगा – जैसे ‘इन्स्पेक्टर जनरल’ या उससे भी ज़्यादा बदतर स्थिति में –
‘येव्गेनी अनेगिन’!”
“काफी आसान है,” बिगिमोत ने फिर से कहा.
“हाँ!” करोव्येव कहता रहा और उसने
चिंता से उँगली ऊपर को उठाई, “लेकिन!...लेकिन, मैं कहता हूँ, और दुहराता हूँ यह – ‘लेकिन!’ अगर इन
आरामदेह नाज़ुक फसलों पर कोई कीट न गिरे, उन्हें जड़ से न खा
जाए, अगर वे मर न जाएँ! और ऐसा अनन्नासों के साथ होता है! ओय,
ओय, ओय, कैसा होता है!”
बिगिमोत ने जाली में बने छेद से अपना सिर अन्दर घुसाते हुए पूछा, “लेकिन
ये सब लोग बरामदे में क्या कर रहे हैं?”
“खाना खा रहे हैं,” करोव्येव ने समझाया, “मैं तुम्हें यह भी बताता हूँ, मेरे प्यारे दोस्त,
कि यहाँ एक बहुत अच्छा और सस्ता रेस्तराँ है. और मैं, जैसा कि दूर के सफर पर निकलने से पहले हर यात्री चाहता है, यहाँ कुछ खाना चाहता हूँ. ठण्डी शराब का एक पैग पीना चाहता हूँ, मैं.”
“मैं भी,” बिगिमोत ने जवाब दियादिया और दोनों बदमाश
लिण्डेन के वृक्षों की छाया तले सीमेण्ट के रास्ते पर चलते हुए सीधे, आगामी ख़तरे से बेख़बर रेस्तराँ के बरामदे के प्रवेश द्वार तक आ गए.
एक बदरंग-सी उकताई महिला सफेद स्टॉकिंग्स और फुँदे वाली गोल सफ़ॆद टोपी
पहने, कोने
वाले प्रवेश-द्वार के पास कुर्सी पर बैठी थी, जहाँ हरियाली
बेलों के बीच छोटा-सा प्रवेश-द्वार बनाया गया था. उसके सामने एक साधारण-सी मेज़ पर
एक मोटा रजिस्टर पड़ा था. उसमें यह महिला न जाने क्यों, रेस्तराँ
में आने वालों के नाम लिख रही थी. इस महिला ने करोव्येव और बिगिमोत को रोका.
“आपका परिचय-पत्र?” उसने करोव्येव के चश्मे की ओर और बिगिमोत की फटी हुई बाँह तथा
बगल में दबे हुए स्टोव को आश्चर्य से देखते हुए पूछा.
“हज़ार बार माफ़ी चाहता हूँ, कैसा परिचय-पत्र?”
करोव्येव ने हैरानी से
पूछा.
“आप लेखक हैं?” महिला ने जवाब में पूछ लिया.
“बेशक!” करोव्येव ने काफी अहमियत
से कहा.
“आपका परिचय-पत्र?” महिला ने दुहराया.
“मेरी मनमोहिनी...,” करोव्येव ने भावुकता से कहना शुरू किया.
“मैं मनमोहिनी नहीं हूँ,” महिला ने उसे बीच में ही
टोकते हुए कहा.
“ओह, कितने दुःख की बात है,” करोव्येव
ने निराशा से कहा, “अगर आपको मोहक होना पसन्द नहीं है,
तो चलिए, ऐसा ही हो, हालाँकि
यह आपके लिए बढ़िया होता. तो मैडम, दस्तयेव्स्की लेखक है,
यह सुनिश्चित करने के लिए क्या उसीसे प्रमाण-पत्र माँगना चाहिए? आप उसके किसी भी उपन्यास के कोई भी पाँच पृष्ठ ले लीजिए, और बिना किसी परिचय-पत्र के आपको विश्वास हो जाएगा कि आप एक अच्छे लेखक को
पढ़ रही हैं. हाँ, उसके पास शायद कोई परिचय-पत्र था ही नहीं!
तुम्हारा क्या ख़याल है?” करोव्येव बिगिमोत से मुखातिब हुआ.
“शर्त लगाता हूँ, कि नहीं था,” वह
स्टोव को रजिस्टर के पास रखकर एक हाथ से धुएँ से काले हो गए माथे का पसीना पोंछता
हुआ बोला.
“आप दस्तयेव्स्की नहीं हैं,” करोव्येव की दलीलों से पस्त होकर महिला ने कहा.
“लो, आपको कैसे मालूम? आपको
कैसे मालूम?” उसने जवाब दिया.
“दस्तयेव्स्की मर चुका है,” महिला ने कहा, मगर शायद उसे भी इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था.
“मैं इस बात का विरोध करता हूँ,” बिगिमोत ने तैश में
आते हुए कहा, “दस्तयेव्स्की अमर है!”
“आपके परिचय-पत्र, नागरिकों!” उस महिला ने फिर पूछा.
“माफ कीजिए, यह तो हद हो गई?” करोव्येव
ने हार नहीं मानी और कहता रहा, “लेखक को कोई उसके परिचय-पत्र
से नहीं जानता, बल्कि उसे जाना जाता है उसके लेखन से! आपको
क्या मालूम कि मेरे दिमाग में कैसे-कैसे विचार उठ रहे हैं? या
इस दिमाग में?” उसने बिगिमोत के सिर की ओर इशारा किया,
जिसने फौरन अपनी टोपी उतार ली, शायद इसलिए कि
वह महिला उसका सिर अच्छी तरह देख सके.
“रास्ता छोड़ो, श्रीमान,” उस
औरत ने काफी घबराते हुए कहा.
करोव्येव और बिगिमोत ने एक ओर हटकर भूरे सूट वाले, बिना
टाई के एक लेखक को रास्ता दिया. इस लेखक ने सफ़ेद कमीज़ पहन रखी थी, जिसका कॉलर कोट के ऊपर खुला पड़ा था. उसने बगल में अख़बार दबा रखा था.
लेखक ने अभिवादन के अन्दाज़ में महिला को देखकर सिर झुकाया और सामने रखे रजिस्टर
में चिड़ियों जैसी कोई चीज़ खींच दी और बरामदे में चला गया.
“ओह,” बड़े दुःख से करोव्येव ने आह भरी, “हमें नहीं, बल्कि उसे मिलेगी वह ठण्डी बियर जिसका हम
गरीब घुमक्कड़ सपना देख रहे थे. हमारी स्थिति बड़ी चिंताजनक हो गई है, समझ में नहीं आ रहा क्या किया जाए.”
बिगिमोत ने दुःख प्रकट करते हुए हाथ हिला दिए और अपने गोल सिर पर टोपी पहन
ली जिस पर बिल्कुल बिल्ली की खाल जैसे घने बाल थे. उसी क्षण उस महिला के सिर पर एक
अधिकार युक्त आवाज़ गूँजी, “आने दो, सोफ्या पाव्लव्ना.”
रजिस्टर वाली औरत
चौंक गई. सामने बेलों की हरियाली में से एक सफेद जैकेट वाला
सीना और कँटीली दाढ़ी वाला समुद्री डाकू का चेहरा उभरा. उसने इन दोनों फटे कपड़ों
वाले सन्देहास्पद प्राणियों की ओर बड़े प्यार से देखा, और तो
और, उन्हें इशारे से आमंत्रित भी करने लगा. अर्चिबाल्द
अर्चिबाल्दविच का दबदबा पूरे रेस्तराँ में उसके अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा महसूस
किया जाता था. सोफ्या पाव्लव्ना ने करोव्येव से पूछा, “आपका
नाम?”
“पनायेव,” शिष्ठतापूर्वक उसने जवाब दिया. महिला ने वह
नाम लिख लिया और प्रश्नार्थक दृष्टि से बिगिमोत की ओर देखा.
“स्कबिचेव्स्की,” वह न जाने क्यों अपने स्टोव की ओर
इशारा करते हुए चिरचिराया. सोफ्या पाव्लव्ना ने यह नाम भी लिख दिया और रजिस्टर
आगंतुकों की ओर बढ़ा दिया, ताकि वे हस्ताक्षर कर सकें. करोव्येव
ने ‘पनायेव’ के आगे लिखा ‘स्कबिचेव्स्की’; और बिगिमोत ने
‘स्कबिचेव्स्की’ के आगे लिखा ‘पनायेव’. सोफ्या पाव्लव्ना को पूरी तरह हैरत में
डालते हुए अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच मेहमानों को बड़े प्यार से मुस्कुराते हुए
बरामदे के दूसरे छोर पर स्थित सबसे बेहतरीन टेबुल के पास ले गया. वहाँ काफी छाँव
थी. टेबुल के बिल्कुल निकट सूरज की मुस्कुराती किरणे बेलों से छनकर आ रही थीं.
सोफ्या पाव्लव्ना विस्मय से सन्न् उन दोनों विचित्र हस्ताक्षरों को देख रही थी,
जो उन अप्रत्याशित मेहमानों ने किए थे.
बेयरों को भी अर्चिबाल्द
अर्चिबाल्दविच ने कम आश्चर्यचकित नहीं किया. उसने स्वयँ कुर्सी खींची और करोव्येव को
बैठने की दावत दी, फिर एक बेयरे को इशारा किया, दूसरे
के कान में फुसफुसाकर कुछ कहा, और दोनों बेयरे नये मेहमानों
की ख़िदमत में तैनात हो गए. मेहमानों में से एक ने अपना स्टोव ठीक अपने लाल जूते
की बगल में फर्श पर रखा था. टेबुल के ऊपर वाला पुराना पीले धब्बों वाला मेज़पोश
फौरन गायब हो गया और हवा से उड़ता हुआ सफ़ेद कलफ़ लगा मेज़पोश उसकी जगह आ गया.
अर्चिबाल्द
अर्चिबाल्दविच हौले-हौले करोव्येव के ठीक कान के पास फुसफुसा रहा था, “आपकी
क्या ख़िदमत कर सकता हूँ? खासतौर से बनाई गई लाल मछली,
आर्किटेक्टों की कॉंन्फ्रेंस से चुराकर लाया हूँ...”
“आप...अँ...हमें कुछ भी खाने को दीजिए,...अँ...” करोव्येव
सहृदयता से कुर्सी पर फैलते हुए बोला.
“समझ गया,” आँखें बन्द करते हुए अर्चिबाल्द
अर्चिबाल्दविच ने अर्थपूर्ण ढंग से कहा.
यह देखकर कि इन
संदिग्ध व्यक्तियों के साथ रेस्तराँ का प्रमुख बड़ी भद्रता से पेश आ रहा है, बेयरों
ने भी अपने दिमाग से सभी सन्देह झटक दिए और बड़ी संजीदगी से उनकी आवभगत में लग गए.
उनमें से एक तो बिगिमोत के पास जलती हुई तीली भी लाया, यह
देखकर कि उसने जेब से सिगरेट का टुकड़ा निकालकर मुँह में दबा लिया है; दूसरा खनखनाती हरियाली लेकर मानो उड़ता हुआ आया और मेज़ पर हरी-हरी सुराही
और जाम रख गया. जाम ऐसे थे जिनमें तम्बू के नीचे बैठकर नर्ज़ान पीने का मज़ा ही
कुछ और होता है...नहीं हम कुछ और आगे बढ़कर कहेंगे...जिनमें तम्ब के नीचे
अविस्मरणीय ग्रिबायेदव वाले बरामदे में अक्सर नर्ज़ान पी जाती थी.
“पहाड़ी बादाम और तीतर का पकवान हाज़िर कर सकता हूँ,” संगीतमय सुर में अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच बोला. टूटे चश्मे वाले मेहमान
ने इस प्रस्ताव को बहुत पसन्द किया और धन्यवाद के भाव से बेकार के चश्मे की ओट से
उसे देखा.
बगल की मेज़ पर बैठा कहानीकार पित्राकोव-सुखोवेय जो अपनी पत्नी के साथ
पोर्क चॉप खा रहा था, अपनी स्वाभाविक लेखकीय निरीक्षण शक्ति से अर्चिबाल्द
अर्चिबाल्दविच द्वारा की जा रही आवभगत को देखकर काफी चौंक गया. उसकी सम्माननीय
पत्नी ने करोव्येव की इस समुद्री डाकू से होती निकटता को देखकर जलन के मारे चम्मच
बजाया, मानो कह रही हो – यह क्या बात है कि हमें इंतज़ार
करना पड़ रहा है, जबकि आइस्क्रीम देने का समय हो गया है! बात
क्या है?
अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच ने मुस्कुराते हुए पित्राकोवा की ओर एक बेयरे को
भेज दिया, लेकिन वह खुद अपने प्रिय मेहमानों से दूर नहीं हटा. आह,
अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच बहुत अकलमन्द था! लेखकों से भी ज़्यादा
पैनी नज़र रखने वाला. अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच वेराइटी ‘शो’ के बारे में भी जानता
था, और इन दिनों हो रही अनेक चमत्कारिक घटनाओं के बारे में
भी उसने सुन रखा था; लेकिन औरों की भाँति ‘चौखाने वाला’ और
‘बिल्ला’ इन दो शब्दों को उसने कान से बाहर नहीं निकाल दिया था. अर्चिबाल्द
अर्चिबाल्दविच ने तुरंत अन्दाज़ लगा लिया था कि मेहमान लोग कौन हैं. वह जान चुका
था, इसलिए उसने उनसे बहस नहीं की. पर सोफ्या पाव्लव्ना! यह
तो बस कल्पना की ही बात है – इन दोनों को बरामदे में जाने से रोकना! मगर उससे किसी
और बात की उम्मीद ही क्या की जाती!
गुस्से में मलाईदार आइस्क्रीम में चम्मच चुभाते हुए पित्राकोवा देख रही थी
कि कैसे बगल वाली मेज़ पर जोकरों जैसे कपड़े पहने दो व्यक्तियों के सामने खाने की
चीज़ों के ढेर फटाफट लग रहे थे. चमकदार धुले सलाद के पत्तों के बीच झाँकते मछलियों
के अण्डों की प्लेट अब वहाँ रखी गई...एक क्षण में खासतौर से रखवाए गए एक और
नन्हे-से टेबुल पर बूँदें छोड़ती चाँदी की नन्ही-सी बाल्टी आ गई.
इंतज़ाम से संतुष्ट होने के बाद, तभी, जब बेयरे
के हाथों में एक बन्द डोंगा आया, जिसमें कोई चीज़ खद्-खद् कर
रही थी, अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच ने मेहमानों से बिदा ली.
जाने से पहले उनके कान में फुसफुसाया, “माफ कीजिए! सिर्फ एक
मिनट के लिए!...मैं स्वयँ तीतर देख आऊँ.”
वह मेज़ से हटकर रेस्तराँ के अन्दरूनी गलियारे में गायब हो गया. अगर कोई अर्चिबाल्द
अर्चिबाल्दविच के आगामी कार्यकलापों का निरीक्षण करता, तो
वे उसे कुछ रहस्यमय ही प्रतीत होतीं.
वह टेबुल से दूर हटकर तेज़ी से किचन में नहीं, अपितु
रेस्तराँ के भंडारघर में गया. उसने अपनी चाभी से उसे खोला और उसमें बन्द हो गया.
बर्फ से भरे डिब्बे में से सावधानी से दो भारी-भारी लाल मछलियाँ निकालकर सावधानी
से उन्हें अख़बार में लपेटा. उसके ऊपर से रस्सी बाँध दी और एक किनारे पर रख दिया.
फिर बगल वाले कमरे में जाकर इत्मीनान कर लिया कि उसका रेशमी अस्तर वाला गर्मियों
वाला कोट और टोपी अपनी जगह पर हैं या नहीं. तभी वह रसोईघर में पहुँचा, जहाँ रसोइया मेहमानों से वादा की गई तीतर तल रहा था.
कहना पड़ेगा कि अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच के कार्यकलाप में कुछ भी रहस्यमय
नहीं था और उन्हें रहस्यमय केवल एक उथला निरीक्षक ही कह सकता है. पहले घटित हो
चुकी घटनाओं के परिणामों को देखते हुए अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच की हरकतें
तर्कसंगत ही प्रतीत होती थीं. हाल की घटनाओं की जानकारी और ईश्वर प्रदत्त
पूर्वानुमान करने की अद्वितीय शक्ति ने अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच को बता दिया था, कि
उसके दोनों मेहमानों का भोजन चाहे कितना ही लजीज़ और कितना ही अधिक क्यों न हो,
वह बस कुछ ही देर चलेगा. और उसकी इस शक्ति ने उसे इस बार भी धोखा
नहीं दिया.
जब करोव्येव और बिगिमोत मॉस्को की अत्यंत परिशुद्ध वोद्का का दूसरा जाम
टकरा रहे थे, तब बरामदे में पसीने से लथपथ घबराया हुआ संवाददाता बोबा
कन्दालूप्स्की घुसा जो मॉस्को में अपने हरफनमौला ज्ञान के कारण सुप्रसिद्ध था. आते
ही वह पित्राकोव दम्पत्ति के पास बैठ गया. अपनी फूली हुई ब्रीफकेस टेबुल पर रखते
हुए बोबा ने अपने होठ तुरंत पित्राकोव के कान से सटा दिए और बहुत ही सनसनीख़ेज़
बातें फुसफुसाने लगा. मैडम पित्राकोवा ने भी उत्सुकतावश अपना कान बोबा के चिकने
फूले-फूले होठों से लगा दिया. वह कनखियों से इधर-उधर देखता बस फुसफुसाए जा रहा था.
कुछ अलग-थलग शब्द जो सुनाई पड़े वे थे:
“कसम खाकर कहता हूँ! सदोवया पर...सदोवया पर...” बोबा ने आवाज़ और नीची करते
हुए कहा, “गोलियाँ नहीं लग रहीं! गोलियाँ...गोलियाँ...तेल...
तेल, आग... गोलियाँ...”
“ऐसे झूठों को, जो ऐसी गन्दी अफ़वाहें फैलाते हैं,”
गुस्से में मैडम पित्राकोवा कुछ ऊँची, भारी
आवाज़ में, जैसी बोबा नहीं चाहता था, बोल
पड़ी, “उनकी तो ख़बर लेनी चाहिए! ख़ैर, कोई बात नहीं, ऐसा ही होगा, उन्हें
सबक सिखाया ही जाएगा! ओह, कैसे ख़तरनाक झूठे हैं!”
“कहाँ के झूठे, अंतनीदा पर्फिरेव्ना!” लेखक की पत्नी
के अविश्वास दिखाने से उत्तेजित और आहत होकर बोबा चिल्लाया, और
फुसफुसाते हुए बोला, “मैं कह रहा हूँ आपसे, गोलियों से कोई फ़ायदा नहीं हो रहा...और अब आग...वे हवा में...हवा में...
“ बोबा कहता रहा, बिना सोचे-समझे कि जिनके बारे में वह बता
रहा है, वे उसकी बगल में ही बैठे हैं, और
उसकी सीटियों जैसी फुसफुसाहट का आनन्द ले रहे हैं. मगर यह आनन्द जल्दी ही समाप्त
हो गया.
रेस्तराँ के अन्दरूनी भाग से तीन व्यक्ति बरामदे में आए. उनके बदन पर कई
पट्टे कसे हुए थे. हाथों में रिवॉल्वर थे. सबसे आगे वाले ने गरजते हुए कहा, “अपनी
जगह से हिलो मत!” और फौरन उन तीनों ने बरामदे में करोव्येव और बिगिमोत के सिर को
निशाना बनाते हुए गोलीबारी शुरू कर दी. गोलियाँ खाकर वे दोनों हवा में विलीन हो गए,
और स्टोव से आग की एक लपट उस शामियाने में उठी जहाँ रेस्तराँ था.
काली किनार वाला एक विशाल फन मानो शामियाने में प्रकट हुआ और चारों ओर फैलने लगा.
आग की लपटें ऊँची होकर ग्रिबायेदव भवन की छत तक पहुँचने लगीं. दूसरी मंज़िल पर
सम्पादक के कमरे में रखी फाइलें भभक उठीं; उसके बाद लपटों ने
परदों को दबोच लिया, फिर आग भीषण रूप धारण कर बुआजी वाले
मकान में घुस गई, मानो उसे कोई हवा दे रहा हो.
कुछ क्षणों बाद सीमेण्ट वाले रास्ते पर, आधा खाना छोड़कर लेखक, बेयरे, सोफ्या पाव्लव्ना, बोबा,
पित्राकोवा और पित्राकोव भाग रहे थे. यह वही रास्ता है जो लोहे की
जाली तक जाता है, और जहाँ से बुधवार की शाम को इस दुर्भाग्य
की प्रथम सूचना देने वाला अभागा इवानूश्का आया था, और जिसे
कोई समझ नहीं पाया था.
समय रहते पिछले
दरवाज़े से बिना जल्दबाज़ी किए निकला अर्चिबाल्द अर्चिबाल्दविच – जलते हुए जहाज़
के कप्तान की तरह, जो सबसे अंत में जहाज़ छोड़ता है. वह अपना रेशमी अस्तर का
कोट पहने था और बगल में दो मछलियों वाला पैकेट दबाए था.
*********
उनतीस
मास्टर और मार्गारीटा के भाग्य का निर्णय
सूर्यास्त के समय शहर से काफी ऊपर लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व बनाई गई एक अति
सुन्दर इमारत की पत्थरों से बनी छत पर दो व्यक्ति थे : वोलान्द और अजाज़ेला. नीचे
सड़क से देखने पर वे दिखाई नहीं देते थे, क्योंकि उन्हें अनावश्यक निगाहों से
चीनी मिट्टी के फूलदान और चीनी मिट्टी के फूलों का जँगला बचा रहा था. मगर वे शहर
को आख़िरी छोर तक देख सकते थे.
वोलान्द वहाँ एक फोल्डिंग स्टूल पर अपनी काली पोशाक पहने बैठा था. उसकी
लम्बी और चौड़ी तलवार छत की एक-दूसरे को छेदती हुई दो पट्टियों के मध्य खड़ी रखी
थी, जिससे
सूर्य-घड़ी का आकार बन गया था. तलवार की परछाईं धीरे-धीरे लम्बी होती जा रही थी और
शैतान के पैरों में पड़े काले जूतों की ओर रेंग रही थी. अपनी नुकीली ठोढ़ी हाथ पर
रखे, एक पैर मोड़े झुककर बैठा वोलान्द बिना पलकें झपकाए
अनगिनत महलों, विशाल गगनचुम्बी इमारतों और नन्ही-नन्ही
झोंपड़ियों को, जो शीघ्र ही तोड़ी जाने वाली थीं, देखे जा रहा था. अजाज़ेला अपनी आधुनिक वेशभूषा – जैकेट, हैट, चमकते जूते - छोड़कर वोलान्द की ही भाँति काले
ही रंग की पोषाक में अपने मालिक से कुछ दूर बिना हिले-डुले खड़ा था. वह भी मालिक
ही की तरह शहर को देख रहा था.
वोलान्द बोला, “कितना दिलचस्प शहर है, है न?”
अजाज़ेला हिला और उसने आदरपूर्वक कहा, “मालिक, मुझे
रोम ज़्यादा पसन्द है!”
“हाँ, यह अपनी-अपनी पसन्द की बात है,” वोलान्द ने कहा. कुछ क्षणों बाद उसकी आवाज़ फिर आई, “यह उस पेड़ों वाले रास्ते पर धुआँ कैसा है?”
“यह ग्रिबायेदव जल रहा है,” अजाज़ेला ने जवाब दिया.
“क्या
मैं अन्दाज़ा लगा सकता हूँ कि ये सदाबहार जोड़ी करोव्येव और बिगिमोत वहाँ गई थी?”
“इसमें कोई शक नहीं, मालिक!”
फिर खामोशी छा गई और छत पर मौजूद दोनों ने देखा कि विशाल भवनों की पश्चिम
की ओर खुलती खिड़कियों में, ऊपरी मंज़िलों पर टूटा हुआ, चकाचौंध
करने वाला सूरज जल उठा. वोलान्द की आँख भी उसी तरह जल रही थी, हालाँकि उसकी पीठ सूरज की ओर थी.
मगर तभी किसी चीज़ ने वोलान्द को पीछे देखने पर मजबूर किया. अब उसका ध्यान
था गोल गुम्बद की ओर, जो छत पर उसकी पीठ के पीछे था. उसके पीछे से निकला एक
फटेहाल, धूल-धूसरित, काली दाढ़ी वाला
एक उदास व्यक्ति. वह चोगा पहने, अपने आप बनाई चप्पलें पैरों
में डाले था.
“ब्बा!” आगंतुक पर मुस्कुराते हुए नज़र डालकर वोलान्द चहका, “तुम्हारे यहाँ आने की मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी! तुम क्या कोई शिकायत
लेकर आये हो, बिना–बुलाए, मगर अपेक्षित
मेहमान?”
“मैं तुम्हारे पास आया हूँ, बुराइयों की आत्मा और
परछाइयों के शासक,” आने वाले ने कनखियों से वोलान्द की ओर
अमैत्रीपूर्ण ढंग से देखते हुए कहा.
“अगर तुम मेरे पास आए थे, तो मेरा अभिवादन कों नहीं
किया, भूतपूर्व टैक्स-संग्राहक?” वोलान्द
ने गम्भीरता से पूछा.
“क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम चिरंजीवी रहो,” आगंतुक
ने तीखा जवाब दिया.
“मगर तुम्हें इससे समझौता करना ही पड़ेगा,” वोलान्द
ने आपत्ति करते हुए कहा और कटु मुस्कुराहट उसके मुख पर छा गई, “छत पर आए देर हुई नहीं कि लगे बेहूदगी करने. मैं तुम्हें बता दूँ, यह बेहूदगी है – तुम्हारे उच्चारण में, लहजे में.
तुम अपने शब्दों का उच्चारण इस तरह करते हो, मानो तुम छायाओं
को, बुराई को नहीं मानते. क्या तुम इस सवाल पर गौर करोगे :
तुम्हारी अच्छाई को अच्छाई कौन कहता, अगर बुराई का अस्तित्व
न होता? धरती कैसी दिखाई देगी, अगर उस
पर से सभी परछाइयाँ लुप्त हो जाएँ? परछाइयाँ तो बनती हैं
पदार्थों से, व्यक्तियों से. यह रही मेरी तलवार की परछाईं.
परछाइयाँ वृक्षों की भी होती हैं और अन्य सजीव प्राणियों की भी. क्या पृथ्वी पर से
सभी पेड़ एवम् सभी सजीव प्राणी हटाकर तुम पृथ्वी को एकदम नंगी कर देना चाहते हो,
सिर्फ नंगी रोशनी का लुत्फ उठाने की अपनी कल्पना की खातिर? तुम बेवकूफ हो!”
“मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहता, बूढ़े दार्शनिक,” लेवी मैथ्यू ने जवाब दिया.
“तुम मुझसे बहस कर भी नहीं सकते, इसलिए कि तुम
बेवकूफ़ हो,” वोलान्द ने जवाब देकर पूछा, “संक्षेप में बताओ, मुझे हैरान करते हुए तुम आए क्यों
हो?”
“उसने मुझे भेजा है.”
“उसने तुम्हें कौन-सा संदेश देकर भेजा है, दास?”
“मैं दास नहीं हूँ,” बुरा मानते हुए लेवी मैथ्यू ने
जवाब दिया, “मैं उसका शिष्य हूँ.”
“हम हमेशा की तरह आपस में भिन्न भाषाओं में बात कर रहे हैं. मगर इससे वे
चीज़ें तो बदल नहीं जातीं, जिनके बारे में हम बातें कर रहे
हैं. तो...” वोलान्द अपनी बहस पूरी किए बिना चुप हो गया.
“उसने मास्टर का उपन्यास पढ़ा है,” लेवी मैथ्यू ने
कहा, “वह तुमसे प्रार्थना करता है कि तुम मास्टर को अब अपने
साथ ले जाओ और पुरस्कार स्वरूप उसे शांति दो. क्या यह तुम्हारे लिए मुश्किल है,
बुराइयों की आत्मा?”
“मेरे लिए कुछ भी करना मुश्किल नहीं है, यह बात तुम
भी अच्छी तरह जानते हो.” कुछ देर चुप रहकर वोलान्द ने आगे कहा, “तुम अपने साथ प्रकाश में क्यों नहीं ले जाते?”
“वह प्रकाश के लायक नहीं है, उसे शांति की ज़रूरत है,”
लेवी ने दुःखी होकर कहा.
“कह देना कि काम हो जाएगा,” वोलान्द ने जवाब देकर आगे
कहा, “तुम यहाँ से फौरन दफ़ा हो जाओ,” उसकी
आँख में चिनगारियाँ चमकने लगीं.
“वह प्रार्थना करता है कि जिसने उसे प्यार किया और दुःख झेले, वह भी आपकी शरण पाए,” लेवी ने पहली बार वोलान्द से
प्रार्थना के स्वर में बात की.
“तुम्हारे बिना तो हम शायद यह बात समझ ही न पाते. अब जाओ!”
इसके बाद लेवी मैथ्यू गायब हो गया.
वोलान्द ने अजाज़ेला को निकट बुलाकर आज्ञा दी, “उनके पास उड़कर जाओ और सब ठीक-ठाक
करके आओ.”
अजाज़ेला छत से चला गया और वोलान्द अकेला रह गया. मगर सिर्फ कुछ ही देर के
लिए. छत पर किसी के कदमों की आहट और कुछ खुश-खुश आवाज़ें सुनाई दीं, और
वोलान्द के सामने आए करोव्येव और बिगिमोत. अब उस मोटॆ के पास स्टोव नहीं था,
वह कई और चीज़ों से लदा-फँदा था. बगल में दबा था सुनहरी फ्रेम में
जड़ा खूबसूरत लैण्डस्केप, बाँह पर टँगा था एक रसोइए का अधजला
एप्रन; और दूसरे हाथ में उसने पूरी की पूरी सोलमन पकड़ रखी
थी – खाल और पूँछ समेत. करोव्येव और बिगिमोत से जलने की बू आ रही थी. बिगिमोत का
चेहरा धुएँ से काला हो गया था. उसकी टोपी आधी जली हुई थी.
“सलाम मालिक,” यह मस्त जोड़ी चिल्लाई और बिगिमोत ने
सोलमन हिलाई.
“बहुत अच्छे,” वोलान्द बोला.
बिगिमोत उत्तेजना और ख़ुशी से बोला, “मालिक, कल्पना
कीजिए, उन्होंने मुझे लुटेरा समझा!”
वोलान्द ने लैण्डस्केप की ओर देखते हुए कहा, “तुम्हारे पास जो सामान है, उसे देखकर तो यही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है, कि तुम
सचमुच लुटेरे हो.”
“आप विश्वास कीजिए, मालिक...” बिगिमोत ने भावविह्वल
आवाज़ में कहना आरम्भ किया.
“नहीं, नहीं करता,” वोलान्द ने
संक्षिप्त उत्तर दिया.
“मालिक, मैं कसम खाकर कहता हूँ कि जो सम्भव था,
उसे बचाने के लिए मैंने बड़ी बहादुरी दिखाई, मगर
बस इतना ही बचा सका.”
“तुम सीधे-सीधे बताओ, ग्रिबायेदव कैसे जला?”
करोव्येव और बिगिमोत, दोनों ने हाथ हिला दिए और आसमान की ओर आँखें उठाकर देखने
लगे. फिर बिगिमोत चीखा, “झूठ नहीं बोलता! हम खामोशी से
शांतिपूर्वक खा रहे थे...”
“और अचानक – त्राख, त्राख!” करोव्येव ने पुष्टि की,
“गोलियाँ चलने लगीं! भय से पागल होकर मैं और बिगिमोत बाहर की ओर
भागे; वे हमारा पीछा करते रहे; हम
तिमिर्याज़ेव की ओर भागे!”
बिगिमोत बीच में टपक पड़ा, “मगर कर्तव्य की भावना ने हमारे भय पर विजय पाई और हम वापस
लौटे!”
“आह, तुम वापस गए?” वोलान्द ने
कहा, “हूँ, बेशक! तभी तो पूरी इमारत
खाक हो गई.”
“बिल्कुल खाक!” करोव्येव ने दुःखी होते हुए कहा, “सचमुच
पूरी की पूरी! मालिक आपने बिल्कुल ठीक कहा. सिर्फ दहकते हुए अँगारे!”
बिगिमोत बताने लगा, “मैं सम्मेलन कक्ष की ओर भागा, वही
जो स्तम्भों वाला है, यह सोचकर कि कोई कीमती चीज़ निकाल
सकूँगा. आह. मालिक! अगर मेरी बीवी होती, तो उसके बीस बार
विधवा होने का ख़तरा था! मगर, सौभाग्य से, मालिक, मेरी शादी ही नहीं हुई; और मैं आपसे स्पष्ट कहता हूँ – मैं सुखी हूँ कि शादी-शुदा नहीं हूँ! आह,
मालिक! क्या एक कुँआरी आज़ादी के बदले कोई झंझट वाला बन्धन स्वीकार
कर सकता है!”
“फिर बकवास शुरू हो गई,” वोलान्द ने फिकरा कसा.
“सुन रहा हूँ और आगे कहता हूँ,” बिल्ले ने जवाब दिया,
“हाँ, तो यह लैण्डस्केप. उस हॉल में से कुछ और
बाहर निकालना सम्भव नहीं था, आग की लपटें मेरे चेहरे को
झुलसा रही थीं. मैं नीचे भण्डारघर की ओर भागा, और इस मछली को
बचाया. रसोईघर में भागा, यह एप्रन बचाया. मैं समझता हूँ,
मालिक, जो सम्भव था वह सब मैंने किया, लेकिन आपके चेहरे के इस व्यंग्यात्मक भाव का कारण मैं समझ नहीं पा रहा.”
“और जब तुम भाग-दौड कर रहे थे, तब करोव्येव क्या कर
रहा था?”
“मैं आग बुझाने वालों की मदद कर रहा था, मालिक,”
करोव्येव ने अपनी फटी पैण्ट की ओर इशारा करते हुए कहा.
“ओह! अगर ऐसी बात है, तो फिर नई बिल्डिंग बनानी
पड़ेगी.”
“वह बन जाएगी, मालिक,” करोव्येव
बोल पड़ा, “मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ.”
“ठीक है, तो फिर मैं कामना करता हूँ कि वह पहले वाली
से अधिक बेहतर होगी,” वोलान्द ने कहा.
“ऐसा ही होगा, मालिक!” करोव्येव बोला.
बिल्ला बोला, “आप मुझ पर भरोसा कीजिए, मैं सचमुच
का पैगम्बर हूँ.”
“ख़ैर, हम आ गए हैं, मालिक,”
करोव्येव बोला, “और आपके हुक्म का इंतज़ार कर
रहे हैं.”
वोलान्द अपने स्टूल से उठकर जँगले तक गया और काफी देर चुपचाप, अपनी
मण्डली की ओर पीठ किए, दूर कहीं देखता रहा. फिर वह जँगले से
हटा, वापस अपने स्टूल पर बैठ गया और बोला, “कोई भी हुक्म नहीं है – तुम लोगों ने वह सब किया, जो
कर सकते थे और फिलहाल तुम्हारे सेवाओं की मुझे ज़रूरत नहीं है. तुम लोग आराम कर
सकते हो. तूफान आने वाला है; आख़िरी तूफ़ान; वह सब काम पूरा कर देगा; और फिर हम चल पड़ेंगे.”
“बहुत अच्छा मालिक,” दोनों जोकरों ने जवाब दिया और वे
छत के बीचों-बीच बने गोल मध्यवर्ती गुम्बज के पीछे कहीं छिप गए.
तूफ़ान,
जिसके बारे में वोलान्द ने कहा था, क्षितिज पर
उठने लगा था. पश्चिम की ओर से एक काला बादल उठा, जिसने सूरज
को आधा काट दिया. फिर उसने उसे पूरी तरह ढाँक लिया. छत पर सुहावना लगने लगा. कुछ
और देर के बाद अँधेरा छाने लगा.
पश्चिम की ओर से आए इस अँधेरे ने उस पूरे शहर को ढाँक लिया. पुल और महल
गायब हो गए. सब कुछ अदृश्य हो गया, मानो दुनिया में उसका कभी अस्तित्व
ही न रहा हो. पूरे आकाश में आग की एक लकीर दौड़ रही थी. फिर शहर पर कड़कड़ाते हुए
बिजली गिरी. दुबारा बिजली की कड़क के बाद मूसलाधार बारिश शुरू हो गई, उस अँधेरे में वोलान्द अदृश्य हो गया.
*********
तीस
बिदाई की बेला
“जानते हो,” मार्गारीटा कह रही थी, “कल रात तुम्हारे सोने के बाद मैं उस अँधेरे के बारे में पढ़ रही थी,
जो भूमध्यसागर से उठा था...और वे मूर्तियाँ, आह,
वे सुनहरी मूर्तियाँ...न जाने क्यों वे मुझे चैन नहीं लेने देतीं.
मुझे महसूस हो रहा है, कि अभी भी बारिश आने वाली है. क्या
तुम मौसम के सुहानेपन को महसूस कर रहे हो?”
“यह सब कितना अच्छा और प्यारा है,” मास्टर ने सिगरेट
का कश लेकर हाथ से धुआँ हटाते हुए कहा, “ये मूर्तियाँ
भी...भगवान उनकी रक्षा करे. मगर आगे क्या होने वाला है, मुझे
कुछ समझ में नहीं आ रहा !”
यह बातचीत सूर्यास्त के समय हो रही थी, तभी, जब छत पर
वोलान्द के पास लेवी मैथ्यू आया था. तहख़ाने वाले घर की खिड़की खुली थी, और अगर कोई उसमें से झाँककर देखता, तो यह देखकर उसे
आश्चर्य होता कि ये बातचीत करने वाले कितने विचित्र दिखाई दे रहे हैं. मार्गारीटा
के नंगे बदन पर सिर्फ काली लम्बी बरसाती थी, और मास्टर अपने
अस्पताल वाले अंतर्वस्त्रों में ही था. ऐसा इसलिए था कि मार्गारीटा के पास पहनने
के लिए कुछ और था ही नहीं, क्योंकि उसकी सभी चीज़ें उस
आलीशान महल में थीं, और, हालाँकि वह
आलीशान महल बिल्कुल दूर नहीं था, मगर, बेशक,
वहाँ जाकर अपनी चीज़ें लेने का सवाल ही नहीं था. मास्टर की भी सारी
पोशाकें वहीं अलमारी में थीं, मानो वह कहीं गया ही नहीं था;
उसने भी बस, कपड़े पहनना ज़रूरी नहीं समझा. वह
मार्गारीटा के सामने यह विचार रख रहा था, कि बस जल्दी दी ही
कोई अद्भुत चमत्कार होने वाला है. सर्दियों की उस रात के बाद उसने पहली बार अपने
हाथ से दाढ़ी बनाई थी. अस्पताल में उसकी दाढ़ी मशीन से बनाई जाती थी.
कमरा काफी अजीब नज़र आ रहा था. उसकी अस्त-व्यस्तता के बीच किसी भी चीज़ को
ढ्ँढ़ पाना काफी मुश्किल था. कालीन पर पांडुलिपियाँ पड़ी थीं. कुर्सी पर कोई
मुड़ी-तुड़ी किताब पड़ी थी. गोल मेज़ पर खाना लगा था और खाने की चीज़ों के साथ-साथ
कुछ बोतलें भी थीं. यह सब सामग्री कहाँ से आई और कैसे आई, इसका
पता न तो मास्टर को था, न ही मार्गारीटा को. जब वे जागे,
तो ये सब टेबुल पर मौजूद था.
शनिवार की शाम तक अच्छी नींद लेने के बाद मास्टर और मार्गारीटा काफी
तरोताज़ा महसूस कर रहे थे, और कल की अद्भुत घटनाओं की याद बस एक ही चीज़ दिला रही थी
– दोनों की ही बाईं पलक कुछ सूजी हुई थी. दोनों की मानसिकता में काफी परिवर्तन हुए
थे, यह उस तहखाने वाले मकान में हो रही बातचीत को सुनकर कोई
भी कह सकता था. मगर सुनने वाला कोई था ही नहीं. यह आँगन इसलिए भी अच्छा था,
क्योंकि यह हमेशा खाली रहता था. प्रतिदिन हरे-हरे लिण्डन के वृक्ष
और खिड़की के बाहर सिरपेचे की बेल बसंती खुशबू देती, और बहती
हवा उसे तहखाने तक ले आती.
“छिः छिः!” अचानक मास्टर चहका, “सोचने से ही कितना
अजीब लगता है,” उसने बची हुई सिगरेट राखदानी में बुझाई और
दोनों हाथों से सिर पकड़कर बोला, “नहीं, सुनो, तुम तो बुद्धिमान हो, और
पागल भी नहीं थीं. तुम्हें क्या इस बात का पूरा यकीन है कि कल हम शैतान के यहाँ थे?”
“पूरा यकीन है,” मार्गारीटा ने जवाब दिया.
मास्टर ने व्यंग्य से कहा, “बेशक! बेशक! अब एक के बदले दो-दो पागल हो गए! पति भी और
पत्नी भी!” उसने आसमान की ओर हाथ उठाकर चिल्लाते हुए कहा, “नहीं,
शैतान जाने यह क्या है! शैतान, शैतान, शैतान!”
जवाब में मार्गारीटा दीवान पर लुढ़क गई, वह ज़ोर-ज़ोर से नंगे पैर हिलाते हुए
हँसने लगी और फिर चीख पड़ी, “ ओह, नहीं!
बस करो! बर्दाश्त नहीं होता! देखो तो तुम कैसे दिख रहे हो?”
काफी देर हँसने के बाद शर्म से जब मास्टर अस्पताल के कच्छे को सम्भाल रहा
था मार्गारीटा संजीदगी से बोली, “तुमने अनजाने में ही सच कह दिया; शैतान
ही जानते हैं कि वह क्या था, और शैतान...मुझ पर विश्वास करो,
सब ठीक कर देगा!” उसकी आँखें अचानक चमकने लगीं. वह उछलकर अपनी ही
जगह पर नाचने और चिल्लाने लगी, “मैं कितनी खुशनसीब हूँ,
मैं कितनी खुशनसीब हूँ...मैं कितनी खुशनसीब हूँ कि उसके साथ समझौता
किया! ओह, शैतान, शैतान! मेरे प्यारे,
तुम्हें चुडैल के साथ रहना पड़ेगा.” इसके बाद वह मास्टर के सीने से
लगकर चिपट गई और उसके होठों को, नाक, और
गालों को बेतहाशा चूमने लगी. काले बिखरे बालों की लटें मास्टर पर खेलती रहीं और
उसके होठ एवँ माथा इन चुम्बनों से जलने लगे.
“तुम तो सचमुच चुडैल के समान हो गई हो.”
“मैं इससे इनकार भी नहीं करती! मैं चुडैल हूँ और इससे बहुत खुश हूँ.”
मार्गारीटा ने जवाब दिया.
मास्टर बोला, “अच्छा, ठीक है. चुडैल हो तो चुडैल
ही सही. बहुत सुन्दर और शानदार हो! मुझे शायद अस्पताल से चुराकर लाया गया है! यह
भी बहुत प्यारी बात है! यहाँ लाकर छोड़ गए, चलो यह भी मान
लेते हैं...यह भी सोच लो कि हमें दुबारा पकड़ नहीं लेंगे, मगर
भगवान के लिए मुझे इतना बताओ, कि हम जिएँगे कैसे? यह मैं इसलिए पूछ रहा हूँ कि मुझे तुम्हारी चिंता है, विश्वास करो.”
इसी समय खिड़की में जूतों की एक जोड़ी और धारियों वाली पैण्ट का निचला
हिस्सा दिखाई दिया. फिर ये पैण्ट घुटनों के बल मुड़ी, और
दिन के प्रकाश को किसी की मोटी पिछाड़ी ने ढाँक दिया.
“अलोइज़ी, क्या तुम घर पर हो?” एक
आवाज़ सुनाई दी.
“देखो, शुरू हो गया,” मास्टर ने
कहा.
मार्गारीटा ने खिड़की के करीब आते हुए कहा, “अलोइज़ी?...कल
शाम को उसे पकड़कर ले गए. कौन पूछ रहा है? आपका नाम क्या है?”
घुटने और पिछाड़ी फौरन गायब हो गए, और फाटक के बन्द होने की आवाज़ आई,
इसके बाद सब कुछ सामान्य हो गया. मार्गारीटा दीवान पर गिर पड़ी और
इस तरह हँसने लगी कि उसकी आँखों से आँसू निकल आए. मगर जब वह शांत हुई तो उसके
चेहरे का भाव एकदम बदल गया. वह बड़ी संजीदगी से बातें करते हुए दीवान से उतरकर
घुटनों के बल चलती हुई मास्टर के निकट आई और उसकी आँखों में देखते हुए वह उसका सिर
सहलाने लगी.
“तुम्हें कितनी तकलीफ झेलनी पड़ी, कितना दुःख उठाना
पड़ा, मेरे प्यारे! इसे सिर्फ मैं ही जानती हूँ. देखो,
तुम्हारे बालों में चाँदी झलकने लगी है और होठों के पास झुर्रियाँ
पड़ गई हैं. मेरे प्यारे, मेरे अपने, अब
किसी बात की चिंता मत करो. तुम्हें बहुत कुछ सोचना पड़ा और अब तुम्हारे लिए
सोचूँगी मैं! मैं वादा करती हूँ, वचन देती हूँ कि सब ठीक
होगा, जितनी उम्मीद है, उससे अधिक...”
“मुझे किसी भी बात का डर नहीं है, मार्गो,” मास्टर ने फौरन जवाब दिया और उसने सिर ऊपर उठाया तो मार्गारीटा को लगा,
कि वह बिल्कुल वैसा ही है, जैसा तब था,
जब वह रचना कर रहा था उसकी जिसे कभी देखा नहीं था, मगर जिसके बारे में, शायद, जानता
था, कि वह हुआ था, “मैं डरता भी नहीं,
क्योंकि मैं सब कुछ सह चुका हूँ. वे मुझे बहुत डरा चुके, अब किसी और बात से डरा नहीं सकते. लेकिन मुझे तुम्हारे लिए अफ़सोस है,
मार्गो! यही महत्वपूर्ण है, इसीलिए मैं
बार-बार ज़ोर देकर कहता हूँ. सम्भल जाओ! एक बीमार और गरीब आदमी के लिए तुम अपनी
ज़िन्दगी क्यों खराब करती हो? वापस अपने घर चली जाओ! मुझे
तुम पर तरस आता है...इसीलिए ऐसा कह रहा हूँ.”
“आह! तुम...तुम...,” बिखरे बालों वाला अपना सिर
हिलाते हुए मार्गारीटा फुसफुसाई, “तुम विश्वास नहीं करते,
अभागे इंसान! तुम्हारे लिए कल पूरी रात मैं नग्नावस्था में काँपती
रही! मैंने अपने स्वरूप को बदल दिया, कितने ही महीने मैं
अँधेरी कोठरी में बैठकर एक ही बात – येरूशलम के ऊपर छाए तूफान के बारे में सोचती
रही, रोते-रोते मेरी आँखें चली गईं, और
अब...जब सुख के दिन आने वाले हैं, तो तुम मुझे भगा रहे हो?
मैं चली जाऊँगी, चली जाऊँगी मैं, मगर याद रखना, तुम निष्ठुर हो! उन्होंने तुम्हारी
आत्मा को मार डाला है!”
मास्टर के हृदय में कटु-कोमल भाव जागे और न जाने क्यों वह मार्गारीटा के
बालों में अपना चेहरा छिपाकर रो पड़ा. वह, रोते हुए फुसफुसाती रही, उसकी उँगलियाँ मास्टर की कनपटियाँ सहलाती रहीं.
“हाँ, चाँदी की लकीरें, चाँदी
की, मेरी आँख़ों के सामने देखते-देखते इस सिर पर बर्फ छा रही
है. आह! दुःख का मारा मेरा यह सिर. देखो, कैसी हो गई हैं
तुम्हारी आँखें! उनमें रेगिस्तान है...और कन्धे, कन्धों पर
कितना बोझ है...तोड़ दिया, तोड़ दिया है, उन्होंने तुम्हें,” मार्गारीटा असम्बद्ध शब्द
बड़बड़ाती रही, रोते-रोते वह काँपने लगी.
तब मास्टर ने अपनी आँखें पोंछी, मार्गारीटा को उठाया, खुद भी खड़ा हो गया और निश्चयपूर्वक बोला, “बस! बहुत
हुआ! तुमने मुझे लज्जित कर दिया. अब मैं कभी साहस नहीं खोऊँगा और न इस बहस को कभी
छेडूँगा; तुम भी शांत हो जाओ. मैं जानता हूँ, हम दोनों अपनी मानसिक बीमारी के सताए हुए हैं! शायद मैंने अपनी मानसिकता
तुम्हें दे दी है...तो, हम सब कुछ साथ-साथ झेलेंगे...”
मार्गारीटा मास्टर के कान के निकट अपने होंठ लाते हुए फुसफुसाई, “तुम्हारी
जान की कसम, तुम्हारे द्वारा रचे गए भविष्यवेत्ता के बेटे की
कसम, सब कुछ ठीक हो जाएगा.”
मास्टर ने हँसते हुए कहा, “बस...बस, चुप करो. जब लोग पूरी तरह
लुट जाते हैं, जैसे कि हम, तो किसी
ऊपरी ताकत में ही सहारा ढूँढ़ते हैं! ख़ैर, मैं भी यह करने
के लिए तैयार हूँ.”
“ओह,...तो तुम...पहले जैसे...हँस रहे हो,” मार्गारीटा बोली, “तुम अपने भारी-भरकम शब्दों के साथ
भाड़ में जाओ. दूसरी दुनिया की ताकत या ना-दूसरी दुनिया की ताकत – क्या सब एक-सी
नहीं है? मुझे भूख लग रही है!”
वह मास्टर को मेज़ की ओर हाथ पकड़कर ले गई.
“मुझे विश्वास नहीं कि ये खाने-पीने की चीज़ें अभी ज़मीन गायब नहीं हो
जाएंगी या उड़कर खिड़की से बाहर नहीं चली जाएँगी,” उसने अब
पूरी तरह शांत होते हुए कहा.
“वे नहीं उड़ेंगी!”
इसी
वक़्त खिड़की में एक नकीली आवाज़ सुनाई दी, “आपको सुख शांति
मिले!”
मास्टर काँप गया, मगर अब तक अजूबों की आदी हो चुकी मार्गारीटा चिल्लाई,
“हाँ, यह अजाज़ेला है! आह, कितना अच्छा है, कितना प्यारा है यह अहसास!” वह
मास्टर के कान में फुसफुसाई, “देखो, वे
हमें भूले नहीं हैं!” वह दरवाज़ा खोलने के लिए भागी.
“तुम कम से कम स्वयँ को ढाँक तो लो,” पीछे से मास्टर
चिल्लाया.
“छोड़ो भी!” अब मार्गारीटा प्रवेश-कक्ष में पहुँच चुकी थी.
अब अजाज़ेला अभिवादन कर रहा था, मास्टर से नमस्ते कह रहा था, उसे अपनी टेढ़ी आँख मार रहा था और मार्गारीटा खुशी से चिल्लाई, “आह, मैं कितनी खुश हूँ! ज़िन्दगी में मैं इतनी खुश
कभी नहीं हुई! मगर माफ करना अजाज़ेला, मेरे तन पर कपड़े नहीं
हैं!”
अजाज़ेला ने कहा कि वह परेशान न हो, उसने
न केवल नंगी, बल्कि खाल निकाली गई औरतें भी देखी है; और वह खुशी-खुशी टेबल के पास बैठ गया, और अँगीठी के
पास, कोने में, उसने काले किमख़ाब में
लिपटा एक पैकेट रख दिया.
मार्गारीटा ने अजाज़ेला के जाम में कोन्याक डाली, जिसे
वह फौरन पी गया. मास्टर उसे लगातार देखे जा रहा था और बीच-बीच में अपने टेबुल के
नीचे अपने बाएँ पैर में चुटकी भी काट लेता था. मगर चुटकियों से कोई लाभ नहीं हुआ. अजाज़ेला
हवा में पिघल नहीं गया. इस लाल बालों वाले नाटे आदमी में कोई अजीब बात नहीं थी,
सिर्फ उसकी आँख कुछ सफेद थी; मगर यह ज़रूरी तो
नहीं कि उसका जादू से कोई सम्बन्ध हो. उसकी पोशाक भी साधारण ही थी – कोई चोगा,
या कोट! अगर गौर से सोचा जाए तो ऐसा भी होता है. कोन्याक भी वह
सहजता से पी रहा था – अन्य सभी भले आदमियों की तरह, गटागट,
बिना कुछ खाए. इस कोन्याक से ही मास्टर का सिर घूमने लगा और वह
सोचने लगा :
‘नहीं, मार्गारीटा सही कहती है! मेरे सामने शैतान का
दूत ही बैठा है. मैंने ही तो अभी परसों रात को इवान के सामने सिद्ध किया था,
कि वह पत्रियार्शी पर शैतान से मिला था और अब न जाने क्यों इस ख़याल
से डरकर सम्मोहनों और भ्रमों के बारे में बकने लगा. कहाँ के सम्मोहक!’
वह अजाज़ेला की ओर देखता रहा और उसे विश्वास हो गया कि उसकी आँखों में कोई
दृढ़ निश्चय है, कोई विचार है, जिसे वह सही समय आने
तक नहीं बताएगा,. ‘वह सिर्फ मिलने के लिए नहीं आया है,
उसे किसी विशेष काम से भेजा गया है,’ मास्टर
ने सोचा.
उसकी निरीक्षण शक्ति ने उसे धोखा नहीं दिया.
कोन्याक का तीसरा पैग पीकर, जिसका उस पर कोई असर नहीं हुआ,
मेहमान ने अपनी बात शुरू की, “यह तहखाना बड़ा
आरामदेह है, शैतान मुझे ले जाए! सिर्फ एक ही बात मैं सोच रहा
हूँ, कि इसमें रहकर किया क्या जाए?”
“यही तो मैं भी कह रहा हूँ,” मास्टर ने मुस्कुराते
हुए जवाब दिया.
“तुम मुझे तंग क्यों कर रहे हो, अजाज़ेला?” मार्गारीटा ने पूछा, “कुछ भी कर लेंगे!”
“आप क्या कह रही हैं?” अजाज़ेला विस्मय से बोला,
“मेरे दिमाग में आपको तंग करने का ख़याल भी नहीं आया. मैं तो खुद ही
कह रहा हूँ – कुछ भी कर लेंगे. हाँ! मैं तो भूल ही गया था, मालिक
ने आपको सलाम भेजा है, और बताने के लिए कहा है कि वे आपको
अपने साथ एक छोटी-सी सैर पर चलने की दावत देते हैं...बेशक...अगर आप चाहें तो. आप
क्या कहती हैं?”
मार्गारीटा
ने टेबुल के नीचे मास्टर को पैर से धक्का दिया.
“बड़ी खुशी से,” मास्टर ने अजाज़ेला को पढ़ते हुए जवाब
दिया.
अजाज़ेला
बोला, “हमें उम्मीद है कि मार्गारीटा निकालायेव्ना भी इनकार
नहीं करेंगी?”
“मैं तो कभी भी इनकार नहीं करूँगी,” मार्गारीटा ने
जवाब दिया और उसका पैर फिर मास्टर के पैर पर रेंग गया.
अजाज़ेला चहका, “बहुत खूब! मुझे यह अच्छा लगता है! एक-दो और हम तैयार हैं!
वर्ना तब...अलेक्सान्द्रव्स्की पार्क में...अब वैसी बात नहीं है.”
“आह, उसकी याद न दिलाइए, अजाज़ेला!
तब मैं बेवकूफ थी. मगर उसके लिए सिर्फ मुझे ही दोष नहीं देना चाहिए – आख़िर कोई हर
रोज़ तो शैतानी ताकत से मिलता नहीं है.”
“क्या बात है!” अजाज़ेला ने पुष्टि करते हुए कहा, “अगर
हर रोज़ मिलता तो अच्छा होता!”
“मुझे खुद भी रफ़्तार पसन्द है,” मार्गारीटा उत्तेजना
से बोली, “अच्छी लगती है रफ्तार और नग्नता. जैसे पिस्तौल से
– फट्! आह, क्या निशाना है इसका,” मार्गारीटा
ने मास्टर की ओर देखते हुए कहा, “सत्ती तकिए के नीचे,
और किसी भी आँख में गोली...” मार्गारीटा को नशा चढ़ रहा था, जिससे उसकी आँखें जल रही थीं.
“मैं फिर भूल गया...” अजाज़ेला चिल्लाया और उसने अपने माथे पर हाथ मारते हुए
कहा, “एकदम भूल गया. मालिक ने आपके लिए उपहार भेजा है,”
अब वह मास्टर से मुखातिब था, “वाइन की यह
बोतल. कृपया गौर कीजिए, यह वही शराब है जो जूडिया का
न्यायाधीश पीता था. फालेर्नो वाइन.”
स्वाभाविक रूप से इस अप्रतिम उपहार ने मास्टर एवम् मार्गारीटा का ध्यान
काफी आकर्षित किया. अजाज़ेला ने काले किमखाब में लिपटी वह लबालब भरी बोतल निकाली.
शराब को सूँघकर उसे प्यालों में डाला गया, उसके आरपार से खिड़की से बाहर तूफान
से पूर्व लुप्त होते उजाले को देखा गया. यह भी देखा कि सब कुछ रक्तिम नज़र आ रहा
था.
“वोलान्द के स्वास्थ्य के लिए!” मार्गारीटा गिलास उठाते हुए चहकी.
तीनों ने अपने-अपने गिलास होठों से लगाए और एक-एक बड़ा घूँट लिया.
मास्टर की आँखों के सामने से फौरन तूफान से पूर्व का प्रकाश लुप्त होने लगा, उसकी
साँस रुकने लगी, उसे महसूस हुआ कि अंत करीब है. उसने यह भी
देखा कि मुर्दे के समान पीली पड़ चुकी मार्गारीटा ने असहाय होकर उसकी ओर हाथ फैलाए,
मेज़ पर सिर पटका और फिर फर्श पर फिसलने लगी.
“ज़हरीले...” मास्टर चिल्लाने में कामयाब हुआ. उसने मेज़ से चाकू उठाकर अजाज़ेला
पर वार करना चाहा, मगर उसका हाथ निढ़ाल होकर मेज़पोश से नीचे
गिर पड़ा, आसपास की सभी चीज़ें काली पड़ गईं, और सब कुछ खो गया. वह पीठ के बल गिर पड़ा. गिरते-गिरते अलमारी से टकराने
के कारण उसकी कनपटी की चमड़ी छिल गई.
जब ज़हर के शिकार शांत हो गए, तो अजाज़ेला ने अपना काम शुरू कर
दिया. सबसे पहले वह खिड़की से बाहर निकला और कुछ ही क्षणों में उस आलीशान घर में
गया, जहाँ मार्गारीटा रहती थी.
हमेशा ठीक-ठाक और सलीके से काम करने वाला अजाज़ेला यह इत्मीनान कर लेना चाहता था कि
सब कुछ ठीक-ठाक हुआ या नहीं. और, सब कुछ एकदम सही हो गया था.
अजाज़ेला ने देखा कि कैसे एक उदास, पति के लौटने की राह देखती
हुई औरत अपने शयनगृह से निकली, एकदम पीली पड़ गई, और सीना पकड़कर असहायता से चिल्लाई, “नताशा! कोई
है...मेरे पास आओ!” वह अध्ययन-कक्ष की ओर जाने से पहले ही ड्राइंगरूम में ज़मीन पर
गिर पड़ी.
“सब ठीक-ठाक है,” अजाज़ेला ने कहा. अगले ही पल वह
बेसुध पड़े प्रेमियों के पास था. मार्गारीटा मुँह के बल कालीन पर गिरी थी. अपने
फौलादी हाथों से अजाज़ेला ने उसे मोड़ा, मानो किसी गुड़िया को
घुमा रहा हो और उसकी ओर देखने लगा. देखते-देखते ज़हर दी गई महिला का चेहरा उसकी
आँखों के सामने बदलने लगा. उमड़कर आए तूफ़ानी अँधेरे में भी साफ दिख रहा था कि कुछ
समय के लिए चुडैलपन के कारण हुआ आँख का तिरछापन, क्रूरता के
भाव और नाक-नक्श की उन्मादकता गायब हो गए. मृत औरत के चेहरे पर जीवन के चिह्न
दिखने लगे और आखिरकार उसके चेहरे पर सौम्यता के भाव छा गए. उसके खुले हुए दाँत
लोलुपता के बदले स्त्री-सुलभ पीड़ा दर्शाने लगे. तब अजाज़ेला ने उसके सफेद दाँतों
को अलग किया और उसके मुँह में उसी शराब की कुछ बूँदें टपकाईं, जिससे उसे मार डाला था. मार्गारीटा ने आह भरी, अजाज़ेला
की सहायता के बगैर उठने लगी और बैठकर
कमज़ोर आवाज़ में पूछने लगी, “क्यों अजाज़ेला, किसलिए? तुमने मुझे क्या कर दिया?”
उसने पड़े हुए मास्टर को देखा, वह काँपी और फुसफुसाई:
“मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी... हत्यारे!”
“नहीं, बिल्कुल नहीं,” अजाज़ेला ने
जवाब दिया, “अभी वह भी उठेगा. आह, आप
इतनी निढ़ाल क्यों हो रही हैं?”
मार्गारीटा ने फौरन उसका विश्वास कर लिया, लाल बालों वाले शैतान का स्वर ही
इतना आश्वासक था, नार्गारीटा उछली, जीवित
और शक्ति से भरपूर, और उसने पड़े हुए मास्टर को शराब की
बूँदें पिलाने में मदद की. आँखें खोलकर उसने निराशा से इधर-उधर देखा और घृणा से
वही शब्द दुहराया, “ज़हरीले...”
“आह! अच्छे काम का पुरस्कार अक्सर अपमान ही होता है,” अजाज़ेला ने जवाब दिया, “क्या तुम अन्धे हो? मगर जल्दी ही ठीक हो जाओगे.”
अब मास्टर उठा, स्वस्थ और स्वच्छ निगाहों से इधर-उधर देखकर पूछने लगा,
“इस नई हरकत का क्या मतलब है?”
“इसका मतलब है,” अजाज़ेला ने जवाब दिया, “कि समय हो गया. बिजली कड़कने लगी है, सुन रहे हो न?
अँधेरा हो रहा है. घोड़े बिजली को रौंदते आ रहे हैं, नन्हा बगीचा काँप रहा है. इस तहखाने से बिदा लो, जल्दी
बिदा लो.”
“ओह,
समझ रहा हूँ,” मास्टर ने आँखें फाड़ते हुए कहा,
“तुमने हमें मार डाला है, हम मृत हैं. आह,
कितना अकलमन्दी का काम किया! कितने सही समय पर किया! अब मैं आपको
समझ गया.”
अजाज़ेला ने जवाब दिया, “कृपया...कृपया...क्या मैं आपको ही सुन रहा हूँ? आपकी प्रियतमा आपको मास्टर कहती है, आप सोचिए,
आप कैसे मर सकते हैं? क्या अपने आपको ज़िन्दा
समझने के लिए तहखाने में बैठना पड़ता है, कमीज़ और अस्पताल
के अंतर्वस्त्र पहनकर? यह अच्छा मज़ाक है!”
“जो कुछ आपने कहा, मैं सब समझ गया,” मास्टर चिल्लाया, “आगे मत बोलिए! आप हज़ार बार सही
हैं!”
मार्गारीटा पुष्टि करते हुए बोली, “महान वोलान्द! महान वोलान्द! उसने
मेरी अपेक्षा कई गुना अच्छी बात सोची. मगर सिर्फ उपन्यास, उपन्यास...”
वह मास्टर से चिल्लाकर बोली, “उपन्यास अपने साथ ले लो,
चाहे कहीं भी उड़ो!”
“कोई ज़रूरत नहीं,” मास्टर ने जवाब दिया, “मुझे वह ज़ुबानी याद है.”
“मगर, तुम एक भी शब्द...क्या उसका एक भी शब्द नहीं
भूलोगे?” मार्गारीटा ने प्रियतम से लिपटकर उसकी कनपटी पर
बहते खून को पोंछते हुए पूछा.
“घबराओ मत! अब मैं कभी भी, कुछ भी नहीं भूलूँगा.” वह
बोला.
“तब आग !....” अजाज़ेला चिल्लाया, “आग जिससे सब शुरू
हुआ और जिससे हम सब कुछ खत्म करेंगे.”
“आग !” मार्गारीटा भयानक आवाज़ में गरजी. तहखाने की खिड़की फट् से खुल गई,
हवा ने परदा एक ओर को हटा दिया. आकाश में थोड़ी-सी, प्यारी-सी कड़कड़ाहट हुई. अजाज़ेला ने अँगीठी में हाथ डालकर जलती हुई लकड़ी
उठा ली और टेबुल पर पड़ा मेज़पोश जला दिया. फिर दीवान पर पड़े पुराने अख़बारों को
जला दिया. उसके बाद पाण्डुलिपि और खिड़की का परदा. भविष्य की सुखद घुड़सवारी के
नशे में मास्टर ने शेल्फ से एक किताब मेज़ पर फेंकी और उसके पन्ने फाड़-फाड़कर
जलते हुए मेज़पोश पर फेंकने लगा; किताब उस खुशगवार आग में
भड़क उठी.
“जलो, जल जाओ, पुरानी
ज़िन्दगी!”
“जल जाओ, दुःखों और पीड़ाओं!” मार्गारीटा चिल्लाई.
कमरा लाल-लाल लपटों से भर गया और धुएँ के साथ-साथ तीनों दरवाज़े से बाहर
भागे, पत्थर
की सीढ़ी पर चढ़कर वे आँगन में आए. सबसे पहली चीज़ जो उन्होंने देखी, वह थी कॉंट्रेक्टर की बावर्चिन., जो ज़मीन पर बैठी
थी. उसके निकट पड़ा था आलुओं और प्याज़ का ढेर. बावर्चिन की हालत देखने लायक थी.
तीन काले घोड़े मकान के निकट हिनहिना रहे थे, अपने खुरों से
मिट्टी उछाल रहे थे, थरथरा रहे थे. सबसे पहले मार्गारीटा
उछलकर बैठी, उसके बाद अजाज़ेला, अंत में
मास्टर.
बावर्चिन ने कराहते हुए सलीब का निशान बनाने के लिए हाथ उठाया, मगर
घोड़े पर बैठा हुआ अजाज़ेला दहाड़ा,
“हाथ काट दूँगा!” उसने सीटी बजाई और घोड़े लिण्डन की टहनियों को
तोड़ते, आवाज़ करते हुए ऊपर उड़े और काले बादल में समा गए.
तभी तहखाने की खिड़की से धुआँ बाहर निकला. नीचे से बावर्चिन की पतली, कमज़ोर चीख सुनाई दी, “जल रहे हैं!”....
घोड़े मॉस्को के घरों की छतों पर जा चुके थे.
“मैं शहर से बिदा लेना चाहता हूँ,” मास्टर ने अजाज़ेला
से चिल्लाकर कहा, जो सबसे आगे छलाँगें भरता जा रहा था. बिजली
की कड़क मास्टर के वाक्य के अंतिम हिस्से को निगल गई. अजाज़ेला ने सिर हिलाया और
अपने घोड़े को चौकड़ी भरने दी. उड़ने वालों के स्वागत के लिए एक बादल तैरता हुआ
आया, मगर उसने अभी पानी का छिड़काव नहीं किया.
वे दुतर्फा पेड़ों वाले रास्ते पर उड़ने लगे, देखा कि कैसे लोगों की नन्ही-नन्ही
आकृतियाँ बारिश से बचने के लिए इधर-उधर भाग रही हैं. पानी की बूँदें गिरना शुरू हो
गई थीं. वे धुएँ के बादल के ऊपर होकर उड़ रहे थे – यही थे ग्रिबायेदव के अवशेष. वे
शहर के ऊपर उड़े, जिसे अब अँधेरा निगल चुका था. उनके ऊपर
बिजलियाँ चमक रही थीं. फिर मकानों की छतों का स्थान हरियाली ने ले लिया. तब बारिश
ने उन्हें दबोच लिया; वे तीनों उड़ती हुई आकृतियाँ पानी से
लबालब गुब्बारे जैसी लगने लगीं.
मार्गारीटा को पहले भी उड़ने का अनुभव था, मगर मास्टर को – नहीं. उसे यह देखकर
आश्चर्य हुआ कि वह अपने लक्ष्य के निकट कितनी जल्दी पहुँच गया – यानी उसके पास,
जिससे वह बिदा लेना चाहता था. बारिश की चादर में उसने
स्त्राविन्स्की के अस्पताल की बिल्डिंग को पहचान लिया; नदी
और उसके दूसरे किनारे पर स्थित लिण्डेन के वन को भी उसने पहचान लिया, जिसे वह भली-भाँति जानता था. वे अस्पताल से कुछ दूर झाड़ी में उतरे.
“मैं तुम्हारा यहाँ इंतज़ार करूँगा,” अजाज़ेला हाथ
मोड़े बिजली की रोशनी में कभी प्रकट होते और कभी लुप्त होते चिल्लाया, “अलबिदा कहकर आओ, मगर जल्दी.”
मास्टर और मार्गारीटा घोड़ों से उतरे और पानी के बुलबुलों की तरह उड़ते-उड़ते
अस्पताल के बगीचे के ऊपर से आगे बढ़ गए. एक क्षण के बाद मास्टर ने सधे हुए हाथों
से 117 नं. कमरे की बालकनी में खुलने वाली जाली के दरवाज़े को खोला, मार्गारीटा
उसके पीछे-पीछे गई. वे इवानूश्का के कमरे में घुसे. बिना दिखे. बिजली कड़क रही थी.
मास्टर पलंग के पास रुका.
इवानूश्का चुपचाप लेटा हुआ था. उसी तरह जैसे तब लेटा था, जब
उसने पहली बार अपने इस विश्राम गृह में तूफान देखा था. लेकिन वह उस बार जैसे रो
नहीं रहा था. जब उसने देखा कि कैसे एक काला साया बालकनी से उसकी ओर बढ़ा आ रहा है,
तो वह उठ पड़ा और खुशी से हाथ फैलाकर बोला, “ओह,
यह आप हैं! मैंने आपका कितना इंतज़ार किया. आख़िर आ ही गए, मेरे पड़ोसी.”
इस पर मास्टर ने जवाब दिया, “मैं यहाँ हूँ! मगर अफ़सोस कि अब मैं
तुम्हारा पड़ोसी नहीं बना रह सकता. मैं हमेशा के लिए उड़कर जा रहा हूँ और सिर्फ
तुमसे बिदा लेने आया हूँ.”
“मैं जानता था, मुझे अन्दाज़ था...” इवान ने हौले से
कहा और उसने पूछा, “क्या आप उससे मिले?”
“हाँ,” मास्टर ने कहा, “मैं
तुमसे बिदा लेने इसलिए आया हूँ क्योंकि तुम्हीं एक आदमी हो जिससे मैंने पिछले
दिनों बातें की हैं.”
इवानूश्का का चेहरा खिल उठा और वह बोला, “यह ठीक किया कि आप यहाँ उड़ते हुए
आए. मैं अपने वचन का पालन करूँगा, अब कभी कविता नहीं
लिखूँगा. अब मुझे एक दूसरी चीज़ में दिलचस्पी हो गई है,” इवानूश्का
मुस्कुराया और वहशियत भरी आँखों से मास्टर के परे देखने लगा, “मैं कुछ और लिखना चाहता हूँ. जानते हैं, यहाँ लेटे-लेटॆ
मैं काफी कुछ समझ गया हूँ.”
मास्टर इन शब्दों को सुनकर परेशान हो गया और इवानूश्का के पलंग के किनारे
पर बैठकर बोला, “यह ठीक है, अच्छा है. तुम उसके बारे
में आगे लिखोगे!”
इवानूश्का की आँखें फटी रह गईं, “क्या तुम खुद नहीं लिखोगे?” उसने सिर झुकाया और सोच में डूबकर बोला, “ओह,
हाँ...मैं यह क्या पूछ रहा हूँ!”
“हाँ,” मास्टर ने कहा और इवानूश्का को उसकी आवाज़
खोखली और अपरिचित लगी, “मैं अब उसके बारे में नहीं लिखूँगा.
मुझे और काम करना है.”
दूर
से एक सीटी तूफान के शोर को चीरती हुई आई.
“तुम सुन रहे हो?” मास्टर ने पूछा.
“तूफ़ान का शोर...”
“नहीं, यह मुझे बुला रहे हैं, मेरा
समय हो गया,” मास्टर ने समझाया और वह पलंग से उठ पड़ा.
“थोड़ा रुकिए! एक और बात...” इवान ने विनती की, “क्या
आपको वह मिली? वह आपके प्रति वफादार रही?”
“यह रही वो...” मास्टर ने जवाब देते हुए दीवार की ओर इशारा किया. सफेद
दीवार से अलग होती हुई काली मार्गारीटा पलंग के निकट आई. उसने लेटे हुए नौजवान की
ओर देखा और उसकी आँखों में करुणा झलक आई.
“ओह, बेचारा, गरीब!” मार्गारीटा
अपने आप से फुसफुसाई और पलंग की ओर झुकी.
“कितनी सुन्दर है!” बिना ईर्ष्या के, मगर दुःख और कुछ
कोमलता से इवान ने कहा, “देखते हो, तुम्हारा
सब कुछ कैसे अच्छा हो गया. मगर मेरे साथ तो ऐसा नहीं है,” वह
कुछ देर सोचकर आगे बोला, “और शायद, हो
सकता है, कि ऐसा...”
“हो सकता है, हो सकता है,” मार्गारीटा
फुसफुसाई और लेटे हुए नौजवान पर झुककर बोली, “मैं तुम्हारा
माथा चूमूँगी और तब सब कुछ वैसा ही होगा, जैसे होना
चाहिए...तुम इस पर विश्वास रखो, मैंने सब देखा है, सब जानती हूँ.”
लेटे
हुए नौजवान ने अपने हाथों से उसके कन्धों को पकड़ा और उसने उसे चूमा.
“अलबिदा, मेरे विद्यार्थी,” मास्टर
ने धीरे से कहा और वह हवा में पिघलने लगा. वह गायब हो गया, उसके
साथ ही मार्गारीटा भी आँखों से ओझल हो गई. बालकनी की जाली बन्द हो गई.
इवानूश्का परेशान हो गया. वह पलंग पर बैठ गया, उत्तेजना
से इधर-उधर देखने लगा, कराहने लगा, अपने-आप
से बातें करने लगा, उठकर खड़ा हो गया. तूफान का ज़ोर बढ़ता
जा रहा था. शायद वही इवान को भयभीत कर रहा था. उसे इस बात से भी घबराहट हो रही थी
कि उसके दरवाज़े के पीछे जहाँ हमेशा खामोशी रहती थी, उसे
घबराहट भरे कदमों की आहट सुनाई दे रही थी; धीमी-धीमी आवाज़ें
भी आ रही थीं. उसने काँपते हुए पुकारा, “प्रस्कोव्या
फ्योदरव्ना!”
प्रस्कोव्या फ्योदरव्ना कमरे में आ गई और चिंता से, प्रश्नार्थ
नज़रों से इवानूश्का को देखने लगी.
“क्या है? क्या हुआ?” उसने पूछा,
“तूफान से डर लग रहा है? कोई बात नहीं,
कोई बात नहीं...अभी आपकी मदद करते हैं. अभी मैं डॉक्टर को बुलाती
हूँ.”
“नहीं, प्रस्कोव्या फ्योदरव्ना, डॉक्टर को बुलाने की कोई ज़रूरत नहीं है,” इवानूश्का
ने परेशानी से प्रस्कोव्या फ्योदरव्ना के बदले दीवार की ओर देखते हुए कहा,
“मुझे कोई खास तकलीफ नहीं है; आप घबराइए मत,
मैं सब समझ रहा हूँ. आप कृपया मुझे बताइए...” इवान ने तहेदिल से कहा,
“वहाँ, बगल में, एक सौ
अठाहर नम्बर के कमरे में अभी क्या हुआ?”
“एक सौ अठारह में?” प्रस्कोव्या फ्योदरव्ना ने सवाल
ही पूछ लिया और वह इधर-उधर आँखें दौड़ाने लगी, “वहाँ कुछ भी
तो नहीं हुआ!”
मगर उसकी आवाज़ साफ झूठी मालूम हो रही थी, इवानूश्का ने इसे फौरन ताड़ लिया और
बोला, “ए...प्रस्कोव्या फ्योदरव्ना! आप इतनी सच्ची इंसान
हैं...आप समझ रही हैं, मैं कोई हंगामा करूँगा? बदहवास हो जाऊँगा? नहीं, प्रस्कोव्या
फ्योदरव्ना, ऐसा नहीं होगा. आप सच-सच बताइए. मैं दीवार के इस
पार से सब महसूस कर रहा हूँ.”
“अभी आपका पड़ोसी खत्म हो गया!” प्रस्कोव्या फ्योदरव्ना फुसफुसाई, अपनी भलमनसाहत और सच्चाई को वह रोक नहीं पाई, और
बिजली की रोशनी में नहाई, डरी-डरी आँखों से इवानूश्का की ओर
देखने लगी.
मगर इवानूश्का के साथ कोई भी भयानक बात नहीं हुई. उसने आसमान की ओर
अर्थपूर्ण ढंग से उँगली उठाई और बोला, “मुझे मालूम था कि यही होगा! मैं
विश्वासपूर्वक आपसे कहता हूँ, प्रस्कोव्या फ्योदरव्ना,
कि अभी-अभी शहर में भी एक व्यक्ति की मृत्यु हुई है. मुझे यह भी
मालूम है, किसकी...” इवानूश्का ने रहस्यपूर्ण ढंग से
मुस्कुराते हुए कहा, “यह एक औरत है!”
******
इकतीस
वराब्योव पहाड़ों पर
तूफान कोई भी निशान छोड़े बिना गुज़र गया और पूरे मॉस्को को समेटता
इन्द्रधनुष आकाश में निकल आया, जिसका एक सिरा मॉस्को नदी का जल पी रहा था. ऊपर पहाड़ी पर
दो झुरमुटों के बीच तीन काले साए दिखाई दिए. वोलान्द, बिगिमोत और करोव्येव काले घोड़ों पर बैठे थे और नदी के उस ओर फैले
हुए शहर को देख रहे थे, जिस पर टूटा सूरज पश्चिम की ओर खुलती
हज़ारों खिड़कियों में झिलमिला रहा था. दूर खिलौने की तरह देविची मॉनेस्ट्री दिखाई
दे रही थी.
हवा में सरसराहट हुई और अजाज़ेला, जिसके कोट के पिछले पल्ले के साए में
मास्टर और मार्गारीटा उड़ रहे थे, उनके साथ घोड़े से उतरकर
इंतज़ार करते हुए इन तीनों के पास आया.
“आपको परेशान करना पड़ा, मार्गारीटा निकालायेव्ना और
मास्टर,” वोलान्द ने खामोशी को तोड़ते हुए कहा, “मगर आप मेरे बारे में कोई गलत धारणा न बनाइए. मैं नहीं सोचता कि बाद में
आपको अफसोस होगा. तो...” वह सिर्फ मास्टर से मुखातिब हुआ, “शहर
से बिदा लीजिए. चलने का वक़्त हो गया है.”
वोलान्द ने काले फौलादी दस्ताने वाले हाथ से उधर इशारा किया, जहाँ
नदी के उस ओर काँच को पिघलाते हुए हज़ारों सूरज चमक रहे थे; जहाँ
इन सूरजों के ऊपर छाया था कोहरा, धुआँ, दिन भर में थक चुके शहर का पसीना.
मास्टर घोड़े से उतरा, बाकी लोगों को छोड़कर पहाड़ी की कगार की तरफ भागा. उसके
पीछे काला कोट ज़मीन पर घिसटता चला जा रहा था. मास्टर शहर को देखने लगा. पहले कुछ
क्षण दिल में निराशा के भाव उठे मगर शीघ्र ही उनका स्थान ले लिया एक मीठी उत्तेजना
ने, घूमते हुए बंजारे की घबराहट ने.
“हमेशा के लिए! यह समझना चाहिए...” मास्टर बुदबुदाया और उसने अपने सूखे,
कटे-फटे होठों पर जीभ फेरी. वह अपने दिल में उठ रहे हर भाव का गौर
से अध्ययन करता रहा. उसकी घबराहट गुज़र गई; गहरे, ज़ख़्मी अपमान की भावना ने उसे भगा दिया. मगर यह भी कुछ ही देर रुकी;
अब वहाँ प्रकट हुई एक दर्पयुक्त उदासीनता, उसके
बाद एक चिर शांति की अनुभूति हुई.
वे सब खामोशी से मास्टर का इंतज़ार कर रहे थे. यह समूह देख रहा था कि लम्बी, काली
आकृति पहाड़ की कगार पर खड़ी कैसे भाव प्रकट कर रही है – कभी सिर उठा रही है,
मानो पूरे शहर को अपनी निगाहों के घेरे में लेना चाहती हो; कभी सिर झुका रही है, मानो पैरों के नीचे कुचली घास
का अवलोकन कर रही है.
खामोशी को तोड़ा उकताए हुए बिगिमोत ने. बोला, “मालिक, मुझे
चलने से पहले सीटी बजाने की इजाज़त दीजिए.”
“तुम महिला को डरा दोगे,” वोलान्द ने उत्तर दिया,
“और याद रखो कि तुम्हारी आज की शरारतें खत्म हो चुकी हैं.”
“आह, नहीं, नहीं, महाशय,” मार्गारीटा बोल पड़ी, जो
कमर पर हाथ रखे घुड़सवारी की लम्बी पोषाक में घोड़े पर सवार थी, “उसे इजाज़त दे दीजिए. सीटी बजाने दीजिए. मुझे लम्बे रास्ते पर जाने से
पहले उदास लग रहा है. महाशय, क्या यह स्वाभाविक है, तब भी जब इंसान को मालूम होता है कि इस सफर के बाद उसे सुख मिलने वाला है?
वह हमें हँसाएगा, वर्ना मुझे डर है कि मैं रो
पडूँगी और सफर से पहले सब किया-कराया मिट्टी में मिल जाएगा.”
वोलान्द ने बिगिमोत की ओर देखकर सिर हिलाया, वह चहक उठा, ज़मीन
पर कूद गया; मुँह में उँगलियाँ रखकर गाल फुलाते हुए उसने
सीटी बजाई. मार्गारीटा के कानों में घण्टियाँ बज उठीं. उसका घोड़ा पिछली टाँगों पर
खड़ा हो गया, झुरमुट में पेड़ों से सूखी टहनियाँ गिरने की
सरसराहट सुनाई दी; कौओं और चिड़ियों का एक पूरा झुण्ड
फड़फड़ाकर उड़ गया. धूल का बवण्डर उठकर नदी के निकट गया और किनारे-किनारे जा रही
जल-ट्रामगाड़ी में बैठे कुछ मुसाफिरों की टोपियाँ उड़कर पानी में जा गिरीं. मास्टर
इस सीटी से काँप गया, मगर वह मुड़ा नहीं, बल्कि अधिक बेचैनी से आसमान की ओर हाथ उठाकर हावभाव प्रदर्शित करने लगा –
मानो शहर को धमका रहा हो. बिगिमोत ने गर्व से इधर-उधर देखा.
“सीटी तो बजी, बहस की कोई बात नहीं है,” शिष्टाचार से करोव्येव ने कहा, “सचमुच सीटी बजी,
मगर यदि साफ-साफ कहा जाए तो बड़ी मध्यम दर्जे की सीटी थी!”
“मैं कोई कॉयर-मास्टर थोड़े ही हूँ,” बिगिमोत ने कुछ
घमण्ड से हँसी उड़ाते हुए कहा, उसने गाल फुला लिए और अचानक
मार्गारीटा की ओर देखकर आँख मारी.
“चलो, मैं अपनी पुरानी याद से कोशिश करता हूँ,”
करोव्येव ने कहा, उसने हाथ पोंछे और उँगलियों
पर फूँक मारी.
“तुम देखो, देखो,” अपने घोड़े
से वोलान्द की गम्भीर आवाज़ सुनाई दी, “किसी को नुक्सान न
पहुँचे!”
“मालिक, विश्वास रखिए,” करोव्येव
ने दिल पर हाथ रखकर कहा, “मज़ाक, सिर्फ
मज़ाक की खातिर...” अब वह एकदम ऊँचा होने लगा, मानो इलास्टिक
का बना हो; सीधे हाथ की उँगलियों से एक अजीब-सी आकृति बनाई,
एक स्क्रू की तरह गोल-गोल घूम गया और फिर उल्टी दिशा में घूमते हुए
अचानक सीटी बजा दी.
इस सीटी की आवाज़ को मार्गारीटा ने सुना नहीं, मगर
देखा, जब वह अपने फुफकारते घोड़े समेत दस हाथ दूर फेंकी गई.
उसकी बगल में चीड़ का पेड़ जड़ों समेत उखड़कर गिरा था और धरती नदी तक दरारों से पट
गई थी. नदी किनारे का पूरा आँचल, घाट और रेस्तराँ समेत,
नदी में धँस गया. नदी का पानी उफनने-उछलने लगा और उसने जल-ट्रामगाड़ी
को निर्दोष मुसाफिरों समेत सामने के निचले, हरे किनारे पर
फेंक दिया. मार्गारीटा के पैरों के पास करोव्येव की सीटी से मर गया पंछी पड़ा था. इस सीटी ने
मास्टर को भयभीत कर दिया. उसने सिर पकड़ लिया और तुरंत इंतज़ार करने वालों के पास
भागा.
“हाँ,
तो, सब हिसाब चुका दिए? बिदा
ले ली?” वोलान्द ने घोड़े पर बैठे-बैठे कहा.
“हाँ, ले ली,” मास्टर ने कहा और
शांत किंतु निडर भाव से सीधे वोलान्द के चेहरे की ओर देखा.
तब पहाड़ों पर बिगुल की तरह वोलान्द की भयानक आवाज़ गूँजी, “चलो
!!”
और गूँजी बिगिमोत की पैनी सीटी और हँसी.
घोड़े आगे लपके, घुड़सवारों ने उन पर च्रढ़कर ऐड़ लगा दी. मार्गारीटा महसूस
कर रही थी कि कैसे उसका घोड़ा बदहवास होकर उसे ले जा रहा है. वोलान्द के कोट का
पल्ला इस घुड़सवार दस्ते के ऊपर सबको समेटॆ हुए उड़ रहा था; कोट
शाम के आकाश को ढाँकता गया. जब एक क्षण के लिए काला आँचल दूर हटा तो मार्गारीटा ने
मुड़कर पीछे देखा, और पाया कि न केवल पीछे की रंग-बिरंगी
मीनारें उन पर मँडराते हवाई जहाज़ों के साथ लुप्त हो चुकी हैं, बल्कि पूरा का पूरा शहर भी गायब हो गया था.वह कब का धरती में समा गया था
और अपने पीछे छोड़ गया था सिर्फ घना कोहरा.
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बत्तीस
क्षमा और चिरंतन आश्रय स्थान
हे भगवान! हे मेरे
भगवान! शाम की धरती कितनी उदास होती है! पोखरों पर छाया कोहरा कितना रहस्यमय होता
है! यह वही जान सकता है, जो इन कोहरों में खो गया हो, जिसने
मृत्युपूर्व असीम यातनाएँ झेली हों, जो इस पृथ्वी पर उड़ा हो,
जिसने अपने मन पर भारी बोझ उठाया हो. यह एक थका हारा व्यक्ति ही समझ
सकता है. तब वह इस कोहरे के जाल को बगैर किसी दुःख के छोड़कर जा सकता है, पृथ्वी के पोखरों और नदियों से बगैर किसी मोह के मुँह मोड़ सकता है,
हल्के मन से अपने आप को मृत्यु के हाथों में सौंप सकता है, यह जानते हुए कि सिर्फ वही उसे ‘शांति’ दे सकती है.
जादुई काले घोड़े भी
थक गए और अब वे अपने सवारों को धीरे-धीरे ले जा रहे थे, और
अपरिहार्य रात उनका पीछा कर रही थी. रात को अपने पीछे अनुभव करके हठी बिगिमोत भी
खामोश हो गया, वह अपने पंजों से ज़ीन को कसकर पकड़े बैठा था,
अपनी पूँछ फुलाए वह गम्भीरता और खामोशी से उड़ रहा था. रात अपने
काले आँचल से जंगलों और चरागाहों को ढाँकती जा रही थी, दूर
कहीं नीचे टिमटिमटिमाते दिए जलाती जा रही थी; जिनमें अब न तो
मार्गारीटा को और न ही मास्टर को कोई दिलचस्पी थी और न ही थी उनकी कोई ज़रूरत –
पराए दिए. घुड़सवारों का पीछा करती रात उनकी राह में उदास आसमान में तारे बिखेरती
जा रही थी..
रात गहरी होती गई; साथ-साथ
उड़ते हुए घुड़सवारों को वह बीच-बीच में दबोच लेती, कन्धों
से उनके कोट खींचकर सभी धोखों, छलावों को उजागर करती जा रही
थी. जब ठण्डी हवा के थपेड़े सहती मार्गारीटा ने अपनी आँखें खोलीं तो देखा कि अपने
लक्ष्य की ओर उड़ते सभी साथियों का रंग-रूप परिवर्तित होता जा रहा है. जब उनके
स्वागत के लिए जंगल के पीछे से लाल-लाल, पूरा चाँद निकलने
लगा, तो सभी छलावे पोखर में गिर पड़े, जादूभरी
पोशाकें कोहरे में विलीन होने लगीं.
करोव्येव-फ़गोत को
पहचानना असम्भव था, वही जो अपने आपको उस रहस्यमय और किन्हीं भी अनुवादों का
मोहताज न होने वाले सलाहकार का अनुवादक कहता था, और जो इस
समय वोलान्द के साथ-साथ, मास्टर की प्रियतमा के दाहिनी ओर
उड़ रहा था. करोव्येव -फ़गोत के नाम से जो व्यक्ति सर्कस के जोकर वाली पोशाक पहने वराब्योव
पहाड़ों पर से उड़ा था, उसके स्थान पर घोड़े पर सवार था हौले
से झनझनाती सुनहरी लगाम पकड़े बैंगनी काले रंग का सामंत, उसका
चेहरा अत्यंत उदास था, शायद वह कभी भी मुस्कुराता तक नहीं
था. उसने अपनी ठोढ़ी सीने में छिपा ली थी, वह चाँद की तरफ
नहीं देख रहा था, अपने नीचे की पीछे छूटती धरती में उसे कोई
दिलचस्पी नहीं थी. वह वोलान्द की बगल में उड़ते हुए अपने ही खयालों में मगन था.
“वह इतना क्यों बदल गया है?” हवा की सनसनाहट के बीच
मार्गारीटा ने वोलान्द से पूछा.
“इस सामंत ने कभी गलत मज़ाक किया था,” वोलान्द ने
अपनी अंगारे जैसी आँख वाला चेहरा मार्गारीटा की ओर मोड़कर कहा, “अँधेरे, उजाले के बारे में बनाया गया उसका शब्दों का
खेल बिल्कुल अच्छा नहीं था. इसीलिए इस सामंत को उसके बाद काफी लम्बे समय तक और
अधिक मज़ाक करना पड़ा, उसकी कल्पना से भी बढ़कर. मगर आज वह
रात है, जब कर्मों का लेखा-जोखा देखा जाता है. सामंत ने अपना
हिसाब चुका दिया है और उसका खाता बन्द हो गया है!”
रात ने बिगिमोत की
रोएँदार पूँछ को भी निगल डाला, उसके बदन से बालों वाली खाल खींचकर, उसके
टुकड़े-टुकड़े करके पोखरों में बिखेर दिए. वह जो बिल्ला था, रात
के राजकुमार का दिल बहलाता था, अब बन गया था एक दुबला-पतला
नौजवान, शैतान दूत, बेहतरीन मज़ाक करने
वाला, जो किसी समय दुनिया में रहता था. अब वह भी मौन हो गया
था और चुपचाप उड़ रहा था, अपना जवान चेहरा चाँद से झरझर झरते
प्रकाश की ओर किए.
सबसे
किनारे पर उड़ रहा था अजाज़ेला, चमकती स्टील की पोशाक में.
चाँद ने उसका भी चेहरा बदल दिया था. उसका बाहर निकला भद्दा दाँत गायब हो गया था,
आँख का टेढ़ापन भी झूठा ही निकला. अजाज़ेला की दोनों आँखें एक-सी थीं,
काली और खाली, और चेहरा सफेद और सर्द. अब अजाज़ेला
अपने असली रूप में उड़ रहा था, रेगिस्तान के शैतान के रूप
में, शैतान-हत्यारे के रूप में.
अपने आपको तो
मार्गारीटा देख नहीं पाईअ, मगर उसने भली भाँति देखा कि मास्टर भी बदल गया है. अब चाँद
की रोशनी में उसके बाल चमक रहे थे और पीछे एक चोटी के समान इकट्ठे हो गए थे,
जो हवा में उड़ रहे थे. जब मास्टर के पैरों से कोट अलग होता,
तो मार्गारीटा उसके लम्बे-लम्बे जूतों में जलते-बुझते सितारे देखती.
नौजवान शैतान की ही भाँति मास्टर भी चाँद से आँखें हटाए बगैर उड़ रहा था, उसे देखकर यूँ मुस्कुरा रहा था मानो वह पूर्व परिचित प्रियतमा हो. एक सौ
अठारह नम्बर के कमरे में पड़ी आदत के अनुसार अपने आप से कुछ बड़बड़ा रहा था.
और, आख़िरकार,
वोलान्द भी अपने असली रूप में उड़ रहा था. मार्गारीटा समझ नहीं पाई
कि उसके घोड़े की लगाम किस चीज़ से बनी है, और वह सोच रही थी कि यह चाँद की श्रृंखला है, और उसका घोड़ा –
नैराश्य की प्रतिमूर्ति; घोड़े की ग्रीवा – काले बादल की,
और घुड़सवार की रकाब – सितारों के सफेद गुच्छे की बनी प्रतीत होती
थी.
इस तरह खामोशी में काफी
देर तक उड़ते रहे, जब तक कि नीचे की जगह बदलने न लगी. उदास, निराश जंगल अँधेरी धरती में डूब गए और अपने साथ टिमटिमाती नदियों की
धाराओं को भी ले डूबे. नीचे पर्वतों की चोटियाँ और खाइयाँ नज़र आने लगीं, जिनमें चाँद की रोशनी नहीं पहुँच रही थी.
वोलान्द ने अपने घोड़े
को पत्थर की एक वीरान समतल ऊँचाई पर रोका और तब घोड़ों के खुरों के नीचे चरमराते
पत्थरों और ठूँठों की आवाज़ सुनते घुड़सवार पैदल चल पड़े. चाँद इस जगह पर अपनी
पूरी, हरी
रोशनी बिखेर रहा था और शीघ्र ही मार्गारीटा ने इस सुनसान जगह पर देखी कुर्सी और
उसमें बैठे आदमी की श्वेत आकृति. सम्भव है, यह व्यक्ति या तो
एकदम बहरा था या अपने ख़यालों में खोया हुआ था. उसने पथरीली ज़मीन के कम्पनों को
नहीं सुना, जो घोड़ों के वज़न से कसमसा रही थी, और घुड़सवार भी उसे परेशान किए बिना उसके निकट गए.
चाँद ने मार्गारीटा
की मदद की; वह सबसे अच्छे बिजली के लैम्प से भी ज़्यादा अच्छा चमक रहा
था. इस रोशनी में मार्गारीटा ने देखा कि बैठा हुआ आदमी, जिसकी
आँखें अन्धी लग रही थीं, अपने हाथ मल रहा था और इन्हीं बेजान
आँखों को चाँद पर लगाए था. अब मार्गारीटा ने यह भी देखा कि उस भारी पाषाण की कुर्सी
के निकट, जिस पर चाँद की रोशनी से कुछ चिनगारियाँ चमक रही
हैं, एक काला, भव्य, तीखे कानों वाला कुत्ता लेटा है, जो अपने मालिक की
ही भाँति व्याकुलता से चाँद की ओर द्ख रहा है.
बैठे हुए व्यक्ति के
पैरों के पास टूटी हुई सुराही के टुकड़े बिखरे पड़े हैं और बिना सूखे काले-लाल
द्रव का नन्हा-सा तालाब बन गया है.
घुड़सवारों ने
अपने-अपने घोड़ों को रोका.
“आपका उपन्यास पढ़ लिया गया है,” वोलान्द ने मास्टर
की ओर मुड़कर कहना शुरू किया, “और उसके बारे में सिर्फ इतना
कहा गया है कि वह अधूरा है. इसलिए मैं आपको आपके नायक को दिखाना चाहता था. करीब दो
हज़ार सालों से वह यहाँ बैठा है और सोता रहता है, मगर जब
पूर्णमासी की रात आती है, तो, आप देख
रहे हैं कि कैसे उसे अनिद्रा घेर लेती है. यह चाँद न केवल उसे, बल्कि उसके वफादार चौकीदार कुत्ते को भी व्याकुल करता है. अगर यह सही है
कि ‘कायरता – सबसे अधिक अक्षम्य अपराध है’, तो कुत्ते का तो
इसमें कोई दोष नहीं है. यह बहादुर कुत्ता सिर्फ जिस चीज़ से डरा वह है – तूफान!
ख़ैर, जो प्यार करता है, उसे प्रियतम
के भाग्य को बाँटना ही पड़ता है.”
“यह क्या कह रहा है?” मार्गारीटा ने पूछा और उसके
शांत चेहरे पर सहानुभूति की घटा छा गई.
“वह कह
रहा है...” वोलान्द की आवाज़ गूँजी, “बस एक ही बात, वह ये कि चाँद की रोशनी में भी उसे चैन नहीं है और उसका कर्तव्य ही इतना
बुरा है. ऐसा वह हमेशा कहता है जब सोता नहीं है, और जब सोता
है तो सिर्फ एक ही दृश्य देखता है – चाँद का रास्ता, जिस पर
चलकर वह जाना चाहता है कैदी हा-नोस्त्री के पास और उससे बातें करना चाहता है,
क्योंकि उसे यकीन है कि तब, बसंत के निस्सान
माह की चौदहवीं तारीख को वह उससे पूरी बात नहीं कर पाया था. मगर, हाय, वह इस रास्ते पर जा नहीं सकता; न ही कोई उसके पास आ सकता है. तो फिर क्या किया जाए, बस अपने आप से ही बातें करता रहता है. लेकिन कोई परिवर्तन तो होना ही
चाहिए. अतः चाँद के बारे में अपनी बातों में वह कभी-कभी यह भी जोड़ देता है कि उसे
सबसे अधिक अपनी अमरता से घृणा है, और अपनी अभूतपूर्व
प्रसिद्धि से भी. वह दावे के साथ कहता है कि वह अपने भाग्य को खुशी-खुशी लेवी
मैथ्यू के भाग्य के साथ बदल लेता.”
“कभीSS...एक चाँद के सामने की गई भूल के बदले बारह हज़ार चाँद! क्या यह बहुत
ज़्यादा नहीं है?” मार्गारीटा ने पूछ लिया.
“क्या फ्रीडा वाली
कहानी दुहराई जा रही है?” वोलान्द ने कहा, “मगर, मार्गारीटा, यहाँ आप परेशान न होइए. सब कुछ ठीक हो
जाएगा, दुनिया इसी पर बनी है.”
“उसे
छोड़ दीजिए,” मार्गारीटा अचानक चीखी, वैसे
जैसे तब चीखी थी जब चुडैल थी और इस चीख से एक पत्थर लुढ़ककर नीचे अनंत में विलीन
हो गया, पहाड़ गरज उठे. मगर मार्गारीटा यह नहीं कह पाई कि यह
गरज पत्थर के गिरने की थी, या शैतान की हँसी की. जो कुछ भी
रहा हो, वोलान्द मार्गारीटा की ओर देखकर हँस रहा था, वह बोला, “पहाड़ पर चिल्लाने की ज़रूरत नहीं है,
उसे इन चट्टानों के गिरने की आदत हो गई है, और
वह इससे उत्तेजित नहीं होता. आपको उसकी पैरवी करने की आवश्यकता नहीं है, मार्गारीटा, क्योंकि उसके लिए प्रार्थना की है उसने,
जिससे वह बातें करना चाहता है,” अब वह मास्टर
की ओर मुड़कर बोला, “तो, फिर, अब आप उपन्यास सिर्फ एक वाक्य से पूरा कर सकते हैं!”
बुत बनकर खड़े, और
बैठे हुए न्यायाधीश को देख रहे मास्टर को शायद इसी का इंतज़ार था. वह हाथों को
मुँह के पास रखकर ऐसे चिल्लाया कि उसकी आवाज़ सुनसान, वीरान
पहाड़ों पर उछलने लगी, “आज़ाद हो! आज़ाद हो! वह तुम्हारी राह
देख रहा है!”
पर्वतों ने मास्टर की
आवाज़ को कड़क में बदल दिया और इसी कड़कड़ाहट ने उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया.
शापित प्रस्तर भित्तियाँ गिर पड़ीं. वहाँ बची सिर्फ वह – चौकोर धरती, पाषाण
की कुर्सी के साथ. उस अन्धेरे अनंत के ऊपर, जिसमें ये
दीवारें लुप्त हो गई थीं, धू-धू कर जलने लगा वह विशाल नगर
अपनी चमचमाती प्रतिमाओं के साथ, जो हज़ारों पूर्णिमाओं की
अवधि में फलते-फूलते उद्यान के ऊपर स्थित थीं. सीधे इसी उद्यान तक बिछ गया
न्यायाधीश का वह चिर प्रतीक्षित चाँद का रास्ता, और सबसे
पहले उस ओर दौड़ा तीखे कानों वाला श्वान. रक्तवर्णीय किनारी वाला सफेद अंगरखा पहना
आदमी अपने आसन से उठा और अपनी भर्राई, टूटी-फूटी आवाज़ में कुछ
चिल्लाया. यह समझना मुश्किल था कि वह रो रहा है या हँस रहा है, और वह क्या चिल्ला रहा है? सिर्फ इतना ही दिखाई दिया
कि अपने वफ़ादार रक्षक के पीछे-पीछे वह भी चाँद के रास्ते पर भागा.
“मुझे वहाँ जाना है, उसके पास?” मास्टर ने व्याकुल होकर पूछा और घोड़े की रास खींची.
वोलान्द ने जवाब दिया, “नहीं,
जो काम पूरा हो चुका, उसके पीछे क्यों भागा
जाए?”
“तो, इसका मतलब है, वहाँ...?”
मास्टर ने पूछा और पीछे मुड़कर उस ओर देखा जहाँ खिलौने जैसी मीनारों
और टूटे सूरज की खिड़कियों वाला शहर पीछे छूट गया था, जिसे
वह अभी-अभी छोड़कर आया था.
“वहाँ
भी नहीं,” वोलान्द ने जवाब दिया. उसकी आवाज़ गहराते हुए
शिलाओं पर बहने लगी, “सपने देखने वाले, छायावादी मास्टर! वह, जो तुम्हारे द्वारा निर्मित
नायक को मिलने के लिए तडप रहा है - जिसे तुमने अभी-अभी आज़ाद किया है – तुम्हारा
उपन्यास पढ़ चुका है.” अब वोलान्द ने मार्गारीटा की ओर मुड़कर कहा, “मार्गारीटा निकालायेव्ना ! इस बात पर अविश्वास करना असम्भव है कि आपने
मास्टर के लिए सर्वोत्तम भविष्य चुनने का प्रयत्न किया; मगर
यह भी सच है कि अब जो मैं आपको बताने जा रहा हूँ; जिसके बारे
में येशू ने विनती की थी, वह आपके लिए, आप दोनों के लिए, और भी अच्छा है. उन दोनों को अकेला
छोड़ दो,” वोलान्द ने अपनी ज़ीन से मास्टर की ज़ीन की ओर
झुककर दूर जा चुके न्यायाधीश के पदचिह्नों की ओर इशारा करते हुए कहा, “उन्हें परेशान नहीं करेंगे. शायद वे आपस में बात करके किसी निर्णय पर पहुँचें,”
अब वोलान्द ने येरूशलम की ओर देखते हुए अपना हाथ हिलाया और वह बुझ
गया.
“और वहाँ भी...” वोलान्द ने पृष्ठभूमि की ओर इशारा करते हुए कहा, “उस तहखाने में क्या करेंगे?” अब खिड़की में टूटा हुआ
सूरज बुझ गया. “किसलिए?” वोलान्द दृढ़तापूर्वक मगर प्यार से कहता
रहा, “ओह, त्रिवार रोमांटिक मास्टर,
क्या तुम दिन में अपनी प्रिया के साथ चेरी के पेड़ों तले टहलना नहीं
चाहते, उन पेड़ों तले जिन पर बहार आने ही वाली है? और शाम को शूबर्ट का संगीत नहीं सुनना चाहते? क्या
तुम्हें मोमबत्ती की रोशनी में हंस के पंख वाली कलम से लिखना नहीं भाएगा? क्या तुम नहीं चाहते कि फाउस्ट की तरह, प्रयोगशाला
में रेटॉर्ट के निकट बैठकर नए होमुनकुलस के निर्माण की आशा करो? वहाँ, वहाँ...वहाँ इंतज़ार कर रहा है तुम्हारा घर,
बूढ़े सेवक के साथ, मोमबत्तियाँ जल रही हैं,
और वह शीघ्र ही बुझ जाएँगी, क्योंकि शीघ्र ही
तुम्हारा स्वागत करेगा सबेरा. इस राह पर, मास्टर, इस राह पर! अलबिदा! मेरे जाने का वक्त हो गया है!”
...”अलबिदा!” मास्टर
और मार्गारीटा ने एक साथ चिल्लाकर वोलान्द को जवाब दिया. तब काला वोलान्द, बिना
किसी रास्ते को तलाशे, खाई में कूद गया, और उसके पीछे-पीछे शोर मचाती उसकी मण्डली भी कूद गई. न पाषाण शिलाएँ,
न समतल छोटा चौराहा, न चाँद वाला रास्ता,
न येरूशलम, कुछ भी शेष नहीं बचा. काले घोड़े
भी दृष्टि से ओझल हो गए. मास्टर और मार्गारीटा ने देखी उषःकालीन लालिमा, जिसका वादा उनसे किया गया था. वह वहीं आरम्भ हो गई थी, आधी रात के रहते ही. मास्टर अपनी प्रियतमा के साथ, सुबह
की पहली किरणों की चमक में, पत्थर के बने छोटे-से पुल पर चल
पड़ा. उसने पुल पार कर लिया. झरना इन सच्चे प्रेमियों के पीछे रह गया और वे रेत
वाले रास्ते पर चल पड़े.
“सुनो, स्तब्धता को,” मार्गारीटा
ने मास्टर से कहा और उसके नंगे पैरों के नीचे रेत कसमसाने लगी, “सुनो, और उस सबका आनन्द लो, जो
जीवन में तुम्हें नहीं मिला – ख़ामोशी का. देखो, सामने;
यह रहा तुम्हारा घर – शाश्वत, चिरंतन घर जो
तुम्हें पुरस्कार स्वरूप मिला है. मुझे वेनेशियन खिड़की और अंगूर की लटकती बेल अभी
से दिख रही है, वह छत तक ऊँची हो गई है. यह तुम्हारा घर है,
तुम्हारा घर...शाश्वत. मैं जानती हूँ कि शाम को तुम्हारे पास वे
आएँगे जिन्हें तुम प्यार करते हो, जिनमें तुम्हें दिलचस्पी
है और जो तुम्हें परेशान नहीं करते. वे तुम्हारे लिए साज़ बजाएँगे, वे तुम्हारे लिए गाएँगे; तुम देखोगे, कमरे में कैसा अद्भुत प्रकाश होगा, जब मोमबत्तियाँ
जल उठेंगी. तुम अपनी धब्बे वाली, सदाबहार टोपी पहने सो जाओगे,
तुम होठों पर मुस्कान लिए सो जाओगे. गहरी नींद तुम्हें शक्ति देगी,
तुम गहराई से विश्लेषण कर सकोगे. और मुझे तो तुम अब भगा ही नहीं
सकते. तुम्हारी नींद की रक्षा करूँगी मैं.”
मास्टर के साथ अपने
शाश्वत घर की ओर जाते-जाते ऐसी बातें करती रही मार्गारीटा और मास्टर को अनुभव होता
रहा कि मार्गारीटा के शब्द उसी तरह झंकृत हो रहे हैं जैसे अभी-अभी पीछे छूटा झरना
झनझना रहा था, फुसफुसा रहा था. मास्टर की स्मरण-शक्ति, व्याकुल वेदना की सुइयों से छलनी हो चुकी स्मरण-शक्ति धीरे-धीरे सम्भलने
लगी. किसी ने मास्टर को आज़ाद कर दिया, ठीक वैसे ही जैसे
उसने अपने नायक को अभी-अभी आज़ाद किया था. यह नायक खो गया अनंत में, खो गया कभी वापस न आने के लिए; भविष्यवेत्ता सम्राट
का पुत्र, इतवार की पूर्व बेला में वह माफी पा गया, जूडिया का पाँचवाँ क्रूर न्यायाधीश अश्वारोही पोंती पिलात.
*******
तैंतीस
उपसंहार
मगर शनिवार शाम को सूर्यास्त के समय वराब्योव पहाड़ से वोलान्द के अपनी
मण्डली के साथ राजधानी छोड़कर जाने के बाद मॉस्को में और क्या-क्या हुआ?
एक लम्बे समय तक पूरी राजधानी में बिल्कुल अविश्वसनीय अफवाहें फैलती रहीं, जो
शीघ्र ही प्रदेश के दूरदराज़ के और लगभग सुनसान इलाकों तक भी पहुँच गईं. इनके बारे
में कुछ कहना बेकार है, उनके स्मरण मात्र से मितली आने लगती
है.
इन सच्ची लाइनों को लिखने वाले ने स्वयँ फिआदोसिया जाते समय ट्रेन में यह
कहानी सुनी कि कैसे मॉस्को में लगभग दो हज़ार व्यक्ति थियेटर से एकदम नग्नावस्था
में निकले और उसी दशा में टैक्सियों में बैठकर अपने-अपने घर गए.
“शैतानी, गन्दी ताकत...” ये फुसफुसाहट सुनाई देती थी
दूध की दुकान के सामने, ट्राम में, दुकानों
में, घरों में, रसोईघरों में, ट्रेनों में, समर क़ॉटॆजेस में, रेल्वे स्टेशनों पर, समुद्र किनारों पर...
ज़ाहिर है, उच्च शिक्षा प्राप्त एवँ सुसंस्कृत लोगों ने शैतानी ताकत
से सम्बन्धित इन कहानियों में कोई हिस्सा नहीं लिया, बल्कि
उन पर हँसते रहे और कहानियाँ सुनाने वालों को अपनी समझ देते रहे. मगर हकीकत तो
हकीकत ही रहती है, और, जैसा कि सभी
कहते हैं, बिना कोई वजह बताए उन्हें झटकना भी सम्भव नहीं
होता : कोई राजधानी में मौजूद था, ग्रिबायेदव की खाक ही इस
तथ्य की बढ़ा-चढ़ाकर पुष्टि कर रही थी, और अन्य कई घटनाएँ भी
उसे नकार नहीं सकती थीं.
सुसंस्कृत लोग खोजबीन करने वालों की राय का समर्थन करते थे : कि सम्मोहित
करने वालों और पेटबोलों का एक प्रवीण दल इस सबके लिए ज़िम्मेदार था.
इसे पकड़ने के लिए मॉस्को के अन्दर और उसके बाहर भी फौरन कई उपाय ज़ोर-शोर
से किए गए, मगर दुर्भाग्यवश उनका कोई परिणाम नहीं निकला. स्वयँ को
वोलान्द कहने वाला अपने सहयोगियों सहित गायब हो गया और न तो वह मॉस्को में और न ही
कहीं और कभी प्रकट हुआ. ज़ाहिर है, सबने यह निष्कर्ष निकाला
कि वह विदेश भाग गया, मगर वहाँ भी उसने अपने अस्तित्व का कोई
संकेत नहीं दिया.
उसके मामले की छानबीन लम्बे समय तक चली. चाहे कैसा भी हो, मामला
यह था बड़ा ही अजीबोगरीब! चार जले हुए मकानों और सैकड़ों पागल हो चुके लोगों के
अलावा कुछ लोग मरे भी थे. कम से कम दो के बारे में तो निश्चयपूर्वक कहा ही जा सकता
है : बेर्लिओज़ के बारे में और विदेशियों को मॉस्को के दर्शनीय स्थलों से परिचित
करवाने वाले विभाग में काम कर रहे दुर्दैवी भूतपूर्व सामंत मायकेल के बारे में.
उन्हें तो मार डाला गया था. दूसरे व्यक्ति की जली हुई हड्डियाँ सदोवया के फ्लैट
नं. 50 में पाई गई थीं, जब वहाँ लगी आग बुझाई गई. हाँ,
कई व्यक्ति शिकार हुए थे, और ये शिकार जाँच की
माँग कर रहे थे.
मगर वोलान्द के राजधानी छोड़कर जाने के बाद भी अन्य कई शिकार हुए, और
चाहे आपको कितना ही दुःख हो, ये शिकार थे – बिल्लियाँ.
करीब सौ से ऊपर शांतिप्रिय, मानव के प्रति वफादार और उसके लिए
लाभदायक ये पालतू प्राणी किसी न किसी तरीके से देश के अनेक भागों में मार डाले गए.
15 – 20 गम्भीर रूप से घायल बिल्लियाँ भिन्न-भिन्न शहरों के पुलिस थानों में लाई
गईं. उदाहरण के लिए आर्मावीर में एक निर्दोष प्राणी के अगले पंजों को बाँधकर कोई
नागरिक उसे पुलिस थाने लाया था.
इस
बिल्ले को नागरिक ने उस समय पकड़ा था, जब वह चोरों के
समान...(क्या किया जाए, बिल्ले दिखते ही ऐसे हैं? ऐसा इसलिए नहीं है कि वे पापी होते हैं, बल्कि इसलिए
कि वे डरते हैं, कि कोई उनसे अधिक शक्तिशाली प्राणी – कुत्ते
या मनुष्य, उन्हें कोई हानि न पहुँचाए, उनका अपमान न करे. दोनों ही करना बहुत आसान है, मगर
इसमें मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, कोई गरिमा की बात नहीं
है. हाँ, कोई भी नहीं!) हाँ, तो चोरों
के समान बिल्ला न जाने क्यों कुकुरमुत्तों के ऊपर झपटने वाला था.
बिल्ले पर झपटकर उसे बाँधने के लिए गर्दन से टाई उतारते हुए वह नागरिक धमकी
भरे स्वर में बड़बड़ा रहा था, “आहा! शायद अब आप हमारे यहाँ, आर्मावीर
में तशरीफ लाए हैं, सम्मोहक महाराज! मगर यहाँ आपसे कोई नहीं
डरता. आप गूँगे बनने का नाटक न कीजिए. हमें अच्छी तरह समझ में आ गया है कि आप क्या
चीज़ हैं!”
नागरिक बिल्ले को, जो हरे रंग की टाई से बँधा था, अगले
पंजों से घसीटता हुआ पुलिस थाने लाया; वह बिल्ले को
हल्की-हल्की ठोकरें भी मार रहा था, जिससे वह पिछले पंजों पर
चल पाए.
नागरिक अपने पीछे-पीछे सीटी बजाते चलते बच्चों से बोला, “तुम
यह बेवकूफियाँ बन्द करो! इससे कुछ नहीं बनेगा! जैसे सब चलते हैं, वैसे ही चलो!”
काला बिल्ला सिर्फ दर्द से भरी आँखें इधर-उधर घुमा रहा था. बोल न सकने के
कारण वह अपनी सफाई में कुछ नहीं कह सकता था. अपनी सुरक्षा के लिए वह दो लोगों का
आभारी था, पहले पुलिस का, और दूसरे अपनी मालकिन
– एक सम्माननीय विधवा वृद्धा का. जैसे ही बिल्ले को पुलिस स्टेशन लाया गया,
फौरन लोगों को विश्वास हो गया कि नागरिक बुरी तरह नशे में धुत था,
अतः उसके बयान पर किसी को विश्वास नहीं हुआ. इसी बीच वृद्धा मालकिन
पड़ोसियों से यह सुनकर कि उसके बिल्ले को पकड़ लिया गया है, पुलिस
थाने भागी.. वहाँ वह सही वक्त पर पहुँची. उसने बिल्ले की भरपूर प्रशंसा की;
बताया कि वह उसे पाँच वर्षों से जानती है, तब
से जब वह बच्चा था; वह उसके बारे में उतने ही विश्वास के साथ
कह सकती है जितना अपने बारे में, कि उसने कभी गलत काम किया
ही नहीं, और वह मॉस्को कभी गया ही नहीं; कैसे वह आर्मावीर में पैदा हुआ, वहीं बड़ा हुआ,
और वहीं उसने चूहे पकड़ना सीखा.
बिल्ले को आज़ाद करके मालकिन को सौंप दिया गया, सिर्फ
तभी जब उसने दुःख का अनुभव कर लिया, और अपने अनुभव से सीख
लिया कि गलती और दोषारोपण का क्या मतलब होता है.
बिल्लों के अलावा कुछ लोगों को छोटी-मोटी परेशानियाँ हुईं. कुछ
गिरफ्तारियाँ की गईं. जिन लोगों को थोड़े समय के लिए पकड़ा गया, उनमें
थे : लेनिनग्राद में – वोलमान और वोलपेर; सरातोव में,
कीएव में और खारकोव में – तीन वलोदिन; कज़ान
में – वलोख और पेंज़ा में, न जाने क्यों रसायन शास्त्र के
प्रोफेसर बेतचिंकेविच...यह सच है कि वह बहुत विशाल डीलडौल वाला, साँवले रंग का, काले बालों वाला था.
इसके अलावा अलग-अलग स्थानों पर नौ करोविन, चार करोव्किन और दो करावायेव पकड़े
गए.
एक नागरिक को सेवास्तोपोल वाली रेलगाड़ी से उतारकर बेलगोरद स्टेशन पर बाँध
दिया गया. इस नागरिक ने अपने सहयात्रियों को ताश के खेल से बहलाना चाहा था.
यारोस्लाव्ल में दोपहर के भोजन के समय रेस्तराँ में एक नागरिक स्टोव के साथ
घुसा, जिसकी
वह अभी-अभी मरम्मत करवाकर लाया था. जैसे ही दोनों दरबानों ने उसे देखा, वे अपनी-अपनी जगह छोड़कर भागने लगे, और उनके
पीछे-पीछे रेस्तराँ के सभी ग्राहक भागे, नौकर, कर्मचारी भी भागे. इसी भगदड़ में कैशियर के हाथों से न जाने कैसे सारी
रोकड खो गई.
और भी बहुत कुछ हुआ, सब कुछ तो याद नहीं रखा जा सकता. काफी दिमाग दौड़-भाग करते
रहे.
अन्वेषण विभाग की भी बार-बार तारीफ करनी होगी. अपराधियों को पकड़ने के लिए
हर सम्भव उपाय किए गए; साथ ही सभी घटनाओं के कारण समझाए गए, जिन्हें एकदम बेतुका भी नहीं कहा जा सकता.
अन्वेषण दल के प्रमुख
और अनुभवी मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि इस अपराधी दल के सदस्य या उनमें से कोई एक
(सबसे अधिक सन्देह करोव्येव पर किया गया) अभूतपूर्व शक्तिशाली सम्मोहक थे, जो अपने आपको उस जगह नहीं प्रकट करते थे, जहाँ वे वास्तव में होते थे, अपितु काल्पनिक, परिवर्तित परिस्थितियों में प्रदर्शित करते थे. इसके अलावा उन्होंने खुलकर
इस बात का समर्थन किया कि कुछ चीज़ें या लोग वहाँ दिखाई देते हैं, जहाँ वे वास्तव में नहीं होते; इसके विपरीत वे चीज़ें या लोग उस दायरे से दूर दिखाई
देते हैं, जिसमें वे होते हैं.
इन सभी स्पष्टीकरणों
से सारी बातें समझ में आ गईं; और
नागरिकों को परेशान करने वाली वह बात भी, जो हर कैफियत से ऊपर थी, यानी
पचास नम्बर के फ्लैट में बिल्ले को पकड़ने की कोशिश में उस पर की गई गोलीबारी, जिसका उस पर कोई असर न हुआ.
झुम्बर पर, ज़ाहिर है, कोई बिल्ला-विल्ला नहीं था, किसी ने गोलियाँ चलाने के बारे में सोचा ही नहीं; वे सब खाली जगह पर गोलियाँ बरसाते रहे; जब करोव्येव की आवाज़ सुनाई दी कि यह सब बिल्ले की
बेहूदगी है, वह शायद आराम से
गोलियाँ चलाने वालों की पीठ के पीछे मुँह चिढ़ाते हुए उपस्थित था और अपनी इस नाक
घुसेड़ने की सफलता का आनन्द लेते हुए उसने तेल डालकर फ्लैट में आग लगा दी.
स्त्योपा लिखादेयेव किसी याल्टा-वाल्टा में नहीं गया. (ऐसा तो करोव्येव के
लिए भी सम्भव नहीं है) वहाँ से उसने कोई टेलिग्राम भी नहीं भेजा. करोव्येव की
हरकतों से घबराकर जो उसे काँटे पर टँका नमकीन कुकुरमुत्ता खाते बिल्ले को दिखा रहा
था, जवाहिरे
की बीवी के फ्लैट में वह बेहोश हो गया और तब तक बेसुध पड़ा रहा, जब तक करोव्येव ने उसका मज़ाक उड़ाते हुए उसे रोएँ वाली टोपी पहनाकर
मॉस्को के हवाई अड्डे पर न भेज दिया. स्त्योपा से मिलने आए खुफ़िया पुलिस के लोगों
को उसने यह दिखाया, मानो वह सेवास्तोपोल से आ रहे हवाई जहाज़
से आया है.
यह सच है कि खुफ़िया पुलिस की याल्टा वाली पूछताछ से स्पष्ट होता था कि
उसने नंगे पैरों चलते स्त्योपा को पकड़ा था, और स्त्योपा के बारे में मॉस्को तार
भेजा था. मगर इस टेलिग्राम की कोई भी प्रति कहीं भी नहीं मिली. इससे यह दुःखद और
स्पष्ट निष्कर्ष निकाला गया कि सम्मोहन करने वाले इस समूह के सदस्यों के पास दूर
तक सम्मोहित करने की शक्ति है; वह भी इक्का-दुक्का लोगों को
नहीं, बल्कि पूरे के पूरे झुण्ड को. इस प्रकार अपराधी बड़ी
से बड़ी दृढ़ मानसिकता वाले लोगों को भी पागल बना सके थे.
उन छोटी-छोटी बातों के बारे में क्या कहा जाए – जैसे एक व्यक्ति की जेब से
दूसरे व्यक्ति की जेब में ताश की गड्डी का जाना; महिलाओं के वस्त्रों का गायब हो जाना;
म्याऊँ-म्याऊँ करता कोट और ऐसा ही बहुत कुछ. ऐसी हरकतें तो कोई भी
छोटा-मोटा सम्मोहक कर सकता है, किसी भी रंगमंच पर, जिनमें सूत्रधार के सिर का उखाड़ लिया जाना भी हो सकता है. बातें करने
वाली बिल्ली – एक बकवास है. लोगों के सामने ऐसी बिल्ली दिखाने के लिए पेटबोली के
मूलभूत सिद्धांतों का ज्ञान ही काफी है, और इसमें कोई शक
नहीं कि करोव्येव इस कला में काफी आगे निकल चुका था.
बात यहाँ ताश के पत्तों की नहीं है, निकानोर इवानविच के ब्रीफकेस में पाए
गए झूठे पत्रों की भी नहीं है. ये छोटी-मोटी हरकतें हैं. वास्तव में, करोव्येव ने ही बेर्लिओज़ को ट्रामगाड़ी के नीचे मारने के उद्देश्य से
धकेल दिया था. उसी ने गरीब बेचारे कवि इवान बिज़्दोम्नी को पागल कर दिया था;
उसने उसे यातनामय सपनों में प्राचीन येरूशलम और सूरज की रोशनी में
जलते सूखे गंजे पहाड़ को देखने पर विवश किया था, जिन पर तीन
अभियुक्तों को फाँसी लगाई गई थी. उसी ने और उसकी मण्डली ने मॉस्को से गायब होने के
लिए मार्गारीटा निकालायेव्ना और उसकी
नौकरानी नताशा को विवश किया. एक बात और : इस मामले की जाँच-पड़ताल गहराई से की गई.
यह स्पष्ट करना ज़रूरी था कि इन महिलाओं को हत्या और आगज़नी करने वाले ये लोग भगा
कर ले गए थे, या फिर ये अपनी मर्ज़ी से उनके साथ भागी थीं?
निकालाय इवानविच की अस्पष्ट और उलझी गवाहियों पर, मार्गारीटा निकालायेव्ना की
विचित्र और बेवकूफी भरी चिठ्ठी पर, जो उसने अपने पति के नाम
छोड़ी थी – यह लिखते हुए कि वह चुडैल बनकर जा रही है; और नताशा
की अपनी सभी चीज़ें यथास्थान छोड़कर गायब हो जाने की घटना पर गौर करने के बाद जाँच
अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अन्य अनेक व्यक्तियों की तरह मालकिन एवम्
नौकरानी दोनों को सम्मोहित किया गया था, और फिर उनका अपहरण
कर लिया गया. यह सम्भावना भी व्यक्त की गई कि अपराधियों ने उनके सौन्दर्य पर मोहित
होकर उन्हें अगवा कर लिया.
मगर जिस बात का कोई प्रमाण नहीं पाया जा सका, वह यह थी कि मानसिक रूप से बीमार,
अपने आपको मास्टर कहने वाले व्यक्ति को ये मण्डली अस्पताल से उड़ाकर
क्यों ले गई. इसकी वजह वे नहीं ढूँढ़ सके और न ही पता लगा सके उस मरीज़ के नाम का.
वह ‘नम्बर एक सौ अठारह’ वाले सम्बोधन के साथ ही हमेशा के लिए गुम हो गया.
इस तरह हर चीज़ समझा दी गई और जाँच का काम खत्म हो गया, वैसे
ही जैसे और सब कुछ खत्म होता है.
कुछ साल बीत गए. लोग वोलान्द को, करोव्येव को और अन्य लोगों को भूलने लगे. वोलान्द और उसकी
मण्डली के कारण दुःख पाए लोगों के जीवन में कई परिवर्तन हुए और ये परिवर्तन कितने
ही मामूली क्यों न रहे हों, उनके बारे में बता देना अच्छा
रहेगा.
उदाहरण के लिए, जॉर्ज बेंगाल्स्की अस्पताल में तीन महीने बिताने के बाद
ठीक हो गया और घर भेज दिया गया, मगर उसे वेराइटी की नौकरी
छोड़नी पड़ी; और वह भी खास तौर से भीड़ के सीज़न में,
जब जनता टिकटों के लिए टूटी पड़ रही थी – काले जादू और उसका
पर्दाफाश करने वाली बात की स्मृतियाँ एकदम ताज़ा थीं. बेंगाल्स्की ने वेराइटी छोड़
दिया, क्योंकि वह समझ गया कि हर शाम दो हज़ार दर्शकों के
सामने जाना, हर हालत में पहचान लिए जाना और इस चिढ़ाते हुए
सवाल का सामना करना कि उसके लिए क्या अच्छा रहेगा : सिर वाला शरीर या बिना सिर
वाला? – यह सब बड़ा पीड़ादायी होगा.
हाँ, इसके अलावा सूत्रधार अपनी खुशमिजाज़ी भी खो बैठा, जो उसके पेशे के लिए निहायत ज़रूरी है. उसे एक अप्रिय और बोझिल आदत पड़ गई
: हर पूर्णमासी की रात को वह व्याकुल होकर अपनी गर्दन पकड़ लेता, भय से इधर-उधर देखता और फिर रो पड़ता. यह सब धीरे-धीरे कम होता गया,
मगर उनके रहते पुराने काम को करना असम्भव ही था; इसलिए सूत्रधार ने वह नौकरी छोड़ दी, वह खामोश जीवन
बिताने लगा, अपनी बचत पर जीने लगा, जो
उसकी साधारण जीवन शैली की बदौलत पन्द्रह वर्षों के लिए काफी थी.
वह चला गया और फिर कभी भी वरेनूखा से नहीं मिला जो थियेटर प्रबन्धकों के
बीच भी, अपनी अविश्वसनीय सहृदयता, शिष्ट
व्यवहार, और हाज़िरजवाबी के कारण लोकप्रिय हो गया था. मुफ़्ट
टिकट पाने वाले तो उसे ‘दयालु पिता’ कहकर ही बुलाते थे. कोई भी, कभी भी वेराइटी में फोन करे, हमेशा टेलिफोन पर नर्म,
मगर उदास आवाज़ सुनाई देती, “सुन रहा हूँ – “
और जब वरेनूखा को टेलिफोन पर बुलाए जाने की प्रार्थना की जाती तो वही आवाज़ जल्दी
से आगे कहती, “मैं हाज़िर हूँ, कहिए
क्या सेवा करूं.” मगर इवान सावेल्येविच अपनी शिष्टता के कारण भी दुःख उठाता रहा.
स्त्योपा लिखादेयेव को भी अब वेराइटी में टेलिफोन पर बात नहीं करना पड़ता.
अस्पताल से छूटने के फौरन बाद, जहाँ उसने आठ दिन बिताए थे, उसे
रस्तोव भेज दिया गया. वहाँ उसे एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर का डाइरेक्टर बना दिया
गया. कहते हैं कि अब उसने पोर्ट वाइन पीना पूरी तरह छोड़ दिया है, और केवल वोद्का पीता है – वह भी बेदाने की, जिससे
उसकी तबियत भी काफी अच्छी हो गई है. यह भी कहते हैं कि वह एकदम खामोश तबियत का हो
गया है और औरतों से भी दूर रहता है.
स्तिपान बग्दानोविच को वेराइटी से निकालकर रीम्स्की को इतनी खुशी नहीं हुई, जिसके
वह पिछले कई सालों से इतनी अधीरता से सपने देखता रहा था. अस्पताल और किस्लावोद्स्क
के बाद बूढ़े, जक्खड़
बूढ़े, हिलते हुए सिर वाले वित्तीय डाइरेक्टर ने भी वेराइटी
से बाहर जाने के लिए दरख्वास्त दे दी. मज़े की बात तो यह है कि इस दरख्वास्त को
वेराइटी लेकर आई उसकी बीबी. ग्रिगोरी दानिलविच को दिन में भी उस इमारत में जाने की
हिम्मत नहीं हुई, जहाँ उसने चाँद की रोशनी में खिड़की के
चटकते शीशे को देखा था और उस लम्बे हाथ को जो निचली सिटकनी की ओर बढ़ा आ रहा था.
वेराइटी छोड़कर वित्तीय डाइरेक्टर बच्चों के कठपुतलियों वाले थियेटर में आ
गया. इस थियेटर में उसे ध्वनि संयोजन की समस्याओं से नहीं जूझना पड़ता था, ज़ामस्क्वोरेच्ये
में इस बारे में सम्माननीय अर्कादी अपालोनविच सिम्प्लियारव से बहस भी नहीं करनी
पड़ती थी. उसे दो ही मिनट में ब्र्यान्स्क भेज दिया गया और मशरूम को डिब्बों में
बन्द करने वाले कारखाने का डाइरेक्टर बना दिया गया. अब मॉस्कोवासी नमकीन लाल और
सफेद मशरूम खाते हैं, और उनकी तारीफ करते नहीं थकते; वे इस तबादले से बेहद खुश हैं. बात तो पुरानी है और कह सकते हैं कि
अर्कादी अपालोनविच से ध्वनि संयोजन का काम सँभलता ही नहीं था. उसने चाहे कितनी ही
कोशिश क्यों न की हो, वह जैसा था वैसा ही रहा.
थियेटर से जिनका नाता टूटा उनमें अर्कादी अपालोनविच के अलावा निकानोर इवानविच
बसोय को भी शामिल करना होगा, हालाँकि निकानोर इवानविच का मुफ़्त के टिकटों को छोड़कर
थियेटर से कोई वास्ता नहीं था. निकानोर इवानविच अब कभी थियेटर नहीं जाता: न पैसों
से, न मुफ़्त में; इतना ही नहीं,
थियेटर का ज़िक्र छिड़ते ही उसके चेहरे का रंग बदल जाता है. थियेटर
के अलावा उसे कवि पूश्किन से और सुयोग्य कलाकार साव्वा पतापविच कुरालेसव से भी
बड़ी घृणा हो गई. उससे तो इतनी कि पिछले साल काली किनार के बीच यह समाचार देखकर कि
साव्वा पतापविच अपने जीवन के चरमोत्कर्ष के काल में दिल के दौरे से परलोक सिधार
गया – निकानोर इवानविच का चेहरा इतना लाल पड़ गया कि वह स्वयँ भी साव्वा पतापविच
के पीछे जाते-जाते बचा. वह गरजा, “उसके साथ ऐसा ही होना
चाहिए!” इसके अलावा, उसी शाम को निकानोर इवानविच ने, जिसे लोकप्रिय कलाकार की मृत्यु के कारण अनेक कड़वी बातें फिर से स्मरण हो
आई थीं, अकेले, पूर्णमासी के चाँद के
साथ सदोवया में बैठ कर खूब शराब पी. हर जाम के साथ उसके सामने घृणित आकृतियों की
श्रृंखला लम्बी होती जाती और इस श्रृंखला में थे दुंचिल सिर्गेइ गिरार्दविच और
सुन्दरी इडा हेर्कुलानोव्ना, और वह लाल बालों वाला लड़ाकू
हंसों का मालिक, और स्पष्टवक्ता कनाव्किन निकालाय .
और उनके साथ क्या हुआ? गौर फरमाइए! जैसे कुछ हुआ ही नहीं, और
हो भी नहीं सकता, क्योंकि उनका अस्तित्व ही नहीं था; जैसे कि खूबसूरत कलाकार सूत्रधार का, और खुद थियेटर
का, और बूढ़ी बुआजी पराखव्निकोवा का जिसने तहखाने में विदेशी
मुद्रा छुपाई थी; और, बेशक, सुनहरियाँ तुरहियाँ नहीं थीं, न ही थे दुष्ट रसोइए.
निकानोर इवानविच को शैतान करोव्येव के प्रभाव से इनका केवल सपना आया था. सिर्फ एक
जीता-जागता इन्सान जो इस सपने में उपस्थित था, वह था केवल
साव्वा पतापविच – कलाकार, और वह इस सपने से इसलिए जुड़ा था,
क्योंकि वह निकानोर इवानविच की स्मृति में अपने रेडियो कार्यक्रमों
के कारण गहरे पैठ गया था. वह था, बाकी के नहीं थे.
इसका मतलब है कि अलोइज़ी मोगारिच भी नहीं था? ओह, नहीं! वह न
केवल तब था, बल्कि अब भी है; उसी पद पर
जिसे रीम्स्की ने छोड़ा था, यानी वेराइटी के वित्तीय
डाइरेक्टर के पद पर.
वोलान्द से मुलाकात होने के करीब चौबीस घण्टे बाद, ट्रेन
में, कहीं व्यात्का के निकट अलोइज़ी को होश आया. उसे विश्वास
हो गया कि उदास मनःस्थिति में न जाने क्यों मॉस्को से निकलते हुए वह पैण्ट पहनना
भूल गया था, मगर न जाने क्यों कॉन्ट्रेक्टर की किराए वाली
किताब चुरा लाया था. कण्डक्टर को काफी बड़ी रकम देने के बाद अलोइज़ी ने उससे
पुरानी और गन्दी पैण्ट प्राप्त की और उसे पहनकर व्यात्का से वापस चल पड़ा, मगर अब वह कॉन्ट्रेक्टर वाला मकान ढूँढ़ ही नहीं पाया. जीर्ण ढाँचा पूरी
तरह आग में जल रहा था. मगर अलोइज़ी काफी होशियार आदमी था, दो
हफ्तों बाद वह एक खूबसूरत कमरे में रहने भी लगा, जो ब्रूसव
गली में था, और कुछ ही महीनों बाद वह रीम्स्की की कुर्सी पर
बैठ गया. जैसे पहले रीम्स्की स्त्योपा के कारण परेशान रहता था, वैसे ही अब वरेनूखा अलोइज़ी के कारण दुखी था. अब इवान सावेल्येविच केवल एक
ही बात का सपना देखता है कि कोई इस अलोइज़ी को उसकी आँखों से दूर हटा दे; क्योंकि, जैसा कि वरेनूखा अपने घनिष्ठ मित्रों से
कभी-कभी कहता है, “ऐसे सूअर को, जैसा
अलोइज़ी है, उसने अपने जीवन में कभी नहीं देखा और इस अलोइज़ी
से उसे कुछ भी हो सकता है.”
हो सकता है, व्यवस्थापक पूर्वाग्रह से ग्रसित हो. अलोइज़ी से सम्बन्धित
कभी कोई काले कारनामे नहीं देखे गए और आमतौर से कोई भी कारनामे नहीं – अगर
रेस्तराँ प्रमुख सोकोव के स्थान पर किसी अन्य की नियुक्ति की ओर ध्यान न दिया जाए.
अन्द्रेई फकीच तो मॉस्को यूनिवर्सिटी के नम्बर एक वाले अस्पताल में कैंसर से मर
गया. वोलान्द के मॉस्को में प्रकट होने के नौ महीने बाद...
हाँ, कई साल गुज़र गए और इस किताब में सही-सही वर्णन की गई
घटनाएँ लोगों की स्मृति से लुप्त होती गईं, मगर सब की नहीं,
सबकी स्मृति से नहीं.
हर साल जब बसंत की पूर्णमासी की रात आती है, शाम को लिण्डेन के वृक्षों के नीचे
पत्रियार्शी तालाब पर एक तीस-पैंतीस साल का आदमी प्रकट होता है – लाल बालों वाला,
हरी-हरी आँखों वाला, साधारण वेशभूषा में. यह –
इतिहास और दर्शन संस्थान का संशोधक है – प्रोफेसर इवान निकलायेविच पोनिरेव.
लिण्डेन की छाया में आकर वह उसी बेंच पर बैठता है, जहाँ
बहुत पहले विस्मृति के गर्त में डूबे बेर्लिओज़ ने जीवन में अंतिम बार टुकड़ों में
बिखरते चाँद को देखा था.
अब वह चाँद, पूरा, रात्रि के आरम्भ में सफेद,
मगर बाद में सुनहरा, काले घोड़े जैसी साँप की
आकृति के साथ भूतपूर्व कवि इवान निकलायेविच के ऊपर तैर रहा है; मगर साथ ही ऊँचाई पर अपनी जगह स्थिर खड़ा है.
इवान निकलायेविच को सब मालूम है, वह सब कुछ जानता है और समझता है. वह
जानता है कि युवावस्था में वह अपराधी सम्मोह्नकर्ताओं का शिकार हुआ था, इसके बाद उसका इलाज किया गया और वह ठीक हो गया. मगर वह यह भी जानता है कि
कुछ है, जिस पर उसका बस नहीं चलता. इस बसंत के पूरे चाँद पर
उसका कोई ज़ोर नहीं चलता. जैसे ही यह पूर्णमासी नज़दीक आने लगती है, जैसे ही चाँद बढ़ना और सुनहरा होना शुरू होता है, जैसे
कभी दो पंचकोणी दीपों के ऊपर चमका था, इवान निकलायेविच बेचैन
होना शुरू हो जाता है, वह उदास हो जाता है, उसकी भूख मर जाती है, नींद उड़ जाती हि, वह इंतज़ार करता है चाँद के पूरा होने का, और जब पूर्णमासी
आती है तो कोई भी तकत इवान निकलायेविच को घर में नहीं रोक सकती. शाम होते-होते वह
निकलकर पत्रियार्शी तालाब पर चला जाता है.
बेंच पर बैठे-बैठे इवान निकलायेविच खुलकर अपने आप से बातें करने लगता है.
सिगरेट पीता है, आँखें बारीक करके कभी चाँद को देखता है, तो कभी भली-भाँति स्मृति में ठहर गए उस घुमौने दरवाज़े को.
इस तरह इवान निकलायेविच घंटे-दो घंटे गुज़ारता है. फिर वह अपनी जगह से उठकर
हमेशा एक ही रास्ते से, स्पिरिदोनव्का होते हुए खाली और अनमनी आँखों से अर्बात की
गलियों में घूमता है.
वह तेल की दुकान के करीब से गुज़रता है, वहाँ जाकर मुड़ जाता है, जहाँ पुरानी तिरछी गैसबत्ती लटक रही है और वह चुपके-चुपके जाली के पास
जाता है, जिसके उस पार वह खूबसूरत, मगर
अभी नंगे उद्यान देखता है; उसके बीच में एक ओर से चाँद की
रोशनी में चमकती तीन पटों की खिड़की वाली और दूसरी ओर से अँधेरे से घिरी उस विशेष
आलीशान इमारत को देखता है..
प्रोफेसर को मालूम नहीं है कि उसे उस जाली के पास कौन खींचकर ले जाता है, और
उस इमारत में कौन रहता है; मगर वह इतना जानता है कि इस
पूर्णमासी को उसे अपने आप से संघर्ष नहीं करना पड़ता. इसके अलावा उसे यह भी मालूम
है कि जाली से घिरे इस उद्यान में वह हमेशा एक ही चीज़ देखता है.
वह बेंच पर बैठे अधेड़ उम्र के मज़बूत, दाढ़ी वाले आदमी को देखता है,
जिसने चश्मा पहन रखा है और जिसके नाक-नक्श कुछ-कुछ सुअर जैसे हैं.
इवान निकलायेविच उस इमारत में रहने वाले इस व्यक्ति को हमेशा सोच में डूबे पाता है,
चाँद की ओर देखते हुए. इवान निकलायेविच को मालूम है कि चाँद को काफी
देर देखने के बाद बैठा हुआ व्यक्ति किनारे वाली खिड़की की ओर देखने लगेगा, मानो इंतज़ार कर रहा हो कि अब वह फट् से खुलेगी और उसमें से कोई अजीब-सा
दृश्य बाहर आएगा.
आगे की सब घटनाएँ इवान निकलायेविच को ज़बानी याद हैं. अब जाली में थोड़ा
छिपकर बैठने की ज़रूरत है, क्योंकि बेंच पर बैठा हुआ आदमी बेचैनी से सिर को इधर-उधर
हिलाने लगेगा, और चकाचौंध आँखों से हवा में कुछ पकड़ने की
कोशिश करने लगेगा, फिर वह उत्तेजित होकर खिलखिलाएगा और हाथ
नचा-नचाकर किसी मीठे दर्द में डूब जाएगा और इसके बाद वह ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ाएगा,
“वीनस! वीनस!...आह, मैं, बेवकूफ!”
“हे भगवान, हे भगवान!” इवान निकलायेविच फुसफुसाने
लगेगा और जाली के पीछे छिपे-छिपे अपनी जलती आँखें उस रहस्यमय अजनबी पर टिकाए रखेगा
– यह था चाँद का एक और शिकार, “हाँ, यह
भी एक और शिकार है, मेरी तरह.”
और बैठा हुआ आदमी कहता रहेगा, “आह, मैं पागल!
मैं उसके साथ क्यों न उड़ गया? क्यों डर गया? किससे डर गया, बूढ़ा गधा! अपने लिए सर्टिफिकेट लेता
रहा! अब सहते रहो, बूढ़े सुअर!”
ऐसा तब तक चलता रहेगा जब तक उस इमारत के अँधेरे भाग में खिड़की नहीं खुलेगी, उसमें
कोई सफेद साया नहीं तैरेगा और एक कर्कश जनानी आवाज़ नहीं गूँजेगी, “निकलाय इवानविच, कहाँ हो तुम? यह क्या कल्पना है! क्या मलेरिया होने देना है? आओ
चाय पीने!”
इस पर बैठा हुआ व्यक्ति जाग उठेगा और बनावटी आवाज़ में कहेगा, “ठण्डी
हवा, ठण्डी हवा खाना चाहता था, मेरी
जान! हवा कितनी सुहानी है!...”
वह बेंच से उठेगा, नीचे बन्द होती खिड़की पर घूँसा तानेगा और धीरे-धीरे अपने
घर में तैर जाएगा.
“झूठ बोलता है वह, झूठ! हे भगवान, कितना झूठ!” जाली से दूर हटते हुए इवान निकलायेविच बड़बड़ाता है, “उसे इस बगीचे में हवा नहीं खींच लाती; इस बसंती पूनम
को वह चाँद में, बाग में और ऊपर ऊँचाई पर कुछ देखता है. आह,
उसके इस भेद को जानने के लिए मैं कुछ भी दे देता, बस यह जानने के लिए कि उसने किस वीनस को खोया है और अब वह बेकार हवा में
हाथ घुमाते हुए उसे पकड़ने की कोशिश करता है?”
और प्रोफेसर एकदम बीमार-सा घर लौटता है. उसकी बीवी ऐसा दिखाती है, मानो
उसकी हालत न देख रही हो, और उसे जल्दी-जल्दी बिस्तर में
सुलाने लगती है. मगर वह खुद नहीं लेटती, बल्कि लैम्प के पास
एक किताब लेकर बैठ जाती है, उदास आँखों से सोने वाले को
देखती रहती है. उसे मालूम है कि सुबह इवान निकलायेविच एक पीड़ा भरी चीख मारकर
उठेगा, रोने लगेगा और इधर-उधर घूमने लगेगा. इसीलिए उसने पहले
से ही स्प्रिट में डूबी इंजेक्शन की सिरिंज और गाढी चाय के रंग की दवा लैम्प वाले
टेबुल की मेज़पोश पर तैयार रखी है.
यह गरीब औरत, मरीज़ के साथ बँधी, अब चैन से सो
सकती है, बिना किसी भय के. अब इवान निकलायेविच सुबह तक सोता
रहेगा, उसके चेहरे पर होंग़े सुख के भाव और वह सपने देखता
रहेगा उदात्त विचारों वाले, सौभाग्यशाली, जिनके बारे में पत्नी को कुछ भी मालूम नहीं.
वैज्ञानिक को पूर्णमासी की रात को पीड़ा भरी चीख के साथ हमेशा एक ही चीज़
जगाती है. वह देखता है – बिना नाक वाला जल्लाद, जो उछलकर चीखते हुए भाले की नोक
वध-स्तम्भ से जकडे हुए बेसुध कैदी गेस्तास के सीने में चुभोता है. मगर जल्लाद इतना
भयानक नहीं है जितना कि सपने में दिखाई दे रहा अप्राकृतिक प्रकाश, जो किसी ऐसे बादल से आ रहा है, जो उबलता हुआ भूमि पर
छलकता रहता है, जैसा पृथ्वी पर आने वाली विपत्तियों से पूर्व
होता है.
इंजेक्शन के बाद सोने वाले के सामने सब कुछ बदल जाता है. बिस्तर से लेकर
खिड़की तक चौड़ा चाँद का रास्ता बिछ जाता है और इस रास्ते पर चलने लगता है
रक्तवर्णी किनार वाला सफेद अंगरखा पहना आदमी और जाने लगता है चाँद की ओर. उसके साथ
एक नौजवान भी चल रहा था, फटे-पुराने कपड़े पहने, बिगाड़े हुए
चेहरे वाला. चलने वाले किसी बात पर जोश में बहस कर रहे हैं, बातें
कर रहे हैं, कुछ कहना चाह रहे हैं.
“हे भगवान, भगवान!” अंगरखा पहने व्यक्ति ने अपना कठोर
चेहरा अपने साथी की ओर फेरते हुए कहा, “कैसा मृत्युदण्ड था!
कितना निकृष्ट! मगर तुम, कृपया मुझे बताओ,” उसके चेहरे पर याचना के भाव छा गए, “मृत्युदण्ड तो
दिया ही नहीं गया! मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ, मुझे सच-सच
बताओ, नहीं दिया गया न?”
“बेशक, नहीं दिया गया,” उसके
साथी ने भर्राई आवाज़ में जवाब दिया, “तुम्हें ऐसा भ्रम हुआ
था.”
“क्या तुम कसम खाकर कह सकते हो?” अंगरखे वाले ने
ताड़ने के भाव से पूछा.
“कसम खाकर कहता हूँ,” साथी ने जवाब दिया और उसकी
आँखें न जाने क्यों मुस्कुराने लगीं.
“और मुझे कुछ नहीं चाहिए,” फटी आवाज़ में अंगरखे वाला
चिल्लाया और वह चाँद की ओर ऊपर-ऊपर जाने लगा, अपने साथी को
अपने साथ लिए. उनके पीछे-पीछे शान से चल रहा था खामोश और विशालकाय, तीखे कानों वाला कुत्ता.
तब चाँद का प्रकाश उफनने लगता है, उसमें से चाँदी की नदी चारों दिशाओं
में बहने लगती है. चाँद राज करते हुए खेल रहा है, चाँद नृत्य
करते हुए आँखें मिचका रहा है. तब उस धारा में से एक अद्भुत सुन्दरी प्रकट होती है
और वह इवान की ओर सहमे हुए दाढ़ी वाले को खींचते हुए लाती है. इवान निकलायेविच
फौरन उसे पहचान लेता है. यह – वही एक सौ अठारह नम्बर है, उसका
रात का मेहमान. इवान निकलायेविच सपने में ही उसकी ओर हाथ बढ़ाता है और अधीरता से
पूछता है, “तो, शायद ऐसे ही सब खत्म
हुआ?”
“ऐसे ही खत्म हुआ, मेरे चेले,” एक
सौ अठारह नम्बर जवाब देता है, और वह सुन्दरी इवान के पास आकर
कहती है, “हाँ, बेशक, ऐसे ही. सब खत्म हुआ, और सब खत्म हो रहा है...और मैं
तुम्हारे माथे को चूमूँगी, तब तुम्हारे साथ ही सब कुछ वैसे
ही होगा, जैसे होना चाहिए.”
वह इवान की झुकती है और उसके माथे को चूमती है, इवान
उसकी ओर खिंचता है और उसकी आँखों में देखने लगता है; मगर वह
पीछे-पीछे हटते हुए अपने साथी के साथ चाँद की ओर जाने लगती है.
तब चाँद फैलने लगता है, अपनी किरणें सीधे इवान पर डालने लगता है; वह चारों दिशाओं में प्रकाश बिखेर रहा है, कमरे में
चाँद की रोशनी लबालब भर जाती है, रोशनी हिलोरें लेती है,
ऊपर उठती है और बिस्तर को डुबो देती है. तभी इवान निकलायेविच सुख की
नींद सोता है.
सुबह वह उठता है चुप-सा, मगर पूरी तरह शांत और स्वश्थ. उसकी बेचैन यादें शांत हो
जाती हैं और अगली पूर्णमासी तक प्रोफेसर को कोई भी परेशान नहीं करता. न तो गेस्तास
का बिना नाक वाला हत्यारा, न ही जूडिया का क्रूर पाँचवाँ
न्यायाधीश अश्वारोही पोंती पिलात.
समाप्त.
मिखाइल
बुल्गाकव का संक्षिप्त परिचय
मिखाइल बुल्गाकव का जन्म युक्रेन की
राजधानी कीएव में सन १८९१ में हुआ. उनके पिता कीएव की स्पिरिचुअल अकादमी में
प्रोफ़ेसर थे. परिवार बड़ा और पढ़ालिखा था. परिवार में तीन लड़के और चार लड़कियां
थीं .
मिखाइल बुल्गाकव ने मेडिकल कालेज की पढाई पूरी की, और रूसी क्रांति के उपरांत वे दूर-दराज़ के गाँवों में प्रेक्टिस करने लगे.
इन अनुभवों के आधार पर उन्होंने कुछ कहानियां भी लिखी हैं.
जल्दी ही उन्हें इस बात का एहसास हो गया की डॉक्टरी में उन्हें ख़ास
दिलचस्पी नहीं है, अत: सन १९२१ में वे खाली हाथ मास्को आ गए,
पत्नी के साथ, और डॉक्टरी को पूरी तरह
तिलांजलि देकर लेखन कार्य में जुट गए.
अनेक नाटकों तथा उपन्यासों के इस लेखक ने अखबारों में मजाकिया खाके
लिखकर अपनी साहित्य यात्रा आरंभ की. साथ ही अनेक कहानियां भी लिखीं जिनमें कुछ
डॉक्टरी जीवन के संस्मरण तथा कुछ व्यंग्यात्मक रचनाएं थीं. सन १९२४-१९२६ के बीच
उन्होंने तीन लघु उपन्यास लिखे – द्यावलियादा (शैतानियत) , रकावीए याइत्सा
(दुर्भाग्यशाली अंडे ) और सबाच्ये सेर्द्त्से (कुत्ता दिल).
तत्कालीन सोवियत जीवन पर
निर्ममता से प्रहार करने वाली इन रचनाओं के कारण उन पर शासन द्वारा
ज्यादतियां की जाने लगी.
बुल्गाकव ने कुछ नाटक भी लिखे जिनमे प्रमुख हैं : बेग (पलायन), ज़ोय्किना क्वार्तीरा (जोया का फ्लैट),
द्नी तूर्बिनीख (तूर्बिंन परिवार के अंतिम दिन ) तथा बग्रोवी अस्त्रोव(लाल द्वीप).
कुछ अन्य रचनाएँ हैं: उपन्यास बेलाया ग्वार्दिया (श्वेत गार्ड), जो
स्वयँ बुल्गाकव को बेहद पसन्द था; झीज़्न गस्पदीना मोल्येरा (मोल्येर
महाशय का जीवन) और तिआत्राल्नी रमान( किस्सा थियेटर का)..
अपना महानतम उपन्यास मास्टर और मार्गारीटा उन्होंने सन १९२८ में आरंभ किया. अपनी आखों की ज्योति खोकर भी इस उपन्यास को पूर्ण
करके सन १९४० में वे हमेशा के लिए इस संसार से बिदा हो गए.
मित्रों, हमारा प्रयास रहेगा की बुल्गाकव का
उपन्यास हिन्दी में आपके सम्मुख प्रस्तुत करें, कठिनाइयां तो
अवश्य आएंगी, जैसा की बुल्गाकव पर काम करने वालों के साथ
होता है, पर आशा करते हैं कि बुल्गाकव का सहयोग इस कार्य में
हमें प्राप्त होगा.
आमीन!
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