Friday, 12 April 2024

श्वेत गार्ड्स - 16

 

16


सलामत र-हो. सलामत रहो.

सला-आ-आ-आ-म-त  र-हो ...

तमाशेव्स्की के प्रसिद्ध कोरस की नौ मन्द्र सप्तक आवाजें उठीं.

 

सला-आ-आ-आ-म-त  र-हो ...

 

खनखनाते अवरोही स्वर गूंजे.

“सलामत...सलामत...सलामत...”

तार सप्तक के स्वर कैथेड्रल के गुम्बद तक पंहुच गए.

“देख! देख! खुद पित्ल्यूरा...”

“देख, इवान...”

“ऊ, बेवकूफ़...पित्ल्यूरा तो कब का चौक पर पहुँच चुका है...”

कोरस में सैंकड़ों सिर एक के ऊपर एक चढ़े हुए थे, एक दूसरे को दबा रहे थे, काले भित्ती चित्रों से सजे प्राचीन स्तंभों के बीच कटघरों से लटक रहे थे. गोल-गोल घूमते, परेशान होते, एक दूसरे को धकेलते, कुचलते, कटघरे की ओर लपकते, कैथेड्रल की गहराई में देखने की कोशिश करते, मगर सैंकड़ों सिर, पीले सेबों की तरह, तिहरी, घनी कतारों में लटके हुए थे. गहराई में झूम रही थी हज़ारों सिरों की दमघोटू लहर, और उसके ऊपर तैर रहे थे, झुलसते हुए, पसीना और भाप, लोभान का धुँआ, सैंकड़ों मोमबत्तियों की कालिख, कतारों में लटके हुए भारी भारी लैम्पों की कालिख. भूरे-नीले रंग के भारी परदे ने छल्लों पर चरमराते हुए नक्काशीदार, मुडे हुए, पुरानी धातु के बने, पूरे सोफ़िया कैथेड्रल की ही तरह काले और उदास, शाही दरवाजों को ढांक दिया. झुम्बरों में मोमबत्तियों की अग्निमय पूँछें चटाचटा रही थीं, झूल रही थीं, धुएँ के धागे जैसी ऊपर को उठ रही थीं. उन्हें पर्याप्त हवा नहीं मिल रही थी. अल्टार के पास अविश्वसनीय अव्यवस्था थी. अल्टार के बगल वाले दरवाजों से, ग्रेनाईट के, घिसे हुए तख्तों पर सुनहरे वस्त्र बिखरे, स्टोल्स (ऊपरी दुपट्टा- अनु.) लहराए. गोल डिब्बों से बैंगनी गोल टोप बाहर निकल रहे थे, दीवारों से, हिलते हुए, पवित्र बैनर्स हटाये जा रहे थे. कहीं भीड़ में प्रोटोडीकन की भयानक, गहरी आवाज़ गूँज रही थी. पादरी का लबादा, बिना सिर का, बिना हाथ का, कूबड़ की तरह भीड़ पर मंडराया, फिर भीड़ में डूब गया, फिर सूती लबादे की एक बांह ऊपर आई, दूसरी भी आई. चौखानों वाले रूमाल लहराए और चोटियों में गुंथ गए.

“फ़ादर अर्कादी, गालों को कस के बांधिए, खतरनाक बर्फ गिर रही है, इजाज़त दीजिये, मैं आपकी मदद करता हूँ.”  

दरवाजों से गुज़रते हुए पवित्र बैनर्स झुके हुए थे, पराजित झंडों की तरह, भूरे चेहरे और रहस्यमय सुनहरे शब्द तैर रहे थे, पूँछें फर्श पर घिसट रही थीं.

“रास्ता दीजिये...”

“प्यारों, कहाँ जा रहे हो?

“मान्का! दब जायेगी...”

“किसके बारे में ?” (नीची आवाज़, फुसफुसाहट). उक्रेनियन पीपल्स रिपब्लिक के बारे में? 

“शैतान ही जाने (फुसफुसाहट).

“जो पोप नहीं, वह बिशप है...”

“सावधानी से...”    

सलामत रहो!!!-

 

खनखनाते हुए, कोरस पूरे कैथेड्रल में गूँज गया...मोटे, लाल तल्माशेव्स्की ने तरल, मोमबत्ती बुझा दी और ट्यूनिंग फोर्क को जेब में डाल दिया. कोरस, सुनहरी चेन वाले, पैरों की उँगलियों तक भूरे सूटों में, अपने भूरे, मानो गंजे हों, सिर हिलाते हुए तार सप्तक के प्रमुख; टेंटुए हिलाते हुए, और घोड़ों जैसे सिर वाले निचले सुरों के गायकों का, अँधेरा, उदास समूहगीत बह चला. सभी दरवाजों से, घने होते हुए, एक दूसरे को दबाते हुए, मानो पानी के भंवर में उबलते हुए, लोग शोर मचा रहे थे.        

चर्च से सफ़ेद चोगे तैरते हुए बाहर आये, यूँ बंधे हुए सिरों से, जैसे दांतों में दर्द हो, हैरान-परेशान आँखें, बैंगनी, खिलौनों जैसी, कार्डबोर्ड की टोपियाँ. फ़ादर अर्कादी, कैथेड्रल का डीन, छोटा-सा, कमजोर आदमी, जिसने भूरे चौखानेदार स्कार्फ़ के ऊपर रत्नजडित टोप पहना था, छोटे-छोटे कदमों से प्रवाह में जा रहा था. फ़ादर की आंखें परेशान थीं, उसकी दाढ़ी थरथरा रही थी.

“कैथेड्रल के चारों ओर जुलूस निकाला जाएगा. मीत्का, दूर हट.”

धीरे! कहाँ जा रहे हो? पादरियों को दबा रहे हो...”

“है उनके लिए काफी जगह.”

“ओर्थोडोक्स वालों!! बच्चे को दबा दिया.”

“कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है....”

“अगर समझ में नहीं आता, तो घर चले जाओ, यहाँ तुम्हारे चुराने के लिए कुछ नहीं है...”

मेरा पर्स मार दिया!!!”

“माफ़ कीजिये, वे तो सोशलिस्ट हैं. मैं ठीक कह रहा हूँ, ना? तो फिर यहाँ पादरी लोग किसलिए?

“देखते रहो.”

“पादरियों को नीला नोट दो तो वे शैतान के लिए भी प्रार्थना करेंगे.”

“अब तो फ़ौरन बाज़ार जाना चाहिए, यहूदियों की दुकानों में तोड़-फोड़ करनी चाहिए. सही मौक़ा है...”

“मैं आपकी जुबान में बात नहीं करता.”  

“महिला को दबा रहे हैं, दबा रहे हैं महिला को...”

“हा-आ-आ-आ...हा-आ-आ-आ...”

बगल वाले गलियारों से, कोरस से, सीढ़ी दर सीढ़ी, कंधे से कंधा सटाए, मुड़ने की गुंजाइश नहीं, हिलने की गुंजाइश नहीं, भीड़ दरवाजों की ओर घिसटती जा रही थी, गोल-गोल घूम रही थी.  दीवारों पर भित्तिचित्रों में प्रदर्शित अज्ञात शताब्दी के मोटी टांगों वाले भूरे विदूषक नाचते हुए और पाईप बजाते हुए जा रहे थे. सभी दरवाजों से, सरसराहट से, शोर-गुल के साथ, अधमरी, कार्बन डाई ऑक्साइड, धुएँ और लोभान से बेहाल भीड़ निकल रही थी. भीड़ में बार-बार औरतों की संक्षिप्त, दर्द भरी चीखें सुनाई दे जातीं. काले मफलरों वाले जेबकतरे अपने कुशल, वैज्ञानिक हाथों को मानव मांस की चिपचिपी, दबी हुई गांठों के बीच घुसाकर एकाग्रता से, कड़ी मेहनत से अपना काम कर रहे थे. हज़ारों टांगें चरमरा रही थीं, भीड़ फुसफुसा रही थी, सरसरा रही थी.

“लार्ड, माय गॉड ...”

“जीज़स क्राइस्ट...जन्नत की महारानी, मदर मैरी...”

“यहाँ आकर खुशी नहीं हो रही है. ये सब क्या हो रहा है?

“खुदा करे, कमीने, तू कुचल जाए...”

“घड़ी, प्यारों, चांदी की घड़ी, मेरे भाईयों. कल ही खरीदी थी...”

“शायद, यह उनकी आख़िरी प्रार्थना थी...”

“चचा, ये किस जुबान में गा रहे थे, मैं समझ नहीं पा रही हूँ?”

“खुदाई जुबान में, आंटी.”

“सख्त आदेश है, कि चर्च में मॉस्को की भाषा का प्रयोग न हो.”

“ये क्या है, माफ़ कीजिये, ऐसा कैसे? क्या ऑर्थोडॉक्स की भाषा में, मातृ भाषा में बात करने की भी इजाजत नहीं है?”

“जड़ से बालियाँ खीच लीं. आधे कान उखाड़ दिए.”

“बोल्शेविक को पकड़ो, कजाकों! जासूस! बोल्शेविकों का जासूस!”

“ये अब रूस नहीं है, भले आदमी.”

“ओह, माय गॉड, पूँछों वाला...देख, मारूस्या, चोटी वाली टोपियाँ.”

“जी...घबरा रहा है...”

“महिला का जी घबरा रहा है.”

“सबकी हालत खराब है, माँ. पूरी जनता का हाल बुरा है. आंख, आंख दबा रही हो, धक्का मत दो. तुम क्यों गुस्से में हो, अभिशप्त लोगों?!”

“भाग जाओ! रूस भाग जाओ! उक्रेन से भाग जाओ!”

“इवान इवानविच, यहाँ पुलिस की टुकड़ियां होनी चाहिए, याद है, ऐसा हुआ था, सन् 1912 के त्यौहार मेंऐह, हो, हो.”

“क्या तुम्हें फिर से खूनी निकलाय चाहिए? हम जानते हैं, हमें सब पता है, कि आपके दिमाग में कैसे-कैसे ख़याल मौजूद हैं.” 

“मुझसे दूर रहें, जीज़स की खातिर. मैं आपको छू नहीं रहा हूं.”

“खुदा, काश, जल्दी से बाहर निकल पाते...ताज़ा हवा में सांस लेते.”

“नहीं जा पाऊंगा. मर जाऊंगा.”

प्रमुख निर्गम द्वार से बड़ी ताकत से भीड़ गोल-गोल घूमते हुए, धकेली जा रही थी, बाहर फेंकी जा रही थी. टोपियाँ गिर रही थीं, भीड़ भिनभिना रही थी, सलीब के निशान बना रही थी. किनारे वाले दूसरे दरवाज़े से, जहाँ धक्का बुक्की में दो कांच टूट गए थे, चांदी सोने जड़ा, कुचला गया और बदहवास गॉडफ़ादर, कोरस के साथ बाहर उड़ा. काली पोशाकों के बीच सुनहरे धब्बे तैर रहे थे, सफ़ेद और बैंगनी टोपियाँ झाँक रही थीं, झुके हुए बैनर्स कांच से बाहर रेंग रहे थे, फिर सीधे होकर गुज़र रहे थे.

भयानक बर्फ़बारी हो रही थी. शहर धुआँ उगल रहा था. कैथेड्रल का आँगन, जो हज़ारों पैरों से कुचला गया था, लगातार झनझना रहा था. बर्फ का धुआँ जम गई हवा में तैर रहा था, घंटाघर की तरफ़ उठ रहा था. प्रमुख घंटाघर में सेंट सोफ़िया का भारी घंटा गूँज रहा था, इस भयानक, चीखती हुई अराजकता को दबाने की कोशिश कर रहा था. छोटी-छोटी घंटियाँ टिनटिना रही थीं, बिना किसी तरतीब के, बिना किसी सामंजस्य के, एक दूसरे से होड़ लगाते हुए गा रही थीं, मानो खुद शैतान ही चोगा पहने घंटाघर पर चढ़ गया हो, और मस्ती में, हंगामा मचा रहा हो. अनेक मंजिलों वाले घंटाघर के काले खांचों में, जो कभी खतरनाक घंटियों से तिरछी आंखों वाले तातारों से मिलता था, अनेक छोटी-छोटी घंटियों को जंज़ीर से बंधे पागल कुत्तों की तरह हिलते और चीखते हुए देखा जा सकता था. बर्फ करकरा रही थी, धुआँ छोड़ रही थी. पिघलते हुए, आत्मा को ‘पश्चात्ताप के लिए तैयार करते हुए, काले द्रव की तरह लोगों का समूह कैथेड्रल के आँगन की तरफ बह रहा था.

भयानक ठण्ड के बावजूद, खुदा के याचक, खुले सिरों से, जो कभी पके हुए कद्दू की तरह गंजे थे, कभी घने नारंगी बालों से ढंके हुए थे, पत्थर के रास्ते पर, पुराने सोफ़िया-घंटाघर के विशाल प्रांगण में पालथी मारे कतार में बैठ गए थे, और नकीली आवाजों में गा रहे थे.

अंधे गायक ‘खौफनाक इन्साफ’ के बारे में आत्मा को झकझोरने वाला बदहवास गीत गा रहे थे, और फटी हुई टोपियाँ पेंदे के सहारे पड़ी थीं, और चीकट नोट पत्तों की तरह उनमें गिर रहे थे, और टोपियों से बिखरे हुए सिक्के झाँक रहे थे.

 

ओह, जब समाप्त होगा सदी का अंत,

आ पहुंचेगा अंतिम न्याय...

 

टेढ़े-मेढे हैंडल के, पीले दांतों वाले वाद्य-बान्डुरा से फूटती हुई भयानक, दिल को दहलाने वाली, नकीली आवाज़ें, कुरकुरी धरती से तैर रही थीं.   

भाईयों, बहनों, मेरी बदहाली पर ध्यान दीजिये. दया करके, क्राईस्ट की खातिर कुछ दीजिये.”

 फ़िदसेइ पित्रोविच, चलें, स्क्वेअर पर भागें, वर्ना देर हो जायेगी.”

“प्रार्थना सभा होगी.”

“जुलूस.”

“क्रांतिकारी उक्रेनियन पीपल्स आर्मी की विजय के लिए प्रार्थना सभा हो रही है.”

“माफ़ कीजिये, कहाँ की विजय? जीत तो पहले ही हो चुकी है.”

“और भी विजय प्राप्त करेंगे!”

“अभियान होगा.”

“अभियान कहाँ?”

“मॉस्को पर.”

“कौनसे मॉस्को पर?

“खुद सामान्य मॉस्को पर.”

“नामुमकिन है.”

“क्या कहा आपने? ज़रा फिर से तो कहिये, जो आपने अभी कहा? नौजवानों, सुनो, ये क्या कह रहा है!”

“मैंने कुछ नहीं कहा!”

“पकड़ो, पकड़ो उसे, चोर को, पकड़ो!!”

“चल भाग, मारूस्या, उस गेट से, यहाँ से नहीं जा पायेंगे. पित्ल्यूरा, कहते हैं, चौक पर है. पित्ल्यूरा को देखना है.”
“बेवकूफ़
, पित्ल्यूरा कैथेड्रल में है.”

“तू खुद ही बेवकूफ़ है. कह रहे हैं कि वह सफ़ेद घोड़े पर जा रहा है.”

उक्रेनियन पीपल्स रिपब्लिक जिंदाबाद!!!”

“डॉन... डॉन...डॉन... डॉन- डॉन- डॉन...तिर्ली-बॉमबॉम. डॉन-बॉम-बॉम,” – घंटे बेतहाशा चीख रहे थे.  

“ अनाथों पर भी नज़र डालो, ओर्थोडोक्स नागरिकों, भले आदमियों...अंधे को...लाचार को...”

काला, जिसके पार्श्व भाग पर चमड़ा सिला था, काले भंवरे की तरह, हाथो से कुचली हुई बर्फ से चिपकते हुए, पैरों के बीच बिना पैरों का आदमी रेंग रहा था. अपंग, अभागे लोग अपनी नीली पिंडलियों के फोड़े दिखा रहे थे, सिर हिला रहे थे, जैसे खिंचाव या लकवे के कारण हो, सफ़ेद आंखें गोल-गोल घूम रही थीं, अंधेपन का ढोंग करते हुए. आत्मा की गहराई से, दिलों को चीरते हुए, गरीबी, धोखे, निराशा, स्तेपी के अंतहीन जंगलीपन की याद दिलाते हुए, उनके शापित वाद्य पहियों की तरह चरमरा रहे थे, आहें भर रहे थे, विलाप कर रहे थे. 

“वापस आ जा, यतीम बच्चे, भटक जाएगा...”

अस्तव्यस्त, थरथराती, बैसाखियों वाली बूढ़ी औरतें, अपने सूखे, चर्मपत्र जैसे हाथ बाहर फैलाए, विलाप कर रही थीं:

“ख़ूबसूरत नौजवान! खुदा तुझे अच्छी सेहत दे!”

“मालकिन, अनाथ, अभागी बुढ़िया पर तरस खाओ.”

“प्यारों, दुलारों, खुदा तुम्हारी हिफाज़त करेगा...”

चपटे पैरों वाली भिखारिनें, कफ्तान और लंबे कानों वाली टोपियाँ पहने लोग, भेड़ की खाल की हैट पहने मर्द, गुलाबी गालों वाली लड़कियां, रिटायर्ड अफसर - बैजेस के धूलभरे निशानों के साथ, बड़े पेट वाली अधेड़ उम्र की महिलायें, फुर्तीले पैरों वाले लडके, ओवरकोट, और रंगबिरंगी पूँछों वाली टोपियाँ पहने कज़ाक, नीली, लाल हरी, चटख लाल, सोने,चांदी की लटकनों के साथ, काले सागर के समान कैथेड्रल के आँगन में फैले थे, और कैथेड्रल के दरवाज़े निरंतर नई-नई लहरें उछाल रहे थे. खुली हवा में ताजेतवाने होकर, कुछ शक्ति बटोरकर, जुलूस सुव्यवस्थित हो गया, तन गया और व्यवस्थित क्रम में चौखानों वाले स्कार्फ़, पादरियों के शिरोवस्त्र और लम्बी गोल टोपियाँ, नंगे सिरों वाले छोटे पादरियों के घने बाल, भिक्षुओं की चिपकी हुई गोल टोपियाँ, सुनहरे डंडों पर नुकीले ‘क्रॉस’, क्राइस्ट-उद्धारकर्ता और नन्हें शिशु के साथ गॉडमदर के बैनर्स, तैर रहे थे और उत्कीर्ण, मढ़े हुए, सुनहरे, लाल, स्लाविक लिपि में लिखे हुए पूँछों वाले बैनर्स लहरा रहे थे.

जैसे सांप के पेट जैसा भूरा बादल शहर पर बरस रहा हो, या उफ़नती, मटमैली नदियाँ पुरानी सडकों पर बह रही हों – पित्ल्यूरा की अनगिनत फौजें सोफिया कैथेड्रल के चौक पर परेड कर रही हैं.  

सबसे पहले, तुरहियों की गरज से बर्फ को उड़ाते हुए, चमकदार तश्तरियों की झंकार करते हुए, लोगों की काली नदी को काटते हुए, घनी कतारों में नीली डिविजन गुज़री.

नीले ग्रेट कोटों में, नीले टॉप वाली तिरछी अस्त्राखानी टोपियों में गैलिशियन्स जा रहे थे. दो दुरंगे ध्वज, नंगी तलवारों के बीच झुके हुए, तुरहियों वाले ओर्केस्ट्रा के पीछे-पीछे तैर रहे थे, और ध्वजों के पीछे, कुरकुरी बर्फ को एक लय में रौंदते हुए, शान से पंक्तियाँ गरज रही थीं, महंगे, जर्मन कपड़े पहने. पहली बटालियन के पीछे पीछे परेड में कूदी लम्बे काले लबादों वाली टुकड़ी,  कमर पर रस्सियाँ बांधे, सिरों पर हेलमेट, संगीनों के घने, भूरे झुरमुट के साथ.                 

अपरिमित संख्या में, ‘सिच’ राइफलमनों की भूरी, भद्दी बटालियनें मार्च कर रही थीं. गयदामाक कज़ाकों की पैदल टुकड़ियां एक के बाद एक आती रहीं, और, ऊपर, बटालियनों के बीच की जगह में, मस्ती से नाचते हुए अपनी-अपनी काठी में सवार बहादुर कमांडर्स, टुकड़ियों के और कंपनियों के , जा रहे थे. साहसी, विजयी, गरजती हुई मार्च की धुनें, ऐसी दहाड़ रही थीं, मानो रंगबिरंगी नदी से सोना उगल रही हों.           

पैदल टुकड़ियों के पीछे, हल्की चाल से, अपनी काठी में हौले से उछलते हुए घुड़सवार रेजिमेंट्स आईं. उत्तेजित भीड़ की आंखें उनके कुचले हुए, मुड़े हुए नीले, हरे और लाल टोपों से लटकती सुनहरी लटकनों से चकाचौंध हो गईं.

दाईं भुजाओं से बंधे हुए भाले सुईयों की तरह उछल रहे थे. घुड़सवार दस्ते में पूँछों से बंधी हुई घंटियाँ प्रसन्नता से बज रही थीं, और कमांडरों तथा बिगुलधारकों के घोड़े तुरही की आवाज़ से दूर भाग रहे थे. मोटा, प्रसन्न, गेंद जैसा बलबतून रेजिमेंट के आगे-आगे जा रहा था, बर्फीली हवा में अपना चर्बी से चमकता, नीचा माथा और भरे-भरे प्रसन्न गाल दिखाते हुए. लाल घोडी अपनी लाल आंख से तिरछे देखते हुए, मुख के ‘बिट (धातु का टुकड़ा – अनु.) को चबाते हुए, फ़ेन गिराते हुए, पिछली टांगों पर खड़ी हो जाती, बार-बार सौ किलोग्राम वज़न के बलबतून को झकझोर देती, और टेढ़ी तलवार अपनी म्यान में गरजती, और कर्नल अपनी एड से उसके बेचैन पार्श्व भागों को हौले से छू देता.

 

क्योंकि हमारे ऑफिसर हैं हमारे साथ,

हमारे साथ, जैसे भाइयों के साथ! –

उमड़ते-घुमड़ते तेज़ तर्रार गयदामाक उछलते हुए गा रहे थे और उनकी चोटियाँ उछल रही थीं.  

गोलियां लगा पीला-नीला झंडा फहराते, एकॉर्डियन बजाते, काले, नुकीली मूँछों वाले, भारी भरकम घोड़े पर सवार कर्नल कोज़िर-लिश्को की रेजिमेंट जा रही थी. कर्नल उदास था और तिरछी आंख से घोड़े को देखते हुए उसके पुट्ठे पर चाबुक बरसा रहा था. कर्नल के गुस्सा होने की एक वजह थी – ब्रेस्त-लितोव्स्काया राजमार्ग पर धुंध भरी सुबह को नाय-तुर्स की प्लेटून की गोलियों ने कोज़िर की बढ़िया रेजिमेंट को भून दिया था, और अब चौक पर सिकुड़ गई, विरल संरचना गुज़र रही थी.        

कोज़िर के पीछे आई, शानदार, अपराजित, ब्लैक-सी ‘गेटमन माज़ेपा’ घुड़सवार रेजिमेंट. बहादुर गेटमन का नाम, जिसने पल्तावा के पास सम्राट प्योत्र को लगभग मार ही डाला था, सुनहरे अक्षरों में नीले रेशम पर चमक रहा था.

लोगों की भीड़ बादल की तरह घरों की भूरी और पीली दीवारों से तैर रही थी, लोग एक दूसरे को धकेलते और रास्ते की मुंडेर पर चढ़ जाते, बच्चे उछलकर लैम्प-पोस्टों पर चढ़ जाते और डंडों पर बैठ जाते, छतों पर खड़े हो जाते, सीटियाँ बजाते, चिल्लाते: “हुर्रे...हुर्रे...”

“जिंदाबाद! जिंदाबाद!” फुटपाथों से चिल्लाते.

बाल्कनियों और खिड़कियों के कांचों पर चपटे चहरों की भीड़ चिपकी थी.

गाडीवान, संतुलन बनाते हुए, स्लेज के बक्से पर चाबुक घुमाते हुए चढ़ जाते.

कहते थे, कि सिर्फ भीड़ है...ले, तेरे लिए भीड़. हुर्रे!”

“जिंदाबाद! पित्ल्यूरा जिंदाबाद! हमारा मालिक, जिंदाबाद!”

“हुर्रे...’     

“मान्या, देख, देख ख़ुद पित्ल्यूरा, देख, भूरे वाले पर. कितना ख़ूबसूरत है...”

“क्या कह रही हैं, मैडम, ये कर्नल है.”

“आह, क्या सचमुच? मगर पित्ल्यूरा कहाँ है?

“पित्ल्यूरा महल में है, ओडेसा से आये फ्रांसीसी दूतों का स्वागत कर रहा है.”

“भले आदमी, आप क्या, पगला गए हैं, कैसे राजदूत?

“पित्ल्यूरा, प्योत्र वसील्येविच, कहते हैं (फुसफुसाते हुए), पैरिस में है, आँ, देखा?

“ये रहे आपके गिरोह...दस लाख तो होंगे.”

“मगर, पित्ल्यूरा कहाँ है? प्यारों, पित्ल्यूरा कहाँ है? कम से कम एक नज़र तो देखने दो.”

“पित्ल्यूरा, मैडम, अभी चौक पर परेड का स्वागत कर रहा है.”

“ऐसी कोई बात नहीं है. पित्ल्यूरा बर्लिन में प्रेसिडेंट से मिल रहा है, समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए.”

“कौनसे प्रेसिडेंट से?! भले आदमी, आप अफवाहें क्यों फैला रहे हैं.”

“बर्लिन के प्रेसिडेंट से...रिपब्लिक के मौके पर...”

“देखा? देखा? कैसा शानदार है...वो, रील्स्की गली से होकर गया है, गाड़ी में. छह घोड़ों वाली...”    

“माफ़ी चाहता हूँ, क्या वे ऑर्थोडोक्स चर्च में विश्वास करते हैं?

“मैं ये नहीं कह रहा हूँ, कि विश्वास करते हैं – नहीं करते...सिर्फ ये कह रहा हूँ कि – यहाँ से गुज़रा, और इसके अलावा कुछ नहीं. आप खुद ही तथ्य पर सोच लीजिये...”

“तथ्य ये है कि पादरी अभी प्रेयर कर रहे हैं...”

“पादरियों के साथ रहना ज़्यादा अच्छा है...”

“पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा...”

भयानक, भारी-भारी पहिये गड़गड़ा रहे थे, बक्से चरमरा रहे थे. दस घुड़सवार रेजिमेंट्स के बाद तोपखाने की अंतहीन कतार गुज़रने लगी. चपटी नली वाली, मोटी तोपें, पतली होवित्ज़र तोपें जा रही थीं; सेवक बक्सों पर बैठे थे, प्रसन्न, अच्छी तरह खाये-पिये, विजयी, घुड़सवार शालीनता से और शान्ति से जा रहे थे. खिंचते हुए, तनते हुए घोड़े छः इंची तोपें ले जा रहे थे, खाये-पिये, मज़बूत, चौड़े पुट्ठों वाले, और किसानों वाले, काम करने के आदी, गर्भवती पिस्सुओं जैसे, छोटे घोड़े. हल्की, पहाडी-तोपें शीघ्रता से जा रही थीं, और बहादुर घुड़सवारों से घिरी तोपें उछल रही थीं.      

“एह...एह...तो, ये हैं पंद्रह हज़ार...हमसे झूठ क्यों कहा गया. पंद्रह...डाकू...विनाश... खुदा, गिन भी नहीं पाओगे. एक और यूनिट...और, और...”

भीड़ निकोल्का को दबाये जा रही थी, दबाये जा रही थी, और वह अपनी पंछी जैसी नाक स्टूडेंट्स वाले ओवरकोट में घुसाए, आखिरकार, दीवार में बने एक आले में घुस गया और वहीं मज़बूती से बैठ गया.

फेल्ट बूट पहनी कोई हंसमुख महिला पहले से ही उस आले में मौजूद थी और उसने प्रसन्नतापूर्वक निकोल्का से कहा: “मुझे पकड़े रहो, बच्चे, और मैं ईंट पकड़े रहूँगी, वरना हम गिर जायेंगे.”

“थैन्क्यू,” निकोल्का ने अपनी बर्फ बन चुकी कॉलर में उनींदे सुर में कहा, “मैं हुक पकड़े रहूँगा.”

“पित्ल्यूरा खुद कहां है?” बातूनी महिला ने कहा, “ओय, पित्ल्यूरा को देखना चाहती हूँ. कहते हैं, कि वह बेहद ख़ूबसूरत है.”

“हाँ,” निकोल्का अस्पष्ट रूप से अपने मेमने की खाल में बुदबुदाया, “अवर्णनीय है.” ‘और एक यूनिट... ये, जहन्नुम में जाए...ओह, ओह, अब मैं समझ रहा हूँ...”

“वो, लगता है, कार में अभी-अभी गुज़रा है, - यहाँ से...आपने नहीं देखा?

“वो वीनित्सा में है,” जूतों के भीतर अपनी जमी हुई उँगलियों को हिलाते हुए निकोल्का ने गंभीर और सूखी आवाज़ में जवाब दिया. ‘मैंने अपने फेल्ट बूट क्यों नहीं पहने. यहाँ तो जमे जा रहा हूँ.”   

देख, देख, पित्ल्यूरा.”

“ये कहाँ का पित्ल्यूरा, ये तो अंगरक्षकों का कमांडर है.”

“पित्ल्यूरा का ‘बेलाया चर्च में एक महल है. अब ‘बेलाया चर्च राजधानी बनेगा.”

“और क्या वो शहर में आयेगा ही नहीं, क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ?

“आयेगा, अपने समय से आयेगा.”

“अच्छा, अच्छा, अच्छा...”

ढम्, ढम्, ढम्. सोफ़िया चौक से तुर्की ढोलों की सुस्त आवाजें आ रही थीं, और सड़क पर रेंगने लगीं, गन-पोर्ट के छेदों से निकलतीं अपनी मशीनगनों से धमकाती, भारी मीनारें हिलातीं चार भयानक बख्तरबंद गाड़ियां. मगर अब जोशीला,गुलाबी गालों वाला स्त्राश्केविच भीतर नहीं था. वह अभी तक गंदा पड़ा था, और अब ज़रा भी गुलाबी नहीं प्रतीत हो रहा था, बल्कि गंदे-मोम जैसा, निश्चल स्त्राश्केविच पिचोर्स्का पर पडा था, मारिन्स्की पार्क में, गेट के एकदम बाहर. स्त्राश्केविच के माथे पर एक छेद था, दूसरा, जिस पर खून जम गया था,कान के पीछे था. जोशीले आदमी के पैर बर्फ से बाहर निकल रहे थे, और वह कांच जैसी आंखों से, मैपल की टहनियों के पार सीधे आसमान को देख रहा था. चारों तरफ़ बेहद खामोशी थी, पार्क में एक भी ज़िंदा रूह नहीं थी, और रास्ते पर भी इक्का-दुक्का ही कोई दिखाई दे जाता, प्राचीन सोफ़िया चर्च से संगीत यहाँ तक नहीं पहुँच रहा था, इसलिए जोशीले आदमी का चेहरा पूरी तरह शांत था.

बख्तरबंद गाड़ियां भिनभिनाते हुए, भीड़ को हटाते हुए, एक प्रवाह में वहाँ जा रही थीं, जहाँ बग्दान ख्मील्नित्स्की बैठा था और राजदंड से, आसमान की पार्श्वभूमी में काला नज़र आते हुए, उत्तर-पूर्व की ओर इशारा कर रहा था. बड़े घंटे की आवाज़ अभी भी तेल की मोटी लहर की तरह बर्फीले टीलों पर और शहर की छतों पर तैर रही थी, और घनी भीड़ में ढोल थपथपा रहे थे, थपथपा रहे थे, और खुशी से बेकाबू होकर बच्चे काले बग्दान के खुरों के चारों ओर चढ़े जा रहे थे. और रास्तों पर ट्रक गड़गड़ा रहे थे, जंजीरें खनखनाते हुए, और तख्तों पर उक्रेनी पोषाकों में गाते हुए युवाओं को ले जा रहे थे, भेड़ की खाल के कोट के नीचे से लड़कियों के लम्बे स्कर्ट झाँक रहे थे, उन्होंने सिरों पर पुआल के मुकुट पहने थे और लड़कों ने कोट के नीचे नीली, फूली-फूली पतलूनें पहनी थीं. वे एक सुर में और धीमी आवाज़ में गा रहे थे...   

इसी समय रील्स्की स्ट्रीट से गोलियां चलने की आवाज़ आई. इसके ठीक पहले, भीड़ में तूफ़ान की तरह औरतों की चीखें गूँज उठीं. कोई चीखते हुए भागा:

“ओय, खतरनाक!”

किसी की टूटती हुई, बेताब, भर्राई आवाज़ चीखी:

“मैं जानता हूँ. पकड़ो उन्हें! ये ऑफिसर्स हैं. ऑफिसर्स. ऑफिसर्स...मैंने उन्हें शोल्डर-स्ट्रैप्स में देखा है!”

दसवीं कंपनी ‘रादा की प्लेटून में, जो चौक में निकलने का इंतज़ार कर रही थी, फ़ौरन कुछ लड़के भीड़ में घुस गए, और किसी को पकड़ लिया. औरतें चीख रही थीं. हाथों से पकड़ा गया कैप्टेन प्लेश्का उन्माद्पूर्वक कमज़ोर आवाज़ में चिल्ला रहा था:

“मैं ऑफिसर नहीं हूँ. ऐसी कोई बात नहीं है. ऐसी कोई बात नहीं है. आप क्या कर रहे हैं? मैं बैंक का कर्मचारी हूँ.” 

उसकी बगल में ही किसी और को भी पकड़ लिया, वह, भय से सफेद खामोश था और हाथों से छूटने के लिए छटपटा रहा था...

फिर तो गली में भगदड़ मच गई, जैसे फटी हुई थैली से लोग भाग रहे थे, एक दूसरे को दबाते हुए. भय से पगला गए लोग भाग रहे थे. सारी जगह बिल्कुल सफ़ेद झक् हो गई, सिर्फ एक धब्बे को छोड़कर – ये किसी की फेंकी हुई हैट थी. गली में चमक के साथ गोलियों की आवाज़ होने लगी, और कैप्टेन प्लेश्का ने, जिसने तीन बार ख़ुद को नकार दिया था, परेडों के प्रति अपनी उत्सुकता की कीमत चुकाई थी. वह सेंट सोफिया चर्च के आवास गृह के सामने वाले पार्क में पीठ के बल पडा था, हाथ फैलाए, और दूसरा, खामोश तबियत वाला, उसके पैरों पर पडा था, फुटपाथ पर चेहरा झुकाए. और चौक के कोने से फ़ौरन तश्तरियां झनझना उठीं, फिर से लोग जमा हो गए,शोर मचाने लगे, ओर्केस्ट्रा गरज उठा. एक जोशीली आवाज़ गरजी: “क्विक मार्च!” और कतार के बाद कतार, अपनी पूँछों वाली सुनहरी टोपियाँ चमकाते, ‘रादा की घुड़सवार रेजिमेंट चल पडी.

 

 

****

 

 

एकदम अचानक गुम्बदों के बीच की भूरी पार्श्वभूमी फट गई और मटमैली धुंध में अप्रत्याशित सूरज दिखाई दिया. वह इतना विशाल था, जैसा उक्रेन में कभी किसीने नहीं देखा था,और वह पूरी तरह लाल था, बिल्कुल शुद्ध खून की तरह. बादलों के परदे से मुश्किल से चमकते हुए गोले से लगातार और दूर तक सूखे हुए खून के धब्बे और धारियां फ़ैली थीं. सूरज ने सोफ़िया के मुख्य गुम्बद को खून के रंग में रंग दिया, और चौक पर उसकी विचित्र परछाईं पड़ रही थी, जिसमें बग्दान बैंगनी नज़र आ रहा था, और बेचैन लोगों की भीड़ और भी काली, और भी घनी, और भी परेशान नज़र आ रही थी. और दिखाई दे रहा था कि कैसे भूरे कोट पर शानदार बेल्ट बांधे, संगीनों से लैस लोग चट्टान पर सीढियां चढ़ रहे थे, काले ग्रेनाईट से झाँक रही इबारत को मिटाने की कोशिश कर रहे थे. मगर संगीनें चट्टान से फिसल जातीं और छिटक जातीं. सरपट भागते बग्दान ने तैश में घोड़े को चट्टान से दूर निकाल लिया,उन लोगों से दूर भागने की कोशिश में, जो उसके खुरों पर मज़बूती से लटक गए थे. उसका चेहरा, जो सीधे लाल गोले की तरफ था, क्रोधित था, और पहले ही की तरह वह अपनी गदा से कहीं दूर इशारा कर रहा था.             

और इस समय गूंजती हुई, बढ़ती हुई भीड़ के ऊपर, बग्दान के सामने, फव्वारे के जम गए, फिसलन भरे जल कुंड में, एक आदमी के हाथ ऊपर उठे. वह फ़र के कॉलर वाले काले कोट में था,और बर्फीली ठण्ड के बावजूद टोपी उतार कर हाथों में रखे हुए था. चौक पहले ही की तरह भिनभिना रहा था, और चींटियों की बाम्बी की तरह उफ़न रहा था, मगर सेंट सोफ़िया का घंटा खामोश हो गया था, और संगीत बर्फ़ीले रास्तों पर विभिन्न दिशाओं में जा चुका था. फ़व्वारे के पास बहुत बड़ी भीड़ एकत्रित हो गई थी.

“पेत्का, पेत्का. ये किसे ऊपर उठाया है?

“लगता है, पित्ल्यूरा है.”

“पिल्यूरा भाषण दे रहा है...”

“क्या बकवास कर रहे हो...ये कोई साधारण वक्ता है...”

“मारूस्या, भाषण दे रहा है. देख...देख...”

“घोषणा-पत्र पढ़ने वाला है...”

“नहीं, युनिवर्सल (क्रांतिकारी पार्लियामेंट द्वारा की गई आज़ादी की घोषणा – अनु.) पढ़ने वाले हैं.”

“आज़ाद उक्रेन अमर रहे!”

ऊपर उठाये हुए आदमी ने उत्साह से हज़ारो सिरों के ऊपर कहीं देखा, जहाँ सूर्यमंडल स्पष्ट रूप से बाहर निकल रहा था और सलीबों को घने,लाल रंग में रंग रहा था, हाथ हिलाया और कमजोर आवाज़ में चिल्लाया:

“जनता की जय!”        

“पित्ल्यूरा...पित्ल्यूरा.”

“ये कहाँ का पित्ल्यूरा. आपने क्या कहा?

“ये पित्ल्यूरा फ़व्वारे पे क्यों चढ़ेगा?

“पित्ल्यूरा खार्कव में है.”

“पित्ल्यूरा अभी अभी महल में दावत पर गया है...”

“बकवास मत करो, कोई दावत-वावत नहीं होगी.”

“जनता जिंदाबाद!” – उस आदमी ने दुहराया, और फ़ौरन सुनहरे बालों की एक लट उछली, उछलकर उसके माथे पर आ गई.

“धीरे!”

उजले बालों वाले आदमी की आवाज़ मज़बूत हो गई और गड़गड़ाहट और पैरों की करकराहट, दूर जाती हुई परेड़ की भिनभिनाहट और गूँज, दूर जाते हुए ड्रमों की आवाज़ के बीच भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी.

“पित्ल्यूरा को देखा?”

“क्या कह रहे हैं, अभी अभी देखा.”

“आह, किस्मत वाली हो. कैसा है वो? कैसा है?

“काली मूंछें ऊपर उठी हुई, विलियम के समान, और हेल्मेट में है. ये रहा, ये रहा वो, देखो, देखो, मारिया फ़्योदरव्ना, देखो, देखो – जा रहा है...”

“ये आप क्या अफवाह फैला रही हैं! ये तो शहर के अग्निशामक दल का प्रमुख है.”

“मैडम, पित्ल्यूरा बेल्जियम में है.”

“वह बेल्जियम क्यों गया है?

“सहयोगियों के साथ गठबंधन करने...”

“ नहीं, नहीं, वो अभी अंगरक्षक के साथ ड्यूमा गया है.”

“किसलिए?

“शपथ...”

“वो शपथ लेगा?”

“वो क्यों लेने लगा? उसके सामने वे शपथ लेंगे.”

“ओह, मैं तो मर जाऊंगी (फुसफुसाहट), मैं शपथ नहीं लूँगी...”

“आपको तो लेना भी नहीं है...औरतों को तो छूते भी नहीं हैं.”

“यहूदियों को छुएंगे, ये तो पक्की बात है...”

“और ऑफिसर्स को. सबकी आंतें बाहर निकाल देंगे.”

“और ज़मींदारों को भी. लानत है!!”

“धीरे!”  

उजले बालों आदमी ने किसी भयानक दुःख और साथ ही आंखों में कोई निश्चय लिए सूरज की तरफ इशारा किया.

“आपने सुना, नागरिकों, भाईयों और कॉमरेड्स,” वह कहने लगा, “ कज़ाक कैसे गा रहे थे: ‘हमारे नेता, हैं साथ हमारे, साथ हमारे, भाईयों जैसे. हमारे साथ. हाँ, हमारे साथ!” वह अपने सीने पर टोपी मारने लगा, जिस पर लहर की भाँति एक बड़ा लाल धनुष दिखाई दे रहा था, - “हमारे साथ. ये नेता हैं लोगों के साथ, उन्हीं के लिए पैदा हुए, उनके ही लिए मरेंगे. शहर की घेराबंदी के समय वे हमारी खातिर बर्फ में ठिठुरते रहे और बहादुरी से उस पर कब्ज़ा कर लिया, और अब हमारी सभी इमारतों पर लाल झंडा फहरा रहा है...” 

“हुर्रे!”

“लाल झंडा कहाँ से? ये क्या कह रहा है? पीला-नीला.”

“बोल्शेविकों का झंडा लाल है.”

“धीरे! जिंदाबाद!”

“और, इसकी उक्रेनी बोली तो बहुत बुरी है...”

“कॉमरेड्स, अब हमारे सामने नई चुनौती है – इस नई स्वतन्त्र रिपब्लिक की उन्नति करना और उसे मज़बूत बनाना, मेहनतकशों की भलाई के लिए – मज़दूरों और किसानों के लिए, क्योंकि जिन्होंने अपना खून और पसीना बहाकर हमारी जन्मभूमि को सींचा है, उन्हींका इस पर अधिकार है!” 

“सही है! जिंदाबाद!”

“तुमने सुना, ‘कॉमरेड्स’ कह रहा है? अचरज की बात है...”

“धी-रे.”

“इसलिए, प्यारे नागरिकों, जनता की विजय के इस खुशी के मौके पर शपथ लेते हैं,” – वक्ता की आंखें चमकने लगीं, उसने अधिकाधिक उत्साह से घने आकाश की ओर हाथ बढाए, और उसकी भाषा में उक्रेनी शब्द कम होने लगे, “और हम शपथ लेते हैं कि तब तक हथियार नहीं रखेंगे, जब तक ये लाल झंडा – आज़ादी का प्रतीक – मज़दूरों की पूरी दुनिया पर न फहराने लगे.”

“हुर्रे! हुर्रे! हुर्रे!...इंटर ...”

“वास्का, मुँह बंद कर. क्या बेवकूफ़ हो गया है? 

“श्शूर, क्या कर रहे हो, धीरे!”

“ऐ, खुदा, मिखाइल सिम्योनविच, बर्दाश्त नहीं कर सकता – उठ...नास...”

काले ‘अनेगिनी’ कल्ले ऊदबिलाव के घने कॉलर में छुप गए, और सिर्फ इतना दिखाई दे रहा था कि कैसी उत्तेजना से उसकी आंखें, जो चौदह दिसंबर की रात को शहीद हो चुके, स्वर्गीय एनसाइन श्पल्यान्स्की की आंखों जैसी थीं, भीड़ में दब गए उत्साही साइकिल सवार की तरफ़ देख रही थीं. पीले दस्ताने वाला हाथ बढ़ा और उसने श्शूर के हाथ को दबाया...

“अच्छा. अच्छा, नहीं बोलूंगा,” भूरे आदमी को खा जाने वाली नज़रों से देखते हुए श्शूर बुदबुदाया.                                           

और वह, अपने आप पर और निकट वाली कतारों के लोगों पर काबू पाकर, चिल्ला रहा था:

“जिंदाबाद, मज़दूरों, किसानों और कज़ाक प्रतिनिधियों की ‘सोवियत’ (यहाँ कौंसिल से तात्पर्य है – अनु.) जिंदाबाद!”

सूरज अचानक बुझ गया, और सेंट सोफ़िया कैथेड्रल और गुम्बदों पर परछाईं छा गई; बग्दान का चेहरा स्पष्ट दिखाई दे रहा था, आदमी का चेहरा भी. दिखाई दे रहा था कि कैसे उसके चहरे पर सुनहरी लट उछल रही है...

“आ-आ. आ-आ-आ,” भीड़ शोर मचाने लगी...

“...मज़दूरों, किसानों और रेड-आर्मी के सैनिकों के प्रतिनिधियों की ‘सोवियतें’.

दुनिया के मज़दूरों, एक हो जाओ...”

“क्या? क्या है? क्या है? ज़िन्दाबाद!!”

पिछली कतारों में कुछ मर्दानी और एक आवाज़ पतली और खनखनाती हुई गाने लगीं:

“गर मर जाऊँ, तो...”

“हुर्-र्रे!” विजयी सुर में किसी दूसरी जगह से लोग चिल्लाए. अचानक तीसरी जगह मानों कोई भंवर फूट पडा.

“पकड़ो उसे! पकड़ो!”एक फटी हुई, गुस्सैल और शिकायत करती मर्दानी आवाज़ चीखी. “पकड़ो! ये उकसा रहा है. बोल्शेविक! मॉस्को वाला! पकड़ो! आपने सुना, वो क्या कह रहा था...”

हवा में किसी के हाथ उठे. वक्ता एक ओर को झुका, इसके बाद उसके पैर गायब हो गए, फिर पेट, फिर टोपी से ढंका हुआ उसका सिर भी अदृश्य हो गया.

“पकड़ो!” पहली आवाज़ के जवाब में ऊंचे सुर में दूसरी आवाज़ आई. “ये झूठा वक्ता है. उसे पकड़ो, लोगों, पकड़ो, बड़े लोगों.”           

“आ-आ-आ. ठहरो! कौन? किसे पकड़ा है? किसे? ये वो नहीं है!!!”

पतली आवाज़ वाला आगे फव्वारे की तरफ़ लपका, हाथों से ऐसे हाव-भाव दर्शाते हुए जैसे किसी  चिकनी बड़ी मछली को पकड़ रहा हो. मगर भेड़ की खाल का कोट और लम्बे कानों वाली टोपी पहना बेवकूफ श्श्यूर उसके आगे चिल्लाते हुए गोल-गोल घूमने लगा:

“पकड़ो!” – और अचानक दहाड़ा:

“ठहरो, भाईयों, घड़ी निकाल ली!”

किसी औरत का पैर दब गया, और वह भयानक आवाज़ में विलाप करने लगी.

“किसकी घड़ी? कहाँ? झूठ बोलते हो – भाग नहीं पाओगे!” 

पतली आवाज़ वाले को किसी ने पीछे से उसकी बेल्ट से पकड़ कर थाम लिया और तभी उसकी  नाक और होठों पर करीब डेढ़ पाऊंड का बड़ा, ठंडा झापड़ पडा. 

“ऊ!” पतली आवाज़ वाला चिल्लाया और फ़ौरन मौत जैसा बेरंग हो गया, और उसने महसूस किया कि उसका सिर नंगा है, कि उस पर टोपी नहीं है. उसी पल दूसरा झनझनाता झापड़ पडा, और आसमान में कोई चिल्लाया:

“ये रहा वो, चोर, जेबकतरा, कुत्ते का पिल्ला. मारो उसे!!

“आप क्या कर रहे हैं?!” पतली आवाज़ चिल्लाई. “आप मुझे क्यों मार रहे हैं?! वो मैं नहीं हूँ! मैं नहीं हूँ! उस बोल्शेविक को पकड़ना होगा! ओ-ओ!” वह चिल्लाया...

“ओय, माय गॉड, माय गॉड, मारूस्या, जल्दी से भागें, ये क्या हो रहा है?

भीड़ में, फव्वारे के बिल्कुल पास, भीड़ अनियंत्रित हो रही थी, गोल-गोल घूम रही थी, और किसी को मार रहे थे, और कोई चिल्ला रहा था, और लोग बिखर रहे थे, और, सबसे ख़ास बात, वक्ता गायब हो गया था. इतने आश्चर्यजनक तरीके से, जादुई ढंग से गायब हो गया, जैसे धरती में समा गया हो. किसी को उस भगदड़ में से खींच कर ले गए, मगर कोई लाभ न हुआ, झूठा वक्ता काली टोपी में था, और यह हैट पहने बाहर उछला. और तीन मिनट बाद, बवंडर खुद-ब-खुद शांत हो गया, मानो वह था ही नहीं, क्योंकि नए वक्ता को फव्वारे के किनारे पर उठाया गया, और उसे सुनने के लिए चारों ओर से करीब दो हज़ार लोगों की भीड़ फव्वारे के चारों ओर इकट्ठी होने लगी.

 

****   

 

बगीचे के पास, बर्फ से ढंकी सफ़ेद गली में, जहाँ से उत्सुक लोग बिखरती हुई फौजों के पीछे-पीछे भाग चुके थे, हँसता हुआ श्श्यूर बर्दाश्त न कर पाया और झटके से सीधे फुटपाथ पर बैठ गया.

“ओय, नहीं बर्दाश्त कर सकता,” पेट पकड़ते हुए वह गरजा. उसके भीतर से हंसी के फव्वारे फूट रहे थे, मुँह के भीतर सफ़ेद दांत चमक रहे थे, “हंसी के मारे मर जाऊंगा, कुत्ते जैसा. कैसे वे उसे मार रहे थे, माय गॉड!”

“बहुत देर मत बैठो, श्श्यूर,” बीवर की कॉलर के कोट में उसके अनजान साथी ने, जो ‘मैग्नेटिक ट्रॉयलेट’ के चेयरमैन, स्वर्गीय एन्साइन श्पल्यान्स्की की प्रतिकृति था, कहा.

 “अभ्भी, अभ्भी,” श्श्यूर उठते हुए कराहा.

“सिगरेट दीजिये, मिखाइल सिम्योनविच,” लम्बे, काला ओवरकोट पहने, श्श्यूर के दूसरे साथी ने कहा. उसने अपनी फ़र की टोपी सिर के पीछे खींच ली, और भूरे बालों की लट उसकी भौंह पर झूलने लगी. वह भारी -भारी सांस ले रहा था, और हांफ रहा था, जैसे उसे बर्फ में गर्मी लग रही हो.   

“तो? बर्दाश्त से बाहर हो गया?” अनजान व्यक्ति ने प्यार से पूछा, उसने ओवरकोट का पल्ला हटाया और, छोटा-सा, सुनहरा सिगरेट केस निकालकर गोरे आदमी को बिना सिगरेट होल्डर के जर्मन सिगरेट पेश की; वह पीने लगा, दियासलाई की आग के चारों ओर हाथों की ढाल बनाए, और सिर्फ धुँआ छोड़ने के बाद ही बोला:

“उह! उह!”

इसके बाद तीनों फ़ौरन चल पड़े, कोने पर मुड़े और ग़ायब हो गए.            

चौक से छोटी-सी गली में तेज़ी से स्टूडेंट्स की दो आकृतियाँ बाहर निकलीं. एक छोटा, गठीले बदन का, साफ़-सुथरा, चमचमाते रबर के गलोश पहने था. दूसरा ऊंचा, चौड़े कन्धों वाला, टांगें लम्बी, कम्पास जैसी और एक-एक कदम दो मीटर का था.

दोनों के ही कॉलर उनकी टोपियों के किनारों तक खींचे हुए थे, और ऊंचे वाले ने तो अपने हजामत किये हुए चहरे पर मफ़लर लपेट रखा था; ज़ाहिर है – बर्फ जो पड़ रही थी. दोनों ही आकृतियों ने जैसे किसी कमाण्ड के अनुसार अपने सिर घुमाए, कैप्टन प्लेश्का की लाश को देखा और दूसरी लाश भी देखी – जो मुंह नीचा किये, घुटनों को बगल की तरफ़ बिखेरे पडी थी, और, बगैर कोई आवाज़ किये, वे आगे बढ़ गए.     

बाद में, जब वे रील्स्की गली से झितामीर्स्काया स्ट्रीट की तरफ़ मुड़े, तो ऊंचा वाला छोटे की ओर मुड़ा और उसने कर्कश स्वर बोला:

“देखा-देखा? मैं तुझसे पूछ रहा हूँ, देखा क्या?”

छोटे वाले ने कोई जवाब नहीं दिया, जैसे अचानक उसके दांत में दर्द हो रहा हो.

“जब तक ज़िंदा रहूँगा, भूल नहीं पाऊँगा,’ ऊंचा वाला लम्बे डग भरते हुए बोला, “याद रखूंगा.”

छोटा वाला खामोशी से उसके पीछे चलता रहा.

“शुक्रिया, जो सबक सिखाया. खैर, अगर मुझे कहीं ये सुअर का पिल्ला...गेटमन... मिल जाए...” मफलर के नीचे से फ़ुफ़कार सुनाई दी, “तो मैं उसे,” ऊंचे वाले ने भयानक लंबी गाली निकाली और उसे पूरा नहीं किया. बल्शाया झितामिर्स्काया स्ट्रीट पर निकले, और दोनों का रास्ता रोका जुलूस ने, जो पुराने-शहर के टॉवर-हाउस वाले भाग की तरफ़ जा रहा था. असल में तो उसका रास्ता चौक से था, सीधा और आसान, मगर व्लादिमीर्स्काया को अभी तक परेड से नहीं निकल सके घुड़सवार दल ने रोक रखा था और जुलूस को, औरों की तरह, अपना रास्ता बदलना पडा था.

उसके आरम्भ में लड़कों का एक झुण्ड था. वे भाग रहे थे, मेंढकों की तरह उछल रहे थे और कर्कश सीटियाँ बजा रहे थे. इसके बाद कुचले गए बर्फीले रास्ते पर भय और दुःख से बदहवास आंखों से  देखता हुआ एक आदमी चल रहा था, बिना टोपी के, उसके फटे हुए फ़र-कोट के बटन खुले थे. उसका चेहरा खून से लथपथ था, और आखों से आंसू बह रहे थे. खुले कोट वाले ने अपना मुंह खोला और पतली, मगर पूरी तरह भर्राई हुई आवाज़ में, रूसी और उक्रेनी शब्दों को मिलाते हुए चीखा:

“आपको इसका अधिकार नहीं है! मैं प्रसिद्ध उक्रेनी कवि हूँ. मेरा नाम गर्बालाज़ है. मैंने उक्रेनी कविताओं का संकलन प्रकाशित किया है. मैं ‘रादा (क्रांतिकारी पार्लियामेंट – अनु.) के प्रेसिडेंट और मिनिस्टर से शिकायत करूंगा. ये सब भयानक है!” 

“मारो उसे, कमीने, जेबकतरे को,” फुटपाथों से लोग चिल्लाए.

“मैंने,” बदहवासी से गला फाड़कर, सभी दिशाओं में मुड़ते हुए, खून से लथपथ आदमी चिल्लाया, “ कोशिश की पकड़ने की बोल्शेविक – उकसाने वाले को...”

“क्या, क्या क्या,” फुटपाथों आवाजें गूंजीं.

“ये किसकी बात कर रहा है?!”

पित्ल्यूरा को मारने की कोशिश की गयी...”

“तो?!”

“गोली चलाई, कुत्ते के पिल्ले ने, हमारे मालिक पर.”

“मगर ये तो उक्रेनी है.”

“कमीना है ये, उक्रेनी नहीं,” किसी की गहरी आवाज़ भिनभिनाई, “ बटुओं पर हाथ साफ़ कर रहा था.”

“फ़्यू-ऊ,” लड़कों ने हिकारत से सीटी बजाई.

“ये क्या हो रहा है? किस अधिकार से?

“बोल्शेविक-उकसाने वाले को पकड़ लिया है. उसे, सड़े हुए आदमी को तो वहीं पर मार डालना चाहिए.”

खून से लथपथ आदमी के पीछे उत्तेजित भीड़ रेंग रही थी, कहीं फ़र की टोपी पर सुनहरी पूंछ और दो राईफलों के सिरों की झलक दिखाई दी. कस कर रंगीन बेल्ट बांधे कोई आदमी खून से लथपथ आदमी की बगल में लड़खड़ाती चाल से चल रहा था, और कभी-कभार, जब वह खास तौर से जोर से चिल्लाता, तो यंत्रवत् उसकी गर्दन पर मुक्का मार देता; तब वह अभागा कैदी, कुछ भी न समझ पाते हुए, खामोश हो जाता और तीव्र आवेग से, मगर निःशब्द सिसकियाँ लेने लगता.

दोनों स्टूडेंट्स ने जुलूस छोड़ दिया, जब वह गुज़र गया, तो लम्बे वाले ने छोटे का हाथ पकड़ा और दुर्भावनापूर्ण उल्लास से फुसफुसाया:

“ऐसा ही होना चाहिए. ऐसा ही होना चाहिए. दिल से बोझ उतर गया. मगर, एक बात तुझसे कहता हूँ, करास, कि बोल्शेविक कमाल के हैं! अपने सम्मान की कसम – होशियार हैं. ये है काम, ऐसा होता है काम! देखा कि वक्ता को कैसे लपेट लिया? और बहादुर हैं. इसलिए मैं उन्हें पसंद करता हूँ – बहादुरी के लिए, उनकी तो...”

छोटे वाले ने हौले से कहा:

“अब अगर न पी जाए, तो इन्सान फांसी लगा ले.”
“ये हुई न बात. अच्छा ख़याल है
,” लम्बे वाले ने जिंदादिली से समर्थन किया.

“तेरे पास कितने हैं?

“दो सौ.”

“मेरे पास डेढ़ सौ. तमार्का के यहाँ जायेंगे, डेढ़ लेंगे...”

“बंद है.”

“खोलेगी.”

दोनों व्लादीमिर्स्काया की तरफ़ मुड़े, बैनर लगे दोमंजिला मकान तक पहुंचे:

“किराना स्टोअर”, और बगल में “गोदाम – तमारा कैसल”. सीढ़ियों से नीचे उतरने के बाद, दोनों सावधानी से कांच का, दुहरा दरवाज़ा खटखटाने लगे.

 

 

*****   

खान का अग्निकांड

  खान का अग्निकांड लेखक: मिखाइल बुल्गाकव  अनुवाद: आ. चारुमति रामदास    जब सूरज चीड़ के पेड़ों के पीछे ढलने लगा और महल के सामने दयनीय, प्रक...