10.
तीन दिनों तक
अजीब तरह के फेरबदल, स्थानान्तरण, के बीच, जो कभी आक्रामक हो जाते, कभी अर्दलियों के आगमन और स्टाफ हेडक्वार्टर्स
के टेलीफोनों की पीं-पीं से संबंधित होते, कर्नल नाय तुर्स की यूनिट बर्फीले टीलों, और बर्फ के बहाव से होते हुए दक्षिण में रेड-टेवर्न से सिरिब्र्यान्का तक और
दक्षिण-पश्चिम में पोस्ट वलीन्स्की तक चलती रही. मगर चौदह दिसंबर की शाम इस यूनिट
को वापस शहर में ले आई, गली में -
परित्यक्त, आधे टूटे कांच की खिड़कियों वाली
बैरेक्स की इमारत में ले आई.
कर्नल नाय
तुर्स की यूनिट अजीब थी. और जो भी उसे देखता, उसके फेल्ट
बूटों से आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहता. पिछले तीन दिनों में आरंभ में उसमें
करीब डेढ़ सौ कैडेट्स और तीन एन्साइन थे.
पहली स्क्वैड
के प्रमुख मेजर-जनरल ब्लोखिन के पास दिसंबर के आरम्भ में मझोले कद का, काला, सफ़ाचट दाढी-मूछों वाला, मातमी आंखों वाला, घुड़सवार अफसर आया, जो हुस्सार-कर्नल
के शोल्डर स्ट्रैप्स में था और उसने अपना परिचय भूतपूर्व बेलग्राद हुस्सार
रेजिमेंट के दूसरे स्क्वैड्रन के भूतपूर्व स्क्वैड्रन कमांडर नाय-तुर्स के रूप में
दिया. नाय-तुर्स की मातमी आंखें कुछ ऐसी थीं, कि जो भी सैनिकों
वाले खराब ओवरकोट पर जर्जर जॉर्जियन रिबन लगाए, लंगडाकर चलते हुए कर्नल से मिलता, बहुत ध्यान
से नाय-तुर्स की बात सुनता. जनरल ब्लोखिन ने नाय से थोड़ी देर बातचीत करने के बाद
उसे स्क्वैड की दूसरी यूनिट के गठन की ज़िम्मेदारी सौंपी, और
उसे तेरह दिसंबर तक पूरा करने का आदेश दिया. गठन आश्चर्यजनक तरीके से दस दिसंबर को
पूरा हो गया, और दस को ही कर्नल नाय-तुर्स ने, जो वैसे भी शब्दों के मामले में आम तौर से कंजूस था, संक्षेप में
मेजर-जनरल ब्लोखिन से, जो चारों तरफ से स्टाफ-हेडक्वार्टर के टेलीफोन के पंछियों
से बेज़ार हो चुका था, इस बारे में कहा कि, वह, नाय-तुर्स अपने कैडेट्स के साथ अभियान पर जाने के लिए तैयार है, मगर एक आवश्यक शर्त पर कि उसे एक सौ पचास लोगों की पूरी यूनिट के लिए फ़र
कैप्स और फेल्ट बूट्स दिए जाएँ, जिसके बगैर वह, नाय-तुर्स,
समझता है कि युद्ध पूरी तरह असंभव है. जनरल ब्लोखिन ने तोतले और संक्षिप्त कर्नल
की बात सुनने के बाद उसे खुशी-खुशी आपूर्ति विभाग के लिए सिफारिशी ख़त दिया, मगर कर्नल को आगाह भी कर दिया कि इस ख़त पर शायद एक सप्ताह पहले कुछ भी
नहीं मिलेगा, क्योंकि इन आपूर्ति विभागों में और स्टाफ-हेड
क्वार्टर में अविश्वसनीय प्रकार की बकवास, भगदड़ और बेहूदगी
है. तोतले नाय-तुर्स ने वह कागज़ ले लिया, अपनी आदत के अनुसार बाईं कटी हुई मूंछ पर
ताव दिया और, सिर को न दायें, न बाएँ
मोड़ते हुए (वह उसे मोड़ ही नहीं सकता था, क्योंकि ज़ख़्मी होने
के बाद उसकी गर्दन ऐंठ गई थी, और किनारे पर देखने की ज़रुरत
पड़ने पर उसे अपना पूरा जिस्म घुमाना पड़ता था), मेजर-जनरल के ऑफिस से निकल गया. ल्वोव्स्काया
स्ट्रीट पर स्क्वैड की इमारत में नाय-तुर्स ने अपने साथ दस कैडेट्स (न जाने क्यों
संगीनों के साथ) और दो पहियों वाली दो गाड़ियां लीं और उनके साथ आपूर्ति विभाग की ओर
चल पडा.
आपूर्ति विभाग में, जो
बुल्वार्ना-कुद्र्याव्स्काया स्ट्रीट पर सबसे ख़ूबसूरत हवेली में था, छोटे-से आरामदेह कार्यालय में, जहाँ रूस का नक्शा
टंगा हुआ था और रेड-क्रॉस के ज़माने की बची हुई अलेक्सान्द्रा फ्योदरव्ना की तस्वीर
थी, कर्नल नाय-तुर्स का स्वागत एक छोटे, गुलाबी, अजीब तरह से गुलाबी, भूरा जैकेट पहने, जिसके कॉलर के नीचे साफ़ कमीज़ झाँक रही थी, जो उसे अलेक्सान्द्र द्वितीय के मिनिस्टर मिल्यूतिन जैसी समानता प्रदान कर रही थी, लेफ्टिनेंट जनरल मकूशिन ने किया.
टेलीफ़ोन से
हटकर, जनरल ने बच्चों जैसी आवाज़ में, जो चीनी मिट्टी
की सीटी जैसी थी, नाय से पूछा:
“आपको क्या
चाहिए, कर्नल?”
“अभी अभियान पर
जा रहे हैं,” नाय ने संक्षिप्त उत्तर दिया, “फ़ौरन दो सौ आदमियों के लिए कैप्स और
फेल्ट बूट्स देने की विनती करता हूँ.”
“हुम्,” जनरल ने
होंठ चबाते हुए और हाथों से नाय की मांग को कुचलते हुए कहा, “देखिये, कर्नल, आज तो नहीं दे
सकेंगे. आज आपूर्ति की मांग का टाइम-टेबल बनाएंगे. तीन दिन बाद भेजने की विनती
करूंगा. और इतनी बड़ी संख्या में तो दे ही नहीं सकता.”
उसने नाय-तुर्स
का कागज़ एक नग्न औरत की शक्ल के पेपरवेट के नीचे इस तरह रखा कि वह दिखाई दे.
“फेल्ट बूट्स,” नाय ने एकसुर में जवाब दिया और, नाक
की ओर आंखें करके उस तरफ देखा, जहाँ उसके
जूतों के पंजे थे.
“क्या?” जनरल समझ नहीं पाया और एकटक कर्नल की
ओर देखने लगा.
“फेल्ट बूट्स
फ़ौरन दीजिये.”
“ये क्या बात
हुई? कैसे?” जनरल की आंखें
बाहर निकलने को हो गईं.
नाय दरवाज़े की ओर
मुड़ा, और उसे थोड़ा सा खोलकर हवेली के गर्माहट भरे कॉरीडोर में चिल्लाया:
“ऐय, प्लेटून!”
जनरल का चेहरा
भूरी झलक से फ़क हो गया, उसने नाय के चेहरे से नज़र हटाकर टेलीफोन के रिसीवर की ओर
देखा, वहाँ से कोने में, रखी वर्जिन मेरी की प्रतिमा की ओर, और उसके बाद फिर नाय के चेहरे की ओर.
कॉरीडोर में
खड़खड़ाहट हुई, खटखटाहट हुई, और अलेक्सेयेव्स्की अकादमी के कैडेट्स
की टोपियों के लाल बैंड्स और काली संगीनों की झलक दिखाई दी. जनरल अपनी फूली-फूली
कुर्सी से उठाने लगा:
“मैं पहली
बार ऐसी बात सुन रहा हूँ...ये विद्रोह है...”
“हमाले
कागज़ पर दस्तखत कीजिये, युवल हाईनेस,” नाय ने
कहा, “हमाले पास समय नहीं है, हमें एक
घंटे में निकलना है. दुस्मन, कहते हैं, सहल
के बिलकुल नज़दीक है.”
“कैसे?...ये क्या है?...”
“जल्दी,” नाय-तुर्स ने मातमी आवाज़ में कहा.
जनरल ने, कन्धों में अपना सिर दबाकर, आंखें बाहर निकालते हुए, औरत के नीचे से कागज़ बाहर खींचा और
उछलते हुए पेन से कोने में, स्याही उड़ाते हुए घसीटा: “दिए जाएँ”.
नाय ने कागज़
लिया, उसे आस्तीन के कफ़ के नीचे घुसा लिया और कालीन पर चढ़ गए कैडेट्स से कहा:
“फेल्ट-बूट
गादियों में लखो. फ़ौलन.”
कैडेट्स,
खटखटाते और गरजते हुए, बाहर निकलने लगे, और नाय रुका
रहा. जनरल ने, लाल होते हुए उससे कहा:
“मैं अभी कमांडर
स्टाफ-हेडक्वार्टर में फ़ोन करता हूँ और आपके कोर्ट-मार्शल के बारे में बात करता
हूँ. ये
त-तो कु-कुछ...”
“कोसिस कल लो,” नाय ने जवाब दिया और थूक निगला, “ कोसिस तो कलो. अले, उत्सुकता की खातिल कोसिस कल लो.” उसने खुले हुए
होल्स्टर से झांकते हुए हत्थे को पकड़ा. जनरल के मुँह पर धब्बे छा गए और वह गूंगा
हो गया.
“फोन तो कल, बेवकूफ बूधे,” नाय ने अचानक
भावावेश में कहा, “मैं इस कोल्ट से तुम्हाले सिल में
छेद कल दूँगा, तुम लम्बे हो जाओगे.”
जनरल कुर्सी
में बैठ गया. उसकी गर्दन पर लाल बल पड़ गए, मगर चेहरा
भूरा ही रहा. नाय मुड़ा और निकल गया.
जनरल कुछ मिनट
चमड़े की कुर्सी में बैठा रहा, फिर उसने सलीब
का निशान बनाया, टेलीफोन का रिसीवर उठाया, उसे कान
के पास रखा और उसे दबी-दबी, जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी “स्टेशन”...अचानक उसने अपने
सामने घुड़सवार दस्ते के तोतले कर्नल की मातमी आंखों को महसूस किया, रिसीवर वापस रख
दिया और खिड़की से बाहर देखने लगा. वह देख रहा था कि कैसे कंपाऊंड में सराय के पिछले दरवाज़े से फेल्ट बूटों के भूरे बंडल बाहर लाते
हुए कैडेट्स भाग-दौड़ कर रहे हैं. काली पृष्ठभूमि में क्वार्टरमास्टर
का फ़ौजी चेहरा, पूरी तरह अचंभित,दिखाई दे रहा था. उसके हाथों में कागज़
था. नाय दो पहियों वाली गाडी के पास पैर फैलाए खडा था,और उसकी तरफ देख रहा था. जनरल ने मरियल
हाथ से मेज़ से ताज़ा अखबार उठाया, उसे खोला और पहले ही पृष्ठ पर पढ़ा:
“इर्पिन नदी के
पास दुश्मन की डिटेचमेंट्स के साथ, जो स्वितोशिना में घुसने की कोशिश कर रहे थे,
मुठभेड़ें हुईं.....”
उसने अखबार फेंक
दिया और जोर से कहा:
“बुरा हो उस दिन
और उस घड़ी का, जब मैं इस सबमें शामिल हुआ...”
दरवाज़ा खुला, और
बिना पूंछ के नेवले जैसे कैप्टेन - आपूर्ति विभाग के प्रमुख के सहायक ने प्रवेश
किया. उसने सार्थक नज़रों से जनरल की कॉलर के ऊपर लाल निशानों को देखा और बोला:
“रिपोर्ट करने
की इजाज़त दें, जनरल महाशय.”
“ऐसा है, व्लादीमिर फ्योदरविच,” हांफते हुए और पीड़ा से आंखें घुमाते
हुए जनरल ने उसे टोका, “ मेरी तबियत
ख़राब हो गई ....हल्का सा दौरा पडा है...हम्...मैं अभी घर जाऊंगा, और आप कृपया मेरी अनुपस्थिति में यहाँ
संभाल लीजिये.”
“सुन रहा हूँ,” उत्सुकता से देखते हुए नेवले ने जवाब
दिया, “क्या हुक्म देते हैं? चौथी डिटेचमेंट से और हुस्सार-इंजिनीयर्स
भी फेल्ट बूट्स की मांग कर रहे हैं. आपने दो सौ जोड़ी देने का हुक्म दिया है?”
“हाँ. हाँ!”
जनरल ने चुभती हुई आवाज़ में जवाब दिया, “हाँ, मैंने हुक्म दिया! मैंने ! खुद! इजाज़त
दी! उनकी परिस्थिती विशेष है! वे अभी अभियान पर जा रहे हैं. हां, मोर्चे पर. हाँ!!”
नेवले की आंखों
में उत्सुकता की चिंगारियां नाचने लगीं.
“ कुल चार सौ
जोडियाँ ही...”
“मैं क्या करूँ?
क्या?” भर्राई हुई आवाज़ में जनरल चीखा,
“क्या मैं पैदा करूँ?! क्या फेल्ट
बूट पैदा करूँ? पैदा करूँ? अगर मांग करते हैं, तो दीजिये – दीजिये- दीजिये!!”
पाँच मिनट बाद
जनरल माकुशिन को गाडी में घर ले जाया गया.
***
तेरह दिसंबर की
रात को ब्रेस्ट-लितोव्स्की गली में मृत बैरेक्स जीवित हो उठे. विशाल गंदे हॉल में
खिड़कियों के बीच की दीवार पर इलेक्ट्रिक बल्ब जल उठा (कैडेट्स ने दिन में लैम्प
पोस्ट्स और स्तंभों पर कुछ तार खींचकर बल्ब लटकाए थे). डेढ़ सौ बंदूकें अपने आधारों
पर खड़ी थीं, और गंदी चारपाइयों पर कैडेट्स सोये थे.
नाय-तुर्स लकड़ी
की जर्जर मेज़ के पास, जिस पर ब्रेड के टुकडे, बचे हुए ठन्डे शोरवे के बर्तन, पाउचेस और क्लिप्स पड़े थे, शहर का बहुरंगी प्लान फैलाए बैठा था. किचन का छोटा सा
लैम्प उस प्लान पर प्रकाश-पुंज फेंक रहा था, और उस पर द्नेपर अनेक शाखाओं वाले, सूखे और नीले पेड़ जैसी नज़र आ रही थी.
रात के लगभग दो
बजे, नाय पर नींद हावी होने लगी. उसने नाक
से गहरी सांस ली, वह कई बार प्लान पर झुका,जैसे उसमें कुछ ढूँढना चाहता हो.
आखिरकार
वह धीरे से चिल्लाया:
“कैदेत?!”
“जी, कर्नल महाशय,” दरवाज़े के पास से जवाब
आया, और कैडेट, फेल्ट बूट चरमराते हुए लैम्प के पास
आया. लेतूंगा,” नाय ने कहा, “औल तुम मुझे
तीन घंते बाद जगा देना. अगल तेलिफोनग्लाम आये तो एन्साइन झागव को जगा देना, और उसकी इबालत के मुताबिक़ वह मुझे
जगायेगा या नहीं जगायेगा.”
कोई
टेलिफोनोग्राम नहीं आया. ..आम तौर से इस रात को स्टाफ-हेडक्वार्टर ने नाय की
डिटेचमेंट को परेशान नहीं किया. डिटेचमेंट सुबह निकली तीन
मशीनगन्स और दो पहियों वाली तीन गाड़ियों के साथ और रास्ते पर फ़ैल गई. बाहरी इलाके
के घर मृतप्राय थे. मगर जब डिटेचमेंट पॉलिटेकनिक वाली सबसे चौड़ी सड़क पर आई, तो वहाँ हलचल
दिखाई दी. सुबह के झुटपुटे में खड़खड़ाते हुए ट्रक, इक्का-दुक्का भूरी टोपियां नजर आ
जातीं. ये सब शहर में वापस जा रहा था और कुछ भय से नाय की डिटेचमेंट से
बचते हुए जा रहा था. धीरे-धीरे और विश्वासपूर्वक सुबह हो रही थी, और सरकारी समर-कॉटेजों के ऊपर
तथा कुचले गए और गड्ढों वाले राजमार्ग पर कोहरा उठ रहा था और बिखर रहा था.
नाय इस सुबह से
दोपहर तीन बजे तक पॉलिटेकनिक के पास ही था, क्योंकि दिन
में उसके पास चौथी दो पहिये वाली गाड़ी पर उसकी डिविजन का एक कैडेट स्टाफ
हेडक्वार्टर से पेन्सिल से लिखा हुआ ‘नोट’लाया था.
“पॉलिटेकनिक
राजमार्ग की सुरक्षा करें और, यदि दुश्मन प्रकट होता है तो युद्ध करें.”
इस दुश्मन को
नाय-तुर्स ने पहली बार देखा दोपहर में तीन बजे, जब बाईं ओर,
दूर, मिलिट्री बैरेक्स के परेड ग्राउंड पर
अनेक घुड़सवार दिखाई दिए. ये कर्नल कोज़िर-लिश्को ही था, जो कर्नल तरोपेत्स के ‘प्लान’ के अनुसार राजमार्ग पर घुसने की और
वहाँ से शहर के केंद्र में पहुँचने की कोशिश कर रहा था. सच कहें तो, पॉलिटेकनिक स्ट्रीट वाले भाग में कोई
प्रतिरोध न पाकर कोज़िर-लिश्को ने शहर पर आक्रमण नहीं किया, बल्कि वह उसके भीतर प्रवेश ही कर रहा
था, विजेता के आविर्भाव में और पूरे
तामझाम के साथ, अच्छी तरह जानते हुए कि उसके पीछे कर्नल सस्नेन्का की कज़ाक रेजिमेंट, दो रेजिमेंट ब्ल्यू डिविजन के, सिच राईफलमैनों
की रेजिमेंट और छः बैटरीज़ हैं. जब परेड ग्राउंड पर बिन्दुओं की भाँति घुड़सवारों
की आकृतियाँ प्रकट हुईं, तो बमों के
टुकड़े घने, बर्फबारी का वादा करते आसमान की ओर, ऊंचे, सारस के समान
लपकने लगे. घोड़ों के बिंदु रिबन बनाते हुए इकट्ठा हो गये और, पूरे राजमार्ग की चौडाई पर के कब्ज़ा
करके फूलने लगे, काले होने लगे, बड़े होने लगे और नाय-तुर्स पर झपट
पडे. कैडेट्स की कतारों में गरज के साथ खटखट होने लगी, नाय ने सीटी निकाली, कर्णभेदी सीटी बजाई और चीखा:
“सीधे कैवेलली
पर! ....तेज़...फ़ा-यल !”
भूरी कतारों से
चिंगारी फ़ैली, और कैडेट्स ने कोज़िर को पहली झड़ी भेजी. इसके
बाद तीन बार आसमान से पॉलिटेकनिक इंस्टीट्यूट की दीवारों तक कैनवास को चीरते हुए
गोलों के टुकड़े गुज़ारे, और तीन बार, नाय-तुर्स की बटालियन ने गरज को
प्रतिध्वनित करते हुए गोलाबारी की. दूरी पर घुड़सवारों की काली रिबन्स टूट गईं, बिखर गईं और राजमार्ग से लुप्त हो
गईं.
यही तो वह समय
था जब नाय को कुछ हुआ. सच में कहा जाए, तो स्क्वैड में
एक भी आदमी ने एक भी बार नाय को भयभीत नहीं देखा था, मगर अब कैडेट्स
को ऐसा लगा, जैसे नाय ने आसमान में कहीं कोई खतरनाक
चीज़ देख ली है, या कहीं दूर से कुछ सुन लिया है...एक
लब्ज़ में, नाय ने शहर वापस लौटने का
हुक्म दिया. एक प्लेटून पीछे रहकर , गरज के साथ राजमार्ग पर गोलियां चलाकर पीछे
हटती हुई प्लेटून्स को सुरक्षा देती रही. इसके बाद खुद भी भाग गई. इस तरह करीब डेढ़
मील भागते रहे,गिरते-पड़ते, और उस महान मार्ग को गुंजाते हुए, जब तक कि राजमार्ग और उसी ब्रेस्त–लितोव्स्की
गली के चौराहे पर नहीं पहुँच गए, जहाँ पिछली रात
बिताई थी. चौराहा पूरी तरह शांत था, और कहीं भी, एक भी इंसान नहीं था.
अब नाय ने तीन
कैडेट्स को अलग बुलाकर हुक्म दिया:
“भाग कल पलेवाया
और बग्शागव्स्काया पल जाओ, पता कलो कि हमाले
यूनिट्स कहाँ हैं औल उनका क्या हो लहा है. अगर कोई ट्रक या बग्घी या आवागमन के
साधन देखो, जो बेतलतीब ढंग से जा लहे हों, तो उन्हें ले लेना. अगल मुकाबला कलें तो
पिस्तौल से दलाना, और फिर चला देना...”
कैडेट्स पीछे
भागे, फिर बाएँ, और ओझल हो गए, और अचानक कहीं सामने से, स्क्वैड पर गोलियां चलने लगीं.
वे छतों से टकराने लगीं, बार-बार चलने लगीं, और पंक्ति में एक कैडेट मुँह के बल
बर्फ पर गिर पडा और उसे खून से रंग दिया. उसके बाद दूसरा, कराहते हुए मशीनगन से दूर छिटक गया.
नाय की कतारें बिखरने लगीं और शैतानी ताकत जैसी धरती से प्रकट होतीं दुश्मन की
काली कतारों का सामना करते हुए, निरंतर हो रही गोलीबारी के कारण राजमार्ग पर
लुढ़कने लगीं. ज़ख़्मी कैडेट्स को उठाया गया, सफ़ेद बैंडेज
खुलने लगे. नाय के जबड़े भिंच गए. वह बार-बार शरीर को घुमाकर दूर, पार्श्व में
देखने की कोशिश कर रहा था, और उसके चहरे
से स्पष्ट दिखाई दे रहा था, कि वह बेताबी
से भेजे गए कैडेट्स का इंतज़ार कर रह था. और वे, आखिरकार, भागते हुए, सीटियाँ बजाते, हांफते हुए आये, खदेड़े गए शिकारी कुत्तों की तरह. नाय
सतर्क हो गया और उसका चेहरा काला पड़ गया. पहला कैडेट भागते हुए नाय के पास आया और
हांफते हुए बोला:
“कर्नल महाशय, हमारी कोई भी यूनिट, न सिर्फ शुल्याव्का में, बल्कि कहीं भी नहीं है,” उसने सांस
ली. “हमारे यहाँ पार्श्व भाग में मशीनगनों की फायरिंग हो रहै है, और दुश्मन का घुड़सवार दस्ता, अभी शुल्याव्का पर आगे बढ़ गया है, जैसे शहर में प्रवेश कर रहा
हो...”
कैडेट के शब्द
नाय की कर्णभेदी सीटी में दब गये.
दो पहियों वाली
तीन गाड़ियां ब्रेस्त-लितोव्स्की गली से बाहर निकलीं, खड़खड़ाते हुए उस
पर चलीं, और फिर फनार्नाया पर ऊबड़-खाबड़ बर्फ से होते हुए चल पडीं. दो पहियों वाली
गाड़ियाँ दो ज़ख़्मी कैडेट्स को, पंद्रह
हथियारबंद और स्वस्थ कैडेट्स को और तीनों मशीनगनों को ले गईं. दो पहियों वाली
गाड़ियाँ इससे ज़्यादा नहीं ले जा सकीं. और नाय-तुर्स कतारों की ओर मुडा और ज़ोर से
और तुतलाते हुए ऐसा अजीब हुक्म दिया, जैसा उन्होंने कभी सुना नहीं था....
ल्वोव्स्काया स्ट्रीट
पर भूतपूर्व बैरेक्स की पोपडे निकली हुई और खूब गर्माई हुई इमारत में पहली पैदल
डिविजन की तीसरी स्क्वैड परेशान हो रही थी, जिसमें अट्ठाईस
कैडेट्स थे. सबसे दिलचस्प बात इस परेशानी में यह थी कि इन बेज़ार कैडेट्स का कमांडर
था निकोल्का तुर्बीन. डिविजन का कमांडर, स्टाफ-कैप्टेन
बिज़रूकव, और उसके दो सहकारी – एन्साईन, जो सुबह
ही स्टाफ-हेडक्वार्टर चले गए थे, वापस नहीं लौटे
थे. निकोल्का – सबसे वरिष्ठ कार्पोरल, बैरेक में
बेचैन हो रहा था, बार-बार टेलीफोन के पास चला जाता और
उसकी तरफ देख लेता.
इस तरह दिन के
तीन बज गए. आखिरकार कैडेट्स के चेहरों पर पीड़ा झलकने लगी...एह...एह...
तीन बजे
फील्ड-टेलीफोन चहका.
“क्या यह डिविजन
की तीसरी स्क्वैड है?”
“हाँ.”
“कमांडर को फोन
पर बुलाइए.”
“कौन बोल रहा है?”
“स्टाफ हेड
क्वार्टर से...”
“कमांडर वापस
नहीं आये.”
“कौन बोल रहा है?”
“अंडर-ऑफिसर
तुर्बीन.”
“क्या आप सीनियर
हैं?”
“जी, सही फरमाया.”
“फ़ौरन अपने
स्क्वैड को रूट पर ले जाइए.”
और निकोल्का ने
अट्ठाईस लोगों को बाहर निकाला और उन्हें रास्ते पर ले चला.
***
दिन के दो बजे
तक अलेक्सेइ वसील्येविच मुर्दों की तरह सोता रहा. वह जागा तो पसीने से तरबतर था,
कुर्सी पर रखी छोटी सी घड़ी की ओर देखा, उसमें दो बजने
में दस मिनट थे, और वह कमरे में इधर-उधर घूमने लगा.
अलेक्सेइ वसील्येविच ने फेल्ट-बूट चढ़ाए, जल्दबाजी में
कभी एक, तो कभी दूसरी चीज़ भूलते हुए जेबों में
माचिस, सिगरेट केस,रूमाल, ब्राउनिंग और
दो कारतूस रखे, ओवरकोट कस कर बांधा,फिर कुछ याद किया, मगर हिचकिचाया, - उसे यह शर्मनाक और डरपोक लगा, मगर फिर भी उसने किया, - मेज़ की दराज़ से अपना सिविलियन
डॉक्टर वाला पासपोर्ट निकाला. उसने हाथों में उसे घुमाया, अपने साथ लेने का फैसला किया, मगर इसी समय एलेना ने उसे आवाज़ दी, और वह उसे मेज़ पर ही भूल गया.
“सुनो, एलेना,” तुर्बीन ने बेल्ट
कसते हुए और घबराते हुए कहा, उसका दिल किसी
अप्रिय पूर्वाभास से डूबा जा रहा था, और वह इस ख़याल
से परेशान था कि इतने बड़े, खाली क्वार्टर में एलेना अन्यूता के साथ अकेली रह
जायेगी, - “कुछ नहीं किया जा सकता.
न जाना नामुमकिन
है. खैर, मेरे साथ, मान लो कि कुछ नहीं होगा. डिविजन शहर
की सीमा से बाहर नहीं जायेगी, और मैं किसी सुरक्षित जगह पर रहूँगा. खुदा निकोल्का
की भी हिफाज़त करेगा. आज सुबह मैंने सुना कि परिस्थिति और भी गंभीर हो गई है,खैर,उम्मीद है कि हम
पित्ल्यूरा को हरा देंगे. तो, कहता हूँ, अलबिदा...”
एलेना अकेली ही
खाली ड्राइंग रूम में पियानो से, जहाँ, पहले ही की तरह, रंगबिरंगा वलेन्तीन (फाउस्ट के
ऑपेरा से – अनु.) खुला पडा था,अलेक्सेइ के कमरे तक घूम रही थी.
उसके
पैरों के नीचे
लकड़ी का फर्श चरमरा रहा था. उसका चेहरा दुखी था.
***
अपनी घुमावदार
सड़क और व्लादीमिर्स्काया के नुक्कड़ पर तुर्बीन गाडीवान को किराए पर ले रहा था. वह
ले जाने को तैयार हो गया, मगर,उदासी से नाक बजाते हुए, खतरनाक किराया बता बैठा,और ज़ाहिर था, कि वह पीछे नहीं हटेगा. दांत भींचकर, तुर्बीन स्लेज में बैठा और म्यूज़ियम
की दिशा में निकल पडा. बर्फ गिर रही थी.
अलेक्सेइ वसील्येविच
का मन बहुत व्याकुल था. वह जा रहा था और दूर पर हो रही मशीनगन की फायरिंग सुन रहा
था, जो कहीं पॉलिटेकनिक इंस्टीट्यूट की तरफ़ से रेल्वे स्टेशन की दिशा में
विस्फोटों की तरह आ रही थी. तुर्बीन यह सोच रहा था कि इसका क्या मतलब हो सकता है (बल्बतून
की दोपहर के आगमन के समय वह सो गया था), और,सिर घुमाते हुए
फुटपाथों को देख रहा था. उन पर हाँलाकि अफरा-तफरी और परेशानी भरी हलचल थी, मगर फिर भी काफी मात्रा में लोग आ जा
रहे थे.
“ठहर...ठ...” नशे में धुत एक आवाज़ ने कहा.
“इसका क्या मतलब
है?” तुर्बीन ने गुस्से से पूछा.
गाडीवान ने इस
तरह लगाम खींची कि तुर्बीन के घुटनों पर गिरते-गिरते बचा. पूरी तरह लाल एक चेहरा
शैफ्ट के पास डोल रहा था, लगाम पकड़कर उस पर से सीट पर पहुँचने की कोशिश कर रहा था.
भेड़ की खाल के, भूरे छोटे ओवरकोट पर मुड़े-तुड़े एन्साइन के शोल्डर स्ट्रैप्स चमक
रहे थे. तुर्बीन को गज भर की दूरी से ही जले हुए अल्कोहल और प्याज की बू ने दबोच
लिया. एन्साइन के हाथों में राइफल झूल रही थी.
“मो...मो...मोड़,” – लाल शराबी ने कहा, “उ...उतार पैसेंजर को...” अचानक लाल
आदमी को ‘पैसेंजर’शब्द हास्यास्पद लगा, और वह खिलखिलाया.
“इसका क्या मतलब
है?” तुर्बीन ने गुस्से से पूछा, “क्या आप देख नहीं रहे हैं, कि कौन जा रहा है? मैं ड्यूटी पर जा रहा हूँ. कृपया
गाडीवान को बख्श दें, चल!”
“नहीं, नहीं चलना...” लाल आदमी ने धमकाते हुए
कहा और सिर्फ तभी, आंखें झपकाते हुए, उसने तुर्बीन
के शोल्डर स्ट्रैप्स को देखा. “आह, डॉक्टर, तो, साथ में...मैं
भी बैठूंगा...”
“हमारा वह
रास्ता नहीं है...चल!”
“मे...ह...रबानी
कीजिये...”
“चल!”
गाडीवान ने
कन्धों में सिर खींचकर, लगाम खींचना चाहा, मगर फिर इरादा
बदल दिया; मुड़कर, उसने गुस्से और
भय से लाल आदमी की ओर देखा. मगर वह खुद ही अचानक रुक गया, क्योंकि उसने एक खाली गाडीवान को देख
लिया था. खाली गाडीवान जाना चाहता था, मगर ऐसा न कर
सका. लाल आदमी ने दोनों हाथों से बन्दूक उठाकर उसे धमकाया. गाडीवान वहीं जम गया, और लाल आदमी, लड़खड़ाते और हिचकियाँ लेते हुए, उसकी ओर झूमा.
“अगर जानता, तो, पाँच सौ में भी न जाता,” अपने बूढ़े टट्टू पर चाबुक बरसाते हुए
गाडीवान गुस्से से बुदबुदाया, “पीठ में गोली मारेगा, क्या कर लोगे
आप?”
तुर्बीन उदासी
से चुप रहा.
“यह है एक
कमीना...ऐसे लोग पूरे उद्देश्य को शर्मसार करते हैं,” उसने कड़वाहट से सोचा.
ऑपेरा थियेटर के
पास वाले चौराहे पर गहमा गहमी और भागदौड़ थी. ट्राम के रास्ते के ठीक बीचोंबीच एक
मशीनगन रखी थी, जिसकी सुरक्षा काले ओवरकोट में और
हेडफोन्स पहने एक छोटा सा ठिठुर गया कैडेट और भूरा ओवरकोट पहने एक अन्य कैडेट कर
रहा था. आने जाने वाले, मक्खियों की तरह, झुंडों में
फुटपाथ से चिपक कर उत्सुकता से मशीनगन को देख रहे थे. फार्मेसी के पास, नुक्कड़ पर, म्यूज़ियम के पास तुर्बीन ने गाड़ीवान
को छोड़ दिया.
“बढ़ के किराया
दीजिये, युअर ऑनर,” गाडीवान ने कड़वाहट और
जिद्दीपन से कहा, “अगर पता होता, तो आता ही नहीं. देख रहे हैं न कि
क्या हो रहा है!”
“दूँगा एक.”
“बच्चों को
इसमें क्यों खींच लिया...” किसी महिला की आवाज़ सुनाई दी.
सिर्फ अभी
तुर्बीन ने म्यूज़ियम के पास हथियारबन्द लोगों की भीड़ देखी. वह फ़ैल रही थी और घनी
होती जा रही थी. फुटपाथ पर ओवरकोटों के पल्लों के बीच धुंधली सी मशीनगनें झाँक
जाती थीं. और तभी पिच्योर्स्का पर दनादन गोलियां बरसने लगीं.
व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...व्रा...
“कोई गड़बड़ तो,
लगता है, शुरू हो गई है,” तुर्बीन ने परेशानी
से सोचा और चाल तेज़ करके चौराहे से होकर म्यूज़ियम की ओर चल पडा.
“कहीं मुझे देर
तो नहीं हो गई?...कैसा काण्ड हो रहा है...वे सोच सकते
हैं, कि मैं भाग गया...”
एन्साईन्स,
जूनियर और सीनियर कैडेट्स, थोड़े बहुत
सैनिक परेशान थे,उत्तेजित थे और म्यूज़ियम के भारी-भरकम
प्रवेश द्वार के पास और बगल वाले टूटे हुए दरवाजों के पास, जो अलेक्सान्द्रोव्स्की
जिम्नेशियम के परेड ग्राउंड को जाते थे, भाग रहे थे.
दरवाज़े के विशाल कांच हर पल थरथरा रहे थे, दरवाज़े कराह
रहे थे, और म्यूज़ियम की गोल, सफ़ेद बिल्डिंग में, जिसके दर्शनीय भाग पर सुनहरे अक्षरों
में लिखा था:
‘रूसी जनता की
अच्छी शिक्षा के लिए”, हथियारबंद,
अस्तव्यस्त और उत्तेजित कैडेट्स भाग रहे थे.
“माय गॉड!”
अनचाहे ही तुर्बीन चीखा, “ वे चले भी
गए.”
तोपें चुपचाप
तुर्बीन की ओर देख रही थीं और निपट अकेली और परित्यक्त, उसी जगह खडी थीं, जहाँ वे कल थीं.
“कुछ भी
समझ में नहीं आ रहा है... इसका क्या मतलब
है?”
कुछ भी समझ न
पाते हुए तुर्बीन परेड ग्राउंड पर तोपों के पास भागा. जैसे जैसे वह आगे भाग रहा था, तोपों का आकार बड़ा होता गया और वे
खौफ़नाक तरीके से उसकी तरफ देख रही थीं. और
ये किनारे वाली. तुर्बीन रुक गया और जम गया: उस पर ताला नहीं था. तेज़ी से दौड़ते
हुए उसने वापस परेड ग्राउंड पार किया और फिर से सड़क पर आ गया. यहाँ भीड़ और भी उफ़न रही थी, कई सारी आवाजें एक साथ चीख रही
थीं, और संगीनें बाहर निकल रही थीं और उछल
रही थीं.
“कर्तुज़ोव का
इंतज़ार करना चाहिए! यही ठीक रहेगा!” एक उत्तेजित, खनखनाती आवाज़
चीखी. कोई एन्साइन तुर्बीन का रास्ता काटते हुए भागा, और तुर्बीन ने उसकी पीठ पर लटकती हुई
रकाबों के साथ पीली काठी देखी.
“पोलिश दस्ते को
दे देना.”
“मगर वह कहाँ है?”
“आह, शैतान जाने!”
“सब म्यूज़ियम में! सब म्यूज़ियम में!”
“दोन पर!”
एन्साइन अचानक रुक गया, उसने काठी को
फुटपाथ पर फेंक दिया.
“ जहन्नुम में जाए! सब भाड़ में जाए,” वह तैश में चीखा, “आह, स्टाफ
हेडक्वार्टर वाले!...”
न जाने किसे मुट्ठियों से धमकाता हुआ, वह एक किनारे
को हट गया.
“ भयानक विपदा...अब मैं समझ रहा हूँ...मगर कितनी
खतरनाक बात है – वे, शायद, इन्फैंट्री में
चले गए हैं. हाँ, हाँ, हाँ...बेशक.
शायद, पित्ल्यूरा
अकस्मात् प्रकट हो गया हो. घोड़े नहीं हैं, और वे बंदूकों
के साथ गए हैं, बिना गोलियों के... आह तू, मेरे खुदा...अंजू की बुटीक तक भागना
होगा...हो सकता है, वहाँ कुछ पता चले...ये भी हो सकता है, कि कोई रह गया हो?”
तुर्बीन बवंडर जैसी भीड़ से बाहर उछला और, किसी पर भी ध्यान न देते हुए, वापस ऑपेरा
थियेटर की ओर भागा. थियेटर की सीमा से लगे डामर के रास्ते पर सूखी हवा का झोंका आया
और काली खिड़की के निकट, बगल वाले प्रवेश द्वार के पास वाली थियेटर की दीवार पर
लगे, आधे फटे इश्तेहार की किनार को सहला गया. कारमेन. कारमेन.
और यह रही अंजू की बुटीक. खिड़कियों में तोपें नहीं
थीं, खिड़कियों में सुनहरे शोल्डर स्ट्रैप्स
नहीं थे. खिड़कियों से आग की थरथराती, धुंधली चमक थी.
क्या अग्निकांड? तुर्बीन के हाथ के नीचे दरवाज़ा चरमराया, लेकिन खुला नहीं. तुर्बीन उत्तेजना से
खटखटाने लगा. और एक बार खटखटाया. एक भूरी आकृति दरवाज़े के कांच के पीछे दिखाई दी, और उसने दरवाज़ा खोला, और तुर्बीन बुटीक के भीतर गया.
तुर्बीन ने चौंक कर उस अनजान आकृति को गौर से देखा. उसने स्टूडेंट्स वाला काला
ओवरकोट पहना था, और सिर पर दीमक लगी, सिविलियन टोपी
थी, लम्बे कानों वाली, जिन्हें सिर के ऊपर तक खींचा गया था. चेहरा तो आश्चर्यजनक रूप से जाना-पहचाना था, मगर जैसे किसी चीज़ से बदरंग और विकृत
हो गया था. कागज़ के कुछ पन्नों को खाते हुए भट्टी तैश से भुनभुना रही थी. पूरे
फर्श पर कागज बिखरे थे. आकृति ने तुर्बीन को भीतर आने दिया, कुछ भी न कहते हुए उससे दूर भट्टी की
तरफ छिटक गई और पालथी मार कर बैठ गई,लाल रोशनी उसके चेहरे
पर नाच रही थी.
“मालिशेव? हाँ, कर्नल मालिशेव,” तुर्बीन ने पहचान लिया.
कर्नल के चहरे पर मूंछें नहीं थीं. उनके स्थान पर
चिकनी, निलाई तक साफ़ की हुई जगह थी.
मालिशेव ने झटके से अपना हाथ फैलाया, फर्श से कागज़ के पन्ने उठाये और
उन्हें भट्टी में घुसाया.
“आहा...आ”.
“ये क्या है? सब ख़त्म हो गया?” तुर्बीन ने सुस्ती से पूछा.
“ख़त्म हो गया,” कर्नल ने
संक्षिप्त जवाब दिया, उछला, मेज़ की तरफ़
लपका, गौर से उस पर नज़र घुमाई, कई बार
दराजें खोलीं-बंद कीं, जल्दी से झुका, फर्श से कागजों
का आख़िरी पुलिंदा उठाया और उसे भट्टी में झोंक दिया. सिर्फ इसके बाद ही वह तुर्बीन
की ओर मुड़ा और इत्मीनान से व्यंग्यपूर्वक बोला: “ थोड़ा सा युद्ध कर लिया – और बस!”
उसने भीतर वाली जेब में हाथ डाला और जल्दी से एक बटुआ निकाला, उसमें रखे कागजात की जाँच की, किन्हीं दो पन्नों को तिरछा फाड़ दिया
और उन्हें भट्टी में फेंक दिया. इस दौरान तुर्बीन गौर से उसे देखता रहा. मालिशेव
अब किसी भी कर्नल जैसा नहीं लग रहा था. तुर्बीन के सामने काफी मोटा स्टूडेंट, फूले-फूले लाल होठों वाला शौकिया
एक्टर खड़ा था.
“डॉक्टर? आप क्या कर रहे
हैं?” मालिशेव ने परेशानी से तुर्बीन के
कन्धों की ओर इशारा करते हुए कहा, “जल्दी से
उतारिये. आप कर क्या रहे हैं? कहाँ से आ रहे
हैं? क्या आप कुछ भी नहीं जानते?”
“मुझे देर हो गई, कर्नल,”
तुर्बीन ने कहा.
मालिशेव प्रसन्नता से मुस्कुराया. फिर अचानक उसके
चेहरे से मुस्कराहट लुप्त हो गई, उसने अपराध बोध
से और चिंता से सिर हिलाया और कहा;
“आह तू, मेरे खुदा, मैंने ही तो आपको निराश किया है! आपको
इस समय आने के लिए कहा...आप, ज़ाहिर है, दोपहर में घर से बाहर नहीं निकले? खैर, ठीक है. अब इस
बारे में कहने को कुछ भी नहीं है. एक लब्ज़ में: अपने स्ट्रैप्स उतारिये और भागिए, छुप जाइए.”
“बात क्या है? क्या बात है, खुदा के लिए, बताइये?...”
“क्या बात है?” व्यंग्यपूर्वक मुस्कराहट से मालिशेव
ने फिर से कहा, “ बात ये है कि पित्ल्यूरा शहर के
भीतर है. पिच्योर्स्क पर, अगर अब तक
क्रिश्चातिक पर न पहुँच गया हो तो. शहर पर कब्ज़ा कर लिया है.” मालिशेव ने अचानक अपने दांत भींचे, आंखें तिरछी कीं और फिर से अकस्मात्
बोल पडा, शौकिया एक्टर की तरह नहीं, बल्कि पहले
वाले मालिशेव की तरह: “स्टाफ हेडक्वार्टर्स ने हमें धोखा दिया. सुबह ही भाग जाना
चाहिए था. मगर मुझे, खुशनसीबी से, कुछ भले लोगों की बदौलत, रात को ही सब पता चल गया था, और मैं डिविजन को भगाने में कामयाब हो
गया. डॉक्टर, सोचने का समय नहीं है, अपने शोल्डर स्ट्रैप्स उतारो!”
...और वहाँ, म्यूज़ियम में, म्यूज़ियम में...”
मालिशेव का चेहरा स्याह हो गया.
“कोई मतलब नहीं है,” उसने गुस्से
से जवाब दिया, “कोई मतलब नहीं है! अब मुझे किसी चीज़
से कोई मतलब नहीं है. मैं अभी अभी वहाँ था, चीखा, आगाह किया, भाग जाने को कहा. इसके अलावा कुछ और
नहीं कर सकता. अपने सब लोगों को मैंने बचा लिया. मरने के लिए नहीं भेजा! शर्मिन्दा
नहीं किया!” मालिशेव अचानक उन्माद से चीखने लगा, ज़ाहिर था कि उसके भीतर कुछ जल गया था और टूट गया था
और वह खुद पर काबू रखने में असमर्थ था. “वाह, जनरलों!” उसने मुट्ठियाँ भींची और किसी को धमकाने लगा. उसका चेहरा लाल हो
गया.
इसी समय रास्ते से, कहीं ऊपर
मशीनगन चिंघाड़ी, और ऐसा लगा कि वह पड़ोस के बड़े घर को झकझोर रही है.
मालिशेव थरथरा गया, फ़ौरन चुप हो
गया.
“अच्छा, डॉक्टर, चलता हूँ!
अलबिदा! भागिए! सिर्फ रास्ते पर न भागना, बल्कि यहाँ से, चोर दरवाज़े से,
और वहाँ आंगनों से होकर. वो रास्ता अभी भी खुला है. जल्दी!”
मालिशेव ने स्तब्ध तुर्बीन से हाथ मिलाया, फ़ौरन पीछे
मुड़ा और पार्टीशन के पीछे अंधेरी खाई की ओर भागा. बुटीक के भीतर फ़ौरन सब कुछ शांत
हो गया. और रास्ते पर भी मशीनगन शांत हो गई.
अब अकेलापन था. भट्टी में कागज़ जल रहा था. मालिशेव की
चीखों के बावजूद तुर्बीन सुस्ती से और धीरे-धीरे दरवाज़े के पास गया. कुंडी को
टटोला, उसे हुक में
डाला भट्टी के पास लौटा. चीख-चिल्लाहट के बावजूद, तुर्बीन आराम
से काम कर रहा था, सुस्ती से चल
रहा था, सुस्त, गड्डमड्ड
खयालों में. अस्थिर आग कागज़ को खा रही थी, भट्टी का मुख खुशनुमा लपटों से खामोश लाल हो गया, और बुटीक में अचानक
अन्धेरा हो गया. भूरी परछाईयों में दीवारों पर लगी अलमारियाँ चिपकी थीं. तुर्बीन
ने उन पर नज़र डाली और सुस्ती से सोचा, कि मैडम अंजू के यहाँ अब तक सेंट की खुशबू महक रही है. हल्की सी, मरियल सी, मगर महक रही
है.
तुर्बीन के दिमाग में बेतरतीब विचारों का ढेर लग गया, और कुछ देर वह
यूँ ही उस तरफ़ देखता रहा, जहाँ मूंछमुंडा
कर्नल गायब हो गया था. फिर खामोशी में धीरे-धीरे गुत्थी सुलझने लगी. सबसे
महत्वपूर्ण और ज्वलंत धागा सामने आया – पित्ल्यूरा यहाँ आ चुका है. “पेतुर्रा, पेतुर्रा”, तुर्बीन क्षीणता से
दुहराता रहा और हँस पडा, खुद भी इसका
कारण न समझते हुए. वह दीवार पर लगे शीशे की तरफ़ गया, जो मलमल की तरह
धूल की पर्त से ढंका था.
कागज़ पूरा जल गया, और अंतिम लाल
लपट, थोड़ा सा चिढाकर, फर्श पर बुझ गई. अन्धेरा छा गया.
“पित्ल्यूरा, ये कितना जंगली
है...वाकई में देश पूरी तरह बरबाद हो चुका है,” दुकान के
अँधेरे में तुर्बीन बडबडाया, मगर फिर उसने होश संभाल लिए: “ये मैं क्या सोच रहा
हूँ? वाकई में, क्या कह सकते हैं, वे किसी भी समय यहाँ आ धमकेंगे?”
अब वह दौड़ धूप करने लगा,जैसे मालिशेव जाने से पहले कर रहा था, और अपने शोल्डर स्ट्रैप्स उखाड़ने लगा.
धागे चटचटाने लगे, और हाथों में जैकेट की दो काली पड़
चुकी चांदी की पट्टियां और ओवरकोट की दो हरी पट्टियां रह गईं. तुर्बीन ने उनकी ओर
देखा, हाथों में घुमाया, यादगार की तरह जेब में छुपाना चाहा, मगर फिर सोचा और उसे समझ में आ गया कि
यह खतरनाक है, उन्हें भी जलाने का निश्चय किया. जलती
हुई सामग्री की कमी नहीं थी, हालांकि
मालिशेव ने सारे कागजात जला दिए थे. तुर्बीन ने फर्श से सभी सिल्क के टुकड़ों का
ढेर उठाया, उन्हें भट्टी में झोंका और आग लगा दी. फिर से फर्श पर और दीवारों पर आडी-तिरछी आकृतियाँ नाचने लगीं और कुछ देर के
लिए मैडम अंजू की इमारत सजीव हो उठी. लपटों में चांदी की पट्टियां टेढ़ी-मेढ़ी हो
गईं, उन पर बुलबुले आ
गए, वे काली पड़ गईं, और फिर झुक गईं...
तुर्बीन के दिमाग में एक बेहद गंभीर विचार आया –
दरवाज़े का क्या करे? क्या उसे हुक पर लगा रहने दे या खोल
दे? मान लो,अचानक कोई
वालन्टीयर, वैसे
ही,जैसे तुर्बीन, पीछे रह गया हो, भागते हुए आये - छुपने के लिए तो कोई जगह ही नहीं होगी!
तुर्बीन ने कुंडी खोल दी, फिर उसे दूसरा
विचार सताने लगा : पासपोर्ट? उसने एक जेब
टटोली, दूसरी टटोली – नहीं है. ऐसा ही है!
भूल गया, आह, ये तो बड़ी गड़बड़
हो गई. अचानक उनसे टकरा जाओ तो? ओवरकोट भूरा
है. पूछेंगे – कौन? डॉक्टर...तो कागज़ात दिखाओ! आह, शैतानी भुलक्कडपन!
“जल्दी,” भीतर की आवाज़
फुसफुसाई.