Tuesday, 5 September 2023

श्वेत गार्ड्स - 05

 5

 

तो, विशाल शतरंज की बिसात पर अप्रत्याशित – अबूझ रूप से तीसरी ताकत प्रकट हो गई. तो एक बुरा और बेवकूफ खिलाड़ी, खतरनाक पार्टनर से बचने के लिए प्यादों का सुरक्षा घेरा बनाता है (वैसे, प्यादे तसले पहने जर्मनों से काफी मिलते-जुलते हैं), अपने सारे ऑफिसर्स को खेल के राजा के चारों ओर इकट्ठा करता है, मगर विरोधी की कपटी रानी अचानक किनारे से रास्ता निकालकर, पृष्ठ भाग में पंहुच जाती है और पीछे से प्यादों और घोड़ों को मारना शुरू कर देती है और भयानक ‘शह देती है, और रानी के पीछे फुर्तीला हाथी ऑफिसर आता है, और छल से टेढ़े-मेढ़े रास्तों से घोड़े लपकते हैं, और, कमज़ोर और बेवकूफ खिलाड़ी मर जाता है – उसका काठ का राजा चेकमेट हो जाता है.  

यह सब बहुत जल्दी हो गया, मगर अचानक नहीं, और जो हुआ, उससे पहले कुछ संकेत प्राप्त हुए थे.

एक बार, मई के महीने में, जब फीरोज़े में जड़े हुए मोती की भाँति चमचमाता हुआ शहर जागा, और सूरज गेटमन के साम्राज्य को प्रकाशित करने के लिए निकला, जब नागरिक चींटियों की तरह अपने-अपने काम पर जा रहे थे, और उनींदे नौकरों ने दुकानों के खड़खड़ाते परदे खोलना शुरू कर दिया, शहर में एक खतरनाक और डरावनी गड़गड़ाहट होने लगी. वह इतनी ऊँची थी, जैसी पहले कभी नहीं सुनी थी – और ये न तो गोले की आवाज़ थी और न ही तूफ़ान की गड़गड़ाहट, - मगर इतनी शक्तिशाली थी, कि कई खिड़कियाँ अपने आप खुल गईं और सारे कांच झनझनाने लगे. इसके बाद दुबारा वही आवाज़ आई, पूरे ऊपरी शहर में फ़ैल गई, लहरों की भांति निचले शहर – पदोल में लुढ़कने लगी, और ख़ूबसूरत, नीली द्नेप्र से होकर दूरस्थ मॉस्को की ओर चली गई. शहरवासी जाग गए, और रास्तों पर भगदड़ मच गई. भगदड़ तुरंत ही फ़ैल गई, क्योंकि ऊपरी शहर – पिचेर्स्क से ज़ख़्मी, लहुलुहान लोग चीखते-चिल्लाते हुए भाग रहे थे. और आवाज़ तीसरी बार भी आई और ऐसी भयानक, कि पिचेर्स्क के घरों के कांच झनझनाते हुए गिरने लगे, और पैरों के नीचे ज़मीन हिलने लगी.

कई लोगों ने औरतों को देखा, जो सिर्फ एक कमीज़ में, भयानक आवाजों में चिल्लाते हुए भाग रही थीं. जल्दी ही पता चल गया कि आवाज़ कहाँ से आ रही थी. वह शहर से बाहर, द्नेप्र के ठीक ऊपर वाले ‘गंजे पहाड़ से आई थी, जहाँ गोला-बारूद के विशाल गोदाम थे, ‘गंजे पहाड़ पर विस्फोट हुआ था.

इसके बाद पाँच दिनों तक शहर इस खौफ़ में जीता रहा कि गंजे पहाड़ से ज़हरीली गैसें फैलेंगी. मगर विस्फोट रुक गए, ज़हरीली गैसें नहीं फैलीं, लहुलुहान लोग गायब हो गए, और शहर के सभी भागों में शान्ति छा गई, पिचेर्स्क के कुछ भागों को छोड़कर, जहाँ कई घर ढह गए थे. कहने की ज़रुरत नहीं कि शहर को विस्फोटों के कारणों का कुछ भी पता नहीं चला. कई तरह की बातें होती रहीं.

“विस्फोट फ्रांसीसी जासूसों के करवाए थे.”

“नहीं, विस्फोट बोल्शेविकों के जासूसों ने करवाए.”

यह सब इस तरह ख़त्म हुआ कि विस्फोटों के बारे में बिल्कुल भूल गए.

दूसरा संकेत गर्मियों में आया, जब शहर  भरपूर धूलभरी हरियाली से आच्छादित था, गरज और गड़गड़ाहट हो रही थी, और जर्मन लेफ्टिनेंट बेतहाशा सोडा गटक रहे थे. दूसरा संकेत वाक़ई में राक्षसी था!

भरी दोपहर में, निकलायेव्स्काया स्ट्रीट पर, ठीक वहीं, जहाँ टैक्सी-ड्राइवर्स खड़े रहते हैं, उक्रेन में जर्मन आर्मी के प्रमुख कमांडर – फील्डमार्शल एखगोर्न को मार डाला गया, जिसके आसपास कोई  फटक भी नहीं सकता था, जो गौरवान्वित और अपनी असीम शक्ति के कारण भयानक था, स्वयँ सम्राट विलियम का दाहिना हाथ था. उसे मारने वाला, ज़ाहिर है, मज़दूर था और, ज़ाहिर है, सोशलिस्ट था. अपने फील्ड मार्शल की मृत्यु के बाद जर्मनों ने चौबीस घंटे में न सिर्फ हत्यारे को, बल्कि उस गाडीवान को भी, जो उसे घटनास्थल तक लाया था, फांसी पर लटका दिया. ये सही है, कि इससे सुप्रसिद्ध जनरल पुनर्जीवित तो नहीं हुआ, मगर अकलमंद लोगों के मन में इस घटना से कई महत्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न हुए.

तो, शाम को खुली हुई खिड़की के पास अपनी टसर की कमीज के बटन खोलकर सुस्ताते हुए, लेमन टी की चुसकियाँ लेते हुए वसीलीसा ने अलेक्सेइ वसील्येविच तुर्बीन से रहस्यमय ढंग से फुसफुसाते हुए कहा:

“इन सब घटनाओं की तुलना करते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रह सकता, कि हम अत्यंत अस्थिर परिस्थिति में रह रहे हैं. मुझे ऐसा लगता है कि जर्मनों के पैरों तले कुछ (वसिलीसा ने हवा में छोटी-छोटी उंगलियाँ हिलाईं) खिसक रहा है. खुद की सोचिये...एखगोर्न को...और कहाँ?? (वसिलीसा की आंखों में भय तैर गया.)

तुर्बीन उदासी से सुनता रहा, उदासी से उसने अपना गाल हिलाया और चला गया.

एक और शगुन अगली ही सुबह प्रगट हुआ और सीधे उसी वसिलीसा से टकराया. सुबह, सुबह, जब सूरज ने उदास, तहखाने वाले रास्ते पर, जो आँगन से वसिलीसा के क्वार्टर को जाता था, अपनी प्रसन्न किरण भेजी, तो बाहर देखते हुए, उसने किरण में छाया को देखा. अपने तीस वर्षों में वह अभूतपूर्व रूप से चमक रही थी, रानी एकातेरिना जैसी गर्दन में पड़े नेकलेस की चमक में, सुडौल, नंगे पैरों में, भरपूर, कसे हुए वक्षस्थल में. उसके दांत चमक रहे थे, और पलकों से गालों पर बैंगनी छाया पड़ रही थी.

आज पचास है,” छाया ने दूध के डिब्बे की ओर इशारा करते हुए जादुई आवाज़ में कहा.

“क्या कह रही हो, इव्दोखा?” वसिलीसा दयनीय आवाज़ में चहका, “खुदा से डरो. परसों – चालीस, कल – पैंतालीस, आज – पचास. ऐसा तो नामुमकिन है.”

“मैं क्या कर सकती हूँ? महँगा हो गया है,” जादुई आवाज़ ने जवाब दिया, “कहते हैं, कि बाज़ार में तो सौ हो गया है.”

उसके दांत फिर चमके. पल भर को वसिलीसा पचास के बारे में भूल गया और सौ के बारे में भी, हर चीज़ के बारे में भूल गया, और उसके पेट में एक मीठी और धृष्ठ ठंडक दौड़ गई. जैसे ही सूरज की किरण में यह सुन्दर छाया उसके सामने प्रगट होती, हर बार वसिलीसा के पेट में मिठास भरी ठण्डक दौड़ जाती थी. (वसिलीसा अपनी पत्नी से पहले उठ जाता था.) वह हर चीज़ के बारे में भूल गया, न जाने क्यों उसकी कल्पना में जंगल का मैदान घूम गया, चीड़ के पेड़ों की खुशबू महसूस होने लगी. एख, एख...

“देखो, इव्दोखा”, वसिलीसा ने अपने होंठ चाटते हुए और तिरछी आंखों से देखते हुए (कहीं बीबी तो बाहर नहीं आई है) कहा, “इस क्रान्ति से आप लोग बहुत बहक गए हो. देखो, जर्मन तुमको अच्छा सबक सिखायेंगे.” उसके कंधे को थपथपाये या न थपथपाये – वसिलीसा ने मायूसी से सोचा और वह कोई फैसला न कर पाया.

खडिया जैसे दूध की चौड़ी धार ‘जग में गिरी और झाग ऊपर आ गया.

“वो हमें क्या सिखायेंगे, और हम उनसे क्या सीखेंगे,” अचानक छाया ने जवाब दिया, वह चमकी, चमकी, दूध का बर्तन खड़खड़ाया, अपनी कांवड़ के साथ झूलते हुए, तहखाने से धूप भरे आँगन में ऊपर जाने लगी, मानो किरण में किरण समा रही हो. ‘टा-टागें तो – आ-आह!!’ वसिलीसा के दिमाग में टीस उठी.

इसी समय बीबी की आवाज़ आईं और, मुड़ते ही वसिलीसा उससे टकरा गया.

“ये तुम किससे?” जल्दी से नज़र ऊपर उठाकर बीबी ने पूछा.

“इव्दोखा से,” वसिलीसा ने उदासीनता से जवाब दिया, “ज़रा सोचो, आज दूध पचास का हो गया.”

“क-क्या?” वान्दा मिखाइलव्ना चहकी. “ये तो बेहूदगी है! कैसी बेशर्मी! किसान पूरी तरह से पगला गए हैं...इव्दोखा! इव्दोखा!” खिड़की से बाहर झुकते हुए वह चीखी, - “इव्दोखा!”

मगर परछाईं गायब हो गई और वापस नहीं लौटी.

वसिलीसा ने बीबी के टेढ़े जिस्म को, पीले बालों को, हडीली कुहनियों और सूखी हुई टांगों को गौर से देखा, और दुनिया में रहने के ख़याल से उसका जी इस कदर मिचलाया, कि उसने वान्दा के स्कर्ट पर करीब-करीब थूक ही दिया. अपने आप को संयत करके उसने गहरी सांस ली और आधे-अँधेरे, ठन्डे कमरे में चला गया, खुद भी न समझ पाते हुए कि उसे कौन सी चीज़ परेशान कर रही है. या तो वान्दा – उसने अचानक बीबी की कल्पना की, और उसकी बाहर को निकली हुईं हँसुली की हड्डियों की, जैसे जुडी हुई डंडियाँ हों – या कोई अजीब सी बात जो मोहक परछाई के शब्दों में थी.

“हम उन्हें सिखायेंगे?? ये आपको कैसा लग रहा है?” वसिलीसा अपने आप से बडबडाया. _ “ओह, ये बाज़ार की औरतें भी! नहीं , आप इस बारे में क्या कहेंगे? अगर वे जर्मनों से डरना बंद कर देंगे...तो, काम ही तमाम. सिखायेंगे. आ? मगर, उसके दांत तो – शानदार...”    

अचानक उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि अँधेरे में इव्दोखा उसके सामने पहाड़ की चुड़ैल के समान पूरी तरह निर्वस्त्र खडी है.

‘कैसी धृष्ठता...सिखायेंगे? और सीना...’

और ये सब इतना हैरान करने वाला था कि वसिलीसा की तबियत बिगड़ने लगी, और वह ठन्डे पानी से नहाने के लिए चला गया.

तो, हमेशा की तरह, चुपचाप, शरद ऋतू आ गई.  भरपूर सुनहरे अगस्त के पीछे-पीछे आया उजला और धूल भरा सितम्बर, और सितम्बर में संकेत नहीं, बल्कि खुद घटना ही हुई, और पहली नज़र में वह पूरी तरह महत्वहीन थी.

सितम्बर की उजली शाम को, कहीं और नहीं, बल्कि शहर की जेल में गेटमन के संबंधित शासकीय अधिकारी का हस्ताक्षर किया हुआ कागज़ आया, जिसमें यह आदेश दिया गया था कि कोठरी नं.          666 से कैदी को रिहा कर दिया जाए. बस, इतना ही.

बस, इतना ही! और इसी कागज़ की वजह से, - बेशक, उसी की वजह से! – इतनी मुसीबतें आईं और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुईं, कैसे-कैसे अभियान, नरसंहार, अग्निकांड और विनाश, निराशा और भय...आय, आय, आय! 

कैदी, जिसे छोड़ा गया था, अत्यंत सीधे-सादे और मामूली नाम वाला था – सिम्योन वसील्येविच पित्ल्यूरा. वह अपने आप को, और दिसंबर 1918 से फरवरी 1919 के कालखण्ड के अखबार कुछ फ्रांसीसी तर्ज पर उसे – सिमोन कहते थे. सिमोन का भूतकाल अत्यंत घने अँधेरे में डूबा था.  

कहते थे, कि जैसे वह अकाऊंटेंट था.

“नहीं, रोकडिया.”

“नहीं, स्टूडेंट.”

क्रेश्चातिक और निकलायेव्स्काया स्ट्रीट के नुक्कड़ पर तम्बाकू के उत्पादों की एक बड़ी और शानदार दुकान थी. लम्बे बोर्ड पर कॉफी वाले तुर्क की बहुत बढ़िया तस्वीर थी, जो फुंदेदार टोपी पहने हुक्का पी रहा था. तुर्क के पैरों में मुड़ी हुई नोक वाले नरम पीले जूते थे.

तो, ऐसे भी लोग निकल आये, जो क़सम खाकर कह रहे थे, कि उन्होंने अभी हाल ही में सिमोन को इसी दुकान में, बड़ी शान से काउंटर के पीछे खड़े होकर सोलोमन कोहेन की फैक्ट्री के तम्बाखू उत्पाद बेचते हुए देखा था. मगर वहीं कुछ और भी लोग निकल आये, जो कहते थे:

“ऐसी कोई बात नहीं है. वह नगरों के संघ का प्रतिनिधि था.”

“नगरों के संघ का नहीं, बल्कि ज़ेम्स्त्वा-संघ का – पक्का ज़ेमगुसार.”

चौथे (शरणार्थी), आंखें बंद करके, जिससे अच्छी तरह याद कर सकें, बुदबुदाते:

“माफ़ कीजिये...माफ़ कीजिये...”

और कहते, जैसे उन्होंने दस साल पहले...माफ़ कीजिये...ग्यारह साल पहले, उसे मॉस्को में मालाया ब्रोन्नाया स्ट्रीट पर एक शाम को जाते हुए देखा था, उसकी बगल में काले छींट में लिपटी हुई गिटार थी. और ये भी जोड़ते, कि वह अपने देशवासियों के पास किसी पार्टी में जा रहा था, इसीलिये गिटार छींट में लिपटी थी. जैसे वह बहुत बढ़िया पार्टी में जा रहा था, जहाँ मुस्कुराती हुई, गुलाबी गालों वाली उसके देश की लड़कियां – स्टूडेंट्स – थीं, प्लम-ब्रांडी के साथ, जो सीधे उपजाऊ उक्रेन से लाई गई थी, जहाँ गीत-संगीत था, लाजवाब ग्रीशा के साथ...   

ओय ...तू – ना...जा...

 

फिर उसके रूप-रंग का वर्णन करने में, तारीखों के बारे में, जगह के बारे में गड़बड़ा जाते...

“आप कह रहे हैं, सफाचट दाढी?

“नहीं, लगता है...माफ़ कीजिये...दाढी थी.”

“माफ़ कीजिये , क्या वह मॉस्कोवासी है?

“अरे नहीं, वहाँ स्टूडेंट था...वह...”

“ऐसा कुछ भी नहीं है. इवान इवानविच उसे जानता है. वह तराश्चा में लोकप्रिय शिक्षक था...”

छि: तुम भी...और हो सकता है, वह ब्रोन्नाया पर नहीं भी जा रहा था. मॉस्को बड़ा शहर है, ब्रोन्नाया पर कोहरा, पाला, परछाईयाँ...कोई गिटार...तुर्क धूप में... हुक्का...गिटार – ज़िन्-ट्रिन्...धुंधला, कोहरा, आह, कितना कोहरा है, और कितना भयानक है चारों ओर.

....मार्च कर रहे हैं और गा रहे हैं...

जा रही हैं, गुज़र रही हैं पास से खून से लथपथ परछाईयाँ, भाग रहे हैं दृश्य, लड़कियों की बिखरी हुई चोटियाँ, जेल, गोलीबारी, और तुषार, और आधी रात का चमकता हुआ व्लादिमीर का सलीब.

मार्च करते, गा रहे हैं

गार्ड्स स्कूल के कैडेट्स ...

झनझनाती हैं तश्तरियां

बजती हैं तुरहियाँ और नगाड़े.

तोर्बानों (एक उक्रेनी वाद्य – अनु.) को कुचलते हैं, गोलियां कोयल जैसी चीखती हैं, लोगों को लोहे की छड़ों से मरते दम तक मारते हैं, काली पोशाक वाला घुड़सवार दस्ता गर्म घोड़ों पर जा रहा है, जा रहा है.

भविष्यसूचक स्वप्न गडगड़ाता है, लुढ़कता हुआ अलेक्सेइ तुर्बीन के पलंग के पास आता है. तुर्बीन सो रहा है, गर्माहट में डूबी बालों की लट के साथ, और गुलाबी लैम्प जल रहा है. पूरा घर सो रहा है. किताबों वाले कमरे से करास के खर्राटे, निकोल्का के कमरे से शिर्वीन्स्की की सीटी...धुंध...रात...अलेक्सेइ के पलंग के पास फर्श पर आधा पढ़ा गया दस्तयेव्स्की पडा है, और “शैतान” निराश शब्दों से चिढ़ा रहे हैं... एलेना शान्ति से सो रही है.

तो, मैं आपसे कहूंगा: नहीं था. नहीं था! यह सिमोन दुनिया में बिल्कुल नहीं था. ना तो तुर्क, ना ही ब्रोन्नाया पर स्ट्रीट लैम्प के नीचे गिटार, न ही कोई ज़ेम्स्त्वा-संघ...कुछ भी नहीं. बस, एक कपोल=कल्पना है, जिसने भयानक सन् अठारह के कोहरे में उक्रेन में जन्म लिया.  

... और दूसरी ही बात थी – भयानक घृणा. चार लाख जर्मन्स थे, और उनके चारों और थे किसान - चार लाख के चौगुने के चालीस गुना, जिनके दिल अथाह कड़वाहट से धधक रहे थे. ओह, इन दिलों में कितना कुछ भरा था. चेहरों पर लेफ्टिनेंट  के चाबुकों के वार, अड़ियल गाँवों पर छर्रों द्वारा तेज़ी से की गई गोलीबारी, गेटमन के कज़ाकों द्वारा छड़ों से छीली गई पीठें, और कागज़ के टुकड़ों पर जर्मन सेना के मेजर्स और लेफ्टिनेंट्स द्वारा लिखी गईं रसीदें:

“रूसी सुअर को उससे खरीदे गए सुअर के बदले में पच्चीस मार्क्स दिए जाएँ.”

और शहर के जर्मन स्टाफ हेडक्वार्टर में ऐसी रसीद लाने वालों पर तिरस्कारपूर्ण ठहाके.

और बलपूर्वक छीन लिए गए घोड़े, छीन ली गई ब्रेड, और मोटे चेहरों वाले ज़मींदार, जो गेटमन के शासन में अपनी-अपनी जागीरों को लौट रहे थे, - “ऑफिसर” शब्द सुनते ही होने वाली कंपकंपी.

ये सब था, जनाब.

और ज़मीन संबंधी सुधारों के बारे में अफवाहें थीं, जो गेटमन महाशय लागू करने वाले थे.

हाय,हाय ! सिर्फ सन् अठारह के नवम्बर में, जब शहर के ऊपर तोपें गरज रही थीं, बुद्धिमान लोगों ने, जिनमें वसिलीसा भी था, अंदाज़ लगाया कि किसान इस गेटमन महाशय से नफ़रत करते हैं, जैसे वह पागल कुत्ता हो – और किसानों की राय है, कि इस महाशय के हरामी सुधारों की कोई ज़रुरत नहीं है, बल्कि किसानों के पसंदीदा, सच्चे सुधारों की ज़रुरत है:

-    सारी ज़मीन किसानों को.

-    हरेक को सौ-सौ एकड़.

-    ज़मींदारों का नामो-निशान न रहे.  

-    और इस सौ-सौ एकड़ भूमि के लिए विश्वसनीय मुहर लगा हुआ दस्तावेज़ दिया जाए – जो यह प्रमाणित करे कि यह ज़मीन हमेशा के लिए दी गई है, वंशानुगत, दादा से पिता को, पिता से बेटे को, पोते को इत्यादि...

-    शहर का कोई भी ‘महाशय’ ब्रेड की मांग करने न आये. ब्रेड किसान की है, उसे किसी को नहीं दिया जाएगा, और जो हम खुद नहीं खायेंगे, उसे ज़मीन में गाड़ देंगे.

-    शहर से केरोसिन मंगवाया जाए.

तो, ऐसे सुधार तो कोई भी सम्मानित गेटमन नहीं कर सकता. और कोई शैतान भी नहीं कर सकता.

कुछ निराशाजनक अफवाहें थीं, कि गेटमन और जर्मन रूपी दुर्भाग्य से सिर्फ बोल्शेविक ही निपट सकते हैं, मगर बोल्शेविकों का भी अपना ही दुर्भाग्य है:

-    यहूदी और कमिसार.

-    तो, उक्रेनी किसान मुसीबत में हैं! कहीं से भी राहत नहीं!!

दसियों हज़ारों लोग थे, जो युद्ध से लौटे थे और जिन्हें बन्दूक चलाना आता था....

-    और अपने वरिष्ठ अधिकारियों के कहने पर अफसरों ने खुद ही गोली चलाना सीखा था!

-    सैंकड़ों हज़ारों राईफलें धरती में गाड़ी हुई थीं, झुरमुटों और खलिहानों में छुपाई गई थीं, और जिन्हें वापस नहीं दिया गया था, जर्मनों के शीघ्र-कोर्ट-मार्शल के बावजूद, छड़ों की मार के बावजूद, छर्रों की बारिश के बावजूद, लाखों गोलियां उसी धरती में गाड़ी गई थीं, और हर पांचवें गाँव में तीन इंची बंदूकें, हर दूसरे गाँव में मशीनगन्स, हर छोटे शहर में गोलियों के ढेर, फ़ौजी ग्रेट कोट और टोपियों से भरे गुप्त गोदाम.   

और इन्हीं छोटे शहरों में थे शिक्षक, कम्पाउंडर्स, एक ही बिल्डिंग में रहने वाले, उक्रेन की पादरियों की संस्था के विद्यार्थी, जो किस्मत से छोटे अफसर बन गए थे, मधुमक्खियाँ पालने वालों के तंदुरुस्त लडके, उक्रेनी नामों वाले स्टाफ-कैप्टेन...सभी उक्रेनी भाषा में बोलते हैं, सभी जादुई उक्रेन से प्यार करते हैं, काल्पनिक उक्रेन की, जिसमें ज़मींदार नहीं हैं,        मॉस्को के फौजी अफसर नहीं हैं, - और हजारों भूतपूर्व उक्रेनी कैदी हैं, जो गैलिशिया से लौटे थे.

ऊपर से दसियों हज़ारों किसान भी?...ओ-हो-हो!

ये सब था. मगर कैदी...गिटार...

 

अफवाहें भयानक, खतरनाक....

टकराती हैं हमसे...

 

ज़िन...ट्रीन...एख, एख, निकोल्का.

तुर्क, ज़ेमहुसार, सिमोन. वह नहीं था, नहीं था. बस, बकवास, कपोल कथा, भ्रम.

और बेकार ही, बेकार ही होशियार वसिलीसा, सिर पकडे चहका था: ‘खुदा जिसे मारना चाहता है, पहले उसकी अक्ल छीन लेता है.’ – और उसने गालियाँ दीं गेटमन को, इसलिए कि उसने पित्ल्यूरा को शहर की गंदी जेल से रिहा कर दिया.

“बकवास.., बकवास है ये सब. वो नहीं – दूसरा. दूसरा नहीं – तीसरा.

तो, सारे संकेत समाप्त हो गए और घटनाएं आ धमकीं...दूसरी कोई खोखली नहीं थी, किसी पौराणिक व्यक्ति की जेल से रिहाई की खबर जैसी, - ओह नहीं! – वह इतनी महान थी कि उसके बारे में पूरी मानव जाति, शायद, और सौ साल तक कहती रहेगी...सुदूर पश्चिमी यूरोप में लाल पतलूनों वाले गैलिक (यहाँ गैलिक से तात्पर्य है – फ्रांसीसी – अनु.) मुर्गों ने मोटे, फौलादी जर्मनों को चोंच मार-मारकर अधमरा कर दिया. ये बड़ा भयानक दृश्य था: नुकीली फ्रीजियन टोपियों वाले मुर्गे, बुरी तरह चीखते हुए बख्तरबंद ट्यूटनों पर झपटे और उनके कवच के साथ मांस के टुकड़े भी तोड़ने लगे. जर्मन बदहवासी से लड़ रहे थे, परों से ढंके सीनों में चौड़ी संगीने घुसाते रहे, दांतों से उन्हें कुतरते रहे, मगर टिक न सके, - और जर्मन! जर्मन! उन्होंने दया की भीख मांगी.

अगली घटना का इस घटना से गहरा संबंध था और वह इसी से निकली थी, जैसे कारण से परिणाम निकलता है. पूरी दुनिया स्तब्ध और चकित रह गई यह जानकर, कि वह आदमी, जिसका नाम और जिसकी छह इंची कीलों जैसी कॉर्कस्क्रू मूंछें पूरी दुनिया में प्रसिद्ध थीं, और जो, शायद, इतना धातुई था, जिसमें लकड़ी का एक भी कण नहीं था, उसे हरा दिया गया था. वह धूल में मिल गया था – वह सम्राट नहीं रह गया था. उसके बाद शहर में सभी के मन में खतरनाक भय की लहर दौड़ गई: उन्होंने देखा, खुद अपनी आंखों से देखा कि कैसे जर्मन लेफ्टिनेंट बदरंग हो गए और कैसे उनके भूरे-आसमानी यूनिफ़ॉर्म का रंग संदिग्ध चीथड़ों के रूप से बदल गया. और यह फ़ौरन हुआ, देखते-देखते, कुछ ही घंटों में, कुछ ही घंटों में आंखें निस्तेज हो गईं, और लेफ्टिनेंटों के एक कांच वाले चश्मे की खिड़कियों में रोशनी बुझने लगी, और शीशे की चौड़ी प्लेट से बदहवास गरीबी झांकने लगी.            

तब उनमें से कुछ के दिमाग़ों में करंट दौड़ गया, जो मज़बूत पीले सूटकेसों और अमीर औरतों के साथ कंटीले बोल्शेविक कैम्प को फांद कर शहर में घुसे थे. वे समझ गए कि उनका भाग्य पराजितों के साथ जुडा है, और उनके दिल खौफ़ से भर गए.

“जर्मन हार गए हैं,” कमीनों ने कहा.

“हम हार गए हैं,” अक्लमंद कमीनों ने कहा.

शहरवासी भी ठीक यही समझे.

ओह, सिर्फ वही, जो खुद हार गया हो, जानता है कि ये शब्द कैसा लगता है! वो उस घर में शाम के समान है, जिसमें बिजली खराब हो गई हो. वो उस कमरे के समान है, जिसमें वॉलपेपर पर हरी फफूंद है, जो विषाणुओं से संक्रमित हो. वह अत्यंत क्षीण, बीमार बच्चों के समान है, सड़े हुए वनस्पति तेल जैसा है, अँधेरे में औरतों की आवाज़ों में सुनाई दे रही माँ-बहन की गालियों के समान है. मतलब, वह मौत के समान है.

बेशक, जर्मन उक्रेन से चले जायेंगे. मतलब, मतलब – कुछ लोगों को भागना होगा, और कुछ को नए, आश्चर्यजनक, शहर में बिनबुलाए मेहमानों से मिलना पडेगा. और, इसलिए, कुछ लोगों को मरना पडेगा, वे, जो भाग जायेंगे, नहीं मरेंगे, तो फिर मरेगा कौन?

“मलना – मलने का खेल नई कलना,” अचानक तुतलाते हुए, न जाने कहाँ से सोये हुए अलेक्सेइ तुर्बीन के सामने प्रकट हुए कर्नल नाय-तूर्स ने कहा.

वह विचित्र ढंग की पोशाक में था: सिर पर चमकता हुआ शिरस्त्राण था, और शरीर पर छल्लों की ड्रेस, और वह एक तलवार पर झुका हुआ था, इतनी लम्बी, जैसी ईसाईयों के धर्मयुद्ध के समय के बाद से किसी भी फ़ौज में नहीं है. नाय के पीछे स्वर्गीय आभा बादल की तरह तैर रही थी.

“क्या आप स्वर्ग में हैं, कर्नल?” एक मीठी सिहरन महसूस करते हुए, जिसे इंसान वास्तविकता में कभी महसूस नहीं करता, तुर्बीन ने पूछा.

“स्वल्ग में,” नाय-तूर्स ने, शहर के जंगलों में बहते झरने की तरह साफ़ और पूरी तरह पारदर्शी आवाज़ में जवाब दिया.

“कितना अजीब है, कितना अजीब है,” तुर्बीन कहने लगा, “मैं सोचता था, कि स्वर्ग...बस, मानव की कल्पना है. और कैसी अजीब पोशाक है. आप, पूछने की इजाज़त दें, कर्नल, क्या स्वर्ग में भी ऑफिसर ही हैं?

“वे अब क्रूसेडर ब्रिगेड में हैं, डॉक्टर महाशय,” सार्जेंट मेजर झीलिन ने जवाब दिया, जो ज़ाहिर है सन् 1916 में बेलग्राद हुस्सारों के साथ विल्ना की दिशा में आग के कारण ख़त्म हो गया था.  

सार्जेंट मेजर का कद किसी महान शूरवीर सामंत की तरह ऊंचा होने लगा, और उसके कवच से प्रकाश निकलने लगा. उसके भद्दे नाक नक्श, जिनसे अपने हाथों से झीलिन के खतरनाक घाव की मलहम पट्टी करने के कारण तुर्बीन अच्छी तरह परिचित था, अब पहचान में नहीं आ रहे थे, और सार्जेंट मेजर की आंखें भी पूरी तरह से नाय-तूर्स की आंखों जैसी दिखाई दे रही थीं – बिलकुल साफ़, अथाह, भीतर से प्रकाशित. 

दुनिया में सबसे ज़्यादा उदास मन वाले तुर्बीन को औरतों की आँखें पसंद थीं. आह, खुदा ने एक खिलौना बनाया – औरतों की आंखें!...मगर सार्जेंट मेजर की आंखों से उनका क्या मुकाबला!

“आप कैसे हैं?” उत्सुकता और असीम प्रसन्नता से डॉक्टर तुर्बीन ने पूछा, - ऐसा कैसे, कि आप स्वर्ग में भी जूते पहने हैं, एड भी है? आपके पास क्या घोड़े, गाड़ियों का काफिला, भाले हैं?

“मेरी बात का यकीन करें, डॉक्टर महाशय,” नीली आभा से, जिससे दिल को गर्माहट मिल रही थी, सीधे उसकी आंखों में देखते हुए सार्जेंट मेजर की वायलिन की झंकार जैसी गहरी आवाज़ गूँजी, “बिल्कुल पूरे स्क्वैड्रन के साथ, घुड़सवार दस्ते में, और चल पड़े. लयबद्ध तरीके से. मगर, ये सच है, कि वहाँ अटपटा लग रहा था...वहाँ, आप खुद ही जानते हैं, सफाई, चर्च के फर्श.”

“तो?” तुर्बीन चौंका.

शायद, ईश्वरदूत पीटर वहाँ है. सिविलियन बूढा, मगर महत्वपूर्ण, मिलनसार. मैं, बेशक, बता रहा था : ऐसा-ऐसा, बेलग्राद के हुस्सारों की दूसरी स्क्वैड्रन सही-सलामत स्वर्ग पहुँच गई है, कहाँ रखने का हुक्म देते हैं?

बताने को तो मैं बता रहा था, मगर खुद,” - सार्जेंट मेजर मुँह पर हाथ रखकर धीरे से खांसा, - “सोच रहा था, ईश्वर दूत पीटर क्या कहेंगे, जहन्नुम में जाओ आप लोग...क्योंकि, आप खुद ही समझ सकते हैं, कि कहाँ जायेंगें घोड़ों के साथ, और...(सार्जेंट मेजर ने परेशानी से सिर खुजाया) औरतें, चुपचाप बता रहा हूँ, कुछेक रास्ते में मिल गईं थीं. मैं ईश्वरदूत से ये कह रहा था, और अपनी प्लेटून से आंख मार कर कहा, थोड़ी देर के लिए औरतों को पीछे भेज दो, और वहाँ देखेंगे. फिलहाल, परिस्थिति स्पष्ट होने तक, उन्हें बादलों के पीछे बैठने दो. मगर ईश्वर दूत पीटर, हाँलाकि आदमी आज़ाद है, मगर, सकारात्मक है. उसने फ़ौरन आंखें घुमाईं, और मैंने देखा कि उसने काफिले में औरतों को देख लिया है. ज़ाहिर है, उनके सिरों के रूमाल चटकीले थे, मील भर की दूरी से दिखाई दे रहे थे.

बन गया मुरब्बा, सोच रहा था. पूरे स्क्वैड्रन के लिए....”

‘एह,” वह बोला, “आप क्या, औरतों के साथ हैं?” और सिर हिलाने लगा.  ,

“सही है,” मैं बोला, मगर, मैंने आगे कहा, “आप परेशान न हों, हम अभी गर्दन पकड़ कर उन्हें निकाल देंगे, महाशय ईश्वर दूत.”

ओह, नहीं,” बोला, “आप यहाँ हाथों का ज़ोर न आजमाएँ!”

? तो फिर करें क्या? भला बूढा था. वैसे, आप खुद ही समझते हैं, डॉक्टर महाशय, स्क्वैड्रन का बिना औरतों के अभियान पर जाना – असंभव है.”

और सार्जेंट मेजर ने शरारत से आंख मारी.

“ये सही है,” आंखें झुकाते हुए अलेक्सेइ वसील्येविच को सहमत होना ही पडा. किसी की काली-काली आंखें और निस्तेज, दायें गाल पर तिल, उनींदे अँधेरे में अस्पष्टता से कौंध गईं. वह शर्मिन्दगी से गुर्राया, और सार्जेंट मेजर कहता रहा:

“तो, अब वो ही बोला -  ‘सूचित करेंगे’. चला गया, वापस आया, और बोला: “ठीक है. इंतज़ाम कर देंगे. और हम इतने खुश हो गए, कि वर्णन करना असंभव है. सिर्फ एक छोटी मुश्किल हुई.

ईश्वर दूत ने कहा, कि इंतज़ार करना पडेगा. मगर हमने एक मिनट से ज़्यादा इंतज़ार नहीं किया. देखता क्या हूँ, कि आ रहा है,” सार्जेंट मेजर ने खामोश और स्वाभिमानी नाय-तूर्स की ओर इशारा किया जो बिना कोई निशान छोड़े सपने से किसी अज्ञात अँधेरे में चला गया था, “देखता हूँ कि स्क्वैड्रन लीडर महाशय अपने घोड़े ‘तूशिनो के चोर’ पर तेज़ी से आ रहे हैं. और उनके पीछे कुछ देर बाद पैदल टुकड़ी का एक अजनबी कैडेट,”- अब सार्जेंट मेजर ने तुर्बीन को तिरछी नज़र से देखा और पल भर के लिए नज़र झुका ली, जैसे डॉक्टर से कुछ छुपाना चाहता है, मगर कोई दुखभरी बात नहीं, बल्कि, इसके विपरीत कोई खुशनुमा, शानदार भेद, फिर उसने अपने आप को सम्भाला और आगे बोला : पीटर ने हथेली के नीचे से उनकी ओर देखा और कहा: “तो, अब सब ठीक हो गया!” – और दरवाज़ा पूरा खोल दिया और कहा, दाईं और तीन-तीन की कतार में.”   

 

ऐ-एह, दून्का दून्का दून्का, मैं!

दून्का, मेरे बेर, -

 

अचानक, मानो सपने में, खनखनाती आवाजों का कोरस शोर करने लगा और इटालियन हार्मोनियम बजने लगा.

“पैरों के नीचे!” अलग-अलग आवाजों में प्लेटून चीखे.

ऐ-एह, दून्या, दून्या, दून्या, मैं!

प्यार करो, दून्या, मुझसे,-

 

और दूर कहीं कोरस मानो जम गया.”  

“औरतों के साथ? वैसे ही भीतर घुस गए?” तुर्बीन ने आह भरी.

सार्जेंट मेजर उत्तेजना से हँस पडा और उसने खुशी से हाथ हिलाए.

“माय गॉड, डॉक्टर महाशय. जगह का तो, जगह का - तो वहाँ अंत ही नहीं था. सफाई...पहली नज़र में देखने से लगता था, कि वहाँ पाँच और फ़ौजी ‘कोर समा सकते हैं और वो भी रिज़र्व स्क्वैड्रन के साथ, पाँच क्या – दस भी! हमारे निकट चर्च की इमारतें थीं, इतनी ऊंची, मेरे बाप, कि उनकी छतें ही नज़र नहीं आ रही थीं! मैंने कहा भी : “इजाज़त दीजिये, मैंने कहा, ये इतना सारा किसके लिए है?” क्योंकि बिल्कुल मौलिक है : सितारे लाल, बादल लाल हमारी पतलूनों के रंग जैसे...”

“और ये,” ईश्वर दूत पीटर ने कहा, “ये बोल्शेविकों के लिए हैं, जो पिरिकोप से हैं.”

“कौन से पिरिकोप से?” अपनी धरती वाली बुद्धि पर ज़ोर डालते हुए तुर्बीन ने पूछा.         

“वो, महाशय, उन्हें तो सब कुछ पहले से ही पता होता है ना. सन् बीस में, जब पिरिकोप पर हमला करते समय अनगिनत बोल्शेविक मारे गए. तो, शायद उन्हें रखने के लिए जगह बनाई गई हो.”

“बोल्शेविकों को?” तुर्बीन की रूह परेशान हो गई, “आप कुछ गड़बड़ कर रहे हो, झीलिन, ऐसा नहीं हो सकता. उन्हें वहाँ नहीं आने देंगे.”

“डॉक्टर महाशय, मैं खुद भी ऐसा ही सोचता था. मैं भी. परेशान हो गया और खुदा से पूछने लगा...”

“खुदा से? ओय, झीलिन!”

“शक न करें, डॉक्टर महाशय, सही कह रहा हूँ, झूठ बोलने की कोई वजह ही नहीं है, मैंने खुद ही उनसे बात की है, कई बार.”

“कैसा है वो?

झीलिन की आंखों से किरणें निकालने लगीं, और चहरे के नाक-नक्श तीखे हो गए. “चाहो तो मार डालो – समझा नहीं पाऊंगा. चेहरा दमकता है, मगर कैसा है – समझ नहीं पाओगे...

कभी ऐसा होता है, कि उसकी ओर देखते हो – और सर्द हो जाते हो. ऐसा लगता है, कि वह तुम्हारे ही जैसा है.

ऐसा खौफ दबोच लेता है, सोचने लगते हो, कि ये क्या है? मगर फिर, कुछ नहीं, गुज़र जाता है. चेहरा इतना विभिन्नता लिए हुए है, और बात कैसे करता है, ऐसी प्रसन्नता, ऐसी प्रसन्नता....

और अभी गुज़रेगा, नीला रंग गुज़रेगा... हम्...हाँ...नहीं, नीला नहीं (सार्जेंट मेजर ने कुछ देर सोचा), नहीं समझ सकता. हज़ारों मीलों तक और तुम्हारे भीतर से. तो, मैं कहने लगा, ऐसा कैसे हो सकता है, खुदा, तुम्हारे पोप तो कहते हैं, कि बोल्शेविक जहन्नुम में जायेंगे? तो, फिर ये सब क्या है? वो तो तुम पर विश्वास नहीं करते, और तुमने उनके लिए, देखो ना, कैसी बढ़िया बैरेक्स बनाई हैं?

“अच्छा, विश्वास नहीं करते?” उसने पूछा.

“सचमुच के ख़ुदा हो,” मैंने कहा, “मगर खुद ही, पता है, डर रहा था, गौर कीजिये. ख़ुदा से ऐसे शब्द! बस, देखा, वह तो मुस्कुरा रहा था. ये, सोचने लगा, मैं बेवकूफ, उससे क्या कह रहा हूँ, जबकि वह मुझसे बेहतर जानता है. मगर उत्सुकता थी, कि वो क्या कहेगा. उसने कहा:

“अच्छा, नहीं विश्वास करते तो ना करें, क्या कर सकते हैं. जाने दो. मुझे तो इससे ना गर्मी महसूस होती है, ना सर्दी. और, तुम्हें भी. और उन्हें भी...इसलिए कि आपके ‘विश्वास’ से न कोई लाभ होता है, ना हानि. एक विश्वास करता है, दूसरा नहीं करता, मगर सब के सब एक जैसा ही बर्ताव करते हैं : देखते-देखते एक दूसरे का गला पकड़ लेंगे, और जहाँ तक बैरेक्स का सवाल है, झीलिन, तो ये समझना चाहिए कि तुम सब मेरे लिए एक जैसे हो – युद्ध के मैदान में शहीद हुए. ये, झीलिन, समझना चाहिए, और हर कोई ये बात समझ नहीं सकता. और तुम, झीलिन, इन सवालों से तुम्हें परेशान होने की ज़रुरत नहीं है. जियो, घूमो-फिरो”.

“पूरी तरह समझाया, डॉक्टर महाशय? आँ? “पोप तो,” मैंने कहा...उसने हाथ हिलाया : बेहतर होगा, झीलिन, कि तुम मुझे पोप लोगों के बारे याद न दिलाओ. समझ नहीं पाता कि मैं उनका क्या करूँ. मतलब ऐसे बेवकूफ, जैसे आपके पोप हैं, दुनिया में कोई और नहीं हैं. चुपचाप बताता हूँ तुम्हें, झीलिन, वे कलंक है, न कि पोप”.

“हाँ, मैंने कहा, “तुम उन्हें निकाल दो, प्रभु, सबको निकाल दो! उन निठल्लों को खिलाने की ज़रुरत क्या है?

“बात ये हैं झीलिन, कि मुझे उन पर दया आती है.” वह बोला.

झीलिन के चारों ओर की चमक नीली हो गई, और सोने वाले का दिल एक अबूझ प्रसन्नता से भर गया. दमकते हुए सार्जेंट मेजर की और हाथ बढ़ाते हुए वह नींद में कराहा:

“क्या मैं किसी तरह तुम्हारी ब्रिगेड में डॉक्टर बन सकता हूँ?

झीलिन ने अभिवादन करते हुए हाथ हिलाया और प्यार से और सकारात्मक ढंग से सिर हिलाया.

फिर वह पीछे हटाने लगा और अलेक्सेइ वसील्येविच को छोड़कर चला गया. वह जाग गया, और उसके सामने झीलिन के बदले सुबह के प्रकाश में कुछ कुछ मद्धिम होती हुई खिड़की की चौखट थी. डॉक्टर ने चहरे पर हाथ फेरा और उसे महसूस हुआ कि वह आंसुओं से भीगा हुआ है. सुबह के धुंधलके में वह बड़ी देर तक गहरी-गहरी सांस लेता रहा, मगर जल्दी ही फिर से सो गया, और अब नींद गहरी थी, बिना किसी सपने के...

हाँ-, मृत्यु धीमी नहीं हुई. वह उक्रेन के शरद और फिर शीत ऋतु के रास्तों पर उड़ती हुई सूखी बर्फ के साथ-साथ चल रही थी. मशीन गनों से जंगलों में दस्तक देती. वह खुद तो दिखाई नहीं देती थी, मगर उसके आने से पूर्व किसानों का एक अटपटा-सा रोष अवश्य प्रकट होता था. वह बर्फीले तूफानों और ठण्ड में भाग रहा था, छेद वाले नमदे के जूतों में, उलझे बालों वाले, बिना ढंके सिर से फिसल रही घास के साथ और चिंघाड़ रहा था. वह हाथों में भारी-भरकम डंडा लिए था, जिसके बगैर रूस में किसी भी बात का आरम्भ नहीं होता था. हल्के लाल मुर्गे फड़फड़ा रहे थे. इसके बाद अस्त होते लाल सूरज की रोशनी में जननांगों से लटकाया गया चायखाने का मालिक-यहूदी नज़र आया. और पोलैंड की ख़ूबसूरत राजधानी वारसा में एक नज़ारा देखने को मिला: हेनरिक सिन्केविच (पोलिश पत्रकार और उपन्यासकार – अनु.) बादल में खडा हो गया और ज़हरीले ढंग से खिलखिलाने लगा. इसके बाद तो बस जैसे शैतानियत ही शुरू हो गई, फूलने लगी और बुलबुलों के रूप में नाचने लगी. उत्तेजित चर्चों के हरे गुम्बदों के नीचे पादरी घंटे बजाने लगे, और बगल में, स्कूल की इमारत में, जिसके कांच बंदूकों की गोलियों से टूट गए थे, क्रांतिकारी गीत गाने लगे.   

नहीं, दम घुट जाएगा ऐसे देश में और ऐसे समय में. शैतान ले जाए! कपोल कल्पना. पित्ल्यूरा काल्पनिक है. वह कभी था ही नहीं. ये काल्पनिक कथा इतनी लाजवाब है, जैसी कि नेपोलियन के बारे में काल्पनिक कथा, जिसका कभी भी अस्तित्व नहीं था, मगर कुछ कम दिलकश. बात कुछ और ही हुई. किसानों के इसी रोष को किसी और रास्ते पर ले जाना चाहिए था, क्योंकि दुनिया में सब कुछ इतने तिलिस्मी ढंग से बना है, कि चाहे कितना ही भागे, दैवयोग से वह हमेशा एक ही चौराहे पर मिलता है.

बहुत आसान है. कहीं कोई गड़बड़ हुई नहीं कि लोग निकल आते हैं.

और लीजिये, न जाने कहाँ से कर्नल तरपेत्स प्रकट हुआ. पता चला कि वह कहीं और से नहीं बल्कि ऑस्ट्रियन आर्मी से आया था...

“क्या कह रहे हैं?

“यकीन दिलाता हूँ.”

इसके बाद प्रकट हुआ लेखक विनिचेन्का, जो दो बातों के लिए प्रसिद्ध था – अपने उपन्यासों के लिए और इस बात के लिए कि जैसे ही सन् अठारह में जादुई लहर ने उसे बदहवास उक्रेइनी समुद्र से बाहर फेंका, सेंट पीटर्सबुर्ग शहर की व्यंग्य-पत्रिकाओं ने उसे एक पल की भी देरी किए बिना देशद्रोही कह दिया.

“और ठीक ही है...”

“खैर, ये तो मैं नहीं जानता. और इसके बाद यही रहस्यमय कैदी शहर की जेल से बाहर आया.

सितम्बर में भी शहर में किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि ये तीन आदमी क्या कर सकते हैं, जिनमें सही समय पर प्रकट होने की योग्यता थी, ऐसी छोटी सी जगह पर भी, जैसे ‘बेलाया’ चर्च. अक्टूबर में इस बारे में तीव्रता से अनुमान लगाए गए, और सैंकड़ों प्रकाशित खिड़कियों वाली रेलगाड़ियाँ शहर के पैसेंजर स्टेशन-1 से जाने लगीं, नए, अभी एक चौड़ी खाई जैसे, नए प्रकट हुए पोलैंड से होकर और जर्मनी को. टेलीग्राम उड़ने लगे. हीरे-जवाहिरात, भागती हुई आंखें, कंघी किये हुए बाल, और पैसे चले गए. भाग रहे थे साऊथ को, साऊथ को, समुद्र किनारे पर बसे शहर ओडेसा को. नवम्बर के महीने में, हाय! – सब अच्छी तरह जान गए थे. शब्द:

-    पित्ल्यूरा!   

-    पित्ल्यूरा!!

-    पित्ल्यूरा! – दीवारों से उछल रहा था, टेलिग्राम्स की भूरी रिपोर्ट्स से कूद रहा था. सुबह वह अखबारों के पन्नों से कॉफी के प्याले में टपकता, और दिव्य उष्णकटिबंधीय पेय मुँह में फौरन अप्रिय धोवन में बदल जाता. वह ज़ुबानों पर टहलता और टेलिग्राफिस्टों की उँगलियों के नीचे मोर्स उपकरणों में खटखटाता. शहर में इस रहस्यमय शब्द से संबंधित चमत्कार होने लगे, जिसे जर्मन अपने ढंग से कहते थे :

- पेतुर्रा.

इक्का दुक्का जर्मन सैनिक, जिन्हें बाहरी इलाके में लड़खड़ाते हुए घूमने की बुरी आदत पड़ गई थी, रातों को गायब होने लगे. रात को वे गायब हो जाते और दिन में पता चलता कि उन्हें मार डाला गया है. इसलिए रात को जर्मन स्टील के हेल्मेट पहनकर गश्त लगाते. वे चलते और लालटेनें चमकतीं – गड़बड़ नहीं करना! मगर कोई भी लालटेन उस गंदगी को दूर नहीं कर सकती थी, जो उनके दिमागों में उबल रही थी.

विलियम. विलियम. कल तीन जर्मनों को मारा डाला गया. ओह गॉड, जर्मन जा रहे हैं, क्या आप जानते हैं? मॉस्को में कामगारों ने त्रोत्स्की को गिरफ़्तार कर लिया!! कुछ कुत्ते के पिल्लों ने बरद्यान्का के पास रेलगाड़ी रोक दी और उसे पूरी तरह लूट लिया. पित्ल्यूरा ने पैरिस में दूतावास भेजा है. फिर से विलियम. काले सिंहली ओडेसा में हैं.

अज्ञात रहस्यमय नाम -  कौंसुल एन्नो.

ओडेसा. ओडेसा. जनरल देनीकिन, फिर विलियम. जर्मन चले जायेंगे, फ्रांसीसी आयेंगे.

“बोल्शेविक आयेंगे, प्यारे!”

“ज़ुबान को लगाम दो, बुढऊ!”

जर्मनों के पास ऐसा उपकरण है, तीर लगा हुआ – उसे ज़मीन पर रखेंगे, और तीर बताएगा कि कहाँ हथियार गड़े हैं. ये हुई ना बात. पित्ल्यूरा ने बोल्शेविकों के पास दूतावास भेजा है. ये और भी अच्छी बात है. पित्ल्यूरा. पित्ल्यूरा, पित्ल्यूरा.

 

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कोई भी, एक भी आदमी नहीं जानता था कि ये पेतुर्रा उक्रेन में क्या करना चाहता है, मगर ये तो सबको अच्छी तरह मालूम था कि वह, रहस्यमय और बिन चेहरे का (हालांकि, वैसे, अखबार समय-समय पर अपने पृष्ठों पर जो भी मिलता, उस कैथोलिक धर्माध्यक्ष की तस्वीर छाप देतें जो हर बार अलग होती थी, इस इबारत के साथ – साइमन पित्ल्यूरा), उसे, उक्रेन को, जीतना चाहता है, और उसे जीतने के लिए, वह शहर पर कब्ज़ा करना चाहता है.

खान का अग्निकांड

  खान का अग्निकांड लेखक: मिखाइल बुल्गाकव  अनुवाद: आ. चारुमति रामदास    जब सूरज चीड़ के पेड़ों के पीछे ढलने लगा और महल के सामने दयनीय, प्रक...